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________________ संख्या ४] फ्रांस का देहाती जीवन ३१९ और कलों' ने योरप के कई देशों की शान्ति को प्रौद्योगिक बाज़ारों के हाथ गिरवी रख दिया है। वह मशीनों को कृषि और मजदूरों का जानी दुश्मन समझता है। इसी लिए वह हमेशा इनके उपयोग से दूर रहता है। वह अपनी प्राचीनता बनाये रखने में ही अपना गौरव समझता है । वह दिन भर कड़ी मेहनत करने पर भी नहीं घबराता, वह तो ज़िन्दगी भर मेहनत ही करना चाहता है। उसका काम कभी पूरा नहीं होता, काम में जुटे रहने में ही वह अपना परम सुख मानता है। दिन भर की कड़ी मेहनत उसे ज़रा भी विचलित नहीं कर पाती। वह मेहनत के खिलाफ शिकायत नहीं करता। उसका मनोरंजन उसका अपना छोटा-सा संसार (कुटुम्ब) है। अपने बच्चों, अपने पशुओं और अपने दरख्तों की सेवा ही उसका मनोरंजन है। सिनेमा, नाच और सकस में उसे काई आकषण नहीं। वह पुम्नक या समाचारपत्र पढ़कर ज्ञान वृद्धि करने का ढकोसला भी नहीं करता । वह अपने बगीचे में जाकर अपने फल के दरख्तों और उन दरख्तों पर चहकनेवाली चिड़ियों से अपने मनार जन का सामान इकठा कर लेता है। शाम को घर अाने पर अपनी स्त्री और नन्हें नन्हें बच्चों में हिल-मिलकर बह दिन की कड़ी मेहनत और मौसम के कष्ट को भूल जाता है। अपने छोटे-से घर में वह सारी दुनिया बसा लेता है। इसलिए, उसे बाहरी दुनिया और उसके झगड़ों [फ्रांसीसी किसानों का संगीत-विनोद ।] की ओर ध्यान देने या उन पर बहस करने की फुमत फ्रांस अपनी नवयुवतियों की फिक्र भारत के समान नहीं रहती। ही करने लगा है। प्रारम्भ से ही उनमें ईश्वर-भक्ति के फरासीसी किसान 'सन्तति-निग्रह' के नियमों पर चलना बीज बोये जाते हैं। वे धर्मभीरु, सरल, सुन्दर तथा नहीं चाहता। वह स्वभाव से संयमी होता है। तो भी कर्त्तव्यपरायण माताय होती हैं । 'कुमारी' बनकर समाज औसतन ४ से ६ सन्तान पैदा करना अच्छा समझता और युवकों के सम्मुख थिरकने का लोभ उन्हें नहीं रहता। है। हर एक किसान अपनी ज़रूरतों का ख़याल रखता है। वे सफल लेखक या सफल वकील होने की अपेक्षा सफल उसकी सन्ताने हट्टी-कट्टी और तन्दुरुस्त होती हैं। उनके गृहिणी होना पसन्द करती हैं। वे पुरुष को बाहरी संसार लालन-पालन के लिए प्रत्येक फरासीसी माता बहुत का राजा बनाकर रखना चाहती है और स्वयं भीतरी सतक रहती है। वह खुद उनकी देख-रेख करती और संसार की रानी। उनका जीवनोद्देश भारतीय मातृत्व के उनके साथ अपनी ज़रूरतें बढ़ाती व घटाती है । शिशु- उद्देश से बहुत कुछ मिलता-जुलता होता है। पालन का वह मातृत्व का पुण्य कर्तव्य समझती है। प्रत्येक लड़की को प्रारम्भिक शिक्षा या तो गाँव के अँगरेज़ माताओं की तरह वह नाज़-नवरों की जिन्दगी बसर स्कूल में दी जाती है या स्कूल के अभाव में घर में ही नहीं करती। वह 'कुमारी' रहने की अपेक्षा 'माता' माता-द्वारा। शिक्षा में अक्षर-ज्ञान से लेकर घर की सभी कहलाना अधिक पसन्द करती है। बातों का ज्ञान कराया जाता है। लड़कियाँ कालेजों में कम Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035249
Book TitleSaraswati 1937 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1937
Total Pages640
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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