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सरस्वती
" बड़ी जी की थी। दीन इंग्लैंड को हर तरफ़ से सहानुभूति और सहायता की ज़रूरत थी । इनको प्राप्त " करने के लिए इंग्लैंड यह कहता था कि वह कमज़ोर और कष्टपीड़ित जातियों के बचाव एवं सहायता के लिए जर्मनी के मुकाबले पर खड़ा हुआ है ताकि हर छोटा-बड़ा राष्ट्र अपना स्वतंत्र जीवन कायम रख सके । तब हिन्दुस्तान में लोग पूछते थे कि अगर इंग्लेंड हर छोटी जाति की स्वतंत्रता के लिए अपने ऊपर इतना ख़तरा उठाता है तो वह भारत को क्यों गुलामी में रक्खे हुए है ? इसके साथ ही इंग्लैंड को भारत की फ़ौजें अपने डिफेंस या बचाव के लिए योरप के युद्ध क्षेत्र में ले जानी पड़ीं। इन भारतीय सैनिकों ने वहाँ पर ऐसी कुरबानी और बहादुरी दिखलाई . कि फ्रांस और इंग्लैंड के जनसाधारण पर इन बातों का बहुत ही अच्छा प्रभाव पड़ा। इस जनमत (पब्लिक उपीनियन) के सामने झुककर ब्रिटिश गवर्नमेंट को सोचने की ज़रूरत महसूस हुई कि भविष्य में भारत के प्रति उसकी क्या नीति हो । इस परिवर्तित दृष्टिकोण का परिणाम वह घोषणा हुई जो महायुद्ध की समाप्ति पर उस समय के भारत- मंत्री मिस्टर मांटेगू ने ब्रिटिश पार्लियामेंट के अन्दर की । तब यह इक़रार किया गया कि भारत को 'ब्रिटिश कॉमनवेल्थ' का एक हिस्सा बना दिया जायगा ।
एक तरफ़ इस महायुद्ध का असर योरप पर हुत्रा; दूसरी तरफ़ इसका असर भारतवासियों पर हुआ । इससे पूर्व जब जापान की छोटी-सी जाति या राष्ट्र ने रूस जैसे बड़े साम्राज्य पर विजय प्राप्त की तब भारत में भी देशभक्ति की नई लहर उत्पन्न हो गई। इसका प्रदर्शन बंगाल के स्वदेशी आन्दोलन के रूप में हुआ । इसी प्रकार इसके बाद योरप के महायुद्ध ने भारत में स्वतन्त्रता के लिए देशव्यापी इच्छा पैदा कर दी। यह उस 'होमरूल लीग' की सूरत में ज़ाहिर हुई जो श्रीमती एनी बेसेंट ने कांग्रेस से स्वतंत्र होकर स्थापित की थी। एक घटना इस बात का बड़ा प्रमाण है । श्रीमती एनी बेसेंट के शिष्य सर सुब्रह्मण ऐयर (मदरासहाईकोर्ट के रिटायर्ड जज ) ने अमेरिका के प्रेसिडेंट को चिट्ठी लिखी कि भारतवासियों को भी स्वतंत्रता दिलाई जाय ।
इस बीच में राजनैतिक जागृति का असर कांग्रेस पर भी हुआ । फलतः उसके नेताओं ने सन् १९१६-१७ की लखनऊ-कांग्रेस के अवसर पर हिन्दू-मुस्लिम मुलाहिदा किया
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[ भाग ३८.
( यह बाद में लखनऊ पैक्ट के नाम से मशहूर हुआ) । ऐसा करके कांग्रेस ने देश के अंदर दो जातियों के राजनैतिक अस्तित्व को स्वीकार कर लिया। (यह बहुत ही बड़ी भूल थी ।) बाद में हमारे सामने रौलेट ऐक्ट का क़िस्सा श्राता है। इस क़ानून का विरोध वायसराय की कौंसिल के सदस्यों ने एकमत होकर किया, जिससे देश में गवर्नमेंट की नीति के ख़िलाफ़ एक उग्र भाव भड़क उठा। इन बातों से साफ़ ज़ाहिर है कि जागृति उत्पन्न करनेवाले दूसरे कारण थे : इसकी उत्पत्ति में कांग्रेस का कोई हाथ न था । महात्मा गांधी को क्रेडिट मिलेगा तो इस बात का कि उन्होंने इस जागृति को अपना आंदोलन चलाने में इस्तेमाल कर लिया और कांग्रेस का नाम बढ़ाया। उनका सत्याग्रहश्रांदोलन भारत में राजनैतिक जागृति का परिणाम था, न कि उसका कारण ।
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दूसरा ख़याल है कांग्रेस की कुरबानियों का । इस बारे में मैं यह कह दूँ कि इस प्रकार के त्याग का लाभ तभी हो सकता है जब सत्य मार्ग पर चलकर ठीक उद्देश (राईट काज़ ) के लिए कुरबानी की जाय। अगर रास्ता ग़लत तो उसके लिए जितनी ज्यादा कुरबानी की जाती है उससे उतना ही ज्यादा नुकसान होता है। ऐसी दशा में वह सारा त्याग स्वाभाविकतया निष्फल जाता संसार में कई बड़े साम्राज्य छोटी-सी कमज़ोरी के कारण नष्ट हो गये। इसी प्रकार अगर किसी आंदोलन में मौलिक कमज़ोरी पाई जाती है तो उसका असफल होना स्वाभाविक और साधारण बात है। एक उदाहरण ले लीजिए। यह ख़याल कर लिया गया कि अगर हिन्दूमुस्लिम एकता हो जायगी तो स्वतंत्रता मिल जायगी । बस, इसके लिए हर प्रकार की कुरबानी की जाने लगी । महात्मा गांधी ने तो मुसलमानों को कांग्रेस के साथ मिलाने के लिए कोरे चेक तक देने शुरू किये और कट्टर संप्रदायवादी मुसलमानों की तरफ़ से जो भी माँगें पेश की गई उन्हें महात्मा गांधी ने हिन्दुत्रों का प्रतिनिधि बनकर इसलिए मंज़ूर कर लिया कि वे हिन्दुओं को बड़ा भाई ख़याल करते थे और मुसलमानों को छोटा भाई | इसके अंदर काम करनेवाली ऐतिहासिक भूल की तरफ कोई ध्यान न दिया गया। भूल यह थी कि जब कांग्रेस ने ( जिसके पास अपने कोई इख़्तियारात नहीं हैं) मुसलमानों
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