SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 259
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ माँ के समीप तू सोई थी, सौभाग्य-सूर्य जब उदय हुआ । तू चली आरती जब लेकर, तेरे जीवन में प्रलय हुआ ॥ पूजा की सारी सामग्री, रह गई जहाँ की तहाँ वहीं । पर प्रिय पूजा का अधिकारी, अवनी में कोई रहा नहीं ॥ हम कितने दिन के लिए कहें, मृदु हृदयों का मिलन हुआ । क्या है जग में रह गया तुझे, जीवन-धन का ही निधन हुआ || जब प्रेम-मिलन की चाह हुई, तब चिर-वियोग की व्यथा हुई । ज्यों ही उसका आरम्भ हुआ, ही समाप्त वह कथा हुई || खिलते ही मुरझा गई हाय, तू भोली भाली नई कली । किस निठुर नियति के हाथों से, तू इस प्रकार है गई छली ॥ अनुराग नया अभिलाष नया, व्यवहार नया शृङ्गार नया । पल भर में सहसा लुप्त हुआ, वह सोने का संसार नया ॥ तू कभी नहीं कुछ कहती है, चुपचाप सभी कुछ सहती है । जग में रस-धारा बहती है, पर तू प्यासी ही रहती है || तेरे मन में ही छिपी हुई, रोती हैं सब चाहें तेरी । बाल-विधवा लेखक ? श्रीयुत ठाकुर गोपाल शरणसिंह उर के भीतर ही गूँज गूँज, रह जाती हैं हें तेरी ॥ तेरे अशान्त उर-सागर में, दुख का प्रवाह ही बहता है । जीवन- प्रदीप तेरा बाले, सब काल बुझा-सा रहता है || र को सँभालती रहती है, मन को मसोसती रहती है । निज लोलुप लोल विलोचन को, तू सदा कोसती रहती है । सुन्दर सरोज को घेर घेर, मधुपावलियाँ मँडराती हैं। वह दृश्य देखकर क्यों बाले, तेरी आँखें भर आती हैं ॥ वल्लरी लिपट कर तरुवर से, जब फूली नहीं समाती है । उस प्रेमालिंगन को विलोक, क्यों तू उदास हो जाती है | लुट गया हाय, सब कुछ तेरा, जग में किसकी यों लूट हुई । सुख- सामग्री जगतीतल की, तेरे हित विष की घूँट हुई || बस मूल मंत्र है त्याग तुझे, वस्तु का ध्यान नहीं । इस दुनिया में है हुआ तुझे, अपनेपन का भी ज्ञान नहीं । चढ़ते सूरज की दर से, सब दुनिया पूजा करती है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat २४७ परस्त हो गये दिनकर पर, बस तू ही जग में मरती है । है कौन समझ सकता बाले, तेरी दुनिया की बातों को । तेरे सन्ताप-भरे उर की, मृदु घातों को प्रतिघातों को || चुकती है नहीं निशा तेरी, है कभी प्रभात नहीं होता । तेरे सुहाग का सुख बाले, आजीवन रहता है सोता || हैं फूल फूल जाते मधु में, सुरभित मलयानिल बहती है । सब लता वल्लियाँ खिलती है, बस तू मुरझाई रहती है ॥ शुचि विफल प्रेम की ज्वाला में, तू हरदम जलती रहती है । अपने मृदु-भाव- प्रसूनों को, तू नित्य कुचलती रहती है ॥ अविरल हग-जल का स्रोत चपल, है तेरे जीवन का पल पल । भीगा ही रहता है हरदम, हा तुझ अभागिनी का अंचल ॥ शायें अभिलाषायें, कारागृह में बन्द हुई । तेरे मन की दुख ज्वालायें, मेरे मन में कुछ छन्द हुईं ॥ किस कवि में है यह शक्ति भला, कह दे आन्तरिक व्यथा तेरी । उर तल से निकली आहों ने, लिख दी है क्लेश-कथा तेरी ॥ सब www.umaragyanbhandar.com
SR No.035249
Book TitleSaraswati 1937 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1937
Total Pages640
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy