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________________ सरस्वती [भाग ३८ श्राकर इस घर का परित्याग न करना । तुम बुद्धिमती हो, उसकी पीठ पर हाथ रखकर दीवान जी ने कहासभी समझ सकती हो। इस घर को छोड़ कर और कहीं अच्छी तरह हैं भाई । घबराते क्यों हो ? भी तुम्हारे लिए ठिकाना नहीं है, यह बात सदा स्मरण भर्राई हुई आवाज़ से सन्तोष ने कहा-मुझे उनके रखना । एक बात मैं तुमसे और कहना चाहता हूँ। क्या पास ले चलिए। तुम मेरी यह बात स्मरण रक्खोगी बेटी ? बासन्ती उच्छव- दीवान जी ने कहा- भाई धीरे धीरे चलो, एकाएक सित भाव से रो पड़ी। तुम्हें देखने से उनकी साँस बन्द हो जाने की आशङ्का है। बड़ी देर के बाद बासन्ती को किसी प्रकार शान्त तुम अधिक उतावली मत करो। करके वसु महोदय ने फिर कहा-बेटी, सन्तोष यदि वे दोनों ही नीरव भाव से रोगी के कमरे के द्वार पर किसी दिन अपनी भूल समझ सके और तुम्हारे पास क्षमा उपस्थित हुए। कमरा खुला हुआ था। सन्तोष ने देखा, मांगने के लिए आवे तो उसे क्षमा कर देना बेटी, अभि- सामने ही उसके पिता सोये हुए हैं, सिरहाने के पास मान में आकर उसे लौटाल न देना । बोलो, बेटी, तुम यूँघट से मुँह का कुछ अंश ढंके हुए एक किशोरी बैठी उसे क्षमा कर दोगी न । है। सन्तोष ने समझ लिया कि यह और कोई नहीं है, आँसुत्रों से रुंधे हुए कण्ठ से बासन्ती ने कहा-- मेरी ही अनादृता पत्नी है। साथ ही साथ उसके मन में श्राप आशीर्वाद दीजिए बाबू जी । एक प्रकार का विद्वष का भी भाव विकसित हो पाया। वसु महोदय ने कहा- मैं आशीर्वाद देता हूँ कि वह सोच रहा था कि इसी के कारण आज मैं पिता के सन्तोष को क्षमा कर देने की शक्ति तुम्हें प्राप्त होगी। स्नेह से वंचित होकर घर से बहिष्कृत हो उठा हूँ। अतुल देखना, भाभी को किसी प्रकार का कष्ट न होने पावे। ऐश्वर का अधीश्वर होकर भी मैं आज यहाँ एक अतिथि अब एकमात्र वे ही तुम्हारी सहायक रह गई हैं। मात्र हूँ। अभिमान और क्षोभ के मारे सन्तोष का वक्ष ताई जी और बासन्ती दोनों ही रो पड़ी। वसु महोदय फटा जा रहा था। उसके मन में केवल यही बात आ रही के मुर्भाये हुए कपोलों पर आँसुत्रों की धारा बह थी कि इसके सामने ही पिता जी ने यदि कोई बात कह चली। दी तो उस समय मुझे अपार लज्जा अावेगी, वह लज्जा दूसरे दिन प्रातःकाल वसु महोदय की नाड़ी की मैं कैसे सँभाल सकूँगा। अपने काँपते हुए दोनों पैरों को अवस्था बहुत ही ख़राब हो गई । यन्त्रणा के मारे वे किसी प्रकार खींचता हुआ वह कमरे में गया और पिता छटपटाने लगे। सांसारिक ज्ञान से शून्य बासन्ती अनिमेष के चरणों के नीचे मुँह छिपा कर वह चुपचाप आँसू दृष्टि से उनके मुख का भाव देख रही थी। उसके बहाने लगा। अन्तःकरण से रुदन का जो आवेग उठता था वह उसके सन्तोष को देखकर . बासन्ती ने किसी प्रकार की भी रोके नहीं रुकता था। आज वह अपने आपको नितान्त कुण्ठा का भाव नहीं व्यक्त होने दिया। वह जैसे बैठी थी, ही असहाय समझ रही थी। उसके मन में रह-रह कर वैसी ही बैठी रही। ताई जी पूजा-श्राह्निक के लिए उठ यही बात आती कि बाबू जी यदि न जीवित रह सके तो गई थीं। वह अकेली ही बैठी थी। समीप ही घड़ी रक्खी उनके अभाव में मैं किसके पास खड़ी हो सकँगी, यह हई थी. उसकी ओर देखकर बासन्ती ने उतावली के साथ अपरिमित दुःख सहन करती हुई मुझे और कितने दिनों पंखा रख दिया और टेबिल की ओर बढ़ी। वह पंखा तक जीवित रहना पड़ेगा। उठाकर सन्तोष धीरे-धीरे झलने लगा। बासन्ती को दुःसह वेदना में सारा रास्ता काटकर प्रातःकाल उठती देखकर सदाशिव बाबू उसकी ओर अग्रसर हुए। सन्तोष घर आ पहुँचा । सीढ़ी से चढ़कर जैसे ही वह दूसरी बासन्ती ने मृदु कंठ से पूछा-कौन-सी दवा दूँ ? मंज़िल पर पहुँचा, सामने वृद्ध दीवान सदाशिव दिखाई टेबिल पर से एक शीशी उठाकर दीवान जी ने उसे पड़े। उन्हें देखते ही उसने भग्न कंठ से कहा-दादा भाई, दे दी। बासन्ती जब चलने को उद्यत हुई तब दीवान जी बाबू जी ने मृदु-कंठ से कहा-यदि सोये हों तो जगाकर दवा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035249
Book TitleSaraswati 1937 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1937
Total Pages640
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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