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________________ सरस्वती [भाग ३८ दो दिन के बाद ही सन्तोष को अपनी भूल मालूम हो रखने का प्रयत्न किया करती थी। वे दोनों ही श्वशुर जायगी और वह मन ही मन दुःखी होकर क्षमा माँगने और पुत्रवधू एक-दूसरे से अपनी अवस्था छिपा कर ही के लिए आवेगा। परन्तु इसका कोई लक्षण न दिखाई रखना चाहते थे । परन्तु वसु महोदय के हृदय में वासन्ती पड़ा। तब उन्होंने पुत्र को बुलाकर उपदेश किया, की हीन और मलिन मूर्ति बाण की तरह चुभा करती थी। समझाया-बुझाया, उसे डाँट-फटकार बतलाई। किन्तु लाख प्रयत्न करके भी वासन्ती उसे छिपा नहीं सकती इसका भी उस पर किसी प्रकार का प्रभाव न पड़ा। अन्त थी। निर्मम और असह्य यन्त्रणा के कारण किसी किसी में वे निराश हो गये। अब वे यह अनुभव करने लगे कि दिन तो वसु महोदय के हृत्पिण्ड की क्रिया तो मानो बन्दमैंने वासन्ती के प्रति बहुत बड़ा अपराध किया है। सी हो जाया करती थी, वे किसी प्रकार भी अपने को उन्होंने वासन्ती को बहुत-से बहुमूल्य वस्त्र और आभूषण सँभाल नहीं पाते थे। ताई जी दिन दिन देवर के शरीर दिये थे, परन्तु उन्हें वह अनावश्यक समझती रही, कोई को इस तरह गिरते देखकर बहुत चिन्तित हो रही थीं। उनका उपयोग नहीं करती थी। वह फटे-पुराने कपड़े वे छिपाकर कभी कभी सन्तोष को पत्र भी लिखा करती . पहनकर ही दिन काटा करती थी। वासन्ती की इस प्रकार थीं और हर एक पत्र में उससे यही आग्रह करतीं कि तुम की अशान्तिमय मानसिक अवस्था तथा मलिन वेश-भूषा घर चले आओ । परन्तु आना तो दूर रहा, वह किसी देखकर वसु महोदय भी बहुत दुःखी होते थे। उन्होंने दो- पत्र का उत्तर तक नहीं देता था। एक बार इस सम्बन्ध में वासन्ती से पूछा भी। इससे वह समय जिस तरह बीत रहा था, उसी तरह वह बीतता इधर थोड़े दिनों से श्वशुर को प्रसन्न करने के लिए उनके गया। उसने किसी की ओर ध्यान न दिया । श्वशुर के सामने जाते समय कुछ अच्छे कपड़े और दो-चार गहने शरीर की अवस्था देखकर वासन्ती पश्चिम की ओर जाने भी पहन लिया करती थी, किन्तु शायद संसार की अवस्था के लिए बहुत व्यग्र हो रही थी, किन्तु घर-गृहस्थी के से अनभिज्ञ वासन्ती यह नहीं जानती थी कि गुरुजनों से झंझटों तथा तरह तरह के बाधा-विघ्न के कारण यात्रा का सत्य छिपाया नहीं जा सकता। दिन क्रमशः पीछे हटने लगा। अन्त में एक दिन वसु __वासन्ती को सुखी करने के लिए वसु महोदय अपनी महोदय ने कहला भेजा कि आसाढ़ मास की अमावास्या शक्ति भर कुछ उठा नहीं रखते थे । वासन्ती से भी जहाँ के आस-पास काशी-यात्रा का दिन स्थिर हुआ है। तक बन पड़ता, वह अपनी अवस्था उनसे छिपाये ही तब वासन्ती की दुश्चिन्ता बहुत कुछ दूर हो गई। गीत लेखिका, श्रीमती तारा पाण्डेय कौन. तू मुझको बुलाती ? जननि जीवन आज मेरा, भूमि में, जल में, गगन में, __ सफल होने को हुआ है। प्रलय सा तू क्यों मचाती ? सजनि यह मधु-मास आया, मधुर मंजुल इस घड़ी में, निठुर हो मुझको रुलाती । संग प्रिय के मैं रहूँगी। कौन तू मुझको बुलाती ? चिरव्यथा को भूल कर अब, आ रहा बचपन नया, तू देखने दे हास शिशु का ? प्रेम का ही गान -गाती। हो रही ममता निराली, आज तू मुझको न भाती। कौन तू मुझको बुलाती ? कौन तू मुझको बुलाती ? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035249
Book TitleSaraswati 1937 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1937
Total Pages640
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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