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________________ रूस का क्रान्तिकाल के एक दृश्य वह 'कल' कभी कभी नहीं आया लेखक - श्रीयुत सद्गुरुशरण अवस्थी, एम० ए० भी-कभी ऊँचे दर्जे की मात्रा बहुत खल जाती हैं। हरियाली पर देर तक नेत्र गड़ाने से नींद आने लगती है। थोड़ा समय हुआ मुझे 'बाम्बे - मेल' से एक लम्बी यात्रा करनी पड़ी। डिब्बे में बिलकुल एकाकी था। बातें भी किससे करता ? खिड़की से इधरउधर देखा। दोनों ओर का मीलों लम्बा मैदान - जिसमें दूर पर, बहुत दूर पर, क्षितिज के पास काँपते हुए वृक्षों की धूमिल गोट लगी थी -- नेत्रों का अनुरञ्जन बहुत काल तक न कर सका । रेल की घड़घड़ाहट में वह बंजर भूमि हिल रही थी । न स्थावर सृष्टि, न उस पर टिकनेवाला जंगमजगत् । परित्यक्त सूने बीहड़ फैलाव में आँखें बेरोक-टोक संतरण करने लगीं। उस उजाड़ खंड का फीकी ग्राकृति वाला स्वामी सूखी नीरस चौड़ान से सिर उठाकर रेल की भड़भड़ाहट पर मानो त्योरी बदल रहा था । JAU ध्यान इधर से उचटकर आकाश पर जा पड़ा। रंगबिरंगे बादल घुलमिलकर ग्राकारों की सृष्टि कर रहे थे । दुम कटा हाथी, ऊँट की गर्दनवाले घोड़े, तीन पैरवाली भैंस, ताज पहने हुए मल्का विक्टोरिया, ताड़ के पेड़, पित्रलता हुआ ताजमहल, ग्वालियर की तोप, कालिञ्जर का किला, बहती हुई नमदा, हिलता हुआ नगाधिराज और न जाने कौन-कौन-से रूप बने और बिगड़े । दृष्टि का बोझ इनमें से कोई आकार न सँभाल सका । मस्तिष्क में भी विचार इसी प्रकार साकार और निराकार बनने का प्रयास कर रहे थे। उनमें इतनी घुड़-दौड़ मची थी कि समझ के दर्पण में उनकी रूप रेखा नहीं दिखाई देती थी। वे तार के खंभों की तरह ट निकल जाते । मन डिब्बे के भीतर गया । कुछ लिखने का विचार हुआ । एक रूसी घटना स्मरण आई। मैंने उसी को कहानीबद्ध करना श्रारम्भ कर दिया । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ज़ार के उत्कर्ष के अंतिम दिन थे । उसका चरम रूप देखने और दिखाने की वस्तु थी । जो विरोध उत्पन्न हो गया था उसकी ध्वनि वातावरण में व्याप्त थी । सरकारी कर्मचारी नाद-संवाहक धाराओं को ही आकाश से मिटा देने का व्यर्थ प्रयास कर रहे थे। ज़ार पाशविक अत्याचार से क्रांति के नाम को भी मिटा देना चाहता था; परन्तु वह भयापन भी था। अपनी प्राण-रक्षा के लिए ज़ार और उसके पदाधिकारी बहुत सशंक रहते थे । ज़ार को छिपाने के लिए एक ही आकार-प्रकार की तीन-चार स्पेशल ट्रेनें एक साथ छूटा करती थी । घोषणा कुछ और होती थी और काम कुछ और होता था । गोलाबारी से बचने के लिए बालू के बोरे काँटेदार तारों के बीच में स्थान-स्थान पर रक्खे रहते थे । सुकुमार स्थलों की रक्षा के लिए शरीर पर लोहे की चादर के ढक्कन रहते थे । इनक़लाबियों के प्रतिदिन के रहस्यमय व्यवहारों के कारण शासकों की साँस से भय निकलता और पैठता था । अपनी पदवन से वे चौंकते थे और अपने ही उच्छवास में उन्हें भूकम्प का धक्का अनुभव होता था । अपनी बड़ी क्षति करके यदि कहीं काल्पनिक सफलता मिल जाती तो भी बड़ा उत्सव मनाया जाता । हड्डियों को चूसनेवाला कुत्ता अपने मुँह से निकले हुए रक्त को भी बड़े स्वाद से पीता है । ज़ार और उसका सारा वैभव क्रांति की ज्वाला से बचने के लिए - अनजान में कगार की अंतिम रेखा पर खड़ा था । लड़खड़ाहट के लिए एक झोंके भर की देर थी। सरकार के बहुत-से साधन सोने की घड़ी की भाँति दिखावटी अधिक थे; कार्य-प्रेरणा का कोई विशेष महत्त्व उनमें न था । उसी समय ठेठ राजधानी में एक व्यापारी रहता . था । उसकी जाति का कोई पता न था । कहते हैं कि वह पश्चिम की ओर से श्राकर वहाँ बस गया था । उसे लोग 'ह्वारह्य' कहते थे । अँगरेज़ व्यापारियों ने उसका नाम 'टी' रख छोड़ा था । वह आकार का मोटा और प्रकार - ३४२ www.umaragyanbhandar.com
SR No.035249
Book TitleSaraswati 1937 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1937
Total Pages640
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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