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________________ सरस्वती [भाग ३८ मोटे चमड़े का एक भूसला-सा चमरौधा जूता निकाला मुहर लगा दी। चुपके से आठ आना पैसा निकालकर और उसे मेरी ओर बढ़ाता हुआ बोला- "इसे ज़रा पहन उसके हाथ में रख दिया और जूता उससे ले लिया। कर देखिए । आपकी चिढ़-विढ़ सब दूर हो जायगी।" .- जूता देखकर मेरे सिर से पाँव तक आग दौड़ गई। घर में घुसते ही ख़बर फैल गई । घरवाले मुझे घेरकर श्राधी जलेबी को जो अभी तक बची थी, मैं दोने में ही छोड़- खड़े हो गये । प्रशंसा की वे नदियाँ बहाने लगे. मानो कर उठ खड़ा हुआ। इससे उसे और भी लाभ हुअा। मैं विश्व-विजय से लौट रहा हूँ। मैंने सँभलने की तो बहुत उसने चुपके से एक जूता मेरे उठते हुए पैर में ठूस दिया। कोशिश की, पर व्यर्थ । आख़िर हूँ तो मनुष्य ही। प्रशंसा और वह कम्बख़्त ऐसा ठीक बैठा, मानो मेरी ही नाप लेकर का वह उमड़ता हुश्रा वेग सीधा मेरे मस्तिष्क में जा " बनाया गया हो। मेरे झटकने पर भी वह पाँव से फिसला पहुँचा। मैं मद-मत्त हो उठा । बग़ल से जूता निकालकर तक नहीं। इससे वह देहाती और भी शेर हो गया। प्रसन्नता उसे पाँव में पहन लिया और अकड़कर चलते हए मेरे दिखाता हुआ बोला-"यह तो बना ही आपके पाँव के मुख से भी जूते के प्रति एक-आध प्रशंसा का वाक्य निकल लिए है। आपको तो यह लेना ही होगा।" ही गया। अब तो उन लोगों की प्रसन्नता का वारापार न "लेना ही होगा ?" मैंने आश्चर्य से उसकी ओर रहा। मेरी पीठ थपथपाते हुए मेरी बड़ी भौजाई ज़रा जोश देखा और अभी कुछ और कहने ही जा रहा था कि रघु से बोलीं-"देखना, कहीं अब इसे उतार न देना।" फिर बोल उठा-"क्या दाम है इसका ?" "यह भी कभी हो सकता है। मैंने प्रशंसा-द्वारा 'दाम तो है दो रुपया, पर आप क्या देंगे ?" प्रेरित निश्चय-भरे स्वर में कहा। "कल भी नहीं। मुझे चाहिए ही नहीं।" अपने हाथ कहने को तो मैं यह कह गया, पर सारा जोश दो से जूता उतारकर मैंने ज़मीन पर फेंकते हुए कहा। दिन में ही ठंडा पड़ गया। इतने समय में ही जूते ने मेरे ___"अरे ! कुछ तो कहिए।" पाँव को छलनी कर दिया था। छाले फूट फूट कर पकने "अाठ आना ।" मेरे रोकते रोकते भी रघु फिर और पक पककर फिर फूटने लगे। एक एक पाँव चलना बोल उठा। भारी हो रहा था । जी में तो आता था कि उस जूते को - अब तक थोड़ी-सी भीड़ हमारे इर्द-गिर्द इकट्ठी हो उतारकर नाली में फेंक दूं, पर झूठी लाज कुछ नहीं करने चुकी थी। रघु की बाँह कसकर पकड़ते हुए उस भीड़ को देती थी। घर के बड़े से लेकर छोटे तक की अोर कातर चीरता हुअा मैं तेज़ी से जाने लगा। , तथा दीन नेत्रों से देखता था कि शायद उनमें से कोई "अरे आप तो भाग चले। दो रुपया न सही। कुछ स्वयं ही मुझ पर तरस खाकर उस कम्बख्त जूते को उतार कम ही दे दीजिए"। यह कहता हुआ वह मेरे पीछे हो लिया। देने की सलाह दे दे। पर कहाँ! उन्हें तो मेरे पाँवों के लोगों ने भी उसका साथ दिया । लिए मेंहदी पकाने तथा जूते को कड़वे तेल से तरबतर मैं चुप रहा। करने के सिवा और कुछ सूझता ही नहीं था। अब करूँ "एक रुपया देंगे?" तो क्या ? सहसा ईश्वर की याद आ गई । लगा प्रार्थनाओं"नहीं।" द्वारा उसी की रहस्य-मय पर सर्वव्यापक अनुकम्पा को "बारह पाना। जगाने । इसी झगड़े में चार दिन और बीत गये। ईश्वर "नहीं"। मैं चिल्लाया। महोदय ने करवट तक न बदली। अब और किसकी शरण "अच्छा निकालिए आठ अाना ही।" जाता। इस आशा में कि शायद भलकर उस शरीर-रहित अब ? एक बार जी में तो पाया कि इनकार कर हूँ। आत्मा की दिव्य दृष्टि इधर पड़ जाय, मैं ऊपर से तो प्रार्थआखिर आठ आना भी तो रघु ने ही कहा था। पर उस नायें करता हुआ पर हृदय से उसे कोसता हुअा लगभग देहाती की आँखों में छिपी हु तथा लोगों के चेहरों निराश होकर बैठ गया। पर निराशा से ही तो अाशा की पर उसके प्रति झलकती हुई ने मेरी जिह्वा पर रेखा फूटती है। इससे अगले दिन ही ब्रह्माण्ड-कारी महोदय Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035249
Book TitleSaraswati 1937 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1937
Total Pages640
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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