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________________ ' संख्या १] "वह मेरी मॅगेतर" परन्तु यह पवित्र रूमाल अब मुझ-सी अपवित्र नारी के दिया, मैं उसे सस्ते दामों छोड़ना नहीं चाहता था। परन्तु पास नहीं रहना चाहिए । इसे अपनी नव वधू को भेंट कर परमात्मा ने मुझे उस नीच के लहू से अपने हाथ रँगने देना। से बचा लिया। मेरे पाने के दो दिन बाद ही वह सड़क उसके स्वर में कुछ ऐसी दृढ़ता थी कि मैं उत्तर न पर चला जा रहा था कि वर्षा के कारण पहाड़ का एक दे सका और मैं वहाँ से चला आया । दूसरे दिन वहाँ बड़ा-सा भाग टूटकर उस पर गिरा और वह अपनी पापगया तब मूर्त वहाँ से जा चुकी थी। वासनाओं को अपने साथ लिये सदा के लिए संसार से ऊपर कमरे में निस्तब्धता छा गई । कदाचित् कंटावरोध चला गया। इसके बाद दिल में कुछ और भारत ही न के कारण चौकीदार चुप हो गया था। रही, इसलिए यहीं बना रहा।" ___कुछ क्षणों के बाद गोविन्द ने पूछा-तो आप इस गोविन्द ने एक लम्बी साँस ली। उसने कहा-“भाग्य नौकरी पर कैसे पाये ? ___ के खेल हैं चौकीदार जी। जिस प्रकार विधाता रक्खे, उसी "यह बात पूछने से क्या लाभ ? भाग्य के चक्कर से पर सन्तुष्ट रहना चाहिए। इधर आ गया हूँ।" बाहर सिपाहियों के मज़बूत जूतों की खड़खड़ाहट का "फिर भी।" शब्द सुनाई दिया और कई सिपाही कमरे में दाखिल चौकीदार ने धीरे से कहा-अब तो बताने में कोई होकर सोने का प्रबन्ध करने लगे। कदाचित् गोविन्द उसी हानि नहीं। वास्तव में मैं उस नरपिशाच दारोगा से बदला समय वहाँ से खिसक गया था ।* लेने की प्रबल आकांक्षा से शिमले आया था। मेरे लिए मूर्त ही सब कुछ थी। मैंने अपने जीवन में केवल * लेखक की अप्रकाशित 'एक रात का नरक' नामक उसी से प्रेम किया। इसके बाद मैंने बिवाह भी नहीं पुस्तक से। किया। जिस दारोगा ने इस प्रकार हम दोनों को जुदा कर अनुरोध लेखक, श्रीयुत राजनाथ पांडेय, एम० ए० भर दे निज कोमल गायन में, कवि रे ! ऐसे आशीस वचन, जिससे जग में श्री बरस पड़े रह जाय न कोई जन निरधन । रह जाय न कोई जन निरधन, कह रे कवि! वे आशीस वचन, रवि-शशि-तारों की किरणों से ले ले मानव अगणित जीवन ! प्रत्येक हृदय में हो मुखरित-वन-पल्लव का लघुतर ममेर, लघु-लघु जीवों की मूक कथा, जगती के हिय का स्पन्दन-स्वर । आधार प्रणय का हो करुणा, जग के सब टूट पड़ें बन्धन, बँध जाय प्रेम के धागे में इस अखिल विश्व का प्रिय जीवन । हम तेरे गायन को सुनकर उठकर खोले चिर-अन्ध-नयन, भर दे निज कोमल गायन में कवि रे! ऐसे आशीस वचन ! Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035249
Book TitleSaraswati 1937 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1937
Total Pages640
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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