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________________ सरस्वती [भाग ३८ ___"पानी से प्यास क्या मिटेगी, चाहे मनों पी जानो। साथ लेकर ही न आ जाय और इस 'प्रतीक्षा करनेवाली जिसे देखने की प्यास है वह अभी इधर से नहीं गुज़री ।” सहेली' का भेद खुल जाय । पर नहीं, वह अकेली आई। - अब छुपाना व्यर्थ था। मैंने रहस्ययुक्त अन्दाज़ से वायु में उसके सिर का दुपट्टा उड़ रहा था, चमकी का धीरे से पूछा--अाज मेला देखने तो जायगी। चमचमाता हश्रा कुर्ता उड़ रहा था. वह स्वयं उड-सी "शायद ।” रही थी। मेरे समीप अाकर वह भौचक्की-सी खड़ी हो गई "सहेलियाँ साथ होंगी ?" और एक क्षण बाद स्वर्ण-स्मित उसके अधरों पर चमक "हाँ" उठी और वह वापस मुड़ने लगी। मैंने उसे पकड़ लिया "फिर मैं कैसे उससे बात कर सकूँगा ?" और क्षणिक आवेश से उसे अपने प्यासे आलिङ्गन में "केवल देखने से प्यास नहीं बुझ सकती ?" लेकर उसके अधरों को चूम लिया। उसके मुख अरुण "नहीं।" होकर रह गये और वह अपने आपको स्वतन्त्र करने की बुढ़िया चुप रही। चेष्टा करने लगी। मैंने अपना रेशमी रूमाल उसकी जेब मैंने पूछा- "तुम प्रबन्ध नहीं कर दोगी ?" में ढूंस दिया । वह भाग गई। न मैं कुछ कह सका, न बुढ़िया का हँसता हुआ पोपला मुँह मेरी ओर उठा। वह । कितनी बातें सोची थीं, कितने मनसूबे बाँधे थे, परन्तु उसकी आँखें चमकने लगीं। वह बोली-"कैसे ?” अवसर मिलने पर एक भी पूरा न हुआ। "मैं वहाँ वृक्षों के झुंड में हूँ। तुम कह देना, तुम्हारी वह अपनी सहेलियों के साथ चली गई। अपने मुख एक सहेली वहाँ तुम्हारी बाट जोह रही है। उससे मिल पात्रो" की लाली, अपना अस्त-व्यस्त दुपट्टा, अपनी घबराहट का "नहीं, मैं यह नहीं कर सकती।" . कारण उसने सहेलियों से क्या बताया, यह मुझे ज्ञात नहीं। मैंने कुछ कहने के बदले जेब से एक रुपया निकाल. परन्तु उसके चले जाने के बाद मैंने साफ़ा सिर पर रक्खा कर बुढ़िया के सामने रख दिया। उसने कदाचित् अपनी और वृक्षों के झुंड से बाहर निकल आया। मेरे ओंठ सारी आयु में रुपया नहीं देखा था। उसकी बाछे खिल अभी तक जल रहे थे और हृदय धड़क रहा था। गई। कहने लगी--"यह कष्ट क्यों करते हो ? भेज दूंगी उसे । अाखिर वह तुम्हारे ही घर तो जायगी।" चौकीदार ने साँस लेकर कहा- हमारा गाँव सँजौली मेरा हृदय प्रसन्नता से खिल उठा । इतनी जल्दी यह और मशोबरे के रास्ते में है। सँजौली वहाँ से कोई दो काम हो जायगा, इसकी मुझे अाशा नहीं थी। पानी पीकर मील होगा। सबील तनिक आगे थी। मैं तुलसी से बिना मैं अपनी जगह श्रा बैठा और उसके आने की घड़ियाँ मिले ऊपर को चल पड़ा। सड़क पर पहुँचकर मैंने मशोबरे गिनने लगा। पाँव की तनिक-सी चाप भी मूर्त के आने की ओर देखा। मूर्त अपनी सहेलियों के साथ दूर निकल का सन्देह जागृत कर देती और मेरी आँखें सबील की गई थी। मैं सिर झुकाये चल पड़ा। तबीयत में कुछ ओर उठ जातीं । परन्तु हर बार निराश होकर लौट आतीं। उदासी-सी छा गई । उस समय मैं इसका कारण न समझ प्रतीक्षा के ये क्षण युगों की नाई प्रतीत हुए । बार बार सका, पर बाद की घटनाओं ने बता दिया कि वह उदासी देखता, बार बार ताकता । कहीं रँगे हुए दुपट्टे की तनिक- अकारण न थी। मूर्त से मिलने के पश्चात् मेरे मन में सी झलक भी दिखाई देती तो हृदय धड़कने लग जाता। प्रसन्नता का जो तूफ़ान आया था वह उड़-सा गया । होना इतना ही अच्छा था कि जहाँ मैं बैठा था, वहाँ से मैं तो इसके विपरीत चाहिए था। लेकिन हुआ ऐसा ही। सबको देख सकता था, पर मुझे कोई नहीं देख पाता था। प्रसन्नता से तेज़ चलने के बदले में धीरे धीरे चलने ___अन्त में मुझे उसकी आवाज़ सुनाई दी। तुलसी खयाल आया, कदाचित् मूर्त नाराज़ न हो गई हो, उसे मेरी ओर आने के लिए कह रही थी और वह कदाचित् वह मेरे इस दुस्साहस से रुष्ट न हो गई हो । अब षमा-सी. भोलापन-सी बनी पल रही थी। मेले में उससे आँखें कैसे मिला सकॅगा? दिल में चोर बस मेरा हृदय धड़क रहा था । कहीं वह अपनी सहेलियों को गया था और इच्छा होती थी, मेले में न जाऊँ, वापस Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035249
Book TitleSaraswati 1937 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1937
Total Pages640
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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