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बर्मा पर अँगरेज़ों का आधिपत्य
लेखक, श्रीयुत सत्यरञ्जन सेन
नये शासन- सुधारों के अनुसार बर्मा भारत से अलग कर दिया गया है और उसके लिए पृथक् शासन-विधान की रचना की गई है। ऐसी दशा में यह जान लेना सामयिक होगा कि वर्मा का भारत से कब और कैसे सम्बन्ध स्थापित हुआ था । इस लेख में लेखक महोदय ने इसी का संक्षेप में विवरण दिया है।
र्मा का आधुनिक इतिहास जब से उसका सम्बन्ध १७ वीं व १८ वीं सदी के योरपीय व्यापारियों से हुआ है, बहुत कुछ निश्चित किया जा चुका है। ईसवी सन् के प्रारम्भ होने से कई सौ वर्ष पूर्व के तथा पीछे
उसके इतिहास की कोई शृङ्खला आज तक उपलब्ध नहीं हो सकी । चर्मी तथा पाली कथानकों में कहा जाता है कि ईसवी सन् के प्रारम्भ से लगभग ९०० वर्ष पूर्व कपिलवस्तु के अभिराजा नामक एक राजा यहाँ आये । ये अपनी सेना समेत स्थल-मार्ग से श्राये तथा लाल की खानों के प्रदेश के पश्चिमोत्तर- भूभाग को बसा कर टगाँव (आधुनिक मोगोक शहर से उत्तर) नामक नगरी का निर्माण किया और उसे अपनी राजधानी बनाकर राज्य करने लगे। यही अभिराजा आधुनिक बर्मा को बसानेवालों में अग्रणी थे । उनके पीछे उनके वंश का इतिहास भी कुछ मिलता है । परन्तु बाद में कई सौ सालों का इतिहास अज्ञात है । यदि इस काल के इतिहास का अनुसन्धान किया जाय तो भारत तथा बर्मा के धार्मिक, सांस्कृतिक, राजकीय तथा व्यापारिक सम्बन्धों पर प्रकाश पड़ने की बड़ी सम्भावना है। तु ।
प्रस्तुत लेख में हम तीसरे बर्मी युद्ध के कारणों तथा बर्मा पर अँगरेज़ों का श्राधिपत्य स्थापित होने का साधारण विवरण देंगे ।
बोडापाया के बाद उसके उत्तराधिकारी बाजी डाभी अपने पितामह के पदचिह्नों पर चलकर आसाम, मनीपुर तथा अराकान के राज घराने के गृह कलहों में योग देकर इन प्रदेशों पर अपनी सत्ता बनाये रहे । बर्मा के प्रसिद्ध वीर सेनापति महाबन्डुला ने उपर्युक्त प्रदेशों को जीता था । पर सन् १८२४ में जब अँगरेज़ों ने रंगून शहर पर छापा मारकर ११ मई सन् १८२४ को उसे हस्तगत कर लिया और सीरियम, तबाई, पेगु मर्गुई तथा मर्तबान का इलाका भी अपने क़ब्ज़े में कर लिया तब सेनापति बन्डुला इस पराजय पर कैसे चुप बैठे रह सकते थे । उन्होंने ६०,००० सैनिकों को लेकर अँगरेज़ी सेना पर धावा बोल दिया । परन्तु उनके वे सैनिक अपनी ढालतलवार व देशी बन्दूकों से युद्ध में ठहर न सके । १३०० अँगरेज़ों तथा ३००० हिन्दुस्तानियों ने २० छोटी तोपों के द्वारा ही बन्डुला की सेना को मार भगाया । इस युद्ध के
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सन् १७८२ ईसवी में बर्मा के राजा बोडापाया ने अराकान देश जीत लिया, इससे बर्मा तथा ब्रिटिश भारत की सरहद एक दूसरे से मिल गई। इसके बाद बर्मा के राजा का अँगरेज़ों से सम्पर्क हुआ और अन्त में सन् १८२४ में इनसे उसका युद्ध हो गया और अँगरेज़ों ने अराकान तथा तनासिरम के प्रदेश अपने क़ब्ज़े में कर लिये ।
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सन् १७८२ से १८२३ तक के सालों में स्याम, अराकान, ग्रासाम, मनीपुर तथा कचार आदि प्रदेशों में ब राजाओं का ही प्राधान्य था। राजा बोडापाया के राज्यकाल में रामरी - द्वीप समूह के सामन्त ने बोडापाया की तरफ़ से ढाका, चटगाँव तथा मुर्शिदाबाद के जिले को बर्मा - राज्य के अन्तर्गत कर देने की माँग पेश की । सन् १८०६ से १८१६ तक हिन्दुस्तान में बर्मा मिशन बुद्धगया श्रादि बौद्ध तीर्थों के दर्शन तथा प्राचीन अनुपलब्ध संस्कृत-पुस्तकों की खोज के लिए कई बार आये गये । परन्तु अँगरेज़ों को इन पर यह सन्देह था कि ये मिशन मराठों से मेल-जोल करने को आते हैं । इसी कारण सन् १८१७ में जब बम राजदूतों का एक मिशन अराकानी विद्रोहियों को भारतसरकार से वापस लौटाने की माँग पेश करने तथा धार्मिक पुस्तकों की खोज में लाहौर तक जाने की प्राज्ञा प्राप्त करने का आया तब वह कलकत्ते में ही रोक दिया गया ।
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