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हिन्दू-त्रियों के अपहरण के मूल-कारण वाक्यों में युवतियों को युवकों से न मिलने की सलाह भी
दी है। इस मर्यादा का स्वयं लेखक महोदय के घर में आदरणीय सम्पादक जी !
कहाँ तक पालन होता है, यह एक पड़ोसी की हैसियत से सादर वन्दे !
मुझे भली भाँति विदित है। किन्तु मैं इस विषय में कुछ सितम्बर की 'सरस्वती' में प्रकाशित श्री संतराम जी के 'हिन्दू-स्त्रियों के अपहरण के मूल कारण' शीर्षक लेख को
न कहना ही उचित समझती हूँ।
___ मैं स्वयं ऐसे वाद-विवाद को अनुचित समझती हूँ पढ़कर मेरे हृदय में जो विचार उठे उन्हें लेखबद्ध करके मैंने आपकी सेवा में प्रकाशनार्थ भेजा और वह
जिसमें वैयक्तिक आक्षेप की नौबत आ जाय। श्री संतराम जी
वयोवृद्ध और विचारवान् व्यक्ति हैं। भविष्य में इस ‘फरवरी' के अंक में प्रकाशित हुआ । लेख का उत्तर देना तो दूर रहा अपितु आपको पत्र लिखकर श्री संतराम जी ने
विषय में मेरा चुप रहना ही उनके लिए काफ़ी उत्तर है ।* वैयक्तिक रूप से मुझे अयोग्य तथा मूर्ख सिद्ध करने की
निवेदिका चेष्टा की है। उनकी समझ में मेरी उम्र की लड़कियाँ
-विश्वमोहिनी व्यास सांसारिक बातों से इतनी अनभिज्ञ होती हैं कि वे स्त्रियों पर
मार्च के अंक की कहानियाँ लगाये गये आक्षेपों को न तो समझ सकती हैं और न
'मतभेद' की उत्तमता में कदापि मतभेद नहीं हो सकता उनका उत्तर देने की योग्यता ही रखती हैं।
और वह अन्य दो कहानियों से भी उत्तम प्रतीत होती है। श्री संतराम जी को यह समझ लेना चाहिए कि प्रतिभा प्रोफ़सर अहमदअला एम
प्रोफ़ेसर अहमदअली एम० ए० की 'हमारी गली' उनकी किसी की विरासत नहीं है। मैं भी कछ न कळ लिख लेती अपनी गली है, उसमें प्रवेश करना ज़बर दस्ती होगी। हूँ और मेरा अपना छोटा-सा रेकार्ड भी है। मेर लेख में यदि सुदर्शन जी की 'कलयुग नहीं करयुग है यह !' कहानी
उन्हें नारी-दृदय का उच्छवास नहीं मिलता तो इसका यह में कदाचित् ही काई दोष निकाल सके। पर उक्त शीर्षक . अर्थ कदापि नहीं कि वह लेख मेरा नहीं है, अपितु उससे उन्होंने क्यों दिया, यह समझ में नहीं आता । 'मतभेद' में
यही प्रकट होता है कि लेखक महोदय को नारी-हृदय की रमेश और उषा के मतभेद का दर्शन सारी कहानी में होता ज़रा भी पहचान नहीं है। यह बात उनके पिछले लेख से है, जो उस के प्रादुर्भाव से लेकर पाठक को उसके अन्त भी स्पष्ट हो जाती है। श्री संतराम जी ने इस प्रकार का तक पहुँचने का अत्यन्त उत्सुक कर देता है। 'कल युग आक्षेप करके जिस मनोवृत्ति का परिचय दिया है वह नहीं' कह कर लेखक ने चाहे वर्तमान पाश्चात्य सभ्यता से कदाप क्षम्य नहीं। जब देश उन्नति की ओर अग्रसर हो प्रभावित नवयुवकों के सम्बन्ध में अपने विचार जाहिर किये रहा है और ऐसे लोगों की आवश्यकता है जो नारी- हों, पर 'कर युग है यह' का काई भाव प्रदर्शित नहीं होता। जाति की जाग्रति में सहायक हों, इस ज़माने में इस प्रकार पूरी कहानी पढ़ जाइए, पर 'करयुग है यह' की याद तक के पीछे ले जानेवाले विचार कहाँ तक उचित हैं ? इसका नहीं पाती।
-सुमेरचन्द कौशल, बी० ए० निर्णय 'सरस्वती' के पाठक स्वयं कर सकते हैं।
*श्रीमती विश्वमोहिनी जी का यह पत्र इस विवाद का आगे चलकर आपने अपने विचारों को मनोवैज्ञानिक अन्तिम लेख है। आशा है, लेखक महानुभाव इस विवाद तथ्य कहने का साहस किया है, साथ ही कलापूर्ण का यहीं से अन्त समझेगे । -सम्पादक
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