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- सरस्वती
[भाग ३८
अलग हाल की आवश्यकता पड़ी। अतएव एक बड़ा . उन्हें ब्रिटिश म्युजियम के रीडिङ्ग-रूम के लिए टिकट नहीं हाल बनवाया गया जो अब तक काम में आ रहा है। मिलता। पर एक बार जिसे भीतर जाने का अवसर प्राप्त ___यह हाल गोलाकार है। चारों ओर किताबों की अल- हो जाता है तो वह मानो ज्ञान के महासागर में उतर जाता मारियाँ हैं और हर एक विभाग में ग्रन्थकारों के नाम है। उसमें किताबों की अलमारियाँ इतनी हैं कि यदि वे लिखे हैं। हाल के बीच में सुपरिटेंडेंट और उनके एक-एक कर पाँत में खड़ी की जायँ तो उनकी पंक्ति छियालिस सहायक कर्मचारियों का स्थान है। एक टेबिल पर पुस्तकों मील लम्बी हो जायगी। पर प्रबन्ध इतना सुन्दर है और का बृहत् सूचीपत्र है जिसमें हर महीने नई आनेवाली वे सब यहाँ इतनी शृंखलाबद्ध रक्खी गई हैं कि बात की पुस्तकों का नाम जोड़ा जाता है। अब तो पार्लियामेंट का बात में जो पुस्तक आप चाहें वह आपके सम्मुख लाई जा कानून हो गया है कि जो भी नई किताब छपे उसकी एक सकती है। जिन पुस्तकों को श्रापको दूसरे दिन ज़रूरत हो प्रति म्युज़ियम में अवश्य भेजी जाय । इसके अलावा और यदि आप एक पुर्जा सुपरिंटेंडेंट को दे दें तो वे पुस्तके कुछ दान-द्वारा, कुछ ख़रीद-द्वारा इसका कोष दिन-रात उचित समय पर आपके टेबिल पर मौजूद रहेंगी। इसके बढ़ता ही रहता है। इसलिए सूची-पत्र का आखिरी फारम अलावा एक 'नार्थ लाइब्रेरी है, जहाँ श्राप हस्तलिपि तक सम्पूर्ण रहना प्रायः असम्भव-सा है। इसकी उपयो- अथवा ऐसी पुस्तकों का अध्ययन कर सकते हैं जो अपूर्ण गिता इस समय इतनी बढ़ गई है कि जहाँ पहले आधे बँधाई या अन्यान्य कारणों से रीडिंग-रूम में लाने योग्य दर्जन लोग ही इसको काम में लाते थे, अब करीब पाँच नहीं हैं। सौ व्यक्तियों के लिए भी यहाँ यथेष्ट स्थान नहीं है। यहाँ ब्रिटिश म्युज़ियम सचमुच में ज्ञान का अनन्य भाण्डार देश-विदेश के विद्यार्थी अध्ययन करने आते हैं । यदि यह है। उसमें हर एक आदमी की शिक्षा और मनोरञ्जन का पाठ्य-स्थान खुले आम छोड़ दिया जाता तो विद्वानों का सामान है, जो यह समझते हों कि रोटी-दाल के परे भी कार्य वहाँ उचित रीति से नहीं चल सकता था। जब कोई कोई अपूर्व वस्तु है। यह सम्भव नहीं कि कोई आदमी श्रादमी काई गम्भीर विषय लेकर उसका अध्ययन करने उसके भीतर जाय और बिना कुछ सीखे उसके बाहर लगता है तब वह किसी प्रकार की बाधा वा अड़चन खुशी चला आये। . से बरदाश्त नहीं करता। इसलिए हर एक को एक अलग किसी देश की सभ्यता केवल लोगों के आचरण और टेबिल और एक कुसी मिलती है और स्थानाभाव के प्रासादों ही पर निर्भर नहीं रहती, बरन उसके ज्ञानप्रेम पर कारण उन्हीं लोगों को प्रवेश की आज्ञा दी जाती है जिनके भी। ज्ञानप्रेम का परिचायक जैसा कि एक संग्रहालय है. अध्ययन की सामग्री किसी और जगह नहीं मिल सकती। वैसा और कोई वस्तु नहीं। यदि सचमुच हम लोग ज्ञान पहले एक आवेदन-पत्र देना पड़ता है, जिसमें अपने के पुजारी हैं तो एक ऐसा मन्दिर बनावे, जहाँ सभी छोटे अध्ययन के विषय और पुस्तकों का नाम देना पड़ता है। बड़े जाकर अपनी श्रद्धाञ्जलि चढ़ा सकें और ज्ञान का वर यदि वे पुस्तके किसी और पुस्तकालय में मिल जायँ तो पा सकें।
इसका हमको कुछ सोच न हो
यदि जीवन में हों अनेक व्यथायें । सुख की यदि खोज करेंगे नहीं __सुख-दायक होंगी हमें विपदायें ।
यदि चाहते हैं कि मनुष्य बनें लेखक, श्रीयुत राजाराम खरे
__इस मंत्र को भूल कभी न भुलायें । "सुख ही सुख है सब जो कुछ है
दुख है इसको हम जान न पायें ।।"
दुख है इसको हम जान न पायें
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