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________________ २५२ सरस्वती एक आँख फटी मालूम हो रही थी। शेरा खड़ा होकर उसे देखने लगा। इतने में सामने सड़क के मोड़ से कलमें की ध्वनि ज़ोर ज़ोर से आने लगी । लोग एक अर्थी लिये आा रहे थे। ज्यों ज्यों अर्थी शेरा के पास आती गई, भीड़ पीछे और भी ज्यादा दीखने लग गई, यहाँ तक कि दूर दूर तक आदमियों को छोड़कर कुछ दिखाई नहीं देता था । झुण्ड का झुण्ड अब्दुर्रशीद की अर्थी को ले भागा था। शेरा भी उसकी ओर बढ़ा और कन्धा देने में सहायक हो गया । इतने में सामने से पुलिस देख पड़ी। उन्होंने अर्थी को आगे जाने से रोक दिया और कई एक आदमियों को गिरफ्फ़ार कर लिया । इन लोगों में शेरा भी था और उसको इस उपद्रव में भाग लेने के कारण दो साल की सज़ा हो गई । अब वह क़ैद भुगत चुका था । लेकिन अब उसके गाहक उसकी आवाज़ को भूल सा गये थे। उसके पास इतने पैसे न थे कि वह दुबारा खोमचा लगा सके। कुछ लोगों ने चन्दा करके उसे दो रुपये दे दिये और उनसे शेरा ने फिर काम शुरू किया । अब वह चने बेचता फिरता था, लेकिन अब उसकी आवाज़ में वह करारापन न था • और मुसीबत और दुःख उसकी हर पुकार में सुनाई देती थी, तो भी बच्चे उसकी आवाज़ सुनकर चने लेने को दौड़ते थे और वह मुट्ठी से निकाल निकाल कर चने तौलता और उनको देता था । X X X एक और आदमी जो हमारे मुहल्ले में हर एक दिन रात को आया करता, एक अन्धा फ़क़ीर था । उसका द बहुत छोटा था और उसकी चुग्गी दाढ़ी पर हमेशा ख़ाक पड़ी रहती थी। उसके हाथ में एक टूटा हुआ बाँस का डण्डा रहता था, जिसे टेक टेककर वह श्रागे बढ़ता था । वह बिलकुल तुच्छ और नाचीज़ मालूम होता था, जैसे कूड़े के ढेर पर मक्खियों का गोल या किसी मरी बिल्ली का ढच्च । लेकिन उसकी आवाज़ में वह नाउम्मेदी और दर्द था जो दुनिया की स्थिरता को चित्रित कर देता है । जाड़े की रात में उसकी आवाज़ सारे मुहल्ले में एक समर्थता - सी फैलाती हुई जैसे कहीं दूर से श्राती । मैंने 1 आज तक इससे अधिक प्रभाव रखनेवाला स्वर नहीं सुना था और अभी तक वह मेरे कानों में गूँज रहा है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat [ भाग ३८ बहादुरशाह की ग़ज़ल उसके मुँह से फिर पुराने शाही ज़माने की याद को नई कर देती थी जब हिन्दुस्तान अपने नये बन्धनों में नहीं जकड़ गया था । और उसकी आवाज़ से केवल बहादुरशाह के रंज का ही अनुमान न होता था, बरन हिन्दुस्तान की गुलामी का रोदन सुनने में आता था । दूर से उसकी आवाज़ आती थीज़िन्दगी है या कोई तूफ़ान है । लेकिन हम तो इस जीने के हाथों मर चले || मुहल्ले के शरीफ़ लोग उसको पैसा देने से घबराते थे, क्योंकि वह (कदाचित् ) चरस पीता था, ऐसा समझा जाता था । X X X एक रोज़ रात को मैं अपने कमरे में बैठा हुआ था । गर्मियों की रात और कोई दस बजे का समय था । ज़्यादातर दूकानें बन्द हो चुकी थीं। लेकिन कचाची और मिर्ज़ा की दूकानें अभी तक खुली हुई थीं। सड़क के दोनों ओर लोग अपनी अपनी चारपाइयों पर लेटे हुए थे । कुछ तो सो गये थे और कुछ अभी तक बातें कर रहे थे । हवा में खुश्की और गर्मी थी और नालियों में से सड़ान फूट रही थी । मिर्ज़ा की दूकान के तख़्ते के नीचे एक काली बिल्ली घात लगाये बैठी थी, जैसे किसी शिकार की फ़िक्र में हो । एक आदमी ने एक आने का दूध लेकर पिया और कुल्हड़ को ज़मीन पर डाल दिया। बिल्ली दबे पाँव तख़्ते के नीचे से निकली और कुल्हड़ को चाटने लगी । उसी वक्त मेरी खिड़की के सामने से कल्लो गई और उसके पीछे मुन्नू क़दम बढ़ाता हुआ । कल्लो जवान थी। उसके चेहरे पर एक कान्ति और सुन्दरता थी । उसकी चाल में एक निर्भयता और अल्हड़पन था और उसकी देह जीवन के उभार से पुष्ट और लचीली थी। वह मुन्सिफ़ साहब के यहाँ नौकर थी । मुन्सिफ़ साहब की बीबी ने ही उसे छुटपन से पाला था और अब वह विधवा हो गई थी। उसे विधवा हुए भी तीन वर्ष बीत गये थे, लेकिन मुहल्ले के जवानों की निगाह उस पर गड़ी रहती थी। जब वह गली के मोड़ पर पहुँची तब मुन्नू ने उसका हाथ पकड़ लिया । कल्लो भुँझला कर चिल्लाई - " हट दूर हो मुए । मेरा हाथ छोड़ ।” पास के एक मकान की छत पर दो बिल्लियों के लड़ने की आवाज़ आई । उसी वक्त कल्लो ने ज़ोर www.umaragyanbhandar.com
SR No.035249
Book TitleSaraswati 1937 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1937
Total Pages640
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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