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________________ -३९५ ... . सरस्वती [भाग ३८ आठवाँ परिच्छेद विचारे दुर्दान्त मनोवृत्ति की प्रेरणा से ज्ञानहीन होकर बुआ जी का पत्र पुत्र-वधू का मैंने किस प्रकार सर्वनाश कर दिया है, शायद राधामाधव बाबू के दिन जिस तरह बीत रहे थे, उसी मैं इसका प्रतीकार किसी प्रकार भी नहीं कर सकता हूँ। तरह बीतने लगे। उन्हें देखकर एकाएक यह कोई नहीं वासन्ती भी जहाँ तक हो सकता, अपनी मानसिक समझ पाता था कि उनके मन में किसी प्रकार की अशान्ति अवस्था को श्वशुर से छिपाये रखने का प्रयत्न किया करती का भाव है या उनमें किसी प्रकार का परिवतन हुअा है। थी। विवाह के समय वह निरा बच्ची तो थी नहीं। अवस्था प्रतिदिन सन्ध्या-पूजा से निवृत्त होने के बाद वे काम-काज में साथ हो साथ उसके ज्ञान में भी बराबर वृद्धि होती जा में लग जाते और सभी काम समाप्त किये बिना वे न रही थी और उसे अब यह समझना बाक़ी नहीं रह गया था उठते। दोपहर में वे अन्तःपुर में भोजन करने के लिए कि मेरी वास्तविक अवस्था क्या है। परन्तु उसके दुःख के जाते। वासन्ती को वे अपने पास बैठाकर भोजन कारण कहीं श्वशुर के हृदय पर श्राघात न लगे, इस कराया करते थे। एक दिन वासन्ती ने इस विषय में अाशङ्का से अपने मन का भाव उन पर वह किसी प्रकार श्राप त्ते की थी, इससे वे दुःखी हुए थे। तब से वासन्ती भी नहीं प्रकट होने देना चाहती थी। उसके पति का का भोजन करने का स्थान राधामाधव बाबू के समीप ही व्यवहार किस प्रकार हृदय-विदारक था, यह भला बुद्धिमती . हुआ करता था। वासन्ती कैसे नहीं समझ सकती थी? बसु महोदय सभी कुछ चुपचाप सहन करते जा रहे विवाह के बाद बुबा जी जब इलाहाबाद के लिए थे। वे केवल उसी समय अत्यधिक दुःखी हुआ करते थे रवाना हुई तभी सन्तोष कलकत्ते चला गया था, वहाँ जब वेदना से पीड़ित दीन-हीन वासन्ती उनके दृष्टि-पथ से वह लौट कर आया नहीं। पु. के इस अनचित में अा पड़ती। उसे देखकर राधामाधव बाबू के हृदय आचरण से वसु महोदय बहुत ही मर्माहत हुए थे। परन्तु को इतनी अधिक यन्त्रणा होती कि उसके आवेग को सहन वे थे बहुत ही धीर पुरुष, इससे उनके हृदय की अशान्त करना असम्भव हो जाता। वे यह बात अच्छी तरह जानते का किसी को आभास तक नहीं मिल सका। उन्हें यह थे कि वासन्नी के सुख-दुःख का मैं ही एक-मात्र कारण किसी प्रकार भी सह्य नहीं था कि बाहर के लोग मेरे पुत्र हूँ। वे प्रायः सोचा करते कि उच्छङ्खलता के कारण मेरा के व्यवहार के सम्बन्ध में जैसी-तैसी आलोचना करते फिरें। पुत्र मेरे अधिकार से निकला जा रहा था, उसे ठिकाने परन्तु वे यह भी अनुभव किया करते थे कि पुत्र का यह पर लाने के लिए ही मैंने वासन्नी के साथ उसका विवाह अाचरण क्रमशः भाई-बिरादरी और नातेदार-रिश्तेदार किया है। परन्तु ऐसा करके मैंने वासन्ती को कैसी दुर्दशा लोगों को मालूम हुए बिना न रहेगा। यह सोच कर वे में डाल दिया है। और भी दुखी हश्रा करते थे। बार बार सोचने पर भी ___वासन्ती जब कभी राधामाधव बाबू के दृष्टिपथ पर यह बात उनकी समझ में नहीं आती थी कि इतनी सुन्दर श्राती, उसके मुख पर विवाद की छाया वर्तमान रहती। हाने पर भी वासन्ती सन्तोष को क्यों नहीं पसन्द आ सकी। नीले कमल के समान उसकी सुन्दर सुन्दर आँखों में तो क्या अनादि बाबू की कन्या वासन्ती की अपेक्षा अधिक कालिमा की रेखा उदित हो पाई थी। उसके मुआये सुन्दर है ? सम्भव है कि वह गुणवती हो, किन्तु वासन्ती हुए मुँह पर दृष्टि स्थिर करके वे गम्भीर चिन्ता में निमग्न किसी के प्यार करने के योग्य नहीं है, यह बात उनकी हो जाते। वे सोचते कि मामी के कठोर शासन में तरह- धारणा से परे थी। तरह के दुःख सहते रहने पर भी उस दिन दीपक के क्षीण वासन्ती कभी किसी तरह का ठाट-बाट नहीं बनाती अालेोक में वासन्ती का मुख इस तरह सूखा नहीं दिखाई थी। वह सदा बहुत सादी पोशाक में रहा करती थी। पड़ा, उसके चेहरे पर इतनी उदासी नहीं मालूम पड़ी। उसके मुखमण्डल पर किसी प्रकार का तेज नहीं रहता था । अनुताप से उनका हृदय परिपूर्ण हो उठता। उसी क्षण उसे इस प्रकार की मलिन अवस्था में देखते ही राधामाधव उनके हृदय में यह बात अाया करती कि बिना सोचे- बाबू यह सोचा करते थे कि अतुलित ऐश्वयं के बीच में Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035249
Book TitleSaraswati 1937 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1937
Total Pages640
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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