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सरस्वती
मुहब्बत के अखाड़े में वह बाज़ी जीत गया था और अपने प्रतिद्वन्द्वी को उसने चारों खाने चित गिरा दिया था ।
कल जब उसे मालूम हुआ था, कांशी प्रातः शिमले को चल पड़ेगा तब उसने अपनी चिरसंचित प्रतिज्ञा को पूरा करने का फैसला कर लिया था, जो उसने एक दिन पहले इसी पहाड़ी - शिखर पर की थी । उस दिन वह यहाँ मरने आया था । सुर्ज की अवहेलना ने उसे इस हद तक निराश कर दिया था कि अपना जीवन उसे सर्वथा शून्य दिखाई देता था - नीरस और विरस ! और वह श्राया इस शिखर से गिर कर अपने इस व्यर्थ की साँसों के कारा-. गार को फ़ना करने, इस शुष्क दुःखप्रद जीवन को नष्ट करने ! लेकिन अचानक उसके कानों में उसके पूर्वजों के कारनामे गूँज उठे थे। आख़िर क्या वह उन्हीं बलवान् पहाड़ियों की सन्तान न था जो मरना न जानते थे, मारना जानते थे, जिन्होंने बीसियों मुसाफ़िरों का सर्वस्व लूट कर उन्हें खड्ड की गहराइयों में सदैव के लिए गिरा दिया था । इस घाटी में एक बड़ा भारी जल प्रपात था । उसे देखने के लिए दर्शक दूर दूर से आया करते थे । उसके सामने आया कि किस प्रकार उसके पूर्वजों में से hard sta किसी मुसाफ़िर का पथ प्रदर्शक की हैसियत से जल प्रपात दिखाने लाया और किस प्रकार उसने उसकी पीठ में छुरा भोंक कर लूट लिया और उसकी मृतक देह को गहरे खड्ड में गिरा दिया। इस दृश्य के सामने आते ही उसका हाथ कमर पर गया। लेकिन वहाँ खंजर नहीं था । अँगरेज़ों ने इन भयानक डाकुत्रों को कायर और डरपोक पहाड़िये बना दिया था। इन खूँख्वार भेड़ियों को निरीह भेड़ों में परिणत कर दिया था । परन्तु उस दिन कहीं से बदरी में उसके पूर्वजों की निडर और उद्दंड रूह व्याप गई थी और उस दिन वह फिर भेड़ से भेड़िया बन गया था और उसने प्रतिज्ञा की थी कि वह मरने के बदले मारेगा, स्वयं खड्ड में गिरने के बदले अपने रक़ीब को वहाँ गिराकर अपनी प्रतिहिंसा की प्यास बुझायेगा । उस दिन वह जहाँ मरने श्राया था, वहाँ से मारने का प्रण करके लौटा था ।
रात भर वह सो न सका था। तड़के ही कांशी चल 1. पड़ेगा, इस ख़याल से वह निशीथ नीरवता में ही उठकर केवल एक चादर ओढ़कर हरिण की भाँति कुलाचें
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[ भाग ३८
भरता हुआ यहाँ आ पहुँचा था । रात तो भला चाँद का कुछ क्षीण-सा प्रकाश भी था, परन्तु यदि घटाटोप अँधेरा भी होता तो वह इस शिखर पर पहुँच जाता । प्रतिशोध की आँखें उसे अवश्य ही मार्ग सुझा देतीं ।
आज वह अपने उद्देश में सफल हो गया था, आज उसका प्रण पूरा हुआ था। वह वापस शोली का मुड़ा ताकि वह सुर्ज के दिल से कांशी की याद को निकाल कर फिर से अपनी मुहब्बत के बीज बोये । परन्तु कुछ दूर जाकर वह फिर शिमला को पलटा । उसने सोचा कांशी की मृत्यु का समाचार सुनकर सुर्ज उदास हो गई होगी और अपने इस दुःख में उसकी ओर आँख उठाकर भी न देखेगी। वह शिमला जायगा । समय को सुर्जू के घायल दिल पर मरहम रखने की इजाज़त देगा और इस बीच में इतना रुपया इकट्टा कर लेगा कि वह सुर्ज पर उपहारों की वर्षा कर दे और उसे अपनी दौलत और मुहब्बत में इस भाँति जकड़ ले कि यदि कांशी फिर जीवित होकर भी आये तो उसे उससे न छीन सके ।
यह सोचते-सोचते उसकी पशुता गम्भीरता में बदल गई और वह चुपचाप शिमले की ओर चल पड़ा। ( ४ )
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श्रप्रैल बीता, मई, जून, जुलाई, अगस्त बीते और सितम्बर बीतने का श्राया । शिमला का मौसम ख़त्म हो गया। सरकारी दफ़्तर भी देहली और लाहौर जाने लगे । मैदान की गर्मियों से तंग आकर शिमला की पनाह लेनेवाले शिमले की सर्दी के डर से फिर वापस मैदानों की ओर चले गये । बदरी ने इस अरसे में बड़े परिश्रम से काम लिया । वह कुछ देर बाद शिमला पहुँचा था और उस समय किसी स्थायी जगह का मिलना मुश्किल था । लेकिन उसने साहस नहीं छोड़ा। जहाँ भी कहीं मज़दूरों की आवश्यकता हुई वह वहाँ पहुँच गया और फिर इस दयानतदारी से उसने अपना काम किया कि उसे आशा से भी अधिक मज़दूरी मिली। कभी वह रिक्षाड्राइवर बना, कभी कमिटी का मज़दूर; कभी उसने स्वास्थ्यविभाग में काम किया तो कभी बिजली - कम्पनी में और जब कोई काम न मिला तब स्टेशन से बाहर जाकर खड़ा हो गया और आने-जानेवालों का सामान उठाकर अच्छे पैसे ले आया। उसके अंग ईसपात हो गये। कई बार
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