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________________ १७६ सरस्वती [भाग ३८ घेर कर लगातार इतने प्रश्न किये कि वह व्याकुल हो . यथासमय भोजन आदि से निवृत्त होकर राधामाधव उठा । दरबानों के इस दुर्दान्त दल से मुक्ति प्राप्त करने बाबू तथा विपिन बाबू बैठक के सामनेवाले बरामदे में की कामना से शायद वह मन ही मन दुर्गा जी का स्मरण श्रारामकुर्सियों पर बैठकर बातचीत करने लगे। रात्रि के कर रहा था, इसलिए विपद्विनाशिनी ने शीघ्र ही विपत्ति • समय का शीतल समीरण अा अाकर उनकी उष्णता का से उसका उद्धार कर दिया। बहुत ही हृष्ट-पुष्ट, सुन्दर निवारण कर रहा था। बग़लवाले कमरे में दो पलँगों पर और तेजस्वी घोड़ों की जोड़ी से जुती हुई एक बड़ी-सी दोनों ही आदमियों के लिए बिस्तरे लगाये गये थे। गाड़ी श्राकर फाटक के पास खड़ी हुई। वसु महोदय ने पत्नी-वियोग के बाद से ही वसु महोदय ने भीतर का दूर से ही यह भीड़ देख ली थी। इससे कोचमैन को कह सोना बन्द कर दिया था। अन्तःपुर में वे केवल दो बार दिया था कि गाड़ी भीतर न ले चलकर फाटक पर ही भोजन के लिए जाया करते थे या और कोई विशेष कामरोक देना। काज पड़ने पर जाया करते थे, अन्यथा वे बाहर ही बाहर . गाड़ी देखते ही रास्ता छोड़ कर दरबान लोग कायदे अपना समय व्यतीत कर दिया करते थे। के साथ एक अोर खड़े हो गये। राधामाधव बाबू गाड़ी पर बातचीत के सिलसिले में विपिन बाबू ने कहा --तुमने से उतर पड़े। श्रागन्तुक की अोर ज़रा-सा बढ़कर जैसे ही तो भैया एक तरह से हम लोगों की ममता ही छोड़ दी। उन्होंने उसके मुखमण्डल पर दृष्टि डाली, प्रसन्नता के पहले कभी कभी कलकत्ते में चरणों की धूलि पड़ भी मारे उनका हृदय प्रफुल्लित हो उठा। उन्होंने कहा- जाती थी, किन्तु इधर चार वर्ष से उस ओर कभी कृपा श्रो हो, विपिन बाबू हैं ? कहो भाई, कब आये ? श्राओ, ही नहीं की। आयो, भीतर चलो। घर में अच्छा है न ? राधामाधव बाबू ने कहा-क्या करूँ भाई ? अकेला दरबानों के हाथ से इस प्रकार अनायास ही छुटकारा आदमी हूँ, यहाँ से एक मिनट के लिए भी हटने का प्राप्त कर सकने के कारण विपिन बाबू ने बहुत कुछ अवसर नहीं मिलता। लड़का भी यहाँ नहीं रहता कि शान्ति का अनुभव किया। उन्होंने हँसते हुए कहा-हाँ उसी के भरोसे पर कारबार छोड़कर दो-एक दिन के लिए भाई, सब अच्छा है। परन्तु यदि तुम ज़रा देर तक कहीं श्रा-जा सकूँ। और न आते तो तुम्हारी यह बन्दरों की सेना नोच-खसोट विपिन बाबू ने कहा-हाँ, अच्छी याद आ गई। कर शायद मुझे एकदम खा' ही जाती। मुझे तो ऐसा मेरा लड़का सतीश एक दिन सन्तोष की चर्चा कर रहा जान पड़ा कि शायद यहीं जीवन से हाथ धोने पड़ेंगे। था। शायद उसे कहीं से पता चला है कि सन्तोष विलाये न तो समझते थे मेरी बात और न समझते थे मेरे यत से लौटे हुए एक बैरिस्टर की कन्या के साथ विवाह इशारे। सबके सब पूरे परमहंस हैं ! करना चाहता है। शायद उस बैरिस्टर के यहाँ वह अायावसु महोदय ने मुस्कराकर कहा---प्रायः ये सभी नये जाया भी करता है। उसके घरवालों के साथ कभी कभी आदमी हैं न। अभी ये हमारी बँगला-भाषा ठीक ठीक सिनेमा आदि भी देखने जाता है। क्या तुमनहीं समझ पाते। यह कहकर विपिन बाबू का हाथ पकड़े विपिन बाबू की बात काट कर वसु महोदय ने कहाहए राधामाधव बाबू बैठक में गये। दरबानों के इस दल ऐसी बात है ? क्या यह सब सच है ? ने शिकार को हाथ से निकला हा देखकर उदास मन विपिन बाबू ने कहा-सच-झूठ का हाल भाई से फिर अपना कार्य पूर्ववत् प्रारम्भ कर दिया। परमात्मा जाने, परन्तु चर्चा मैंने इस तरह की सुनी है । . विपिन बाबू सन के दलाल थे। कलकत्ते में वे रहा वसु महोदय ने मुँह से तो कोई बात नहीं कही, परन्तु . करते थे। उस दिन वे यहाँ सन ख़रीदने के लिए मन ही मन वे सोचने लगे कि वैष्णव-वंश में जन्म 'आये थे। वसु महोदय विपिन बाबू के छटपन के साथी ग्रहण करके क्या वह इस तरह के अधःपतन के मार्ग की थे, इसलिए जब कभी कलकत्ते जाने की आवश्यकता ओर अग्रसर हेा चला है ? क्या वह पूर्वजों का धर्म और पड़ती तब वे प्रायः विपिन बाबू के ही यहाँ ठहरा करते थे। नाम डुबा देना चाहता है ? क्या मेरे धर्म और मेरे समाज Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035249
Book TitleSaraswati 1937 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1937
Total Pages640
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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