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________________ संख्या ६] शनि की दशा देने की ज़रूरत नहीं है। यह बात कहकर वे चले आ रहा था । मुँह से कुछ भी न कह कर उसने स्वयं बायें गये। __हाथ से पंखा झलना शुरू कर दिया। कुछ देर के बाद ___ बासन्ती हक्का-बक्का हो गई। वह कुछ सोच ही रही वसु महोदय को जब चेतना आई तब उन्होंने बहुत ही थी कि वसु महोदय ने क्षीण कंठ से पुकारा-बिटिया। भर्राई हुई आवाज़ से पुकारा--बहू ! बासन्ती उतावली के साथ चलकर शय्या के पास श्वशुर के मुँह के समीप झुककर उसने कहा--क्या पहुँच गई और उनके मुँह के सामने ज़रा-सा झुक कर है बाबू जी ? कहने लगी-बाबू जी, क्या मुझे बुला रहे हैं ? वसु महोदय ने कहा-~-वह कहाँ गया ? वसु महोदय ने कहा-बड़ी प्यास लगी है। बासन्ती काई भी उत्तर नहीं दे पाई थी। इतने में बासन्ती ने शीशी से थोड़ी-सी दवा एक कटोरी में ताई जी आ गई । सन्तोष को सामने देखते ही वे रोने उँडेलकर उनके "ह में डाल दी। वसु महोदय दवा लगी, मुँह से कुछ कह न सकीं। पी गये। तब उन्होंने क्षीण-कंठ से पुकारा-भाभी ? वसु महोदय ने कहा-सन्तू, पास आ जा। बासन्ती ने कहा-ताई जी पूजा करने गई हैं। ज़रा-सा आगे बढ़कर सन्तोष जैसे ही पिता के समीप वसु महोदय ने कहा-मुझे पंखा कौन हाँक अाया, वे उसकी ओर ताक कर कहने लगे-सन्तू, बेटा, रहा है ? आज मैं चल रहा हूँ। आज तुझसे एक बात कहूँगा। . बासन्ती इस प्रश्न का क्या उत्तर देती ? वह मस्तक मानेगा ? झुकाये हुए स्थिर भाव से खड़ी रही। सन्तोष ने इस बात का कोई उत्तर न दिया। उसे उन्होंने फिर कहा-बहू, सदाशिव ? कोई भी उत्तर चुप देखकर वसु महोदय ने फिर कहा-मुझे कष्ट न दे। न पाकर उन्होंने कहा-सदाशिव, बोलते क्यों नहीं हो? इतने दिनों से कष्ट सहन करता आ रहा हूँ, आज तू 'नाही' अब सन्तोष स्थिर न रह सका। उसने सँधे हुए कंठ मत करना । बोल बेटा, तू मेरी बहू को सुखी करेगा। से कहा-बाबू जी! __ सन्तोष ने भर्राई हुई आवाज़ से कहा-बाबू-मुझे . वसु महोदय के शरीर से मानो बिजली का तार छु क्षमा करना, मैंगया और उससे आहत होकर वे चौंक पड़े। उन्होंने वसु महोदय ने असन्तोषमय स्वर से कहा-बेटा, आँख खोल दी और सिरहाने के पास बैठे हुए पुत्र को अब भी तू नहीं समझ सका ! मृत्युकाल में भी मुझे देखकर क्षीण-कंठ से कहा--सन्तू, बेटा! शांति से न मरने देगा ? किन्तु मैं कहे जाता हूँ, याद पिता के मस्तक पर हाथ रखकर सन्तोष रो पड़ा। रखना, एक दिन इसके लिए तुझे.... . कुछ क्षण के बाद बासन्ती ने अश्रुगद्गद स्वर से कहा- क्रमशः वसु महोदय के श्वास के लक्षण प्रकट होने बाबू जी कैसे होते जा रहे हैं ! मैं मस्तक पर जल छोड़ती लगे । डाक्टर ने आकर नाड़ी की परीक्षा की और कह दिया हूँ, तुम ज़रा ज़ोर से हवा करो। कि अब समय नहीं है। सन्तोष रोने लगा । उसने पिता पहले सन्तोष समझ नहीं सका। बाद को जब उसके के वक्ष पर मस्तक रख कर आँसुत्रों से रुंधे हुए कंठ मस्तक पर ठंडक मालूम हुई तब उसने मस्तक उठाकर से कहा-बाबू, बाबू-सुने जाइए-यदि मुझसे हो देखा कि बासन्ती बरफ़ लेकर श्वशुर के मस्तक पर सका तो मैं श्रापकी ....। आहिस्ता-आहिस्ता रगड़ रही है । सन्तोष को तब तक इस बाद को उसे और कुछ कहने की आवश्यकता न बात का पता नहीं चल सका था कि पिता जी बेहोशी की पड़ी। वसु महोदय ने क्षीण स्वर से लड़खड़ाती हुई जिह्वा हालत में हैं। उसकी समझ में यह बात न आ सकी से किसी प्रकार कहा-बहू ! बाद को वे स्थिर हो कि उसे क्या करना चाहिए। इससे वह वहाँ से खिसक गये। शान्ति का अन्वेषण करने के लिए उनकी आत्मा कर एक बग़ल बैठ गया। बासन्ती को उस समय क्रोध शान्ति-धाम में चली गई। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035249
Book TitleSaraswati 1937 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1937
Total Pages640
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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