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________________ ४०० . सरस्वती ... [ भाग ३८ : भेजने में क्या हानि है ? उनके लिए 'काकोरी-केस' साहित्य पूर्ण' भी बेधड़क लिख डालते हैं। 'अफसोसजनक' तो में भी लाना पड़ेगा? उनका रोज़मरे का अभ्यास है। ... जब कौंसिलों के चुनाव का दौरदौरा चला, झट कविताओं में तो आज-कल भाषा और भाव का गद्य 'चुनाई' शब्द साँचे में ढल गया। 'सम्राट् एडवर्ड ने गद्दी से भी अधिक मुंडन हो रहा है । सब लोग 'प्रसाद' और छोड़ी, तब तो 'राज्यगद्दी' और 'राज्यसिंहासन' शब्दों ने 'पन्त' ही बनना चाहते हैं । 'नवीन' और 'निराला' बनने अख़बारों को बेहोश कर दिया । 'षष्ठ' और 'छठे' को तरह की धुन में लोग इस कदर पिष्टपेषण कर रहे हैं कि 'वेदना' राजगद्दी' और 'राजसिंहासन' शब्द भी टुकुर टुकुर सम्पा- और 'आँसू' तो अब शीघ्र ही भारत छोड़ जानेवाले हैं। दकों का मुँह ताकते रह गये । इस निरंकुशता पर चाबुक 'सजनी' और 'प्रेयसी' के पीछे कवियों का काफ़ला वैसे ही चलानेवाला अब कोई धनीधोरी न रह गया। जो हैं भी वे चल रहा है जैसे लिपि-सुधार के पीछे गोविलजी और अपनी आबरू समेटे तमाशा देख रहे हैं। किसकी पगड़ी राहुलजी । अग्रगामी मासिक पत्रों के कुछ नवयुवक कवियों के नीचे खुजलाहट पैदा हो ? का प्रतिभा-चमत्कार देखकर बहुत-से कवि दैनिकों और साप्ताहिकों के बल पर 'अनन्त की ओर' सरपट दौड़े जा रहे हैं। वे एक ही कविता में 'हम' और 'मैं' तथा 'तुम' और छपाई का यह हाल है कि बहुत-से अखबारों की 'तू' को यथावकाश दबोचकर भवसागर पार हो जाते हैं। मात्रायें मशीनें चाट जाती हैं । पाठकों को ठूठे अक्षर ही यतिभङ्ग तो अब कोई दोष ही न रहा; क्योंकि कविताओं नसीब होते हैं । शब्दों के बीच के अक्षर और वाक्यों के को गाकर मात्राओं की त्रुटियों को सँभाल लेना एक फैशन बीच के शब्द तो अस्सी फ़ी सदी उड़ जाते हैं। ऐसे दैनिक हो गया है। कवि-स्वातंत्र्य का उषःकाल है यह-अभी और साप्ताहिक 'रिजर्व बैंक' में रखने योग्य हैं- उस युग के मध्याह्नकाल आने दीजिए । देखिएगा रङ्ग। लिए जब हिन्दी की अगली अर्द्धशताब्दी बीत जाने पर इस समय के ज़िम्मेदार सम्पादकों के कौशल की प्रदर्शनी अाज 'खिलित उद्यान' लिखा जा रहा है, कल 'फूलित' होगी। भी लिखा जाने लगेगा, क्योंकि 'जड़ित' लिखा ही जाता x है। यहाँ तो चलन का सवाल है। जो चीज़ चल जाय यही .. एक महाशय ने लाला सीताराम जी के लिए शोक सिक्का, भले ही वह ठीकरा हो। ज़माना क्रान्ति का है। प्रकट करते हुए लिख मारा है कि "उन्होंने हिन्दी का हर बात में नवीनता ठूसना ही फैशन में दाखिल है। फोटो मस्तक (?) उज्ज्वल किया है।" 'मस्तक' की जगह 'कपाल' खिंचाने में भी अब भङ्गिमानों की आवश्यकता था पड़ती लिख डालते तो हम कपाल ठोक कर सब कर जाते। इस है। लेखकों और कवियों के फोटो में बड़े नखरे के साथ तरह हिन्दी का मुख उज्ज्वल करनेवाले अनेक हैं। उनके हाथ पर गाल नज़र आता है। कोई सिगरेट-केस हाथ में पीछे पंडित जगन्नाथप्रसाद चतुर्वेदी परेशान हैं, बार बार लेकर सिगार सुलगाने में कला का चूडान्त देखता है, 'सुधा' के यूंट पीते हैं, फिर भी वह युग अमरत्व नहीं कोई जुल्फों में क्यारियाँ बनाकर मन्द मुस्कान के साथ पाता जो उनकी जवानी के समय था। उस युग के लेखक अपने गद्य-काव्य में जान डालता है। गद्यकाव्य भी ऐसा और सम्पादक मथुरा का पेड़ा भी छीलछील कर खाते थे। वैसा नहीं, शब्दों और भावों का ऐसा जञ्जाल कि एक एक-एक शब्द के प्रयोग पर महाभारत मच जाता था; वाक्य भी सुभीते के साथ दिमाग़ हज़म न कर सके। पर अब तो गांडीव के बल से निर्भय होकर लोग 'अफ़सोस -सदानन्द Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035249
Book TitleSaraswati 1937 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1937
Total Pages640
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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