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सरस्वती
. [भाग ३८
में जाने से अरुचि-सी हो गई थी। परन्तु जब घुटने टेक सकें। फिर भले ही वह वस्तु कोई ग्रन्थ हो, त्रावणकोर के महाराज ने अपने राज्य के समस्त या पत्थर का कोई ख़ाली मकान हो या अनेक मूर्तियों मंदिरों का हरिजनों के लिए खोल दिये जाने की से भरा हुअा पत्थर का काई मंदिर हो। किसी को ग्रन्थ घोषणा की और इस सिलसिले में महात्मा जी भी से शान्ति मिलेगी, किसी का ख़ाली मकान से तृप्ति होगी, वहाँ गये तब उन्होंने मंदिरों में जाकर श्रद्धापूर्वक तो दूसरे बहुत-से लोगों को तब तक संतोष नहीं होगा देवदर्शन किये। इस अवसर पर त्रिवेन्दरम् में जब तक कि वे उन ख़ाली मकानों में कोई वस्तु स्थापित उन्होंने एक भाषण भी किया था। उसका एक हुई नहीं देख लेंगे । मैं आपसे फिर कहता हूँ कि यह भाव
लेकर आप इन मन्दिरों में न जावे कि ये मंदिर अंधअाज पद्मनाभ स्वामी के मन्दिर में मैंने जो देखा वह विश्वासों को आश्रय देनेवाले घर हैं । मन में श्रद्धाभाव मुझे कह देना चाहिए। शुद्ध धर्म की जागृति के विषय रखकर अगर आप इन मन्दिरों में जायँगे तो आप देखेंगे में मैं जो कह रहा हूँ उसका शायद अच्छे-से-अच्छा कि हर बार वहाँ जाकर आप शुद्ध बन रहे हैं और जीवितउदाहरण इसमें मिलेगा। मेरे माता-पिता ने मेरे हृदय जाग्रत ईश्वर पर आपकी श्रद्धा बढ़ती ही जायगी। कुछ में जिस श्रद्धा-भक्ति का सिंचन किया था उसे लेकर मैं भी हो, मैंने तो इस घोषणा को एक शुद्ध धर्म-कार्य माना अपनी युवावस्था के दिनों में अनेक मन्दिरों में गया हूँ। है । त्रावणकोर की इस यात्रा को मैंने तीर्थयात्रा माना किन्तु इधर पिछले वर्षों में मैं मन्दिरों में नहीं जाता था, है, और मैं उस अस्पृश्य की तरह इन मन्दिरों में जाता
और जब से इस अस्पृश्यता-निवारण के काम में पड़ा हूँ, हूँ जो एकाएक स्पृश्य बन गया हो। आप सब इस घोषणा तब से तो जो मन्दिर 'अस्पृश्य' माने जानेवाले तमाम के विषय में अगर यही भावना रक्खेंगे तो आप सवर्ण और लोगों के लिए खुले हुए नहीं होते उन मन्दिरों में जाना अवर्ण के बीच का सब भेद-भाव तथा अवर्ण-अवर्ण के मैंने बन्द कर दिया है। इसलिए घोषणा के बाद इस बीच का भी सारा भेद-भाव, जो अब भी दुर्भाग्य से बना मन्दिर में जब मैं गया तब अनेक अवर्ण हिन्दुओं की भाँति हुअा है, नष्ट कर देंगे । अन्त में मैं यह कहूँगा कि आपने मुझे भी नवीनता-सी लगी। कल्पना के परों के सहारे अपने उन भाई-बहिनों को जो सबसे दीन और दलित मेरा मन प्रागैतिहासिक काल में जब मनुष्य ईश्वर का समझे जाते हैं, जब तक उस ऊँचाई तक नहीं पहुँचा सन्देश पाषाण-धातु आदि में उतारते होंगे, वहाँ तक दिया, जहाँ तक कि आप अाज पहुँच गये हैं, तब तक उड़ता हुआ पहुँच गया।
आप संतोष न मानें। सच्चे आध्यात्मिक पुनरुत्थान में ____ मैंने स्पष्टतया देखा कि जो पुजारी मुझे शुद्ध सुन्दर आर्थिक उन्नति, अज्ञान का नाश और मानव-प्रगति में हिन्दी में प्रत्येक मूर्ति के सम्बन्ध में परिचय दे रहा था, बाधा देनेवाली चीज़ों को दूर करने का समावेश होना वह यह नहीं कहना चाहता था कि प्रत्येक मूर्ति ईश्वर है। ही चाहिए । पर यह अर्थ दिये बगैर ही उसने मेरे मन में यह भाव महाराजा साहब की घोषणा में जो महान् शक्ति है, उत्पन्न कर दिया कि ये मन्दिर उस अदृष्ट, अगोचर और उसे पूरी तरह से समझने की क्षमता ईश्वर यापको दे । अनिर्वचनीय ईश्वर तथा हम-जैसे अनन्त महासागर के आप लोगों ने मेरी बात शान्ति के साथ सुनी इसके लिए अल्पातिअल्प विन्दुओं के बीच सेतुरूप हैं। हम सब मैं आपका आभार मानता हूँ। मनुष्य तत्त्वचिंतक नहीं होते। हम तो मिट्टी के पुतले हैं, धरती पर बसनेवाले मानव प्राणी हैं, इसी लिए हमारा मन धरती में ही रमता है, इससे हमें अदृश्य एक प्रसिद्ध ज्योतिषी की भविष्यवाणी ईश्वर का चिंतन करके संतोष नहीं होता । कोई- सन् १९३७ का वर्ष कैसा होगा इस सम्बन्ध में न-कोई हम ऐसी वस्तु चाहते हैं, जिसका कि हम स्पर्श योरप के प्रसिद्ध ज्योतिषी श्री आर० एच० नेलर ने कर सकें, जिसे कि हम देख सके, जिसके कि अागे हम अपनी भविष्यवाणी एक अँगरेजी साप्ताहिक पत्र में
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