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________________ पारितोषिक विजेताओं की कुछ और चिट्ठियाँ शब्द-सागर ने ६००)का पुरस्कार दिलाया में एक बार फिर अपनी ओर से तथा अपने छोटे भाई - आपका भेजा हा ६०० का प्रथम पुरस्कार प्राप्त की ओर से जिसका भी पुरस्कार मिला है. धन्यवाद हुआ। धन्यवाद। मुझे अत्यन्त हर्ष है और वास्तव में मैं दता हूं। बड़ी भाग्यशालिनी हूँ कि पहले ही प्रयत्न में मुझे सबसे कमलादेवी बड़ा प्रथम पुरस्कार मिला। मेरा दृढ़ विचार है कि २९ मारवाड़ी गली, लखनऊ सावधानी से वर्ग-चिह्नों के सहारे चलकर कोई भी मनोविनोद और शब्द-ज्ञान प्राप्ति के साथ विष्णु-प्रिया श्री महालक्ष्मी जी का भी कृपा-पात्र बन सकता है। परन्तु इस पुरस्कार प्राप्ति में मुझे आपका 'संक्षिप्त शब्द-सागर' आपका भेजा हुआ क्रेडिट वाउचर २२-२-३७ का बड़ा सहायक प्रतीत हुआ है। पुरस्कार-रूप में उपलब्ध हुआ। इसके लिए धन्यवाद । कलावतीदेवी सेट यद्यपि प्रथम प्रयास में पूर्ण सफलता न मिली, किन्तु / एन० सी० सेठ Esq., . विजेताओं में अपना नाम पाने पर हर्ष अवश्य हुआ। अस्पताल-रोड, आगरा इसका प्रचार कर 'सरस्वती' पत्रिका ने अत्यन्त उपकार हिन्दी-साहित्य का किया है और साथ ही काफ़ी विनोद भी इससे बढ़ता है। इसमें 'कौमन स्यन्स' से भी प्रत्येक मनुष्य कल प्रयास से इनाम की लिस्ट में अपना नाम पा सकता मनोरञ्जन के साथ धन-प्राप्ति है। मैंने भाव की गंभीरता वा शब्दार्थ पर विशेष चमत्कार श्रापका कृपा-पत्र मिला और उसके लिए सहर्ष पाया । जैसे नं० ५ में किसी नवयुवक का......स्वाभाविक धन्यवाद । आपका पत्र पहुँचने के पूर्व मैंने 'सरस्वती' है । इसमें दो शब्द बनते थे-१ भटकना और २ अटपत्रिका से ही वर्ग नं. ७ का ३००) का प्रथम कना । स्वाभाविक शब्द पर ज़ोर था। वह अटकना ही से पुरस्कार-प्राप्ति की सूचना पा ली थी। सचमुच व्यत्यस्त- अर्थ रखता है, क्योंकि युवावस्था में प्रत्येक व्यक्ति का प्रेम रेखा-पहेलियाँ जो 'सरस्वती' में निकलती है, बड़ी सुन्दर, करना स्वाभाविक है। नं० १६ में ग्रीष्म ऋतु में सभी रोचक और अनोखी हैं और यद्यपि अनुकरण-स्वरूप गरीब-अमीर इसके ऋणी है । इसके पट और मट दो शब्द अन्य पत्रिकाओं में भी इसकी चर्चा चल पड़ी है, तदपि बनते थे, किन्तु गरीब लोग पट से लाभ नहीं उठा सकते, 'सरस्वती' की पहेलियाँ अपने ढंग की अनूठी है। उनके इसलिए मट = घड़ा सभी गरीब व अमीर ले सकते हैं संकेतों पर जिनसे वैकल्पिक शब्दों का आभास होता है, और उसके ऋणी भी हैं । इसलिए मट शब्द ही ठीक यदि तुलनात्मक विचार किया जाय तो निर्दिष्ट शब्द का निकला। आदि बहुत-सी बातें थोड़े प्रयास से जानी खोज निकालना उतना कठिन नहीं जितना कि प्रत्यक्ष-रूप जाती है । आशा है, भविष्य में भी 'सरस्वती' इसका ख़ब से प्रकट होता है। साहित्यिक मनोरञ्जन के अतिरिक्त प्रचार करेगी । इसमें धन प्राप्ति की भी सम्भावना पर्याप्त है और मुझे भवदीयविश्वास है कि वर्ग-निर्माता ने इन पहेलियों का निर्माण तारकेश करके हिन्दी-संसार का बड़ा उपकार किया है। देहरादून Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035249
Book TitleSaraswati 1937 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1937
Total Pages640
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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