SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 288
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २७४ सरस्वती से विवाह कर लिया । इसके रूप की प्रशंसा सुनकर स्वयं सिद्धराज भी इसे अपनी रानी बनाना चाहता था, Area इसमें सिद्धराज ने अपना अपमान समझा और पन्द्रह वर्ष में अनेक बार युद्ध करके वह विजयी हुआ । सोरठ- नरेश की मृत्यु के बाद सिद्धराज ने रानकदे को कैद कर लिया और उसके छोटे छोटे दो बच्चों की हत्या कर डाली । सती रानकदे ने सिद्धराज के नीच प्रेम प्रस्तावों को ठुकरा दिया और जगदेव की मध्यस्थता से अपने सतीत्व की रक्षा करके सती हो गई । सिद्धराज भी अपने पतन और भूल पर पश्चात्ताप करने लगा । अपनी माता की आज्ञा से सिद्धराज ने अपने पिता के शत्रु शाकम्भरी नरेश राज को पराजित किया और उसे बन्दी करके या । सिद्धराज की पुत्री कांचनदे और बन्दी प्रणों राज में प्रेम हो गया और दोनों का विवाह भी कर दिया गया । अन्त में सिद्धराज महोत्रा-नरेश मदनवर्मा का अतिथि हुआ और वसन्तोत्सव के प्रीति- रंग और गुलाल का उपभोग किया। उसकी नीति पूर्ण बातें श्रद्धा से सुनकर सिद्धराज फिर अपने देश को लौट गया । यही इस काव्य का कथानक है । काव्य की दृष्टि से यह एक सफल रचना है। नारियों के सैन्य के सुन्दर चित्र, प्रकृति के मनोरम दृश्य, दूतों की वाक्चातुरी और हृदयहारी कथोपकथनों के अतिरिक्त कवि की कला की अन्य सभी विशेष तायें इसमें हैं । पुस्तक काव्य- रसिकों के लिए आदर की वस्तु है । (३) मृण्मयी - ( काव्य ) लेखक श्रीयुत सियाराम - शरण गुप्त हैं । मूल्य १|| है | कविवर सियारामशरण गुप्त से प्रेमी अच्छी तरह परिचित हैं। उनकी इस कृति में ग्यारह शीर्षकों में ग्यारह रचनायें दी गई हैं। प्रत्येक कविता एक भावविशेष को लक्ष्य में रखकर लिखी गई है । सम्पूर्ण कविता का मम बीजरूप से इन शीर्षकों में निहित है । 'रजकण' नामक कविता में कवि ने क्षुद्रता और विशालता कील को सुलझाया है। 'रजकरण' जब हिमाचल के चरणों पहुँचकर अपनी अहंभावजन्य क्षुद्रता को भूलकर उस 'एकत्व' से उत्पन्न 'नानात्व' का पता पा लेता है उस समय उसे अपने और हिमाचल में 'स्वजनत्व' का भान होने लगता है । विश्वात्मन् से अपने को पृथक् Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat [ भाग ३८ देखना 'क्षुद्रत्व' का कारण है, किन्तु उसी में अपना दर्शन करने से क्षुद्रता का लोप हो जाता है । 'ग्वालिने' शीर्षक कविता में एक गोपी अपना दधि बेचकर 'धन' का लाभ पाये लौट रही है, पर उसे 'प्रियतम' का लाभ कहाँ ? दूसरी दधि न बेंचे ही लौट आई है, परन्तु उसे 'प्रियतम' मिल गया है। इस प्रकार कवि ने लाभ में लाभ और अलाभ में लाभ का स्पष्टीकरण किया है। 'खिलौना' नामक कविता में कवि ने यह दिखाया है कि किस प्रकार मानव अपनी अपनी परिस्थिति और परिप्राप्ति' में असन्तोष का व्यर्थ ही अनुभव किया करते हैं । ' नाम की प्यास' नामक कविता में कवि ने बड़ी सुन्दरता से यह दिखलाया है कि ' नाम की प्यास' जब तक हमें कर्म की ओर प्रेरित करती है तब तक हमारा 'कर्म' असफल और रसहीन ही बना रहता है, पर ज्यों ही यह 'मान की कठोर शिला' फेंक दी जाती है तभी कर्म का सच्चा रस हमें प्राप्त होता है । अन्य कवितायें भी इसी प्रकार एक एक निगूढ़ उपदेश को प्रकाशित करती हैं । काव्य- रसज्ञ इन कविताओं में 'सद्यः परनिर्वृत्ति' के साथ साथ 'कान्तासम्मित' रूप से 'उपदेश ' भी पा सकते हैं । भाषा सरल, प्रवाहमयी और प्रसाद - गुण सम्पन्न है । वर्णनशैली की दृष्टि से हिन्दी में यह रचना अनूठी है । कवि ने एक नवीन दिशा की ओर पग बढ़ाया है और हिन्दी में उनका यह सफल प्रयत्न सर्वथा अभिनन्दनीय है । 1 ११ - राजपूत-मराठा एक हैं (भाग १ म तथा २ य ) - ये दोनों पुस्तकें ग्वालियर के राजपूत-मराठा संघ ने प्रकाशित की हैं। मराठा और रातपूत दोनों वीर जातियों को एक सूत्र में बाँधने और उनमें पारस्परिक विवाहसम्बन्ध स्थापित करने के उद्देश से ये लिखी गई हैं। प्रथम भाग में इतिहास के प्रसिद्ध विद्वान् श्रीयुत यदुनाथ सरकार तथा श्रीयुत सी० वी० वैद्य के उन विचारों का अँगरेज़ी, मराठी तथा हिन्दी में संकलन किया गया है जिनसे मराठों तथा राजपूतों का क्षत्रियत्व प्रमाणित होता है। प्राचीन इतिहास की साक्षियों से यह सिद्ध कर दिया गया है कि इन दोनों जातियों में पूर्व समय में पारस्परिक विवाह सम्बन्ध होते थे । मुसलमानों के आक्रमणों के पश्चात् भौगोलिक बाधाओं तथा अन्य कारणों से यह सम्बन्ध टूट गया । पुस्तक के द्वितीय भाग में उज्जैन में www.umaragyanbhandar.com
SR No.035249
Book TitleSaraswati 1937 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1937
Total Pages640
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy