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लेखक- कुँवर राजेन्द्र सिंह
प्रायः मरते समय बहुत-से लोग ऐसी बातें कह जाते हैं जो वे जीवित अवस्था में कदापि न कहते । मनुष्य के ऐसे वाक्य समस्त जाति के पथप्रदर्शक हो सकते हैं क्योंकि वे शुद्ध अन्तरात्मा से निकलते हैं। इस लेख में कुँवर साहब ने विदेशी महापुरुषों के ऐसे ही अन्तिम वाक्य संग्रह करके हिन्दी-पाठकों को एक सर्वथा नवीन वस्तु भेंट को है। हमारे देश के स्वर्गगत महापुरुषों के ऐसे वाक्य भी अवश्य इधर-उधर बिखरे पड़े होंगे। क्या अच्छा हो कि कुँवर साहब या अन्य
विद्वान् इधर भी ध्यान दें। चितवन के नाटक के अन्तिम दृश्य मस्तिष्क को ऐसा सम्भ्रम कर देती हैं कि कुछ कहना तो के ऊपर यवनिका-पतन होने दर रहा
मरते भी नहीं बनता है। हमारे देश के पहले के वाक्यों में जो का दृष्टिकोण और है । अगर मरने के वक्त राम का नाम दुख और दर्द, जो अनुताप मँह से निकल जाय और समस्त जीवन चाहे जैसा व्यतीत और पश्चात्ताप या जो शान्ति हुअा हो, तो समझ लिया जाता है कि बिना किसी रोकओर सन्तोप होता है वह और टोक के वह सीधा वैकुण्ट पहुँच गया, और यदि किसी के
किसी समय के वाक्यों में होना मुँह से कोई और बात निकल गई तो किसी महात्मा के असम्भव है। उसी समय इस कठोर यथार्थता का पता लिए भी यही समझा जाता है कि वह शैतान का साथी चलता है कि जीवन केवल एक परिहास है। एक समाधि- बनेगा। सबके लिए यही कहा जाता है कि राम-नाम स्थान पर यह मृत्यु-अालेख अङ्कित है ---- "लाइफ़ इज़ रटते उनका शरीरान्त हो गया, सत्यता चाहे जो कुछ हो। ए जेस्ट, बाल थिंग्ज शो इट, ग्राई थाट सो वंस, नाउ आई इस वजह से अपने देश के बड़े आदमियों के अन्तिम नो इट" अर्थात जीवन एक परिहास है, सब चीज़े यही वाक्यों का कोई संग्रह नहीं है। विदित करती हैं। में भी कभी यही ख़याल करता था। परन्तु पाश्चात्य देशों में ऐसे वाका प्राण्य हैं, अतएव अब में जानता हूँ । जब मौत की ज़द पर उम्र आ गई हो यहाँ कुछ प्रसिद्ध आदमियों के अन्तिम वाक्य दिये
और संसार से प्रस्थान करने के सब सामान प्रस्तुत हों तब जाते हैं। उनके भो दिल खुल जाते हैं जिनके जन्म-पर्यन्त कभी अडीसन (जोजेफ) १६७२-१७१९-ये टेटलर नहीं खुले थे । भविष्य अनिश्चित होने के कारण भय-प्रद पत्रिका में प्रायः लिखते थे। १७११ में स्पेक्टेटर पत्र की होता है और प्रायः भय में सच्ची बात मह से निकल ही स्थापना की और उसी से इनको इतना लाभ हुआ कि जाती है।
१०,००० पौंड की रियासत ख़रीदी! इनका दुःखान्त नाटक ____ पहले तो कहने का कुछ मौका ही नहीं मिलता है, 'केटो' लोगों ने इतना पसन्द किया कि वह पैंतीस रातों तक क्योंकि त्रदोष के प्रकोप से ऐसा कंठावरोध हो जाता है बराबर खेला गया। इन्होंने एक दूसरा सुखान्त नाटक कि गले से आवाज़ ही नहीं निकलती है। उस पर माया लिखा, परन्तु इसे सफलता नहीं प्राप्त हुई । इनके निबंधों की . और मोह, फिर संशयग्रस्त भविष्य का भय-ये सब बाते बड़ी प्रशंसा है । इनकी शैली बहुत बढ़िया थी। अाधुनिक .
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