SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 167
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संख्या २] . अशान्ति के दूत .... १५५ .. को मेरी सुध भी श्राई । कह नहीं सकता, क्यों। शायद मेरी और घुघट के बीच से मेरी छोटी भौजाई बोलीप्रार्थना की मात्रा पूरी हो गई थी अथवा मेरे कोसने ने "और तेल में ज़रा-सा मोम अवश्य डाल लेना।" . उन्हें चुटीला कर दिया था। मैं क्रोध से झल्ला उठा। जी में तो पाया कि अपने खैर । उस दिन मैं अर्धसुषुप्ति की अवस्था में अभी . मंसूबों की गठरी खोलकर उनके सम्मुख पटक हूँ। फिर तक चारपाई पर ही पड़ा था कि किसी ने ज़रा ज़ोर से मेरा देखू, उनकी ज़बान कैसे चलती है। पर इस डर से कि . कंधा हिलाया । मैं आँखें मलता हुआ उठ बैठा । सामने कहीं बना-बनाया खेल ही न बिगड़ जाय, मैंने संयम से ससुराल का नाई खड़ा था। काम लिया। अपनी पत्नी की बाँह कसकर पकड़ उसे "क्यों ?" मैंने पूछा। खींचता हुआ बिना किसी को कुछ जवाब दिये स्टेशन की "अापको और बीबी को बुला भेजा है। लड़कों का ओर चल दिया। ससुराल का नाई मुस्कराता हुअा हमारे मुंडन-संस्कार है ।" उसने जवाब दिया। पीछे हो लिया। "कब जाना होगा ?" गाड़ी आई तो देर में, पर भीड़ का इतना रेला-पेला "अाज ही चलें तो अच्छा है, पर परसों तक तो लेकर आई कि मैं खिल उठा। उस भीड़ में जूते को अवश्य ही पहुँचना होगा।" खपा देना कौन बड़ी बात है ? मैं एक डिब्बे में घुस गया। • “आज ही !” मैं अानन्द से उछल पड़ा। सोचा, उसके एक कोने में ज़रा-सी जगह खाली थी। अपनी पत्नी इस यात्रा में इन जूतों को कहीं अवश्य इधर-उ को ढकेलकर मैंने वहाँ बिठा दिया। "और तुम ?” उसने पूछा। गाड़ी बारह बजे छूटती थी। पर हम दस बजे ही "दरवाजे के पास खड़ा होकर सफ़र काट दूंगा। तैयार होकर चल दिये। अब तक मेरा व्यक्तित्व इतना कौन बड़ी दूर जाना है ?” मैंने जवाब दिया। सोचा था, महत्त्व प्राप्त कर चुका था कि उस दिन घर के सभी लोग वहाँ से जूते को फेंक देना बहुत आसान होगा। पर कहाँ ? हमें गांव के बाहर तक छोड़ने आये । पर उन सबकी दृष्टि कुछ अपने आपको सिकोड़कर कुछ दोनों ओर के यात्रियों हम में से किसी पर नहीं, बल्कि मेरे पाँवों में पड़े हुए जूते को ज़रा आगे सरकजाने की प्रार्थनाकर मेरी पत्नी ने कुछ पर अटक रही थी, मानो उन चेतना-हीन चमड़े के टुकड़ों इंच स्थान प्राधे क्षण में ही बना लिया और मेरी बाँह में जीवन डालकर उन्हें समझा रही हो कि देखना कहीं खींचकर मुझे वहाँ जड़ दिया। नापित महाशय मेरे पीछे इस गँवार के पंजे को न छोड़ देना। और वह दुष्ट भी खड़े थे। झगड़ती हुई चिड़िया की तरह ची ची करता मानो मुझे "जात्रो, तुम किसी और डिब्बे में स्थान देख लो।" चिढ़ाता हुअा उन्हें आश्वासन दे रहा था। मुझे घरवालों मैंने उससे कहा। के अज्ञान पर हँसी आ रही थी और जूते की उदंडता पर "अरे ! कहाँ जाऊँगा ? यहीं बैठ जाता हूँ।" यह कहते दया। आह ! यदि वे मेरे हृदय में उस समय पैठ सकते कहते उसने एक बार मेरी पत्नी की ओर देखा, और फिर तो उनकी अाशा का बाँध बालू की दीवार की भाँति मुस्कराता हुआ मेरे पाँवों से सटकर बैठ गया। छिन्न-भिन्न हो जाता। उनके लाख यत्न और जूते की लाख मैं सब समझ गया। मुझे यह स्वप्न में भी आशा न चिल्लाहट भी मेरे निश्चय को हिला तक न सकते थे। थी कि घरवाले अपने षड्यंत्र में इस नापित को भी मिला ____ "अच्छा अब आप जाइए । अधिक कष्ट न कीजिए।" लेंगे। पर अब क्या कर सकता था ? दाँत पीस कर रह गाँव के बाहर चकर मैंने उनसे कहा। गया। मन में कहा, यहाँ न सही, ससुराल पहुंचने पर - "देखा जूते को तेल देते रहना ।” मेरी बड़ी भौजाई तो इन दोनों से पीछा छूट ही जायगा। मेरी पत्नी स्त्रियां में जा मिलेगी और यह धूर्त काम-काज में लग जायगा। "और दादा, पाँव में मेंहदी लगाना न भूलना।" फिर देखूगा, इस लाड़ले जूते की सहायता के लिए कौन रघु बोला। उसकी नस नस से शरारत टपक रही थी। अाता है। ससुरालवाले घर में मुझे ऐसे ऐसे स्थान याद .. ने कहा। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035249
Book TitleSaraswati 1937 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1937
Total Pages640
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy