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सरस्वती
[भाग ३८
रमेश फिर गम्भीर जीवन प्रारम्भ करता है। प्रभा अब एक बार शुरू करने पर पूरे उपन्यास को पड़कर ही भी विवाह का प्रस्ताव करती है, किन्तु रमेश इसे 'वेश्या- शांति मिलती है। घटना-क्रम पाठक की कौतूहल-प्रवृत्ति वृत्ति' कहकर ठुकरा देता है।
को सजग रखता है। सहृदय व्यक्तियों को उपन्यास में तीन वर्ष' ऐसे तो चरित्र-प्रधान उपन्यास है, किन्तु "स्त्री उसी प्रकार की संपत्ति है जिस प्रकार की संपत्ति हम उसमें अभिनयात्मक उपन्यास के तत्त्व भी मिलते हैं। गुलाम को, कुत्तों को अथवा अन्य जानवरों को कह सकते अजित यथार्थवादी है। वह सांसारिक वस्तुओं के स्थित हैं" (पृष्ठ १३६) आदि अप्रिय स्थल अवश्य ही खटकेंगे; रूप में ही विश्वास करता है। प्रेम उसके लिए कोरी किन्तु पूरे उपन्यास को पढ़कर वर्मा जी को बधाई दिये पार्थिव लेन-देन है और स्त्री एक आमोद-प्रमोद की वस्तु। बिना नहीं रहा जाता। रमेश श्रादर्शवादी है। वह स्त्री को देवी समझता है और
-सत्यप्रसाद थपलियाल प्रेम को आध्यात्मिकता के समकक्ष। वह धोखा खाकर ५-भवभूति- मूललेखक, महामहोपाध्याय स्वर्गीय ही अजित का अनुयायी होता है । प्रभा एक तितली है, सतीशचन्द्र विद्याभूषण, अनुवादक, पंडित ज्वालादत्त शर्मा पुरुषों को खुश करने के लिए समय समय पर रंग बदलती और प्रकाशक गङ्गा पुस्तकमाला कार्यालय लखनऊ हैं। है । सरोज आदर्श वेश्या है। वेश्या होते हुए भी हृदयहीन मूल्य सादी कापी का ) दस आने और सजिल्द का नहीं है । साथ ही ज़मींदार, रईस, वेश्यागामी, शराबी, १८) एक रुपया दो अाने है। रेलवे के टिकट एक्जामिनर आदि विभिन्न श्रेणी के लोगों यह पुस्तक संस्कृत के सुप्रसिद्ध नाटककार महाकवि का भी इस उपन्यास में सजीव और मनोरञ्जक चित्रण है। भवभूति का आलोचनात्मक परिचय है। विद्वान् लेखक ने
वर्मा जी जीवन को एक ढला हुआ सुसंगठित रूप उक्त महाकवि की जीवनी, वंश-परिचय तथा कवित्वशक्ति नहीं देते। उनके मत में "प्रत्येक व्यक्ति एक पहेली है पर प्रकाश डालने का समुचित रूप से प्रयत्न किया है।
और संस्कृति इन पहेलियों के एकत्रित समूह का दूसरा किन्तु इससे भी अधिक प्रयत्न किया है पाठकों को उक्त नाम है।" एक अदृश्य शक्ति मनुष्यों को पर्दे के पीछे से महाकवि की विचारधारा तथा उनके समय की सामाजिक नचाती-डुलाती रहती है। बुराई भलाई को ये "केवल अवस्था से परिचित कराने का। लेखक महोदय के मतानुसार तुलनात्मक व्यक्तिगत प्रश्न" समझते हैं। ये पाप और महाकवि भवभूति के तीनों ही नाटक-महावीरचरित, पुण्य को भी “मनुष्य के दृष्टिकोण की विषमता का दूसरा उत्तररामचरित तथा मालती-माधव---की रचना उस युग नाम" समझते हैं।
___ में हुई थी जब बौद्धधर्म अपने अभ्युदय की चरम सीमा इस उपन्यास में कौतूहल, रोमैन्स और घटनाक्रम पर पहुँच कर अवनति के पथ पर अग्रसर हो रहा था और बहुत ही उपयुक्त रक्खे गये हैं। सभी पात्र वांछित परिणाम वैदिक धर्म की दुन्दुभी फिर से बजनी प्रारम्भ हो गई थी। के लिए काम करते हैं। इसमें नायक कोई नहीं है। सभी महाकवि भवभूति ने अपनी उपयुक्त रचनाओं के द्वारा प्रमुख पात्र स्वतन्त्र हैं, किन्तु लेखक के दृष्टिकोणों का समर्थन वैदिक धर्म की श्रेष्ठता का प्रतिपादन करने की चेष्टा की करते हुए परिणाम की पुष्टि में योग देते हैं। प्रेम की थी। इस मत की पुष्टि के लिए विद्याभूषण जी ने इन विफलता दिखाने में उपन्यासकार सफल हुए हैं। घटना- तीनों ही नाटकों से बहुत-से प्रमाण उद्धृत किये हैं, जो क्रम इतना स्वाभाविक हो गया है कि उपन्यास उपन्यास सर्वथा मान्य हैं। नहीं मालूम पड़ता।
महाकवि भवभूति की रचनाओं पर उनके युग का ___सरोज से चरित्र-चित्रण में मानव जीवन की उपादेयता. कितना अधिक प्रभाव पड़ा है और उनकी रचनाओं में
और श्रेष्ठता की ध्वनि है। 'सेवा सदन' की सुमन प्रतिफल के इतिहास की कितनी अधिक और प्रामाणिक सामग्री बिखरी लिए व्याकुल होकर कुछ अस्वाभाविक-सी हो जाती है, किन्तु पड़ी है, इस बात की विवेचना विद्याभूषण महोदय ने सरोज एक शांतप्रेमिका के रूप में गालियाँ सुनती रहती है। महाकवि के द्वारा निर्मित नाटकों में आये हुए पात्रों के सरोज का चरित्र आदर्श है, किन्तु अस्वाभाविक नहीं है। पारस्परिक संलाप तथा क्रियाकलाप की आलोचना के
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