SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 45
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संख्या १] मृणालवती-प्रणय मुंज-अच्छा ! तुम मुझे बोलना सिखायोगी ? बताअो- मृणालवती के सामने इस तरह बोलने में तेरी जीभ . बताओ, तुम मुझे क्या बोलना सिखाअोगी। क्यों नहीं कट जाती ? मृणालवती–महान्-नृपति, तैलप की बहन के साथ कैसे मुंज-वाह ! मृणालवती ! साध्वी कहलाना चाहती हो ? बोलना चाहिए, यह सिखाऊँगी। साध्वी होना तुम्हारे भाग्य में लिखा ही कहाँ है ? मंज-यह पृथ्वीवल्लभ ने सब सीखा है। जिस प्रकार मृणालवती--मैं साध्वी हूँ, और साध्वी ही रहूँगी । समर-क्षेत्र में रिपु-दल का संहार करना सीखा है, मुंज- विधि के लेख को मिटाने की किसी में शक्ति नहीं ! उसी तरह बल्कि उससे अधिक सरस्वती का पक्का किन्तु कहता हूँ, तुम्हारे भाग्य में साध्वी होने का पुजारी है. अर्थात बोलना भी अच्छी तरह जानता है। लिखा पृष्ठ उलट गया है, पुछ गया है। मृणालवती-तो तुम इस तरह से न बोलते। मृणालवती-एक कैदी के साथ अधिक विवेचन करना मंज-तो क्या मुझे सिखाने की तुम्हारी आकांक्षा है ? ठीक नहीं । चल मेरे पैर प्रक्षालन करने को तैयार मेरा शिक्षक बनने की तुम्हारी मनोभावना है ? किन्तु हो। (अपने नौकर से)-वीरबाहु ! यहाँ श्रा, मृणालवती ! पूर्ण ज्ञान सम्पादन किये बिना शिक्षक (कारा-गृह के द्वार पर खड़ा हुआ वीरबाहु आता नहीं बना जाता। तुम्हें तो अभी बहुत कुछ सीखना है।) जा, जल से भरी हुई झारी ले था। बाक़ी है। वीरबाहु-लाता हूँ सरकार ! (जाता है) मृणालवती (स्वगत)- आज मेरा हृदय क्यों ज़ोर से चल मंज-क्या तुम मुझसे अपने पैर प्रक्षालन कराअोगी ? रहा है ? मेरा हृदय आज क्यों इसके प्रति पक्षपात - अहा, तुम्हें चरण धुलवाना है ? (वीरबाहु झारी कर रहा है ? (प्रकट) नहीं महोदय ! मुझे सीखने लेकर आता है) को कुछ बाकी नहीं है। मृणालवती--(वीरबाहु के हाथ से झारी लेकर) चल मुंज-देखो, तुम्हें अभी प्रियतम के मनाने की शिक्षा लेना मंज ! ले यह झारी, और कर मेरे पैर प्रक्षालन । बाकी है। राग-रस में मस्त होकर यौवन का रस पीना (वीरबाहु जाता है) बाक़ी है । मधुर जीवन का आनन्द लेना बाकी है। मंज–पहले इन लौह-शृङ्खलाबों को खुलवा दो, जिससे मृणालवती-यह तू क्या बक रहा है ? ठीक तौर से पैर धो सकूँ। मुंज-मैं सच ही बक रहा हूँ। मैंने क्या झूठ कहा है ? मृणालवती-वीरबाहु ! यहाँ श्रा, (वीरबाहु अाता है।) देखा, सुनो अभी। तुम्हें नाच-गान-तान सीखना बाकी चल, मंज के हाथ से बेड़ी निकाल दे। (वीरबाहु है । नयन-कटाक्ष से वीरों को आहत करना बाकी है। बेड़ी खोल देता है) यह सब अभी तुम्हें सीखना है। इसी से ईश्वर ने मंज-अब लाओ, सुन्दरी, गजगामिनी ! (मंज मृणालवती मुझे तुम्हारे कारागृह में भेजा है। के हाथ से झारी लेकर दूर फेंक देता है) सुन्दरी ! मृणालवती-(स्वगत) अहा ! इतनी विह्वलता शरीर में देखा पाद-प्रक्षालन तो इस तरह होता है। लाओ, क्यों मालूम होती है ? इसके एक एक शब्द आज अपना हाथ (एक हाथ पकड़कर प्रालिंगन करने मुझे इसकी तरफ आकर्षित कर रहे हैं । ज़िन्दगी में का प्रयत्न करता है । मृणालवती दूर हट जाती है, किसी समय जितना मेरा मन प्रफुल्लित नहीं हुअा था,, स्तब्ध होकर थोड़ी देर दूर खड़ी रहती है ।) उतना आज इसके शब्दों के कानों में पड़ते ही क्यों मृणालवती-दुष्ट ! तूने मेरे पवित्र हाथ को छूकर अपवित्र प्रफुल्लित हो उठा है ? अरे, रसिकता के पुजारी मुंज! कर दिया । वीरबाहु ! जा लोहे की जलती हुई एक रसिकता और यौवन का मज़ा ही क्या जीवन का छड़ तो ला। (वीरबाह जाता है।) सच्चा लाभ है ? अरे, यह क्या ? ऐसे नीच विचार मंज-लौह की जलती हुई छड़ से मुझे क्या करोगी? मेरे मन में ? छिः साध्वी के हृदय में ऐसे विकारों मृणालवती-तेरे हाथों में लगाऊँगी-तुझे जलाऊँगी। को स्थान मिला ? (मंज से प्रकट में)-साध्वी तभी मेरी श्रात्मा का शान्ति होगी। और तुझे मालूम Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035249
Book TitleSaraswati 1937 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1937
Total Pages640
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy