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________________ संख्या १] प्रायश्चित्त [४] दक्षिण कर फेरते हुए विपिन बोला-तुम सचमुच पगली एक दिन की बात है, बात बढ़ जाने पर उत्तेजना में बन रही हो वीणा ! स्नेह के राज्य में वर्ण, जाति और अाकर विनोद कह बैठा-स्वामी राम ! स्वामी राम तो समाज की कोई भी सत्ता मैं नहीं मानता। तुम नारी हो। भक्त थे । और भक्त ज्ञानी नहीं होता, क्योंकि वह तो बस, तुम्हारा एक यही लक्षण पुरुष के लिए यथेष्ट है- साधना पर विश्वास रखता है। दूसरे शब्दों में हम उसे रोश्रो मत वीणा । यह पार्क है। कोई देखेगा तो क्या । र्ख कह सकते हैं। कहेगा ? न, मैं तुम्हें और अधिक न रोने दूंगा-किसी लतिका ने पारक्त मुद्रा में उत्तर दिया-बस अब हद तरह नहीं। हो गई मिस्टर विनोद ! अब तुमको सावधान होना पड़ेगा। ___ उस दिन के पश्चात् वीणा अब विपिन के घर पूर्ववत् स्वामी राम के लिए यदि फिर कभी तुमने ऐसे घृणित श्राने लगी थी। विशेषण का प्रयोग किया तो मैं इसे किसी तरह बरदाश्त न कर सकूँगी। यह मैं तुमको अभी से बतला देना विपिन को पिता का संस्कार किये हुए कई मास बीत चाहती हूँ। चुके थे । यद्यपि उसकी दिनचर्या फिर पूर्ववत् चलने अभी तक विनोद बैठा था। अब वह उठ खड़ा हुआ। लगी थी, तो भी इधर कुछ दिनों से उसके जीवन की अदम्भ उत्तेजित स्वर में उसने कहा--पशुता की मात्रा हम अनुभूति का एक नया पृष्ठ खुल रहा था। विनोद विपिन का में जितनी ही अधिक हो, देश-भक्ति की दुनिया में यद्यपि सहचर था और वह निरन्तर उसके साथ रहता था। यहाँ हम इस समय उसका आदर ही करेंगे, फिर भी मैं उसे तक कि दोनों एक ही बँगले में साथ ही साथ रहने लगे जंगलीपन तो मानता ही हूँ। तो भी मिस लतिका, मैं तुम्हें थे । इधर यह बात थी, उधर वीणा जब कभी उससे मिलने बतला देना चाहता हूँ कि असहनशीलता के क्षेत्र में भी अाती तब साथ में अपनी सखी लतिका को भी अवश्य अन्त में पश्चात्ताप ही तुम्हारे हाथ लगेगा। लाती थी। क्रमशः विनोद और लतिका के मिश्रण से इस फिर तो बातें इतनी बड़ी कि एक ने कहा--बस, अब मंडली का वातावरण अधिकाधिक मनोरञ्जक होता जा रहा था। तुम्हारी ज़बान निकली कि मैंने तुम्हें यहीं समाप्त किया। विनोद यों तो संस्कृत का प्रोफ़ेसर था, किन्तु विचार- दूसरे ने जवाब दिया-मैं तुम्हारे इस दम्भ को मिट्टी जगत् की दृष्टि से वह एग्नास्टिक था। विवाद के अवसर में मिलाकर छोईंगा। पर वह प्रायः कहा करता—हम ईश्वर के विषय में न कुछ उस दिन बड़ी मुश्किल से उस उभड़ते हुए काण्ड की जानते हैं, न जान सकते हैं। रक्षा की जा सकी। और लतिका? ____ विपिन पहले तो इस घटना को कुछ दिन तक अमां- वह पूर्ण बल्कि सम्पूर्ण अर्थों में कट्टर आस्तिक थी। गलिक ही मानता रहा, परन्तु फिर आगे चलकर जब उसका कथन था कि एक ईश्वर ही नहीं, मनुष्य की विविध . उसने अनुभव किया कि वीणा और विनोद उस दिन के अनुभूतियाँ अमूर्त होती हैं, फिर भी हम उनका ग्रहण ही पश्चात् परस्सर अधिकाधिक प्रात्मीय हो रहे हैं तब उसे करते हैं, कभी उनके प्रति अविश्वासी नहीं होते । तब कोई व्यक्तिगत रूप से बोध हुआ कि हमारा कोई भी क्षण व्यर्थ कारण नहीं कि जिस अजेय सत्ता का अनुभव हम अपने नहीं है । जीवन का पल-पल हमारे भविष्य-निर्माण के जीवन में क्षण-क्षण पर करते हैं उसके प्रति अविश्वासी लिए सवथा सूत्र-बद्ध ही है। बनें। यह तो हमारी कृतघ्नता की पराकाष्ठा है। यह तो दिन बीतते गये और विपिन की दृष्टि वीणा पर से . मानवता का चरम अपमान है-एक तरह का जंगलीपन, उचट कर लतिका पर जा पहुँची। पहले तो अपने इस जहालत । दोनों वक्तृत्वकला में, तर्कशास्त्र में, एक दूसरे नवीन परिवर्तन की वह बराबर उपेक्षा करता रहा। बारको चुनौती देते थे । कभी-कभी जब विवाद बढ़ जाता तब बार वह यही सोचता कि मनुष्य का यह मन भी सचमुच विपिन और वीणा को बीच-बचाव तक करना पड़ता । ऐसी क्या चिड़ियों की फुदक की भाँति ही चटुल है ? क्या भयंकर परिस्थिति उत्पन्न हो जाती थी। वास्तव में उसके भीतर अक्षय प्रेम की ज्योति का अभाव Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035249
Book TitleSaraswati 1937 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1937
Total Pages640
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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