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________________ एक करुण कहानी. कहानी का अन्त लेखक, श्रीयुत पृथ्वीनाथ शर्मा Presenझे उस दिन यहाँ के बड़े दफ़्तर चल दिया। कुछ ही क्षणों के बाद उसे साथ लेकर में अपने एक मित्र के पास काम लौट आया। से जाना पड़ा। मैं अभी वहाँ जाकर "देखो भई जगतराम, ये कहते हैं, तुम्हारे पास इस 26 बैठा ही था कि ज्योतिहीन परन्तु समय सोना हो ही नहीं सकता।" चंचल आँखों से मुझे घूरता हश्रा "मेरे पास!" उसने अभिमान से मेरी श्रोर देखा। CON एक व्यक्ति मेरे पास से निकल और अपने कोट की भीतरी जेब में हाथ डालकर उसमें गया। बढ़ी हुई तथा मैली अधपकी दाढ़ी, अन्दर धंसे- से सोने के पाँच-छः बड़े बड़े टुकड़े निकाल कर उन्हें मेज़ हुए गाल, रेखांकित मस्तक, रूखे बाल, फटे हुए तथा मैले- पर फेंकता हुआ बोला-"यह लीजिए। जगत का स्वर्णकुचैले वस्त्र, पाँव नंगे, सिर नंगा। इतने बड़े सरकारी स्नेह झूठा नहीं है।" दफ्तर में मानवता का यह विचित्र नमूना क्या कर रहा है, कंचन के उस अद्भुत पुजारी की ओर मैंने ज़रा गौर मैं सोचने लगा। ज़रा कुतूहल से अपने मित्र से पूछा- से देखा और मुस्करा कर पूछा-"सोने को छोड़कर क्या "यह दरिद्रता की मूर्ति कौन है ?" किसी और चीज़ से भी कभी आपने प्रेम किया है ?" __उसने मेरी अज्ञानता पर हँसकर जवाब दिया- "प्रेम !” सहसा उसके चेहरे पर एक अलौकिक "दरिद्रता की मूर्ति यह तो निरा सोना है सोना । इधर के मृदुलता खेल उठी। गम्भीर स्वर में बोला- "हाँ दफ्तरों में कौन है जो इसके व्यक्तित्व से अपरिचित हो। किया है।" डेढ़ सौ पाता है और एक सौ चालीस बचाता है।" "किससे?" ___ “एक सौ चालीस ?" मैंने अाश्चर्य से उसकी अोर "पूछते हो किससे"। उसके चेहरे पर की मृदुलता देखा। एक क्षण में ही लुप्त हो गई। अपने स्वर में एक तीखा ___ "हाँ । और यह सब सोने के टुकड़ों में इसके यहाँ व्यंग्य भर कर मेरे प्रश्न को कविता की भाषा में फँसाकर मानो मुझे लौटाता हुअा कहने लगा--- "सर्दी में सुनहरी "सोने के टुकड़ों में ?" मुझे और भी आश्चर्य हुश्रा। धूप से, वसन्त में सुनहरे फूलों से और पतझड़ में पीले "हाँ, स्वर्ण ही इसके जीवन का ध्येय है। सोने से पत्तों से।" कभी एक साँस के लिए भी अलग नहीं होता। दिन भर वह मेज़ पर पड़े हुए अपने सोने के टुकड़ों को उठाने अपने सोने के टुकड़ों की उधेड़-बुन में लगा रहता है। कभी लगा। उन्हें अपनी जेब में डालकर उसने मेरी ओर उनसे काल्पनिक महल गढ़ता है और कभी उनका माया- फिर देखा और सीधी भाषा में बोला- "बाबू जी प्रेम की जाल बुनकर अपने चारों ओर फैला लेता है। रात को कहानियाँ दिल में छिपी हुई ही शोभा पाती हैं। उन्हें अपने स्वप्नों-द्वारा सोने का एक संसार बसाकर उसी में छेड़कर जगाने से क्या लाभ ?" मग्न हो जाता है। मुझे विश्वास है कि इस समय भी यह कहकर मुझे विस्मित-सा छोड़कर वह चुपके से इसकी जेब में दो-चार सोने के टुकड़े अवश्य पड़े होंगे। वहाँ से चल दिया। “सचमुच ?" .. उसने मेरे सन्देह का कुछ जवाब न दिया। और जिस उस स्वर्ण-दीवाने की प्रेम-कहानी जानने के लिए मेरे -- राह से वह अद्भुत व्यक्ति गया था उसी राह से तेज़ी से हृदय में कुतूहल तो अवश्य उठता रहा। पर न तो अधिक मौजूद है" Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035249
Book TitleSaraswati 1937 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1937
Total Pages640
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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