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________________ ४७२ .. सरस्वती [ भाग ३८ के मुँह की ओर दृष्टि फेरकर उन्होंने कहा-सन्तू, क्या सन्तोष के मुँह की अोर दृष्टि स्थिर रखकर वसु महोतू कल चला जायगा ? दय ने कहा--सन्तोष, तुझसे इस तरह का उत्तर पाऊँगा, कातर स्वर से सन्तोष ने कहा-इच्छा तो है। अधिक यह आशा मैंने कभी नहीं की। किसी भी कार्य के संबंध समय तक रुकने से पढ़ाई में हानि होगी। में असमर्थता प्रकट करना क्या पुरुष के लिए लज्जा का वसु महोदय का वक्ष भेदकर एक व्यथित निःश्वास विषय नहीं है ? तू मूर्ख नहीं है, पढ़ा-लिखा है। तेरे मुँह वायु में मिल गया। उन्होंने रुद्धप्राय कण्ठ से कहा- मैं से यह बात शोभा नहीं देती । इसके सिवा, बेटा, तुझे छोड़चाहता हूँ कि तू अभी से ही ज़मींदारी का थोड़ा-बहुत काम कर मेरे और कोई है नहीं, यह भी तुझे मालूम है । इस वंश देख लिया कर। मैं वृद्ध हो चला हूँ, शरीर में बल भी की सारी मान-मर्यादा तेरे ही ऊपर निर्भर है। इस ओर नहीं रह गया है, अधिक समय तक जीवित रह सकूँगा, यह यदि तू ध्यान नहीं देता तो क्या पिता-पितामह की कीर्ति नहीं मालूम पड़ता। इसके सिवा तुझे तो डाक्टरी पढ़ने नष्ट कर देना चाहता है ? यह क्या तेरे लिए गौरव की की इतनी अधिक आवश्यकता भी नहीं है । तुझे आहार- बात होगी ? तू ही मेरा एकमात्र वंश-रक्षक है दूसरा कोई वस्त्र की तो काई चिन्ता है नहीं, अतएव यदि अभी से ही है नहीं, जिसके द्वारा इस अभाव की पूर्ति कर लूँ । बेटा, तू थोड़ा-बहुत काम-काज देखने लगे तो बाद को कोई अब भी समझ जा । मेरा सभी कुछ तेरे ही ऊपर निर्भर है। झंझट न मालूम पड़ेगा । इसी लिए तुझसे कहता हूँ कि तू अब लड़का नहीं है। पढ़ा-लिखा है, हर एक बात को अब पढने की आवश्यकता नहीं है। सोच-समझ सकता है। इस समय तेरे जो विचार हैं वे पिता जी आज इस प्रकार विशेष स्नेह किस मतलब से कल्याणकारी नहीं हैं। प्रकट कर रहे हैं, यह बात सन्तोष से छिपी न रह सकी। "तो भला मैं क्या करूँ ? यह सब तो मैं बिलकुल ही पिता जी उसे अपने पास क्यों रखना चाहते हैं, यह भी नहीं समझता।" .. उसने समझ लिया। जो पिता बाल्य-काल से ही इस ओर ज़रा देर तक चुप रह कर करुण कंठ से उन्होंने फिर विशेष ध्यान रखता आया है कि कहीं पुत्र के पढ़ने-लिखने कहा-छिः ! बेटा, ऐसी बात नहीं कहनी चाहिए। यह सब में किसी प्रकार का विघ्न न होने पावे, वही आज उससे तू न देखेगा तो भला और कौन देखेगा ? दूसरी बात यह भी कह रहा है कि अब पढ़ने लिखने की कोई आवश्यकता है कि तू अब अकेला नहीं रह गया है। तूने विवाह कर ही नहीं है । सन्तोष ने सोचा कि यह सब कुछ नहीं लिया है। उसके प्रति भी तेरा कुछ कर्तव्य है ? तू मेरे है, सुषमा से मुझे दूर रखना ही उनका एकमात्र उद्देश है। ऊपर ऋद्ध हो सकता है, परन्तु उसने क्या किया है ? पुत्र को मौन देखकर वसु महोदय ने कहा-क्या तुझे उसका तो कोई अपराध नहीं है। सन्तू , भैया मेरे, अब यह पसन्द नहीं है? भी तू समझने की कोशिश कर । बुढ़ापे में मुझे सन्तोष ने दृढ़ कंठ से कहा-अब अधिक समय तो और-आगे उनके मुँह से और कोई शब्द न निकल लगेगा नहीं। थोड़े दिनों तक परिश्रम करके यदि पास कर सका। सकता हूँ तो उसे अधूरा क्यों रक्खू ? ___यह सुनकर सन्तोष ने रुद्धप्राय स्वर से कहा-“बाबू न महोदय ने कहा---जमींदारी का काम सीखना जी. मुझे क्षमा कीजिएगा। मैं आपकी समस्त प्राज्ञात्रों भी तो आवश्यक है। वह भी तो यों ही नहीं पा जायगा। का पालन करता आया हूँ, केवल......” सन्तोष का "वह सब मुझसे किसी काल में भी नहीं हो सकेगा गला उँध गया। धीरे-धीरे उठ कर वह चला गया। बाबू जी। मैं उसे जीवन-पर्यन्त न समझ सकूँगा। आप वसु महोदय उसी तरह अकेले ही बैठे बैठे बड़ी देर तक हैं, दादाभाई हैं ।" सोचते रहे । बालिका की भावी दुखमय अवस्था का अनुभव ___ दादाभाई से उसका तात्पर्य था दीवान सदाशिव से। करके अनुताप से उनका हृदय परिपूर्ण हो उठा। उस सन्तोष बाल्य-काल से ही उन्हें दादाभाई कहकर पुकारता रात को उन्हें फिर नींद नहीं आ सकी। श्राया है। दूसरे दिन सन्तोषकुमार दोपहर को अन्तःपुर में गया। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035249
Book TitleSaraswati 1937 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1937
Total Pages640
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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