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________________ संख्या ५] बदरी ४२३ को जीत लिया। अब कहीं कांशी रास्ते से हट जाय, पहाड़, पैरों में खौफ़नाक गहरा खड्ड। यही पगडंडी जो उस पर बिजली गिर पड़े, उसे मौत आ जाय, तो वह दूर से सुन्दर-सी लकीर प्रतीत होती थी, पास आने पर साहस से काम ले। वह सुर्ज को जता दे कि वह उससे मौत और ज़िन्दगी की हद दिखाई देती थी। इस खतरे किस हद तक प्रेम करता है, साबित कर दे कि वह उसके के बावजूद यात्रियों को इसी पर से होकर शिमला जाना लिए आकाश के तारे तोड़ ला सकता है, पाताल की गहरा- पड़ता था, दूसरे मार्ग से चार मील का अन्तर पड़ता था। इयों में गोता लगा सकता है। कांशी के पीछे आनेवाले लड़के एक क्षण के लिए रुक लेकिन कांशी...कांशी..., उसने उन्मत्तों की भांति गये। उन्होंने एक बार उस सिकुड़ी-सिमिटी लकीर जैसी इधर-उधर देखा और दाँत पीसते हुए बढ़कर उस झाड़ी पगडंडी पर निगाह डाली और फिर खड्ड को देखा, जो मुँह को उखाड़ फेंका जिसके पीछे कांशी छिपा बैठा था और बाये इस तरह बैठा था, जैसे हर आनेवाले को निगल जायगा फिर अपने बलिष्ठ हाथों से उस पत्थर को धकेल कर नाले और पहाड़ जैसे मूर्तिमान् गर्व बना खड़ा था। उसे देखने में फेंकने का प्रयास करने लगा जो कुछ देर पहले उन पर खड्डु की दीनावस्था का पता चलता था। ऐसा महसूस दोनों का श्रासन था। होता था, जैसे वह मुँह खोले दया की भीख मांग रहा हो । । इस बीच में कांशी जड़ी-बूटियों का सहारा लेता हुआ अभी सूरज उदय नहीं हुआ था, और सवेरे का पगडंडी पर कई कदम बढ़ गया था। साहस के साथ वे हलका अँधेरा समस्त विश्व को अपने दामन में छिपाये भी उसके पीछे हो लिये। हुए था। पूर्व में प्रकाश की किरनें इस प्रकार तारीकी सब पौधों को पकड़ पकड़ कर चलने लगे। अधिकांश में मिल रही थीं जिस तरह विष के प्याले में अमृत । मार्ग तय हो गया। कुछ ही पग रह गये थे। उस समय एक सबसे आगे कांशी जा रहा था, उसके पीछे एक लड़का भयानक ध्वनि सुनाई दी। कांशी के सिर पर एक बड़ा जोगू और फिर दस दस साल के दो कमसिन बच्चे थे। पत्थर लुढ़का पा रहा था। लड़के चीखकर पीछे हटने सब लम्बे लम्बे डग भरते जा रहे थे । आज शाम से पहले लगे । कांशी भी विद्यत्-वेग से पीछे हटा, परन्तु उसका उन्हें शिमला पहँच जाना है, इस विचार से सब पाँव फिसला और वह पौधे को पकड़े हुए खड्ड में लटक तड़के ही शोली से चल पड़े थे। अँधेरे ही अँधेरे में गया। एक चीख और पौधे की जड़ पत्थर की चोट से उन्होंने चार कोस की मंज़िल मार ली थी। पहाड़ी पगडंडी, टूट गई। कांशी कलाबाज़ियाँ खाता हुआ खड्ड में जाने लगा कभी खड्ड की गहराइयों में गुम हो जाती और कभी पहाड़ और उसके पीछे वह भयानक पत्थर, जिस तरह चूहे के की बुलन्दियों पर पहुँच जाती । कभी ऐसा प्रतीत होता जैसे पीछे बिल्ली । अाकाश से पाताल में फँस गये और कभी ऐसा दिखाई लड़के रो रहे थे और सावधानी से पीछे को हटते देता, जैसे पाताल से आकाश पर जा पहुँचे और फिर जा रहे थे। उन्होंने एक और बड़ा पत्थर देखा जो पहले अगणित मोड़े। जाते जाते सामने पहाड़ आ जाता और की सीध में लुढ़कता आ रहा था, परन्तु इस बार वे चीखे पगडंडी भी उसके साथ ही मुड़ जाती। लेकिन पहाड़ की नहीं। अब वे इसकी जद से बाहर थे। ज्यों-त्यों उन्होंने परिक्रमा के ख़त्म होते ही पहली पगडंडी साफ़ दिखाई देती वह मौत की पगडंडी समाप्त की और रोते हुए वापस और मालूम हो जाता कि अभी कुछ ही ऊपर उठ पाये शोली की ओर भाग गये। उन्होंने वह कहकहा हैं, इतना चक्कर यों ही लगा, मुश्किल से चौथाई फलींग नहीं सुना जो पहाड़ के शिखर पर खड़े दीवाने बदरी ने फ़ासिला भी तय न किया होगा। लगाया । उस समय यदि उसे कोई देखता तो डर से __ "सावधानी से'-कांशी ने अपने पीछे पीछे आने- काँप जाता । उसके बाल शुष्क और बिखरे हुए थे; उसकी वालों से कहा और उस पगडंडी पर हो लिया जो पहाड़ आँखें सुर्ख और डरावनी थीं, उसके ओंठ फड़क रहे थे और खड्ड के दरम्यान टॅगी हुई मालूम होती थी। एक और उसके चेहरे पर रुद्रता बरस रही थी। उसने सुख व्यक्ति ही कठिनाई से उस पर गुज़र सकता था। सिर पर की सेज में खटकनेवाले काँटे को निकाल दिया था। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035249
Book TitleSaraswati 1937 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1937
Total Pages640
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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