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________________ संख्या ३] नई पुस्तके २७३ आदि सत्रह शीर्षकों में किया गया है। वर्णन सरल और अपने छः शिशुओं के छीने और मारे जाने से पागल मनोग्राही है। सर्वसाधारण भी इससे पूरा पूरा लाभ उठा देवकी कारागार की अँधेरी कोठरी में चिल्ला उठती है--- सकें, इस उद्देश से पारिभाषिक तथा कठिन शब्दों का __ 'मेरे षण्मुख कार्तिकेय, तुम इसमें प्रयोग नहीं हुआ है। परिशिष्ट में विभिन्न खाद्य मुझे घेरकर घूमो ; पदार्थों के गुण-दोष बताकर रोगावस्था तथा आरोग्यावस्था प्रायो, अब तो तुम्हें चूम लूँ में देने योग्य नित्य के भोज्य पदार्थों का उल्लेख किया और मुझे तुम चूमो। गया है। भाफ के स्नान के चित्रों के अतिरिक्त पुस्तक में चूमने के लिए बढ़ते ही उसकी बेड़ियाँ उसको मानो प्राकृतिक चिकित्सा के विशेषज्ञों तथा प्रचारकों के चित्र भी वास्तविक परिस्थिति का स्मरण कराती हैं और वह अपनी दिये गये हैं। जो व्यक्ति अपने शरीर को आरोग्य तथा बेबसी से रो उठती हैमन को बलवान् बनाना चाहते हैं उन्हें इस पुस्तक का पर अब भी बन्धन में हूँ मैं, पढ़ना चाहिए और विज्ञान के नाम पर शरीर को व्याधि विवश, देख लो बेटा ; मन्दिर बना देनेवाली चिकित्सा-प्रणालियों से अपनी रक्षा और कंस उच्छङ्खल अब भी करके प्रकृति के कल्याणकारी-पथ का अनुसरण करना सुख-शय्या पर लेटा। चाहिए । पुस्तक सर्वथा उपयोगी है। इसी तरह प्रत्येक चित्रित चरित्र अपनी विशेषताओं ८-९–साहित्य-सदन, चिरगाँव (झाँसी), के दो से भरा हुआ है। इस काव्य को पढ़कर हमारे मुँह से तो काव्य-ग्रन्थ-- यही निकल पड़ा कि 'वयं तु कृतिनः तत् सूक्ति-संसेवनात् ।' (१) द्वापर-लेखक, श्रीयुत मैथिलीशरण गुप्त। (२) सिद्धराज-लेखक, श्रीयुत मैथिलीशरण गुप्त मूल्य ११॥ है। हैं। मूल्य ११) है। ___ 'साकेत' के यशस्वी कवि की यह नई कृति है। द्वापर गुप्त जी की यह कृति एक वीर-गाथा-काव्य है । मध्ययुग की महा विभति भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र को केन्द्र में कालीन भारत के वीर 'यश के लिए विजिगीषा' की प्रेरणा रखकर उनके सम्पर्क में आनेवाले व्यक्तियों के चरित्रों से जब परस्पर युद्ध करके केवल अपनी श्रेष्ठता को सिद्ध की चतुर्दशी से यह शोभित है। द्वापर की विभिन्न किया करते थे उसी युग की यह कथा है । विक्रम की मनोधाराओं की एक एक प्रतीक एक एक व्यक्ति के रूप बारहवीं शताब्दी में पाटन (गुजरात) के सिंहासन पर प्रतापमें इसमें अवतीर्ण की गई है। प्रेम-साधना राधा के रूप शाली नरेश सिद्धराज जयसिंह था। उसी के युद्धों और में, चिर-संरुद्ध नारी-आत्मा का मुक्ति-हुंकार विधृता के जीवन-घटनाओं का लयप्रधान अतुकान्त छन्दों में कवि ने रूप में, कर्मशीलता का संदेश बलराम के रूप में, नेता के वर्णन किया है। राजमाता मिनलदे के साथ जब सिद्धराज अनुसरण की भावना गोप-बालों के रूप में, युग युग में जयसिंह सोमनाथ, के दर्शन का गया था, उसी बीच में क्रान्ति के साधनों को प्रगति देनेवाले कारण नारद के मालव-महीप नरवर्मा ने उनके राज्य पर चढ़ाई की। रूप में; मातृस्नेह की करुण ममता देवकी के रूप में; जयसिंह के मंत्री साँतू से जयसिंह की सोमनाथ-यात्रा का सत्ता के उन्माद का कंस के रूप में तथा ज्ञान-प्रबोध और फल लेकर विजयी नरवर्मा लौट गया । जयसिंह ने लौटसान्त्वना का उद्धव के रूप में इसमें सुन्दर चित्रण कर जब यह सुना तब उसने मालव-नरेश पर चढ़ाई की किया गया है। भाव-पक्ष और कलापक्ष दोनों दृष्टियों और उसे वीरगति प्रदान की। उसके पुत्र और वीर से 'द्वापर' एक उच्च कोटि का ग्रन्थ है। राधा, उद्धव, जगदेव को पकड़ कर भी सिद्धराज ने अपने उदार ग्वाल-बाल, गोपी आदि हमारे चिर-परिचित पौराणिक व्यक्ति व्यवहार से अपना मित्र बना लिया। जगदेव तो उसकी कवि की प्रतिभा और कौशल के आलोक से मण्डित होकर सेवा में ही रहने लगा। इधर सोरठ-नरेश बँगार ने एक अपूर्व मौलिकता से इस रचना में उद्भासित हो सिन्धुराज की ग्रहदोष के कारण परित्यक्त तथा एक उठे हैं। कुम्भार दम्पती-द्वारा परिपालित 'रानकदे' नामक कन्या फा. ९ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035249
Book TitleSaraswati 1937 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1937
Total Pages640
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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