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________________ संख्या ५ शनि की दशा उसे देखते ही ताई ने पूछा- तो क्या तू आज ही कलकत्ते है, वह क्या इस अवस्था के लोगों के सहने के योग्य है ? चला-जायगा? भला बताओ तो! सन्तोष ने धीमी आवाज़ में उत्तर दिया-तुम्हें किसने सन्तोष ने कहा--जब किया है तब क्यों नहीं सोचा ? बतलाया ? अब मैं क्यों इस तरह घसीटा जा रहा हूँ ? अपने कर्म ज़रा-सा मुस्कराकर ताई ने कहा--तुमने नहीं बतलाया का फल अपने आप भोग करो। बहू चाहते थे, बहू पा तो क्या मैं सुन ही नहीं सकती थी ? अभी कुल दो ही गये हो । अब क्या चाहिए ? मुझे क्या करना है ? मैं चाहूँ दिन तो तुझे यहाँ आये हुए। आज ही चलने को भी तो इसी क्षण यह सब छोड़कर चला जाऊँ। और मैं तैयार हो गया ! समझता हूँ कि शीघ्र ही मुझे ऐसा करना भी पड़ेगा। इस बात के उत्तर में सन्तोष ने कहा कि यहाँ रहने नहीं तो तुम लोगों के हाथ से छुटकारा न मिल पर मेरी तबीअत अच्छी नहीं रहती। इसके सिवा यहाँ सकेगा ? रहने में लाभ ही क्या है ? केवल झमेला ही तो लगा उत्तर की ज़रा भी प्रतीक्षा न करके सन्तोष तेज़ी से रहता है। पैर बढ़ाता हुआ घर से बाहर निकल गया । देवर के लड़के - सन्तोष की यह बात ताई के हृदय में बहुत तेज़ बाण की यह दुर्बुद्धि देखकर ताई जी सन्नाटे में आ गई। बड़ी की तरह बिध गई । एक अाह भर कर उन्होंने कहा- यह देर तक वे उसी स्थान पर बैठी रहीं। कैसी बात कहता है सन्तू ? भला ऐसा भी कहीं हो सकता है ? दुर्भाग्यवश वासन्ती पासवाले कमरे में ही बैठी थी। : घर में रहने से कहीं तबीयत खराब हो जाती है ? बेचारी बहू वह चुपचाप बैठी बैठी पति तथा ताई की सारी बातें सुन मुँह सुखाये बैठी रहती है। उसे उदास देखकर हम लोग रही थी। एक भी बात ऐसी नहीं हुई जो उसके कान तक . कितने दुःखी होते हैं, यह क्या तू समझ सकेगा ? राजरानी न पहुँच सकी हो । ताई के मुँह से उसने जब अपनी चर्चा होकर भी दुलारी हमारी सब कुछ त्याग कर बैठी है, क्या सुनी तब उसे बड़ी लज्जा आई । वह मन ही मन सोचने तू यह देखता है ? ऐसा करके और न जला सन्तू, मेरा लगी कि स्वामी की जो कुछ इच्छा हो, वे वही करें। ताई राजा भैया तो। एक बार अपने बाबू जी के चेहरे पर दृष्टि उनसे कोई बात क्यों कहती हैं ? वे यदि मुझे नहीं प्यार डालकर तो देख ! छिः ! छिः ! तू इस तरह का हो कैसे करते तो क्या कोई ज़बर्दस्ती प्यार करवा सकता है ? व्यर्थ गया ? तेरी तो बुद्धि ही जाती रही। जिस एक पराई लड़की में इस तरह की बातें कह कहकर उन्हें चिढ़ाने की क्या को तने गले से बाँध रक्खा है उसकी चिन्ता तो आवश्यकता है ? करनी ही चाहिए। वासन्ती को यह नहीं मालूम था कि मेरे पतिदेव किसी ताई की बात काटकर सन्तोष ने कहा-इतनी बातें और स्त्री को प्यार करते हैं । उससे यह बात किसी ने बततो कह गई हो, लेकिन यह नहीं देखती हो कि दोष किसका लाई ही नहीं। इसलिए स्वामी के चरित्र के सम्बन्ध में है। मैंने तो पहले ही बतला दिया था। अब मुझसे यह उसे किसी प्रकार का सन्देह नहीं हो सका । स्वामी जो उसे सब कहने की क्या आवश्यकता है ? तुम सब लोग मिल प्यार नहीं करते, घृणा की दृष्टि से देखते हैं, उसका कारण कर यदि मुझे इस तरह तङ्ग करते रहोगे तो भ . बतलाये वह कुछ और ही समझती थी। उसकी धारणा थी कि देता हूँ, मामला ठीक न होगा। अभी तो मैं घर आ भी मुझे ग़रीब की लड़की समझ कर ही वे इस प्रकार उपेक्षा जाया करता हूँ, किन्तु यदि इसी तरह की बाते जारी रहीं की दृष्टि से देखते हैं । वह मन ही मन कहने लगी-होगा। तो इस ओर देखूगा भी नहीं। - इसके लिए क्या शिकायत है ? वे यदि इसी में शान्ति पाते सन्तोष की यह बात सुनकर ताई जी डर गई। वे कहने हैं तो उनके हृदय में अशान्ति का भाव उत्पन्न करने की लगी-तू तो इतनी ही-सी बात पर क्रुद्ध हो गया। तुझे क्या आवश्यकता है ? तो लोगों के सामने मुख दिखाना नहीं पड़ता। तुझे क्या बतलाऊँ ? चारों श्रोर जो इस तरह का हँसी-ठट्टा हो रहा Shree Sudhragami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035249
Book TitleSaraswati 1937 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1937
Total Pages640
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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