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________________ ४७४ - सरस्वती [भाग ३८ दसवाँ परिच्छेद अाँसुत्रों के आवेग से वासन्ती का कण्ठ उँध गया। विल किसी प्रकार अपने को सँभाल कर उसने कहा-बाबू जी, _ पुत्र के प्रतिकूल अाचरण के कारण वसु महोदय का आप हमारे भविष्य की अोर ज़रा भी ध्यान नहीं देते। शरीर क्रमशः गिरने लगा। श्वशुर के शरीर की अवस्था आपके चले जाने पर हमारी क्या दशा होगी? और देखकर वासन्ती बहुत ही चिन्तित हो उठी। वसु महोदय वह कुछ कह न सकी। अाँसुयों ने उसका कण्ठ रुद्ध कर को अब खाने-पीने की भी इच्छा बहुत कम हुआ करती दिया। थी। इससे वासन्ती और दुखी होती। किसी किसी दिन वासन्ती को सान्त्वना देते हुए वसु महोदय ने कहातो वह बहुत ही अनुनय-विनय करती, रोती और खाने के क्या ज़रा-सा शरीर खराब हो जाने से ही काई श्रादमी मर लिए उनसे बहुत अाग्रह करती। पुत्रवधू का सन्तुष्ट रखने जाता है बिटिया ? तुम मेरे लिए चिन्ता मत करो। के लिए वे सदा ही सचेष्ट रहा करते थे, इसलिए जो परन्तु मुझे यह बहुत बड़ा दुःख रह ही गया कि बिटिया कुछ वह कहती, वे वही किया करते थे । परन्तु विधाता मैंने किया तो तुम्हें सुखी करने का प्रयत्न किन्तु कर दिया के विधान को अन्यथा करने की शक्ति तो किसी में है बहुत दुःखी। यह कष्ट मुझे साथ में लेकर ही जाना पड़ेगा। नहीं, वह होकर ही रहता है। दुश्चिन्ताओं के कारण वासन्ती ने स्निग्ध कराठ से कहा-श्राप यह बात उनका शरीर दिन दिन गिरने लगा। क्यों कह रहे हैं बाबू जी ? आपके पास आकर मैं बहुत . एक दिन की बात है। दोपहर के समय वसु महोदय ही सुखी हुई हूँ। आपको उसके लिए दुःख क्यों हो भोजन करने के लिए बैठे थे। ताई जी थाली लगा रहा है ? रही थीं। पास बैठी वासन्ती पंखा झल रही थी। उस प्रसङ्ग को रोक देने के लिए वसु महोदय ने सन्तोषकुमार कलकत्ता लौट गया था, इससे वे उस पर कहा-चलो बिटिया, हम लोग थोड़े दिन तक कहीं हवा बहुत ही क्रुद्ध हो उठे थे। परन्तु अपना सारा क्रोध वे खा श्रावें और तुम अपने इस 'बच्चे' को मोटा कर मन ही मन लिये रहे, इस सम्बन्ध में किसी से कोई बात ले श्रायो। उन्होंने कही नहीं। वासन्ती प्रसन्न हो गई। उसने कहा-बहुत अच्छी ___थोड़ी देर तक चुपचाप बैठी रहने के बाद वासन्ती . बात है बाबू जी। यह अापने अच्छा सोचा है। इससे ने कहा-बाबू जी, श्राप दिन दिन आहार छोड़ते जा आपकी तबीअत भी बहल जायगी और शरीर भी सुधर रहे हैं, इससे आपका शरीर और खराब होता जा रहा है। जायगा । यह कहकर उसने फिर पूछा-तो कहाँ चलने ___पुत्रवधू के उदास और सूखे हुए मुँह की श्रोर ताककर का विचार है ? वसु महोदय ने कहा-क्या सदा ही आदमी की खुराक “यह तो अभी नहीं ठीक किया बिटिया, लेकिन चलना वैसी की वैसी ही बनी रहती है बेटी ? बुढ़ाई का शरीर जल्द ही होगा। मुझे भी यह अनुभव हो रहा है कि ठहरा ! इसके सिवा, मेरे इनकार करने पर भी तो खिलाये आज-कल मेरी तबीअत कुछ ख़राब है। बिना तुम प्राण छोड़नेवाली नहीं हो! ताई ने कहा-काशी या इसी प्रकार के अन्य - एक हलकी आह भर कर वासन्ती ने कहा-आप किसी स्थान में चला जाय तो क्या ठीक न होगा? शरीर की अोर ज़रा भी ध्यान नहीं देते बाबू जी, इसलिए . वसु महोदय ने कहा-अच्छा तो है। काशी हो चला अापका शरीर और भी खराब होता जा रहा है। आपकी जाय । अभी से ही थोड़ी-बहुत तैयारी कर लेनी चाहिए। इस अवस्था के कारण हमें बड़ा भय हो रहा है। इस बार का हिसाब-किताब तय करके निकल पड़ना वसु महोदय ने कहा-इसमें डरने की कौन-सी बात चाहिए । है बिटिया ! मेरा शरीर जरा कुछ ख़राब रहना है, थोड़े भोजन से निवृत्त होने के बाद वसु महोदय बैठक में ही दिनों में ठीक हो जायगा। इसमें घबराने की कौन सी चले गये । वसन्ती वहीं पर बैठ कर चुपचाप अपने भाग्य बात है बिटिया ? पर विचार करने लगी। वह सोचने लगी कि श्वशुर की Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035249
Book TitleSaraswati 1937 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1937
Total Pages640
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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