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________________ १७४ सरस्वती [भाग ३८ ऐसी घटनाओं के पहाड़ तो नहीं दिखा सकती, क्योंकि मेरा स्वामिनी हैं । स्त्री यदि वासना की दासी होती तो शायद 'ध्यान ऐसी बातों की ओर नहीं रहता है, फिर भी एक मानव-जाति का इतिहास पशुत्रों से अलग उज्ज्वल और उदाहरण दे देती हूँ। एक महानुभाव हैं जिनकी पत्नी ऊँचा न होता। परिश्रम करके उन्हें खिलाती हैं, उनके श्राराम का पूरा . तीसरी और अन्तिम बात मैं लेख की भाषा के सम्बन्ध ख़याल रखती हैं और वे महानुभाव उसकी अच्छी तरह में कहना चाहती हूँ। संतराम जी ने जिस 'लिपटी-चिपटी पूजा करते हैं यानी खूब मारते हैं। उस महिला से जब और 'सट गई, गढ गई' भाषा का प्रयोग किया है वह कोई कुछ पूछता है तब वह सब सुन लेती है और सिर संतराम जी जैसे घिसे साहित्यिक की लेखनी को झुकाकर चुप रह जाती है और शायद संतराम जी हैरानी शोभा नहीं देती। वयस और विद्या में श्री संतराम जी मेरे के साथ सुनें, इन दोनों में किसी तरह का वासना-पूर्ण गुरुजनों के समान हैं । इन पंक्तियों द्वारा मैं उनसे विवाद सम्पर्क नहीं है। नहीं करना चाहती। परन्तु आपने लेख-द्वारा स्त्री-जाति का .. मेरे कहने का मतलब केवल यह है कि स्त्री वासना जो अपमान किया है, पीसे हुए वर्ग को और भी पीसने की दासी नहीं है। बहुत सम्भव है कि संतराम जी को जात- की-उसके बन्धनों को और जकड़ने की जो चेष्टा की पाँत-तोड़क मंडल के मुख्य कार्यकर्ता होने के कारण और है, उसने मुझे विवश कर दिया है कि मैं भी अपने विचार अन्य विभिन्न मागों से भी केवल उन्हीं स्त्रियों के दर्शन रख दूँ। मेरा विश्वास है कि श्री संतराम जी इन पर हुए हों जो वासना की मूर्ति होती हैं। परन्तु संसार में ऐसी विचार कर अपनी ग़लती महसूस करेंगे और भविष्य में भी स्त्रियाँ हैं और बहुत हैं जो वासना की दासी नहीं, अमृत के नाम विष देकर बदनाम न होंगे। .. भारत लेखिका, श्रीमती सावित्री श्रीवास्तव भाववल्लभ, भव्य भारत ! भूलकर निज ज्ञान-गौरव क्यों बने हो आज भारत ? वेद, दर्शन, उपनिषद्, गीता तुम्हारी संपदा है, है सभी कुछ प्राप्त तुमको, भाग्य में पर क्या बदा है ? क्यों विपुल वैभव गँवाकर हो गये हो आज गारत ? कृष्ण को रटते सभी हैं पर न उनकी क्रान्तियों को, थी मिली जिनसे विजय संसार में निष्कामियों को। क्या नहीं है याद तुमको विश्व का वह महाभारत ? कहाँ तक गिरते रहोगे भ्रान्तियों में ही भटककर चढ़ चला उन्नति-शिखर पर, हो तनिक तमहर प्रभा-रतहो परस्पर प्रेम जिससे जातियों को एक कर दो व्यर्थ बंधन तोड़ दें नर-नारियों में शक्ति भर दो कर्म से ही विजय होती, कर्मवादी बनो भारत ! Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035249
Book TitleSaraswati 1937 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1937
Total Pages640
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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