Book Title: Gyansgar Mahakavi Ke Kavya Ek Adhyayan
Author(s): Kiran Tondon
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य एक अध्ययन 'श्री दिगम्बर जैन महाकवि आचार्य श्री १०८ जानसागरजी महाराज Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थ परिचय राजस्थान प्रदेश के राणौली ग्राम में जन्म लेने वाले महाकवि ज्ञानसागर बीसवीं शताब्दी के कवि हैं । दस अध्यायों में विभक्त इस शोधग्रन्धमें उनके त्याग, परोपकार, क्रियाशीलता आदि गुणों से सम्पन्न व्यक्तित्व पर प्रकाशपात करते हुए उनके छः संस्कृत काव्यग्रन्थों - जयोदय, वीरोदय, सुदर्शनोदय, श्रीसमुद्रदत्तचरित, दयोदयचम्पू एवं मुनिमनोरञ्जनशतकका साहित्यिक मूल्याङ्कन किया गया है। इस सन्दर्भ में इन काव्यग्रन्थों का सारांश, मूलस्रोत, काव्यविधा, पात्र, वर्मनकौशल, भावपक्ष, कलापक्ष आदि को प्रस्तत करने के पश्चात कवि का जीवनदर्शन भी प्रस्तुत करने के पश्चात् कवि का जीवनदर्शन भी प्रस्तुत किया गया है । अन्त में कवि को महाकवि और उनके काव्यग्रन्थों को संस्कृतसाहित्य में समुचित स्थान का अधिकार सिद्ध किया गया है । प्रस्तुत शोधग्रन्थ को पढ़ने वाले सुधी और सहृदय पाठकों को यह ज्ञात हो जाएगा कि आज भी अश्वघोष के समान हमारे कवि के रूप में ऐसे विद्वान् हैं जिनमें कवि और दार्शनिक का मिल-जुला रूप देखने को मिलता है; आज भी उपमा के प्रयोग में कुशल कालिदास, उत्प्रेक्षा के प्रयोग में कुशल बाणभट्ट एवं धनपाल के समान अनुप्रास के सुष्ठु और सरोपस्कारक प्रयोग में कुशल ज्ञानसागर जैसे कवि विद्यमान है;भारवि औरमाघद्वारा संस्थापित चित्रालङ्कारों की परम्परा आज भी ज्ञानसागर जैसे कवियों के द्वारा गतिशील है ; और आज भी ऐसे कवि हैं जो कालिदास, बाण, धनपाल आदि समान भावपक्ष और कलापत्र के मञ्जुल समन्वय को प्रस्तुत करने में समर्थ हैं। _इतना ही नहीं, शोधग्रन्थ के अन्त में दिए गए परिशिष्टों से पाठक यह भी जान लेंगे कि महाकवि ज्ञानसागर संस्कृत भाषा में विशुद्ध दार्शनिक काव्य कृतियों को रचने के साथ ही साथ हिन्दी भाषा में काव्यकृतियों, दार्शनिक कृतियों और उपदेशात्मक कृतियों की भी संरचना करने में कुशल थे । मुझे विश्वास है कि प्रस्तुत शोधग्रन्थ महाकवि ज्ञानसागरजी की पूरी जानकारी पाठकों को देने में समर्थ होगा। Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6 महाकवि ज्ञानसागर के काव्य एक अध्ययन -: लेखिका :डॉ. किरण टण्डन -: प्रकाशक/प्रकाशन :आचार्य ज्ञानसागर वागर्थ विमर्श केन्द्र, ब्यावर एवं श्री दिगम्बर जैन ज्ञानोदय तीर्थ क्षेत्र, नारेली-अजमेर (राज.) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | प्रेरक प्रसंग: चारित्र चक्रवर्ती पू. आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज के सुशिष्य, तीर्थक्षेत्र समुद्धारक, आगम के प्रामाणिक एवम् सुमधुर प्रवचनकार, युवामनीषी, ज्ञानोदय तार्थ क्षेत्र (नारेलीअजमेर) प्रेरक, आध्यात्मिक एवम् दार्शनिक सन्त मुनि श्री सुधासागरजी महाराज एवम् पू. क्षु. श्री गंभीरसागरजी एवं क्षु. श्री धैर्यसागरजी महाराज के 1996 जयपुर वर्षायोग में महाकवि ज्ञानसागर के साहित्य पर पंचम् विद्वत संगोष्ठी के सुअवसर पर प्रकाशित । प्रकाशक : आचार्य ज्ञानसागर वागर्थ विमर्श केन्द्र ब्यावर (राज.) ग्रन्थमाला डॉ. रमेशचन्द जैन, बिजनौर | सम्पादक एवं नियामक पं. अरुणकुमार शास्त्री, ब्यावर | संस्करण : द्वितीय - 1996 प्रति : 1000 मूल्य : - | प्राप्ति स्थान : आचार्य ज्ञानसागर वागर्थ विमर्श केन्द्र "सरस्वती भवन" सेठ जी की नसियाँ ब्यावर 305 901 (राज.) श्री दिगम्बर जैन ज्ञानोदय तीर्थ क्षेत्र नारेली-अजमेर (राज.) फोन : 33663 श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र मन्दिर संघीजी, सांगानेर, (जयपुर-राज.) - मन्द्रि Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य एक अध्ययन -: आशीर्वाद एवं प्रेरणा :मुनि श्री सुधासागरजी महाराज क्षु. श्री गंभीरसागरजी महाराज क्षु. श्री धैर्यसागरजी महाराज - - -: सौजन्य : श्री दिगम्बर जैन समिति जयपुर (राज.) -: प्रकाशक/प्रकाशन :आचार्य ज्ञानसागर वागर्थ विमर्श केन्द्र, ब्यावर श्री दिगम्बर जैन ज्ञानोदय तीर्थ क्षेत्र, नारेली-अजमेर (राज.) Page #6 --------------------------------------------------------------------------  Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री दिगम्बरजैन महाकवि आचार्य श्री १०८ ज्ञानसागरजी महाराज Page #8 --------------------------------------------------------------------------  Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानोदय तीर्थ क्षेत्र - एक दृष्टि भारतीय संस्कृति आदर्श पुरुषों के आदर्शों से प्रसूत एवं संवर्द्धित/संरक्षित है । प्रत्येक भारतीय अपने आदर्श पुरुषों को जीवन के निकटतम सजोने का प्रयास करता है । भारत की आदर्श शिरोमणी दिगम्बर जैन समाज आध्यात्मिक संस्कृति का कीर्तिमान अनादिनिधन सनातन काल से स्थापित करती रही है। इस सनातन प्रभायमान दि. जैन संस्कृति में प्रत्येक युग में चौबीस-चौबीस. तीर्थंकर होते रहे हैं, होते रहेंगे । जिनकी सर्वज्ञता से प्रदत्त जीवन को जयवंत बनाने वाले सूत्रों ने इनके व्यक्तित्व को आदर्शता एवं पूज्यता प्रदान की है। वीतरागी, निष्पही, अठारह दोषों से रहित, अनन्त चतुष्ट्य के धनी, इन अरहन्तों ने अपनी दिव्य वाणी से राष्ट्र समाज एवं भव्य जीवों के लिये सर्वोच्च आदर्श प्राप्त करने का मार्ग प्रशस्त किया है । . जब इन महान् अरहन्तों का परम् निर्वाण हो जाता है तब इनके अभाव को सद्भाव में अनुभूत करने के लिए दि. जैन संस्कृति में स्थापना निक्षेप से वास्तुकला के रूप में/ मूर्ति के रूप में स्थापित कर जिन बिम्ब संज्ञा से संजित किया जाता है। इन जिन बिम्बों से अनन्त आदर्श प्रतिबिम्बित होकर भव्य प्राणीयों के निधत्त-- निकाचित दुष्ट कर्मों को नष्ट करते हैं । ऐसे महान जिन बिम्बों को जिन-भवत नगर या नगर के निकट उपवन में विराजमान कर उस पवित्र क्षेत्र को आत्मशान्ति का केन्द्र बना लेता है । नगर जिनालयों की अपेक्षा उपवनों में स्थापित तीर्थक्षेत्रों का वातावरण अधिक विशुद्ध होता है । अतः लोग सैकड़ों मीलों से हजारों रूपया खर्च करके तीर्थक्षेत्रों पर तीर्थयात्रा करने जाते हैं । कहा जाता है कि जिस भूमि पर तीर्थ क्षेत्र होते हैं तथा तीर्थ यात्री आकर तीर्थ वन्दना करते हों वह भूमि देवताओं द्वारा भी बन्दनीय हो जाती है । इसलिये प्रत्येक जिला निवासी जैन बन्धु अपने जिले में । किसी सुन्दर उपवन में विशाल जिन-तीर्थ की स्थापना करके सम्पूर्ण राष्ट्र के भव्य जीवों के लिये यात्रा करने का मार्ग प्रशस्त करके अपने जिले की भूमि को पावन बना लेता है । दुर्भाग्य ही कहना चाहिये कि अजमेर जिला दिगम्बर जैन श्रावकों के लिये कर्म स्थली रहा है लेकिन तीर्थक्षेत्र के रूप में धर्म स्थली बनाने का सौभाग्य प्राप्त नहीं कर सका । अर्थात् अजमेर मण्डलार्तगत अभी तक एक भी तीर्थ क्षेत्र नहीं है । जिस पर भारतवर्ष के साधर्मी बन्धु तीर्थ यात्री के रूप में आकर जिले की भूमि को पवित्र कर सकें। Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिले की दिगम्बर जैन समाज के सातिशय पुण्य के उदय से इस राजस्थान की जन्मस्थली, कर्मस्थली बना कर पवित्र करने वाले तथा चार-चार संस्कृत महाकाव्यों सहित 30 ग्रन्थों के सृजेता बाल ब्रह्मचारी महाकवि आ. श्री ज्ञासागरजी महाराज द्वारा श्रमण संस्कृति के उननायक जिन शासन् प्रभावक आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज को दीक्षा देकर अजमेर क्षेत्र को पवित्र किया है । ऐसी इस पावन भूमि पर चिर अन्तराल के बाद संत शिरोमणी आचार्य श्री विद्यासागर महाराज के परम् शिष्य आध्यात्मिक संत मुनि श्री सुधासागरजी महाराज, क्षु. श्री गम्भीरसागरजी, क्षु. श्री धैर्यसागरजी का पावन वर्ष 1994 में वर्षायोग हुआ । इसी वर्षा योग में सरकार, समाज एवं साधु की संगति ने इस जिले को आध्यात्मिक वास्तुकला को स्थापित करने के लिए नारेली ग्राम के उपवन को तीर्थक्षेत्र में परिवर्तित करने के लिये चुना । सच्चे पुरुषार्थ में अच्छे फल शीघ्र ही लगते हैं ऐसी कहावत है । तद्नुसार 4 माह के अन्दर ही अजमेर से 10 कि.मी. दूर नारेली ग्राम में किशनगढ़-ब्यावर बाईपास पर एक विशाल पर्वत सहित 127.5 बीघा का भूखण्ड दिगम्बर जैन समाज को सरकार से आवंटित किया गया जिसका नामकरण आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज एवं मुनि श्री सुधासागरजी महाराज के आशीवाद से "ज्ञानोदय तीर्थ" ऐसा मांगलिक पवित्र नाम रखा गया । इस क्षेत्र का संचालन दिगम्बर जैन समिति (रजि.) अजमेर द्वारा किया जाता है । इस क्षेत्र पर निम्न योजनाओं का संकल्प जिला स्तरीय दिगम्बर जैन समाज में किया है। . 1. त्रिमूर्ति जिनालय (मूल जिनालय) - इस महाजिनालय में अष्टधातु की 11-11 फुट उतंग तीर्थंकर, चक्रवर्ती कामदेव जैसे महा पुण्यशाली पदों को एक साथ प्राप्त कर महा निर्वाण को प्राप्त करने वाले श्री शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ, अरहनाथ के जिन बिम्ब विराजमान किये जावेंगे । यह जिनालय एस क्षेत्र को मूलनायक के नाम से प्रसिद्ध होगा। 2. श्री नन्दीश्वर जिनालय - यह वही जिनालय है जिसकी वन्दना शायद सम्यग्दृष्टि एक भवतारी सौधर्म इन्द्र अपने परिकर सहित वर्ष की तीनों अष्टानिका पर्व में जाकर निरन्तर ८ दिन तक पूजन अभिषेक कर अपने जीवन को धन्य बनाता है । यह नन्दीश्वर द्वीप जम्बूदीप से आठवें स्थान पर पड़ता है । अतः वहां पर मनुष्यों का जाना सम्भव नहीं है । एतर्थ उस नन्दीश्वर दीप के 52 जिनालयों को स्थापना निक्षेप से इस क्षेत्र में भव्य जीवों के दर्शनार्थ इस जिनालय की स्थापना की जा रही है । Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ LE फ फ्र 3. सहस्त्रकूट अरहन्त तीर्थंकरों के शरीर में 1008 सुलक्षण होते हैं अतः तीर्थंकरों को 1008 नामों से पुकारते हैं । इस एक - एक नाम के लिये एक-एक वास्तु कला में विराजमान कर 1008 बिम्ब एक स्थान पर विराजमान किये जाते हैं । इसलिये इसको सहस्रकूट जिनालय कहा जाता है । श्री कोटि भट्ट राजा श्रीपाल के समय सहस्रकूट जिनालय के सम्बन्ध में श्रीपाल चरित्र में वर्णित किया गया है कि जब सहस्रकूट जिनालय के कपाट स्वतः ही बन्द हो गये तब कोटि भट्ट राजा श्रीपाल एक दिन उसकी वन्दना करने के लिये आते हैं तो उसके शील की महिमा से कपाट एकदम खुल जाते हैं । - 4. त्रिकाल चौबीसी जिनालय यह वह जिनालय है जिनमें भरत क्षेत्र के भूत, वर्तमान व भविष्य की 24-24 जिन प्रतिमायें 5.6 फुट उतंग 24 जिनालयों में विराजमान की जावेगी । भगवान् ऋषभदेव के निर्वाण के बाद शोक मग्न होकर भरत चक्रवर्ती विचारने लगा कि अब तीर्थ का प्रवर्तन कैसे होगा । तब महा मुनिराज गणधर परमेष्ठी कहते हैं कि हे चक्रि, अब धर्म का प्रवर्तन जिन बिम्ब की स्थापना से ही सम्भव 1 तब चक्रवर्ती भरत ने मुनि ऋषभ सेन महाराज का आर्शीवाद प्राप्त कर कैलाश पर्वत पर स्वर्णमयी 72 जिनालयों का निर्माण कराकर रत्न खचित 500-500 धनुष प्रमाण 72 जिन बिम्बों की स्थापना की । 5. मानस्तम्भ जैनागम के अनुसार जब भगवान का साक्षात समवशरण लगता है तब चारों दिशाओं में चार मानस्तम्भ स्थापित किये जाते हैं और मानस्तम्भ में चारों दिशाओं में एक - एक प्रतिमा स्थापित की जाती है अर्थात 1 मानस्तम्भ में कुल चार प्रतिमायें होती हैं । इस मानस्तम्भ को देखकर मिथ्यादृष्टियों का मद (अहंकार) गल जाता है और भव्य जीव सम्यग्दृष्टि होकर समवशरण में प्रवेश कर साक्षात अरहंत भगवान् की वाणी को सुनने का अधिकारी बन जाता है । इस सम्बन्ध में अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर के समय एक घटना का उल्लेख जैन शास्त्रों में मिलता है कि इन्द्रभूति गौतम अपने 5 भाई और 500 शिष्यों सहित भगवान् महावीर से प्रतिवाद करने के लिये अहंकार के साथ आता है लेकिन मानस्तम्भ को देखते ही उसका मद गलित हो जाता है और प्रतिवाद का भाव छोड़कर / सम्यक्त्व को प्राप्त कर । सम्पूर्ण शिष्यों सहित जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर भगवान् महावीर के प्रथम गणधर पद को प्राप्त हो गया अर्थात् इस मानस्तम्भ 筑 - Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की महिमा कितनी अनुपम है कि इन्द्रभूति गौतम कहां तो भगवान् - से लड़ने आया था और कहां भगवान् का प्रथम गणधर बन गया । ऐसा यह भव्य मानस्तम्भ इस क्षेत्र पर निर्माण किया जा रहा है । 6. तलहटी जिनालय - इस जिनालय में वृताकार प्रथम मंजिल पर प्रवचन हाल रहेगा । दूसरी मंजिल पर भगवान् बाहुबलि, तीसरी पर भरत और चौथी पर ऋषभदेव भगवान् की प्रतिमायें विराजमान होंगी । 7. 18 दोषों से रहित तीर्थङ्कर अरिहंत भगवान के द्वारा उपदेश देने की सभा को समवशरण कहते हैं इसकी रचना कुबेर द्वारा होती- देव, मनुष्य एवं तिर्यञ्चों की 12 सभाएं होती है । भव्य जीव ही इस समवशरण में प्रवेश करते हैं । ऐसा यह भव्य जीवों का तारण हार समवशरण भी इस क्षेत्र पर स्थापित किया जा रहा है । संतशाला - क्षेत्र हमेशा से साधु सन्तों के धर्म ध्यान करने के आवास स्थान रहे हैं । इस क्षेत्र पर भी आचार्य विद्यासागरजी आदि महाराज जैसे महासन्त संघ के साथ भविष्य में यहां विराजमान होंगे एवं अन्य आचार्य साधुगण वन्दनार्थ, साधनार्थ विराजमान रहेंगे । उनकी साधनानुकूल सन्त वसतिका बनाने का निर्णय लिया गया है । 9. गौशाला - वर्तमान में मानव स्वार्थ पूर्ण होता चला जा रहा है । इसी कारण से गाय, बैल, भैंस आदि जब इसके उपयोगी नहीं होते अथवा दूध देना बन्द कर देते हैं तब व्यक्ति उनकी सेवा सुश्रुसा नहीं करके उनको कसाई अथवा बूचड़खाने में भेज देता है । ऐसे आवारा पशुओं को इस क्षेत्र में रख कर उनके जीवन को अकाल हत्या से/ मरण से बचाया जावेगा। यह क्षेत्र समवशरण है और समवशरण में एक सभा तिर्यञ्चों की होती हैं । अतः यह गौशाला है इस क्षेत्र रूपी समवशरण में एक सभा के रूप में प्रतिष्ठित होगी इस दिगम्बर जैन ज्ञानोदय तीर्थ क्षेत्र गौशाला का शिलान्यास श्री भैरूसिंह शेखावत, मुख्य मंत्री राजस्थान सरकार द्वारा किया गया है । 10. ज्ञानशाला (विद्यालय) - मानवीय दृष्टिकोण से विचारने पर जीवन का एक आवश्यक अंग आजीविका भी है । इस आजीविका को कार्यान्वित रूप देने के लिये मनुष्य को लौकिक व शाब्दिक ज्ञान की भी आवश्यकता Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 卐 - है । इस दृष्टिकोण से इस क्षेत्र पर विद्यालय को स्थापित करने का भी योजना है । साथ ही एक विशाल ग्रन्थालय भी स्थापित किया जायेगा । 11. भाग्यशाला (औषधालय / चिकित्सालय ) जीव का आधार शरीर है और शरीर बाहरी वातावरणों से प्रभावित होकर जीव को अपने अनुकूल क्रिया करने में बाधा उत्पन्न करता है । तब शरीर में आई हुई विक्रतियों को दूर करने के लिये औषधि की आवश्यकता होती है । अत: इस औषधायल/चिकित्सालय से असहाय गरीबों के लिये निःशुल्क चिकित्सा कराने के विकल्प से स्थापना की जावेगी । 12. धर्मशाला - क्षेत्र की विशालता को देखते हुये ऐसा लगता है कि भविष्य में यह एक लघु सम्मेद शिखर का रूप ग्रहण कर लेगा । जिस प्रकार दिगम्बर जैन सिद्ध क्षेत्र श्री सम्मेद शिखरजी, महावीर जी अतिशय क्षेत्र आदि में निरन्तर यात्री आकर दर्शन पूजन आदि का लाभ लेते हैं उसी प्रकार इस क्षेत्र में भी तीर्थ यात्री बहु संख्या में आकर दर्शन पूजन का लाभ लेवेंगे । अतः उनकी सुविधा के लिये 300 कमरों की धर्मशाला आधुनिक सुविधाओं सहित बनाने का निर्णय लिया गया है । - 13. उदासीन आश्रम अपनी गृहस्थी से विरक्त होकर लोग इस क्षेत्र पर आकर अपने जीवन को धर्म साधना में लगा सकें । अतः उदासीन आश्रम के निर्माण करने का निर्णय लिया गया है । 卐 14. बाउण्ड्री दीवाल सम्पूर्ण क्षेत्र को सुरक्षित करने के लिए 6 फुट ऊंची बाउण्ड्री दीवाल की सर्वप्रथम आवश्यकता थी । पूज्य मुनि श्री के प्रवचनों से प्रभावित होकर अजमेर जिले की दिगम्बर जैन महिलाओं ने इस बाउण्ड्री को बनाने का आर्शीवाद प्राप्त किया । - 15. पहाड़ी के लिए सीढ़ी निर्माण उबड़-खाबड़ उतङ्ग पहाड़ी पर जाने के लिए सीढ़ियों की आवश्यकता थी । अजमेर जिले के समस्त दिगम्बर जैन युवा वर्ग ने इस सीढ़ियों को बनाने का पूज्य मुनि श्री से आर्शीवाद प्राप्त किया । - - 16. अनुष्ठान विधान क्षेत्र शुद्धि हेतु 28.6.95 से 30.6.95 तक समवशरण महामंडल विधान का आयोजन पूज्य मुनि श्री सुधासागरजी महाराज ससंघ सानिध्य में किया गया । तदनन्तर मुनि श्री के ही ससंघ सानिध्य में 1.12.95 से 10.12.95 तक सर्वतोभद्र महामंडल विधान अर्द्ध-सहस्र, 卐 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्र इन्द्राणियों की सम्भागिता में महत् प्रभावना के साथ सम्पन्न हुआ । इसी विधान के अन्तर्गत मूलनायक, त्रिकाल चौबीसी, नंदीश्वर जिनालय एवं मानस्तम्भ का शिलान्यास किया गया । इस महोत्सव में माननीय भैरोसिंह शेखावत मुख्य मंत्री राजस्थान सरकार, श्री ललित किशोर चतुर्वेदी शिक्षा एवं सार्वजनिक निर्माण राज्य मंत्री, श्री गंगाराम चौधरी राजस्व राज्य मंत्री, श्री किशन सोनगरा खादी एवं ग्रामोद्योग राज्य मंत्री, श्री सावरमल जाट राज्य मंत्री, श्री महावीर प्रसाद जैन सचेतक राजस्थान विधान सभा, श्री ओंकारसिहं लखावत अध्यक्ष नगर सुधार न्यास अजमेर, सांसद श्री रासासिंह रावत. सांसद अजमेर, श्री किशन मोटवानी विधायक अजमेर, श्री कैलाश मेघवाल गृह एवं खान मंत्री राजस्थान सरकार, श्री पुखराज पहाड़िया जिला प्रमुख अजमेर, श्री देवेन्द्र भूषण गुप्ता जिलाधीश अजमेर, श्री वीरकुमार अध्यक्ष नगर परिषद, श्री अदिति मेहता संभागीय आयुक्त अजमेर, कांग्रेस (इ) अध्यक्ष अजमेर माणक चन्द सोगानी । आदि प्रशासनिक अधिकारियों ने इस दस दिवसीय मंडल विधान में अपना महतीय योगदान दिया है । 17. सरकारी सहयोग - इस क्षेत्र स्थापना के पूर्व 26.10.94 को दिगम्बर जैन समिति (रजिस्टर्ड) अजमेर का गठन कर राज. संस्था रजिस्ट्रीकरण अधिनियम 1958 के अर्न्तगत दिनांक 2.11.94 को पंजीकृत कराया गया। नगर सुधार न्यास के अध्यक्ष ओंकारसिंह लखावत एवं कांग्रेस अध्यक्ष अजमेर माणकचन्द सोगानी के विशेष सहयोग से इस नारेली पर्वतीय स्थल का चयन किया गया । तदुपरान्त महाराज श्री ने इस स्थल का निरिक्षण कर इस स्थल को पवित्र किया । समाज के कर्मठ कार्यकर्ताओं, स्थानीय प्रशासन एवं राजस्व राजमंत्री राजस्थान के विशेष सहयोग से रियायती दर पर यह पहाड़ी मैदान-दिगम्बर जैन समाज को दिगम्बर जैन तीर्थ क्षेत्र स्थापना हेतु स्थाई रूप से अवंटित किया गया। तदुपरान्त आचिंटेक्ट श्री उम्मेदमल जैन एवं निर्मल कुमार जैन ने क्षेत्र के योजनाओं सहित नक्क्षे तैयार किये । 10.12.95 को माननीय भैरोसिंह शेखावत मुख्य मंत्री राजस्थान सरकार एवं माननीय ललित किशोर जी चतुर्वेदी शिक्षा एवं सार्वजनिक निर्माण मंत्री जी ने मेन रोड़ से पहाड़ी के ऊपर तक डामर रोड बनाने की घोषणा की । सांसद श्री रासासिंह रावत ने 3 ट्यूबवैल सरकारी स्तर पर लगाने की घोषणा की । राजस्व राज्यमंत्री श्री गंगाराम Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A 3 फ़्रैं I I चौधरी जी ने क्षेत्र की योजनाओं को देखते हुए लगभग 200 बीघा जमीन और सरकार से दिलाने की घोषणा की जिलाधीश द्वारा प्रशासनिक समस्त कार्यों को करने की घोषणा की । गौशाला में जिला प्रमुख धर्म निष्ठ श्री पुखराज पहाड़िया एवं प्रशासन का विशेष सहयोग देने की घोषणा की गई है । गृह एवं खान मंत्री जी श्री कैलाश मेघवाल ने पुलिस चौकी की घोषणा की । इस प्रकार राज नेताओं द्वारा इस नवोदित तीर्थ क्षेत्र के विकास में हुई घोषणाएं क्रियान्वित होने की प्रतिक्षा कर रही है, माननीय मुख्यमंत्री श्री भैंरुसिंहजी शेखावत ने गौशाला को विशेष सुविधायुक्त बनाने के लिए आयुक्त श्रीमति अदिति मेहता को विशेष निर्देष दिये । 18. विशेष सहयोग पहाडी आवंटित होने के थी कि पहाड़ी को समतल कैसे किया जाये निष्ठ आर. के. मार्बल्स लि. किशनगढ़ वालों ने अपनी मशीन द्वारा पहाड़ी तक का कच्चा मार्ग एवं पहाडी का समतली करण लगभग डेढ़ माह के अन्दर करके क्षेत्र एवं सच्चे देव शास्त्र गुरु के प्रति सच्ची श्रद्धा व्यक्त कर असम्भव कार्य को सम्भव कर दिखाया है । बाद सबसे बड़ी समस्या 1 । लेकिन यह कार्य धर्म - 1 पाषाण- टंकोतकीर्ण वास्तु कला पाषाण टंकोत- कीर्ण वास्तुकला विशेष रूप से प्रायः लुप्त सी हो चुकी थी लेकिन तीर्थ क्षेत्र जीर्णोद्धारक एवं वास्तुकला के मर्मज्ञ दिगम्बर जैन मुनि श्री सुधासागरजी महाराज की दूर दृष्टि ने उस खोई हुई कला को खोज निकाला, तथा उस जीर्णशीर्ण वास्तुकला का जीर्णोद्धार कर इस संस्कृति को चिर स्थाई बनाने के लिए उपदेश दिया । मुनिराज ने अपने उपदेशों में सद् प्रेरणा दी कि आर.सी.सी. (R.C.C.) के मंदिर बनाने से संकृति दीर्घकाल तक सुरक्षित नहीं रह सकेगी क्योंकि आर.सी.सी. की उम्र मात्र 100 वर्षों की है । मंदिरों का निर्माण सहस्रों वर्षो को ध्यान में रख कर करना चाहिए । दूसरी बात यह है कि जैन प्रतिष्ठा पाठों में लोहे के प्रयोग को प्रशस्त नहीं कहा है । गुरु का यह उपदेश समाज के हृदयों को छू गया तथा पत्थर - चूना के मंदिर बनाने वाले शिल्पियों को खोजा गया। " जिन खोजा तिन पाईया गहरे पानी पेठ - वाली कहावत चरितार्थ हुई परिणाम स्वरुप शिल्पि उपलब्ध हो गये समाज एवं समिति ने मुनि श्री सुधासागरजी महाराज के चरणों में श्री फल चढ़ाकर संकल्प किया कि इस ज्ञानोदय तीर्थ क्षेत्र पर ( पहाड़ी पर ) जितने भी मंदिर बनेंगे वह सभी खजुराहो, देलवाड़ा, देवगढ़, रणकपुर के समान कलापूर्ण पत्थर के ही बनेंगे । उनमें लोहे का प्रयोग नहीं किया जावेगा अर्थात वह आर.सी.सी. के नहीं बनेंगे ।. I 卐 - Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ D ON जिनालयों का तक्षण कार्य प्रारम्भ कर दिया गया है । पाषाण टंकोत कीर्ण वास्तु कला को पुनरोज्जीवित करने वाला भारत वर्ष का यह अनुपम दिगम्बर तीर्थ क्षेत्र अनोखा कीर्तीमान स्थापित करेगा । स्वर्ण अवसर- आइये हम सबके महान् सातिशय पुण्य के उदय से ज्ञानोदय तीर्थ में अनेक मांगलिक शुभ योजनाओं को क्रियान्वित किया जा रहा है। कितना अच्छा अवसर है कि उपरोक्त योजनाओं को आपकी जड़ सम्पदा द्वारा स्थापित करने का । जड़ सम्पदा पुण्य के उदय से आती है लेकिन जाने के दो द्वार होते हैं । एक पाप कार्यों के द्वारा और दूसरी पुण्य कार्यों के द्वारा । भरत चक्रवर्ती ने भी अपने धन का सदुपयोग करके कैलाश पर्वत पर 72 स्वर्णमयी जिनालय बनवाये थे अर्थात चक्री ने भी अपना धन व्यय किया था । और एक रावण था जिसने अपने धन का दुर्पयोग अपने पापोपभोग करके महलों को, लंका को स्वर्णमय बनाकर नष्ट किया था। दोनों के परिणाम आप हम सब जानते है । एक चक्रवर्ती ने अपने धन का सदुपयोग जिनालय बनाने में किया सो वह जिनालय के समान पूज्य जिनेन्द्र देव के पद को प्राप्त हुआ और रावण ने भोग सामग्री में किया तो उसे नरक का वास मिला । आईये- हम सब इश्वाकु वंशी भरत चक्रवर्ती के वंशज हैं। हमें भी परम्परानुसार अपने धन का उपभोग ज्ञानोदय तीर्थ क्षेत्र में बनने वाले जिनालयों में करना है और इश्वाकु वंश के कुल दीपक बनने का गौरव प्राप्त करना है । इस तीर्थ की समस्त धार्मिक योजनायें अति शीघ्र करने का संकल्प समाज ने लिया है । अतः शीघ्र विचारिये, सोचिये एवं अपने दान की घोषणा करके चक्रवर्ती के वंश के बनने का गौरव प्राप्त करिये। आप सब के सहयोग से ही यह तीर्थ भारत में दिगम्बर जैन संस्कृति की ध्वजा को फहरा सकेगा और अजमेर जिला भारतीय दिगम्बर जैन संस्कृति में अपना एक ऐतिहासिक अध्याय जोड़ सकेगा । भारतवर्ष का प्रथम बहुउद्देशीय नवोदित यह ज्ञानोदय तीर्थ क्षेत्र अनेक योजनायें अपने गर्भ में संजोय हुए है । उन्हीं योजनाओं में से पू. मुनि श्री सुधासागर जी के आर्शीवाद प्रेरणा एवं सानिध्ये में "श्री दिगम्बर जैन ज्ञानोदय तीर्थ क्षेत्र ग्रन्थालय" नाम से एक पुस्तकालय शुभारम्भ किया गया - इस क्षेत्र से प्रसूत इस पुष्प के अन्तर्गत जिनवाणी के प्रचार प्रसार हेतु ग्रन्थों को प्रकाशन कराने के कार्य का भी शुभारम्भ किया जा रहा है । श्रुतदेवताय नमः ! . . प्रस्तुति : दिगम्बर जैन समिति (रजि.) अजमेर (राज.) कैलाशचन्द पाटनी, अजमेर कार्यालय : श्री दिगम्बर जैन ज्ञानोदय तीर्थ क्षेत्र नारेली-अजमेर (राज.) । फोन नं. 33663, वीर निर्वाण सं. 2522 ईसवी सन्-1996 क Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्थापित : 1 सितम्बर 1996 फोन नं. 384663 श्री दिगम्बर जैन श्रमण संस्कृति संस्थान जैन नशियां, नशियां रोड - सांगानेर . (पंजीयन सं. 320 दिनांक 25-8-96) प्राचीन समय से ही जयपुर जैन संस्कृति का प्रमुख केन्द्र रहा है और | यहां के विद्वानों ने समय - समय पर जैन धर्म के प्रचार-प्रसार में अमूल्य योगदान दिया है। इस क्रम में दिगम्बर जैन आचार्य संस्कृति महाविद्यालय सौ वर्ष से अधिक समय से प्रयास रत है । परन्तु छात्रावास के अभाव में विद्यालय में जो श्रमण संस्कृति के उपासक विद्वान तैयार होने चाहिए थे वे नहीं हो पा रहे हैं जिसके फलस्वरुप विभिन्न धार्मिक समारोह एवं पर्वो पर विद्वानों की मांग आने पर भी पूर्ति करने में असमर्थता रहती थी जिससे जैन संस्कृति के सिद्धान्तो एवं ज्ञान का वांछित प्रचार प्रसार नहीं हो पा रहा है इसी अभाव की पूर्ति हेतु पूज्य 108 आचार्य संत शिरोमणी आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के प्रतिभाशाली शिष्य प्रवर मुनिवर 108 श्री सुधासागर जी महाराज की प्रेरणा और आशीर्वाद से श्री दिगम्बर जैन श्रमण संस्कृति संस्थान की स्थापन 1 सितम्बर, 1996 को अपार जन समूह के बीच की गई । इस संस्थान के माध्यम से एक छात्रावास जिसमें 200 छात्र रहकर जैन दर्शन का अध्ययन करेंगे और विद्वान बनकर समाज में जैन तत्वज्ञान और श्रमण संस्कृति का प्रचार प्रसार करेंगे। इस संस्थान के मुख्य उद्देश्य निम्न प्रकार हैं - 1. दिगम्बर जैन धर्म अनादि काल से प्रचलित है जिसकी श्रमण परम्परा भी अनादि काल से शाश्वत रुप से चली आ रही है और वर्तमान में भी विद्यमान है । उसी पवित्र श्रमण परम्परा (28 मूलगुणों को निर्दोष - पालन | करने वाली) को संरक्षित करना तथा श्रावकों को उनके कर्तव्य एवं संस्कारों से अलंकृत कराना उन संस्कारों का सिखाने के लिये छात्रों को श्रमण संस्कृति रक्षक/उपासक विद्वानों के रुप में तैयार करना इस संस्थान का मुख्य उद्देश्य है। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : DD 2. जो अध्यात्मवाद के नाम पर वर्तमान साधुओं को आहारदान, वैय्यावृत्ति, विनयादि न करके उनका सम्मान नहीं करते हैं जो यह कहते हैं कि वर्तमान में आचार्य कुन्दकुन्द की मूल-आम्नायानुसार मुनि होते ही नहीं है उन लोगों के द्वारा प्रचारित सन्मार्ग का खण्डन कर अथवा रोक कर सन्मार्ग का प्रचार - प्रसार करना । 3. वर्तमान में कुछ साधुओं में व्याप्त शिथिलाचार को रोकने तथा समाप्त करने का प्रयास करना । -4. .जो संस्थाएं विद्वान् आगमविरुद्ध विशेषार्थ लिखकर शास्त्रों के भाव को बदलने की कोशिश कर रहे है, चारो अनुयोगों में से द्रव्यानुरोग को विशेष मानकर अनुयोगों को अप्रयोजनीय बतलाते हैं, उनकी उपेक्षा करते हैं, प्रकाशन एवं स्वाध्याय में प्रमुखता नहीं देते, उनके दुष्प्रचार को रोककर चारों अनुयोगो के शास्त्रों का मूल रुप में प्रकाशन, प्रचार-प्रसार एवं स्वाध्याय की प्रेरणा देना । 5. मूल आगम परम्परा अनुसार विद्वानों को प्रशिक्षित करना, उनको स्थान स्थान पर भेजकर दिगम्बर जैन धर्म का प्रचार - प्रसार करना, शिविरादि लगाकर लोगो को धर्म व संस्कारों को सिखाना । अप्रकाशित या आवश्यक ग्रन्थों का अनुवाद या प्रकाशन करना, पूजा प्रतिष्ठा विधानादि करना या कराना, स्थान-स्थान पर धर्मप्रसार के लिए श्रमण संस्कृति पाठशालाएं खोलना । समाज को सप्त व्यसनों से मुक्त कराकर श्रावकों को उनके चार/षट आवश्यको को करने की प्रेरणा देना, सिखाना, समाज में व्याप्त रात्रि भोजन, मृत्यु भोज एवं दहेज आदि कुरीतियों का निवारण करना । 7. संस्थान में प्रशिक्षण के लिए प्रविष्ट छात्रों के आवास, भोजन, पठन पाठन की निःशुल्क या उचित शुल्क पर व्यवस्था करना व कराना । 8. आवश्यकतानुसार विभिन्न स्थानों पर अपने निर्देशन में पाठशाला, छात्रावास, विद्यालय आदि खोलना एवं सुचारु रुप से संचालित करना । 19. विभिन्न अवसरों पर विभिन्न विषयों पर विद्वानों की गोष्ठी सम्मेलन वाचनादि का आयोजन करना । Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10. विभिन्न स्थानों की प्राचीन ग्रन्थों का संग्रह करना और देश विदेश में | श्रमण संस्कृति की रक्षा की उचित व्यवस्था करना तथा शोधकार्य कराने की समुचित व्यवस्था करना । 11. विदेशो में दिगम्बर जैन धर्म के मूल आम्नय का प्रचार हेतु प्रकाशित __ग्रन्थों को भेजना तथा छात्रों और विद्वानों को भेजने, शिक्षण प्रशिक्षण की व्यवस्था करना । 12. दिगम्बर जैन मूल - आर्ष आम्नाय में प्रतिपादित धर्म के विरोध में अज्ञान; द्वेष या ईर्ष्यादिवश लिखे गये लेखों, पुस्तकों, व्याख्यानों, शोध - प्रबंधो आदि का येन - केन प्रकारेण निराकरण करना एवं सन्मार्ग का विकास करना । 13. धार्मिक पठन पाठन के लिए निश्चित पाठ्य पुस्तकों का प्रकाशन कराना, उनके शिक्षण - प्रशिक्षण की व्यवस्था करना, उनके परीक्षा के लिए परीक्षा बोर्ड की स्थापना एवं व्यवस्था करना । 14. जयपुर नगर एवं समस्त भारत में ऐसे संगठनों की रचना करना, उन्हे उचित संरक्षण, प्रोत्साहन, एवं आर्थिक सहायत देना, उनके प्रचार-प्रसार कार्य का संवर्द्धन करना, जिनका उद्देश्य जैन श्रमण संस्कृति को संरक्षित करना एवं मानव कल्याण करना है । विनीत : गणेशकुमार राणा महावीरप्रसाद पहाड़िया मंत्री अध्यक्ष Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . महाकवि आचार्य ज्ञानसागर महाराज की 1 साहित्य - साधना लेखक : मुनि 108 श्री सुधासागर जी महाराज ____ जैन साहित्य में चौहदवीं शताब्दी के बाद संस्कृत महाकाव्यों की विच्छिन्न | श्रृंखला को जोड़ने वाले राजस्थान प्रान्त, सीकर जिला, राणोली ग्राम में पिता चतुर्भुज व माता घृतवरी की कोख से प्रसूत गौर-वर्णीय महाकवि भूरामल शास्त्री हुए हैं। ___बचपन में ही ज्ञान अर्जन की ललक होने के कारण संस्कृत विद्या व जैन | दर्शन में प्रवेश करने के लिए स्याद्वाद महाविद्यालय बनारस में शास्त्री तक अध्ययन किया । अध्ययन के उपरान्त सृजन साहित्य का लक्ष्य बनाया तथा आत्म उत्थान | हेतु बाल ब्रह्मचारी रहने का संकल्प किया । | ब्रह्मचारी बनकर संस्कृत साहित्य के लेखन करने में इतने निमग्न हो गये कि चार-चार महाकाव्यों सहित संस्कृत एवं हिन्दी भाषा में तीस ग्रन्थ लिखे । णाणस्य फलम् उपेक्खा' कुंद-कुंद के इस सूत्र को जीवन में साकार करने के लिए अविरत दशा से आगे कदम बढ़ाते हुए देशव्रत रूप क्षुल्लक दशा को | धारण किया । तदुपरांत चरित्र का चरमोत्तम पद महाव्रत-रूप दिगम्बरी दीक्षा धारण की तथा आचार्य वीर सागर, आचार्य शिव सागर महाराज के संघ को पठन-पाठन कराते हुए उपाध्याय पद से सुभोशित हुए । इसके बाद आचार्य पद को ग्रहण करके कई भव्य प्राणियों को मोक्ष-मार्ग का उपदेश प्रदान कर अनेकों मुमुक्षुओं को मुनि दीक्षा से उपकृत किया । इन्हीं शिष्यों में प्रथम शिष्य ऐसी सुयोग्यता को प्राप्त हुए कि आज सारे विश्व के साधुओं में श्रेष्ठता को प्राप्त को गए, जिन्हें दुनियाँ "संत शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर जी' के नाम से जानती है । जीवन के अन्त में अपना आचार्य पद इन्हीं "विद्यासागर" के देकर लगभग | 180 दिन की "यम संल्लेखना" धारण की । अन्त में चार दिन तक चतुर्विद आहार के त्याग के साथ 1 जून, 1973 ज्येष्ठ कृष्णा अमावस्या को 10 बजकर 20 मिनट | पर नसीराबाद में पार्थिव शरीर को छोड़कर संसार का अन्त करने वाली समाधि को प्राप्त हुए अर्थात् समाधिस्थ हो गये । Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 45 इनके द्वारा रचित २९ ग्रन्थों की संक्षिप्त समीक्षा यहाँ प्रस्तुत : 1. जयोदय महाकाव्यम् 卐 यह महाकाव्य रस अलंकार एवं छन्द की त्रिवेणी से पवित्रता को प्राप्त है। साहित्य, दर्शन एवं आध्यात्मिक शैली में देश की ज्वलंत समस्याओं का निराकरण करता है। इस युग के आदि तीर्थकर ऋषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र प्रथम चक्रवर्ती सेनापति जयकुमार के चारित्रिक जीवन की सरस कथा के आश्रय पूर्वक इस काव्य की रचना हुई है । इस काव्य में श्रृंगार रस और शान्तरस की समानान्तर प्रवहमान धारा पाठकों को अपूर्व रस से सिक्त कर देती है । जयकुमार और सुलोचना की प्रणय कथा का प्रस्तुत वर्णन नैषधीय चरित्र एवं कालिदास के काव्यों को स्मरण दिला देता है । इस काव्य का प्रकृति चित्रण माघ के काव्यों की तुलना करने के लिए प्रेरित करता है । इस महाकाव्य रूपी सागर की तलहटी साहित्य है तो दर्शन उसके किनारे और रस- अलंकार आदि की छटा अपार जल राशि के रूप में दृष्टिगोचर होती है एवं अहिंसा, सत्य, अचौर्य, अपरिग्रह एवं ब्रह्मचर्य आदि आचरणपरक अनेक सूत्र रूपी रत्नों का भण्डार इस जयोदय महाकाव्य रूप सिन्धु में भरा पड़ा है । साहित्य जगत में 20वीं शताब्दी का सर्वोत्कृष्ट महाकाव्य तो है ही साथ ही जैन दर्शन में 14वीं शताब्दी के बाद का प्रथम महाकाव्य भी है । इस महाकाव्य में 3047 श्लोक 28 सर्गों में है । संस्कृत और हिन्दी टीका सहित दो भागों में (पूर्वार्द्ध एवं उत्तरार्द्ध) इसका प्रकाशन किया गया है । यह महाकाव्य महाकवि आचार्य ज्ञान सागर महाराज ने दीक्षा के पूर्व लिखा था, जब आपका नाम ब्रह्मचारी पंडित भूरामल शास्त्री था । 2. वीरोदय महाकाव्यम् यह महाकाव्य जयोदय महाकाव्य के समान ही रस- अलंकार एवं शब्दों से परिपूर्ण है । इसे जयोदय महाकाव्य का अनुज कह सकते हैं । दिगम्बर जैन दर्शन के अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर के जीवन चरित्र का सांगोपांग वर्णन किया है । भगवान महावीर के जीवन चरित्र को देश की आधुनिक समस्याओं के निराकरण को ध्यान में रखते हुए आधुनिक शैली में वर्णन किया है । गया , फ्र 994 श्लोक वाला यह महाकाव्य 22 सर्गों में विभाजित है । छः सर्गों पर स्वोपज्ञ संस्कृत एवं एवं समस्त सर्गों पर स्वोपज्ञ हिन्दी टीका सहित प्रकाशित है। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - यह महाकाव्य भी महाकवि आचार्य ज्ञानसागर जी ने दीक्षा के पूर्व लिखा था । उस समय आपका नाम ब्रह्मचारी पंडित भूरामल शास्त्री था । 3. सुदर्शनोदय महाकाव्यम् यह महाकाव्य जैन दर्शनानुसार चौबीस कामदेवों में से अन्तिम कामदेव सेठ सुदर्शन के जीवन चरित्र को प्रस्तुत करता है । इस महाकाव्य में एक गृहस्थ के सदाचार, शील एवं एक पत्नीव्रत की अलौकिक महिमा को प्रदर्शित किया गया है, को व्यभिचारिणी स्त्रियाँ एवं वेश्याएँ अनेक प्रकार की कामुकता से परिपूर्ण अपनी चेष्टाओं से भी स्वदार संतोषव्रती सुदर्शन को शील व्रत से च्युत नहीं कर पाती है । ___काव्य नायक जयकुमार के शील व्रत की महिमा के कारण शूली भी सिंहासन में बदल जाती है । यह महाकाव्य रूढ़िक परम्पराओं से हटकर दार्शनिक साहित्य विधा से ओत-प्रोत होकर भक्ति संगीत की अलौकिक छटा प्रस्तुत करता है। एक आर्य श्रावक की दैनिक चर्या को सुचारु ढंग से प्रस्तुत किया गया है । राग की आग में बैठे हुए काव्यानायक को वीतरागता के आनन्द का अनुभव कराया है । काव्यनायक के जीवन के अंतिम चरण को श्रमण संस्कृति के सिद्धान्तों से विभुषित किया है । यूँ कहना चाहिये कि यह काव्य जहाँ साहित्य की छटा को बिखेर कर साहित्यकारों के लिए और दार्शनिकता के कारण दार्शनिकों के लिए अपनी बुद्धि को परिश्रम करने की प्रेरणा देता है, वहीं पर गृहस्थ एवं साधु की. आचार संहिता पर भी प्रकाश डालता है । इस काव्य को 481 श्लोकों को लेकर 9 सर्गों में विभाजित किया गया है । स्वोपज्ञ हिन्दी टीका सहित प्रकाशित है । यह महाकाव्य भी महाकवि आचार्य ज्ञानसागर जी ने दीक्षा के पूर्व लिखा | था, जिस समय आपका नाम ब्रह्मचारी पंडित भूरामल शास्त्री था । . 4. भद्रोदय महाकाव्यम् (समुद्रदत्त चरित्र) ___इस काव्य में अस्तेय को मुख्य लक्ष्य करके एक भद्रमित्र नामक व्यक्ति | के आदर्श चरित्र को काव्य की भाषा शैली में प्रस्तुत किया गया है । वहीं पर सत्यघोष जैसे मिथ्या ढोंगी के काले कारनामों की कलई खोली गई है । यह काव्य 'सत्यमेव जयते' की उद्घोषणा करता है । इस लघु-महाकाव्य के लक्षणों के साथसाथ पुराण काव्य एवं चरित्र काव्य के लक्षणों का समन्वय हो जाने के कारण त्रिवेणी संगम के समान पवित्रता को प्राप्त होता है । यह काव्य 344 श्लोकों को लेकर 9 सर्गों में विभाजित है । Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह महाकाव्य भी महाकवि ज्ञानसागर जी ने दीक्षा के पूर्व लिखा था, जिस समय आपका नाम ब्रह्मचारी पंडित भूरामल शास्त्री था । 5. दयोदय चम्पू चम्पू काव्यों की परम्परा बहुत प्राचीन काल से गंगा-जमुना के संगम के समान मानी जाती है । क्योंकि चम्पू काव्य में गद्य एवं पद्य दोनों का ही सम्मिश्रण होता है । इन चम्पू काव्यों की शैली पाठकों के लिए रुचिकर एवं सहज अर्थ बोध कराने में कारण बनती है । यह दयोदय चम्पू काव्य भी बहुत ही सरल है। इस चम्पू काव्य में विषय वस्तु को गागर में सागर के समान भरा गया है । इस काव्य में कवि ने एक मृगसेन धीवर के छोटे से अहिंसाव्रत को लेकर अहिंसा व्रत की महिमा का बखान किया है । काव्य की विषय वस्तु से ज्ञात होता है कि धर्म या आचरण किसी जाति विशेष की बपौदी नहीं है । एक धीवर जैसी तुच्छ जाति के मृगसेन धीवर भी अहिंसा व्रत के फल को पा गया । काव्य में धीवर को भी वेदों का ज्ञान होता है, यह बात भी दर्शायी गयी है । काव्य में कहा है कि पुनर्जन्म, उपकार्य, उपकारी-भाव भव भवान्तरों तक अपना प्रभाव दिखाते है। धीवर का नियम था कि मैं अपने जाल में आयी हई प्रथम मछली को नहीं मारूंगा। परिणामस्वरुप वही एक मछली पांच बार उसके जाल में फँसी और पाँचो बार उसने छोड़ दिया । इस पर उपकार के कारण अगले भव में पाँच बार उस मछली के जीव ने उस धीवर के प्राण बचाये । इस काव्य का भाव-पक्ष महनीय है । इस काव्य में सात लम्ब हैं तथा स्वोपज्ञ हिन्दी टीका सहित प्रकाशित है । । यह च्मपू काव्य भी महाकवि ज्ञानसागर जी ने दीक्षा के पूर्व लिखा था, जिस समय आपका नाम ब्रह्मचारी पंडित भूरामल शास्त्री था । 6. सम्यकत्व-सार-शतकम् जैन दर्शनानुसार सम्यग् दर्शन मोक्ष मार्ग की प्रथम सीढ़ी है । अतः सम्यग् दर्शन की महिमा जैन आगमानुकूल इस काव्य में की गई है । कवि के द्वारा रचित आध्यात्मिक काव्यों में यह उच्च श्रेणी का काव्य है । सम्यग्दर्शन के बिना घोरघोर चरित्र भी मोक्ष का कारण नहीं हो सकता । कवि ने इस बात को विशेष रूप में दर्शाया है । यह काव्य 104 श्लोकों में स्वोपज्ञ हिन्दी टीका सहित प्रकाशित है । यह महाकाव्य भी महाकवि ज्ञानसागर जी ने दीक्षा के पूर्व लिखा था, जिस समय आपका नाम ब्रह्मचारी पंडित भूरामल शास्त्री था। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 卐 筑 7. मुनि मनोरञ्जनाशीतिः इस काव्य में उपदेशात्मक शैली प्रयुक्त की गई है। दिगम्बर मान्यतानुसार श्रमणों की पवित्र चर्या का वर्णन किया गया है। तथा वर्तमान काल की भी परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए आगमानुकूल श्रमण चर्या को सुरक्षित रखा गया है । यह काव्य साधु सन्तों के लिए प्रतिदिन पाठ करने योग्य है । आर्यिकाओं की चर्या का वर्णन भी इसमें समाविष्ट किया गया है । साधु के प्रवृत्तिपरक मार्ग को प्रदर्शित करते हुए निवृत्ति पर बढ़ने हेतु इस काव्य में विशेष जोर दिया गया है । इस काव्य में 80 पद्य है । यह काव्य आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज द्वारा दीक्षा के पूर्व लिखा गया था । उस समय आपका नाम ब्रह्मचारी पंडित भूरामल शास्त्री था । 8. भक्ति संग्रह लगभव 2000 वर्ष पूर्व आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी द्वारा 10 भक्तियाँ प्राकृत भाषा में लिपिबद्ध की गई थीं। उसके बाद पूज्यपाद स्वामी द्वारा संस्कृत भाषा में 10 भक्तियाँ लिखी गईं। इसके बाद किसी भी आचार्य द्वारा 10 भक्तियों को लिखने का उल्लेख मुझे देखने में नहीं आया। 20वीं शताब्दी के महाकवि आचार्य ज्ञानसागर महाराज ने संस्कृत पद्यों में भक्तियों की रचना करके प्राचीन परम्परा को पुनर्जीवित किया है । 6 श्लोकों में सिद्ध भक्ति, 5 श्लोकों में श्रुत- भक्ति, श्लोकों में चरित्र - भक्ति, 6 श्लोकों में आचार्य - भक्ति, 5 श्लोकों में योगि भक्ति, 5 श्लोकों में परमगुरु - भक्ति, 5 श्लोकों में चतुर्विंशति तीर्थकर भक्ति, 5 श्लोकों में शांति - भक्ति, श्लोकों में समाधि भक्ति, 6 श्लोकों में चैत्य भक्ति, 22 श्लोकों में प्रतिक्रमण भक्ति, 4 श्लोकों में कायोत्सर्ग भक्ति, ये भक्तियाँ पूर्व भक्तियों की अपेक्षा सरल एवं कम श्लोक से ही पूर्ण भावभिव्यक्ति व्यक्त करती है । जैन दर्शन में साधुओं की दैनिक आवश्यक क्रियाओं में यह भक्तियाँ अवश्य ही प्रयोग करनी पड़ती है । लेखक ने नन्दीश्वर एवं निर्माण भक्ति की रचना नहीं की हैं। प्रतिक्रमण एवं कायोत्सर्ग भक्ति की रचना एक नवीन प्रस्तुतीकरण कहा जा सकता है । यह ग्रन्थ भी आचार्य ज्ञानसागर जी के द्वारा रचित है ( श्रमण अवस्था ) + 筑 卐 Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. हित-सम्पादकम् यह काव्य मिथ्या रूढ़ियों का खण्डन करता है। क्रिया-काण्डियों की अविचारित | गतानुगतिकताओं के विरुद्ध इस काव्य में क्रान्तिकारी घोषणा की गयी है । जातीयता के अहंकार के मद में डूबने वाले अहंकारियों के लिए अहंकार का खण्डन करने वाला है । व्यक्ति जन्म से नहीं, कर्म से महान् बनता है । व्यक्ति को पापी से नहीं, पाप से घृणा करनी चाहिए । इन सूत्रों को ध्यान में रखकर इस काव्य की रचना हुई है । आज के आधुनिक तर्कशीलं व्यक्तियों के लिए यह काव्य बहुत ही पसन्द आयेगा । चारों पुरुषार्थो का सटीक वर्णन इस काव्य में है । सामाजिक एवं पारिवारिक रीति-रिवाजों को भी इस काव्य में समाविष्ठ किया गया है । इस काव्य की मुख्य विशेषता है कि अपनी तर्कणाओं की पुष्टि कवि ने पूर्वाचार्यो द्वारा आगम में कथित सटीक उदाहरण देकर की है । जाति के मद में डूबने वाले लोगों ने आगम में कथित जिन बातों को गौण कर दिया था, कवि ने उन बातों को निर्भीक होकर प्रस्तुत कर दिया है । यह लघु काव्य क्रान्तिकारी है एवं मिथ्याकुरीतियों का निराकरण और सम्यक् रीति-रिवाजों की स्थापना करने वाला है । इस काव्य में 159 श्लोक हैं। यह ग्रन्थ भी महाकवि ज्ञानसागर जी के द्वारा दीक्षा के पूर्व लिखा गया था, जिस समय आपका नाम ब्रह्मचारी पंडित भूरामल शास्त्री था । हिन्दी - साहित्य ___10. भाग्य परीक्षा जैन दर्शन में कथित धन्य कुमार के प्रसिद्ध कथानक के आधार पर इस काव्य को रचा गया है । इस काव्य का काव्यनायक धन्य कुमार है, जिनका जीवन आत्मीयजनों की प्रतिकूलता में पल्लवित होता है । फिर भी अपने पुण्य के कारण अपने प्रतिद्वन्दियों के लिये यह सबक सिखाता है कि जिनके भाग्य में पुण्य की सत्ता है, उसका कोई कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता है । कर्तव्य परायणता एवं परोपकार जीवन का धर्म है । सत्यवादिता एवं सहिष्णुता जीवन का प्राण है । त्याग ही जीवन का व्यसन है एवं कर्मठता मानवीय गुण है । इस समस्त बातों के लिए महाकवि ने इस काव्य में वर्णन करके असहिष्णु मानव के लिए शिक्षा दी है । इस काव्य |में 838 पद हैं। इस काव्य को आचार्य ज्ञानसागर जी ने दीक्षा के पूर्व लिखा । ब्रह्मचारी अवस्था में आपका नाम ब्रह्मचारी पंडित भूरामल शास्त्री था । d Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ LE 11. ऋषभ चरित | जैन दर्शन के अनुसार इस युग में आद्य तीर्थंकर ऋषभदेव के जीवनवृत्त के आधार पर यह काव्य लिखा है । भगवान आदिनाथ के अतीत एवं वर्तमान भवों का वर्णन इस काव्य में समाविष्ट है । जिनसेनाचार्य द्वारा रचित महापुराण के सारभूत विषयों को पद्य रूप में इस काव्य में 814 पद है । यह काव्य भी महाकवि ज्ञानसागर महाराज ने दीक्षा के पूर्व लिखा था, उस समय आपका नाम ब्रह्मचारी पंडित भूरामल शास्त्री था । ___ 12. गुण सुन्दर वृत्तान्त इस काव्य में शिक्षाप्रद अनेक लघु कथाएँ काव्य रूप में समाविष्ट की गई | हैं, जैसे प्रद्युम्न कुमार का जीवन चरित्र, यशोधर की रोमांटिक कथा, सतन कुमार चक्रवर्ती के रूप में अहंकार का दुष्परिणाम तथा द्वारिका के भस्म होने का हृदयविदारक वर्णन इस काव्य में किया है । कथाओं के प्रस्तुतीकरण के मध्य वर्तमान की ज्वलन्त समस्याओं के निराकरण के लिए शिक्षाप्रद पद्य भी प्रस्तुत किये गये | हैं । इस काव्य को 595 पदों में लिखा गया है । यह काव्य भी महाकवि आचार्य ज्ञानसागर महाराज ने दीक्षा के पूर्व लिखा था, उस समय आपका नाम ब्रह्मचारी | पंडित भूरामल शास्त्री था। 13. पवित्र मानव जीवन ___इस काव्य में गृहस्थ को आजीविका किस प्रकार करना चाहिए इसका वर्णन किया गया है जैसे कृषि करना, पशुपालन, पारिवारिक व्यवस्था, समाज-सुधार स्त्री का पारिवारिक दायित्व आदि प्रमुख पारिवारिक एवं सामाजिक समस्याओं का निदान इस काव्य में किया गया है । यदि गृहस्थ इस काव्य के अनुसार अपने को व्यवस्थित कर ले तो कीचड़ में भी कमल खिल सकता है । गृहस्थी रूपी कीचड़ में भी व्यक्ति काव्य कथित सिद्धान्तों को अपनाकर अपने जीवन को स्वर्णमय बना सकता है । इस काव्य में 193 पद हैं । यह काव्य आचार्य ज्ञान सागर जी महाराज ने क्षुल्लक अवस्था में लिखा था । उस समय आपका नाम क्षु. ज्ञान भूषण जी महाराज था । 14. कर्त्तव्य पथ प्रदर्शन इस ग्रन्थ में सम्प्रदाय निरपेक्ष जीवन को शिक्षा देने वाली तर्कयुक्त कथायें दी गई है । शिक्षाप्रद विषय वस्तु को प्रस्तुत करने के लिए लेखक ने छोटी छोटी 卐 Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहानियों का आलम्बन लिया है । प्रारम्भिक नैतिक जीवन बनाने के लिए यह पुस्तक पठनीय है । प्रवचन कर्ताओं को यह पुस्तक प्रवचन करने की कला सिखाती है । इस ग्रन्थ को 82 शीर्षकों में विभाजित किया है । एक-एक शीर्षक वर्तमान की ज्वलन्त समस्याओं का निराकरण करता है एवं भगवान महावीर के सिद्धान्तों की स्थापना करता है । इस पुस्तक का अंग्रेजी, कन्नड़, मराठी भाषा में भी अनुवाद किया जा रहा है । यह पुस्तक आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज ने मुनि अवस्था में लिखी है। 15. सचित्त विवेचन जिह्वा इन्द्रिय की चाटुकारिता के वशीभूत होकर, सचित्त वनस्पति खाने वालों को यह पुस्तक सावधान करती है कि थोड़े से रसना इन्द्रिय के स्वाद के कारण वनस्पति एवं जल आदि का सचित्त भक्षण नहीं करना चाहिए अर्थात अचित्त करके ही ग्रहण करना चाहिये । इस पुस्तक में वैज्ञानिक दृष्टिकोण भी दृष्टिगोचर होता है क्योंकि आज विज्ञान कह रहा है कि जल एवं वनस्पति आदि को उबाल कर काम में लेना चाहिये । बिना गर्म की हुई वस्तुओं को खाने से वैक्टीरिया अथवा वायरस जैसी बीमारियाँ हो सकती हैं । अर्थात् यह पुस्तक जहाँ दया धर्म की रक्षा का उपदेश देती है तो दूसरी तरफ अपने स्वास्थ्य लाभ का भी संकेत करती है । यह पुस्तक लगभग 54 पृष्ठीय गद्य रूप में प्रकाशित है । यह पुस्तक महाकवि आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज ने क्षुल्लक अवस्था में लिखी थी, उस समय आपका नाम क्षुल्लक ज्ञान भूषण था । 16. सचित्त विचार - इस पुस्तक में सचित्त विवेचन का ही विषय है । लेखक ने सचित्त विवेचन को प्रस्तावना में इसका उल्लेख इस प्रकार किया है कि मैंने सबसे पहले सचित्त नामक निबन्ध लिखा था। लोगों ने इस निबन्ध को विस्तार से लिखने को कहा। अतः सचित्त विचार की विषय वस्तु को विस्तार करके सचित्त विवेचन लिखा अर्थात् सचित्त विवेचन के पूर्व सचित्त विचार नामक पुस्तक लिखी गई है । सचित्त विचार बाईस पृष्ठीय पुस्तिका के रूप में प्रकाशित है । यह पुस्तक आचार्य ज्ञानसागर महाराज ने दीक्षा के पूर्व लिखी थी, उस समय आपका नाम ब्रह्मचारी पंडित भूरामल शास्त्री था। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 卐 17. स्वामी कुन्द - कुन्द और सनातन जैन धर्म जैन दर्शन के प्रसिद्ध आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी के जीवन वृत्त को लेकर इस पुस्तक में प्रकाश डाला गया है। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी के जीवन सम्बन्धित ऐतिहासिक गवाक्ष एवं उनके मूल सिद्धान्तों के भावों को युक्ति-युक्त ढंग से प्रस्तुत किया गया है । श्वेताम्बर मत की उत्पत्ति, वस्त्र एवं स्त्री मुक्ति का निषेध भी इस पुस्तक में किया गया है । आचार्य कुन्दकुन्द के काल का अवधारण करने वाले शिलालेखों का भी उल्लेख इसमें किया गया है । आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी को शिलालेखों के प्रमाणों के साथ षट्खण्डागमकार, पुष्यदंत, भूतभलि से पूर्व इस पुस्तक में सिद्ध करके विद्वानों की बुद्धि को श्रम करने के लिए प्रेरित किया है। दिगम्बर धर्म में समय-समय पर आये संघ भेदों के वर्णन भी इस पुस्तक में हैं। अस्सी पृष्ठीय यह पुस्तक इतिहास के लिए अति महत्त्वपूर्ण है । यह पुस्तक महाकवि आचार्य ज्ञानसागर महाराज ने दीक्षा के पूर्व लिखी थी, उस समय आपका नाम ब्रह्मचारी पंडित भूरामल शास्त्री था । 18. सरल जैन विवाह विधि फ्र विवाह एक सामाजिक रीति रिवाज है, लेकिन लोगों ने इसे धार्मिक रीतिरिवाज मान लिया है, अर्थात वैवाहिक क्रियाओं का सम्बन्ध धर्म से जोड़ने लगे हैं । अनेक मिथ्या आडम्बरों का निषेध करते हुए गृहीत मिथ्यात्व से बचाने वाली यह पुस्तक जैन दर्शनानुसार विवाह विधि को सम्पन्न कर एक आदर्श गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने के लिए मांगलिक विषय प्रस्तुत करती है । विवाह के समय जो मिथ्या कुदेवों को पूजते हैं एवं उनको आह्वान करते हैं तथा बलि आदि मिथ्या क्रियायें करते हैं उनका इस पुस्तक में निषेध किया गया है एवं सच्चे देव, शास्त्र गुरु की साक्षीपूर्वक दाम्पत्य जीवन स्वीकार करने के लिए प्रेरणा दी है गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने वाले वर-वधू के लिए इस पुस्तक के अनुसार विवाह विधि स्वीकार करना चाहिए । पचपन पृष्ठीय गद्य-पद्य हिन्दी, संस्कृत, मंत्रोच्चार आदि से समन्वित यह पुस्तक है । यह पुस्तक भी महाकवि ज्ञानसागर महाराज ने दीक्षा के पूर्व लिखी थी, उस समय आपका नाम ब्रह्मचारी पंडित भूरामल शास्त्री था । 19. इतिहास के पन्ने समस्त ऐतिहासिक अवधारणाओं को पलटने यह ऐतिहासिक लघु निबन्ध इतिहास में नया अध्याय जोड़ता है। शिलालेखों की प्रमाणता संहिता इस 卐 Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में जैन दर्शन के प्रसिद्ध आचार्यों का ऐतिहासिक दृष्टिकोण समाविष्ट किया गया है । इस निबन्ध को लघु पुस्तिका का रूप देकर प्रकाशित किया गया है । यह पुस्तक भी महाकवि ज्ञान सागर जी महाराज ने दीक्षा के पूर्व लिखी थी । 20. ऋषि कैसा होता है यह 40 श्लोक प्रमाण अप्रकाशित काव्य है । वैसे इसमें साधुचर्या का वर्णन है । मुझे लगता है कि लेखक ने पहले ऋषि कैसे होता है इस पर लेखनी चलाने का भाव किया होगा, फिर बाद में वही विचार मुनिमनोरञ्जनाशीति के रूप में परिवर्तित हो गए होंगे । इसलिए इसे गौण करके मुनिमनोरञ्जनाशीति के रूप में लिख दिया हो, अत: इस काव्य के समस्त श्लोक मुनिमनोरञ्जनाशीति काव्य में संयवक्त रूप से प्रकाशित कर दिये गये हैं । टीका-ग्रन्थ 21. प्रवचनसार आचार्य कुन्द-कुन्द स्वामी द्वारा अध्यात्म त्रिवेणी में यह दूसरे नम्बर का ग्रन्थ माना जाता है । यह ग्रन्थ सम्यग दर्शन, सम्यग् ज्ञान एवं सम्यग-चरित्र रूप तीन अधिकारों में विभक्त हैं । श्रमणों के लिए तो यह मूल प्राण है । इस ग्रन्थ पर आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी, आचार्य जयसेन स्वामी की संस्कृत टीकायें उपलब्ध हैं । इस ग्रन्थ पर कई विद्वानों की हिन्दी टीकायें भी हैं, लेकिन वह टीकायें निष्पक्ष नहीं कही जा सकती हैं । आचार्य ज्ञानसागर महाराज ने कुछ मुख्य-मुख्य गाथाओं को लेकर आचार्य कुन्द-कुन्द स्वामी के वास्तविक हृदय को उजागर करने का प्रयास किया है । अध्यात्म प्रेमी बन्धुओं के लिए यह ग्रन्थ विशेष रूप से पठनीय है । यह ग्रन्थ संस्कृत छाया एवं हिन्दी टीका सहित सजिल्द उपलब्ध है । यह टीका ग्रन्थ महाकवि ज्ञानसागर महाराज ने दीक्षा. के पूर्व लिखी थी, उस समय आपका नाम ब्रह्मचारी पंडित भूरामल शास्त्री था । 22. समयसार आचार्य कुन्द-कुन्द स्वामी दिगम्बर परम्परा के आध्यात्मिक रसिक मुख्य आचार्य माने जाते हैं । भगवान महावीर के गणधर गौतम के बाद कुन्द-कुन्द स्वामी का नाम मंगलाचरण के रूप में लिया जाता है । आपके द्वारा बतायी गयी आम्नाय जिनेन्द्र देव द्वारा कथित आम्नाय मानी जाती है । इसीलिये दिगम्बर आम्नाय में Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 卐 卐 वर्तमान में कोई भी कार्य किया जाता है तो कुन्दकुन्द आम्नाय द्वारा किया जाता है, ऐसा कहा जाता है । कुन्द-कुन्द स्वामी ने इतिहासकारों के अनुसार चौरासी पाहुड़ लिखे हैं, लेकिन सम्पूर्ण पाहुड़ वर्तमान में उपलब्ध नहीं होते हैं । जितने भी पाहुड़ उपलब्ध होते हैं, उनमें से तीन ग्रन्थ ( पाहुड़) मुख्य माने जाते हैं । इन तीन में से भी समयसार ग्रन्थ, ग्रन्थराज माना जाता है। इस ग्रन्थ पर आचार्य अमृतचन्द्र- सूरि ने आत्मख्याति नाम की दण्डान्वय टीका लिखी है एवं जयसेन स्वामी ने तात्पर्य वृत्ति नाम की खण्डान्वय टीका लिखी है । इन टीकाओं को लेकर कुन्दकुन्द स्वामी की गाथाओं पर अनेक विद्वानों ने हिन्दी की टीका भी लिखी है लेकिन विद्वान् आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी के हृदय को प्रकट नहीं कर सके । टीकाओं में विशेषार्थों के माध्यम से अपनी भावनाओं को हिन्दी टीकाकारों ने समविष्ट किया है। इन हिन्दी | टीकाकारों ने आचार्य अमृतचन्द्र सुरि एवं जयसेन स्वामी की भावनाओं की भी उपेक्षा की है । आचार्य ज्ञानसागर महाराज एक क्रान्तिकारी निष्पक्ष लेखक थे । एक दार्शनिक व्यक्ति स्वभावानुसार मूल आचार्यों की भावनाओं की उपेक्षा कैसे बर्दाश्त कर सकता है। परिणामस्वरुप जयसेन स्वामी, जो कि वस्ततः आगम एवम् कुन्दकुन्द स्वामी की भावनाओं को पूर्णतः प्रदर्शित करते हैं । यदि आचार्य जयसेन न होते तो कुन्दकुन्द स्वामी का समयसार है, यह भी ज्ञात नहीं होते अर्थात् आचार्य कुन्दकुन्द के नाम को उजागर करने वाले जयसेन स्वामी द्वारा लिखित तात्पर्य वृत्ति नाम की टीका को आधार बनाकर समयसार की हिन्दी टीका आचार्य ज्ञानसागर महाराज ने लिखी है । इस टीका में भी विशेषार्थ दिए गए हैं जो कि तार्किक आगमिक एवम् कुन्दकुन्द स्वामी के हृदय को प्रकट करने वाले हैं। स्वाध्याय बन्धुओं को जिन्हें संस्कृत नहीं आती है, उन्हें यह हिन्दी टीका का स्वाध्याय करके अपनी मिथ्या धारणाओं का विमोचन कर वास्तविक तत्त्व निर्णय कर लेना चाहिए । विद्वानों को निष्पक्ष रूप से एवम् पूर्वाग्रहों का त्याग करके इस टीका का आलोडन करना चाहिए । यह लगभग तीन सौ नब्बे पृष्ठों में सजिल्द प्रकाशित है । इस ग्रन्थ में चार सौ उन्तालिस गाथायें है । जिन पर जयसेन स्वामी द्वारा रजित संस्कृत टीका हैं । मूल गाथाओं का पद्यानुवाद आचार्य विद्यासागर जी एवम् गद्य की हिन्दी टीका आचार्य ज्ञानसागर जी द्वारा लिखित है । इस ग्रन्थ के कई प्रकाशन पूर्व में भी भिन्न-भिन्न स्थानों से प्रकाशित किये जा चुके हैं। यह क फ्र Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 卐 टीका ग्रन्थ महाकवि आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज ने मुनि अवस्था में लिखा था । 23. तत्त्वार्थ सूत्र जैन दर्शन में संस्कृत सूत्र रूप यह ग्रन्थ प्रथम माना जाता है । सारे भारतवर्ष में दशलक्षण पर्व में इसका वाचन होता है । स्वाध्याय प्रेमियों पर इस ग्रन्थ ने बहुत बड़ा उपकार किया है । तत्त्वार्थ सूत्र में कथित विषय वस्तु को अन्य जैनागम, षट्खड़ागम् श्लोक वार्तिक, राजवार्तिक, गोम्मटसार आदि अनेक ग्रन्थों को अपनी टीका में उद्धृत किया है । इनकी हिन्दी टीका पढ़ने से अनेक ग्रन्थों की विषय सामग्री सहज ही उपलब्ध ही जाती है । यह टीका ग्रन्थ महाकवि आचार्य ज्ञानसागर महाराज ने क्षुल्लक अवस्था में लिखी थी। उस समय आपका नाम क्षु. ज्ञान भूषण था । - 24. मानव धर्म जैन दर्शन के प्रसिद्ध उद्भट तार्किक आचार्य समन्तभद्र द्वारा रचित रत्नकरण्ड श्रावकाचार के श्लोकों पर मानव धर्म नाम से हिन्दी टीका लिखी गई है । आचार्य समन्तभद्र स्वामी के श्लोकों का अर्थ तो प्रकट किया ही है, साथ ही उस अर्थ के साथ वर्तमान की सामाजिक समस्याओं के निराकरण हेतु छोटे-छोटे उदाहरण देकर समन्तभद्र आचार्य के हृदय को उजागर किया है । इस पुस्तक को पढ़ते समय ऐसा लगता है जैसे लेखक समन्तभद्र स्वामी के श्लोकों का प्रवचन कर रहा हो अर्थात् प्रवचन शैली में यह पुस्तक लिखी गई है । यह पुस्तक प्रत्येक मानव के लिए पठनीय है । इसके कई संस्करण विभिन्न स्थानों से निकल चुके हैं। इसका कन्नड. मराठी एवं अंग्रेजी अनवाद भी किया जा रहा है। रत्नकरण्ड श्रावकाचार के 150 श्लोकों पर हिन्दी व्याख्या के रूप में प्रकाशित है । यह टीका ग्रन्थ महाकवि ज्ञानसागर महाराज ने दीक्षा के पूर्व लिखा था, उस समय आपका नाम ब्रह्मचारी पंडित भूरामल शास्त्री था। 25. विवेकोदय आचार्य कुन्द-कुन्द स्वामी रचित प्रसिद्ध समयसार की गाथाओं पर हिन्दी गद्य-पद्यात्मक व्याख्या लेखक द्वारा इस ग्रन्थ में की गई है । संक्षिप्त रूप में समयसार के हृदय को समझाने वाला यह विवेकोदय नाम का ग्रन्थ लगभग एक सौ साठ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ O पन पृष्ठों में प्रकाशित है । यह ग्रन्थ महाकवि आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज ने क्षुल्लक अवस्था में लिखा था, उस समय आपका नाम क्षु. ज्ञान भूषण था । 26. देवागम स्तोत्र आचार्य समन्तभद्र द्वारा रचित यह.देवागमस्तोत्र में जिसे इतिहासवेत्ताओं द्वारा गन्धहस्ती महाकाव्य का मंगलाचरण कहा जाता है, समन्तभद्र स्वामी ने भगवान की भी परीक्षा करके उनके गुणों की महिमा का गुणानुवाद किया है । इस देवागम् स्तोत्र का ब्रह्मचारी पं. भूरामल शास्त्री ने पद्यानुवाद किया था । दुर्भाग्य से यह ना तो अभी तक कहीं प्रकाशित हुआ है और ना ही इसकी मूल पाण्डुलिपि अभी तक उपलब्ध हो पाई है, अन्य साक्ष्यों से पद्यानुवादों की सूचना मिलती है । 27. नियमसार आचार्य कुन्द-कुन्द द्वारा रचित समयसार प्रवचन-सार, पंचास्तिकाय ग्रन्थों की कठिन गुत्थियों को सुलझाने वाला कुन्द-कुन्द स्वामी द्वारा ही रचित यह नियमसार ग्रन्थ है । इसका पद्यानुवाद भी ब्रह्मचारी पं. भूरामल शास्त्री (आचार्य ज्ञानसागर जी) द्वारा पद्यानुवाद किया गया । यह भी दुर्भाग्य से अभी तक अप्राप्त है । 28. अष्ट पाहुड़ आचार्य कुन्द-कुन्द द्वारा रचित सम्यक् सन्मार्ग की उद्घोषणा करने वाला यह ग्रन्थ है । इस ग्रन्थ पर भी ब्रह्मचारी पं. भूरामल शास्त्री (आचार्य ज्ञानसागर जी) द्वारा पद्यानुवाद किया गया । यह भी दुर्भाग्य से अभी तक अप्राप्त है । 29. शान्तिनाथ पूजन विधान पूर्व आचार्यों द्वारा रचित विधान का पं. भूरामल शास्त्री (आचार्य ज्ञानसागर जी) ने सम्पादन किया है । जैन दर्शनानुसार प्रत्येक अच्छे कार्य एवम् विघ्न निवारण हेतु शान्ति विधान करने की परम्परा है महाकवि द्वारा सम्पादित इस विधान में अनेक मिथ्या कुदेवों की आराधना का कोई स्थान नहीं दिया है । प्रतिष्ठाचार्य एवं शांति विधान करने वालों के लिए इस पुस्तक से शान्ति विधान करना चाहिए। यह पुस्तक शास्त्राकार रूप में प्रकाशित है । उपरोक्त 29 ग्रन्थ आचार्य ज्ञानसागर जी की साहित्य साधना है । इस साहित्य साधना को देखकर तथा समकालीन लोगों से जो जनश्रुति सुनने में आती हैं कि महाकवि ने इन 29 ग्रन्थों के अलावा और भी ग्रंथ लिखे हैं, जो यत्र तत्र मन्दिरों म Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ $ शास्त्र भण्डारों में पाण्डुलिपि के रूप में पड़े रह सकते हैं, क्योंकि ऐसा सुनने में आता है कि महाकवि जिस प्रान्त में जिस नगर में ग्रन्थ लिखते थे उस ग्रन्थ को पूर्ण करके उसी नगर के जैन मन्दिर के भण्डार में अथवा वहाँ के प्रतिष्ठित व्यक्ति को दे देते थे । जहाँ-जहाँ इनका विहार हुआ है, वहाँ-वहाँ खोज की जा रही है । सम्भव है, इन ग्रन्थों के अलावा कोई नये ग्रन्थ इतिहास जगत को प्राप्त हो जायें । इन ग्रन्थों के ऊपर अभी तक कई लोग पी. एच. डी. कर चुके हैं, जैसे : 1 卐 1 (1) डॉ. हरिनारायण दीक्षित के निर्देशन में डॉ. किरण टण्डन, प्राध्यापक, संस्कृत विभाग, कुमायूँ विश्वविद्यालय, नैनीताल (उत्तर प्रदेश) से " महाकवि ज्ञान सागर के काव्यों का एक अध्ययन" नाम से पी. एच. डी. की उपाधि प्राप्त की है । जिनका प्रकाशन इस्टर्न बुक लिंकर्स, 5825 चन्द्रावल रोड़, जवाहर गंज, दिल्ली - 7 से प्रकाशित हुआ है (2) डॉ. कैलाशपति पाण्डेय, गोरखपुर विश्वविद्यालय से "जयोदय महाकाव्य का समीक्षात्मक अध्ययन" शीर्षक से डॉ. दशरथ के निर्देशन में पी. एच. डी. की उपाधि प्राप्त की है। प्रकाशन आचार्य ज्ञान सागर वागर्थ विमर्श केन्द्र, सरस्वती भवन, सेठजी की नसियाँ, ब्यावर (राज.) से किया गया है । (3) डॉ. रतनचन्द जी जैन, भोपाल के निर्देशन में डॉ. आराधना जैन, बरकतुल्लहा विश्वविद्यालय, भोपाल से "जयोदय महाकाव्य का शैली वैज्ञानिक अनुशीलन", इसका प्रकाशन मुनि संघ वैय्यावृत्ति समिति, स्टेशन रोड़, गंजबासौदा ( विदिशा, मध्यप्रदेश) से हुआ है 1 (4) डॉ. शिवा श्रवण ने डॉ. सर हरि सिंह गौड़ विश्वविद्यालय, सागर से श्रीमति कुसुम भुरिया के निर्देशन में चम्पू काव्य पर शोध ग्रन्थ लिखा है, जिसमें दयोदय चम्पू पर विशद प्रकाश डाला है 1 (5) वर्तमान में श्रीमती अलका जैन, डॉ. रतनचन्द जी के निर्देशन में आचार्य ज्ञानसागर जी के शान्तरस परक तत्त्वज्ञान के विषय पर पी. एच. डी. कर रही हैं । (6) दयानन्द ओझा "जयोदय महाकाव्य का आलोचनात्मक अध्ययन" विषय ग्रहण. का डॉ. सागरमल जैन एवं डॉ. जे. एस. एल. त्रिपाठी, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी के निर्देशन में पी. एच. डी. कर रहे हैं । 卐 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 過 (7) डॉ. नरेन्द्र सिंह राजपूत ने "संस्कृत वाङ्मय के विकास में बीसवीं सदी के जैन मनीषियों के योगदन" पर पी. एच. डी. की है, जिसमें ज्ञानसागर के संस्कृत साहित्य को विवेचित किया गया है। प्रकाशन आचार्य ज्ञानसागर वागर्थ | विमर्श केन्द्र, सरस्वती भवन, सेठजी की नसियाँ ब्यावर (राज.) से किया गया है I I इस प्रकार और भी अनेक शोध प्रबन्ध किये जा सकते हैं, ऐसा विद्वानों का मत है । महाकवि के एक-एक संस्कृत काव्य को लेकर विगत एक साल से अखिल भारतवर्षीय विद्वत् संगोष्ठी की जा रही हैं, जिनमें सैकड़ों विद्वान एक ही काव्य पर भिन्न भिन्न विषयों पर वाचर कर ज्ञानसागर के साहित्य सागर से रत्नों को निकाल रहे हैं 1 प्रथम गोष्ठी अतिशय क्षेत्र साँगानेर, जयपुर में 9 जून से 11 जून, 1994 में हुई । द्वितीय संगोष्ठी अजमेर नगर में वीरोदय महाकाव्य पर 13 से 15 अक्टूबर, 1994 में हुई । तृतीय संगोष्ठी ब्यावर (राजस्थान) में 22 से 24 जनवरी, 1995 में हुई । चतुर्थ संगोष्ठी, 1995 चातुर्मास में किशनगढ़ में हुई, जिससे लगभग 80 जैन- अजैन अन्तराष्ट्रीय विद्वानों ने भाग लिया । यह गोष्ठी ज़योदय महाकाव्य पर थी, सभी विद्वानों ने एकमत से इस महाकाव्य को इस युग का सर्वोच्च महाकाव्य मानकर साहित्य जगत के उच्च सिंहासन पर विराजमान किया है। सभी विद्वानों ने इसे बृहत्त्रयी (नैषधीय चरित्र, शिशुपाल वध एवं किरातार्जुनीयम्) के समकक्ष मानकर बृहत्रयी के नाम को बृहच्चतुष्टयी के रूप में सज्ञित करके साहित्य जगत को गौरान्वित किया है । मैने अपने कानों से विद्वानों के लेख इन संगोष्ठियों में सुने हैं। बहुत ही प्रशंसनीय एवं श्रमसाध्य लेख विद्वानों ने लिखे हैं । गोष्ठियों के दौरान विद्वानों का मत था कि ज्ञान सागर का समग्र साहित्य एक स्थान से प्रकाशित होना चाहिए । सो वह 1994 के चातुर्मास में अजमेर के दिगम्बर जैन समाज के द्वारा प्रकाशित किये जा चुके है। दूसरा निर्णय लिया गया था कि ज्ञानसागर के साहित्य पर पाठ्यक्रम तैयार किया जाये, यह कार्य विद्वानों को सौंप दिया गया। 1 है । तीसरा निर्णय लिया गया था कि आचार्य ज्ञानसागर संस्कृत शब्द कोष तैयार किया जाये, सो यह कार्य भी विद्वानों को सौंप दिया गया है। चौथा निर्णय लिया 筑 卐 Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ OR 卐 गया था कि आचार्य ज्ञानसागर के साहित्य पर पृथक्-पृथक् विद्वानों से पृथकपृथक विषयों पर लगभग तीन-तीन सौ पेज के महा-निबन्ध लिखाये जायें, जिससे शोध प्रबन्ध करने वालों को सुविधा पड़ सके । यह कार्य लगभग 50 विद्वानों को सौंपा गया था, जिसमें से 40 विद्वानों ने महा-निबन्ध लिखने की स्वीकृति प्रदान कर दी है। पाँचवा निर्णय लिया गया है कि इन समस्त कार्यों को कराने हेतु एक निश्चित स्थान पर किसी योग्य विद्वान के निर्देशन में एक संस्था की स्थापना होनी चाहिए। ब्यावर संगोष्ठी के समय पर ब्यावर में डॉ. रमेशचन्द बिजनौर एवं डॉ. अरुण कुमार शास्त्री के संयोजकत्व में आचार्य ज्ञानसागर वागर्थ विमर्श केन्द्र की स्थापना की गई । संस्था का मुख्य कार्य आचार्य ज्ञानसागर से सम्बन्धित निबंध एवं शोध ग्रन्थों का प्रकाशन करना है । साथ ही आचार्य ज्ञान सागर महाराज के साहित्य पर शोध करने वाले छात्रों को निर्देशकों की स्वीकृति पर पाँच सौ रुपये प्रतिमाह शोध छात्रवृत्ति प्रदान करना । इस प्रकार और भी अनेक निर्णय गोष्ठियों में लिए गए हैं, जो पृथक्पृथक् स्मारिकाओं में प्रकाशित किये जा चुके हैं । सम्पूर्ण गोष्ठियों में वांचे गये सभी लेख प्रकाशित किये जा चुके हैं, शोधार्थी केन्द्र से सम्पर्क कर प्राप्त कर सकते हैं। बीसवीं सदी के इस महान् साहित्य साधक की साहित्य साधना का हमें रसास्वादन करना है, यही इस साधक के प्रति सच्ची व अनूठी श्रद्धांजलि होगी। | साहित्य जगत् के इस उपकारी साहित्य साधक का साहित्य प्रेमी बुद्धि में उच्चासन प्रदान करें, यही कृतज्ञता होगी। "कृतमुपकारम् न विस्मरन्ति साधवा" ___ अर्थात वर्तमान विद्वान् महाकवि आचार्य ज्ञानसागर द्वारा साहित्य जगत् पर | किये गये उपकार को न भूलें, यही मेरी भावना है । ॥ इति शुभम् ॥ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . PR . प्रकाशकीय चिरंतन काल से भारत मानव समाज के लिये मूल्यवान विचारों की खान बना हुआ है। इस भूमि से प्रकट आत्मविद्या एवं तत्व ज्ञान में सम्पूर्ण विश्व का नव उदात्त दृष्टि प्रदान कर उसे पतनोमुखी होने से बचाया है । इस देश से एक के बाद एक प्राणवान प्रवाह प्रकट होते रहे । इस प्रणावान बहूलमून्य प्रवाहों की गति की अविरलता में जैनाचार्यों का महान योगदान रहा है । उन्नीसवीं शताब्दी में पाश्चात्य विद्वानों द्वारा विश्व की आदिम सभ्यता और संस्कृति के जानने के उपक्रम में प्राचीन भारतीय साहित्य की व्यापक खोजबीन एवं गहन अध्यनादि कार्य सम्पादिक किये गये । बीसवीं शताब्दी के आरम्भ तक प्राच्यवाङ्मय की शोध, खोज व अध्ययन अनुशीलनादि में अनेक जैनअजैन विद्वान भी अग्रणी हुए । फलतः इस शताब्दी के मध्य तक जैनाचार्य विरचित अनेक अंधकाराच्छादिक मूल्यवान ग्रन्थरत्न प्रकाश में आये । इन गहनीय ग्रन्थों में मानव जीवन की युगीन समस्याओं को सुलझाने का अपूर्व सामर्थ्य है । विद्वानों के शोधअनुसंधान-अनुशीलन कार्यों को प्रकाश में लाने हेतु अनेक साहित्यिक संस्थाए उदित भी हुई, संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी, गुजराती आदि भाषाओं में साहित्य सागर अवगाहनरत अनेक विद्ववानों द्वारा नवसाहित्य भी सृजित हुआ है, किन्तु जैनाचार्य-विरचित विपुल साहित्य के सकल ग्रन्थों के प्रकाशनार्थ/अनुशीलनार्थ उक्त प्रयास पर्याप्त नहीं हैं । सकल जैन वाङ्मय के अधिकांश ग्रन्थ अब भी अप्रकाशित हैं, जो प्रकाशित भी हो तो सोधार्थियों को बहुपरिश्रमोपरान्त भी प्राप्त नहीं हो पाते हैं । और भी अनेक बाधायें/समस्याएं जैन ग्रन्थों के शोध-अनुसन्धान-प्रकाशन के मार्ग में है, अतः समस्याओं के समाधान के साथ-साथ विविध संस्थाओं-उपक्रमों के माध्यम से समेकित प्रयासों की आवश्यकता एक लम्बे समय से विद्वानों द्वारा महसूस की जा रही थी। राजस्थान प्रान्त के महाकवि ब्र. भूलामल शास्त्री (आ. ज्ञानसागर महाराज) की जन्मस्थली एवं कर्म स्थली रही है । महाकवि ने चार-चार महाकाव्यों के प्रणयन के साथ हिन्दी संस्कृत में जैन दर्शन सिद्धान्त एवं अध्यात्म के लगभग 24 ग्रन्थों की रचना करके अवरुद्ध जैन साहित्य-भागीरथी के प्रवाह को प्रवर्तित किया । यह एक विचित्र संयोग कहा जाना चाहिये कि रससिद्ध कवि की काव्यरस धारा का प्रवाह राजस्थान की मरुधरा से हुआ । इसी राजस्थान के भाग्य से श्रमण परम्परोन्नायक सन्तशिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी महाराज के सुशिष्य जिनवाणी के यर्थाथ उद्ोषक, अनेक ऐतिहासिक उपक्रमों के समर्थ सूत्रधार, अध्यात्मयोगी युवामनीषी पू. मुनिपुंगव सुधासागर जी महाराज का यहाँ पदार्पण हुआ। राजस्थान की धरा पर राजस्थान के अमर साहित्यकार के समग्रकृतित्व पर एक अखिल भारतीय विद्वत/संगोष्ठी सागानेर में दिनांक 9 जून से 11 जून, 1994 तथा अजमेर नगर में महाकवि की महनीय कृति "वीरोदय" महाकाव्य पर अखिल भारतीय विद्वत् संगोष्ठी दिनांक 13 से 15 अक्टूबर 1994 तक आयोजित हुई व इसी सुअवसर पर दि. जैन समाज, अजमेर ने आचार्य ज्ञानसागर के सम्पूर्ण 24 ग्रन्थ मुनिश्री के 1994 के चार्तुमास के दौरान प्रकाशित कर/लोकार्पण कर अभूतपूर्व 卐 Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 6 . एतिहासिक काम करके श्रुत की महत् प्रभावना की । पू. मुनि श्री सान्थ्यि में आयोजित इन संगोष्ठियों में महाकवि के कृतित्व पर अनुशीलनात्मक-आलोचनात्मक, शोधपत्रों के वाचन सहित विद्वानों द्वारा जैन साहित्य के शोध क्षेत्र में आगत अनेक समस्याओं | पर चिन्ता व्यक्त की गई तथा शोध छात्रों को छात्रवृत्ति प्रदान करने, शोधार्थियों को! __ शोध विषय सामग्री उपलब्ध कराने, ज्ञानसागर वाङ्मय सहित सकल जैन ४ विद्या पर प्रख्यात अधिकारी विद्वानों द्वारा निबन्ध लेखन-प्रकाशनादि के विद्वानों द्वारा प्रस्ताव आये । इसके अनन्त मास 22 से 24 जनवरी तक 1995 में ब्यावर (राज.) में मुनिश्री के संघ सानिध्य में आयोजित "आचार्य ज्ञानसागर राष्ट्रीय संगोष्ठी" में पूर्व प्रस्तावों के क्रियान्वन की जोरदार मांग की गई तथा राजस्थान के अमर साहित्यकार, सिद्धसारस्वत महाकवि ब्र. भूरामल जी की स्टेच्यू स्थापना पर भी बल दिया गया, विद्वत् गोष्ठिी में उक्त कार्यों के संयोजनार्थ डॉ. रमेशचन्द जैन बिजनौर और मुझे संयोजक चुना गया । मुनिश्री के आशीष से ब्यावर नगर के अनेक उदार दातारों ने उक्त कार्यों हेतु मुक्त हृदय से सहयोग प्रदान करने के भाव व्यक्त किये। पू. मुनिश्री के मंगल आशिष से दिनांक 183.95 को त्रैलोक्य महामण्डल विधान के शुभप्रसंग पर सेठ चम्पालाल रामस्वरूप की नसियाँ में जयोदय महाकाव्य (2 खण्डों में) के प्रकाशन सौजन्य प्रदाता आर. के. मार्बल्स किशनगढ़ के रतनलाल कंवरीलाल पाटनी श्री अशोक कुमार जी एवं जिला प्रमुख श्रीमान् पुखराज पहाड़िया, पीसांगन के करकमलों द्वारा इस संस्था का श्रीगणेश आचार्य ज्ञानसागर वागर्थ विमर्श केन्द्र के नाम से किया गया । आचार्य ज्ञानसागर वागर्थ विमर्श केन्द्र के माध्यम से जैनाचार्य प्रणीत ग्रन्थों के साथ जैन संस्कृति के प्रतिपादक ग्रन्थों का प्रकाशन किया जावेगा एवं आचार्य ज्ञानसागर वाङ्मय का व्यापक मूल्यांकन-समीक्षा-अनुशीलनादि कार्य कराये जायेंगे । केन्द्र द्वारा जैन विद्या पर शोध करने वाले शोधार्थी छात्र हेतु 10 छात्रवृत्तियों की भी व्यवस्था की जा रही है। केन्द्र का अर्थ प्रबन्ध समाज के उदार दातारों के सहयोग से किया जा रहा है । केन्द्र का कार्यालय सेठ चम्पालाल रामस्वरूप की नसियों में प्रारम्भ किया जा चुका है । सम्प्रति 10 विद्वानों की विविध विषयों पर शोध निबन्ध लिखने हेतु प्रस्ताव भेजे गये, प्रसन्नता का विषय है 25 विद्वान अपनी स्वीकृति प्रदान कर चुके हैं तथा केन्द्र ने स्थापना के प्रथम मास में ही निम्न पुस्तकें प्रकाशित की - प्रथम पुष्प - इतिहास के पन्ने - आचार्य ज्ञानसागर जी द्वारा रचित द्वितीय पुष्प - हित सम्पादक - आचार्य ज्ञानसागर जी द्वारा रचित तृतीय पुष्प - तीर्थ प्रवर्तक - मुनिश्री सुधासागरजी महाराज के प्रवचनों का संकलन चतुर्थ पुष्प - लघुत्रयी मन्थन - ब्यावर स्मारिका पंचम पुष्प - अञ्जना पवनंजयनाटकम् - डॉ. रमेशचन्द जैन, बिजनौर Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्टम पुष्प - जैनदर्शन में रत्नत्रय का स्वरूप - डॉ. नरेन्द्रकुमार द्वारा लिखित. सप्तम पुष्प - बौद्ध दर्शन पर शास्त्रीय समिक्षा - डॉ. रमेशचन्द्र जैन, बिजनौर अष्टम पुष्प - जैन राजनैतिक चिन्तन धारा - डॉ. श्रीमति विजयलक्ष्मी जैन नवम पुष्प - आदि ब्रह्मा ऋषभदेव - बैस्टिर चम्पतराय जैन | दशम पुष्प - मानव धर्म - पं. भूरामलजी शास्त्री (आचार्य ज्ञानसागरजी) | एकादशं पुष्प - नीतिवाक्यामृत - श्रीमत्सोमदेवसूरि-विरचित द्वादशम् पुष्प - जयोदय महाकाव्य का समीक्षात्मक अध्ययन - डॉ. कैलाशपति पाण्डेय त्रयोदशम् पुष्प - अनेकान्त एवं स्याद्वाद विमर्श - डॉ. रमेशचन्द जैन, बिजनौर चर्तुदशम् पुष्प - Humanity A Religion - मानव धर्म का अंग्रेजी अनुवाद पञ्चदशम् पुष्प - जयोदय महाकाव्य का शैली वैज्ञानिक अध्ययन- डॉ. आराधना जैन षोडदशम् पुष्प - महाकवि ज्ञानसागर और उनके काव्य : एक अध्ययन - नामक यह ग्रन्थ डॉ. किरण टण्डन, संस्कृत विभागाध्यक्ष की अनुपम कृति है, जिस पर आपको कुमायुं विश्वविद्यालय, नैनीताल द्वारा पी. एच. डी. उपाधि प्रदान की गयी है। - हमें यह कहते हुए परम गौरव का अनुभव हो रहा है कि आचार्य ज्ञानसागर वाङ्मय पर सर्वप्रथम शोधकार्य करके इस दिशा में नव द्वारों के उद्घाटन का श्रेय आदरणीया बहिन श्री डॉ. किरण टण्डन को जाता है ।। - जब इन ग्रन्थों का प्रचार नहीं था, न ही इन पर हिन्दी टीका की गयी थी, उपलब्धता कठिन थी, ऐसे समय में ग्रन्थ के संग्रह में लेखिका को कष्ट साध्य श्रम करना पड़ा और फिर आचार्य श्री के बृहत्रयी-काव्य समकक्ष "जयोदय महाकाव्य" का क्लिष्ट, चित्र बन्धमय भाषा को हृदयंगम करने में ही साधारण विद्यार्थियों/विद्वानों की शक्ति चूक जाती है । परन्तु इस महान् महिला रत्न ने साहस नहीं छोड़ा । "कार्य | वा साधयं देहं वा पातेयम्" के मन्त्र से अनुगुंजित रहते हुए आचार्य श्री के समग्र व्यक्तित्व व कृतित्व का सटीक मूल्याङ्कन कर भारतीय संस्कृत साहित्य के इतिहास में नया अध्याय जोड़ा है। डॉ. किरण टण्डन का महान आचार्य ज्ञानसागर महाराज के काव्यों पर यह प्रथम शोध कार्य है, बड़े गौरव के साथ कहना होगा कि एक ब्राह्मण कुल में जन्मी हुयी महिला ने एक जैन कवि के ऊपर अपना शोध कार्य करने का मन बनाकर सम्प्रदाय निरपेक्षता की तथा साहित्य जगत को प्रदान कर नया किर्तिमान स्थापित किया है । डॉ. टण्डन जी स्वयं इस पुस्तक में कहती है कि महाकवि आचार्य ज्ञानसागर महाराज संस्कृत साहित्य को संस्कृत साहित्य जगत धर्म निरपेक्ष दृष्टि से अवलोकन करें तो इस युग के प्रथम संस्कृत महाकवि के रूप में प्रतिष्ठित होंगे, संस्कृत महाकाव्यों के रहस्यों को बहुत ही सुन्दर एवं गरिमायुक्त शैली में प्रस्तुत किया गया है । महाकवि के साहित्य में से अनमोल रलो को निकालकर तथा अपने शोध ग्रन्थ के माध्यम से | उन रत्नों को हार का रूप प्रदान कर साहित्य जगत को गौरवान्वित किया है । केन्द्र आपकी भूरी-भूरी प्रशंसा करता है । ___ इन दिनों परमपूज्य मुनि पुंगव श्री सुधासागरजी महाराज की प्रेरणा से D . . Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूरे भारत में महाकवि ज्ञानसागर की रचनाओं के अध्ययन/अनुसंधान ने तीव्र गति प्राप्त की तो अनेक शोधार्थियों को इस दिशा में लेम्प पोस्ट की आवश्यकता थी । अनेक विद्वानों के सुझाव भी आये, सभी शोधार्थियों, शोध केन्द्रों को डॉ. किरण टण्डन की आदर्श शोध प्रबन्ध केन्द्र द्वारा उपलब्ध कराया जाय तथा यह महाकवि ज्ञानसागर पर लिखित प्रथम कोटि का प्रथम शोध प्रबन्ध है । अतः इसे प्रकाशित करते हुए हमें परम गौरव का अनुभव हो रहा है । मैं इस अवसर पर ग्रन्थ की स्वनामधन्य लेखिका डॉ. किरण टण्डन के प्रति आभार/कृतज्ञता और श्रद्धाभाव ज्ञापित करता हूँ, कि उन्होंने अनेक विसंगतियों/विपत्तियों से संघर्ष करते हुए आचार्य श्री ज्ञानसागर की रचनाओं से संस्कृत जगत् को न केवल परिचित कराया बल्कि आचार्य ज्ञानसागर का अध्ययन अनुशीलन करने के लिये विद्वानों को बाध्य किया है । भारत की विद्यानुरागी समाज आपकी चिर ऋणी रहेगी । केन्द्र को प्रकाशनार्थ आपने स्वीकृति दी उसके लिये भी हम आपके आभारी है और आभारी है, आपके गुरुवर श्रीयुत हरिनारायण जी दीक्षित के जिन्होनें प्रस्तुत ग्रन्थ पर भूमिका लिखकर ग्रन्थ का गौरव बढ़ाया है। केन्द्र पूर्व प्रकाशित सभी ग्रन्थों के प्रकाशन में उदारता प्रदर्शित करने वाले महानुभावों के प्रति आभार व्यक्त करता है, जिनके सहयोग से हमारे कार्यों को गति मिली है। हम नतमस्तक है पूज्य मुनिवर श्री सुधासागर जी के प्रति श्रद्धानवत है उनके तीर्थचरणों में, जिनकी कृपा-कटाक्ष से अल्पकाल में केन्द्र द्वारा अनेक महनीय, परिश्रम साध्य दुसह कार्य सहज रूप में सम्पादित हो गये । केन्द्र के हर कार्य में तथा प्रत्येक प्रगति पक्ष में मुनिश्री का आशीष ही, केन्द्र की सफलता सटीक हेतु है । जग को अनुपम निधियाँ निशदिन लुटाने वाले अनगार के प्रति आभार व्यक्त करने की शक्ति सामर्थ्य इस आकिञ्चन में नहीं । इस ग्रन्थ का प्रथम प्रकाशन ईस्टर्न बुक लिंकर्स, दिल्ली द्वारा किया गया था। प्रकाशक का आभार मानते हुये इस ग्रन्थ को सहज सुलभता हेतु हमारा केन्द्र इसे पुनः प्रकाशित कर रहा है । आशा है पाठक गण इस ग्रंथ को अपने हाथों में पाकर आनन्दित होंगे। पं. अरूणकुमार शास्त्री ब्यावर (राज.) बृहद्-चतुष्टयी - जयोदय महाकाव्य राष्ट्रिय विद्वत्संगोष्ठी (दिनांक 29.9.95 से 3.10.95) मदनगंजकिशनगढ़ में देश के विविध भागों से समागत हम सब साहित्याध्येता महाकाव्य के अनुशीलन निष्कर्षों पर सामूहित काव्यशास्त्रीय विचारोपरान्त वाणीभूषण महाकवि भूरामल शास्त्री द्वारा प्रणीत जयोदय महाकाव्य को संस्कृत साहित्येतिहास में बृहत्त्रयी संज्ञित शिशुपालवध, किरातार्जुनीय एवं नैषधीयचरित महाकाव्य के समकक्ष पाते हैं। अतः हम सब बृहत्रयी संजित तीनों महाकाव्यों के साथ जयोदय महाकाव्य को सम्मिलित कर बृहच्चतुष्टयी के अभिधान से संज्ञित करते हैं । - Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 卐 हम विद्वज्जगत् से यह अनुरोध करते हैं कि उक्त चारों महाकाव्यों को बृहच्चतुष्टयी संज्ञा से अभिहित करेंगे । @miss p Kamsas) ॐ शु‌‌भायानी जैन 卐 Per Ing inter. प्रा. दमकमाि घः अमृतलाल गंज 2) नमेलीय के भोपाल 5. आराधना जैन Sta 35. मूत्र मनो कला जन सुधा प्रे रे Zutal hd yo प्रेमळ जुन जै জमनुमार Badrenal hasma फुल कल्याण लो क का कীne अद्‌यया মलेটग विजयुक्त डॉ. प्रेमसुमन जैन, उदयपुर डॉ. नलिन के शास्त्री, बोधगया 1. 2. 3. डॉ. अजितकुमार जैन, आगरा 4. डॉ. अशोक कुमार जैन, लाडनूं 5. डॉ. फूलचन्द जैन, वाराणसी 6. डॉ. सुरेशचन्द जैन, वाराणसी 7. डॉ. दयाचन्द साहित्याचार्य, सागर 8. पं. अमृतलाल शास्त्री, दमोह 9. श्रीमती चमेली देवी, भोपाल 10. डॉ. (कु.) आराधना जैन, बासौदा 11. डॉ. (कु.) सुषमा, मुजफ्फरनगर 12. डॉ. मुत्रीदेवी जैन, वाराणसी 13. डॉ. मनोरमा जैन, वाराणसी 14. डॉ. ज्योति जैन, खतौली 15. डॉ. उर्मिला जैन, बड़ौत 16. डॉ. सुधा जैन, लाडनूं 17. डॉ. नरेन्द्रकुमार जैन, सनावद 18. डॉ. सुरेन्द्र कुमार जैन, बुरहानपुर 19. डॉ. ओम प्रकाश जैन, किशनगढ़ 20. डॉ. सरोज जैन, बीना 21. डॉ. प्रेमचन्द जैन नाजीबाबाद 22. प्रो. कमलकुमार जैन, बीना 23. प्रो. अभयकुमार जैन, बीना 24. डॉ. सनतकुमार जैन, जयपुर सुपारे शिया Mummons Gone". -~ ल 2032 Tasv श्रीাঈেন 20 दशिक्षक पि जैन twinder Contr armomato, zvazuz he-...ति ম प्रभावाद्ध Forward. ॐ प्रेमबट संगका 43 Onge Pa/दया Tee सामी ww(N-C. Jain) স, 1. श्रीमती मालती जैन, ब्यावर 2. डॉ. फय्याज अली खाँ, किशनगढ़ 3. डॉ. कस्तूरचन्द सुमन, श्रीमहावीरजी 4. पं. ज्ञानचन्द बिल्टीवाला, जयपुर 5. डॉ. नन्दलाल जैन, रीवा 6. डॉ. कपूरचन्द जैन, खतौली 7. डॉ. उदयचन्द जैन, उदयपुर 8. डॉ. कमलेश जैन, वाराणसी 9. पं. विजयकुमार शास्त्री, श्रीमहावीरजी 10. डॉ.सुपार्श्वकुमार जैन, बड़ौत 11. डॉ. श्रीकान्त पाण्डेय, बड़ौत 12. डॉ. जयन्तकुमार लाइन 13. डॉ. नेमिचन्द जैन, खुरई 14. डॉ. अभयप्रकाश जैन, ग्वालियर 1. डॉ. जयकुमार जैन, मुज्फ्फरनगर 2. डॉ. गौतम पटेल, अमहदाबाद 3. डॉ. रमेशचन्द जैन, बिजनौर 4. डॉ. शीतलचन्द शास्त्री, जयपुर 5. डॉ. श्रीरंजन सूरिदेव, पटना 6. डॉ. वशिष्ठ नारायण सिन्हा, वाराणसी 7. पं. शिवचरणलाल मैनपुरी 8. डॉ. रतनचन्दजैन, भोपाल 9. श्री देवेन्द्रकुमार जैन, ग्वालियर 10. डॉ. कस्तूरचन्द कासलीवाल, जयपुर 11.पं. अरुणकुमार जैन, ब्यावर 12. डॉ. कमलेशकुमार जैन, वाराणसी 13. पं. मूलचन्द लुहाड़िया, किशनगढ़ 14. डॉ. सुदर्शनलाल जैन, वाराणसी 15. डॉ. विजय कुलश्रेष्ठ, उदयपुर 16. डॉ. प्रकाशचन्द जैन, दिल्ली 17. डा. प्रेमचन्द रांवका, बीकानेर 18. प्रो. विमलकुमार जैन, जयपुर 19. प्रो. विमलकुमार जैन, जयपुर 20. प्राचार्य निहालचन्द जैन, बीना 21. श्रीमती क्रान्ति जैन, लाडनूं Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका लेखक-डॉ० हरिनारायण दीक्षित एम० ए०, पी-एच. डी०, गे० लिट्, व्याकरणाचार्य, साहित्याचार्य, सांख्ययोगाचार्य, रीडर तथा अध्यक्ष, संस्कृत-विभाग, कुमायूं विश्वविद्यालय, नैनीताल (यू०पी०) मानवजीवन को सुख-शान्तिमय बनाने के लिए भारतीय मनीषियों ने बहिसा. सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह नामक पांच महाव्रतों के परिपालन का उपदेष दिया है। चूंकि मानवजीवन के लिए परमोपयोगी तथा परमावश्यक संयम का सार-सर्वस्व इन्हीं महाव्रतों मे समाया हुमा है और ये किसी भी देश और किसी भी काल की सीमा से बंधे हुए नहीं हैं, प्रतः विश्व के किसी भी देश और किसी भी समय का कोई भी मानव इन महाव्रतों का पालन करके अपने जीवन को स्पृहणीय एवं लोकप्रिय बना सकता है, इसमें कोई सन्देह नहीं है। किन्तु ध्यातव्य है कि इन महाव्रतों का परिपालन बिना किसी प्रतिबन्ध (शत) के किया जाना चाहिए; पोर न केवल कर्म से ही, अपितु वाणी तथा मन से भी किया जाना चाहिए; तभी ये शतप्रतिशत फलदायक होते हैं। तत्त्वद्रष्टामों का अनुभव रहा है कि सम्पूर्णनिष्ठा के साथ इन महाव्रतों का पालन करने वाले मनुष्य से विश्व का कोई भी प्राणी, कोई भी जीव-जन्तु, यहाँ तक कि प्रकृति भी, वैरभाव नहीं रखता है। उससे कोई भी किसी भी प्रकार का द्रोह, द्वेष, ईर्ष्याभाव, मसूयाभाव मादि जैसा कोई भी दुर्भाव नहीं रखता है। सभी उसके मन, वचन पौर कार्यों की पवित्रता पर विश्वास रखते हैं। पर्थ उसकी वाणी से निकले हुए वाक्यों का अनुगमन करते हैं; उसके योग-क्षेम के लिए सारा समाज जागरूक हो उठता है। उसके उपयोग में माने वाली किसी भी वस्तु का उसे प्रभाव नहीं रहता है। उसके शरीर में, उसके वचनों में और उसके मन में एक अद्भुत शक्ति, एक मादरणीय भाकर्षण तथा एक विलक्षण प्रात्मबल का उदय हो जाता है; जिससे वह अनुपम गुणों का मामय बन जाता है और उसके उपदेशों में उसके विचारों की विपक्षण संवाहकता पर कर लेती है। वह त्रिकालज्ञ हो जाता है; दूरदर्शी हो जाता है; उसे अपना प्रतीत, अपना बर्तमान मौर अपना भविष्य स्पष्ट हो जाता है । इस प्रकार वह अपने संयमित जीवन से स्वयं सुख-शान्तिपूर्वक रहता हुमा Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (vi) अपने परिवेश में पाने वाले लोगों के जीवन को भी सुख-शान्तिमय बनाता हुमा सबका वन्दनीय बन जाता है। काश ! भारतीय मनीषियों द्वारा समुपदिष्ट संयमित जीवन के इन तत्त्वों पर मानवसमाज ने ध्यान दिया होता। इनके प्रयोग के परिणामों का प्रचार-प्रसार किया होता। इनका अधिकाधिक पालन किया होता। मेरा विश्वास है कि तब निश्चय ही भारतीय मानवसमाज एवं विश्व मानव समाज में राष्ट्राध्यक्षों के प्रयत्नों के बावजूद भी लोगों में हत्या करने कराने की होड़ नहीं लगती; सचाई का दिवाला नहीं निकलता; चोर-बाजारी का तथा चोरियों पर कैतियों का बोलबाला नहीं होता; किसी की अमानत में कोई खयानत नहीं होती; प्रबलामों का शीलहरण नहीं होता; मोर जमाखोरी करने वालों की जाति ऊंची नहीं होती। यही कारण है कि माज मानव का जीवन संघर्ष का पर्याय बन चुका है; और उसे कहीं भी भणमात्र के लिए भी पार्यन्तिक सुख-शान्ति का अनुभव नहीं हो पा . मानवसमाज की इस प्रवाञ्छनीय दशा से कलावादी साहित्यकार भले ही प्रभावित न हो, क्योंकि वह 'कला' की उपासना 'कला के लिए' करता है। किन्तु जो साहित्यकार 'कला' की उपासना 'जीवन के लिए' करता है, वह तो निश्चय ही इससे प्रभावित होता है; और अपनी काव्यकला के माध्यम से मानवजीवन की इस उपर्युक्त प्रवाञ्छनीय दशा में सुधार लाने का प्रयत्न भी करता है। उसके इस साहित्यिक अनुष्ठान में उसकी व्यक्तिगत राष्ट्रीयता, जाति, जीविका, धर्म, दर्शन प्रादि कुछ भी बाधा नहीं पहुंचाते हैं। क्योंकि वह जानता है कि मानवता से बढ़कर कुछ भी संरक्षणीय नहीं है। इसीलिए बह कान्तासम्मित अपने साहित्यिक सन्देशों से 'मानवमात्र के कल्याण की कामना करने में मग बाता है। ऐसे ही मानवतावादी, सुधारवादी, संवेदनशील साहित्यकारो में महाकवि ज्ञानसागर का नाम, पब तक की उपलब्ध प्रकाशित साहित्यिक सम्पत्ति के पाषार पर निश्चय हो कनिष्ठिकाधिष्ठित है। प्रापका जन्म राजस्थान प्रान्त के सोकर नामक जनपद में राणोली नामक एक ग्राम में सन् १८९२ ईशवीय में हुमाया। पापके पिता का नाम सेठ श्रीचतुर्भुज खण्डेलवाल और माता का नाम तबरी देवी था। इनके अतिरिक्त इनके पांच भाई थे जिनमें एक तो पैदा होने के कुछ ही क्षण बाद कालकलित हो गया था। यह प्राजीवन नैष्ठिक ब्रह्मचारी रहे पोर संस्कृत वाङ्मय, जैनधर्म तथा जैनदर्शन का विधिवत् अनुशीलन-परिशीलन एवं प्रचारप्रसार करते रहे। यह प्रात्मकल्याणहेतु अपनी माध्यात्मिक साधना के साथ ही साथ मानवसमाज का भी कल्याण करने की कामना से साहितिक साधना भी अनवरत करते रहे; जिसके फलस्वरूप प्राज के मानवसमाज को खोवचम्म, समुद्रस्तपरिण, बीरोश्य, जबोदय और सुदर्शनोपय से पांच संसावकायान्य Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( vli ) उपलब्ध हुए हैं। महाकवि ज्ञानसागर ने न केवल संस्कृतभाषा में ही, प्रपितु हिन्दी भाषा में भी अपनी कल्याणी काव्यकला का कमनीय परिचय दिया है । इस प्रकार प्राप मानवजाति के कल्याणहेतु प्रजीवन साहित्यसाधना में लगे रहे; भीर अन्त में प्राप दिनाङ्क एक जून सन् उन्नीस सौ तेहत्तर ईशवीय को नसीराबाद में सदा के लिए समाधिष्ट हो गए । मानवसमाज का कल्यारण करने में महाकवि ज्ञानसागर की काव्यसम्पत्ति महाकवि प्रश्वषोष की काव्यसम्पत्ति से भी अधिक मूल्यवती है । क्योंकि महाकवि ज्ञानसागर ने भारतीय मनीषाप्रसूत अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचयं और अपरिग्रह नामक पाँचों ही सार्वभौम महाव्रतों के परिपालन की सत्प्रेरणा देने की इच्छा से एक चम्पूकाव्य प्रोर चार महाकाव्यों की सरस सर्जना करके मानवसमाज को संयमपूर्वक अपना जीवन बिताने का सर्वाङ्गीण सन्देश दिया है । उनके दयोदयचम्पू के नायक का जीवन पाठकों के मनःपटल पर हिंसा की छवि बनाता है; समुद्रदत्तचरित्र का नाटक सत्य और स्तेय की समुचित शिक्षा देता है; वीरोदय के नायक श्रीमहावीर स्वामी ब्रह्मचर्य के प्रति प्रास्था जगाते हैं; जयोदय का नायक अपरिग्रह के महत्त्व को अभिव्यक्त करता है; प्रौर सुदर्शनोदय के नायक के जीवन में आने वाले घातप्रतिघात इन उपर्युक्त जीवनोपयोगी सभी महाव्रतों (संयमों) के पालन की शिक्षा के साथ ही . साथ अपने व्यक्तित्व की पवित्रता की घीरतापूर्वक रक्षा करते रहने का प्रभविष्णु सन्देश देते हैं । उल्लेखनीय है कि महाकवि ज्ञानसागर प्राजीवन ब्रह्मचर्य महाव्रत के समानान्तर पर गृहस्थ जीवन के लिए परमोपयोगी परदारविरति को भी नैष्ठिक ब्रह्मचर्यं महाव्रत के ही समान मानते हैं। समाज के शाश्वत हितहेतु उनकी यह विचारधारा निश्चय ही उनकी स्वतन्त्र मनीषा एवं दार्शनिक क्रान्ति की परिचायिका है । फलस्वरूप महाकवि ज्ञानसागर के ये काव्य समवेतरूप में मानव समाज का समग्र कल्याण करने में, अभी तक अनुपम ही हैं । इसके अलावा साहित्यिक दृष्टि से भी ये काव्य कालिदास, भारवि, माघ और श्रीहर्ष के काव्यों से प्रतिस्पर्धा सी करते हुए प्रतीत होते हैं । कथावस्तु, चरित्रचित्रण, भावपक्ष, कलापक्ष, वर्णन विधान, परिवेश प्रादि की दृष्टि से भी ये काव्य प्रतीव सजीव घोर सहृदयहृदयाह्लादकारी हैं। इनसे संस्कृतसाहित्य की प्रभूतपूर्व श्रीवृद्धि हुई हैं, यह कहने में कोई प्रत्युक्ति नहीं होगी । मेघा, मनीषा, प्रतिभा, लोकंषणा भीर संयम से घनी महाकवि ज्ञानसागर के उपर्युक्त संस्कृत काव्यों की सविधि सर्वाङ्गीण समीक्षा भी परमावश्यक थी । क्योंकि स्वर्ण को जब तक कसौटी पर नहीं कसा जाता, तब तक उसकी वास्तविकता सन्दिग्ध ही रहती है । इसी प्रकार चन्दन को जब तक घिसकर नहीं परखा जाता, तब तक उसकी सुगन्धि पर सम्देह बना ही रहता है। इसी कारण से मेरी यह Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (viii) हार्दिक इच्छा थी कि महाकवि ज्ञानसागर जी के काव्यों की अनुसन्धानात्मक समीक्षा कराई जाय । परन्तु टीका-टिप्पणी के प्रभाव में इन सभी काव्यों की शोधपरक शुद्ध सर्वाङ्गीण समीक्षा करना निश्चय ही चारों तीर्थं धामों की पैदल पवित्र यात्रा करने के ही समान प्रत्यन्त कठिन काम था। लेकिन मुझे यह जानकर हार्दिक हर्ष हुआ है कि डॉक्टर (कुमारी) किरण टण्डन, एम० ए०, साहित्याचार्य ( प्राध्यापक, संस्कृत विभाग, कुमायूँ विश्वविद्यालय, नैनीताल) ने महाकवि ज्ञानसागर के इन समस्त संस्कृत काव्यों पर अपनी नीरक्षीरविवेकिनी सहज प्रज्ञा द्वारा शोधग्रन्थ के रूप में अनुसन्धानपरक शुद्ध एवं सर्वाङ्गीण समीक्षा प्रस्तुत करके मेरे उपर्युक्त संकल्प को भलीभाँति साकार कर दिया है। इसके लिए वह निश्चय ही विपुल प्रशंसा तथा बधाई की पात्र हैं । डॉक्टर टण्डन का यह शोधग्रन्थ इस तथ्य की साक्षी है कि उन्होंने महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत काव्यों की समस्त विशेषताओं प्रोर उपादेयताओं को प्रकाश में लाने के लिए प्रचुर एवं सुनियोजित परिश्रम किया है। उन्होंने इसमें महाकवि के जीवनचरित, काव्यों के कथानकों के स्रोत उनमें महाकविकृत परिवर्तन-परिवर्धन एवं उनका श्रीचित्य काव्यों की विधानों का प्राकलन, वर्गीकरण एवं उनकी सामाजिक उपादेयता, प्राकृतिक तथा वैकृतिक पदार्थों का वर्णनविधान, भावपक्ष, कलापक्ष, महाकवि की सामाजिक, राजनैतिक, प्रार्थिक, सांस्कृतिक धार्मिक एवं दार्शनिक विचारधाराम्रो आदि समग्र अपेक्षित बिन्दुनों पर अपने व्यापक, गम्भीर समीक्षात्मक तथा मौलिक विचार प्रस्तुत किए हैं तथा इन्हीं विचारों के प्राधार पर संस्कृत साहित्यकारों में महाकवि ज्ञानसागर का और संस्कृतसाहित्य में उनके इन काव्यों का निष्पक्ष भाव से स्थान निर्धारित किया है । इस प्रकार समीक्षा के लिए अपेक्षित प्रायः समस्त बिन्दुनों पर अपनी सत्त्वसम्पन्न प्रतिभा द्वारा भ्रान्तिहीन एवं सर्वाङ्गीण निर्मल प्रकाश डालकर विदुषी लेखिका ने अपने इस शोधग्रन्ध को महाकविज्ञानसागरकाण्य- जिज्ञासुजनों के लिए कल्पतरुकल्प बना दिया है, इसमें मुझे कोई सन्देह नहीं है । फलस्वरूप मुझे यह सुदृढ़ विश्वास है कि यह शोध ग्रन्थ संस्कृत साहित्य के समीक्षाजगत् में अवश्य ही श्रीवृद्धि करेगा और संस्कृतसाहित्य के उपासकों के लिए निश्चय ही नितान्त अभिनव, मौलिक, रोचक एवं परमोपयोगी उपहार सिद्ध होगा । मेरा यह भी विश्वास है कि डॉ० टण्डन के इस शोधप्रबन्ध को भलीभाँति समझने में पाठकों को किसी भी प्रकार की कोई कठिनता नहीं होगी। क्योंकि उन्होंने अपने सम्पूर्ण शोधग्रन्थ को वैदर्भी भाषा-शैली में लिखा है भौर प्रतिपाद्य का प्रतिपादन संवेदनापूर्वक अतीव विशदता के साथ किया है। प्रथ से लेकर इति पर्यन्त अनुच्छेदों, वाक्यों और शब्दों का सन्निवेश भी उन्होंने बड़ी ही सुनियोजित, सुविचारित एवं सुगठित विधि से किया है। फलस्वरूप शोधग्रन्थ का प्रत्येक अध्याय, प्रत्येक अनुच्छेद, प्रत्येक वाक्य मोर प्रत्येक शब्द अपनी-अपनी सीमा के Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुरूप रहकर उनके प्रभीष्ट विचारों को निर्धान्तरूप से प्रकट करने वाला हो गया है। समीक्षा के संसार में लेखनकला का यह कमनीय कौशल प्रायः बिरमता से ही उपलब्ध होता है। __ मेरे लिए यह प्रमन्द मानन्द का विषय है कि डॉक्टर (कुमारी) किरण टपन का यह शोषग्रन्थ अब प्रकाशित हो रहा है। मैं इसका हार्दिक स्वागत करता है। इसके प्रचार-प्रसार को शुभकामनाएं करता है और शिक्षाजगत् में अभिनन्दनीय इस उत्तम उपलब्धि के लिए म. (कुमारी) किरण मान को हार्दिक बधाई देता हूं। मुझे सुरद विश्वास है कि ससतसाहित्य के समीक्षाजपद से जुड़ा हुमा प्रत्येक कर्मठ एवं गुणग्राहक व्यक्ति उनके इस शोषग्रन्थ का निश्चय ही स्वागत करेगा। प्रतएव डॉक्टर टण्डन से में यह भी माशा करता है कि वह इसी प्रकार संतसाहित्य को समृद्धि करती रहें। नैनीताल - -हरिनारायण दीक्षित दिनार-१३-१-१९०४ ईशवीय Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना प्रस्तुत शोष विषय का महत्त्व संस्कृत भाषा महिमशालिनी है। इसी भाषा में हमारे देश के धर्म एवं संस्कृति के ग्रन्थों की रच । हुई है। इस भाषा में रचा गया साहित्य मात्रा एवं कोटि की दष्टि से अन्य भाषाओं में रचे गये साहित्य की अपेक्षा अधिक मूल्य रखता है। किन्तु प्राज के पाश्चात्त्य सभ्यता के अन्धभक्त, खेद है कि इस भाषा को मतभाषा कहते हैं मोर इसका साहित्य 'माउट ऑफ डेट' कहलाता है। इसके अतिरिक्त माज राष्ट्र में जातिवाद और सम्प्रदायवाद व्याप्त हैं। एक सम्प्रदाय के लोग दूसरे सम्प्रदाय के लोगों को उपेक्षा की दृष्टि से देखते हैं । इस साम्प्रदायिकता का प्रभाव अन्य क्षेत्रों के समान संस्कृत-काव्य क्षेत्र में भी पड़ा है । बहुसंख्यक सनातनधर्मी लोग अन्य पल्पसंख्यक सम्प्रदायों के लोगों के किसी कार्य को महत्त्व नहीं देते। ये लोग अपने ही सम्प्रदाय के कवियों और विद्वानों की रचनाओं पर अपने विचार प्रकट करते हैं। इसका फल यह होता है कि साहित्य का एक बड़ा और महत्त्वपूर्ण भाग प्रकाश में आने से रह जाता है । कवि एक सामाजिक प्राणी है। प्रतः उस पर उसके धर्म, जाति, सम्प्रदाय इत्यादि का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है। किन्तु समालोचक को धर्म, जाति, सम्प्रदाय इत्यादि की मर्यादाओं को छोड़कर ही कवि की रचना की समीक्षा करनी चाहिए। हम यह नहीं कहते हैं कि समालोचक पर उसके धर्म जाति पादि बन्धनों का प्रभाव नहीं पड़ता। परन्तु जहाँ तक कवि के काव्य की समालोचना का प्रश्न है, वहां समालोचक को कवि के धर्म, जाति, सम्प्रदाय इत्यादि से कोई प्रयोजन नहीं रखना चाहिए । क्योंकि समालोचक का कार्य तो कवि के मार्मिक बंदुष्य को अभिव्यक्ति करना है। पश्चिमी सभ्यता और आधुनिकता के रङ्ग में रंगे हुए व्यक्तियों को यह जात होना चाहिए कि माज भी कवि संस्कृत भाषा की श्रीवृद्धि कर रहे हैं। प्रतः इन कवियों की कृतियों को देखने के पश्चात् संस्कृत को मतभाषा कहने के पहले उन्हें खूब विचार कर लेना चाहिए। हवारे पालोच्य महाकवि श्रीज्ञानसागर ने भी संस्कृत भाषा में साहित्य सजना की है। किन्तु अनपर्म के होने के कारण उनका साहित्य भी सम्प्रदायवादी Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( xi ) मालोचकों द्वारा उपेक्षित हो गया है। किसी भी समालोचक ने इनकी रचनाओं पर समीक्षापरक विचार व्यक्त नहीं किये हैं । उनकी संस्कृत साहित्य-सम्पदा को देखने से ज्ञात होता है कि उन्होंने चार महाकाव्य, एक चम्पूकाव्य प्रोर एक मुक्तक काव्य की रचना की है। यदि समालोचक धर्मनिरपेक्ष होकर उनकी रचनाओं को पढ़ें तो वे पायेंगे कि ज्ञानसागर की रचनाएँ उच्चकोटि को हैं । ज्ञानसागर २०वीं शताब्दी के कवि हैं, अतः भाज के युग में संस्कृत भाषा में रचे गये उनके काव्य महत्त्व रखते हैं । शोध प्रबन्ध में ज्ञानसागर के काव्यों का साहित्यिक मूल्याङ्कन करने का हमारा यही प्रयोजन है कि सहृदय सामाजिक संस्कृत भाषा के प्रप्रकाशित, उपेक्षित किन्तु समाजोपयोगी एवं महत्त्वपूर्ण साहित्य से परिचित हो सकें । समालोचक प्रत्येक धर्म एवं जाति के साहित्यिकों के प्रति न्याय करें । फिर ज्ञान किसी एक सम्प्रदाय विशेष की पैतृक सम्पत्ति नहीं है । प्रत: भले ही लोग दूसरे सम्प्रदाय के धर्म एवं दर्शन को न मानें, किन्तु उनका वैदुष्य मोर बुद्धिमत्ता तो सभी को स्वीकार करनी चाहिए । जहाँ तक धर्म का प्रश्न है, उसके कुछ मूलभूत तत्त्व सभी सम्प्रदायों में मान्य हैं; यथा अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और मपरिग्रह। इन पांचों महाव्रतों के पालन और पालन के परिणामस्वरूप मिलने वाले लाभ के विषय में सामाजिक को शिक्षा दी है। प्रतः हम चाहते हैं कि कविवर ज्ञानसागर को केवल जन धर्म का कवि न मानकर मानवतावादी कवि माना जाए भोर उनके प्रति न्याय किया जाय । س प्रस्तुत शोष विषय पर साहित्यिक मूल्याङ्कन को प्रपूर्णता पर एक विहङ्गमदृष्टिसंस्कृत साहित्य के इतिहास की ऐसी कोई भी पुस्तक नहीं है, ' जिसमें कवि ज्ञानसागर के व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व पर थोड़ा सा भी प्रकाश डाला गया हो । हां, मुनिश्री ज्ञानसागर जैन ग्रन्थमाला के सम्पादक पं० हीरालाल सिद्धान्तशास्त्री ने ज्ञानसागर के ग्रन्थों की प्रस्तावना में उनके और उनके ग्रन्थों के विषय में थोड़ा बहुत अवश्य लिखा है । प्रकाशचन्द्र जैन ने भी इन ग्रन्थों के प्रकाशक के रूप में कवि का थोड़ा सा परिचय दिया है । श्रीस्यादवाद महाविद्यालय, वाराणसी के दर्शन विभागाध्यक्ष प्राचार्य पं० श्रमृतलाल जैन ने सुदर्शनोदय काव्यग्रन्थ की १. डॉ० कपिलदेव द्विवेदी द्वारा रचित 'संस्कृत साहित्य का समीक्षात्मक इतिहास' नामक ग्रन्थ में पृ० सं० २६२ पर महाकवि की जयोदय नामक एक कृति का मात्र नामोल्लेख है । लेकिन उक्त कृति को सगं संख्या यहाँ प्रशुद्ध है । क्योंकि डॉ० कपिलदेव द्विवेदी ने जयोदय में बाईस सगं बताए हैं, जबकि हैं पट्ठाईस । -लेसिका Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (xii ) प्रेस्तावना में केवल सुदर्शनोदय को प्रत्यल्प समीक्षा प्रस्तुत की है। इसी प्रकारे पं. इन्द्रमाल जैन ने बयोदय को प्रस्तावना में, श्री रघुवर दत्त शास्त्री साहित्याचार्य ने वीरोदय की प्रस्तावना में तथा पं० विद्याकुमार सेठी ने श्रीसमुदत्तचरित्र की प्रस्तावना में कवि और उनकी काव्यकला का प्रतीव संक्षिप्त परिचयमात्र दिया है। डॉ. विद्याधर जोहरापुरकर एवं डॉ. कस्तूरचन्द कासलीवाल द्वारा रचित 'वोरशासन के प्रभावक प्राचार्य' नामक पुस्तक के अन्त में भी श्रीज्ञानसागर के व्यक्तित्व कत्तत्व के विषय में थोड़ा सा लिखा हुआ प्राप्त होता है । पं० चम्पालाल जन द्वारा सम्पादित 'बाहुबली सन्देश' नामक मासिक प्रपत्र में भी श्रीमानसागर के समाधिमरण के अवसर पर विभिन्न विद्वानों में प्रतीव संक्षिप्त शोक लेख मलित हैं। इसके अतिरिक्त कुछ न पत्र-पत्रिकामों में भी कवि के विषय में पोड़ी सी जानकारी मिल जाती है। श्रीज्ञानसागर तथा उनको संस्कृत-साहित्य-सम्पदा के विषय में यत्र-तत्र बिखरी हुई पतीव संक्षिप्त उपर्यक्त समस्त सामग्री जैन विद्वानों ने ही दी है। यह सामग्री है भी इतनी कम कि इससे कवि के व्यक्तित्व एवं कत्तत्व पर सन्तोषजनक प्रकाश नहों पड़ सकता । फिर इस सामग्री में ज्ञानसागर एवं उनकी रचनामों का संक्षिप्त परिचय तो मिल जाता है, लेकिन उनकी रचनाएं कवित्व की दृष्टि से किस कोटि में माती हैं, उनका साहित्यिक सौन्दर्य क्या कसा है ? प्रर्थात् उनकी रवनामों का भावपक्ष एवं कलापक्ष कैसा है ? उनसे मानव समाज को क्या शिक्षा प्राप्त हो सकती है पादि-मादि अनेक समीक्षापरक समस्यामों का जिन पर प्रस्तुत शोष-प्रबन्ध में पूर्ण प्रकाश डाला गया है, कोई भी समाधान नहीं मिलता है। प्रस्तुत कोषकार्य की प्रेरणा संकृत विषय से एम० ए० मोर साहित्याचार्य करने के बाद मुझे पी-एच. ० उपाधि हेतु शोषकार्य करने की इच्छा हुई। मेरी उस हार्दिक इच्छा को बानकर हमारे परमादरणीय अध्यापक डॉ० हरिनारायण जी दीक्षित (रोग्र एवं अध्यक्ष, संस्कृत विभाष, कुमाऊं विश्वविद्यालय, नैनीताल) ने मुझे श्रीज्ञान पावर विरचित 'वीरोदय' नामक महाकाव्य गम्भीरतापूर्वक स्वाध्याय करने का . अपना सत्सरामर्श देते हुए दिया । मैंने इसे पढ़ा तो इसकी प.सं. ४८० पर तवा पावरक पृष्ठ पर पांच अन्य रचनामों का भी उल्लेख मिला। मेरी इच्छा इन रचनामों को पढ़ने की हुई। अपने प्राध्यापक डा. दीक्षित की कृपा से भी ज्ञानसागर की मोर भी रचनामों का परिचय प्राप्त हुमा । दयोदयधम्मू के प्रस्तावनामाग को पड़ने से प्राव हुमा कि कविवर ने एक दो नहीं पूरे बाईस ग्रन्थों की रचना की है। इनमें कुछ अन्य संस्कृत भाषा में हैं और कुछ हिन्दी भाषा में । कुछ अन्य साहित्यिक हैं और कुछ दार्शनिक। इनमें से कुछ रचनाएं भाचार्य बीविद्यासागर Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (xiii) जी' की धौर कुछ रचनाएं श्री गणेशीलाल रतनलाल जी कटारिया की भी महती कृपा से प्राप्त हुई। इस प्रकार से मुझे श्रीज्ञानसागर का साहित्य प्राप्त हुमा । इससे पूर्व मैंने ज्ञानसागर के विषय में कभी न तो सुना था, न पढ़ा ही था । अतः उनकी रचनानों के साथ न्याय करने के लिए मैंने उनकी समीक्षा करना उचित समझा। इन सब परिस्थितियों से प्रेरित होकर मैंने ज्ञानसागर के सम्बन्ध में पी० एच्० डी० की उपाधि हेतु शोध-प्रबन्ध लिखने का निश्चय कर लिया मोर डॉ० दीक्षित के सर्वथा उत्तमोत्तम निर्देशन में 'मुनि श्रीज्ञानसागर का व्यक्तित्व एवं उनके संस्कृत काव्य-ग्रन्थों का साहित्यिक मूल्यांकन' विषय पर कुमाऊँ विश्वविद्यालय, नैनीताल की संस्कृत शोत्रोपाधि समिति की संक्षिप्त रूपरेखा स्वीकृति हेतु प्रस्तुत कर दी। उक्त समिति द्वारा स्वीकृति मिलने पर मैं अपनी इच्छा को मूर्त रूप देने के लिए तत्पर हो गई और फलस्वरूप उस समय मैंने शोध प्रबन्ध लिखा, वह अब प्रापके समक्ष प्रस्तुत है । शोध प्रबन्ध का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत शोध प्रबन्ध में दस प्रध्याय हैं । इनकी वयं वस्तु का सारांश इस प्रकार है प्रथम अध्याय में कवि के सम्पूर्ण जीवन का परिचय दिया गया है । अपनी युवावस्था से प्रारण त्याग तक श्रीज्ञानसागर जैन-धर्म, दर्शन एवं साहित्य की जो सेवा करते रहे उस सबका कालक्रमानुसार वर्णन किया गया है। उनके प्रत्यल्प पारिवारिक जीवन में उनके माता-पिता एवं भाईयों का भी परिचय दिया गया है । तत्पश्चात् उनके संन्यासि जीवन में उनके गुरुजनों एवं प्रमुख शिष्यों का परिचय भी यथाशक्ति दिया गया है । कवि के जन्म, गृहत्याग, गुरुजनों की कृपाप्राप्ति, शिष्यों को दीक्षा, विभिन्न उपाधि धारण करना, समाधिमरण इत्यादि से सम्बन्धित तिथियों का भी प्रायः उल्लेख कर दिया गया है । द्वितीय अध्याय में कवि के जयोदय, बीरोदय, सुदर्शनोदय, श्रीसमुद्रदत्तचरित्र मोर दयोदयचम्पू- पाँच संस्कृत काव्यों का सारांश प्रस्तुत किया गया है, १. प्राचार्य श्री विद्यासागर जी ज्ञानसागर जी के प्रमुख शिष्य हैं। पहले इनका नाम विद्याधर था । सन् १९६६ ई० में जब कविवर ने इनको मुनि दीक्षा दी, तभी से इनका नाम विद्यासागर हो गया। अपने सभी शिष्यों में इनको योग्य देखकर कविवर ने इनको अपना प्राचार्य का पद दे दिया । जनधर्म पर प्रास्था रखने वाले श्री गणेशीलाल, रतनलाल कटारिया जी ब्यावर ( राजस्थान) के निवासी हैं । मुनिश्रीज्ञानसागर ग्रन्थमाला से प्रकाशित पुस्तकों का विक्रय इन्हीं के यहाँ से होता है । २. Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( xiv ) जिससे इन संस्कृत काव्यों की समीक्षा होने के पूर्व ही पाठक इन काव्यों की सरस कथावस्तु से पूर्णतया परिचित हो सकता है। तृतीय अध्याय में कवि के उपर्युक्त संस्कृत-ग्रन्थों के स्रोतों की विस्तृत चर्चा की गई है । 'महापुराण', 'बृहत्कथाकोश' एवं मनि नयनन्दी के 'सुदंसरणचरिउ' में से कवि के काव्यों से सम्बन्धित कथानों का सारांश प्रस्तुत करने के बाद उक्त कथाओं का मनिश्री के काव्यों से अन्तर प्रस्तुत किया गया है । अन्त में कवि की मौलिकता की स्थापना की गई है। चतुर्थ अध्याय में बताया गया है कि ज्ञानसागर का कोन काव्य किस विधा में पाता है ? इसलिए इस अध्याय में सर्वप्रथम काव्य एवं उसके प्रमुख भेदों पर प्रासङ्गिक तथा संक्षिप्त चर्चा की गई है। काव्यशास्त्रीय इस समालोचना में प्राचार्य दण्डो तथा प्राचार्य विश्वनाथ के भ्राधार पर महाकाव्य को विशेषताएँ बताकर जयोदय, वीरोदय, सुदर्शनोदय और श्रीसमुद्रदत्तचरित्र को महाकाव्य की कोटि में सिद्ध किया गया है। तत्पश्चात चम्पूकाव्य की विशेषताएं बताकर कवि के दयोदयचम्पू में उन्हें चरितार्थ किया गया है। मुनिमनोरञ्जनशतक' को मुक्तक काव्य सिद्ध किया गया है। तत्पश्चात् संस्कृत भाषा में रचित कविवर के प्रवचनसार' एवं 'सम्यक्त्वमारशतक' की काव्यशास्त्रीय मालोचना को- उनके दर्शन ग्रन्थ होने के कारण- अनावश्यकता की चर्चा की गई है। पञ्चम अध्याय में 'पात्र' शब्द की परिभाषा और उमका काव्य म महत्त्व बताया गया है । ताम्चात् कवि के काव्यों में उल्लेखनीय पात्रों का प्रत्येक काव्य के अनुसार अलग-अलग एवं समवेत वर्गीकरण प्रस्तुत किया गया है, फिर कुछ प्रमुख पात्रों को चारित्रिक विशेषतः प्रों पर प्रकाश डाला गया है । अन्त में कविवर के पात्रों की सामाजिक उपयोगिता सिद्ध करने के बाद मागंश में यह बता दिया गया है कि ज्ञानसागर ने सभी प्रकार के पात्रों को प्रस्तुत करने में प्रशंसनीय सफलताप्राप्त की है। षष्ठ अध्याय में सर्वप्रथम पदार्थ-वर्णन पोर काव्य में उसके महत्त्व पर चर्चा की गई है । तत्पश्चात् प्राकृतिक पदार्थ का परिचय देकर कविवर और उनका प्रकृति वर्णन प्रस्तुत किया गया है। इस प्रसङ्ग में ऊँचे-ऊंचे पर्वत, समुद्र, वन, नदी, सरोवर, ऋतु, काल इत्यादि का ज्ञानसागर के अनुसार वर्णन उनके प्रकृतिप्रेम का परिचय प्रस्तुत करता है। प्राकृतिक पदार्थों का वर्णन करने के बाद वकृतिक पदार्थों का भी वर्णन प्रस्तुत किया गया है । द्वीप, देश, नगर, ग्राम, मन्दिर इत्यादि के वर्णन कवि के वर्णन कौशल को प्रकट करने में समर्थ सिद्ध हुए हैं । इसके बाद झूला-झूलने, पतगक्रीड़ा, पानगोष्ठी इत्यादि के भी वर्णनों को प्रस्तुत कर दिया गया है। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (xv ) सप्तम अध्याय में महाकवि के संस्कृत काव्य-ग्रन्थों की भावपक्ष के अनुसार पालोचना की गई है । सर्वप्रथम काव्य में भावण का महत्त्व एवं उसके भेदों की चर्चा की गई है । तत्पश्चात् रस, रसाभास, भाव, भावाभास, भावशान्ति, भावोदय, भावसन्धि मोर भावशबलता के मम्मट एवं विश्वनाथ सम्मत लक्षण देकर कविवर के संस्कृत-काव्यों में इनका ममन्वेषण किया गया है। इसी सन्दर्भ में कवि के संस्कृत काव्य-ग्रन्यों में वस्तु-ध्वनि पोर गुणीभूतव्यङ्ग्य को भी चर्चा की गई है । अन्त में भावपक्ष की दृष्टि से ज्ञानसागर को सफल महाकवि सिद्ध किया गया है। प्रष्टम अध्याय में कवि के संस्कृत-काव्य-ग्रन्थों के कलापक्ष पर विचार किया गया है । कला का स्वरूप, उसका काव्य में महत्त्व एवं भेदों पर विचार करने के बाद अलङ्कार, छन्द, गीत, गुण, भाषा, शैली, वाग्वदग्ध्य, संवाद, देशकाल इत्यादि का परिचय दिया गया है। और फिर ज्ञानसागर के काम्यों में प्राप्त इन सभी की चरितार्थता सिद्ध की गई है । अन्त में इन सभी की समालोचना करके कविवर को एक सफल कलाकार के रूप में सिद्ध किया गया है। नवम अध्याय में कवि के जीवन-दर्शन की चर्चा की गई है, जिससे ज्ञात हो जाता है कि कवि के समाज, राजनीति, अर्थव्यवस्था, संस्कृति, धर्म एवं दर्शन के सम्बन्ध में क्या विचार थे ? उनके काव्यों में वरिणत जैनधर्म की चर्चा से यह स्पष्ट कर दिया गया है कि न केवल संस्कारवश अपितु उपयोगिता की दृष्टि से कवि ने जैन धर्म को सर्वश्रेष्ठ रूप में माना है। दशम अध्याय, जो उपसंहारात्मक है, में कवि एवं उनके काव्यों की संस्कृत-साहित्यकारों एवं संस्कृत-काव्यों में कोटि निर्धारित की गई है। कवि के अन्त्यानुप्रास एवं गीतों के आधार पर प्राचीन एवं प्राधुनिक कवियों के बीच उनकी मौलिकता सिद्ध को गई है। तदनन्तर उनके काव्यों में साहित्य के माध्यम से दर्शन को प्रस्तुत करने की कलाकुशलता को स्वीकृत करते हुए उन्हें एक श्रेष्ठ कवि और उनकी कृतियों को श्रेष्ठ काव्यकृतियों के रूप में सिद्ध करके शोध-प्रबन्ध को समाप्त कर दिया गया है । इस प्रकार यहाँ तक अपने शोध-प्रबन्ध को सम्पूर्णता देकर अन्त में पांच परिशिष्ट भी दिये गये हैं, जिनका सारांश इस प्रकार है प्रथम परिशिष्ट में संस्कृत भाषा में ज्ञानसागर द्वारा रचित दो दार्शनिक कृतियों सम्यक्त्वसारशतक (मोलिक) एवं प्रवचनसार (मनुवाद कृति) का परिचय दिया गया है। द्वितीय परिशिष्ट में कवि को हिन्दी भाषा में रचित ऋषभावतार, धन्य. कुमार का वरित, पवित्रमानव जीवन, सरल जैन विवाह विधि, कर्तव्यपथप्रदर्शन, चित्त विवेचन, स्वामी कुन्द कुन्द और सनातन जैन धर्म, तत्त्वार्थसूत्रटीका, Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( xvi ) विवेत्य एवं समयसार-सभी साहित्यिक एवं दार्शनिक मौलिक कृतियों का तथा दार्शनिक टीका-कृतियों का प्रमित परिचय दिया गया है। तृतीय परिशिष्ट में सूक्तियों की महत्ता पर विचार करने के बाद महाकवि संस्कृत काव्य-प्रन्पों में प्रयुक्त सूक्तियों की सारिणी प्रस्तुत की गई है, जो कवि केवाग्वदग्भ्य का स्पष्ट परिचय देती है। चतुर्व परिशिष्ट में विभिन्न विद्वानों को महाकवि ज्ञानसागर के विषय में प्रशंसात्मक उक्तियां एवं स्तुतियां प्रस्तुत की गई है, जो उनकी मूतिमती लोकप्रियता की साक्षिणी हैं। पञ्चम परिशिष्ट में अपने शोष प्रबन्ध के लेसन में सहायक प्रमुख-प्रमुख मन्त्रों की सूची दी गई है। ___ महाकवि ज्ञानसागर के व्यक्तित्व एवं कत्तुं त्व पर प्राधारित इस शोष प्रबन्ध को प्रायोपान्त पढ़ने से यह ज्ञात हो जायगा कि वह न केवल संस्कृत भाषा केपितु हिन्दी भाषा के भी साहित्यकार थे। उनके व्यक्तित्व में साहित्यिक एवं दार्शनिक की समान छवि दृष्टिगोचर होती है। इस दोहरी भूमिका को कवि ने न केवल अपने कत्तत्व में प्रपितु अपने जीवन में भी बड़ी सफलतापूर्वक निभाया है। उनका 'जयोदय' नामक महाकाव्य ही उन्हें सफल महाकवि सिद्ध करने में समय है, फिर अन्य तीन महाकाय बोर एक चम्पूकाव्य की रचनाएं तो उनके महाकवित्व में सन्देह का कोई स्थान ही नहीं रहने देतीं। सहृदय सामाजिकों एवं समालोचकों से मेरा निवेदन है कि वे धर्मनिरपेक्ष होकर ही ज्ञानसागर एवं उनकी काम्य-सम्पदा को समझने का यत्न करें। मैंने भी एक जैन कवि के काव्य की समालोचना करने में धर्म एवं जाति के बन्धनों की चिन्ता नहीं की है। काव्यप्रेमियों को तो कवि के काम्यों की काव्यात्मकता से ही प्रयोजन होना चाहिए, उसके वर्म एवं जाति से नहीं। पानारप्रदर्शन . प्रस्तुत शोष-प्रबन्ध निर्देशन का भार लेकर मेरे परमावरणीय गुरुदेव 5. हरिनारायण बी दीक्षित (रीटर एवं अध्यक्ष, संसत विभाग, कुमायं विश्वविद्यालय, नैनीताल) ने मेरे प्रति महान् उपकार किया है। प्राचार्य दोमित जी नाममात्र के ही निर्देशक नहीं रहे, क्योंकि उनके क्रियात्मक निर्देशन के ही फलस्वल्प मेरा यह शोष-प्रबन्न प्रस्तुत हो सका है। उन्होंने केवल शान्दिक प्रेरणा नहीं दी, अपितु श्रीमानसागर के काव्य भी स्वयं ही मंगांकर मुझे पढ़ने को लि। मेरे शोष-विषय से सम्बन्धित अन्य अनेक पुस्तकें पपने निजी पुस्तकालय बारतापूर्वक देने में तो उन्होंने कभी मानसिक सोच भी नहीं किया। उन्हाने निरन्तर शोष-विषय सम्बन्धी प्रपने विद्वत्तापूर्ण सुझाव ही मुझे नहीं दिये, बपितु कार्य के प्रति मेरे प्रमाद को भी दूर करने का सफल प्रयास किया। यह Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( xvii) लिखने भोर कहने में किञ्चिन्मात्र भी अत्युक्ति नहीं है कि मुझे अपना शोध-प्रबन्ध पूरा करने में उनके परोपकार, प्राशीर्वाद, दीर्घकालीन अध्यापनानुभव पौर शानप्राचुर्य से सतत सहायता एवं दिशादृष्टि मिलती रही है। प्रतः मैं हृदय से उनकी प्रामारी एवं कृतज्ञ हूँ। पं० अमृतलाल जैन (अध्यक्ष, जनदर्शन-बिभाग, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी) के प्रति अपना प्राभार प्रकट करती हूँ। उन्होंने मुझे समयसमय पर शोष-प्रबन्ध हेतु सुझाव दिये हैं और जैन-दर्शन-सम्बन्धी ग्रन्थों के विषय में जानकारी भी दी है। पं० हीरालाल सिद्धान्तशास्त्री (अध्यक्ष, दिगम्बर जैन सरस्वती भवन, म्यावर) ने कविवर ज्ञानसागर की संस्कृत-काव्य कृतियों का सम्पादन किया है। साथ ही उनके द्वारा सम्पादित जन-धर्म एवं दर्शन के ग्रन्थ भी मेरे लिए परमोपयोगी सिद्ध हुए हैं। सकलकीति विरचित सुदर्शनचरित की पाण्डुलिपि की प्रतिलिपि भी मुझे उन्हीं को महती कृपा से प्राप्त हुई है। प्रतः उनके प्रति भी मैं हृदय से भाभारी हूँ। .. श्री चेतनप्रसादपाटनी (प्रवक्ता, हिन्दी विभाग, जोधपुर विश्वविद्यालय) के प्रति भी में अपना प्राभार प्रकट करती हैं, क्योंकि कविवर के शिष्य प्राचार्य विद्यासागर जी से उन्होंने मेरे विषय में पत्र-व्यवहार किया और शोधकार्य हेतु 'पाराधनाफयाकोश' नामक ग्रन्थ भी मुझे दिया। ___ महाकवि ज्ञानसागर के प्रमुख प्राचार्य श्री विद्यासागर जी के प्रति भी मैं कृतज्ञ हूँ। मेरे पत्रव्यवहार करने पर उन्होंने कुछ विद्वान् सज्जनों को मेरी सहायता करने के लिए प्रेरित किया। उनमें से एक तो श्री निहालचन्द्र जी जैन (प्रधानाध्यापक, टीकमचन्द्र जैन इण्टर कालेज, अजमेर) हैं। उन्होंने मेरी प्रार्थना करने पर उपलब्ध कवि के जीवन से सम्बन्धित कुछ सामग्रो भेजकर मुझे अनुगृहीत किया। दूसरे हैं श्रीजगन्मोहनशास्त्री (अवकाशप्राप्त अध्यापक, दमोह), जिन्होंने प्राचार्य श्री विद्यासागर जी के प्रादेश से श्रीज्ञानसागर द्वारा विरचित कुछ सामग्री तथा कवि की जीवनी से सम्बन्धित कुछ पत्र-पत्रिकाएँ भिजवाई। मैं उन दोनों की भी हृदय से प्राभारी हूँ। ___ मुनिश्रीज्ञानसागर जैन ग्रन्यमाला की पुस्तकों को विक्रय की सुविधा प्रदान करने वाले श्री गणेशीलाल रतनलाल कटारिया कपड़ा बाजार, ब्यावर की भी प्रामारी हैं, क्योंकि उनकी कृपा से मुझे कविवर ज्ञानसागर का काफी साहित्य प्राप्त हो सका है। राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान, शास्त्री भवन, नई दिल्ली से मुझे शोषकार्य हेतु छात्रवृत्ति मिली, जिससे मेरी शोधकार्य सम्बन्धी आर्थिक कठिनाई काफी मात्रा में Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( xviii) हल हुई । अतः मैं इस संस्था तथा इसके निदेशक, उपनिदेशक एवं कार्यकर्ताओं के प्रति हृदय से आभारी एवं कृतज्ञ हूँ। शोष-ग्रन्थ को लिखते समय मेरी अनुजा डॉ नीरजा टण्डन, प्राध्यापक, हिन्दी-विभाग, कुमायूं विश्वविद्यालय नैनीताल, ने मेरी हर सम्भव सहायता की है । मतः मेरा हृदय उनके उत्तरोत्तर उत्कर्ष की कामना करता है। ___ साथ ही जिन कवियों, लेखकों और समालोचकों की कृतियों को पढ़कर मैंने लाभ प्राप्त किया है, उन सबकी सूची शोध-प्रबन्ध के पांचवें परिशिष्ट में बनाई गई है। यहाँ मैं उन सबके प्रति अपना प्राभार प्रकट करती हूँ। श्री श्याम मल्होत्रा, ईस्टनं बुक लिंकर्स, ५८२५, न्यू चन्द्रावल जवाहरनगर, दिल्ली-११०००७ की भी मैं कृतज्ञ हूँ, जिन्होंने इस शोधप्रबन्ध के प्रकाशन एवं मुद्रण का भार लेकर मुझे चिन्ताविनिर्मुक्त किया है। मब यह शोध-ग्रन्थ सहृदय, सुघी, विद्वान् पाठकों के समक्ष इस प्राशाविश्वास से प्रस्तुत किया जा रहा है कि उन्हें भी यह पसन्द पाएगा। प्राध्यापिका, संस्कृत विभाग, कुमायूं विश्वविद्यालय, नैनीताल । -किरण टण्डन Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका पृ० सं० भूमिका ___v-ix प्रस्तावना x-xvlil प्रस्तुत शोष विषय का महत्त्व, प्रस्तुत शोध विषय पर साहित्यिक मूल्याङ्कन की प्रपूर्णता पर एक विहग दृष्टि, प्रस्तुत शोधकार्य की प्रेरणा, प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध का संक्षिप्त परिचय एवं प्राभारप्रदर्शन । प्रथम अध्याय-महाकविज्ञानसागर का जीवन वृत्तान्त १-१७ महाकवि ज्ञानसागर की जन्मस्थली, माता-पिता, शिक्षा-दीक्षा, कार्यक्षेत्र, प्रमुख शिष्य-मुनि श्री विद्यासागर, ब्रह्मचारी श्री लक्ष्मीनारायण, श्री १०८ श्री विवेकसागर, क्षुल्लक श्री स्वरूपानन्द तथा ब्रह्मचारी श्री जमनालाल, महाकविज्ञानसागर को प्राचार्य पद की प्राप्ति, महाकवि को चारित्र चक्रवर्ती पद की प्राप्ति, महाकविज्ञानसागर का त्याग, सल्लेखना एवं समाधिमरण । द्वितीय अध्याय-महाकविज्ञानसागर के संस्कृत-काव्यग्रन्थों के संक्षिप्त कथासार १८-५८ जयोग्य महाकाव्य का संक्षिप्त कथासार, वीरोदय महाकाव्य का संक्षिप्त कथासार, सुदर्शनोदय महाकाव्य का संक्षिप्त कथासार, श्रीसमुद्रदत्तचरित्र महाकाम्य का संक्षिप्त कथासार, दयोदयचम्पू का संक्षिप्त कथासार एवं मुनिमनोरञ्जनशतक का संक्षिप्त कथासार । तृतीय अध्याय-वहाकविज्ञानसागर के संस्कृत काव्य-प्रन्थों के स्रोत . ५६-११५ काव्य स्रोत : एक सामान्य चिन्तन, कविवर ज्ञानसागर और उनके काव्य-स्रोत, जयोदय महाकाव्य के कथानक का स्रोत-महापुराण (मादिपुराण भाग-२), मूलकथा में परिवर्तन और परिवर्धन, वीरोदय महाकाव्य के कथानक के स्रोत-महापुराण (उत्तरपुराण), मूलकथा में परिवर्तन भोर परिवधन, सुदर्शनोदय महाकाव्य के कथानक का स्रोत-बृहत्कथाकोश में वरिणत सुभग गोपाल के कथानक का सारांश, पुण्यास्रव कथाकोश में परिणत सुभगगोपालचर सुदर्शन सेठ कपा का सारांश, ब्रह्मचारी नेमिदत्त विरचित माराधना कथाकोश में वरिणत Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( xx ) पञ्चनमस्कार मन्त्र प्रभाव कथा, भट्टारक सकलकीतिविरचित श्रोसुदर्शनपरित एवं श्रीविद्यानन्दिविरचित सुदर्शनचरित-मूलकथा में परिवर्तन और परिवर्धन, बहत्कथाकोश और सुदर्शनोदय, परिवर्धन, सुदंसणचरिउ मोर सुदर्शनोदय, परिवर्धन, श्रीसमुद्रदत्तचरित्रमहाकाव्य के कथानक का स्रोत-बृहत्कथाकोश में वरिणत भोभूतिपुरोहितकथानक का सारांश, आराधना कथाकोश में वर्णित 'श्रीभूतेः कया' का सारांश, मूलकथा में परिवर्तन और परिवर्धन, बृहत्कथाकोश भोर श्रोसमुद्रदत्तचरित्र, आराधनाकथाकोन और श्रीसमुद्रदत्तचरित्र, दयोदयचम्पू के कथानक का स्रोत-बृहत्व याकोश में वर्णित 'मगसेनपीवरस्य कथानकम्' का सारांश, माराधनाक्थाकोश में वर्णित मगसेन धीवर की कथा का सारांश, मूलकथा में परिवर्तन पौर परिवर्धन एवं सारांश । चतुर्थ अध्याय-महाकविज्ञानसागर के संस्कृत काव्यग्रन्थों की काव्यशास्त्रीय विषाएँ ११६-१४६ . काव्य एवं काव्य विधाएँ : एक संक्षिप्त परिचय-काव्य, शब्द, प्रर्ष, मलङ्कार, छन्द, मात्मा, वर्ण्य-विषय, शैली, गुण-दोष, काव्यविधाएँ कवि के संस्कृत काव्य एवं काव्यशास्त्रीय विधा : एक समन्वयजयोदय, वीरोदय, सुदर्शनोदय, श्रीममुद्रदत्तचरित्र, दयोदयचम्पू, मुनिमनोरञ्जनशतक, कवि की संस्कृत काव्यसम्पदा, कवि के दार्शनिक पन्य एवं सारांश। पञ्चम अध्याप-महाकविज्ञानसागर को पात्रयोजना १४७-१९६ काव्य में पात्रों का महत्त्व, कविवरज्ञानसागर के पात्रों का पालन एवं वर्गीकरण, ऋषिवर्ग, राजसेवक वर्ग, प्रजावर्ग, मानवेतर वर्गदेववर्ग, व्यन्तर वर्ग, पात्रों का व्यक्तिगत चरित्रचित्रण, जयोदय के पात्र-जयकुमार, सुलोचना, प्रकीर्ति एवं राजा प्रकम्पन । वीरोक्ष के पात्र-भगवान् महावीर, राजा सिद्धार्थ प्रियकारिणी एवं श्री, ह्री देवियाँ। सुदर्शनोदय के पात्र-सुदर्शन, मनोरमा, अभयमती, सेठ वृषभदास, जिनमति, धात्रीवाहन, कपिला ब्राह्मणी, पण्डिता दासी एवं देवदत्ता वेश्या । श्रोसमुद्रदत्तचरित्र के पात्र-भद्रमित्र, सत्यपोष एवं रामदत्ता । दयोदयचम्पू के पात्र-सोमदत्त, विषा, गुणपाल, गुणश्री, गोविन्द ग्वाला, बसन्तसेना एवं अन्य पात्र, कविवरज्ञानसागर पात्रों की सामाजिक उपयोगिता एवं सारांश । Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ni ) षष्ठ अध्याय-महाकविज्ञानसागर का वर्णनकोशल) २६७-२४ वर्णन कौशल : एक मूल्यांकन, प्रकृतिचित्रण : एक विश्लेषण, पर्वत वर्णन-सुमेरु, हिमालय, विजया एवं श्रीपुरुपर्वत वर्णन, वन, नदी; सरोवर, समुद्र एवं दीप वर्णन, द्वोप ऋतु वर्णन-बसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद् एवं हेमन्त वर्णन, कालवर्णन-प्रभात, दिवस, सन्ध्या एवं रात्रिवर्णन, रस्तुवर्णन : एक विहगावलोकन, देशवर्णन-भारतवर्णन, मालबदेश वर्णन, मङ्गदेश वर्णन, नगरवर्णन-कुण्डनपुर, चम्पापुरी, उज्जयिनी, स्तबकगुच्छ, चक्रपुर, हस्तिनापुर एवं काशीवर्णन, ग्राम; मन्दिर, समवसरण मण्डप, यात्रा, युद्ध एवं विविध वर्णन तपा सारांश। सप्तम अन्याय-महाकविज्ञानसागर के संसत काव्यों में भावपक्ष २४५-३१० भावपक्ष का महत्त्व, भावपक्ष के भेद, रस-स्वरूप, रस-संस्या निर्णय, मुनि श्री के संस्कृत काव्यों में भङ्गोरस-शान्त रस का स्वरूप, जयोदय में वरिणत शान्त रस, वीरोदय में वरिणत शान्त रस, सुदर्शनोदय में परिणत शान्तरस, श्रीसमुद्रदत्तचरित्र में परिणत शान्त रस, दयोदयचम्पू में वरिणत शान्त रस, कवि ज्ञानसागर के संस्कृत काव्यों में मङ्गरस-जयोदय में वर्णित मङ्गरस-शृङ्गार, वीर, रोद, हास्य, वीभत्स एवं वत्सल, सुदर्शवोदय में वरिणत मङ्गरस--शृङ्गार, रोद्र, मद्भुत एवं वत्सल, श्रीसमुद्रदत्तचरित्र में वर्णित प्रङ्गरस-बीर, करुण, रोद एवं वत्सल, दयोदयचम्पू में वरिणत मङ्गरस-शृङ्गार, करुण एवं वत्सल, रसाभास का स्वरूप, कविज्ञानसागर के संसात काव्यों में रसाभास-जयोदय में रताभास-अङ्गार रसाभास एवं भयानक रताभास, सुदर्शनोदय में रसाभास-शान्त रसाभास, शृङ्गार रसाभास एवं रोद्र रसाभास, श्रीसमुद्रदत्तचरित्र में रसाभास-सान्तरसाभास एवं शृङ्गार रसाभास, दयोदवचम्पू में रसाभास-शान्त रसामास, भाव का स्वरूप, कविज्ञानसागर के संस्कृत काव्यों में भावजयोदय महाकाव्य में भाव-भगवद् विषयक भक्तिभाव, गुरुविषयक भक्तिभाव, नपविषयक भक्तिभाव, व्यंग्य व्यभिचारिभाव, अपरिपुष्टस्वामिनाव, वीरोदय महाकाव्य में भाव-देवविषयक भक्तिभाव, मुपविषयक भक्तिभाव, गुरुविषयक भाव, व्यंग्य व्यभिचारिभाव एवं अपरिपुष्ट स्थायिभाव, श्रीसमुद्रदत्तचरित्र में भाव-देवविषयक भक्तिभाव, गुरुविषयक भक्तिभाव, व्यंग्य व्यभिचारभाव एवं अपरिपुष्ट स्थायिभाव, स्योदयधम्प में भाव-देवविषयक भक्तिभाव, गुरुविषयक भक्तिमान, व्यंग्य अभिचारिभाष एवं परिपुष्ट स्थायिभाव, गावामार Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( xxii ) का स्वरूप, कविज्ञानसागर के संस्कृत काव्यों में भावाभास, भावशान्ति का स्वरूप, कवि ज्ञानसागर के संस्कृत काव्यों में भावशान्ति, भावोदय का स्वरूप, कवि ज्ञानसागर के संस्कृत काव्यों में भावोदय -जयोदय में भावोदय, वीरोदय में भावोदय, सुदर्शनोदय में भावोदय, श्रीसमुद्रदत्तचरित्र में भावोदय एवं दयोदयचम्पू में भावोदय, भावसन्धि का स्वरूप-कवि ज्ञानसागर विरचित जयोदय में भावसन्धि, वीरोदय में भावसन्धि, सुदर्शनोदय में भावसन्धि, श्रीसमुद्रदत्तचरित्र में भावसन्धि, दयोदयचम्पू में भावसन्धि, भावशबलता-जयोदय में भावशबलता, वीरोदय में भावशवलता, सुदर्शनोदय में भावशबलता, श्रीसमुद्रदत्तचरित्र में भावशबलता, दयोदयचम्पू में भावशवलता, ध्वनि का स्वरूप-कवि ज्ञानसागर के संस्कृत काव्यों में ध्वनि, गुणीभूतव्यंग्य का स्वरूप, कवि ज्ञानसागर के संस्कृत काव्यों में गुणीभूतव्यंग्य एवं सारांश। अष्टम अध्याय-महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत काव्यग्रन्थों में कलापक्ष . ११-३६६ कला का स्वरूप और भेद, काव्यकला के मङ्ग, काव्य में कला का अनुपात, महाकवि ज्ञानसागर के काव्यों में कला निरूपण, प्रलङ्कारअनुप्रास, यमक, माद्य यमक, मुख यमक, युग्म यमक, पुच्छ यमक, एकदेशज अन्त्य यमक, श्लेष, उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, प्रपति , प्रर्थान्तरन्यास, परिसंख्या, परिकराङ्कुर, संसृष्टि एवं संकर, चित्रालङ्कार-चक्रबन्ध, गोमूत्रिकाबन्ध, यानबन्ध, तालवृन्तबन्ध एवं कलशबन्ध, छन्द-उपजाति, बियोगिनी, रपोद्धता, मात्रासमक, दुतविलम्बित, भार्या, बसन्ततिलका, कालभारिणी, शाईलविक्रीडित, दोहा, पुष्पिताग्रा, पञ्चचामर, मीत (राग-रागिणी) महाकवि ज्ञानसागर के काग्यों में गीत-प्रभातो, काफी होलिकाराग, श्यामकल्याण राग, सारङ्ग राग, सौराष्ट्रीय राग, कव्वाली, गुण, माधुर्य का स्वरूप एवं उसके अभिव्यञ्जक तत्त्व, महाकविज्ञानसागर के संस्कृत काव्यों में माधुर्य गुण, मोजोगुण का स्वरूप एवं उसके अभिव्यञ्जक तत्त्व, महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत काव्यों में भोजो. गुण, प्रसाद गुण का स्वरूप एवं उसके अभिव्यजक तत्व, महाकवि शानसागर के संस्कृत काव्यों में प्रसाद गुण, भाषा, महाकवि शानसागर के संस्कृत काव्यों की भाषा शैली-बंदी, गोडी एवं पांचाली शेली, महाकविज्ञानसागर की शैली, वाग्वदग्ध्य, महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत काव्यों में वाग्वदग्ध्य, संवाद, देशकाल एवं सारांश । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( xxiii ) नवम अध्याय-महाकविज्ञानसागर का जीवन दर्शन ४९७-४२६ जीवन दर्शन : एक संक्षिप्त परिचय, कवि की सामाजिक, राजनैतिक आर्थिक एवं सांस्कृतिक विचारधारा, कवि की धार्मिक विचारधारा -जैनी महात्मानों के क्रमिक विकास के सोपान-पुरुष वर्गीय जैनी महात्मा-ज्ञानसागर के काव्यों में प्राप्त होने वाली जैन महात्मायों की श्रेणियाँ-दिगम्बर मुनि, मुनि, ऋषि, योगी, अहंन्त, परमेष्ठी, स्त्री वर्गीय जनी महात्मा प्रायिका, क्षुलिका, ज्ञानसागर की दृष्टि में जैनधर्म और प्रत -प्रनयंदण्डवत, सामयिक शिक्षाक्त, प्रोषधोपवास व्रत, भोगोपभोगपरिणाम, शिक्षाव्रत, अतिथिसंविभागशिक्षाव्रत, ज्ञानसागर की दृष्टि में जैनधर्म का ज्ञानपञ्चक, ज्ञानसागर के काग्यों में प्रवधिज्ञान एवं केवल ज्ञान, कवि की दष्टि में ईश्वर, कर्मकाण्ड एवं जैनधर्म को उपयोगिता, कवि की दार्शनिक विचारधारास्याद्वाद सिद्धान्त, द्रव्यस्वरूप एवं भेद, ध्यान, कर्म, गुण, स्थान, प्रात्मा, गुप्ति, समिति, उपयोग, योग, धर्म-अधर्म एवं पुरुष का कर्तव्य, प्रमाग तथा सारांश । दशम अध्याय-उपसंहार ४३०-४३६ ज्ञानसागर का संस्कृत कवियों में स्थान, ज्ञानसागर के संस्कृत काव्य. ग्रन्थों-जयोदय, वीरोदय, सुदर्शनोदय, श्रीसमुद्रदत्तचरित्र एवं दयो दयचम्पू-का संस्कृत साहित्य में ल्थान एवं सारांश ।। प्रथम परिशिष्ट-महाकवि ज्ञानसागर को संस्कृत भाषा में लिखित दार्शनिक कृतियां ४४०-४४१ मौलिक कृति-सम्यक्त्वसारशतक, अनुवाद कृति-प्रवचनसार । द्वितीय परिशिष्ट --- महाकवि ज्ञानसागर को हिन्दी रचनाएं ४४२-४४८ मौलिक कृतियां-ऋषभावतार, धन्यकुमार का चरित, पवित्र मानव बोवन, सरल जैन विवाह विधि, कर्तव्यपप-प्रदर्शन, सचित्तविवेचन एवं स्वामी कुन्द कुन्द प्रौर सनातन जैनधर्म, टोकाकृतियां-तत्त्वार्थ सूत्र टीका, विवेकोदय एवं समयसार, मप्रकाशित रचनाएँ। तृतीय परिशिष्ट-बहाकवि ज्ञानसागर को सूक्तियां ४४६.४५५ चतुर्थ परिशिष्ट-महाकवि मानसागर की अन्यकृत प्रशस्तियां ४५६.४६२ पञ्चम परिशिष्ट-सप अन्य सूची ४६३.४६८ अनुक्रमणिका ४६९-४७५ Page #60 --------------------------------------------------------------------------  Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय महाकवि ज्ञानसागर का जीवन वृत्तान्त भारतवर्ष प्रारम्भ से ही महापुरुषों की जन्मस्थली रहा है। यहां की धरा ने ही राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर और महात्मा-गांधी प्रादि जैसे महापुरुषों को; कालिदास, अश्वघोष, भवभूति, जयदेव, तुलसी, सूर प्रादि जैसे महाकवियों और पाणिनि, कात्यायन, पतञ्जलि, व्यास, जैमिनि, गौतम, कणाद, कपिल, गुणमा, जिनभद्र, भरत, भामह, मम्मट प्रादि प्राचार्यों को जन्म दिया है । महाकवि को जन्मस्थली - इसी भारतवर्ष में राजस्थान नामक एक प्रदेश है जो रूप, रंग, मोर धर्म को समवेत विशेषतामों को धारण करता है । इस प्रदेश में जयपुर के समीप सीकर नामक एक जिला है, जिसमें 'राणोली' नामक एक ग्राम है। इस ग्राम में 'राणा' उपनामधारी क्षत्रिय प्रचुर मात्रा में रहते हैं।' ईशा की अठारहवीं शताब्दी में इस ग्राम में खण्डेलवाल जातीय, छाबड़ा गोत्रोत्पन्न, जन-धर्म में मास्था रखने वाले सेठ सुखदेव जी रहते थे। उनके पुत्र का नाम चतुर्भुज था, जिसका विवाह धृतवारी देवी से हुआ। १. 'जनमित्र', साप्ताहिक पत्र, मुनि श्री ज्ञानसागर जी का संक्षिप्त परिचय वीर-संवत २४६२ वैशाख सुदी ८, (२८-४-१९६६) पृ० सं० २५३ ।। (ख) पं० हीरालाल सिद्धान्तशास्त्री, दयोदयचम्पू, प्रस्तावनाभाग, पृ० सं०३। ३. (क) वही, (ख) वहीं, (ग) देवकुमार जैन, सम्यक्त्वसारशतक की प्रस्तावना में से । (घ) डॉ. विद्याधर जोहरापुरकर एवं डॉ. कस्तूरचन्द्र कासलीवाल, वोरशासन के प्रभावक प्राचार्य, संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान् माचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज, पृ. सं० २७० । (ङ) श्री चतुर्भुज रानोली के, जो वीरभूमि पास है। धृतवली देवी के सहित, श्रीवीर पर विश्वास है ।। श्रीलालषी जैन वैद्य, हिसार, मुनिपूजन, पृ० सं०६ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ . महाकवि भानसागर के काम्य-एक अध्ययन महाकवि के माता-पिता चतुर्भुज को छः पुत्ररत्नों की प्राप्ति हुई, जिसमें पांच जीवित रहे। सबसे बड़े पुत्र का नाम छगनलाल रखा गया । उसके पश्चात पतवारी देवी ने दो जुड़वा पुत्रों को जन्म दिया। किन्तु जन्म के कुछ ही समय के बाद जीवन के लक्षण न मिलने से दोनों शिशुमों को मृत मान लिया गया। परन्तु शीघ्र ही एक शिशु में जीवन के लक्षण प्राप्त हुए पर दूसरा बालक मृत्यु को प्राप्त हो गया। जीवित बालक का नाम 'भूरामस' रखा गया। यही बालक मागे चलकर प्राचार्य श्री १०८ ज्ञानसागर के नाम से विख्यात हुमा।' अमनलाल एवं भूरामल के प्रतिरिक्त पतवारी देवी ने तीन और पुत्रों को जन्म दिया। भूरामल के इन अनुजों के नाम क्रमशः इस प्रकार हैं :-गंगाप्रसाद, गौरीलाल पौर देवीदत्त ।। शिक्षा-दीक्षा बाल्यकाल से ही भूरामल की अध्ययन के प्रति रुचि थी । सर्वप्रथम कूवामन के श्री पं. जिनेश्वरदास जी ने राणोली ग्राम में ही भूरामल को धार्मिक एवं मोकिक शिक्षा दी। पर उनकी उच्च शिक्षा का प्रबन्ध गांव में न हो सका। . इसी बीच इस सम्पन्न जन-परिवार के समक्ष एक महा विपत्ति पा गई। छगनलाल की आयु १२ वर्ष की थी और भूरामल को केवल १० वर्ष । इसी समय उनके पिता चतुर्भुज की वि० सं० १५५६ (सन् १९०२) ई. में मृत्यु हो गई। पिता की मृत्यु हो जाने से बालक भूरामल की पारिवारिक अर्थव्यवस्था बिगड़ गई। (च) मूलचन्द्र चौधरी, ऋषभदेवचरित, भूमिका भाग। (छ) पं० चम्पालाल जैन विशारद, बाहुवलीसन्देश में से । (ज) मुनिसंघव्यवस्थासमिति, नसीराबाद (राज.), श्री ज्ञानसागर जी महाराज का संक्षिप्त जीवन परिचय, (१-६-१९७४) पृ० सं० २ (झ) डॉ. पं. लाल बहादुर शास्त्री, जन गजट, १० सं० १ . (२) श्री इन्द्र प्रभाकर जैन, वोरोदय (मासिक प्रपत्र), पृ० सं० १ १. मुनि संघ व्यवस्था समिति, नसीराबार (राज.), बी ज्ञानसागर बी महाराज ___ का संक्षिप्त जीवन परिचय, (१-९.१९७४), पृ०सं०२। २. (क) बनमित्र, साप्ताहिक पत्र, मुनि श्री ज्ञानसागर जी का संक्षिप्त परिषय, बीर संवत् २४६२, पेशास सुरी ८, (२८.४.१९६९) ३० सं० २५३ (ख) पं. हीरालाल सिद्धान्तमास्त्री, दयोदयचम्पू, प्रस्तावना भाग, पृ. सं० । १. मुनिसंघव्यवस्थासमिति, नसीराबार, (राज.), श्री मानसागर जी महाराज का संक्षिप्त जीवन परिचय, (१-६-१९७४) पृ० संख्या २। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर का जीवन वृतान्त फलस्वरूप भूरामल के अध्ययन में बाधा उपस्थित हो गई ।' भूरामल के सबसे छोटे भाई देवीदत्त का जन्म पिता की मृत्यु के बाद हुमा । २ परिवार का भरण-पोषण करने के लिए भूरामल के बड़े भाई धनमाज को अपनी इस बाल्यावस्था में ही घर से निकलना पड़ा। प्राजीविका की बोच करते हुए वह गया पहुंचे। वहां उन्होंने एक जैन दुकानदार की दुकान में नौकरी कर ली । शिक्षा प्राप्ति के साधन के प्रभाव में भूरामल भी अपने बड़े भाई के पास गया चले गए और वह भी किसी जैनी सेठ की दुकान में काम खोजने लगे । 3 इस प्रकार जीवन-यापन करते हुए एक वर्ष बीत गया। इसी बीच स्यादवाद महाविद्यालय, वाराणसी के छात्र किसी समारोह में भाग लेने के लिए गया प्राये । उनको देखकर भूरामल के भी मन में वाराणसी में विद्या ग्रहण करने की बलवती इच्छा उत्पन्न हो गई। उन्होंने प्रपने भाई से इस सम्बन्ध में निवेदन किया । यद्यपि घर की परिस्थिति को देखकर छगनलाल, भूरामल को वाराणसी नहीं भेजना चाहते थे, किन्तु अध्ययन के लिए भूरामल की डढ़ता भौर तीव्र लालसा देखकर उन्हें स्वीकृति देनी पड़ी। इस प्रकार १५ वर्ष की आयु में भूरामल विद्या ग्रहण करने वाराणसी चले गये । ४ वाराणसी में स्याद्वाद महाविद्यालय से उन्होंने संस्कृत-साहित्य एवं जनदर्शन की उच्च शिक्षा प्राप्त की। इसी बीच क्वोन्स कालेज, काशी से उन्होंने १.. (क) पं० हीरालाल सिद्धान्तशास्त्री, दयोदयचम्पू, प्रस्तावना भाग पृ० सं० ड । (ख) जनमित्र, साप्ताहिक पत्र, मुनि श्री ज्ञानसागर जी का संक्षिप्त परिचय, वीर संवत् २४६२, वैशाख सुदी ८ ( २८-४-१९६६) पृ० सं० २५३ (क) बही । (ख) वही । ३ (क) वही । वही । 1 ४. बही । यही । प्रकाशचन्द्र जैन, 'बीरोदय' (महाकाव्य) के प्रकाशकीय में से । (घ) पं० चम्पालाल जैन, बाहुबलीसम्देश में से । (ङ) डॉ० पं० सालबहादुर शास्त्री, चैन गजट, पृ० सं० १ । (च) मुनिसंघव्यवस्थासमिति, नसीराबाद (राज०), प्राचार्य श्री शानसापर जी महाराज का संक्षिप्त जीवन परिचय, पू० सं० २ । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य-एक अध्ययन शास्त्रि-परीक्षा उत्तीर्ण की। भूरामल परीक्षा पास करने को ज्ञान की सच्ची कसोटी नहीं मानते थे । उनके अनुसार ग्रन्थ को आद्योपान्त समझना प्रावश्यक था। अपनी इस मान्यता के कारण सब कार्यों से विरक्त होकर वह अध्ययन में जुट गए। रात-दिन, एक-एक करके वह ग्रन्थों को पढ़ते और क.ण्ठस्थ करते थे। इस प्रकार इन्होंने वाराणसी में रहते हुए थोड़े ही समय में शास्त्रि परीक्षा के सभी ग्रन्थों को अच्छी प्रकार से पढ़ लिया था। भूरामल के शिक्षा-ग्रहण करते समय, जन प्रणीत संस्कृत व्याकरण और साहित्य के ग्रन्थ प्रकास में नहीं पाए थे, प्रतः उनका परीक्षामों में प्रभाव पाया जाता था । फलस्वरूप सभी छात्रों को जनेतर ग्रन्थों को पढ़कर ही परीक्षा उत्तीर्ण करनी पड़ती थी। जैन-ग्रन्थों का ऐसा प्रभाव भूरामल को अच्छा नहीं लगा। उनकी प्रबल इच्छा हुई कि अप्रकाशित जैन-प्रन्यों को प्रकाश में लाया जाय । भरामल के अतिरिक्त अन्य व्यक्ति भी इस मोर प्रयत्नशील हुए। फलस्वरूप भूरामल और उन लोगों ने मिलकर न्याय एवं व्याकरण के कुछ प्रकाशित जन-ग्रन्थों को कागी विश्वविद्यालय एवं कलकत्ता परीक्षालय के संस्कृत पाठयक्रम में निर्धारित कराने का सफल प्रयास किया। साथ ही भरामल ने यह भी हद निश्चय कर लिया कि परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद मैं जन-ग्रन्थों का प्रकाशन करवाने का प्रयास करूंगा। उन्होंने वाराणसी में रहते हुए जैनाचार्य प्रणीत ही न्याय, व्याकरण, साहित्यादि ग्रन्थों का अध्ययन किया, जनेतराचार्य प्रणीत ग्रन्थों का नहीं। उस समय की एक वात और चिन्तनीय थी, और वह यह कि वाराणसी के संस्कृत-प्रध्यापक छात्रों की इच्छा होने पर भी उन्हें जैनाचार्यप्रणीत ग्रन्थों की शिक्षा नहीं देते थे। भूरामल ने अपने दृढ़-निश्चय के अनुसार येन-केन-प्रकारेण अध्यापकों (छ) श्री इन्द्र प्रभाकर जैन, वीरोदय (मासिक गजट), पृ० सं० २। (ज) डॉ. विद्याधर जोहरापुरकर एवं डा० कस्तूरचन्द्र कासलीवाल, वीर शासन के प्रभावक प्राचार्य, संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान-प्राचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज, पृ० सं० २७० । १. (क) डा० पं० लालबहादुर शास्त्री, जैन गजट, पृ० सं० १। (ख) मुनिसंघव्यवस्थासमिति, नसीराबाद (राज.), प्राचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज का संक्षिप्त जीवन परिचय, प० सं० २ । २. पं० हीरालाल सिद्धान्तशास्त्री, दयोदयचम्पू, प्रस्तावनाभाग, पृ० ढ। . ३. पं० हीरालाल सिद्धान्तशास्त्री, दयोदयचम्पू प्रस्तावनाभाग, पृ० सं० रण। Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर का जीवन वृत्तान्त से जन ग्रन्थों की शिक्षा प्राप्त की।' इस समय पण्डित उमराव सिंह जी महा. विद्यालय में धर्मशास्त्र के अध्यापक थे। भूरामल को जन-ग्रन्थों के अध्ययन की प्रेरणा इन्हीं से मिली । बाद में पं० उमरावसिंह ने ब्रह्मचर्य-प्रतिमा अंगीकृत कर ली और ब्रह्मचारी ज्ञानानन्द जी के नाम से विख्यात हुए। यही कारण है कि अपने काग्यों के मंगलाचरण में गुरुवन्दना के समय भूरामल इन्हीं का नाम उल्लिखित करते रहे। भूरामल अपने अध्ययन-काल में भी स्वावलम्बन पर ही विश्वास करते थे। उन दिनों में भी उन्होंने किसी के सामने हाथ नहीं फैलाया। वह अपने परिश्रम से उपाजित धन से ही विद्यालय के भोजनालय में भोजन करते थे।५ कार्य क्षेत्र शास्त्री की उपाधि प्राप्त करके श्री भरामल जी अपने ग्राम (राणोली) नोट पाए । अब उनके सामने कार्य-क्षेत्र को चुनने की समस्या थी। एक ओर तो अध्ययन अध्यापन के प्रति रुचि, और दूसरी मोर परिवार की शोचनीय परिस्थिति । पर उन्होंने दोनों ही स्थितियों को प्रादर्शपूर्ण रीति से सम्हाला । विद्यालयों में वैतनिक सेवा में रत अध्यापकों का अनुकरण करते हुए, गांव में रहकर स्थानीय जैन-बालकों को निःशुल्क शिक्षा देने लगे; और साथ ही परिवार की आर्थिक दशा सुधारने के लिए दुकानदारी भी करते रहे। इन दोनों कार्यों के अतिरिक्त उनका स्वाध्याय तो निरन्तर चलता ही रहता था। १. बही, २. मलवीजं मलयोनि गलन्मलं पूतगन्धि बीभत्सम् ।। पश्यन्नङ्गमनङ्गाद्विरमति यो ब्रह्मचारी सः ॥ -पं० हीरालाल सिदान्तशास्त्री, जैनधर्मामृत, ४।१३५ ३. पं० हीरालाल सिद्धान्तशास्त्री, दयोदयचम्पू, प्रस्तावनाभाग, पृ० सं० ण । ४. ज्ञानेन चानन्दमुपाश्रयन्तश्चरन्ति ये ब्रह्मपथे सजन्तः ।। तेषां गुरूणां सदनुग्रहोऽपि कवित्वसक्ती मम विघ्नलोपी॥ . -वीरोदय महाकाव्य, १०६ ५. पं. हीरालाल सिद्धान्तशास्त्री, बाहुबलीसन्देश, प० सं० १४ .. ६. (क) पं० हीरालाल सिद्धान्तशास्त्री, दयोदयचम्पू, प्रस्तावनाभाग, पृ० सं० त। (ख) ० विद्याधर जोहरापुरकर एवं ० कस्तूरचन्द्र कासलीवाल, बीर शासन के प्रभावक प्राचार्य, पृ० सं० २७० । (ग) प्रकाशचन्द्र जैन, वोरोदय (महाकाव्य) के प्रकाशकीय में से । Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि मानतामर के कान-एक अध्ययन इसी बीच श्री भूरामल शास्त्री के बड़े भाई छगनलास भी गया से लौटकर घर मा गए । तब दोनों भाइयों ने मिलकर दुकान द्वारा प्राजीविकोपार्जन किया मोर छोटे भाइयों की शिक्षा-दीक्षा एवं देख-रेख का कार्य भी किया। . पं. भूरामल शास्त्री की युवावस्था, विद्वत्ता, गृहसंचालनपटुता, माजीविको. पार्जन की योग्यता मादि गुणों से भनेक लोग प्रभावित हुए। फलस्वरूप इनके विवाह हेतु प्रस्ताव भेजे जाने लगे। माइयों एवं सम्बन्धियों ने भी उनसे विवाह कर मेने का भाग्रह किया । परन्तु जन-साहित्य के निर्माण और उसके प्रचार में विवाह को एक बहुत बड़ी बाषा मानकर उन्होंने अपने शिक्षाकाल (१८ वर्ष की आयु) में ही भाजीवन ब्रह्मचारी रहने की प्रतिज्ञा कर ली थी। प्रतः अपने सम्बन्धियों के भाग्रह को ठुकरा दिया और अपने भाजीवन ब्रह्मचारी रहने की इन्चा भी प्रकट कर दी। ब्रह्मचर्य-व्रत का अंगीकार करने के बाद मात्म-कल्याण एवं जैन-काव्य-निर्माण के इन्क ५० भरामल शास्त्री दुकान के काम की भोर से भी उदासीन हो गए। फलस्वरूप वह दुकान का कार्य अपने बड़े भाई और छोटे भाइयों को पूर्णरूपेण सौंपकर ज्ञानाराषन में ही लीन हो गए। उन्होंने एक समय शुद्ध सात्त्विक भोजन, १. पं० होरालाल सिद्धान्तशास्त्री, दयोदयचम्पू, प्रस्तावनामाग, पृ० सं० त । २. (क) पं० हीरालाल सिदान्तशास्त्री, दयोदयचम्पू, प्रस्तावनाभाग, पृ० सं० (स) डा. विद्याधर जोहरापुरकर एवं डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल, वीर शासन के प्रभावक प्राचार्य, १० सं० २७० । (ग) पं० चम्पालाल जैन, बाहुवलीसन्देश, प्रद्वितीय श्रमण, पृ. स. ३७ (ब) मूलचन्द्र चौधरी, ऋषभचरित, मुनि श्री ज्ञानसागर का परिचय । (क) शान्तिस्वरूप जैन, मुनिपूजन में से। (च) धर्मचन्द मोदी, स्मारिका, प्राचार्य ज्ञानसागर जी महाराज, पृ० सं० १२। (छ) में पं० लालबहादुर शास्त्री, जैनगजट (साप्ताहिक), पृ० सं० १ (ज) मुनिसंघव्यवस्थासमिति, नसीराबाद, (राज.), बीज्ञानसागर जी __ महाराज का संक्षिप्त जीवन परिचय, पृ० स०२। ३. (क) 4. हीरालाल सिदान्तशास्त्री, दयोदयबम्पू, प्रस्तावनामाग, पृ.सं. (ब) विद्याधर जोहरापुरकर एवं डॉ. कस्तूरचन्द कासलीवाल, वीर शासन के प्रभाव प्राचार्य, पृ० सं० २७०। (ब) गॅ. पं० लासबहादुर शास्त्री, जैनगजट (साप्ताहिक), प. सं.। (ब) मुनिसंघव्यवस्थासमिति, नसीराबार (राज.), श्री ज्ञानसागर जी महाराज का संक्षिप्त जीवन परिचय, पृ.सं. २। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर का जीवन वृतान्त अध्ययन एवं लेखन को ही प्रपनी दैनिक चर्या बना लिया । इसी बीच उनको दाँता (रामगढ़) में संस्कृत - अध्यापन के लिए बुलाया गया। वह वहीं गए और परमार्थभाव से पढ़ाने लगे । इस प्रकार अध्यापन भौर काव्यसर्जना द्वारा सरस्वती की प्राराधना करते हुए उन्होंने जैन साहित्य एवं दर्शन की प्रभिवृद्धि की । उनके ये ग्रन्थ संस्कृत एवं हिन्दी, दोनों ही भाषा प्रों में हैं । संस्कृत भाषा में लिखित उनके काव्य-ग्रन्थों की संख्या ८ है; मोर हिन्दी में लिखे गये उनके छोटे मोटे सभी ग्रन्थों की संख्या १४ तक पहुँच गई। उनके इन २२ ग्रन्थों की सूची इस प्रकार है : ज्ञानसागर के ग्रन्थ संस्कृत ग्रन्थ 1 साहित्यिक ग्रन्थ दार्शनिक ग्रन्थ साहित्यिक ग्रन्थ महाकाव्य चम्पू काव्य मुक्तकका० I दयोदय मुनि० शतक I T जयोदय बीरोदय सुदर्शनो श्रीसमुद्र दय दत्तचरित्र T प्रवचन सार L जैन वि० कर्तव्यपथ विधि प्रदर्शन तत्वार्थ सूत्रटीका बिबेकोदय सचित विवेचन 1 हिन्दी ग्रन्थ 1 T ऋऋषभावतार गुरणसुन्दर वृत्तान्त सम्यक्त्वसार शतक दार्शनिक ग्रन्थ T भाग्योदय नियमानुसार का पद्यानुवाद मानवजीवन समय सार देवागमस्रोत का प्रष्टपाहुड का स्वामी कुन्द हिन्दी पद्यानुवाद पद्यानुवाद कुन्य धोर सनातन जैनधर्म | पं० चम्पालाल जैन, बाहुबलीसन्देश, भद्वितीय भ्रमण पृ० सं० ३७ (ख) डा० पं० लालबहादुर शास्त्री, जंनगजट (साप्ताहिक) पू० सं० २. बही । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य-एक अध्ययन इनमें से संस्कृत साहित्य-ग्रन्थ, संस्कृत-प्रेमियों और हिन्दी ग्रन्थ जन-साधारण को जैन दर्शन की विशेषतामों से परिचित कराने के लिए लिखे गए हैं। ये अन्य न केवल जैन साहित्य एवं दर्शन को, अपितु सम्पूर्ण, संस्कृत-वाङ्मय की अमूल्य निधि हैं। . इस प्रकार अनेक ग्रन्थों के निर्माण एवं पठन-पाठन में पं० भूरामलशास्त्री जी ने अपनी युवावस्था व्यतीत की। जब उनको प्रायु ५१ वर्ष की हुई, तब विक्रम संवत् २००४ (सन् १९४७ ई.) में मात्म-कल्याण की प्रबल भावना से बालब्रह्मचारी होते हुए भी प्राचार्य वीरसागर जी महाराज की प्राज्ञा से उन्होंने मजमेर नगर में ब्रह्मचर्य प्रतिमा धारण कर ली।' वि० संवत् २००६ (सन् १९४६ ई.) में पाषाढ़ शुक्ला अष्टमी को उन्होंने पूर्वजों का घर पूर्णतया छोड़ दिया और अजमेर मगर, केसरगंज में सप्तमप्रतिमा अंगीकृत कर ली। इस समय उनकी प्रायु ५३ वर्ष की हो चुकी थी। विक्रम संवत् २००७ (सन् १९५० ई०) में ब्रह्मचारी पं० भूरामल शास्त्री स्व. प्राचार्य सूर्यसागर जी के पास दिल्ली गए, वहाँ वह पहाड़ी धीरज की धर्मशाला में रुके। यहीं पर दिगम्बर जैन सरस्वती भवन के अध्यक्ष पं. हीरालाल जी सिद्धान्तशास्त्री से इनकी भेंट हुई। सिद्धान्तशास्त्री जी के हृदय पर ब्रह्मचारी जी के व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व का पमिट प्रभाव पड़ा।४ पं० भूरामलशास्त्री इस समय भी ज्ञान की साधना में लगे रहते थे। उन्होंने १. (क) पं० हीरालाल सिद्धान्तशास्त्री, दयोदय चम्पू, प्रस्तावनाभाग, पृ० सं० (ख) श्री इन्द्रप्रभाकर जैन, वीरोदय (मासिक प्रपत्र), पृ० सं० १ । (ग) पं. चम्पालाल जैन, बाहुवलीसन्देश में से । (घ) इससे अधिक भयभीत हो, पुनि घोर निद्रा से जगे। श्री वीरसागर पूज्य के निज सौंध को ढूंढने लगे ॥ पुनि जाय श्री प्राचार्य के, चरणन नवायो माय को। अपने हृदय के भाव सब, दर्शाये मुनि श्री नाथ को । उन समझ असली रूप को, ब्रह्मचर्य की मात्रा क्यो । होकर मगन गुरु पग परस, मन दृढ़प्रतिज्ञा कर लयी। -श्रीलाल जैन वैद्य, हिसार, मुनिपूजन, पृ० स० ६ २. ब्रह्मचर्य प्रतिमा ही सप्तम प्रतिमा है। -पं० हीरालाल सिद्धान्तशास्त्री, जैनधर्मामत, ४१३५ ३. गौरीलाम जैन, बाहुवलीसन्देश, पृ० सं० ३३ । ४. पं. हीरालाल सिद्धान्तशास्त्री, बाहुबलीसन्देश, पृ० स० १३ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर का बीवन वृत्तान्त इसी समय प्रकाशित हुए सिद्धान्तग्रन्थ श्रीधवल, जयधवल, महाबन्ध का गम्भीर स्वाध्याय किया।' धीरे-धीरे. भूरामल के मन में विरक्तभाव और भी बढ़ा, फलस्वरूप वि० संवत् २०१२ (सन् १९५५ ई०) में मनसुरपुर (रेनवल) में उन्होंने वीरसागर जी महाराज के समीप क्षुल्लक दीक्षा ग्रहण कर ली। तदनन्तर बहुत सा समय हिसार में बिताकर भारत के प्रमुख नगरों में भ्रमण किया, मोर प्राचार्य श्री नमिसागर जी महाराज का सान्निध्य भी प्राप्त किया। इसी बीच उनके द्वारा रचित "सम्यक्त्वसारशतक' का भी प्रकाशन हमा।' १. पं० हीरालाल सिद्धान्तशास्त्री, दयोदयचम्पू, प्रस्तावनाभाग, पृ० स० प । २. गृहस्पः प्राप्य वैराग्यं देहभोगभवादिषु । त्यक्त्वा गृहं कुटुम्बं च प्रागाद्यो मुनिसन्निधिम् ॥ माराध्य मुनिसत्पादौ शकभूपेन्द्रपूजितो। गृहीत्वा क्षुल्लकों दीक्षां खण्डवस्त्रसमन्विताम् ।। गुरुपार्वे स्थितो नित्यं सोऽत्ति भिक्षां परगृहात् । उददिष्टवजिताख्येकां दशमी प्रतिमां भजेत् ॥ मस्तके मुण्डनं लोचः कर्तनं वा समाचरेत् । द्वित्रिभिर्वा चतुर्मासर्व ती सद्वतसंयुतः ॥ स्ववीयं प्रकटीकृत्य तपः कुर्याद् द्विषड्विधम् । सदोपवासभेदादिसम्भवं कर्मघातकम् ॥ ___ x x बहूपवास मौनं च स्थानं वीरासनादिकम् । सदोषाहारिणां सर्व व्ययं स्यादविषदुग्धवत् ॥ महिसास्यं व्रतं मूलं बतानां मुक्तिसाधकम् ।। . नश्येत् षड्जीवधातेन सदोषाहारग्राहिणाम् ।। -पं. होरालाम सिद्धान्तशास्त्री, श्रावकाचार संग्रह, प्रश्नोत्तर श्रावकाचार; २४।२२-७६ ३. (क) श्री इन्द्र प्रभाकर जन, वीरोदय (मासिक प्रपत्र), पृ० स. १ (ख) पं. पम्पालाल जैन, बाहुबलीसन्देश (मासिक) प... ३४ । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य-एक अध्ययन झुल्मक बनने के बाद भूरामलशास्त्री जी ऐलक' अवस्था में भी कुछ समय रहे । ब्रह्मचारी से ऐलक बनने तक पं० भूरामल शास्त्री १०८ श्री वीरसागर जी महाराज के संघ में रहते हुए ही त्यागी पुरुषों को धार्मिक और शास्त्रीय प्रत्य पाते थे। ब्रह्मचारी मूरामल से मुनि श्रीमानसागर विक्रम संवत् २०१६ (सन् १९५६ ई.) में श्री भूरामल जी ने जयपुर में प्राचार्य श्री शिवसागर जी महाराज से दिगम्बर मुनि-दीक्षा ग्रहण की; पोर समस्त बाह्य परिग्रह का परित्याग कर दिया। इस अवसर पर उनका नाम ज्ञानसागर रखा गया। साथ ही उनको संघ का उपाध्याय भी बना दिया गया । अपने इस उपाध्याय पद का सदुपयोग उन्होंने साधु-पुरुष एवं स्त्रियों को पढ़ाने में किया। १. 'ग्यारहवीं प्रतिमा धारण करने वाले जो श्रावक केवल लंगोटी ही पारण करते हैं, अन्य वस्त्र नहीं, उनको ऐलक कहा जाता है।' -पं० प्रमतलाल जैन शास्त्री, साहित्यदर्शनाचार्य, जैन-विभागाध्यक्ष, सम्पूर्णानन्द संस्कृत-विश्वविद्यालय, वाराणसी द्वारा प्रेषित १० फरवरी सन् १९७७ ई० के पत्र में से। (क) श्री इन्द्रप्रभाकर जैन, वीरोदय (मासिक प्रपत्र), पृ. सं० १ (स) गॅ० ५० लालबहादुर शास्त्री जैन गजट (साप्ताहिक), पृ० सं० १ () 'गृह तज सूरि वीरसिंधु संघ, साधुवर्ग अध्ययन करा।। झुल्मक ऐलक क्रम से बनकर, मुनि बनने का भाव भरा ॥५॥ -प्रभुदयाल जैन, बाहुबलीसन्देश, पृ० सं० १५ ३. 'यो हताशः प्रशान्ताशस्तमावाम्बरमूचिरे। यः सर्व-सङ्ग-सन्त्यक्तः स नग्नः परिकीर्तितः ॥ रेषणात्लेशराशीनामुषिमाहुर्मनीषिणः। मान्यत्वादात्मविद्यानां महविः कीर्यते मुनिः ॥ -40 हीरालाल सिसान्त शास्त्री, जैन धर्मामृत, ५५३७-३८ ४. (क) श्री इन्द्रप्रभाकर जैन, वीरोदय (मासिक प्रपत्र), पृ०.सं. १ (ब) "पूरण परिग्रह त्यागने की, भावना परगट भई । प्राचार्य शिवसागर मुनि, डिंग बाय मुनि दीक्षा मई।" -श्रीलाल जैन वैच, मुनिपूजन, पृ० सं०७ (१) पं० हीरालाल सिदान्तशास्त्री, बाहुबलीसन्देश, पृ० सं० १४ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर का जीवन वृत्तान्त ११. विक्रम संवत् २०१८ (सन् १६६१ ई० ) में वय अधिक होने के कारण शारीरिक दुर्बलता से पीड़ित होने के बावजूद भी संघ से निकल कर राजस्थान के नागरिकों में जैन धर्म का प्रचार करने लगे । १. मुनि दीक्षा लेने के बाद मुनि श्रीज्ञानसागर अनेक स्थानों पर गये । वहाँ उनके प्रवचनों से प्रभावित होकर अनेक श्रद्धालु त्याग की भावना से उनके पास धाया करते थे । वि० संवत् २०२१ (सन् १९६४ ई० ) में मुनिश्री ने मेढा ग्राम में दिल्लीवासी श्री फिरोजीलाल जी को श्रावकोत्तम क्षुल्लक दीक्षा प्रदान की । २ मुनि श्री ज्ञानसागर जी ने जैन-धर्म के प्रचार-प्रसार हेतु अनेक स्थलों पर चातुर्मास भी किये। वि० संवत् २०२१ । (सन् १९६४ ई०) में ही उन्होंने फुलेरा ( राजस्थान ) में चातुर्मास हेतु प्रस्थान किया । 3 विक्रम संवत् २०२२ (सन् १९६५ ई०) मुनि श्री ज्ञानसागर के जीवन का महत्त्वपूर्ण वर्ष है । इस वर्ष प्रापने अजमेर नगर में चातुर्मास किया। इसी नगर में फतेहपुर निवासी श्री सुखदेव जी गोधा भोर जयपुर निवासी श्री मूलचन्द जी बोहरा को उन्होंने श्रावकोत्तम क्षुल्लक दीक्षा प्रदान की । * तत्पश्चात् विहार करते हुए वह व्यावर गये । वहाँ की जनता मुनिश्रीज्ञानसागर के भाने से प्रसन्न हो गई। उन्होंने बहाँ तीन मास व्यतीत किये। पं० हीरालाल सिद्धान्तशास्त्री जी की मुनि श्री ज्ञानसागर से यहां भी भेंट हुई । सिद्धान्तशास्त्री जी ने उनके ग्रन्थों के प्रकाशनादि के विषय में उनसे चर्चा की। किन्तु मुनिश्री ने इस विषय में कोई प्रादेश नहीं दिया, क्योंकि इस कार्य में धन की प्रावश्यकता थी । प्रतः श्री सिद्धान्तशास्त्री कुछ निराश हुए। उन्होंने अपनी यही इच्छा प्रपने सहयोगियों के समक्ष प्रकट की, तो सभी के सहयोग के परिणाम स्वरूप 'मुनि श्री ज्ञानसागर ग्रन्थमाला' की स्थापना हुई; धौर मुनि श्री द्वारा रचित दयोदय, वीरोदय इत्यादि (च) "संवत् दो हजार सोलह में, जयपुर नगर लानियों मांय । शिवाचार्य से दीक्षा लेकर, ज्ञानसिंधु मुनिराज कहाय || ६ || " - प्रभुदयाल जैन, बाहुबलीसन्देश, पृ० सं० १५ (ङ) मुनिसंघव्यवस्था समिति, नसीराबाद (राज0), श्री ज्ञानसागर जी महाराज का संक्षिप्त जीवन परिचय, पृ० सं० ४ १. श्री इन्द्र प्रभाकर जैन, 'वीरोदय, (मासिक प्रपत्र ) - पृ० सं० १ २. बही ३. श्रीमालीन वेद्य, मुनिपूजन में से । ४. पं० हीरालाल सिद्धान्तशास्त्री, बाहुबलीसन्देश पृ० सं० १३ ५. श्री इन्द्रप्रभाकर जैन, बोरोदम (मासिक प्रपत्र ), पृ० सं० १ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकषि मानसागर के काव्य-एक अध्ययन काम्यग्रन्थों का प्रकाशन हुमा।' अजमेर चातुर्मास के अवसर पर ही मुनि श्री ज्ञानसागर ने स्वरचित महाकाव्य 'जयोदय' की संस्कृत एवं हिन्दी टोका भी मिली, जिसका प्रकाशन प्रभी वाराणसी में हो रहा है । महाकवि मानसागर के प्रमुख शिष्य : श्रीमानसागर के प्रमुख शिष्यों की संख्या ६ है; और उनके नाम क्रमशः इस प्रकार हैं :-मुनिश्री विद्यासागर, क्षुल्लक स्वरूपानन्द, प्र. लक्ष्मीनारायण माल, मुनि श्री १०८ श्री विवेकसागर, ब० जमनलाल जी, मुनि श्री १०८ श्री विजयसागर जी, ऐलक पी १.५ श्री सम्मतिसागर जी, क्षुल्लक सुखसागर जी एवं श्री १०५ क्षुल्लक संभव-सागर जी । इनमें से प्रथम पांच शिष्यों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है :१. मुनि श्री विद्यासागर विक्रम संवत् २०२४ (सन् १०६७ ई.) के पूर्व ही किशनगंज (मदनगंज) चातुर्मास के अवसर पर ब्रह्मचारी जी पण्डित विद्याकुमार जी सेठी (अजमेर) ने मुनि श्री ज्ञानसागर जी से मैसूर प्रांत के बेलगांव जिले में सदलगा नामक ग्राम में उत्पन्न ब्रह्मचारी विद्याधर का परिचय कराया। विक्रम संवत् २०२४ (सन् १९६७ ई०) में ब्रह्मचारी विद्याधर मुनि श्री ज्ञानसागर के पास ही रहे । हिन्दी एवं संस्कृत भाषामों से अनभिज्ञ विद्याधर ने पं० महेन्द्र कुमार जी पाटणो, काव्यतीर्थ, किशनमढ़ (मदनगंज) और मुनि श्री ज्ञानसागर जी महाराज से इन दोनों शाखामों का ज्ञान प्राप्त किया। मुनि श्री मानसागर जी के सान्निध्य में रह कर विद्याधर के हृदय में वैराग्य की भावना भी प्रबलतर होती गई । वि० संवत् २०२५ (सन् १९६७ ई.) में अजमेर नगर में मुनि श्री ज्ञानसागर ने ब्र० विद्याधर को इच्छा के अनुरूप उन्हें निग्रंन्ध मुनि-दीक्षा दे दी। इस समय से उनको 'विद्यासागर'- इस नाम से जाना जाने लगा। इस समय विद्याधर जी की पायु केवल २२ वर्ष थी। २. ब्रह्मचारी लक्ष्मीनारायण जी सन् १९६८ ई. के मक्तूबर मास में ब्रह्मचारी लक्ष्मीनारायण जी को मुनि १. पं. होरालाल सिदान्तशास्त्री, बाहुबलोसन्देश, पृ० सं० १३ २. ७.५० विद्याकुमार जी सेठी, वही, पृ० सं० ३५ ३. (क) श्री इन्द्र प्रभाकर जैन, जैनसिद्धान्त, १० सं० १०-११ (ख) मुनिसंघव्यवस्थासमिति, नसीराबाद (राज.), श्री शानसागर जी महाराज का संक्षिप्त जीवन परिचय', पु. सं. ३ ४. पंचम्पालाल जी, जैन सिद्धान्त, पृ. सं० १०-११ ५. में पं० लामबहादुर शास्त्री, जन गजट, १० सं० १ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकविज्ञानसागर का जीवन वृत्तान्त श्री ज्ञानसागर के सान्निध्य की प्राप्ति हुई।' सात फरवरी सन् १९६६ ई० को नसीराबाद में इन्होंने मुनि श्री ज्ञानसागर जी से मुनि-दीक्षा ग्रहण की। ३. बी १०८ श्री विवेकसागर जी इन्होंने नसीराबाद में ७ फरवरी सन् १९६६ ई० को मुनि श्री ज्ञानसागर जी से मुनि-दीक्षा ग्रहण की। ४. क्षुल्लक श्री स्वरूपानन्द जी मुनि श्री विद्यासागर जी के दीक्षा ग्रहण के अवसर पर दीपचन्द नामक युवक मुनि श्री ज्ञानसागर जी से बहुत प्रभावित हुआ। भक्तिवश उसने मुनि श्री के पर दबाये । सन् १९६६ ई० में ही इस युवक ने व्यावर जाकर मुनि श्री से दीक्षा को याचना की। तत्पश्चात् बी० काम. प्रथम वर्ष की परीक्षा और २२-५ सन् १९६६ ई. को मुनि श्री ज्ञानसागर जी से प्राजीवन ब्रह्मचर्य व्रत स्वीकार कर लिया। २० अक्तूबर सन् १९७२ ई० को मुनि ज्ञानसागर जी ने ब्रह्मचारी दीपचन्द. को क्षुल्लक दीक्षा देकर क्षुल्लक स्वरूपानन्द नाम दिया। ५. ब्रह्मबारी जमनालाल जो इन्होंने दिनांक १४ जुलाई सन् १९७० ई० (वि० संवत् २०२६) को मुनि १. (क) श्री इन्द्रप्रभाकर जैन, वीरोदय (मासिक प्रपत्र), १० सं० २ (ख) 'ज्ञान' 'विद्या' से फिर इनका संगम हुप्रा । -प्रभुदयाल जैन, वीरोदय (मासिक प्रपत्र), प० सं० ३ २. (क) वही। (ख) 'ज्ञानसिंधु' हुए आज दीक्षा गुरु, प्रभु जीवन नया होगा इनका शुरु।। (ग) 'गुरु' 'ज्ञान' सुं दीक्षा लेकर बरण जासी धर्म दिवाकर, चारित्र सजा सिणंगार, मजी शिवमार्ग बणायों जी ।। __ -मोतीलाल पंवार, वीरोदय (मासिक प्रपत्र), प० सं० ३ . ३. श्री स्वरूपानन्द जी, बाहुबलीसन्देश, पृ० सं०.३ ४. वही। पृ० सं० ४ (ब) दिगम्बर जैन समाज व्यावर, स्मारिका, प० सं० १४ ६. (क) वही, प० सं० ८६ (ख) वही, पु० सं० १४ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ tr श्री ज्ञानसागर जी से क्षुल्लक दीक्षा ग्रहण की । " मुनि श्री १०८ श्री विजयसागर जी, ऐलक श्री १०५ श्री सन्मति सागर जी, श्री १०५ क्षुल्लक, संभवसागर जो धीर क्षुल्लक सुखसागर जी ने कब-कब दीक्षा ग्रहण की ? यह बताना कठिन है । केवल प्रमुख शिष्यों में इनकी गणना ही उल्लिखित हुई है । मुनि श्री ज्ञानसागर को प्राचार्य पद की प्राप्ति श्री विवेकसागर के दीक्षा ग्रहण के अवसर पर जैन समाज ने ७ फरवरी सन् १९६९ ई० में मुनि श्री ज्ञानसागर जी को प्राचार्य पद से सुशोभित किया। सन् १९७० ई० में प्राचार्य मुनि श्री ज्ञानसागर जी महाराज का चातुर्मास रेनवाल (किशनगढ़) में सम्पन्न हुभ्रा । ४ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य- एक अध्ययन इस प्रकार प्रात्मकल्याण की भोर उन्मुख दूसरों को भी इसी मार्ग की प्रेरणा देने वाले महाकवि प्राचार्य ज्ञानसागर की अवस्था लगभग ८० वर्ष हो गई । इस अवस्था में भी गौरवणं भोर तपस्या के फलस्वरूप तेजस्वी व्यक्तित्व वाले प्राचार्य ज्ञानसागर जी के अध्ययन-अध्यापन में पूर्ण विराम नहीं लगा। संघ में रहने वाले व्यक्तियों को निरन्तर पढ़ाने, साहित्य रचना करने प्रादि में ही उनका १. 'दो हजार छब्बीस साल में, धर्मवृद्धि को भारी । 'ज्ञानसिंधु' प्राचार्य शरण में, सप्तम प्रतिमा धारी ॥ साढ़ सुदी दशमी को, प्रजमेर में हुए निहाल हैं । क्षुल्लक दीक्षा लेते देखोजी 'जमनालाल' हैं ।' प्रभुदयाल जैन, जैन सिद्धान्त, पृ० सं० ५ २. (क) मुनिसंघव्यवस्थासमिति, नसीराबाद ( राज०), श्री ज्ञानसागर जी महाराज का संक्षिप्त जीवन परिचय, पृ० सं० ३ (ख) 'परम शिष्य मुनि 'विद्यासागर', ऐलक 'सन्मति', मुनि 'विवेक' । क्षुल्लक 'संभव' 'विजय' प्ररु 'सुख' पे हैं 'स्वरूप' लाखों में एक ॥' - प्रभुदयाल जैन बाहुबलीसन्देश, पृ० सं० १५ ३. (क) मुनिसंघव्यवस्थासमिति, नसीराबाद (राज०), श्री ज्ञानसावर जो का संक्षिप्त जीवन परिचय, पृ० सं० ४ (ख) 'जैन समाज संघ एकत्रित पद प्राचार्य नसीराबाद । ४. दो हजार पच्चीस की संवत्, दिया हवं से कर जब गाद ॥' - प्रभुदयाल जैन, बाहुबलीसन्देश, पृ० सं० १५ पं० चम्पालाल जैन, बाहुबलीसन्देश, पु० सं० ३४ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि मानसागर का बोवन वृत्तान्त समय व्यतीत होता था। वह दिन में एक ही बार माहार एवं जल ग्रहण करते थे। पाहार के नाम पर थोड़ा अन्न एवं भामरंस या दूध ही लेते थे। इस समय वह सस्वशक्ति से पूर्णतया सम्पन्न थे। उनके अध्ययन-अध्यापन का कार्यक्रम प्राण के अध्यापक एवं प्रध्येतामों के लिए पाश्चर्य की वस्तु होगी। प्राचार्य ज्ञानसागर जी का संघ में पढ़ने का कार्यक्रम इस प्रकार रहा करता था: (क) प्रात: ५-३० ले ६-३० तक अध्यात्मतरंगिणी भोर समयसारकलश। (ख) प्रातः ७ से ८ तक प्रमेयरत्नमाला। (ग) प्रात: ८ से १ तक समयसार । (घ) १०-३० से ११.३० तक प्रष्टसाहस्री । (1) मध्याह्न १ से २ तक कातन्त्ररूपमाला व्याकरण । (च) मध्याह्न ३ से ४ तक पंचास्तिकाय । (घ) सायं ४ से ५ तक पंचतन्त्र । (ज) सायं ५ से ६ तक जैनेन्द्र व्याकरण ।' महाकवि ज्ञानसागर के सान्निध्य में रहने वाले व्यक्तियों के कपनानुसार उनका हस्तलेख सुन्दर एवं सुस्पष्ट था। उन्होंने कभी भी ख्याति की कामना नहीं की । इसी कारण अपने साहित्य एवं दर्शन के ग्रन्थ-समूह का प्रकाशन कराने के प्रति वह उदासीन हो रहे । इनके प्रभावशाली व्यक्तित्व एवं वक्तृत्व शंली ने अनेक व्यक्तियों को प्रभावित किया। श्री प्रभयलाल जैन, श्री पन्नालाल साहित्याचार्य, श्री स्वरूपचन्द्र कासलीवाल', श्री छगनलाल पाटणी, वैद्य बटेश्वर दयाल बकरिया इत्यादि व्यक्तियों ने जब-जब महाकवि, प्राचार्य मुनि श्री के दर्शन किये, तब-तब उनसे कुछ-न-कुछ मान प्राप्त किया। १.। (क) श्री पं. चम्पालाल जैन, जैन-सिद्धान्त, पु. सं. ३ (ब) डॉ. विद्यापर जोहरापुरकर एवं गं. कस्तूरचन्द कासलीवान, वीरशासन के प्रभावक भाचार्य, पृ० सं० २७. २. स्वरूपानन्द जी, बाहुबलीसन्देश, पृ० सं०५ ४. पं.चम्पालाल जैन, बाहुबलीसंदेश में से । ५. वही, पृष्ठ सं० १७ ६. वही, पृष्ठ सं० २१ पृष्ठ सं० २६.३१ पृष्ठ सं०१४ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के काम्य-एक अध्ययन सन् १९७२ ई० में मुनि श्री का चातुर्मास नसीराबाद में हुमा ।' प्राचार्य मुनि श्री को चारित्र-चक्रवर्ती-पद की प्राप्ति - स्वरूपानन्द जी की दीक्षा के अवसर पर सन् १९७२ ई० में ही महाकवि ज्ञानसागर को जैन समाज ने चारित्र-चक्रवर्ती का पद प्रदान किया। प्राचार्य मुनि श्री ज्ञानसागर का त्याग महाकवि ज्ञानसागर जी महाराज का शरीर क्षीणता को प्राप्त हो रहा था। अब उनके समक्ष अपना उत्तराधिकारी चुनने की समस्या थी। अपने शिष्यों में उन्हें मुनि श्री १०८ विद्यासागर जी ही सर्वश्रेष्ठ लगे। फलस्वरूप उन्होंने दिनांक २२ नवम्बर, सन् १९७२ ई० (मार्गशीर्ष कृष्णा द्वितीया वि० सं० २०२०) को अपना पद अपने शिष्य मुनि श्री १०८ विद्यासागर जी को सौंप दिया। प्राचार्य पद का उत्तरदायित्व छोड़कर ज्ञानसागर जी पूर्णरूपेण वैराग्य, तपश्चरण एवं सल्लेखना में सन्नद हो गये। इस समय उन्होंने जल पोर रस पर ही शरीर धारण करना शुरू कर दिया पोर खाद्य-सामग्री का सदा के लिए परित्याग कर दिया। सल्लेखना एवं समाधिमरण इसी बीच मदनगंज (किशनगढ़) निवासी श्री १०८ मुनि पार्श्व सागर जी महाराज अपनी सल्लेखना में ज्ञानसागर की का सान्निध्य पाने की कामना से १. पं० चम्पालाल जैन, बाहुवलीसन्देश, पृ० सं० ४० २. मुनिसंघ व्यवस्थासमिति, नसीराबाद (राज.), श्रीज्ञानसागर जी महाराज का संक्षिप्त जीवन परिचय, प० सं० ४ ३. (क) वही। (ख) दिगम्बर जैन समाज, ब्यावर, स्मारिका, प.० सं० १३ (ग) पं० चम्पालाल जैन, बाहुबली में से । (घ) 'नश्वर देह क्षीणता लखकर, कर दीना फिर पद परित्याग । 'मुनि विद्या प्राचार्य बनाकर, व्रत सल्लेखन पथ पग लागू ॥ -प्रभुदयाल जैन, बाहुबलीसन्देश, पृ० सं० १५ वही। ५. (क) पं. चम्पालाल जैन, बाहुबली सन्देश में से । (ख) मुनिसंघव्यवस्थासमिति, नसीराबाद, (गज०), श्री ज्ञानसागर जी महाराज का संक्षिप्त जीवन परिचय, पृ० सं०४ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर का जीवन-वृत्तान्त नसीराबाद माकर रहने लगे। मुनि श्रीपाश्वसागर जी एक दिन छोड़कर प्राहार ग्रहण करते थे। इसी बीच १५ मई सन् १९७३ ई० को श्रीपाश्वंसागर जी व्याधि से पीड़ित हो गये। तब प्राचार्य ज्ञानसागर ने श्रीपाश्वसागर जी को सल्लेखमा धारण कराई । फलस्वरूप प्राचार्य ज्ञानसागर के पूर्व ही १६ मई सन् १९७३ ई. को प्रातः ७ बजकर ४० मिनट पर पार्श्वसागर जी का समाधिमरण हो गया।' इस प्रकार धीरे-धीरे ज्ञानसागर जी महाराज में शान्ति, निराकुलता, सहिष्णुता एवं धीरता के लक्षण दृष्टिगोचर होने लगे । २८ मई सन् १९७३ ई. को उन्होंने सभी प्रकार के माहार-पानादि का परित्याग कर दिया। समाधि की अवस्था में मुनि श्री के प्रिय शिष्य प्राचार्य विद्यासागर बी एवं क्षुल्लक स्वरूपानन्द जी निरन्तर उनके समीप रहे एवं उनकी समाधिमरण की वेला में उनके सेवक बने । अन्त में ज्येष्ठ कृष्ण १५ विक्रम संवत् २०२३ शुक्रवार, तदनुसार दिनांक ७ जून सन् १९७३ ई. को दिन में १० बजकर • मिनट पर नसीराबाद नगर में समाधिमरण द्वारा हमारे मालोच्य महाकवि ज्ञानसागर जी महाराज ने अपने पापिव शरीर को त्याग दिया। वास्तव में त्याग-तपस्या, उदारता, साहित्यसर्जना मादि गुणों की सालात मूर्ति महाकवि प्राचार्य मुनि श्रीज्ञानसागर जी महाराज एवं उनके कार्य स्तुत्य, अनुकरणीय एवं स्वर्णाक्षरों में लेखनीय है । १. मुनिसंघव्यवस्था समिति, नसीराबाद, (राज.), श्रीज्ञानसागर जी महाराज का संक्षिप्त जीवनपरिचय, पृ० सं० ४ २. (क) मुनिसंघ व्यवस्थासमिति नसीराबाद (राज.), श्रीज्ञानसागर जी महाराज का संक्षिप्त जीवन परिचय, पृ० सं०४ (ब) दिगम्बर जैन समाज, ब्यावर, स्मारिका, पृ० सं १३ (ग) पं० चम्पालाल जैन, बाहुबलीसन्देश में से। - (प) ताराचन्द गंगवाल, बाहुबलीसन्देश में से, पृ० सं० २७ ३. (क) पं० पम्पालाल जैन, बाहुबलीसन्देश में से। (ब) 'दो हजार पर तीस की संवद, मृत्यु को करके माह्वान । कुम्ण ज्येष्ठ प्रमावस के दिन, स्वर्गलोक को किया प्रयाण ॥' --प्रभुदयाल जैन, बाहुबलीसन्देश पृ० सं०१६ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-काव्यग्रन्थों के संक्षिप्त कथासार जयोदय महाकाव्य का संक्षिप्त कथासार प्रथम सर्ग प्राचीनकाल में हस्तिनापुर में जयकुमार नामक एक राजा राज्य करता था। वह कोतिमान्, श्रीमान, विद्वान, बुद्धिमान, सौन्दर्यवान् भाग्यवान् एवं अत्यन्त प्रतापवान् राजा था। एक दिन उसके नगर के उद्यान में किसी तपस्वी का प्रागमन हुमा । उनके आगमन का समाचार सुनकर राजा जयकुमार भी उनके दर्शन के लिए गया। मुनि के दर्शन पाकर वह अत्यधिक हर्षित हुप्रा । उसने उनकी स्तुति को और नम्रतापूर्वक कर्तव्यपथप्रदर्शन हेतु निवेदन किया। द्वितीय सर्ग ___ मुनि ने जयकुमार को गृहस्थ-धर्म के साथ-साथ राजा के कर्तव्यों का भी उपदेश दिया। मुनि के वचनों को सुनकर जयकुमार का शरीर रोमाजिरत और अन्तःकरणा निर्मल हो गया। उसने भक्तिपूर्वक शिर झुकाकर मुनि को प्रणाम किया और उनकी प्राज्ञा से बाहर आया। जयकुमार के साथ एक सपिणी ने भी मुनि से धर्मोपदेश सुना था । जब जयकुमार बाहर नाया तो उसने देखा कि वह सर्पिणी किसी अन्य सर्प के साथ रमण कर रही थी । यह देखकर अपने हाथ के कमल से जयकुमार ने उस सपिणी को पीटा । जय कुमार को चेष्टा देखक र अन्य लोगों ने सपिणी को प्रहारों से मार डाला । तत्पश्चात् देवी के रूप में उत्पन्न होकर उस सर्पिणी ने जाकर अपने पति नागकुमार से जयकुमार के विरुद्ध वचन कहे। उस मूर्ख सर्प ने अपनी स्त्री के कथन का विश्वास कर लिया और जयकु मार को मारने की इच्छा से चल पड़ा । हस्तिनापुर में जयकुमार के यहां जाकर जब उसने देखा कि जयकुमार अपनी स्त्रियों को सारी घटना सुनाते हुये स्त्रियों के कौटिल्य की निन्दा कर रहा है, तब घटना की वास्तविकता का ज्ञान होने पर उसने अपनी स्त्री की निन्दा की। उसने जयकुमार के सामने प्राकर सारा वृत्तान्त सत्य-सत्य कहा और जयकुमार के प्रति मन में भक्ति को धारण करके उसको आज्ञा पाकर वहाँ से चला गया । Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-काव्य-ग्रन्थों के संक्षिप्त कथासार १६ नृतीय सर्ग एक दिन जयकुमार राजसभा में बना हुअा था। वहां काशीनरेश का दूत प्राया । जयकुमार को प्राज्ञा से उसने काशीनरेश का संदेश कहा कि श्रेष्ठ मनुष्यों बाली काशीनगरी के राजा की प्राजा से मैं आपकी सेवा में प्राया हूँ। उनकी एक पुत्री है- सुलोचना, जो उनकी सुप्रभा नाम की रानी से उत्पन्न हुई है । सुलोचना प्रद्भुत रूप और गुणों की स्वामिनी है। उसका विवाह वह मंत्रियों की सलाह से स्वयंवरविधि से करना चाहते हैं । काशीनगरी के ही एक स्थल पर देव द्वारा (पूर्वजन्म में काशीनरेश का भाई) श्रीसर्वतोभद्रक नाम का श्रेष्ठ सभामण्डप बनाया गया है । उस नगरी को विभिन्न प्रकार से सजाया भी गया है। अतः सुलोचनास्वयंवर के उपलक्ष्य में पाप भी काशी यात्रा करें। काशीनरेश का संदेश कह कर दूत चुप हो गया। वहीं का वृत्तान्त सुनकर जयकुमार का मन प्रसन्न भोर शरीर पुलकित हो गया। उन्होंने अपने वक्षःस्थल का हार उपहार रूप में दूत को दे दिया । , तत्पश्चात् अपनी सेना सजाकर जयकमार काशीनगरी की ओर चल पड़ा। जब वह काशीनगरी पहुंचा, तब काशीनरेश ने उसका स्वागत किया। चतुर्थ सर्ग काशीनरेश के यहाँ सुलोचना-स्वयंवर-समारोह होगा; यह समाचार अयोध्या नरेश भरत के पास पहुँचा । भरत ने यह समाचार अपने पुत्र अर्ककीर्ति को सुनाया। प्रकीति ने स्वयंवर-समारोह में जाने की इच्छा प्रकट की और पिता से अनुमति मांगी। उनके सुमति नाम के मंत्री ने कहा कि वहाँ बिना बुलाये नहीं जाना चाहिये । किन्तु दुर्मति नाम के मंत्री ने जाने के सम्बन्ध में प्रपनी सहमति प्रकट की। इतने में ही काशीनरेश ने वहां पहँचकर समारोह में उपस्थित होने का निमन्त्रण दिया। अपने सभासदों से विचार-विमर्श के पश्चात् अर्ककीति भी स्वयंवरसमारोह में भाग लेने की इच्छा से काशी पहुंचा। पंचम सर्ग स्वयंवर-समारोह में अनेक देशों से कुलीन राजकुमार कन्या का वरण करने की इच्छा से पहुँचे । काशीनरेश ने उन सबका स्वागत किया। जैसे ही जयकुमार सभा-मण्डर में पहुँचा, अन्य सभी उपस्थित जनों का मन उसे देखकर प्रतिद्वन्द्विता से परिपूर्ण हो गया। राजा के यहां उपस्थित देव (जो पहले काशीनरेश का भाई था) ने सुलोचना को सभामण्डप में चलने का आदेश दिया। महेन्द्रदत्त कंचुकी द्वारा निर्दिष्ट मार्ग से सुलोचना प्रपनी सखियों के साथ जिनेन्द्रदेव का पूजन करने के लिए गई; तत्पश्चात् सभामण्डप में पहुंची। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के काग्य -एक अध्ययन षष्ठ-सगं ___ जब सुलोचना सभाभवन में पहुँचो, तो राजामों के हृदय अन्तर्द्वन्द्व से परिपूर्ण हो गये । सुनोचना विद्या नाम की परिचारिका के साथ कंचुकी के द्वारा बताये गये मार्ग पर चलने लगी। इसके बाद विद्यादेवी ने सुलोचना को आकाशचारी विद्याधगें पोर भूमिचारी राजामों को दिखाया। सर्वप्रथम विद्यादेवी ने सुनमि और विनमि- इन दो राजानों का परिचय दिया। विद्याधर राजामों में सुलोचना की रुचि न देख कर विद्यादेवी ने पृथ्वी के राजामों का परिचय दिया। उसने क्रमशः भरत के पुत्र प्रकंकीति तथा कलिंग, कांची, काबुल, अंग, वंग, सिन्धु, काश्मीर, कर्णाटक, मालव, कैरव प्रादि देशों से पाये हुये राजामों के गुणों का विस्तार से वर्णन किया। सुलोचना जयकुमार के पास पहुंची। विद्यादेवी ने सुलोचना का मन जयकुमार के अनुकूल पाया तो उसने विस्तारपूर्वक उसके गुणों का वर्णन करना प्रारम्भ कर दिया। विद्यादेवी से प्रेरित होकर युद्ध में मेघ को जीतने के कारण मेघेश्वर की उपाधि पाने वाले सम्राट् भारत के सेनापति और सोमदेव के पुत्र जयकुमार पर अनुरक्त सुलोचना ने उसके गले में जयमाल डाल दो। उसी समय हर्पसूचक नगाड़े जोर-जोर से बजने लगे । जयकुमार का मुख कान्तियुक्त हो गया; पर अन्य राजाओं के मुख मण्डल म्लान हो गये । सप्तम सर्ग प्रकीति के सेवक दुर्मर्षण को यह स्वयंवर-समारोह अच्छा नहीं लगा। जयकुमार के वरण को उसने काशीनरेश की पूर्वनियोजित योजना समझा। उसने प्रर्ककोति से कहा कि चक्रवर्ती के पुत्र को छोड़ कर सुलोचना ने सोमदेव के पुत्र जयकुमार का वरण किया है। जयकुमार जैसे तो आपके कितने ही सेवक होंगे । फिर कुल की उपेक्षा भी ठीक नहीं । दुर्मर्षण के वचनों से उत्तेजित अर्ककोनि काशीनरेश पोर जयकुमार दोनों को ही मारने के लिए तैयार हो गया। उसने युद्ध के माध्यम से जयकुमार को नीचा दिखाने की ठान ली। परन्तु अनवद्यमति नाम के मंत्री ने समझाया कि काशीनरेश (मकम्पन) और जयकुमार हमारे अधीनस्थ राजा हैं; जयकुमार की सहायता से ही सम्राट भरत ने दिग्विजय करके चक्रवर्ती सम्राट् पद की प्राप्ति की है, इसलिए वह तुम्हारे पिता का स्नेहभाजन है । इतना ही नहीं, वरन् महाराज प्रकम्पन तो पापके पिता के भी पूज्य हैं। उनसे युद्ध करना गुरुद्रोह होगा। किन्तु प्रकीति पर अनवद्यमति के वचनों का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। प्रकीर्ति के क्रोध का समाचार महाराज प्रकम्पन के पास भी पहुंचा। मंत्रियों से सलाह करके उन्होंने एक दूत मककीर्ति के पास भेजा। किन्तु दूत के वचन सुन कर भी प्रकीर्ति युद्ध से विरत नहीं हुमा । दूत ने जब महाराज प्रकम्पन को मर्ककीर्ति का समाचार दिया, तब प्रकम्पन अत्यधिक चिन्तित हुए । महाराज Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-काव्य-प्रन्यों के संक्षिप्त कथासार २१ प्रकम्पन को चिन्तित देखकर जयकुमार ने उन्हें धीरज बंधाया और सुलोचना की रक्षा करने के लिए कहा । तत्पश्चात् जयकुमार प्रकीति से युद्ध करने के लिए सन्नद्ध हो गये । यह देखकर अकम्पन भो अपने हेमाङ्गद इत्यादि पुत्रों सहित युद्ध के लिए चल पड़े । श्रीधर, सकेतु, देवकीर्ति इत्यादि राजाओं ने भी जयकुमार का अनुसरण किया । जयकुमार की सेना सुसज्जित होकर प्रकीति का विरोध करने के लिए चल पड़ो। अर्क कीर्ति भी अपनी सेना को युद्धक्षेत्र में ले प्राया। प्रककीति ने चक्रब्यूह की और जयकुमार ने मकरव्यूह की रचना की। अष्टम सर्ग दोनों सेनाएँ परस्पर एक दूसरे को युद्ध के लिए ललकारने लगीं । सेनापति की प्राज्ञा सुनकर युट का नगाड़ा बजा दिया गया, जिसकी ध्वनि से प्रौर सेना द्वारा उठाई गई धूलि से दिशाएँ व्याप्त हो गई। गजारोही, रथारोही और प्रश्वारोही परस्पर युद्ध करने लगे । जयकुमार तथा उसके अन्य भाइयों ने एवं हेमाङ्गद मादि काशीनरेश के पुत्रों ने प्रतिपक्षियों का डटकर सामना किया। इसी बीच रतिप्रभदेव ने पाकर जयकुमार को नागपाश मौर अर्द्धचन्द्र नाम का बाण दिया । जयकुमार ने इन दोनों वस्तुओं से प्रकीर्ति को बांध दिया। इस प्रकार जयकुमार की विजय हुई। युद्ध से लौट कर काशीनरेश प्रकम्पन ने सुलोचना को जयकुमार के विजयी होने की सूचना दी और व्रत को पारणा करने का वात्सल्यपूर्ण प्रादेश दिया । इसके पश्चात् सब लोगों ने जिनेन्द्रदेव की पूजा की। नवम सर्ग जयकुमार के विजयी हो जाने पर भी राजा अकम्पन को चिन्ता हुई। उन्होंने विचार किया कि अपनी दूसरी पुत्री प्रक्षमाला का विवाह प्रकीति से कर दिया जाय । उन्होंने बांधे गये प्रकीति को कोई दण्ड नहीं दिया। उन्होंने विनम्रतापूर्वक उसे समझाया; और प्रक्षमाला को स्वीकार करने के लिए कहा। उन्होंने यह भी स्पष्ट कर दिया कि जयकुमार अपराजेय है । फिर जयकुमार का कोई अपराध भी नहीं है । जयकुमार ने भी अर्ककोति से प्रीतियुक्त विनम्र वचन कहे । काशीनरेश के प्रयत्न से जयकुमार और अकीर्ति की पुनः सन्धि हो गई। तत्पश्चात् काशीनरेश (मकम्पन) ने सुमुख नामक दूत को भरत के पास भेजा । सुमुख ने काशीनगरी का वृत्तान्त बड़ी नम्रतापूर्वक सम्राट् भरत से कहा; काशीमरेश की मोर से क्षमायाचना की। सम्राट भरत ने राजा प्रकम्पन पोर जयकुमार के प्रति प्रशंसात्मक वचन कहे । सम्राट भरत के वचनों से सन्तुष्ट होकर दूत ने उनकी वन्दना की और काशी माकर उसने अयोध्या में हुई वार्ता को काशीनरेश के सम्मुख प्रस्तुत किया। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य -1 दशम सर्ग तत्पश्चात् काशीनरेश प्रकम्पन के यहाँ पाणिग्रहण की तैयारी होने लगी । जयकुमार को दूत द्वारा बुलाया गया। सारी नगरी को सजाया गया । तरह-तरह के बाजे बजने लगे । सुलोचना ने स्नान करके उज्ज्वल वस्त्रों और मनेक प्राभूषणों को धारण किया और पिता के पास जाकर सिर झुका कर उन्हें प्रणाम किया । जयकमार जब बारात सजाकर नगर मार्ग में निकले तो प्रजाजन उनकी शोभा देखने में लीन हो गये । राजद्वार में पहुंचते ही बन्धुनों द्वारा प्रादरपूर्वक जयकुमार को मण्डप में लाया गया। सुलोचना भी मण्डप में लाई गई । जयकुमार मोर सुलोचना ने एक दूसरे को देखकर हर्ष का अनुभव किया। एकादश सर्ग जयकुमार ने सुलोचना के रूप-सौन्दर्य का अवलोकन किया । वह सुलोचना के रूप से प्रत्यधिक प्रभावित हुप्रा । २२ - एक प्रध्ययन द्वादश सर्ग जिनेन्द्रदेव के पूजन साथ-साथ सुलोचना के विवाह का कार्य होने लगा । जयकुमार और सुलोचना से भी जिनेन्द्रदेव का पूजन कराया गया । पुरोहित के निर्देश से काशीनरेश ने अपनी पुत्री के हाथ का अंगूठा जयकुमार के हाथ में दे दिया । प्रसन्नता के इस अवसर पर उन्होंने धन की वर्षा सी कर दी और दहेज में कोई कभी न रहने दी । यज्ञवेदी की प्रग्नि का धुआं चारों प्रोर फैल गया । तत्पश्चात् वेदी के चारों मोर सप्तपदी की रीति को सम्पन्न किया गया । अनेक उपस्थित प्रजाजनों के सम्मुख गुरुजनों ने वर-वधू को प्राशीर्वाद दिया। महिलाओं ने अनेक सौभाग्य-गीत गाये | दासियों एवं स्त्रियों ने हास-परिहास के साथ बरातियों को भोजन कराया । काशीनरेश ने जयकुमार एवं वरपक्ष के अभ्यागतों का प्रत्यधिक सत्कार किया। त्रयोदश सर्ग विवाह के पश्चात् जयकुमार ने काशीनरेश से अपने नगर जाने की प्राज्ञा माँगी। सुलोचना के माता-पिता ने सुलोचना एवं जयकुमार को मश्रुपूर्ण नेत्रों से विदा किया। दोनों उन्हें छोड़ने समीपस्थ तालाब तक गये । सुलोचना के भाई भी सुलोचना के साथ थे | जयकुमार के सारथि ने मार्ग में स्थित वन मोर गंगानदी के वर्णन से जयकुमार का मनोरञ्जन किया । राजहंसों से सेवित एवं कमलिनियों सुन्दर बनी हुई गंगा नदी में गजराज जल-क्रीड़ा कर रहे थे। जयकुमार ने उसी के तट पर सेना सहित पड़ाव डाल दिया । चतुर्दश सर्ग जयकुमार - सुलोचना एवं उनके अन्य साथियों ने वहाँ पर बहुत समय तक Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-काव्य-ग्रन्यों के संक्षिप्त कथासार २३ बनकोड़ा, जलक्रीड़ा एवं मधुर मालाप इत्यादि से अपना मनोरञ्जन किया। गंगा नदी के जल में स्नान करने के पश्चात् जिस समय उन सबने नवीन वस्त्र धारण किये, उस समय सूर्य प्रस्त होने को था। पंचदश सर्ग सूर्य के प्रस्त होने पर क्रमशः सन्ध्या का प्रागमन हमा। तत्पश्चात् रात्रि का घोर अन्धकार चारों मोर फैल गया; फिर चन्द्रमा का उदय हुा । ऐसे समय में स्त्री-पुरुष परस्पर विहार करने लगे। षोडश सर्ग रात्रि के मध्य में स्त्री-पुरुषों का धैर्य समाप्त हो गया । परस्पर हास-विलास करते हुये उन्होंने मद्यपान शुरु कर दिया। मद्यपान से उनकी चेष्टायें विकत हो गई; नेत्र लाल हो गये। स्त्री-पुरुषों में परस्पर मान, अभिमान पोर प्रेम का व्यवहार होने लगा। सप्तदश सगं सभी युगल एकान्त स्थानों में चले गये। जयकमार-सुलोचना एवं अन्य स्त्री-पुरुषों ने सुरतक्रीड़ाएं की। अर्द्धरात्रि के समय उन सबने निद्रादेवी की गोद में विश्राम लिया। अष्टादश सर्ग शुभ प्रभात हा । नक्षत्र विलीन हो गये । चन्द्रमा प्रस्त हो गया। भुवनभास्कर का उदय हुप्रा । लोग निद्वारहित होकर अपने-अपने काम में लग गये। एकोनविश सर्ग प्रातः काल जयकुमार ने स्नानादि क्रियायें की। तत्पश्चात् वह जिनेन्द्रदेव को पूजा में संलग्न हो गया और उसने बहुत समय तक श्रद्धापूर्वक जिनेन्द्रदेव की स्तुति की। विशतितम सर्ग इसके बाद जयकुमार ने सम्राट भरत से भेंट करने की इच्छा से अयोध्या की ओर प्रस्थान किया। वहां पहुँचकर सभाभवन के सिंहासन में बैठे हुये सम्राट को उसने प्रणाम किया। सम्राट् भरत के वात्सल्यपूर्ण वचनों से प्राश्वस्त होकर जयकुमार ने क्षमा-याचना पूर्वक सुलोचना-स्वयंवर का सारा वृत्तान्त कहा । उसके वचन सुनकर सम्राट ने अपने पुत्र अकंकीति को हो दोषी ठहराया; उन्होंने प्रक्षमाला और अर्ककोति के विवाह का कार्य करने हेतु काशीनरेश भकम्पन के प्रति प्रशंसात्मक बचन कहे । सम्राट् से सत्कत होकर जयकुमार उनसे अनुमति लेकर, हाथी पर सवार होकर अपनी सेना की मोर चल पड़ा । मार्ग में गंगा नदी में एक बड़ी मछली ने जयकुमार का अपहरण करने की इच्छा से उसके हाथी को पकड़ लिया। यह देखकर जयकुमार अत्यधिक व्याकुल हुआ। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य-एक अध्ययन सुमोचना भी जयकुमार की प्रतीक्षा कर रही थी। पति को संकट में फंसा हमा देखकर उसको बचाने की इच्छा से बह जल में उतर गई । जल में उत्तर कर उसने हृदय से प्रार्थना की । उसके शील के तेज से गंगा का जम कम हो गया; और मछली ने जयकुमार को छोड़ दिया। सतीशिरोमणि सुलोचना के सतीत्व से प्रभावित नदी के किनारे पर उपस्थित गंगा नाम की देवी ने सुलोचना की दिव्यवस्त्राभूषणों से पूजा की । यह देख कर जयकुमार प्रत्यधिक विस्मित हुआ। जयकुमार की जिज्ञासा को शान्त करती हुई गंगादेवी ने बताया कि वह उनकी पूर्वजन्म की दासी है । सपिणी के काटने से देवी का जन्म प्राप्त किया है । प्रापसे प्राप्त पदार्थों से ही उसने उनका सत्कार किया है। यह जो मछली थी, पहले सपिणी थी; फिर कालीदेवी हुई । पूर्वजन्म के क्रोध के कारण यह जयकुमार के समक्ष माई थी। जयकुमार ने प्रीतिपूर्ण वचनों से गंगादेवी को विदा किया। सुलोचना ने जयकुमार की पूजा की। एकविंशतितम सर्ग जयकुमार की प्राज्ञा पाकर उसके सैनिकों ने हस्तिनापुर जाने की तैयारी कर ली। जयकुमार ने रथ पर प्रारूढ़ होकर सुलोचना के साथ प्रस्थान किया। मार्गस्थित श्यों के वर्णन से सुलोचना का मनोरञ्जन करते हुए वह एक वन में पहुँचे । भीलों के मुखिया जयकुमार के लिए भेंट में गजमुक्ता, फल, पुष्पादि लाए । भीलों को पुत्रियों के सौन्दर्य को देखकर जयकुमार ने प्रसन्नता का अनुभव किया। सुलोचना गोपों की वस्ती देख कर प्रसन्न हो रही थी। गोप-गोपियों ने दही, दूष एवं मादर से जयकुमार एवं सुलोचना को प्रसन्न किया। जयकुमार ने कुशलवार्ता पूछने के पश्चात् प्रेमपूर्वक उन सबसे विदा ली। गोपों की वस्ती से निकल कर जयकुमार ने पुनः यात्रा प्रारम्भ की। हस्तिनापुर पहुंचने पर जयकुमार और सुलोचना का मन्त्रियों ने स्वागत किया। प्रजावगं ने भी अपने राजा का सम्मान किया; नगर की स्त्रियां नववधू का मुख देखने की लालसा से राजमहल में पहुँच गई। उन्होंने सुलोचना का सौन्दर्य देखकर हर्ष का अनुभव किया । जयकुमार ने हेमाङ्गद इत्यादि के सामने सुलोचना के मस्तक पर पट्ट बांध कर उसे 'प्रधानमहिषी' घोषित कर दिया। जयकुमार के इस व्यवहार की हेमाङ्गद इत्यादि ने मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की जयकुमार ने हास. परिहास सहित उनके साथ बहुत समय व्यतीत किया । रत्न, पाभूषण इत्यादि देकर उन्हें विदा किया । जयकुमार को प्रणाम करके वे सब हस्तिनापुर से निकल पड़े। काशी पहुँचकर उन्होंने अपने पिता को प्रणाम किया और अपनी बहिन पोर बहनोई का सारा वृत्तान्त सुनाया । पुत्री के सुख समृद्धि से परिपूर्ण वृत्तान्त को जानकर काशीनरेश प्रकम्पन प्रात्मकल्याणमार्ग की भोर अग्रसर हुये। Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकविज्ञानसागर के संस्कृत-काव्यग्रन्यों के संक्षिप्त कथासार द्वाविंशतितम सर्ग जयकुमार मोर सुलोचना परस्पर भोग-विलास करते हुये सुखपूर्ण जीवन व्यतीत करने लगे। त्रयोविंशतितम सर्ग राज्यकार्य को अपने छोटे भाई विजय को देकर जयकुमार ने अपना ध्यान प्रजा के हितचिन्तन में लगाया । एक दिन जयकुमार सुलोचना के साथ महल की छत पर बैठा था। माकाश में एक विमान को देखकर 'प्रभावती' नाम की पूर्व जन्म की प्रिया का स्मरण करके वह मूच्छित हो गया। सुलोचना ने अपने सामने एक कपोतयुगल को देखा तो वह भी अपने पूर्वजन्म के प्रेमी रतिवर का स्मरण करके मूच्छित हो गई। उपचार से उन दोनों की मूर्छा समाप्त हो गई। किन्तु वहां पर उपस्थित स्त्रियों ने सुलोचना के चरित्र पर सन्देह किया। जयकुमार के पंछने पर सुलोचना ने अपने पूर्वजन्मों का वृत्तान्त सुनाया, जो इस प्रकार है : विदेह देश में पुण्डरीकिणी नगरी में कुबेरप्रिय नामक सेठ अपनी स्त्री के साथ रहता था। उसके यहाँ रतिवर नामक कबूतर और रतिषेणा नाम को कबूतरी रहती थी। एक दिन सेठ के यहाँ दो मुनि माये। उनके दर्शनों से कपोतयुगल को अपने पूर्वजन्मों की याद आ गई । फलस्वरूप उन्होंने ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर लिया। इसके बाद रतिवर ने आदित्यगति पौर शशिप्रभा के पुत्र हिरण्यवर्मा के रूप में जन्म लिया; पोर रतिषेणा ने वायुरथ पीर स्वयंप्रभा की पुत्री प्रभावती के रूप में जन्म लिया। इस जन्म में भी इन दोनों का विवाह हो गया। बाद में पूर्वजन्मों की याद मा जाने से हिरण्यवर्मा ने तप करना प्रारम्भ कर दिया । संसार की गति को देख कर प्रभावती भी मार्यिका बन गई। एक दिन जब वे दोनों तप कर रहे थे, उनके पूर्वजन्म के शत्रु वियुच्चोर ने माकर क्रोष के कारण उनको जला दिया । तत्पश्चात् वे दोनों स्वर्ग पहुँचे । स्वर्ग में घूमते हुये अपने पूर्वजन्म के स्थानों को देखते हुए वे एक सर्प-सरोवर के समीप पहुंचे। वहां भीम नाम के एक मुनिराज तप कर रहे थे। उनसे ज्ञात हुमा कि जब वह देव (हिरण्यवर्मा) सुकान्त रूप में जन्मा या, तब वह उसके भवदेव नाम के शत्रु थे, . कपोत के जन्म के समय वह विलाव के रूप में उनके शत्रु बने थे; मोर हिरण्यवर्मा के जन्म के समय में विद्युच्चोर भी वहीं थे। इस समय वह भीम के रूप में उत्पन्न हुये हैं। सुलोचना ने स्पष्ट कर दिया कि जयकुमार हो सुकान्त, रतिवर कबूतर, . हिरण्यवर्मा पौर स्वर्ग के देव के रूप में उत्पन्न हुआ था। सुलोचना से पूर्वजन्मों का वृत्तान्त सुनकर जयकुमार बहुत प्रसन्न हुमा। इस समय उन दोनों को दिव्यज्ञान की प्राप्ति हो गई। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि भानसागर के काम्प-एक मासान चतुविशतितम सर्ग दिव्यज्ञान की सहायता से जयकुमार भोर सुलोचना पर्वतों मोर तीयों पर विहार करने के लिए गये । सुमेरु, श्रीपुरुपर्वत (उदयाचल) इत्यादि में विहार करते हुये वे दोनों हिमालय पर पहुँचे । वहां उन्होंने एक मन्दिर देखा। उसमें जाकर विधिपूर्वक जिनेन्द्रदेव की पूजा की। तत्पश्चात् मन्दिर से निकल कर पर्वत पर विहार करते हुये जयकुमार मोर सुलोचना एक दूसरे से कुछ दूर हो गये। इस . समय सोधर्म इन्द्र की सभा में जयकुमार के शील की प्रशंसा की जा रही थी, जिसे सुनकर रविप्रभ नामक देव ने अपनी पत्नी कांचना को जयकुमार के शील की परीक्षा लेने के लिए भेजा। उसने पाकर जयकुमार के सौन्दर्य की प्रशंसा की; अपनी मनगढन्त कहानी सुनायी पौर भिन्न-भिन्न प्रकार की कामचेष्टानों से जयकुमार को विचलित करना चाहा । परन्तु जयकुमार के हृदय पर उसके वचनों मोर चेष्टानों का कोई प्रभाव नहीं पड़ा; उलटे उसने उसके व्यवहार की निन्दा की मोर उसे स्त्रियों के प्राचरण की शिक्षा दी । जयकुमार के उदासीनतायुक्त वचनों को सुनकर उसने क्रोषपूर्वक उसे उठा लिया और जाने लगी। इसी समय सुलोचना ने वहां पहुंचकर उसको भत्र्सना की । सुलोचना के शोल के माहात्म्य से उसने जयकुमार को छोड़ दिया और चली गई। अपनी पत्नी से जयकुमार के निष्काम भाव को जानकर रविप्रम ने देववन्ध जयकुमार की पूजा की। इस प्रकार तीर्थों में विहार करके जयकुमार अपने नगर में लौट प्राया और सुलोचना के साथ सुखपूर्वक रहने लगा। पंचविशतितम सर्ग सांसारिक भोग-विलासों की निःसारता को देखकर जयकुमार के मन में एक दिन राग्यभाव जाग उठा । वस्तुतत्व का चिन्तन करते हुये उसकी इच्छा वन जाने की हो गई। - षविशतितम सर्ग जयकुमार ने अपने पुत्र अनन्तवीर्य का राज्याभिषेक किया और स्वयं वन की पोर चल पड़ा । हस्तिनापुर की प्रजा ने हर्ष और विषाद-इन दो विरोधी भावों का, साथ-साथ अनुभव किया। वन में जयकुमार भगवान् ऋषभदेव के पास गया; उसने उनकी भक्तिपूर्वक स्तुति की और कल्याण मार्ग के विषय में पूंछा । सप्तविंशतितम सर्ग भगवान ऋषभदेव ने जयकुमार को धर्म का स्वरूप बताया। भगवान् के उपदेश को सुनकर वह दृढ़तापूर्वक प्रात्मकल्याण के मार्ग पर अग्रसर हो गया। प्रविशतितम सर्ग जयकमार ने समस्त वाह्य परिग्रहों का परित्याग कर दिया और घोर तपस्या में संमग्न हो गया। तपश्चरण के परिणामस्वरूप उसने मनःपर्ययज्ञान Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-काव्य ग्रन्थों के संक्षिप्त कथासार २७ की प्राप्ति कर ली। उसने दंगम्बरी दीक्षा भी धारण कर ली। अन्त में उसने उच्चपद की प्राप्ति कर ली। ___ सम्राट भरत की प्रधानमहिषी सुभद्रा के समझाने पर सुलोचना ने भी ब्राह्मी नाम की मार्या के समक्ष दीक्षा ग्रहण कर ली । तत्पश्चात् वह भी स्वर्ग में प्रग्युतेन्द्र के रूप में पहुंच गई। (ख) वीरोदय महाकाव्य का संक्षिप्त कथासार प्रथम सर्ग प्राज से ढाई हजार वर्ष पूर्व, जब बसुन्धरा हिंसा, दुराचार, स्वार्थलिप्सा भोर पाप के भार से दबी जा रही थी, बसुन्धरा के भार को हल्का करने के लिए भगवान् महावीर ने जन्म ग्रहण किया। द्वितीय सर्ग लोक-विश्रुत भारतवर्ष के छः खण्ड हैं, जिनमें आर्य-खण्ड सर्वोत्तम है । इसी पाय-खण्ड में स्वर्गापम विदेह नामक एक देश है । इस देश के सर्वश्रेष्ठ नगर का नाम कुण्डनपुर है, जो पहले अत्यन्त वैभवशाली था। - तृतीय सर्ग __उस कुण्डनपुर नामक नगर में राजा सिदार्थ शासन करता था। उसने अपने बल से अनेक राजामों को अपने अधीन कर लिया था। ये सभी अधीनस्थ राजा अपने मुकुटमणियों की प्रभा से उसके चरण-कमलों को सुशोभित करते थे । वह राजा सौन्दर्य, धैर्य, स्वास्थ्य, गाम्भीर्य, उदारता, प्रजावत्सलता, विद्या प्रादि का निधान था। उसे चारों पुरुषार्थों का ज्ञान था। परमकीर्तिमान्, परमवैभवशाली उस राजा का सम्पूर्ण ध्यान राज्य को समुन्नति पर केन्द्रित था। राजा सिद्धार्थ की पत्नी का नाम प्रियकारिणी था। अनुपम सुन्दरी वह राबमहिषी, परम अनुरागमयी मोर पतिमार्गानुगामिनी थी। वह बया मोर क्षमा से परिपूर्ण हृदयवाली, शान्तस्वभावा, लज्जाशीला, परमदानशीला और मनोविनोदप्रिया थी। परमसम्पत्तिशालिता, मंजुभाषिता, समदर्शिता, कोमलता आदि सभी गुण उस रानी के संग से शोभा पाते थे। राज्य के लिए कल्याणकारिणो, उस दूरदशिनी, लोकाभिरामा ने अपने अप्रतिम गुणों से राजा सिद्धार्थ के हृदय में प्रचल स्थान पा लिया था। रानी-राजा परस्पर प्रत्यधिक प्रेम करते थे। इस प्रकार परस्पर प्रेममय व्यवहार करते हुये उनका समय सानन्द बीत रहा था। चतुर्थ सर्ग ग्रीष्म ऋतु के संताप से धरा को मुक्त करने वाली पावस ऋतु का जब पानन्ददायक मागमन हुमा, तब आषाढ़ मास की षष्ठी तिथि को भगवान महावीर ने रानी प्रियकारिणी के गर्भ में प्रवेश किया। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य-एक अध्ययन वर्षा-ऋतु के सुखद वातावरण से परिपूर्ण एक दिन, रात्रि के अन्तिम समय में, रानी ने क्रमशः सोलह स्वप्नों को देखा। तत्काल ही प्रात: कालीन स्तुतियों से उसकी निद्रा टूटी । प्रातः कालीन कृत्यों से निवृत्त होकर, अपने सुन्दर शरीर को माभूषणों से सज्जित करके, सहेलियों के साथ, अपने स्वप्न सुनाने मोर उन स्वप्नों का पभिप्राय जानने की इच्छा से वह अपने पति राजा सिद्धार्थ के पास गई । राजा मे रानी को अपने समीप आसन पर बैठाया, तब रानी ने अपने सोलहों स्वप्न राजा को कह सुनाये । राजा ने रानी को क्रमशः उन स्वप्नों का फल इस प्रकार बताया :पहिले स्वप्न में तुमने ऐरावत हाथी देखा है। इसका तात्पर्य है कि तुम्हारा पुत्र मदस्रावी गज के समान महादानी होगा। दूसरे स्वप्न में तुमने वृषभ देखा है। इसका फल है कि तुम्हारा पुत्र धर्म की धुरी को धारण करने में समर्थ होगा। तीसरे स्वप्न में तुमने सिंह को देखा है। इसका अर्थ है कि तुम्हारा पुत्र उन्मत्तों एवं मूखों के गर्व का दलन करने वाला होगा। चौथे स्वप्न में गजलक्ष्मी देखने का फल है कि तुम्हारा पुत्र इन्द्रादि वेवतामों द्वारा सुमेरु पर्वत के शिखर पर अभिषिक्त होगा। पांचवे स्वप्न में तुमने गुंजन करते हुये भ्रमरों से युक्त दो मालाएँ देखी हैं। यह स्वप्न इस बात का सूचक है कि तुम्हारा पुत्र अपनी यशःसुरभि से जगन्मण्डल को सुरभित करने वाला और योग्य व्यक्तियों से सम्मानित होगा। छठे स्वप्न में तुमने चन्द्रमा देखा है; जो इस बात का सूचक है कि तुम्हारा पुत्र सभी कसामों में पारंगत होगा और अपने धर्मरूप अमृत से जगत् का सिंचन करेगा। सातवें स्वप्न में सूर्य देखने का फल है कि तुम्हारा पुत्र लोगों के हृदय-कमल का विकासक, प्रज्ञानरूप अन्धकार का हन्ता एवं परमप्रतापी होगा। पाठवें स्वप्न में तुमने जल से परिपूर्ण दो कलश देखे हैं। फलस्वरूप गर्भस्थ शिशु, लोगों का परमकल्याण करने वाला एवं तृष्णातुर लोगों के लिए अमृत रूप सिद्धि को देने वाला होगा। नवे स्वप्न में तुमने जल में क्रीड़ा करती हुई दो मछलियां देखी हैं । फलस्वरूप तुम्हारा पुत्र अपनी सुन्दर चेष्टामों से स्वयं प्रसन्न रह कर जनता को हर्षित करेगा। दसवें स्वप्न में तुमने आठ हजार से अधिक कमलों से युक्त सरोबर देखा है । फलस्वरूप तुम्हारा पुत्र सुन्दर १००८ लक्षणों से युक्त होगा; एवं लोगों के दुल एवं पाप का नाशक होगा। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-काव्य ग्रन्थों के संक्षिप्त कथासार । ग्यारहवें स्वप्न में तुमने समुद्र देखा है । उसका फल यह होगा कि तुम्हारा पुत्र समुद्र के समान धोर-गम्भीर, नवनिधियों मोर केवल ज्ञान से उत्पन्न नवलब्धियों का स्वामी होगा। बारहवें स्वप्न में हे रानी ! तुमने सुन्दर सिंहासन देखा है। उसका फल होगा कि तुम्हारा पुत्र निरन्तर उन्नति को प्राप्त करने वाला, उत्तम-कान्ति से युक्त और शिवराज्य के पद का अनुगामी होगा। तेरहवें स्वप्न में देव-सेवित विमान देखने का फल है कि तुम्हारा पुत्र देवतामों से सेव्य, लोगों को मोक्ष दिलाने वाला पौर अति पवित्रारमा होगा। चौदहवें स्वप्न में हे रानी ! तुमने शुभ्रवर्ण वाला नागमन्दिर देखा है। फलस्वरूप तुम्हारा पुत्र अपने उज्ज्वल यश के कारण देवगृह के समान विश्वप्रसिद्ध होगा। पन्द्रहवं स्वप्न में तुमने निर्मल रत्नों की राशि देखी है। फलस्वरूप तुम्हारा पुत्र, अनन्त निर्मलगुणराशि से शोभायमान होगा। सोलहवें स्वप्न में तुमने-घूमरहित अग्नि का समूह देखा है । यह स्वप्न इस बात का सूचक है कि तुम्हारा पुत्र दारुण परिपाक वाले कर्मसमूह को विनष्ट करके निर्मल अात्मस्वरूप को प्राप्त करेगा और सर्वोत्तम ज्ञान को पाएगा। इस प्रकार तुम्हारा पुत्र तीनों लोकों का स्वामी तीथंकर होगा। उत्पन्न होने वाले अपने पुत्र में राजा द्वारा बताये गये संभावित लक्षणों को सुनकर रानी प्रियकारिणी प्रेमविभोर हो गई। तीर्थकर के गर्भावतरण को जानकर देवताओं ने भी पाकर उस सुन्दरी रानी की वन्दना की। पंचम सर्ग भगवान् महावीर के गर्भावतरण के पश्चात् श्री, ह्री प्रादि देवियां वहाँ प्राई। राजा सिद्धार्थ ने उनका यथोचित सम्मान किया। तत्पश्चात उनके पागमन का कारण पूछा। राजा के पूछने पर देवियों ने बता" कि महारानी प्रियकारिणी के गर्भ में जिनेन्द्र तीर्थकर भगवान् का अवतार : । प्रतएव इन्द्र के पादेश से तीर्थकर की पूज्य माता की सेवा करने वे लोग भाई हैं । प्रतएव उनको उस पुण्य-कार्य को अनुमति मिले । १. दाणे लामे भोगे परिभोग : . रएय सम्मते । _णव केवल तपीओं दंसण-गाणं चरित्ते य ॥' -धवला १।११ (दान, लाभ, भोग, परिभोग, वीर्य, सम्यक्त्व, दर्शन, ज्ञान और चारित्र-ये नव लब्धियां हैं, जो केवल नान प्राप्त करने पर पुरुष को प्राप्त होती है।) Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य-एक अध्ययन __राजा से प्राज्ञा पाकर वे सभी देवियां कंचुकी के साथ माता के समीप जाकर उसकी चरण-वन्दना करने लगीं। अपने सन्दर वचनों से देवियों ने माता को पाश्वस्त किया और उसकी सेवा में तत्परता से जुट गईं। रानी को नहलाने में, उसका प्रलंकरण करने में, संगीत द्वारा रानी का मनोरंजन करने में वे देवियां जरा भी प्रमाद नहीं करती थीं । देवियों के प्राग्रह पर रानी प्रियकारिणी, उनके भगवद्विषयक प्रश्नों का उत्तर देकर, उन्हें सन्तुष्ट करती थीं। भगवान् महावीर की जननी से जैन-धर्म-विषयक प्रवचनों को सुनकर, देवियां उसको यथासमय सुस्वादु भोजन कराती थीं। भ्रमण के लिए समीपवर्ती उद्यानों में ले जाती थीं । तत्पश्चात् रानी को पुष्पसज्जित शय्या पर लिटाकर, उसके चरण दबाकर, उस पर पंखा झलकर, उसे सुला देती थीं। इस प्रकार वे सभी देवियां माता के साथ ही, गर्भस्थ जिनेन्द्रदेव की भी सेवा-अर्चना करने लगीं। षष्ठ सर्ग . धीरे-धीरे रानी प्रियकारिणी में गर्भवृद्धि के लक्षण दृष्टिगोचर होने लगे। यह देखकर राजा सिद्धार्थ अति प्रमन्न हुअा। इसी बीच ऋतुराज वसन्त का मदिर शुभागमन हुग्रा । चारों प्रोर उल्लास का साम्राज्य फैल गया। उसी मनोहर वेला में, चैत्र मास के शुक्लपक्ष की त्रयोदशी के दिन रानी प्रियकारिणी ने शुभलक्षणोपेत पुत्र को जन्म दिया। पुत्रोत्पत्ति होने पर रानी अत्यधिक हर्षित हुई। शिशु के निर्मल शरीर से कमल-सौरभ के समान सुगन्धि निःसृत हो रही थी। सप्तम सर्ग प्रियकारिणी के गर्भ से जिस समय भगवान् ने जन्म लिया, उस समय सभी दिशामों में प्रानन्द का संचार हो गया । इन्द्र का सिंहासनं दोलायमान हो उठा। भगवान् के जन्म का समाचार जान कर इन्द्र ने दूर से ही उन्हें प्रणाम किया पोर सभी सुरासुरों सहित कुण्डनपुर के लिए प्रस्थान किया। कुण्डनपुर की देवताओं ने तीन बार प्रदक्षिणा की। इन्द्रागी ने प्रसूतिगृह में प्रवेश किया। उन्होंने एक माया निर्मित शिशु को माता के पार्श्व में सुला दिया और जिन भगवान् को लाकर इन्द्र को सौंप दिया। __ भगवान् को देखकर इन्द्र ने उन्हें प्रणाम किया और ऐरावत हाथी पर बिठा कर जैन-मन्दिरों से युक्त सुमेरु पर्वत के लिए प्रस्थान किया। पर्वतराज सुमेरु ने जिनेन्द्र को अपने शिर पर धारण किया। तत्पश्चात् देवगणों ने क्षीरसागर से भगवान् का अभिषेक किया। अभिषेक के पश्चात् भगवान् के शरीर को पोंछकर इन्द्राणी ने उनके शरीर को सुन्दर सुन्दर प्राभूषणों से सजाया। इस प्रकार देवगणों ने भगवान् का जन्म-महोत्सव मनाया और फिर ले जाकर उन्हें उनकी माता की गोद में सौंप दिया। तत्पश्चात् वे सभी देवता नाचते-गाते हुए अपने-अपने निवास स्थान को चले गए। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-काग्य अन्यों के संक्षिप्त कथासार प्रहम-सर्ग राजा सिद्धार्थ ने भी अपने पुत्र का जन्म-महोत्सव बड़ी धूमधाम से सम्पन्न किया। पुत्र के शरीर की बढ़ती हुई कान्ति को दृष्टि में रखकर राजा ने अपने पुत्र का नाम श्रीवर्धमान रखा। बालक वर्षमान प्रानी सुन्दर-सुन्दर बालोचित चेष्टामों से सम्पूर्ण जन-समुदाय को हर्षित करने लगा। पूर्णतया स्वस्थ शरीर वाले भगवान् धीरे-धीरे बाल्यावस्था से युवावस्था की ओर अग्रसर हुए। पुत्र को युवावस्था में पदार्पण करते हुये देखकर पिता सिद्धार्थ ने उनके लिए विवाह-योग्य कन्या देखने का निश्चय किया। किन्तु वर्धमान ने पिता के इस प्रस्ताव का अनुमोदन नहीं किया। पिता के बार-बार आग्रह करने पर वर्षमान ने नम्रतापूर्वक उन्हें समझाया और वैवाहिक जीवन का पालन करने के स्थान पर उन्हें ब्रह्मचर्य-व्रत-पालन की अपनी बलवती इच्छा प्रकट की। पुत्र की ब्रह्मचर्य-व्रत के प्रति ऐसी निष्ठा देखकर पिता ने हर्षित होकर उनके शिर का स्पर्श करके यथेच्छ जीवन-यापन करने की अनुमति दे दी। नवम सर्ग विवाह-प्रस्ताव को ठकराने के पश्चात् भगवान् का ध्यान संसार की शोचनीय दशा की ओर गया । हिसा, स्वार्थलिप्सा, अधर्म, व्यभिचार, दुर्जनता इत्यादि बुराईयों से लिप्त संसार की रक्षा करने का जब भगवान् ने निश्चय किया तो उसी समय धरा पर शरद-ऋतु का प्रागमन हुमा । दशम सर्ग जो पेड़-पौधे वसन्त ऋतु के आगमन से हरे-भरे हो जाते हैं, शीत-ऋतु के प्रागमन से वे मुरझा भी जाते हैं--प्रकृति के इस व्यापार को देखकर भगवान् महावीर को संसार की क्षणभंगुरता का ज्ञान हो गया। फलस्वरूप उनके हृदय में वैराग्य-भावना का उदय होता है । सभी देवगण उनकी इच्छा का अनुमोदन करते हैं। तब शीघ्र ही भगवान् बन जाकर, वस्त्राभूषण त्याग कर, केशों को उखाड़ कर, मार्गशीर्ष मास के कृष्णपक्ष की दशमी तिथि को दगम्बरी दीक्षा ले लेते हैं मोर मौन धारण कर लेते हैं। तत्पश्चात् उनके मन में मनःपर्यय' नामक ज्ञान का उदय होता है। १. 'ईन्तिराय ज्ञानावरणक्षयोपशमे सति परमनोगतस्यार्थस्य स्फुटं परिच्छेदकं ज्ञानं मनःपर्यायः । (ईर्ष्या मादि विघ्न रूप ज्ञानावरण के नष्ट या शान्त हो जाने पर दूसरे व्यक्ति के हृदय में स्थित तत्त्व को स्पष्ट रूप से व्याप्त करने वाला ज्ञान मनःपर्याय है।) -'सर्वदर्शनसंग्रह' के 'माईत दर्शन' से । Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य - एक अध्ययन उन्होंने अन्य धर्मानुयायियों के अतिरिक्त अपना स्वतन्त्र मार्ग चुना । अपना 'वीर'... नामक सार्थक करने के लिए तपश्चरण के समय बड़ी-बड़ी विपत्तियों का सामना किया और सब पर विजय प्राप्त की । ३२ एकादश सगं एक दिन भगवान् महावीर ने ध्यान करते समय अपना सम्पूर्ण पूर्ववृत्तान्त जान लिया। सबसे पहले वह पुरुरबा नाम के भील थे । तत्पश्चात् प्रादितीर्थंकर ऋषभदेव के पौत्र मरीचि के रूप में उन्होंने जन्म ग्रहण किया। मरीचि ही स्वर्ग का देब बना । फिर ब्राह्मण योनि में जन्मा । वह ब्राह्मण अनेक कुयोनियों में जन्म लेता हुआ एक वार शाण्डिल्य ब्राह्मण मौर उसकी पाराशरिका नाम की स्त्री का स्थावर नामक पुत्र हुप्रा । प्रव्रज्या के फलस्वरूप उन्होंने माहेन्द्र स्वर्ग के देवत्व का उपभोग किया । तत्पश्चात् राजगृह नगर में विश्वभूति और उसकी जैनी नामक स्त्री का विश्वनन्दी नामक पुत्र हुधा । तपस्या करने पर विश्वमन्वी महाशुक्र नामक स्वर्ग में गया । तत्पश्चात् विश्वनन्दी पोदनपुर के राजा प्रजापति और रानी मृगावती का त्रिपृष्ठ नाम का पुत्र हुआ । इसके बा विश्वनन्दी को रोरव नरक में जाना पड़ा । इसके बाद उसे सिंह की योनि प्राप्त हुई। यह सिंह मरकर नरक गया। फिर सिंह के रूप में जन्मा । हिंसायुक्त स्वभाव वाले उस सिंह को किसी मुनिराज ने उसके पूर्वजन्मों का वृत्तान्त बता दिया। सिंहयोनि के पश्चात् वह मृतभोजी देव हुभ्रा । इस देव ने कनकपुर के राजा कनक के पुत्र के रूप में जन्म ग्रहण किया। मुनिवेश धारण करने के पश्चात् यह राजकुमार लान्तत्र स्वर्ग में पहुंचा। फिर इस देव ने साकेत नगरी में राजा ब्रजपेण मोर शीलवती रानी के पुत्र रूप में जन्म ग्रहण किया । अन्त में तपस्या करते हुए महाशुक्र स्वर्ग को गया । पुनः पुष्कल देश की पुण्डरीकिणी पुरी के सुमित्र राजा मोर सुव्रता रानी का प्रियमित्र नामक राजकुंमार हुम्रा । अन्त में तपस्या के फलस्वरूप वह सहस्रार स्वर्ग में जन्मा । पुनः पुष्कल देश की छत्रपुरी नगरी के राजा श्रभिनन्दन श्रोर रानी वीरमती का नन्द नामक पुत्र हुआ । इसी जन्म में दंगम्बरी-शिक्षा लेकर अच्युत स्वर्ग का इन्द्र बना । उसी इन्द्र ने अब इस कुण्ड नपुरी में राजा सिद्धार्थ और रानी प्रियकारिणी के वर्धमान नामक राजकुमार के रूप में जन्म लिया है । अपने इन पूर्वजन्मों के वृत्तान्त को महावीर ने स्वयं किए पाप का फल बताया। उन्होंने कुटुम्ब से असहयोग एवं क्रोध, मत्सर प्रादि के त्याग पर बल दिया और सत्याग्रह का पालन करने के लिए कहा । द्वादश सर्ग प्रात्मतत्व का चिन्तन करते हुए महावीर भगवान् ग्रीष्म ऋतु में पर्वत-शिखर पर, वर्षा ऋतु में वृक्षों के नीचे और शीतकाल में चौराहे के ऊपर बैठे। उन्होंने Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-काव्यग्रन्यों के संक्षिप्त कथासार ३३ विचार किया कि पोड़ा प्रात्मा को नहीं, ज्ञान-रहित शरीर को कष्ट पहुंचाती है । समय-समय पर भगवान के ऐकमासिक और चातुर्मासिक उपवास भी चल रहे थे मात्मतत्त्व को जानकर, संसार को पापपंक से दूर करने के लिए, ग्रीष्म ऋतु के वंशाख मास की शुक्ला दशमी तिथि को भगवान् ने केवल-ज्ञान प्राप्त किया। इस समय उनके चार मुख सुशोभित होने लगे। उनके शरीर का प्रतिबिम्ब पड़ना बन्द हो गया। उनके अन्दर सभी विद्यानों का प्रवेश हो गया। इसी हर्षमय वातावरण में इन्द्र ने समवसरण नामक सभामण्डप का निर्माण किया। इसी समवसरण सभामण्डप में महावीर भगवान् ने मुक्तिमार्ग का उपदेश दिया। त्रयोदश सगं समवसरण सभा के मध्य गन्धकुटी में स्थित सिंहासन पर भगवान महावीर अवस्थित थे। उस समय उनका मुखमण्डल अत्यन्त तेजस्वी लग रहा था। उनके शिर पर छत्रत्रय सुशोभित था। उस समय देवगण दुन्दुभि बजा रहे थे और भगवान् महावोर प्रपनी पवित्र वाणी से सबके कणंकहरों को अभिषिक्त कर रहे थे। भगवान् के इस दिव्य ऐश्वर्य से प्रभावित, वेद वेदांग का ज्ञाता इन्द्रभूति नामक ब्राह्मण वहां पाया। उसके मन में प्रभु का वैभव देखकर माश्चर्य हुआ । अपनी प्रज्ञानता के कारण वह मन ही मन तर्क-वितर्क करने लगा। अन्त में, वह बोला-'हे देव मुझे सत्य ज्ञान कराने की कृपा करो-और ऐसा कहकर वह उनके चरणों में गिर पड़ा। __ भगवान् ने आषाढ़ को गुरुपूर्णिमा के दिन उसे सत्य, अहिंसा और त्याग का उपदेश दिया। चतुर्दश सर्ग भगवान् महावीर के ग्यारह गणवर हुए-गोतम इन्द्रभूति, अग्निभूति, वायुभूति पार्यव्यक्त सुधर्म, मण्डिक, मौर्यपुत्र, अकम्पित वीर, अचल, मेतार्य उपान्त्य श्रेष्ठ और प्रभास । इन सभी ने भगवान् के सन्देश का प्रसार किया। ये सभी गणपर अपनी शिष्य-परम्परा के साथ भगवान् महावीर के पास पहुँचे। भगवान् ने सबको उपदेश दिया एवं गौतम इन्द्रभूति के मन में उठ रहे सन्देहों का शमन किया। भगवान से प्रात्मतत्त्व के उपदेश को सुनकर इन्द्रभूतिं बहुत प्रभावित हुए। तत्पश्चात् भगवान महावीर ने उन्हें ब्राह्मण के गुणों का ज्ञान कराया। भगवान् के पावन-वचनों से इन्द्रभूति का सारा कल्मष धुल गया। सभी गणधरपरिवारों का कल्याण हुमा। गणषरों को इस प्राध्यात्मिक उन्नति को जानकर अन्य लोग भी महावीर भगवान् की शरण में माने लगे । उस समवसरण सभा में सभी लोग पारस्परिक विरोष को भूलकर प्रात्मतत्त्व का चिन्तन करने में लीन हो गए। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य--- एक अध्ययन पंचदश सगं समवसरण में उपस्थित सभी व्यक्तियों ने भगवान महावीर के उपदेश को अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार ग्रहण किया। किन्तु गौतम इन्द्रभूति ने भगवान् की दिव्यवाणी को विशेषरूप से समझा । भगवान के दिव्य वचनों को, उनके गणधरों ने प्रचार-प्रसार हेतु अनूदित किया। भगवान् का शिष्यत्व राजवर्ग के लोगों को नहीं ग्रहण किया, वरन् जन-सामान्य भी इस दिशा में पीछे नहीं रहा । जिस देश के राजपुरुष जैनधर्म को स्वीकार करते थे, वहां की जनता भी अपने शासकों का मनुसरण करती थी। तत्कालीन जैन-मतावलम्बियों ने जैन-धर्म को तो स्वीकार - किया ही, साथ ही उन्होंने जिनालयों एवं जिनाश्रमों का निर्माण करने-करवाने में भी योगदान दिया तथा जैन माधुनों को भी यथागक्ति सम्मान दिया। जैनधर्म को स्वीकार न करने वालों ने भी जैन धर्म के मूल सिद्धान्त 'अहिमा परमो धर्म:' का ग्रहण किया।। इस प्रकार वीरभगवान् द्वारा प्रतित जैनधर्म ब्रह्माण्ड के दिगदिगन्तों में विस्तार पाने लगा। पोडश सगं इस सर्ग में महाकवि ने महावीर भगवान् के समाजोपयोगी विचारों को अंकित किया है। उनका लिखना है कि महाबीर भगवान् “सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्त निरामयाः । सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग भवेत्" के सिद्धान्त को मूर्त रूप में देखना चाहते थे। वह पूर्ण अहिंसा, परोपकार, इन्द्रिय-संयम अादि गुणों को सर्वत्र व्यापकता वाहले थे। . लाश सर्ग भगवान महावीर का उपदेश हुमा करता था कि इस धरा पर ईश्वर की पोर से रायो समान अधिकार प्राप्त है और कोई किसी से बड़ा या छोटा नहीं है। संगार परिवर्तनगी है। जिस वस्तु का स्वहा हम जैसा आज देखते हैं, वैशा दूसरे समय में नहीं रहता। अतएव मानतमात्र का सम्मान करके, आत्मोत्थान के मार्ग की ओर अग्रमर होना चाहिए। दूसरों के दोष-दर्शन के समय मौन धारण करना चाहिए; पर उनके गुणों को ईरहित होकर अपनाना चाहिए। विपत्ति ने समय धैर्य नहीं खोना माहिए। पुरुष को अपने ज्ञान और धन के प्रति घमना करना चाहिए। उसे काम-क्रोध-लोभ-मोह से दूर ही रहना चाहिए। समाज में बांगवस्था पुरुष के कर्मानुसार होनी चाहिए, जन्मानुसार नहीं। मनुष्य का मात्र रक्षा ही समाज में पुरुष को स्थिति का निर्धारक हो। पुरुष को प्रात्मविश्वासी, सत्यनि ठ, दृढ़, निर्भीक एवं पापरहित मन वाला होना चाहिए। संसार के द्वन्दों पर विजय प्राप्त करने वाला पुरुष जितेन्द्रिय होकर जिन कहलाता है। उसका अपनी स्थिति के अनुसार शुभाचरण ही 'जैनधर्म' के नाम से प्रसिद्ध है। माश सर्ग इस प्रकार भव-दुःखों से पीड़ित पुरुषों को कष्ट से बचाने के अनेक उपाय Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-काव्य-प्रन्यों के संक्षिप्त कथासार भगवान् महावीर ने बताये हैं। उन्होंने संसार की गति का नियन्ता ईश्वर को न मानकर, समय को भाना है। समय हो बलवती शक्ति है जो राजा को रेक पोर रंक को राजा बना देता है। समय के प्रभाव से जब सत्ययुग त्रेतायुग में परिणत हुआ, तो मानव को जीवन-यापन को वे सब सुविधाए उस प्रकार प्राप्त नहीं होती थीं जो कि सत्ययुग में होती थीं। फलस्वरूप समाज में अव्यवस्था फैल रही थी। इस अव्यवस्था को नियन्त्रित करने के लिए धरा पर चौदह कुलकरों ने जन्म लिया जिनमें नाभिराज प्रथम थे। इनको स्त्री का नाम मरुदेवो था। इन्होंने आदि तीर्थकर भगवान् ऋषभदेव को पुत्र रूप में प्राप्त किया। भगवान् ऋषभदेव ने अनेक प्रकार से लोगों का कष्ट दूर किया। उन्हें उपयुक्त जीवन-यापन का उपदेश दिया। गृहस्थ-धर्म का पालन करने के पश्चात् ऋषभदेव ने संन्यास ग्रहण किया और लोगों को धर्म के प्रति प्रेरित किया। ऋषभदेव के पश्चात् वापर-युग में अजितनाथ आदि तेईस तीर्थकर और भी हुए जिन्होंने ऋषभदेव द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों का ही प्रचार-प्रसार किया। - एकोनविंश सर्ग इस धर्म में बताया गया है कि कोई भी पदार्थ उत्पन्न या विनष्ट नहीं होता, अपितु नित्य नवीन रूप धारण कर परिवर्तित होता रहता है। सभी पदार्थ । मनादिकाल से अपने कारणों से उत्पन्न होते चले पा रहे हैं। इनकी उत्पत्ति का कारण ईश्वर नहीं है। विशतितम सन इस सर्ग का सारांश यह है कि भगवान महावीर ने प्रत्यक्ष-परोक्ष, स्थूलसूक्ष्म सभी वस्तुओं का ज्ञान प्राप्त कर लिया था। इसलिए वह सवंत्र कहे जाते हैं। मनुष्यों को सर्वज्ञता प्राप्त करने के लिए महावीर द्वारा प्रचलित 'स्याद्वाद' के मार्ग का अनुसरण करना चाहिए । एकविश मर्ग शरद-ऋतु की वेला में सर्ववेत्ता भगवान् महावीर ने कार्तिक मास के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी को रात्रि को एकान्तवास किया और रात्रि के मन्तिम समय में, पावानगर के उपवन में उन्होंने अपना पार्थिव शरीर त्यागकर शाश्वत मोक्ष प्राप्त किया। भगवान् महावीर के मोक्ष प्राप्त कर लेने पर उनके प्रधान शिष्य इन्द्रभूति को उनका स्थान प्राप्त हुमा । द्वाविश सर्ग भगवान् महावीर के मोक्ष प्राप्त कर लेने पर उनके द्वारा उपदिष्ट धर्म की दशा पूर्ववत् न रहो । जैन-धर्म की, 'दिगम्बर-सम्प्रदाय' और 'श्वेताम्वर-सम्प्रदाय' नाम से दो धाराएं हो गई। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य - एक प्रध्ययन I कालदोष के कारण जनमतावलम्बी लोग भी महावीर के उपदेश का यथोचित रूप से पालन नहीं कर सके । उनमें अनेक सम्प्रदाय तथा उपसम्प्रदाय बनने लगे। जिन बुराइयों से बचने के लिए भगवान् महावीर ने नवीन मागं चलाया था, वे बुराइयाँ जैनियों में ही पुनः प्रकट होने लगीं। जैनधर्मं का संचालन जैनधर्मी राजवर्ग के हाथों से निकलकर वैश्य क्षत्रियों के वर्ग के हाथों में घा गया । परिणामस्वरूप जैनवमं वणिक्वृत्ति से प्रभावित हो गया । इतना होने पर भी यह नहीं समझना चाहिए कि जितेन्द्रिय जैनमतावलम्बियों का पृथ्वी पर सर्वथा प्रभाव हो गया है । प्राज भी अनेक जितेन्द्रिय महापुरुष हैं; किन्तु प्रज्ञानतावश हम उन्हें जान नहीं पाते हैं । ३६ मन्द में दिव्यगुणों से विभूषित तथा इस महाकाव्य के चरितनायक भगवान् महावीर को हम प्रणाम करते हैं; प्रोर हमारी ( महाकवि की) हार्दिक इच्छा है कि उनकी कीत्ति घरा पर सदा बनी रहे । सुदर्शनोदय महाकाव्य का संक्षिप्त कथासार प्रथम सगं भारतवर्ष में श्रृङ्ग नामक एक देश है, जो प्राचीन समय में अपने प्रतुलित वैभव के कारण लोकविश्रुत था । इसी देश में एक नगरी थी - चम्पापुरी; जिसमें आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व भगवान् महावीर के समय तेजस्वी, परमप्रतापी एवं प्रजावत्सल घात्रीवाहन नामक राजा का शासन था । उस राजा की प्रत्यन्त रूपवती किन्तु कुटिल प्रभयमती नाम वाली एक रानी थी । द्वितीय सगं उस समय चम्पापुरी में विचारशील, दानो, निरभिमानी, सम्पत्तिशाली, कलावान्, निर्दोष एवं वैश्यों में सर्वश्रेष्ठ वृषभदास नामक एक सेठ भी रहता था । उसकी पत्नी सुन्दरी, सुकोमल, अतिथिसत्कारपरायणा, सदाचारिणी, मृदुभाषिणी एवं जिनमति नाम वाली थी । एकसमय जिनमति ने रात्रि के अन्तिम प्रहर में महापुरुषोत्पत्ति सूचक स्वप्न देखे । प्रातःकाल होते ही वह अपने पति के पास जाकर बोली कि भाज रात मैंने हर्षवर्द्धक स्वप्नावली देखी है। अब उसका अभिप्राय जानने के लिए मैं मापसे निवेदन करती हूँ । प्रथम स्वप्न में मैंने सुमेरु पर्वत, द्वितीय स्वप्न में कल्पवृक्ष, तृतीय स्वप्न में सागर, चतुथं स्वप्न में निर्धूम अग्नि प्रोर पंनम स्वप्न में प्राकाश में घूमते हुये विमान को देखा है । सेठानी की बात सुनकर सेठ ने कहा कि तुमने जिन स्वप्नों को देखा है उनका अभिप्राय कोई भी साधारण मनुष्य नहीं जान तकता । प्रतएव हम दोनों को स्वप्नावली का ठीक-ठीक अभिप्राय जानने के लिए योगिराज के पास चलना चाहिए। तत्पश्चात् वे दोनों ही जैन मन्दिर में पूजन कर योगिराज के दर्शन करने के लिए गए। मुनिराज के पास जाकर सेठ और सेठानी ने प्रणाम निवेदन किया धोर Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-काण्य-प्रभ्थों के संक्षिप्त कथासार ३७ मुनि ने उन्हें प्राशीर्वाद दिया । तदनन्तर सेठ ने मुनि से निवेदन किया कि मेरी पत्नी जिनमति ने प्राज रात्रि में सुमेरु पर्वत, कल्पवृक्ष, सागर, निधूम-मग्नि श्रीर प्राकाशवारी विमान को क्रमशः पाँच स्वप्नों में देखा है। हम इस स्वप्नावली का फल जानने की इच्छा से प्रापके पास प्राये हैं । कृपया भाप हमें इन स्वप्नों का भिप्राय समझा दीजिए। सेठ जी की बात सुनकर मुनिराज बोले कि तुम्हारी पत्नी ने जो पाँच स्वप्न देखे हैं उनका तात्पर्य है कि यह योग्य पुत्र को जन्म देगी । स्वप्न में देखे गए सुमेरु, कल्पवृक्ष, सागर, निर्धूम-अग्नि प्रोर विमान से क्रमश: तुम्हारे पुत्र का धेयं, दानशीलता, रत्नबहुलता, कर्मों का नाश और देवों की प्रियपात्रता सूचित होती है। मुनि की बारणी सुनकर दोनों प्रति प्रसन्न हुए । तदनन्तर यथासमय जिनमति ने गर्भधारण किया, जिससे उसका सौन्दर्य प्रतिदिन वृद्धि को प्राप्त होने लगा। सेठ वृषभदास अपनी पत्नी को गर्भवती जानकर बहुत प्रसन्न हुआ और यत्नपूर्वक उसका संरक्षण करने लगा । तृतीय सगं समय प्राने पर एक दिन शुभमुहूर्त में जिनमति ने भूमण्डल को सुशोभित करने वाले पुत्र को जन्म दिया। सेवक से पुत्रोत्पत्ति का समाचार पाकर वृषभदास प्रत्यधिक हंषित हुप्रा । हर्षातिशय के कारण उसने जिनेन्द्रदेव का पूजन किया धीर प्रत्यधिक दान दिया। घर में चारों मोर वृद्ध महिलाओं ने मंगल दीप प्रज्ज्वलित किये | वृषभदास ने प्रसूतिकक्ष में पहुँचकर अपनी पत्नी और पुत्र पर गन्धोदक छिड़का । जिनदर्शन के फलस्वरूप पुत्रप्राप्ति को स्वीकार करके सेठ ने अपने सुन्दर पुत्र का नाम सुदर्शन रखा । बालक अपनी मनोहर चेष्टाम्रों से घर के सभी लोगों के हवं में वृद्धि करने लगा । शैशवावस्था समाप्त होने पर कुमार सदर्शन को विद्याध्ययन के लिए गुरु के पास भेजा गया । शीघ्र ही माँ शारदा के अनुग्रह से वह सभी विद्यानों में पारंगत हो गया । धीरे-धीरे सुदर्शन युवा होने लगा । उसका सौन्दर्य प्रतिदिन बढ़ने लगा । एक दिन सागरदत्त नामक वैश्य की पुत्री मनोरमा भौर सुदर्शन ने जिनमन्दिर में पूजन करते समय एक दूसरे को देखा । तभी से दोनों परस्पर प्रेम करने लगे। कुछ दिनों के बीतने पर एक दिन सुदर्शन से उसके मित्रों ने उसकी उदासीनता का कारण पूँछा तो उसने उसे उच्चस्वर से गाने के फलस्वरूप हुई थकान कहकर टालना चाहा । किन्तु चतुर मित्र उसकी मनोव्यथा को समझ गये । धीरेधीरे यह वृत्तान्त सेठ वृषभदास के कानों में भी पड़ा । सेठ वृषभदास सुदर्शन के विषय में चिन्ता कर ही रहा था कि वहाँ मनोरमा के पिता सेठ सागरदत्त मा पहुॅचे। वृषभदास ने उनका यथोचित सत्कार किया और Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य - एक प्रध्ययन श्राने का कारण पूंछा । सागरदत्त ने वहाँ आने का प्रपना प्रयोजन बताया कि वह सुदर्शन के साथ अपनी पुत्री मनोरमा का विवाह करना चाहता है। हर्षित मन से विवाह की स्वीकृति दे दी और एक दिन शुभ वेला में मनोरमा का विवाह हो गया । वृषभवास ने सुदर्शन मोर चतुर्थ सर्ग एक बार उस नगर के उपवन में एक मुनि श्राये । चम्पापुरी के नर-नारी उनके दर्शन करने के लिए गये। सेठ वृषभदास भी अपने परिवार सहित गया । मुनि को प्रणाम करके उसने उनसे धर्म का स्वरूप पूछा। मुनि ने आशीर्वाद देकर धर्म एवं अधर्म का स्वरूप और भेद समझाया। मुनि की प्रमृतवर्षिणी वाणी को सुनकर सेठ वृषभदास का सारा मोह समाप्त हो गया और वह सब कुछ त्यागकर मुनि बन गया । मुनि की वाणी और पिता के प्राचरण से प्रभावित सुदर्शन ने भी मुनिराज के समक्ष मुनि बनने की इच्छा प्रकट की । किन्तु उसने यह भी निवेदन किया कि मेरे हृदय में अपनी पत्नी मनोरमा के लिए अतिशय प्रीति है, जो मुझे मुनि बनने में बाधिका प्रतीत होती है । प्रतएव श्राप इससे भी मुक्त होने का उपाय बतायें । सुदर्शन की बात सुनकर मुनिराज ने कहा कि हे सुदर्शन, तुम दोनों के अतिशय प्रेम का कारण तुम दोनों का पूर्वजन्मकालीन संस्कार है । क्योंकि पहले जन्म में तुम और मनोरमा भील भीलनी थे । वह भील अगले जन्म में कुत्ता हुमा । एक जिनालय में मरने 'पश्चात् वही कुत्ता एक ग्वाले के यहाँ पुत्र रूप में जम्मा । एक बार उस ग्वाले के पुत्र ने एक सरोवर से एक सहस्रदल कमल तोड़ा । उसी समय आकाशवाणी हुई कि इस कमल का उपभोग तुम मत करो, तुम इसे ले जाकर किसी महापुरुष को प्रदान कर दो; जिसे सनकर वह बालक इन्हीं सेठ वृषभदास को, जो इस समय तुम्हारे पिता हैं, कमल भेंट करने की इच्छा से इनके पास माया । किन्तु इन्होंने वह कमल राजा को समर्पित करना चाहा और उस बालक को लेकर यह राजा के पास पहुंचे। पर सम्पूर्ण सन्दर्भ जानने पर राजा ने वह कमल जिन भगवान् को सेवा में समर्पित करना चाहा और सबको लेकर वह जिनमन्दिर में पहुंचे । वहाँ पहुँचकर राजा ने बड़ी घूम धाम के साथ वह कमल पुष्प ग्वाल बालक के ही हाथों द्वारा भगवान् जिनेन्द्र की सेवा में समर्पित कर दिया । इस घटना से प्रभावित होकर सेठ वृषभदास ने उस ग्वाल-बालक को योग्य समझकर अपने घर का सेवक बना लिया । एक दिन वह गोपबालक जंगल से सूखी लकड़ियाँ काट कर घर लौट रहा था। सर्दी का समय था । हिमपात हो रहा था । मागं में उसने एक साधु के दर्शन किये, जो एक वृक्ष के नीचे समाधिस्थ थे। उनकी स्थिति को दयनीय देखकर उसने विचार किया कि निश्चय ही इन्हें शीत सता रहा होगा। प्रतः उसने उनके 1 Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत काव्य ग्रन्थों के संक्षिप्त कथासार ३६ सामने प्राग जला दी भोर स्वयं भी बैठ गया । वह सारी रात प्राग जलाता हुआ वहीं बैठा रहा । प्रातः काल होने पर साधु की समाधि भंग हुई। उन्होंने बालक को देखा और प्रसन्न होकर 'नमो' मन्त्र का उपदेश दिया। साथ ही यह भी प्रदेश दिया कि वह प्रत्येक कार्य के पूर्व इस मन्त्र का स्मरण कर लिया करे । बालक मुनि को प्रणाम करके घर लौट आया और उनकी प्राज्ञा के अनुसार अपना जीवन-यापन करने लगा । एक दिन वह गाय-भैंसों को चराने लिए जंगल गया हुआ था । वहाँ एक भैंस सरोवर में घुस गई । उसको निकालने के लिए वह मंत्रस्मरणपूर्वक सरोवर में कूदा । सरोवर में एक लकड़ी की नोक से चोट लगने के कारण उसकी मृत्यु हो गई । उस महामन्त्र के प्रभाव से वही बालक सेठ वृषभदास के घर में पुत्र बन कर अर्थात् तुम्हारे रूप में उत्पन्न हुआ है । वह भीलनी भी मरकर भैंस हुई। तत्पश्चात् धोबिन बनी। उस धोबिन ने हिंसा एवं सर्वपरिग्रह का परित्याग करके आर्थिक व्रत को अपना लिया । अपने निर्मल-स्वभाव, सत्यवादिता इत्यादि गुणों के कारण वह पुनः तुम्हारी पत्नी हुई है । प्रत. इस समय तुम दोनों धर्मानुकूल प्राचरण करते हुये सुखपूर्वक अपना जीवन बिताओ। मुनिराज की इस प्रकार वाली सुनकर सुदर्शन और मनोरमा, दोनों ही, मुनि द्वारा बताये गये नियमों का पालन करते हुये मुख पूर्वक जीवन यापन करने लगे । पंचम सर्ग एक दिन प्रातः काल सुदर्शन जिनदेव का पूजन करके लौट रहा था। मार्ग में कपिला ब्राह्मणी ने उसको देखा। सुदर्शन के तेजस्वी स्वरूप को देखकर उसका मन स्थिर न रह सक। । ग्रतएव उसने सुदर्शन को छल से बुलाने का निश्चय किया। उसकी दासी सुदर्शन के समीप गई और उससे बोली कि हे महापुरुप ! तुम यहाँ निश्चिन्त हो; लेकिन तुम्हारा मित्र अस्वस्थ हो रहा है। दासी की बात सुनते ही मित्र को देखने की इच्छा से सुदर्शन दासी के साथ कपिला ब्राह्मणी के घर पहुँचा । दासी के दिशा-निर्देश से वह भवन के उस कक्ष में गया जहाँ कपिला ब्राह्मणी लेटी थी । सुदर्शन के कुशल समाचार पूछने पर कपिला ने रतिचेष्टायुक्त मधुरवाणी में स्वागत करते हुये उसका हाथ पकड़ लिया। सुदर्शन अपने पुरुष मित्र के स्थान पर एक रतिकामा स्त्री को देखकर बहुत घबराया । किन्तु उसने अपने को नपुंसक बताकर कपिला ब्राह्मणी से पीछा छुड़ाया और शीघ्रता से घर लौट माया । षष्ठ सर्ग जन-जन के मन को लुभाने वाले ऋतुराज वसन्त का आगमन हुआ । चम्पापुरी के सभी निवासी प्राकृतिक सुषमा और कोयल के पंचम स्वर से प्राकृष्ट Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकयि ज्ञानसागर के काव्य-एक अध्ययन होकर वनविहार हेतु एक उद्यान को प्रस्थित हुए। उद्यान में रानी अभयमती भी पहुँबी । उसी समय सुदर्शन की पत्नी मनोरमा भी अपने पुत्र को लेकर उद्यान में माई । तब उसको देखकर वहां पर प्राई हुई कपिला ब्राह्मणी ने रानी से उसका परिचय पूंछा। रानी से सुदर्शन को पुत्रवान् जानकर कपिला ने कहा कि सुदर्शन तो नपुंसक है। यह पुत्र उसका कैसे हो सकता है ? पर जब रानी को कपिला की बात का विश्वास नहीं हुआ तो उसने अपने साथ घटित पूर्ण वृत्तान्त रानी को कह सुनाया, जिसे सुनकर रानी ने कहा कि कपिला, सुदर्शन ने झूठ कह कर तुझे धोखा दिया है । इस पर कपिला ने रानी को ही चुनौती दे दी कि वही सुदर्शन को वश में कर दिखाए। कपिला की चुनौती ने रानी के मन में सुदर्शन के प्रति कामभाव जागरित कर दिया । फलस्वरूप वह सर्वत्र ही कल्पना में सुदर्शन के ही दर्शन करने लगी और निरन्तर कुश होती गई। रानी की दशा देखकर दासी एक दिन पूंछ बैठी तो रानी ने अपनी मनोव्यथा का सही-पही कारण उसे बता दिया । दासी ने रानी को समझाया कि उसे राजा के अतिरिक्त अन्य किसी भी पुरुष से कामजन्य स्नेह नहीं करना चाहिए। पर रानी के ऊपर उसका कुछ भी प्रभाव नहीं हुआ । वह बोली कि तू मेरे दुःख को नहीं समझ रही है । स्त्री तो भोग्या होती है। उसे एकान्तता पर नहीं, वरन् अनेकान्तता पर ही विश्वास रखना चाहिए। और अवसर पाते ही बलवान् पुरुष के साथ रमण कर लेना चाहिए। प्रतः तू उपदेश बन्द कर पोर सुदर्शन को यहाँ लाने का प्रबन्ध कर। रानी को ऐसी हठपूर्ण बातों को सुनकर दासी ने सोचा कि यह मेरी स्वामिनी हैं और मैं इनकी दासी हैं। अतः इनको उपदेश देने में में समर्थ न हो सफेंगी। फिर सेवक को तो स्वामी की प्राशा का हरसंभव उपाय से पालन करना ही उचित है । उसने मन में विचार किया कि सदर्शन अहमी एवं चतुर्दशी की रात्रि में श्मशान में प्रतिमावत में ध्यानशील होते हैं। प्रतः इस अवस्था में उन्हें पूजा हेतु मिट्टी के पुतले के बहाने रनिवास में लाया जा सकता है। सप्तम सर्ग रानी की दासी ने मनुष्य की प्राकृति वाला मिट्टी का एक पुतला बनवाया, रात्रि हो जाने पर उसे वस्त्र से अच्छी तरह ढंककर पीठ पर सादकर अन्तःपुर में प्रवेश करने का ज्योंही प्रयत्न किया त्योंही द्वारपाल ने उसे बीच में ही रोक दिया। तब दासी ने द्वारपाल से निवेदन किया कि रानी अभयमती एक व्रत कर रही है, जिसमें उन्हें मनुष्य के पुतले को पूजना है। यह पुतला मैं इसी उद्देश्य से भीतर ले जा रही हूं। अत: मुझे जाने दो। द्वारपाल ने दासी की एक न सुनी पोर मन्दर पाती हुई दासी को धक्का देकर बाहर किया तो उसकी पीठ पर रखा हुमा 'पुतला' Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत काव्य-ग्रन्थों के संक्षिप्त कथासार गिरकर टूट गया। इस पर दासी ने जोर-जोर से रोना धीर द्वारपाल को प्रपशब्द कहना प्रारम्भ कर दिया। द्वारपाल भी रानी के भय के कारण दासी से क्षमायाचना करने लगा मौर उसने उसे प्रन्दर जाने की अनुमति दे दी। इस प्रकार द्वारपाल की प्रोर से निश्चिन्त होकर चतुरा दासी सुदर्शन को राजमहल में पहुंचाने के लिए प्रतिदिन पुतले लाने लगी । एक दिन कृष्णपक्ष की चतुर्दशी की रात्रि में सुदर्शन श्मशान में ध्यानावस्था में बैठा था । दासी वहाँ पहुँच गई और सुदर्शन को अकेला पाकर प्रत्यन्त हर्षित हुई। पहले तो उसने सुदर्शन को रानी के सहवास हेतु प्रेरित एवं उत्तेजित किया; पर जब सुदर्शन की प्रोर से कुछ भी प्रतिक्रिया नहीं हुई तो उसने उन्हें उसी ध्यानदशा में अपनी पीठ पर लाद लिया और रोज की भाँति प्रन्तःपुर में पहुँचकर रानी के पलंग पर उन्हें बिठा दिया । सुदर्शन को अपने समीप पाकर रानी बहुत ही प्रसन्न हुई । उसने अपने वचनों से सुदर्शन को उत्तेजित करने का बहुत प्रयत्न किया । श्रनेक प्रकार की स्पष्ट काम - चेष्टाएं भी कीं, जिनसे सुदर्शन का ध्यान तो टूटा पर बैराग्यभावना धौर भी अधिक ढ़ हो गई । फलस्वरूप उनके ऊपर रानी की कामचेष्टाओं का कुछ भी असर नहीं हुआ । अपनी चेष्टानों को निष्फल देखकर प्रत्यन्त निराश रानी ने दासी से कहा कि इसे बाहर कर दो। पर दासी ने समझाया कि इस प्रकार इसे बाहर ले जाने में भेद खुल जाने का भय है । अतः इसके परित्याग के लिए 'त्रियाचरित' का प्रयोग उचित होगा । यह सुनकर रानी जोर-जोर से चिल्लाकर कहने लगी कि भरे द्वारपालो दौड़ो, जल्दी प्राम्रो, कोई दुष्ट यहीं घुस आता है, मौर मुझे सताना चाहता है; जल्दी प्राम्रो प्रादि आदि । रानी की पुकार को सुनकर द्वारपाल शीघ्रता से अन्दर प्राये प्रोर सुवर्शन को पकड़कर राजा के सामने ले गये। सेवकों के मुंह से समस्त वृत्तान्त सुनकर राजा ने सुदर्शन का मुंह देखना भी पसन्द नहीं किया प्रौर उसे चाण्डाल के हाथों सौंप दिया । हम सगं सुदर्शन सम्बन्धी उक्त घटना जब नगरवासियों के कानों में पड़ी तो लोग तरह-तरह की बातें करने लगे। कुछ लोग कहने लगे कि यह तो बड़ी रहस्यमय घटना है; श्मशान में स्थित सुदर्शन प्रन्तःपुर में कैसे प्रविष्ट हुमा ? कुछ लोगों ने कहा कि सुदर्शन ऐन्द्रजालिक है तथा कुछ लोगों ने कहा कि यह राजा का षडयन्त्र प्रतीत होता है । सुदर्शन को जब चाण्डाल के यहाँ पहुँचा दिया गया, तब राजा द्वारा चाण्डाल को, सुदर्शन का वध करने का प्रादेश हुप्रा । पर चाण्डाल ने जैसे ही Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य- एक अध्ययन सुदर्शन के गले में तलवार का प्रहार किया, वैसे ही वह प्रहार, हार बनकर सुदर्शन के गले में सुशोभित होने लगा । यह वृत्तान्त जब राजा को ज्ञात हुआ तो वह क्रुद्ध होकर स्वयं ही सुदर्शन को मारने के लिये उद्यत हो गया। लेकिन जैसे ही उसने सुदर्शन को मारने के लिए तलवार हाथ में ली, वैसे ही प्राकाशवाणी हुई कि - ' यह अपनी स्त्री मनोरमा से ही परमसन्तुष्ट, जितेन्द्रिय तथा सब प्रकार से निर्दोष है। दोषी तो तुम्हारे ही घर का है । प्रतएव उचित प्रकार से दोषी का निरीक्षण करो । इस प्राकाशवाणी को सुनते ही राजा का सम्पूर्ण मोह नष्ट हो गया । वह सुदर्शन की भांति-भांति से स्तुति करके, उसके चरण पकड़कर अपने स्थान पर उसी से राज्य करने का निवेदन करने लगा । राजा की बात को सुनकर सुदर्शन ने कहा- 'राजन् मेरे प्रति जो कुछ भी हुआ है, उसमें प्रापका कोई दोष नहीं है। यह तो सब मेरे पूर्वोपार्जित कर्मों का फल है । भाप तो मुझ अपराधी को दण्ड ही दे रहे थे, जो आपके लिए उचित था । किन्तु मैं किसी को भी अपना शत्रु या मित्र नहीं समझता हूँ। इसलिए इस घटना का मुझपर कोई प्रभाव नहीं पड़ा है। महारानी और श्राप तो मेरे माता-पिता हैं । श्रतः प्रापने मेरे साथ यथोचित व्यवहार किया है। मैं तो समझता हूँ कि प्रत्येक पुरुष को चाहिए कि वह मोक्षप्राप्ति हेतु धेय्यंयुक्त होकर मद-मात्सर्य का परित्याग करे । प्राणी स्वानुभूति विषयक सुख-दुःख का स्वयं उत्पादक है । अन्य कोई उसे न तो सुख देता है और न दुःख । प्रतएव मनुष्य को सुखः दुःख में एक सी अवस्था धारण करनी चाहिए । सुख श्रात्मा की अनुभूति का विषय है । वह राज्य प्राप्त करके नहीं मिल सकता । अतएव राज्य तो श्राप स्वयं करें। मुझे तो अब केवल मोक्ष की चिन्ता करनी है । इस घटना के धनन्तर सुदर्शन ने वैराग्य लेने का निश्चय कर लिया। घर जाकर अपना यह निश्चय उसने मनोरमा को भी सुनाया। उसने विचार किया कि विष्णु भोर शंकर को भी डिगाने वाली, सज्जनता का विनाश करने वाली, पापोत्पादक इस सांसारिक माया का परित्याग करना ही चाहिए। मनोरमा ने उसकी इच्छा का समर्थन करते हुए स्वयं भी उसी के मार्ग का अनुसरण करने की इच्छा प्रकट कर दी। मनोरमा के वचन सुनकर, सुदर्शन ने जिनालय में जाकर प्रसन्नतापूर्वक भजन-पूजन प्रोर भगवान् का अभिषेक किया और वहीं पर स्थित विमलवाहन नामके योगीश्वर के दर्शन किए। योगीश्वर को भक्तिपूर्वक प्रणाम करके, उनकी हार्दिक स्वर से स्तुति करके सुदर्शन वहीं दिगम्बर मुनि बन गया। मनोरमा ने भी सर्वपरिग्रह का परित्याग करके प्रार्बिका व्रत को मपना लिया । Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-काव्य-ग्रन्थों के संक्षिप्त कथासार वास्तविकता सामने मा जाने पर रामी अभयमती ने प्रात्महत्या कर ली। मर कर कह पाटलिपुत्र में 'व्यन्तरी१ देवी हो गई । रानी के मात्महत्या कर लेने पर पण्डिता दासी भी चम्पापुरी से भागकर पाटलिपुत्र की प्रसिद्ध वेश्या,-देवदत्ता के पास पहुंची। उसने वेश्या को सारा हाल सुनाकर वेश्या से भी सुदर्शन को विपित करने के लिए कहा। नवम सर्ग दिगम्बर मुनि हो जाने पर सुदर्शन घोर तपश्चरण करते हुए पाटलिपुत्र पहुँचे। वहां घूमते सुदर्शन को देखकर पण्डिता दासी ने देवदत्ता वेश्या को उकसाया। फलस्वरूप उस वेश्या ने सुदर्शन को अपने घर बुलवाया और भनेक प्रकार की काम चेष्टायों से सुदर्शन को वश में करना चाहा। जब उसकी चेष्टायें व्यर्थ हुई तो वह सुदर्शन से बोली कि-'इस अल्पवय में प्रापने यह व्रत क्यों अपनाया है ? परलोक की चिन्ता तो वृद्धावस्था में की जा सकती है। इस समय इस सुन्दर शरीर का. प्रमादर पाप क्यों कर रहे हैं ? वेश्या के इन वचनों को सुनकर मुनिराज सुदर्शन बोले-'यह जो शरीर ऊपर से सुन्दर दिखाई देता है, वह अन्दर तो घृणित पदार्थों से ही भरा हुआ है। नाशवान् शरीर का सख हो प्रात्मा का सुख नहीं है। प्रात्मा को सुख पहुँचाने के लिए शरीर के वशवर्ती नहीं रहना चाहिए । तुम्हारे द्वारा अंगीकृत यह मार्ग पर्वत के समान ऊंचा-नीचा है। तुम इन्द्रिय-विषयों में सुख मानती हो जबकि सुख मात्मा का गुण है, उसका इन्द्रिय विषयों से कोई सम्बन्ध नहीं है।' अपने अनुरागयुक्त वचनों का विरागयुक्त उत्तर पाकर वेश्या सदर्शन को अपनी शय्या पर ले गई और अपने हाव-भाव-तथा मधुर वचनों से सुदर्शन को विचलित करने का प्रयत्न करने लगी। किन्तु सुदर्शन के ऊपर उसकी उन उद्दाम काम चेष्टामों का किचिदपि प्रभाव नहीं पड़ा। इस प्रकार तीन दिन तक भौति-भांति के प्रयत्न करके जब देवदत्ता अपने उद्देश्य में सफल नहीं हुई, तब वह पाश्चर्यचकित होकर सुदर्शन की प्रशस्ति गाने लगी। उनकी जितेन्द्रियता, धीरता, नम्रता, हड़ता और सदाचार की प्रशंसा करती हुई वह बोली-'मोहान्धकार के कारण मैंने मापके प्रति जो अपराध किया है, उसे क्षमा करें और धर्मयुक्त वचनामृत से मेरा कल्याण करें। देवदत्ता के इन वचनों को सुनकर सुदर्शन ने उसे उपयुक्त पाचरण का १. (विशिष्टः मन्तरो यस्य-(स्त्रीलिङ्ग में-यस्याः) ।) पिशाच, यक्ष मादि । - एक प्रकार का प्रतिप्राकृतिक प्राणी ।-वामन शिवराम प्राप्टे कृत संस्कृत हिन्दी कोश-मोतीलाल बनारसीदास वाराणसी, १९६६–में पृ० ९८५ से Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि मानसागर के काव्य--एक अध्ययन स्वरूप बताया भोर समझाया कि पुरुष को जितेन्द्रिय बनने के लिए निम्नलिखित एकादश नियमों का अवश्यमेव पालन करना चाहिए :(नं० एक) पुरुष को उत्तेजक, ममश्य, अनुपसेव्य, त्रसबहुल पदार्थों को नहीं खाना चाहिए। (नं० दो) प्रतिषिसत्कारपरायणता और सदाचार का पालन करना चाहिए। (नं० तीन) माजीवन प्रभात, मध्याह्न भोर सायंकाल में भगवान् का स्मरण करना चाहिए। (नं० गार) प्रत्येक पर्व में विधिसहित उपवास करना चाहिए । (नं. पांच) प्रत्येक पदार्थ कों पकाकर खाना चाहिए । (i• छः) दिन में दो बार से ज्यादा भोजन नहीं करना चाहिए। हो सके तो एक बार ही करें । रात्रि में भोजन नहीं करना चाहिए । (२० सात) काम-सेवन का सर्वथा परित्याग करना चाहिए। (मं० पाठ) इन्द्रिय-विषयों पर नियन्त्रण पांकर पात्मिक गुणों की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए । (नं० नौ) शरीर और प्रात्मा की सत्ता पृथक्-पृथक् स्वीकार करके पूर्वोपार्जित धन इत्यादि का परित्याग करना चाहिए । (न० दश) सांसारिक.कार्यों से मन को हटाकर, सम्पूर्ण समय परमतत्त्व का चिन्तन करना चाहिए। (i• ग्यारह) अपने प्राचार की सिद्धि के लिए मन को लोक-मार्ग में नहीं लगाना चाहिए। सुदर्शन से धर्म का स्वरूप जानकर और शुभाशीर्वाद पाकर, देवदत्ता का तो सारा मोह नष्ट हुमा ही, पण्डिता दासी का भी प्रज्ञान दूर हो गया। प्रतः वे. दोनों ही सुदर्शन से दीक्षा लेकर 'पार्यिका' बन गई। देवरता को उपदेश देकर सुदर्शन भी श्मशान में जाकर मात्मध्यान में लीन हो गए । एक दिन विहार करती हुई व्यन्तरी देवीरूपधारिणी, पात्मघातिनी रानी समयमती ने सुदर्शन को देख लिया। वह कोष में भरकर उनसे अपशब्द कहने लगी। उसने सुवर्शन के साथ निर्दयतापूर्वक व्यवहार किया। किन्तु अपनी बिनश्वर देह के ऊपर होने वाले प्रत्याचार की चिन्ता न करके वह अजर एवं प्रमर मात्मा के प्रति चिन्तन करने लगे। इस अवस्था में सुदर्शन का रहा-सहा भी राग-द्वेष समाप्त हो गया । तत्पश्चात् उन्हें केवल ज्ञान प्राप्त हो गया और सभी बाह्य कर्मों के क्षीण हो जाने से उन्हें मोम भी मिल गया। प्रथम सर्ग भारतवर्ष में श्रीपाखण्ड नामक एक नगर है। प्राचीनकाल में उस नगर में सुबत्त नाम का एक वैश्य निवास करता था। उसकी पत्नी का नाम सुमित्रा था। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकविज्ञानसागर के संस्कृत-काम्य-ग्रन्यों के संक्षिप्त कपासार उन दोनों का सरल स्वभाव वाला मदमित्र नामक एक पुत्र हुमा। एक बार उसके मित्रों ने उसे समझाया कि वैश्यों को व्यावसायिक वृत्ति वाला होना चाहिए; अपनी आजीविका को चिन्ता पुरुष को स्वयं करनी चाहिए। प्रतएव जीवन-यापन हेतु, धनार्जन करने के लिए हमें रत्न-द्वीप जाना चाहिए । उन्हीं मित्रों में से एक मित्र ने इस सम्बन्ध में एक कथा भी सुनाई, जो इस प्रकार है : वित्तीय सर्ग भारतवर्ष के मध्य में सुन्दर, उच्च-शिखरों वाला, विजयाच पर्वत है। पर्वत के उत्तर में भूमि को पलंकन करने वाली अलका नाम की नगरी है।। एक समय उस नगरी में प्रत्यन्त यशस्वी, महाकच्छ नामक राजा राज्य करता था। उसकी रानी का नाम दामिनी वा मोर पुत्री का नाम प्रियङगुश्री था। जब वह पुत्री युवती हुई तो राजा को उसके विवाह की चिन्ता हुई। एक ज्योतिषी ने बताया कि 'सुशील स्वभाव वाली प्रियङगुश्री का . विसाह स्तम्बकगुच्छ के महादानी राजाधिराज ऐरावण के साथ होगा। यह सुनकर महाकच्छ ने स्तबक गुच्छ नगरी के राजा ऐरावण की परीक्षा ली और अपनी पुत्री के लिए उसे योग्य समझकर, उससे अपनी कन्या के साथ विवाह करने का निवेदन किया। ऐरावण ने स्वीकृति दे दो और प्रियंगुश्री को स्तबकगुच्छ में लाने के लिए कहा। राजा महाकच्छ प्रियङ्गुश्री को अलकापुरी से स्तबक गुच्छ ला रहा था, मार्ग में प्रियङ्गुश्री से विवाह करने के इच्छुक वज्रसेन नामक एक अन्य पुरुष से उसकी मुठभेड़ हो गई। यह बात ऐगवरण के कानों में भी पहुँच गई। उसने शीघ्रता से प्राकर वज्रसेन को पराजित किया और प्रियङगुश्री के साथ विवाह कर लिया। वज्रसेन ने निराश होकर, जिनदीक्षा लेकर, ऊपरी मन से तपस्या करनी शुरू कर दी। एक बार ताश्चरण के मध्य ही जब वह स्तबकगुच्छ नगर पहुंचा तो वहां के लोगों ने उसे डंडों से खूब पीटा। फलस्वरूप क्रोधित होकर वनसेन ने अपने बाये कन्धे से निकले तेजस पुतले से सारे नगर को जला दिया। स्वयं भी जलकर भस्म हो गया और नरक पचा। प्रतएव वज्रसेन के समान दूसरों को मिली वस्तुप्रों पर प्रधिकार जमाने की इच्छा नहीं करनी चाहिए। तृतीय सर्ग मित्र द्वारा कथित कथा से भद्रमित्र बहुत प्रभावित हमा। मित्रमण्डली को छोड़कर वह घर पहुंचा और दूसरे देश जाने के लिए पिता से प्राज्ञा मांगी। पिता ने उत्तर दिया--'मेरी तो स्वयं की इतनी अधिक माय है कि तुम्हें धनार्जन करने की कोई आवश्यकता ही नहीं। फिर तुम मेरे एकमात्र पुत्र हो, इसलिए तुम्हारा जाना मेरे लिए कष्टप्रद होगा।' Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य- एक प्रध्ययन भद्रमित्र के बहुत प्राग्रह करने पर पिता ने कहा - 'तुम्हारा जाना मैं तो फिर भी सहन कर लूंगा, पर तुम्हारी माता को यह कैसे सहन होगा ? पिता की बात सुनकर भद्रमित्र माता के समीप धनुमति प्राप्त करने के लिए गया । अपने एकमात्र पुत्र का विदेश जाना सुनकर पहले तो भद्रमित्र की माता विचलित हुई; किन्तु भद्रमित्र को दृढ़ विचार वाला जानकर माता को अनुमति देनी ही पड़ी । ૪૬ माता-पिता से अनुमति पाकर भद्रमित्र अपने साथियों सहित रत्नद्वीप पहुँचा प्रोर वहाँ उसने सात रत्न प्राप्त किये। इसके पश्चात् भद्रमित्र सिंहपुर पहुँचा । उस समय सिंहपुर में सिंहसेन राजा राज्य करता था। राजा की पत्नी का नाम था रामदत्ता । राजा के मंत्री का नाम श्रीभूति था, जिसने प्रपनी झूठी सत्यवादिता का समाचार चारों ओर फैला रखा था। उसने अपने गले में एक छुरी इसलिये बाँध रखी थी कि यदि कभी उसके मुंह से असत्य बात निकली तो वह उसी छुरी से श्रात्महत्या कर लेगा । अपने इस झूठे गुण के कारण ही राजा से उसने 'सत्यघोष' नाम भी पा लिया था । सिंहपुर पहुँचकर भद्रमित्र का परिचय इसी सत्यघोष मन्त्री से हुप्रा । भद्रमित्र ने सत्यघोष को बहुत सा पुरस्कार देकर उससे अपने माता-पिता को सिंहपुर में ही बसाने की श्राज्ञा माँगी । सत्यघोष ने श्राज्ञा दे दी । भद्रमित्र अपने सातों रत्न सत्यघोष को सौंपकर माता-पिता को लेने चला गया । सिहपुर लोटकर भद्रमित्र ने सत्यघोष से अपने रत्न माँगे तो उसने यह स्वीकार ही नहीं किया कि भद्रमित्र उसे रत्न सौंप गया था। जब भद्रमित्र ने प्रक प्रकार से अपनी बात को प्रमाणित करने की चेष्टा की, तो पहरेदारों ने उसे पागल कहकर बाहर निकाल दिया । सत्यघोष के प्रभाव के कारण राजदरबार में भी किसी ने उसकी बात नहीं सुनी । निराश होकर भद्रमित्र एक निश्चित समय पर, वृक्ष पर चढ़कर सत्यघोष की झूठी कीति की निन्दा करता था और उसकी प्रतिष्ठा नष्ट होने का शाप देसर या 1. Q उसके विलाप की रानी ने भी सुना, तो राजा से उसने कहा कि यह पुरुष जो सत्यघोष की निन्दा करता है, उसका कारण पागलपन नहीं, अपितु सत्यघोष से सम्बन्धित कोई रहस्य है । प्रतएव रहस्योद्घाटन होना चाहिए। मैं वास्तविकता को जानना चाहती हूँ । इस काम की सिद्धि के लिए प्राप राजदरबार लगाकर वहीं बैठें | सुजा के जाने के बाद, अनायास ही उपस्थित हुए सत्यघोष को रानी ने श्रादरसहित शतरंज खेलने के लिए ग्रामन्त्रित किया। अपनी बालों से उसे भुलाने में Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-काव्य-ग्रन्यों के संक्षिप्त कथासार में डालकर रानी ने उससे यज्ञोपवीत, छुरी और मुद्रिका तीनों वस्तुएं जीत लीं। रानी ने दासी को बुलाकर तीनों वस्तुएं उसे सौंपकर प्रादेश दिया कि मन्त्री के घर जाकर मन्त्री की पत्नी को ये तीनों वस्तुएं सौपकर भद्रमित्र की रत्नों की पोटली ले पा । दासी ने मन्त्री के घर जाकर मन्त्री की तीनों वस्तुएं उसकी पत्नी को सौंपकर भद्रमित्र की रत्नों की पोटली प्राप्त कर ली और लाकर रानी को सौंप दी। चतुर्थ सर्ग रानी ने वे रत्न राजा को सौंप दिए। राजा ने भद्रामित्र की परीक्षा लेने के लिए उन रत्नों में और भी रत्न मिला दिए। किन्तु भद्रमित्र ने रत्नसमूह में से मरने सात रत्नों को छाँट कर उठा लिया। राजा ने भद्रमित्र का सत्याचरण देखकर उसे राजश्रेष्ठो बना दिया। साथ ही दुष्ट सत्यघोष को कठोर दण्ड देकर अपदस्थ कर दिया। उसके स्थान पर धम्मिल्ल नामक पुरुष को मन्त्री पद दे दिया। फलस्वरूप सत्यघोष ब्राह्मण ने प्रात्महत्या कर ली, वह मर कर सर्प हमा। राजसेठ बन जाने के बाद, भद्रमित्र ने प्रासनाभिधान वन में रुके. वरपर्म नामक मुनिराज के दर्शन किए। उनके उपदेश से, उसके सन्तोष में वृद्धि होने लगी । फलस्वरूप वह अपनी सम्पत्ति का अतिशय दान करने लगा । अपनी लोभी मां के रोकने पर भी उसकी दानशीलता में कोई कमी नहीं हुई । उसके दानशील स्वभाव से रुट होकर उसकी माता ने प्राण त्याग दिए; वह मरकर व्याघ्री हुई। एक दिन इसी व्याघ्री ने भद्रमित्र को खा लिया। तत्पश्चात भद्रमित्र ने रानी रामदत्ता और राजा सिंहसेन के पुत्र (सिंहचन्द्र) के रूप में जन्म लिया। सिंहचन्द्र का एक छोटा भाई पूर्णचन्द्र था! एक दिन जा सिहसेन अपने खजाने में रत्न इत्यादि को संभालकर जैसे ही वाहर आया, वैसे ही भण्डार के सर्प (सत्यघोष) ने राजा के प्राण हर लिए । राजा मर कर प्रशनिघोष नाम का हाथी हुमा; और सर्प (सत्यघोष) नगर के समीपस्थ वन में चमरमग हुना।। राजा को मत्यु हो जाने पर शोक-विहला रानी ने, दान्तमति पौर हिरण्यवती नामक दो प्रायिकानों के कहने से प्राधिका धर्म स्वीकार कर लिया। तदनन्तर सिंहचन्द्र राजा और पूर्णचन्द्र युवराज हुमा। राज्य में आए हुये पूर्णविधि मुनि को देखकर सिंहचन्द्र उनके समीप बाकर मुनि बन गया। ___ एक दिन सिंहचन्द्रमुनि मनोहर वन पहुंचे। वहां रामदत्ता प्रायिका भी : पहुँची; पौर सिंहचन्द्र से उसने निवेदन किया कि, - 'हे मुनिराज ! भापका छोटा भाई और मेरा पुत्र-जो इस समय भोगविलास में लिप्त है-कभी धर्माचरण करेगा या नहीं ? ... माता की बात सुनकर हिचन्द्र ने कहा कि-'जब उसको अपने पूर्वजन्म Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Y5 महाकवि ज्ञानसागर के काव्य-एक अध्ययन का वृत्तान्त ज्ञात होगा, तब वह धर्मपालन के लिये प्रयत्नशील होगा। प्रब पाप मुझसे उसके पूर्वजन्म का वृत्तान्त सुनें और जब उसके पास जाएं तो उसे सुनाए । सिंहचन्द्र ने कहा-भरतक्षेत्र के कौशल देश के मध्य में वृद्ध नाम का एक गांव है । उसमें मगायण ब्राह्मण और उसकी पत्नी मधुरा निवास करते थे । उसको पुत्री का नाम था-वारुणो । वह मगायण मरकर प्रयोध्या की राजमहिषी सुमित्रा को हिरण्वती नाम की पुत्री के रूप में उत्पन्न हुमा। युवती हो जाने पर उसका विवाह पोदनपुर के राजा पूर्णचन्द्र के साथ हुआ। मृगायण ब्राह्मण को स्त्री मधुरा ने पूर्णचन्द्र की पुत्री रूप में जन्म लिया। मैं ही पूर्वजन्म में भद्रमित्र था। पूर्वजन्म में जो प्रापकी वारुणी नाम की लड़की थी, उसी ने मापके यहां पूर्णचन्द्र के रूप में जन्म लिया। आपके पिता पूर्णचन्द्र भद्रबाहु नामक श्रीगुरु के समीप में मुनि बने; और मैं उन्हीं पूर्णचन्द्र के समीप में मुनि हुमा। दान्तमति प्रायिका के पास, प्रापकी माता भी प्रायिका बन गई। आपके स्वामी राजा सिंहसेन मरकर अशनिघोष हाथी हुये । एक दिन वह प्रशनिघोष मुझे मारने पाया तो मैंने उसे समझाकर प्रात्मोद्धारक व्रत करने को कहा। एक बार व्रत की पारणा के लिए वह नदी में गया, तो वहां कीचड़ में फंस गया, वहाँ से वह नहीं निकल सका। धर्मभावना से प्रेरित होकर उसने समाधि ले ली। सत्यधोष का जीव सर्प होकर फिर चमरमग हुप्रा था। मरकर वह पुनः सर्प हुमा। उसी सर्प ने अश निघोष के मस्तक पर काट लिया। प्रशनिधोष मरकर सहस्रार स्वर्ग के रविप्रभ विमान में श्रीधर नामक देव हमा। पम्मिल मन्त्री के जीव, बन्दर ने उस सर्प को मार दिया। प्रशनिघोष हाथी के मस्तक से मोती और दांत निकालकर, ब्याध ने धनमित्र सेठ को बेच दिए । सेठ ने उन्हें वर्तमान राजा पूर्णचन्द्र को दे दिया।" पंचम सर्ग सिंहचन्द्र के पूर्ववृत्तान्त सुनाने पर राप्रदत्ता, पूर्णचन्द्र के पास मायो और उससे बोली कि,-- 'तू भोगों में लिप्त होकर मनुष्य जन्म का दुरुपयोग कर रहा है। भोगलिप्सा के परिणामस्वरूप पुरुष या तो नरक में जाता है या फिर पशुयोनि में पहुंच जाता है । मनुष्य को भोगमय जीवन बिताने की अपेक्षा त्यागमय जीवन विताना ज्यादा अच्छा होगा। साथ ही रामदत्ता ने पूर्णचन्द्र द्वारा सुनाया गया वृत्तान्त भी सुना दिया। रामदत्ता का उपदेश सुनकर पूर्णचन्द्र भगवान् महन्त का पूजन करता हुमा Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-काव्य-ग्रन्थों के संक्षिप्त कथासार गृहस्थ धर्म का पालन करने लगा। अपराधियों को दण्ड देने और निरपराषों को प्रमय देने के विषय में वह सावधान रहने लगा। रामदत्ता प्रायिका ने अन्त में योगसमाधि द्वारा अपने शरीर को त्यागा। फलस्वरूप स्वर्ग पहुंचकर सोलह सागर की प्रायु वाले भास्कर देव के रूप में स्वगिक सुख भोगने लगी। राजा पूर्णचन्द्र भी प्रायु के अन्त में महाशुक्र नामक दसवें स्वर्ग में जाकर वैड नामक विमान का प्रधिपति सोलह सागर की आयु वाला हुअा। मुनिरा न सिंहबन्द्र ने कठिन तपस्या की। अतएव वह मन्तिम ग्रेवेयक नामक स्वर्ग में प चकर इकतोस सागर की प्रायु वाला अहमिन्द्र हुमा। . विजयाई शेल के दक्षिण में स्थित धरणोतिलक नगर का राजा प्रादित्यवेग था। उस राजा की रानी का नाम था मुलभरणा। रामदत्ता के जीव भास्करदेव ने इन दोनों की पुत्री यशोधरा के रूप में जन्म लिया। __उसी समय अलकापुरी में दर्शक राजा राज्य करता था। दर्शक के साथ श्रोधरा का विवाह हुमा। राजा पूर्णचन्द्र का जीव वैडूर्य विमान का प्रधिपति हमा । श्रीधरा और दर्शक को यशोधरा नाम की पुत्री हुई। भास्कर के राजा सूर्यावर्त के साथ यशोधरा का विवाह हुमा। सिंहमेन गजा का जीव श्रीधरदेव इन दोनों का पुत्र रश्मिवेग हुग्रा।। सूर्यावर्त ने राज्य रश्मिवेग को सौंप दिया और स्वयं मुनि हो गया। यशोधरा ने मार्यिका होना स्वीकार किया। पुत्री को प्रायिका बनती हुई देखकर श्रीषरा भी प्रायिका हो गई । एक दिन रश्मिवेग सिद्धकूट जिन-मन्दिर में पूजन करने के लिए गया। वहां वह मुनिराज हरिश्चन्द्र के दर्शन करके अत्यन्त प्रसन्न हुआ। मुनि को प्रणाम करके उसने उनसे धर्मोपदेश सुना । मुनि के उपदेशों से प्रभावित होकर वह योगी बन गया। तपश्चरण करने से उसका सम्पूर्ण कल्मष धुल गया। अन्त में वह योगसाधना करके कंचनगिरि पहुंचा। एक दिन उसकी वन्दना देतु श्रीपरा पोर यशोधरा भी वहाँ पाई। इस समय तक सत्यघोष के जीव ने अजगर की योनि में जन्म ले लिया था। उसने कंचनगिरि में रश्मिवेग, श्रीधरा पोर यशोधरा.को खा लिया। ये तीनों तो चौदह सागर को प्रायु प्राप्त करके कापिष्ठ स्वर्ग के देव हये। अजगर मरकर पंकप्रभ नरक में पहुंचकर दु:सह कष्ट भोगने लगा। षष्ठ सर्ग भरतक्षेत्र में चक्रपुर नाम का नगर है। किसी समय उस नगर में अत्यन्त प्रतापी राजा अपराजित राज्य करता था। उस रामा की रानी इन्द्राणी के समान सोन्दर्यवती, सुन्दरी नाम की थी। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य - एक अध्ययन सिचन्द्र का जीव इन दोनों का पुत्र चक्रायुध हुप्रा । जब वह युवक हुप्रा तो उसका संयोग चित्रमालाप्रधान पांच हजार बालाओों से हुया । रश्मिवेग ने .चित्रमाला के वज्रायुध नामक पुत्र के रूप में जन्म लिया । ५० उस समय प्रतिवेग नामक राजा विद्याधरों का स्वामी और पृथ्वीतिलक का शासक था। उसकी रानी का नाम था प्रियकारिणी । श्रीधरा के जीव ने इन दोनों की पुत्री रत्नमाला के रूप में जन्म लिया। जब वह बालिका युवती हुई तो उसके पिता ने उसका विवाह वज्रायुध राजकुमार के साथ कर दिया । यशोधरा के जीव ने रत्नमाला और वज्रायुध के पुत्र रत्नायुध के रूप में जन्म लिया । इस प्रकार चक्रायुध का समय बीत ही रहा था कि उसके उद्यान में पिहिताश्रव नामक मुनि का ग्रागमन हुआ। राजा अपराजित ने जब उनका दर्शन किया और अपने पूर्वजन्म का वृत्तान्त सुना तो उसके मन में वैराग्य श्रा गया । श्रतः सत्र कुछ त्याग कर वह दिगम्बर बन गया । पराजित के पश्चात् चक्रायुध ने राजसिंहासन प्राप्त किया । वह नराधिपश्रेष्ठ, प्रजावत्सल, सत्यवादी, न्यायप्रिय, चतुर, प्रतुलित पराक्रमी मौर धार्मिक था । सप्तम सर्ग एक दिन दर्पण में मुख देखते समय राजा चक्रायुध ने एक सफेद बाल अपने मस्तक पर देख लिया। तब वृद्धावस्था का आगमन जानकर वह विचार करने लगा कि शरीर का सौन्दर्य प्रस्थिर है। मनुष्य जानता है कि काल के प्रहार से कोई प्राणी नहीं बच सकता, फिर भी वह भोग-विलासों में डूबा रहता है। शरीर और आत्मा अलग-अलग हैं। मनुष्य उन्हें एक समझने की भूल करता शरीर के सुख की अपेक्षा, ग्रात्मा का सुख अधिक महत्वपूर्ण है । क्योकि शरीर नश्वर है, आत्मा अविनाशी है । प्रतएव अब समय को नष्ट न करके भगवान् 'अर्हन्त' में मन को लगाना चाहिए । 1 'इन्हीं पूर्ण बातों को सोचते हुये उसने अपने पुत्र वज्रायुध को सम्पूर्ण राज्य का भार सौंप दिया और मुनि बनने के लिए वन को प्रस्थान किया । वन में जाकर वह अपने पिता मुनिराज अपराजित की शरण में पहुंचा। उन्हें पाकर वह हर्षित हुआ। उनको प्रणाम करके उसने उनसे धर्मोपदेश के लिए इच्छा व्यक्त की। साथ ही संसार से श्रावागमन के कारण को जानने और उससे मुक्ति पाने के उपाय के प्रति जिज्ञासा प्रकट की । अष्टम सगं अपराजित मुनिराज ने राजा चक्रायुध को जैनधर्मानुसार धर्माचरण का उपदेश दिया । अपराजित मुनि के उपदेश से प्रभावित चक्रायुध ने सर्वस्व त्यागकर मुनिवेश धारण कर लिया । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-काव्य-ग्रन्थों के संक्षिप्त कथासार नवम सर्ग मुनि हो जाने पर चक्रायुध ने बाह्य वस्तुमों का परित्याग कर दिया। मयूरपिच्छी और कमण्डलु को भी उदासीन भाव से रखा। सत्य, क्षमा, अहिंसा और ब्रह्मचर्य का पालन किया । प्रात्मध्यान में अपने को रमाया । नाशवान् शरीर की चिन्ता छोड़कर नित्यप्रति उपवास किये । रागद्वेष से मन विमुक्त कर दिया। अन्त में, उसको कैवल्य ज्ञान प्राप्त हो गया। अपने सामीप्य से अपने पास-पास के वातावरण को पाप से सर्वथा रहित कर दिया। (ङ) दयोदय चम्पू का संक्षिप्त कथासार प्रथम लम्ब प्रार्यावर्त के मालव नामक देश में उज्जयिनी नामक नगरी है। एक समय उस नगरी में वषभदत्त नाम का राजा राज्य करता था। उसकी रानी का नाम वृषभदत्ता था। वृषभदत्त के ही शासन काल में गुणपाल नाम का अति वैभवशाली राजसेठ था। उसकी पत्नी का नाम गुणश्री था। उनकी विषा नाम की एक पुत्री यो। ___एक बार गुणपाल ने भोजन करने के पश्चात् जूठे बर्तनों को द्वार पर डाल दिया । उमो समय एक सुन्दर बालक उन पात्रों में पड़ी हुई जूठन खाकर प्रपनी भूख मिटाने लगा। ऐसे समय में एक मुनि अपने शिष्य के साथ वहां से निकले । मुनि ने अपने शिष्य के समक्ष 'यह बालक गुणपाल का जामाता होगा-' ऐसी माश्चर्यजनक भविष्यघोषणा कर दी। मुनि ने यह भी बताया कि 'यह इसी नगर के सार्थवाह श्रीदत्त की पत्नी श्रीमती के गर्भ से जन्मा है; किन्तु पूर्वजन्म में किये गये पापों के फलस्वरूप यह इस समय अपने माता-पिता के स्नेह से वंचित है।' शिष्य के जिज्ञास होने पर मुनि ने उस वालक का पूर्ववृत्तान्त सुनाया : प्रवन्ती प्रदेश में शिप्रा नामक नदी के तट पर शिशपा नामक छोटी सी वस्ती है। उसमें मगसेन नामक एक धीवर रहता था। उसके माता-पिता का नाम भवश्री पौर भवदेव था तथा उसकी पत्नी का नाम घण्टा था। एक दिन वह मछलियां पकड़ने जा रहा था । मार्ग में उसने पार्श्वनाथ के मन्दिर में जनसमूह से घिरे हुए एक अहिंसकोपदेशक दिगम्बर साधु को देखा। उस साधु के अहिंसापरक व्याख्यान से प्रभावित होकर उसने मुनि के चरणों को पकड़कर अपने पापमय जीवन से उद्धार हेतु उपाय पूछा। मुनि ने उसे समझाया कि तुम यह नियम बना लो कि मछलियां पकड़ते समय, जो मछली सबसे पहने जाल में फंसे, उसे छोड़ देना है । धीवर ने इस बात को सहर्ष स्वीकार कर लिया। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य --- एक अध्ययन द्वितीय लम्ब मुनि के उपदेश को मन में धारण करते हुए मृगसेन घीवर शिप्रा नदी के तट पर पहुँचा और उसने नदी के जल में अपना जाल बिछा दिया। पहली बार उसके जाल में एक रोहित मछली फंसी; उसे उसने चिह्नित करके नदी में छोड़ दिया। लेकिन जब-जब वह जाल फैलाता, तब-तब वही मछली उसके जाल में फंस जाती और अपनी प्रतिज्ञानुसार वह उग मछली को पानी में छोड़ता जाता। जब बार-बार प्रयत्न करने पर भी वही मछली फंगो तो वह किंकर्तव्यविमूढ़ हो. गया । एक पोर अहिंसाव्रत का पालन करना या; ग्रोर दुर्ग मोर स्त्री-पुत्रादिकों के भरण-पोषरण का प्रश्न था । अन्त में वह निराश होकर खाली हाय हो कर बन्न पड़ा । पति को देखकर घण्टा ने विलम्व का और स्वाली हाय माछा : पत्नी के पूछने पर घीवर ने मर्ग बनान मोर मायु पृरुप के समान आचरण करने के अपने दृढ़ निश्चय में भी सेवन कर दिया । घण्टा धीवरी ने कहा कि गहस्थ होकर मात्रु के ममान प्राची का प्रावश्यकता है ? मगसेन के बहुत समझाने पर भी घण्टा के ऊपर का प्रभाव नहीं पड़ा। क्रोधाविष्ट होकर उसने अपने पति को घर से बाहर निकाल दिया। अपमानित मृगसेन एक निर्जन धर्मशाला में गया और वहाँ पर विश्राम करने के लिए लेट गया। इसी समय एक भयंकर मां न प्राकर उसे डस लिया, जिससे तत्काल ही उसकी मृत्यु हो गई। वह मगसेन धीवर ही इस बालक के रूप में सार्थवाह के घर जन्मा है। पति मगसेन को घर से निकालकर घण्टा अपनो निर्दयता पर पश्चात्ताप करने लगी। व्याकुल होकर वह उसे ढूंढती हुई उसी धर्मशाला में पहुंची । वहाँ अपने पति को मरा हुमा जानकर वह सिर पीट-पोट कर रोने लगी। शोकावेग कम हो जाने पर उसने अहिंसाव्रत का पालन करने का निश्चय किया। इसी समय उसी सर्प ने जिसने मगसेन को काटा या. घण्टा को भी काट लिया। वही घण्टा धीवरी यहाँ गुणपाल की लड़की विषा हुई है। पूर्वजन्म के संयोग के कारण इनका पुनः संयोग भी होगा। तृतीय लम्ब सेठ गुणपाल उन दोनों (गुरु-शिष्य) की वार्ता सुनकर पाश्चर्यचकित हो गया। तब उसने सोमदत्त नामक उस बालक को मारने का निश्चय किया। उसने सोचा कि यद्यपि मुनिजनों की कही गई बात सत्य ही होती है, तथापि इस सम्बन्ध में प्रयत्न तो करना ही गहिए। सेठ ने सोमदत्त नामक उस बालक को मारने के लिए एक चाण्डाल को नियुक्त किया। चाण्डाल ने सेठ से पारिश्रमिक लेकर उसे मारने का वचन तो Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत काव्य-ग्रन्थों के संक्षिप्त कथासार दे दिया; लेकिन उस निरपराध बालक को मारने की उसकी जरा भी इच्छा न हुई। उसने सोमदत्त को अंधेरा हो जाने पर, गाँव के बाहर नदी के तट पर एक वृक्ष के नीचे डाल दिया और स्वयं घर ग्रा गया । दूसरे दिन सूर्योदय के समय अपनी गायें चराने हेतु गोविन्द नाम का ग्वाला उसी रास्ते से निकला। प्रधानक ही वृक्ष के नीचे पड़े हुए बालक को देखकर उसे अत्यन्त हर्ष हुआ । उसने बालक को उठाया और ले जाकर अपनी पत्नी धनश्री को दे दिया । निःसन्तान दम्पती उस बालक का पालन बड़े स्नेह से करने लगे । बालक सोमदत्त भी घनश्री पोर गोविन्द को ही अपना माता-पिता समझकर तदनुकूल श्राचररण करने लगा | इस प्रकार गोविन्द धनश्री और उनके पालित पुत्र सोमदत्त का समय सुख से व्यतीत होने लगा । ५३ चतुर्थ लम्ब वाने के यहाँ पलता हुआ सोमदत्त क्रमशः युवा हो गया। एक दिन गुणपाल सेठ किसी राजकार्यवन गोविन्द की बस्ती में ग्राया । सोमदत्त को जीवित देखकर गुरपाल के प्राश्चर्य की सीमा न रही। धीरे-धीरे उसने यह जान लिया कि गोविन्द को पुत्र प्राप्ति कैसे हुई। अपना ( सोमदत्त को मारने का ) काम बनाने के लिए एक दिन गुगपाल ने गोविन्द के समक्ष सोमदत्त को प्रत्यधिक प्रशंसा कर दी । गोविन्द ने भी सोमदत्त को प्रदेश दिया कि राजसेठ का जो भी कार्य हो, उसे सोमदत्त को प्रपने वश में चतुराई से वह अवश्य ही पूरा करे । अब गुरपाल ने कर लिया । एकान्त भेजना है। एक दिन अवसर पाकर गुरगपाल ने सोमदत्त से कहा कि आज मुझे एक आवश्यक समाचार अपने घर क्या करना चाहिए ? गुणपाल की बात सुनकर सोमदत्त ने कहा कि समाचार मुझे दीजिये; मैं आपके घर पहुंचा दूंगा । गुणपाल से समाचार के पत्र को लेकर तैयार होकर सोमदत्त शीघ्रता से चल पड़ा । थक जाने पर नगर के समीप एक उपवन के वृक्ष के नीचे पहुँच कर सो गया । में उसके सो जाने पर वसन्तसेना नाम की एक वेश्या वहाँ आई । सोमदत्त के सौन्दर्य से प्रभावित होकर और उसका परिचय पाने के लिए उत्सुक होकर वसन्तसेना ने उसके गले में बंधे पत्र को खोलकर पढ़ा । पत्र में सेठ गुणपाल की ओर से अपनी पत्नी और पुत्र के लिए प्रदेश था कि सोमदत्त को विष दे दिया जाय (अर्थात् जहर खिलाकर मार डाला जाय । ) वसन्तसेना ने विचार किया कि सेठ गुरणपाल जैसा सज्जन ऐसा प्रकार्य कार्य नहीं कर सकता । अवश्य ही पत्र लिखने में भूल हुई है। उसने निश्चय ही इस सुन्दर युवक से अपनी कन्या विषा के विवाह का ही प्रादेश दिया होगा प्रतएव उसने 'विषं सन्दातव्यम्' के स्थान पर 'विषा सन्दातव्या' रखकर अपने गन्तब्य को प्रस्थान किया । लिखकर पत्र को पूर्ववत् Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य-एक अध्ययन विश्राम करने के पश्चात् सोमदत्त उठा और नगर में सेठ गुणपाल के घर जा पहुंचा। सेठ की पुत्री विषा उस (युवक सोमदत्त) को देखकर अत्यन्त प्रफुल्लित हुई। घर के अन्दर पहुंचकर सोमदत्त ने वह पत्र महाबल को दिया । महाबल और उसकी माता पत्र पढ़कर विचारने लगे कि गुणपाल को अनुपस्थिति में विषा का विवाह इस युवक से कैसे किया बाय ? तब उसने सोमदत्त से पूछा कि 'पत्र देने के मतिरिक्त पिता ने और कुछ भी कहा है ?' सोमदत्त ने उत्तर दिया कि इस पत्र में लिखे हुए आवश्यक कार्य को शीघ्र सम्पन्न करने के लिए उन्होंने मुझे भेजा है। सेठ जी को वहां अनेक आवश्यक कार्य करने थे, इसलिए वे यहाँ माने में असमर्थ हैं। - सोमदत्त की बात सुनकर महाबल और उसकी माता ने परामर्श करके शुभ मुहूर्त में विषा और सोमदत्त का विवाह कर दिया । नागरिकों ने सोमदत्त और विषा के इस विवाह का अभिनन्दन किया। पंचम लम्ब विषा पौर सोमदत्त के विवाह-समाचार को सुनकर गुणपाल विचार करने लगा कि मैंने जो-जो उपाय सोमदत्त को मारने के लिए किये, वे सभी उसके जीवन के उपाय हो गये । किन्तु अब तो वह अपने ही घर में है; अतः प्रासानी से मारा जा सकता है। गुणपाल यह विचार कर हो रहा था कि गोविन्द उसके पास प्राकर सोमदत्त के विषय में पूछने लगा । गुणपाल ने कृत्रिम-हर्ष के साथ उठकर गोविन्द को बताया कि अब तो वह मेरा जामाता हो गया है, प्रतएव कुछ दिनों वह वहीं पर रहेगा। गोविन्द ने भी इस विषय पर अपनी स्वीकारोक्ति प्रकट कर दी। सोमदत्त को मारने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील गुणपाल दूसरे दिन सुबह अपने घर को लौट गया। उसके घर पहुंचते ही महाबल भोर गुणश्री ने वहाँ की स्थिति का उसको ज्ञान कराया। गुणपाल ने महाबल से पत्र मांगकर पुनः पढ़ा। उसने समझा कि दुबारा जांचे बिना ही मैंने यह पत्र सोमदत्त को दे दिया; फलस्वरूप यह अनिष्ट हो गया। गुणपाल ने अन्तः करण में उठ रहे अन्तर्द्वन्द्व को दबाकर पुत्र प्रोर स्त्री से कहा कि "मैं तो यह जानना चाहता था कि विषा के लिए यह वर तुम लोगों को ठीक लगा या नहीं ? प्रस्तु, जैसा तुमने किया, ठीक किया।" ___गुणपाल यह बात अच्छी तरह जानता था कि प्रय सोमदत्त के मर जाने से उसकी पुत्री विधवा हो जायगी। किन्तु अपने दुराग्रहवश उसने सोमदत्त को मारने Sढ़ निश्चय त्यागा नहीं। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत काव्य-ग्रन्थों के संक्षिप्त कथासार ५५ दूसरे दिन नागपंचमी के अवसर पर सोमदत्त को बुलाकर मन्दिर में उसके हाथों पूजन सामग्री भेजने के लिए कहा । सोमदत्त पूजन सामग्री ले जाने के लिए तैयार हो गया । सोमदत्त को तैयार करके गुणपाल मन्दिर के समीप रहने वाले चाण्डाल के समीप गया। चाण्डाल को धन देकर सोमदत्त का वध करने के लिए तैयार कर लिया। उसने चाण्डाल को समझाया कि जो भी पुरुष पूजन सामग्री लेकर इधर से जाय, उसे मार डालना | सोमदत्त जब पूजन सामग्री लेकर जाने लगा तो रास्ते में उसकी भेंट गेंद खेलते हुये महाबल से हो गई । महाबल ने अपने स्थान पर गेंद खेलने के लिए बलपूर्वक उसे नियुक्त कर दिया और स्वयं उसके हाथ से पूजा की थाली लेकर मन्दिर की प्रोर चल पड़ा। रास्ते में ही चाण्डाल ने तलवार से महाबल का वध कर दिया । शीघ्र ही एक नवयुवक के मारे जाने का समाचार सारे नगर में फैल गया । हुमा, किन्तु घर में माकर समाचार सुनकर दुःखी हो गुणपाल इस समाचार को सुनकर पहले तो बहुत प्रसन्न सोमदत्त को जीवित देखकर और महाबल की मृत्यु का गया । गुणश्री और विषा को भी बहुत दुःख हुआ । षष्ठ लम्ब सोमदत्त के स्थान पर महाबल के मारे जाने पर गुणपाल खिन्न रहने लगा | उसको चिन्तित देखकर पुत्रशोक से दुःखी मन वाली गुणश्री ने अपने पति के पास जाकर उसके दुःख का कारण पूछा। पहले तो गुणपाल ने अपनी चिन्ता का कारण बताना स्वीकार नहीं किया; किन्तु गुणश्री के बहुत प्राग्रह करने पर उसने बतलाया कि वह सोमदत्त को मारने के लिए प्रयत्नशील था; किन्तु उसके स्थान पर उसका ही पुत्र मारा गया । गुणश्री के प्राश्चर्यचकित होने पर गुणवाल ने सारा वृत्तान्त सुनाया । सोमदत्त को मारने के दृढ़ निश्चय से भी उसे अवगत कराया। पहले तो गुणश्री अपने पति के इस निर्मम निर्णय का विरोध करती रही, पर बाद में वह भी गुणपाल की बात में आ गई और उसने सोमदत्त को मारने का दायित्व स्वयं ही ले लिया । एक दिन उसने सबके खाने के लिए तो खिचड़ी तैयार की और सोमदत्त को मारने के लिए विष से युक्त चार लड्डू बना दिये । इतने में ही उसे शौच जाने की आवश्यकता हुई, तो गुणश्री ने विषा को पाकशाला के कार्य में लगा दिया और स्वयं जंगल को चली गई । इतने में ही गुरपाल रसोई की तरफ प्राया भोर विषा से बोला कि मुझे राजकार्य से शीघ्र जाना है, भूख भी लगी है, प्रतएव यदि खाना नहीं बना है तो Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ महाकवि ज्ञानसागर काव्य - एक अध्ययन जो कुछ पहले तैयार है वहीं खिला दे । विषा ने कहा - 'जब तक भोजन तैयार नहीं होता है, तब तक आप ये लड्डू खा लीजिए ।' ऐसा कह कर उसने अपने पिता को उन्हीं लड्डूनों में से उठाकर दो लड्डू दे दिये । गुगपाल ने जैसे ही उन लड्डूनों को खाया, वैसे ही वह अचेत होकर गिर पड़ा। विषा का चीखना चिल्लाना सुनकर जब तक पास-पड़ोस वाले आये तब तक गुणपाल के प्राण-पखेरु उड़ चुके थे । गुणश्री ने ग्राकर जब यह दुःखद समाचार सुना तो वह दुःखी मन से अपने ' पति के दुष्कृत्यों के लिए पश्चात्ताप करने लगी। उसके तथा वसन्तसेना वेश्या के वचनों से समस्त नागरिकों को वास्तविकता का ज्ञान हो गया । गुणश्री ने दो बचे हुये लड्डू खाकर अपने पति के मार्ग का अनुसरण किया । सप्तम लम्ब गुणपाल को राजसभा में उपस्थित न पाकर राजा वृषभदत्त ने उसके विषय में मन्त्री से पूछा । मन्त्री ने बताया कि विपयुक्त अन्न खाने से गुणपाल श्री गुणश्री की मृत्यु हो गई है । जिस विपान्न को खिलाकर गुणपाल सोमदत्त को मारना चाहता था, धोखे से उसे स्वयं खाकर गुणपाल की मृत्यु हो गई । राजा ने सोमदत्त का वृत्तान्त जानकर उसे बुलाया । प्राग्रहसहित प्रासन पर बिठाकर उसका कुशल समाचार पूछा । सोमदत्त ने अपने सास प्रोर श्वसुर की मृत्यु पर हार्दिक दुःख प्रकट किया । राजा ने सोमदत्त के इस दुःख के प्रति सहानुभूति प्रकट करके अपनी पुत्री के साथ विवाह करने का प्राग्रह किया । सोमदत्त ने आग्रह को स्वीकार किया । सोमदत्त और राजकुमारी का विवाह होने के समय में ही विषा वहाँ भाई श्रीर उसने महाराज के चरणों में प्रणाम किया। राजा ने अपनी पुत्री उसे और सोमदत्त को सौंप दी और सोमदत्त को अपना प्राधा राज्य दे दिया । * एक दिन सोमदत्त के घर एक मुनि प्राये । सोमदत्त, विषा और राजकुमारी ने उनका यथोचित सत्कार किया। मुनिराज ने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चरित्र रूप रत्नत्रय को अपनाने का उपदेश दिया, जिससे प्रभावित होकर सोमदत्त गम्बरी दीक्षा ले ली । विषा और वसन्तसेना वेश्या ने भी प्रायव्रत धारण कर लिया । सोमदत्त ने तपस्या करके सर्वार्थसिद्धि को प्राप्त किया । विषा धीर वसन्तसेना ने भी अपने-अपने तप के अनुसार स्वर्ग की प्राप्ति की । मुनिमनोरंजनशतक का संक्षिप्त कथासार चूंकि यह मुक्तक काव्य है मतः इसमें कथात्मकता का अभाव स्वाभाविक ही है। इसकी विषयवस्तु तो प्रमुख रूप से मुनियों के कर्तव्यों का निरूपण करना मात्र है । इस पुस्तिका के सम्बन्ध में यहाँ यह लिख देना आवश्यक है कि यह भाज सर्वथा अनुपलब्ध है । इस कृति के संपरिज्ञान हेतु मैंने जिन-जिन महानुभावों से पत्र Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-काव्य-प्रन्योक संक्षिप्त कथासार ५७ व्यवहार किया था, उनके पत्रों के सम्बद्ध अंश जो टिप्पणी में प्रस्तुत किये गये हैं,' इसकी अनुपलब्धि में प्रबल प्रमाण हैं। २९-५-७६ मापका दि० २११५ का पत्र मिला x x x मुनिमनोरंजनशतक अब अप्राप्य है, कहीं से पाने का प्रयत्न करूंगा मोर उपलब्ध होने पर भिजवा दूंगा प्रापका रतन लाल कटारिया मुनि श्रीज्ञानसागरजैनग्रन्थमाला ब्यावर (राजस्थान) ऐ० पन्नालाल दि० जैन सरस्वती भवन सेठ जी की नशियां, ब्याबर (राजस्थान) ६१७७६ प्रापका पत्र देश से लौटने पर मिला। x x x यदि 'मुनिमनोरंजन' भी कहीं से उपलब्ध हो गया, तो उसे भी भिजवा दूंगा। प्रापका हीरालाल शास्त्री (ग) चि० कु. किरण टण्डन जी सेठ जी० की नशियाँ शुभाशीर्वाद। न्यावर, ता. १२-७.७६ प्रापका पत्र मिला। x x x मुनिमनोरंजनशतक अन्य मैंने तो स्वयं देखा ही नहीं। मुनिश्री का बहुत समय हिसार में बीता था, यह ग्रन्थ भी वहीं प्रकाशित हुमा था। साथ ही और भी बहुत सी पुस्तकें हिसार में ही प्रकाशित हुई थी और वे वितीर्ण भी हो चुकी हैं। अगर कोई प्रति विद्यमान हो तो वहीं से प्राप्त हो सकेगी।xxx। • प्रापका प्रकाश चन्द्र १३१८७६ सुभी कुमारी किरण, ऐ० पन्नालाल दि० जैन सरस्वतीभवन सेठ जी शुभाशिषः की नशिया, ब्यावर (राजस्थान) प्राप निम्न पते पर अपने शोधप्रबन्ध की बात लिखकर मुनिश्रीज्ञानसागर जी के जीवनचरित की विस्तृत जानकारी के लिए लिखेंमुनि श्री के पट्ट पर अवस्थित शिष्य हैं । Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य-एक अध्ययन मुनिमनोरंजन के लिए भी उन्हें ही लिखें-यह पुस्तक भाजपप्राप्य हो रही है । फिर भी कहीं न कहीं से भिजवाने का प्रयत्न करेंगे ।xx मापका श्री १०८ प्राचार्य हीरालाल शास्त्री विद्यासागर जी का संघस्थ श्री क्षुल्लक स्वरूपानन्द बी मुनिश्री कुण्डलपुर क्षेत्र पो० पटेरा, जि. दमोह (म०प्र०) ६७६, सरदारपुरा, सी सड़क जोधपुर-३४२००१ १६-६-७६ प्रिय किरण जी, मापका २-८-७६ का पत्र मिला x x x 'मुनिमनोरंजनशतक' मेरे पास नहीं है, मैंने एक दो जगह लिखा है, यदि वहाँ से प्राप्त हो सकी तो पापको अवश्य भिजवाऊंगा। x x x पापका उल्लेख करते हुए मैं भाज एक पत्र प्राचार्य श्री के पट्टशिष्य पं० पूज्य आचार्य श्री १०८ विद्यासागर जी महाराज को भी भेज रहा हूँ, वे माजकल कुण्डलपुर (म० प्र०) में चातुर्मास कर रहे हैं। x x xI शुभपी . चेतन प्रसाद पाटनी उक्त विद्वानों से पत्र व्यवहार करने पर निष्कर्ष निकला कि मुनिमनोरंजनशतक संभवत: महाकवि ज्ञानसागर के शिष्य मुनि श्री विद्यासागर जी के पास हो। अतः मैंने उनसे भी पत्र-व्यवहार किया। किन्तु उनके शिष्य (सचिव) श्री जगमोहनलालशास्त्री ने इस पुस्तिका की अनुपलब्धि के ही विषय में सूचित किया, उनके द्वारा प्रेषित पत्र से उद्धत सम्बड पंश इस प्रकार है :(च) श्रीमती बहिन किरण जी जैन शिक्षा सस्था जयजिनेश मु० कटनी (जबलपुर) म०प्र० २६७६ ___x x x आपका कटनी भेजा गया पत्र ३६७६ को देखा। xxx मनोरंजनशतक उपलब्ध न हो सका। उसे शोधकार्य से हटा पापका जगन्मोहनलाल जैन शास्त्री Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्याय महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत ग्रन्थों के सोत (क) काव्य-स्रोत : एक सामान्य चिन्तन प्राज प्रायः देखने में प्राता है कि कोई भी सामाजिक जब किसी काव्य को पढ़ता है, तब उसका उद्देश्य काव्य में प्रयुक्त छन्द, प्रलंकार, गुण, रीति आदि का ज्ञान प्राप्त करना नहीं होता, अपितु वह अपनी परिश्रमजन्यग्लानि या मानसिक उलझनों से छुटकारा पाने के लिए अथवा खाली समय.को बिताने के लिए काव्य पढ़ता है। प्रत्येक काव्य का एक वयं-विषय होता है, एक कथानक होता है जो माजके सामाजिक का उद्देश्य पूरा कर सकता है। प्रब प्रश्न यह उठता है कि कवि अपने काव्य में कथानक के रूप में पौराणिक भाख्यानों को लेता है या मनगढन्त किस्सों को, अथवा समाज को वर्तमान व्यवस्था से प्रभावित होकर कुछ मौलिक कथानकों की सर्जना करता है। जो कवि अछुते प्रसंगों को कथानक के रूप में प्रस्तुत करते हैं, उनकी रचना नितान्त मौलिक होगी, इसमें सन्देह नहीं किया जा सकता। किन्तु यदि कवि पुराने कथानकों को भी नया रूप दे सके, उन्हें बासीपन की दुर्गन्ध से दूर हटा सके, तो ऐसे कथानकों की भी मौलिकता हमें अस्वीकार नहीं करनी चाहिए। फिर विद्वानों का मत है कि मौलिकता केवल नवीन वस्तु की रचना में ही नहीं है, वरन् पुरानी वस्तु को नवीनता प्रदान करने में भी है। प्रादिकवि वाल्मीकि की 'रामायण' पर भाषारित भवभूति का 'उत्तररामचरित' नाटक इस तथ्य का श्रेष्ठ उदाहरण है। स्पष्ट है कि कवि के काव्य के कथानक का एक स्रोत होता है। चाहे वह कोई रूढ माख्यान हो, चाहे समाज में नित्यप्रति घटित होने वाली समस्यामों से युक्त घटनाचक्र हो; बस, कवि इसी पाख्यान या घटनाचक्र को कथानक के रूप में ग्रहण कर लेता है। मोर फिर उसे अलंकार, गुण, रीति, भाषा इत्यादि से सजासंबार कर पाठक के मनोरञ्जन हेतु प्रस्तुत कर देता है। (ख) कविवर ज्ञानसागर और उनके काव्य स्रोत जब हम श्रीज्ञानसागर की रचनामों को पढ़ने के बाद साहित्यसमुद्र में उनके कथानक के स्रोत रूपी रत्नों को ढूंढ़ते हैं, तब हमें इन रत्नों के रूप में मिलते हैं१. मानन्दवर्धन, ध्वन्यालोक, १४१४६ . Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य - एक अध्ययन महापुराण, बृहत्कथाकोश, पारापनाकथाकोश, पुण्यास्रवकथाकोश इत्यादि जैन-ग्रन्थ । इन्हीं की प्रसिद्ध कथानों को हमारे मालोच्य महाकवि श्रीज्ञानसागर ने अपने काव्यों के कथानक का मूल प्राधार बनाया है और अपनी नवनवोन्मेषशालिनी प्रतिभा के प्रयोग के बल से उनमें यत्र-तत्र उन्होंने परिवर्तन एवं परिवर्धन भी किये हैं, जिन सबका विवरण इस अध्याय में अपेक्षित विस्तार के साथ प्रस्तुत किया गया है । (ग) जयोदय महाकाव्य कथानक का स्रोत जयोदय महाकाव्य के कथानक का स्रोत श्रीजिनसेनाचार्य श्रीगुण भद्राचार्यविरचित महापुराण (मादिपुराण-भाग २) में मिलता है। उन्होंने इसमें जयकुमार की कथा त्रिचत्वारिंशत्तम पर्व से-सप्तचत्वारिंशत्तम पर्व तक बड़े विस्तार से लिखी है जिसका सारांश इस प्रकार है : कुरुजांगल देश में हस्तिनापुर नामक एक नगर है। उस नगर में सद्गुणसम्पन्न सोमप्रभ नामक एक राजा राज्य करता था। उसकी पत्नी का नाम लक्ष्मीवती तथा भाई का नाम श्रेयांस था। उसके जय, विजय प्रादि पन्द्रह पुत्र थे। राजा सोमप्रभ और उसके भाई श्रेयांस के वैराग्य धारण करने पर हस्तिनापुर का राज्य जयकुमार को मिला। एकदिन जयकुमार क्रीड़ा के लिए एक उद्यान में गया । वहाँ उसने शीलगुप्त नामक महामुनि को प्रणाम करके उनसे धर्म के विषय में ज्ञान प्राप्त किया। राजा जयकुमार के साथ साथ एक सर्पदम्पति ने भी इस धर्मोपदेश को सुना। वर्षा ऋतु के प्रारम्भ में सर्प की मृत्यु हो जाने पर, एक दिन राजा उसी वन में गया और वहां उपर्युक्त सर्प की सपिणी को किसी अन्य सर्प के साथ देखा । क्रोधाभिभूत होकर जयकुमार ने क्रीड़ा के नीलकमल से उन दोनों को पीटा। जयकुमार के सैनिकों ने भी उन दोनों पर लकड़ी और पत्थर का प्रहार किया। फलस्वरूप सर्प तो मरकर गंगानदी में काली नाम का जलदेवता हुमा और सर्पिणी अपने ही पति, जो कि अब नागकुमार हो चुका था, की पत्नी बनी । उस सपिणी ने नागकुमार को जयकुमार के विरुद्ध भड़काया, तब अपनी स्त्री के वचनों पर विश्वास करके जयकुमार को काटने की इच्छा से नागकुमार उसके घर माया। उस समय जयकुमार अपनी पत्नी श्रीमती को वन का सारा वृत्तान्त सुना रहा था। अपनी स्त्री के वास्तविक व्यवहार को जानकर नागकुमार का क्रोध शान्त हो गया। उसने बहुमल्य रत्नों से जयकमार को सत्कृत किया और अपने मन में उठी सुई दुर्भावना को भी कह दिया, तथा आवश्यकता पड़ने पर मुझे स्मरण करना, ऐसा कहकर अपने गन्तव्य को चला गया। - भरतक्षेत्र में ही वाराणसी नगरी में राजा प्रकम्पन राज्य करता था। उसकी स्त्री का नाम सुप्रभा था। राजा प्रकम्पन के हेमीगढ़, सुकेतुश्री, सुकान्त इत्यादि एक हजार पुत्र और सुलोचना तथा अक्षमाला नाम की दो पुत्रियां यों। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-काव्य-प्रग्यों के स्रोत सर्वगुणसम्पन्ना और जैनधर्म में प्रास्था रखने वाली सुलोचना फाल्गुन मास को प्रष्टाह्निका तिथि के दिन जिनेन्द्र भगवान् की अष्टाह्निकी पूजा करके अपने पिता को पूजा के अवशिष्ट प्रक्षत देने के लिए गई । राजा अकम्पन ने उससे वे प्रक्षत लिए पोर पारणा करने के लिए मादेश दिया। अपनी पुत्री सुलोचना को पूर्ण युवती देखकर राजा को उसके विवाह की चिन्ता हुई। इस सम्बन्ध में उसने अपने मन्त्रियों से परामर्श किया । सुमति नाम के मंत्री ने निष्पक्षता की दृष्टि से स्वयंवर विधि को अपनाने का परामर्श दिया। समति की बात सबने स्वीकार कर ली। मन्त्रियों को विदा करके राना ने अपने पारिवारिक जनों से परामर्श किया। इसके बाद अपने दूतों को भेजकर उसने अनेक राजामों को प्रामन्त्रित किया। इसी बीच राजा के पूर्वजन्म का भाई विचित्राङ्गद नाम का देव सौधर्म स्वर्ग से वहां पाया। राजा की प्राज्ञा से उसने स्वयंवर समारोह के सम्पादन के लिए एक श्रेष्ठ राजभवन का निर्माण किया। राजा के द्वारा भेजे हुए दूतों ने जब राजामों को स लोचना-स्वयंवर का समाचार स नाया तो बहुत से राजा वाराणसी पहुंच गये । राजा प्रकम्पन ने उन सभी राजामों का स्वागत किया। चक्रवर्ती भरत का पुत्र प्रकीर्ति मोर सेनापति जयकुमार भी वहाँ पञ्चे । सभी अतिथि राजामों के प्रा जाने पर राजा प्रकम्पन ने उत्सव की तैयारी शुरू कर दो। स प्रभा की प्राज्ञा से सौभाग्यशालिनी स्त्रियों ने स लोचना को स्नान कराकर मांगलिक वस्त्राभूषण धारण कराये मोर उससे जिनदेव का पूजन करवाया। राजा प्रकम्पन का सन्देश सुनकर सभी उपस्थित राजा वस्त्रभूषणों से स सज्जित होकर अपने-अपने स्थानों पर बैठ गए। स प्रभा रानी के साथ-साथ राजा अपने पारिवारिक जनों सहित स्वयंवर मण्डप में पहुंचा। उसी समय महेन्द्रदत कंचुको विचित्रांगद देव द्वारा प्रदत्त रथ पर कन्या स लोचना को बिठाकर स्वयंवर भवन में लाया । हेमाङ्गद अपने छोटे भाइयों के साथ रथ के समीप में चल रहा था। तत्पश्चात् सर्वतोभद्र महल पर चढ़कर स लोचना ने सभी राजामों को देखा। पुनः कंचुको के कहने से वह नीचे उतर कर रथ पर चढ़ गई। कंचुकी ने विद्याधर राजामों की मोर उसका रथ चलाना शुरू कर दिया। उसने स लोचना को सनमि मोर विनमि इत्यादि राजानों का परिचय दिया। इसके पश्चात् कंचुकी ने भूमिगोचर राजामों की घोर रथ बढ़ाया पोर सभी का परिचय दिया। अर्ककीति राजामों को छोड़कर स लोचना जयकुमार के समीप गई । कंचुकी ने जयकुमार का भी विस्तृत परिचय दिया। जयकुमार के गुणों से प्रभावित होकर सलोचना ने कंचुको के हाथ से सुन्दर रत्नहार लेकर जयकुमार के गले में पहिना दिया। स्वयंबर विधि के पश्चात् राजा प्रकम्पन अपनी पुत्री पौर जयकुमार के साथ नगर Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य-एक अध्ययन में प्रवित हुआ । अन्य राजा सलोचना को न पाकर निराश हो गए (तंतालिसा पर्व यहाँ समाप्त हो जाता है ।) । जयकुमार के धभव को सहने में असमर्थ दुर्मर्षण नामक अकंकीति के सेवक ने राजामों के सम्मुख राजा अकम्पन के विरुद्ध वचन कहे। उसने अपने स्वामी प्रकीर्ति को भी उत्तेजित किया। सेवक के वचनों को सुनकर भकंकीर्ति क्रुद्ध हो गया। उसने जयकुमार के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। अनेक दुष्ट राजा उसके इस दुष्कर्म में सहायक हो गए। प्रकीति को उत्तेजित देखकर उसके मन्त्री प्रनवद्यमति ने उसे समझाया कि प्रापके पिता सम्राट नाथवेश में उत्पन्न राजा प्रकम्पन को अपने पिता ऋषभदेव के समान ही पूज्य समझते हैं; और सोमवंश में उत्पन्न जयकुमार प्रापके पिता के प्रोष्ठ सेनापति हैं । अतः इस निष्पक्ष स्वयंवर-विधि से प्राप्त जयकुमार के प्रभ्युदय से प्रापको ईर्ष्या नहीं करनी चाहिए। मंत्री के वचनों का प्रकीति पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा, इसके विपरीत जयकुमार का सुलोचना द्वारा वरण का कार्यक्रम भी पूर्वनिश्चित था, ऐसा कहते हुये उसने सोमवंश और नाथवंश के प्रति और भी अपशब्द कहे । फिर अपने सेनापति को बुलाकर युद्ध का डंका बजवा दिया। अपनी सेनासहित मर्ककोति विजयघोष हाथो पर प्रारूढ़ होकर राजा प्रकम्पन के नगर की मोर चला। राजा प्रकम्पन इस वृत्तान्त को जानकर बहुत व्याकुल हो गये। मन्त्रियों और जयकुमार से परामर्श करके अर्ककीर्ति के पास एक शीघ्रगामी दूत भेज दिया। दूत ने अपने वचनों का अर्ककीर्ति पर कोई प्रभाव पड़ता हुमा न देखकर राजा भकम्पन के पास प्राकर सम्पूर्ण वृत्तान्त स ना दिया। दूत के वचनों को स नकर राजा अकम्पन मूच्छित हो गये। ____ जयकुमार ने राजा को प्राश्वस्त करते हुए सुलोचना की रक्षा करने का निवेदन किया और अर्ककीति को शखला से बांधकर लाने का वचन दिया। मेघघोषा नाम को भेरी बजवायी। जयकुमार सेना तैयार करके अपने छोटे भाइयों के साथ, बिजयार्ध नामक हाथी पर मारूढ़ होकर चले। राजा प्रकम्पन भी अपनी पुत्री स लोचना को धर्य बँधाकर अपने पुत्रों और सेना के साथ निकले। कुछ अन्य राजा भी राजकुमार की ओर से युद्ध करने के लिए तैयार हो गये। जयकुमार ने युद्ध के लिए मकरव्यूह की और अकंकीति ने चक्रव्यूह की रचना की। दोनों ने हाथी, घोड़े और रथ पर सवार होकर बाणों और तलवारों से युद्ध किया। दूसरे दिन मागकमार से प्राप्त नागपाश और प्रद्धचन्द्र नामक बाण की सहायता से जयकुमार ने प्रकीर्ति को शस्त्ररहित करके पकड़ लिया। प्रकीर्ति को अपने रब में डालकर एक हाथी पर चढ़कर जयकुमार ने अन्य शत्रु विद्याधर राजानों को भी Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-काव्य-ग्रन्थों के स्रोत ६३ बाँध लिया और उन्हें राजा प्रकम्पन को सौंप दिया। उसने मरे हुए वीरों के दाहसस्कार और घायलों को चिकित्सा का प्रबन्ध किया। इसके बाद वह नगरी में माया। अन्य राजानों के साथ नगर में पहुँचकर बांधे गये राबामों को भी समझाया । तत्पश्चात् नित्यमनोहर चैत्यालय में आकर सबने जिनेन्द्रदेव की स्तुति की (चवालिसा पर्व यहाँ समाप्त हो जाता है।) . जिनेन्द्रदेव की स्तुति के पश्चात् जयकुमार अपने निवासस्थान पर चले गये । महाराज प्रकम्पन ने सुलोचना को उसके महल में भेज दिया। इसके बाद मंत्रियों से परामर्श करके बंधे हुये विद्याधर राजामों को भी मुक्त कर दिया। प्रकीति को समझा बुझाकर उन्होंने जयकुमार और प्रककोति की सन्धि भी करा दी और अपनी प्रक्षमाला नाम की पुत्री का विवाह प्रकीति के साथ कर दिया। अन्य राजामों को भी रत्न, हाथी और घोड़े देकर सम्मानसहित विदा किया। जयकुमार से परामर्श करके अकम्पन ने अपने सुमुख नामक दूत को अपराधमाजन हेतु भरत-चक्रवर्ती के पास भेजा। दूत ने राजा प्रकम्पन की मोर से क्षमायाचना को तो सम्राट भरत ने राजा प्रकम्पन को अपना पूज्य और जयकुमार को अपना सेनापति बताया। सम्राट भरत के प्रशंसात्मक वचनों से सन्तुष्ट होकर सुमुग्व उनसे प्राज्ञा माँगकर राजा अकम्पन के पास पहुँचा और उनके सामने भरत का मन्तव्य प्रकट कर दिया। जयकुमार सलोचना के सान सुख का अनुभव करता हुआ बहुत समय तक अपने श्वसुर के घर रहा। एक दिन अपने मंत्री का पत्र पाकर उसने राजा प्रकम्पन से अपने नगर वापस जाने के लिए अनुमति मांगी। राजा प्रकम्पन ने जयकुमार और सुलोचना को सम्पत्तिवात्सल्यपूर्वक विदा किया। जयकुमार मोर सुलोचना विजया नामक हाथी पर बैठे। जयकुमार अपने भाईयों और सुलोचना के हेमांगद इत्यादि भाईयों के साथ गंगा नदी के किनारे चलने लगे। सायंकाल होने पर उन्होंने गंगा नदी के तट पर ही अपना पड़ाव डाला । सुलोचना के साथ रात्रि बिताकर जयकुमार अपने भाईयों, सुलोचना और उसके हेमांगद इत्यादि भाईयों को वहीं छोड़कर दूसरे दिन अयोध्या पहुंचे। वहाँ अकंकीति इत्यादि ने उनका स्वागत किया। सभागृह में पहुँचकर, एक भव्य सिंहासन पर बैठे हुए राजा भरत को उन्होंने प्रणाम किया। भरत ने जयकुमार को प्रिय वचनों से सन्तुष्ट किया। जयकुमार के विनम्र वचनों को सुनकर सम्राट भरत ने जयकुमार को उनके लिए और सुलोचना के लिए वस्त्राभूषण देकर विदा दिया। सम्राट भरत से विदा लेकर जयकुमार हाथी पर चढ़कर गंगानदी के किनारे पहुँचा । वहाँ पर एक सूखे वक्ष की डाली के अग्रभाग पर स्थित, सूर्य को भोर उन्मुख Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ महाकवि ज्ञानसागर के काम्य-एक अध्ययन एक कोए को रोता हुआ देखकर जयकुमार सुलोचना के अनिष्ट की माशंका करके मूच्छित हो गया । पुरोहित के वचनों से प्राश्वस्त होकर जयकुमार ने प्रागे चलना प्रारम्भ कर दिया। जैसे ही हाथी एक गढ्ढे के बीच में पहुंचा, वैसे ही जयक मार से द्रोह करने वाली सर्पिणी, जो मरकर कालीदेवी हुई थी, ने सरयू और गंगा नदी के संगम पर मगर का रूप धारण करके जयकुमार के हाथी को पकड़ लिया। हाथो को डूबता हुमा देखकर हेमाङ्गद आदि भी घबराकर उसी गढ्ढे प्रविष्ट होने लगे। पंचनमस्कार मन्त्र का स्मरण करके जिनेन्द्र भगवान् का ध्यान करती हुई सुलोचना भी अपनी सखियों के साथ गंगा नदो में प्रविष्ट होने लगी। गंगा नदी के किनारे रहने वाली गंगा देवी ने सब वृत्तान्त जानकर काली देवी को डांटा और उन सबको किनारे ले आई। वहां उसने एक भवन का निर्माण किया और मणिमय सिंहासन पर बिठाकर सुलोचना का सत्कार किया। जयकमार ने गंगादेवी के विषय में जिज्ञासा प्रकट की। सुलोचना ने बताया कि यह अपने पूर्वजन्म में मुझसे स्नेह रखने वानी, विन्ध्यपुरी के निवासी विन्ध्यकेतु और प्रियंगुश्री की विन्ध्यत्री नाम की पुत्री थी। सर्प के काटने से यह इस रूप को प्राप्त हुई है। जिज्ञासा शान्त हो जाने पर जयकुमार ने गंगादेवी को विदा कर दिया । तत्पश्चात् जयकुमार ने भरतचक्रवर्ती से हुई भेंट वार्ता सुनाकर सबको सन्तुष्ट किया और उनके द्वारा दी गई भेंट सबो दी। दूसरे दिन पुनः यात्रा प्रारम्भ हुई। सुन्दर दृश्यों के वर्णन से सुलोचना को प्रसन्न करते हुए जयकुमार अपनी राजधानी हस्तिनापुर पहुंचे। वहां पुरोहितों, सौभाग्यवती स्त्रियों, मन्त्रियों, सेठों प्रादि सभी ने उन दोनों का स्वागत किया। किसी शुभ दिन में जयकुमार ने उत्सव का आयोजन करके हेमांगद इत्यादि के सामने ही सुलोचना को पटरानी बना दिया। कुछ दिनों बाद हेमांगद इत्यादि काशी वापस चले गये । राजा प्रकमान ने हेमांगदमा राज्याभिषेक करके अपनी पत्नी सुप्रभा एवं अनेक राजामों के साथ भगवान् ऋषभदेव से दीक्षा ग्रहण कर ली और कैवल्य प्राप्त कर लिया। उधर जयकुमार पौर सुलोचना परस्पर अनुकूल रहते हुए सुख का उपभोग करने लगे (यहाँ पैंतालिसा पर्व समाप्त होता है।) एक दिन महल की छत पर सुलोचना के साथ बैठे हुये बयकुमार ने कृत्रिम हाथी पर बैठे हुए विद्याधर दम्पती को देखा मोर उन्हें देखकर पूर्वजन्म का स्मरण होने से-'हा मेरी प्रभावती'-कहकर मूधित हो गया। सुलोचना भी कपोतयुगल को देखकर पूर्वजन्म का स्मरण होने से-'हा मेरे रतिवर'कहकर मूच्छित हो गई। दोनों ने ही उपचार से चेतना प्राप्त की। जयकुमार ने दुःखी होकर सुलोचना को सान्त्वना दी। इस घटना से श्रीमती, शिवंकरा इत्यादि सपत्नियों की दृष्टि में सुलोचना अपराधिनी बन गई। जयकुमार के कहने Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि मानसागर के संस्कृत-काव्य.प्रन्यों के स्रोत पर सुलोचना ने अपने और राजकुमार के पूर्वभवों का वृत्तान्त सुनाया, जो इस प्रकार है : विदेह क्षेत्र में पुष्कलावतो देश की पुण्डरोकिणी नगरी में प्रजापान नामक राजा राज्य करता था। उस राजा का कुबेरमित्र नाम का एक राजसेठ था। बनवती इत्यादि उसकी बत्तीस स्त्रियां थीं। उस सेठ के महल में सेठ को प्रिय लगने वाला रतिवर नाम का कबूतर प्रपनी रतिषेणा नाम की कबूतरी के साथ सुखपूर्वक रहता था। जयकुमार ही पूर्वजन्म का रतिवर था और सुलोचना ही रतिषणा थी। कुबेरमित्र के पुत्र का नाम कुबेरकान्त था। कुबेरकान्त को भोगविलास की सामग्री एक कामधेनु से प्राप्त हो जाती थी। उसका प्रियदत्त नाम का प्रत्यधिक प्रिय मित्र था । कुवेरकान्त के माता-पिता ने ज्ञात कर लिया कि वह एक ही कन्या से विवाह करना चाहता है। कुबेरमित्र ने अपने पुत्र का विवाह अपनी बहिन की पुत्री प्रियदत्ता से कर दिया। राजा प्रजापाल ने अपने पुत्र लोकपाल को पुण्डरीकिरणो का राजा बना दिया और स्वयं मुनिराज शीलगृप्त के समीप संयम धारण कर लिया । कुछ समय पश्चात् कुबेरमित्र ने समुद्रदत्त प्रादि सेठों के साथ देवगिरि पर जाकर बरधर्मगुरु के समीप तपश्चरण करना प्रारम्भ कर दिया। फलस्वरूप कुबेरमित्र पोर समुद्रदत्त ब्रह्मलोक में लोकान्तिक देव हुए। कुबेरकान्त और प्रियदत्ता के पांच पुत्र हुए प्रोर एक पुत्री हुई। पमितमति पौर अनन्तमति इत्यादि पायिकामों के उपदेश से लाभान्वित होकर कुबेरकान्त पौर लोकपाल दानशीलता इत्यादि श्रेष्ठ गुणों से युक्त हो गये । एक बार कुबेरकान्त के यहां दो ऋषियों का प्रागमन हुआ। ऋषियों का दर्शन करते ही कबूतर और कबूतरी ने अपने पूर्वजन्मों को जानकर उन्हें प्रणाम किया और परस्पर के रतिभाव को त्याग दिया। यह देखकर मुनियों के मन में भी वैराग्य उत्पन्न हो गया और उन्होंने कुबेरकान्त के यहां से भोजन किए विना ही प्रस्थान कर दिया। पक्षियों के संकेतों को जानने वाली प्रियदत्ता के पूछने पर कबूतरी ने अपने पूर्वजन्म का नाम रतिवेगा और कबूतर ने सुकान्त बताया। सुकान्त और रतिवेगा पूर्वजन्म में भी पति-पत्नी थे, प्रतः पुनः साथ रहने लगे। मुनि के चले जाने पर राजा लोकपाल को जिज्ञासा हुई। उसकी जिज्ञासा को शान्त करने के लिए अमितमति प्रायिका ने बताया पुष्कलावती देश में विजया पर्वत के समीपस्थ धान्यकमल नामक वन के पास शोभानगर की स्थिति है। उस नगर में प्रजापाल नाम का राजा राज्य करता था, उसकी देवश्री नाम की स्त्री थी। उस राजा के सेनापति का नाम शक्तिषण Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य - ६६ और उसकी पत्नी का नाम अटवीश्री था। शक्तिषेरण का सत्यदेव नामक पुत्र हुआ । मुझ (प्रमितमति प्रार्थिका ) से धर्मोपदेश सुनकर इन पांचों ने धर्माचरण श्रीर व्रताचरण का पालन किया । - एक अध्ययन . 1 एक दिन शक्तिपेण अपनी स्त्री प्रटवीश्री को लेने के लिए उसके मातापिता के पास मृणालवती नगरी गया । धान्यकमाल वन में सर्पसरोवर के समीप रुका । उस समय मृणालवती नगरी में राजा धरणीपति का राज्य था । वहां रतिवर्मा से उत्पन्न सुकेतु नाम का सेठ भी रहता था। सुकेतु की पत्नी का नाम या कनकश्री । उनके एक दुराचारी भवदत्त नाम का पुत्र हुप्रा । उसकी दुष्टता कारण उसे दुर्मुख भी कहा जाता था। उसी नगर में श्रीदत्त सेठ और उनकी पत्नी विमलश्री की रतिवेगा नाम की पुत्री हुई, प्रोर प्रशोकदेव सेठ प्रोर जिनदत्ता का सुकान्त नाम का पुत्र हुप्रा । भवदत्त की प्राशा के विपरीत रतिवेगा का विवाह सुकान्त से हो गया । यह जानकर भवदत्त बहुत क्रोधित हुप्रा । उसके भय से रतिवेगा और सुकान्त ने शक्तिषेरण की शरण ली । शक्तिषेण के प्रभाव से भवदत्त ने क्रोध को भीतर ही दबा लिया । शक्तिषेरण ने वहाँ आए हुए दो मुनियों को प्राहार दान दिया। उस सरोवर के समीप ही सेठ मेरुकदत्त अपनी स्त्री धारिणी और भूतार्थ, शकुनि बृहस्पति र धन्वन्तरि नामक मन्त्रियों के साथ रुका था । एक दिन वहाँ एक हीनांग पुरुष प्राया । सेठ ने जब उसके होनांग होने के विषय में पूछा तब प्रत्येक मन्त्री ने अपना-अपना मन्तव्य बताया, किन्तु भूतार्थं ने कहा कि इसकी यह दशा पूर्वजन्म में हिमादि कार्यों के करने से हुई है । उसी समय उसे खोजते हुए शक्तिषेण ने वहाँ प्राकर अपने उस होनांग पुत्र की प्रसहनशीलता और अकर्मण्यता के विषय में बताया । सत्यदेव ने पिता की इच्छानुसार लोटना स्वीकार नहीं किया। फलस्वरूप शक्तिषेण 'अगले जन्म में भी मुझे तेरा स्नेह प्राप्त हो' ऐसी इच्छा प्रकट करके द्रव्यलिंगी मुनि बन गया। वह (शक्तिषेण) मृत्यु को प्राप्त होकर देव के रूप में जन्मा । जिस समय सेठ मेरुकदत्त और उनकी स्त्री ने शक्तिश्री को वीश्री के साथ मुनियों का स्वागत करके पंचाश्चर्य प्राप्त करते हुए देखा, उसी समय उन्होंने इच्छा प्रकट की कि अगले जन्म में ये हमारी सन्तानों के रूप में जन्म लें । सुकान्त और रतिवेगा ने भी दान इत्यादि के फलस्वरूप पुण्यार्जन किया । प्रमितमति ने लोकपाल की स्त्री वसुमती, जो पहले जन्म में देवश्री थीं— के व्याकुल होने पर बताया कि वही पूर्वजन्म में शक्तिषेरण की स्त्री प्रटवीश्री थी । प्रमितमति ने उसकी भी जिज्ञासा शान्त करते हुए कहा कि कुवेरकान्त हो उस जन्म का शक्तिषेण है । तुम्हारे पांच पुत्रों में से कुबेरदयित नामक पुत्र ही उस जन्म का सत्यदेव है । भवदेव ने जिस रतिवेगा प्रोर सुकान्त नामक दम्पति को जला दिया था, वही ये कबूतर - कबूतरी हैं। सेठ मेरुकदत्त श्रोर धारिणी ही तुम्हारे पति के Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-काव्य-ग्रन्थों के स्रोत. माता-पिता हये । शक्तिषेण ने जिन दो मुनियों को माहार-दान दिया था, वे ही तेरे पिता पौर पति के गुरु हुए हैं। एक दिन कबूतर-कबूतरी चावल चुगने के लिए दूसरे गांव गये। भवदेव के जीव बिलाव ने पूर्वजन्म के वैर के कारण उन दोनों को मार डाला। रतिवर कबूतर ही अपनी मृत्यु के बाद विजयार्द्ध पर्वत की दक्षिण श्रेणी में स्थित गान्धार देश की उशीरवती नगरी के राजा प्रादिन्यगति और रानी शशिप्रभा का पुत्र हिरण्यवर्मा हुषा प्रौर रतिषणा कबूतरी अपनी मृत्यु के बाद विजयार्घ पर्वत की उत्तरश्रेणी में स्थित गोरी नामक देश में विद्यमान भोगपुर में रज्य करने वाले विद्याधरों के स्वामी वायुरथ और उनकी पत्ती स्वयंप्रभा की पुत्री प्रभावती हुई। प्रभावती के स्वयंबर में गतियुद्ध में विजय प्राप्त करके हिरण्यवर्मा ने प्रभावती को पत्नी के रूप में प्राप्त कर लिया। एक दिन दोनों को अपने पूर्वजन्म का स्मरण हो पाया। पूर्वजन्म के दाम्पत्य भाव को स्मरण करके वे दोनों परस्पर प्रत्यधिक प्रेम से रहने लगे। एक बार हिरण्यवर्मा और प्रभावती ने सिद्धकूट के चैत्यालय में पूजा करते समय एक चारणमुनि के दर्शन किये। प्रभावती के पूछने पर मुनि ने उनके पूर्वजन्मों के विषय में बताया मोर कहा कि मैं ही भवदेव का पिता था। ___ इसी समय वायुरथ ने विरक्त होकर अपना राज्य अपने पुत्र मनोरथ को दे दिया। वायुरथ के सम्बन्धियों की इच्छा से प्रभावती की पुत्री रतिप्रभा का विवाह मनोरथ के पुत्र चित्ररथ से करके महाराज मादित्यगति ने हिरण्यवर्मा का राज्याभिषेक कर दिया, और स्वयं तपश्चरण में संलग्न हो गये। ___ एक बार हिरण्यवर्मा प्रभावती के साथ धान्यकमाल वन में सर्पसरोवर के समीप पहुंचा तो उसे अपने पूर्वजन्मों की याद मा गई। फलस्वरूप उसका मन वराग्य से भर गया। उसने अपने नगर में प्राकर अपने पुत्र सुवर्णवर्मा का राज्याभिषेक कर दिया, मोर स्वयं श्रीपुर नाम के नगर में श्रीपाल गुरु के समीप जिनदीक्षा धारण कर ली। प्रभावती ने भी शशिप्रभा के साथ गुणवती प्रायिका के समीप तपश्चरण करना प्रारम्भ कर दिया। एक दिन मुनिगज हिरण्यवर्मा पुण्डरीकिणी नगरी पहुँचे। गुणवती प्रायिका के साथ प्रभावती पायिका भी वहां पहुंच गई। वहीं पर प्रियदत्ता को प्रभावती ने बताया कि मैं ही मापके घर की रतिषणा कबूतरी थी; मोर मुनि हिरण्यवर्मा ही रतिवर कबूतर थे। प्रियदत्ता ने मुनिराज हिरण्यवर्का की वन्दना करके अपना वृत्तान्त सुनाया। उसने बताया कि लोकपाल ने अपने पुत्र गुणपास को राज्यभार दे दिया; मोर स्वयं रतिषेण नाम के मुनि के पास संयम धारण किया। इसी समय कुबेरकान्त ने भी अपने पुत्र कुबेरप्रिय को राजसेठ का पद देकर अन्य चार पुत्रों के साथ वहीं पर दीक्षा धारण कर ली। अपने पति का वृत्तान्त Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य-एक अध्ययन सुनाकर गृहस्थाश्रम से विरक्त प्रियदत्ता ने अपनी पुत्री कुबेरश्री का विवाह राजा गुणपाल से कर दिया और प्रभावती का उपदेश सुनकर गुणवती प्रायिका के समीप दीक्षा धारण कर ली। एक बार जब हिरण्यवर्मा ने श्मशानभूमि में प्रतिमायोग धारण किया, तब प्रियदत्ता की एक चेटी से मुनिराज का समस्त वृतान्त जानकर एक विद्यच्चोर ने क्रोध के कारण उनके पूर्वजन्मों का समाचार भी जान लिया । तपश्चर्या में रत हिरण्यवर्मा और प्रभावती को उसने एक साथ ही चिता पर रख कर जला दिया। मृत्यु के उपरान्त वे दोनों स्वर्ग पहुंच गये । विद्युच्चोर के प्रति अपने पुत्र सुवर्णवर्मा के क्रोष को उन्होंने समाप्त किया । स्वर्ग के लोगों के मध्य रहते हुए उन्होंने अपने पूर्वजन्मों का स्मरण किया। प्रतः प्रपने पूर्वजन्म के स्थानों को देखकर वे दोनों सपंसरोवर के समीपस्थ वन में पहुँचे। वहां एक भीम नाम के मुनि भी प्राए हुए थे। वहाँ पर उपस्थित जनों के पूंछने पर भीम ने अपने पूर्वभावों का वृत्तान्त सुनाया। वे ही क्रमशः रतिवेगा पौर सुकान्त के बैरी भवदेव; रतिषेणा और रतिवर के शत्रु विलाव और प्रभावती और हिरण्य वर्मा को भस्म करने वाले विद्युच्चोर थे। उन देव देवी (हिरण्यवर्मा और प्रभावती) ने बताया कि तीन वार प्रापके द्वारा मारे जाने वाले हम ही हैं। इस प्रकार दोनों उनकी वन्दना करके अपने गन्तव्य को चल दिए। इस समय उन्होंने मुनिराज भीम से और भी वृत्तान्त सुने थे। __इस प्रकार सुलोचना ने जयकुमार को बताया कि पहले जन्म में हम दोनों सुकान्त और रतिवेगा के रूप में जन्म थे; उसके बाद रतिवर कबूतर और रतिषणा कबूतरी के रूप में जन्मे फिर हिरण्यवर्मा और प्रभावती के रूप में और फिर स्वर्ग में देव और महादेवी के रूप में जन्मे थे (यहाँ छियालिसा पर्व समाप्त होता है।) जयकुमार के प्राग्रह करने पर मुलोचना ने प्रियदत्ता की पुत्री कबेरश्री के पुत्र श्रीपाल का भी रोचक वृत्तान्त सुनाया। उसने बताया कि ये सब कथायें सुनकर हमने गुणपाल तीर्थङ्कर को प्रणाम किया और स्वर्ग चले गये। तत्पश्चात् हमारा जन्म यहां हुअा है। सुलोचना का वृत्तान्त सुनकर सभी ने उस पर विश्वास कर लिया। उन दोनों को अपने पूर्वजन्म की सारी विद्याएँ प्राप्त हो गई । एक बार जयकुमार ने उन विद्याओं के बल से सुलोचना के साथ देशाटन की इच्छा से अपने छोटे भाई विजय कुमार को समस्त राज्यभार सौंप दिया। पृथ्वी के समुद्र, पवंत आदि स्थलों पर विहार करते हुए जयकुमार कैलाश पर्वत पर स्थित एक वन में पहुंचा। उस समय इन्द्र प्रपनी सभा में जयकुमार और सुलोचना के शील की प्रशंसा कर रहा था। सभा में स्थित रविप्रभ देव ने जयकमार के शील की परीक्षा की इच्छा से कॉचना Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत काव्य-ग्रन्थों के स्रोत ૧૨ नाम की देवी को जयकुमार के पास भेजा। उस देवी की चेष्टानों का जयकुमार पर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा। ऐसा देखकर कृत्रिम क्रोध से युक्त वह देवी जयकुमार को उठाकर जाने लगी तो सुलोचना ने उसकी भर्त्सना की। सुलोचना के शील के प्रभाव को सहने में असमर्थ होकर वह प्रदृश्य हो गई और अपने स्वामी रविप्रभ देव के पास पहुंची। रविप्रभ देव जयकुमार से प्रभावित होकर उसके पास आया । क्षमायाचनापूर्वक बड़े-बड़े रत्नों से जयकुमार की पूजा करके स्वर्ग चला गया । इसके पश्चात् प्रपने नगर लौटकर जयकुमार ने सुलोचना के साथ बहुत दिन बिताये । एक दिन प्रात्मज्ञानी जयकुमार ने श्री आदिनाथ तीर्थङ्कर की वन्दना की श्रौर उनके उपदेश से जब धर्म का स्वरूप जाना तो शिवंकरा महादेवी से उत्पन्न पने पुत्र अनन्तवीर्य का राज्याभिषेक कर दिया और अपने छोटे भाई विजय, जयन्त, संजयन्त एवं रविकीर्ति, रविजय, प्ररिदम, प्ररिजय इत्यादि चक्रवर्ती भरत के पुत्रों के साथ दीक्षा धारण कर ली। वह भगवान् ऋषभदेव का ७१व गरणधर बन गया। पति के वियोग से व्याकुल सुलोचना ने चक्रवर्ती की पट्टरांनी सुभद्रा के समझाने पर ब्राह्मी प्रार्थिका के समीप दीक्षा धारण कर ली; भोर बहुत समय तक तप करने के पश्चात् प्रच्युत स्वर्ग के अनुत्तर विमान में देवी के रूप में उत्पन्न हुई (यहाँ सैंतालिसव पर्व समाप्त हो जाता है) । ' (घ) मूलकथा में परिवर्तन और परिवर्धन महापुराण में वरिणत जयकुमार की कथा धौर जयोदय महाकाव्य की कथा का जब हम तुलनात्मक अध्ययन करते हैं तो ज्ञात होता है कि कविवर श्रीज्ञानसागर ने काफी हेर फेर के साथ अपने महाकाव्य में महापुराण की कथा वर्णित की है । उनके द्वारा किए गए परिवर्तन इस प्रकार हैं : (क) 'महापुराण' में सर्वप्रथम जयकुमार के माता-पिता भोर पितृव्यों का परिचय दिया है, जबकि जयोदय में जयकुमार के पिता का तो नाम एकाध स्थलों पर प्राया भी है परन्तु माता एवं पितृव्यों का कहीं उल्लेख नहीं मिलता । (ख) 'महापुराण' में बताया गया है कि जयकुमार के पिता सोमप्रभ श्रोर चाचा श्रेयांस के संन्यास लेने पर जयकुमार ने हस्तिनापुर का राज्य प्राप्त किया । किन्तु 'जयोदय' में इस बात का उल्लेख नहीं मिलता । (ग) वनक्रीड़ा के लिए गये हुए जयकुमार ने जिस मुनि से धर्मोपदेश सुना, १. जिनसेनाचार्य गुणभद्राचार्यकृत महापुराण (प्रादिपुराण भाग-२), पर्व ४३ से ४७ तक । २. महापुराण ( प्रादिपुराण भागग-२), ४३।७७-८२ ३. जयोदय ६।११५, ७३४ ४. महापुराण (मादिपुराण भाग-२), ४३६४.८७ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य- एक अध्ययन 'महापुराण' में उसका नाम शीलगुप्त बताया गया है, किन्तु 'जयोदय' में मुनि का नामोल्लेख नहीं है । ७० (घ) 'महापुराण' में उल्लेख मिलता है कि एक सर्प दम्पति ने भी जयकुमार के साथ मुनि से उपदेश सुनार, जबकि 'जयोदय' में जयकुमार के साथ केवल एक सर्पिणी ने ही उपदेश सुना है । 3 (ङ) सर्पिणी के पति की मृत्यु वर्षा ऋतु के प्रारम्भ में हुई थी, 'महापुराण' में घाई हुई इस बात का भी उल्लेख 'जयोदय' में नहीं मिलता । (च) 'महापुराण' में वर्णन मिलता है कि दुबारा जयकुमार उसी वन में गया तब उसने उक्त सर्प के साथ मर्पिणी को रमण करते हुए देखा। किन्तु 'जयोदय' महाकाव्य में बताया गया है कि अपने साथ उपदेश सुनने वाली सर्पिणी को, जयकुमार ने जब वह उपदेश सुनकर लौट रहा था, तभी दूसरे सर्प के साथ विहार करते हुए देखा । (छ) महापुराण' में उल्लेख है कि जयकुमार और सैनिकों ने सर्प भौर सर्पिणी दोनों को पीटा। सर्प मारकर गंगानदी में काली नाम का जल देवता हुन । 'जयोदय' महाकाव्य में केवल सपिरणी को प्रताडित करने का उल्लेख है 15 सर्षिरणी गंगानदी में काली नाम की देवी हुई, यह बात भी विवाह के पश्चात् सम्राट् भरत के यहाँ से लौटते समय ज्ञात होती है । (ज) 'महापुराण' में वर्णन है कि वन से लौटकर जयकुमार ने अपनी पत्नी श्रीमती को बन का सारा वृत्तान्त सुनाया १०, जबकि 'जयोदय' महाकाव्य में कहा गया है कि जयकुमार ने अपनी सभी स्त्रियों के सम्मुख वन का वृत्तान्त कहा । ' (झ) 'महापुराण' में वाराणसी का और उसमें राज्य करने वाले प्रकम्पन का ११ १. महापुराण ( प्रादि पुराण भाग-२), ४३।८८ २ . वही, ४३।६० ३. जयोदय, २०४२ ४. महापुराण ( प्रादिपुराण भाग-२), ४३-६१ ५. वही, ४३।६२-६३ ६. जयोदय, २।१४२ महापुराण (प्रादिपुराण भाग २ ), ४३।६३-६५ ७. ८. जयोदय, २।१४२ ६. वही, २०७० १०. महापुराण ( श्रादिपुराण भाग-२) ४३१०० ११. जयोदय, २।१४५ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत काव्य-ग्रन्थों के स्रोत उल्लेख मिलता है । यहीं पर उनकी पत्नी सुप्रभा, एक हजार पुत्र और सुलोचना एवं प्रक्षमाला नाम की दो पुत्रियों का भी वर्णन है ।' किन्तु 'जयोदय' महाकाव्य में राजा अकम्पन का दूत जब सुलोचना-स्वयंवर का समाचार लेकर प्राता है, तब हमें काशीनरेश की पत्नी और उनकी पुत्री सुलोचना का नाम सहित परिचय ज्ञात हो पाता है किन्तु काशीनरेश का नाम एवं उनके एक हजार पुत्र एवं प्रक्षमाला नाम की पुत्री का परिचय तो हमें बाद में ही ज्ञात होता है । 3 (ब) 'महापुराण' में सभी राजाओंों को दूतों द्वारा सामान्य रूप से बुलवाया गया है ४, जबकि 'जयोदय' में दूत ने विशेष प्राग्रह से जयकुमार को ही निमन्त्रण दिया है। अन्य राजानों को बुलवाने का केवल उल्लेख मात्र ही किया है । " (ट) 'महापुराण' में महेन्द्रदत्त कंचुकी ने ही सुलोचना को राजाओं से परिचित कराया। इसमें किस-किस देश के राजा हैं, ऐसा उल्लेख नहीं मिलता । किन्तु 'जयोदय' में विद्यादेवी ने सुलोचना के सम्मुख प्रयोध्या, कलिंग इत्यादि देशों के राजानों का विस्तृत परिचय दिया है । (ठ) 'महापुराण' में उल्लेख मिलता है कि अर्ककीर्ति प्रौर जयकुमार के युद्ध के पश्चात् सभी ने नित्य मनोहर नामक चैत्यालय में पहुँचकर जिनेन्द्रदेव की स्तुति की, 'जयोदय में यह वर्णन तो है कि युद्ध के पश्चात् सबने जिनेन्द्रदेव की पूजा की 'किन्तु किसी मन्दिर का उल्लेख नहीं है । है । ० 'महापुराण' में सुलोचना के रूप-सौन्दर्य एवं १ किन्तु 'जयोदय' में इन वातों का विस्तृत वर्णन किया गया है ।' विवाह का संक्षेप में ही उल्लेख ७१ (ढ) 'महापुराण' में जिनेन्द्रदेव की पूजा के बाद शेषाक्षत देने के लिए सुलोचना जब अपने पिता के पास माती है, तब पुत्री को पूर्णयुवती देखकर राजा अकम्पन की १. महापुराण ( प्रादिपुराण भाग-२) ४३।१२७-३५ २. जयोदय, ३।३३-३७ ३. बही, ५८, ७१८६ ४. महापुराण ( प्रादिपुराण भाग-२), ४३।२०२-२०३ ५. जयोदय, ३।२६-६३, ४१ ६. महापुराण (आदिपुराण भाग-२), ४३ | ३०१-३०८ ७. जयोदय ६।६-११ ८. महापुराण (प्रादिपुराण भाग-२), ४४ । ३५६ ६. जयोदय, ८८६ एवं उसके बाद का गीत । १०. महापुराण (प्रादिपुराण भाग-२) ४३-१३७-३३७ ११. जयोदय, ३।३०-११६, चतुर्थ सर्ग से द्वादश सगं तक । Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकविमानसागर के काम्य-एक अध्ययन इच्छा उसका विवाह करने की होती है ।' किन्तु जयोदय' में इस घटना का कोई उल्लेख नहीं है। (ण) 'महापुराण में वर्णन है कि विवाह के बाद अपने मंत्री के पत्र पाने पर जयकुमार हस्तिनापुर लौटने को तैयारी करते है। परन्तु 'बयोदय' में इस बात का उल्लेख नहीं है। (त) महापुगण' में गंगा नदी के तट पर जयकुमार द्वारा रात्रि-विहार, बनकोड़ा इत्यादि के किये जाने का वर्णन नहीं मिलता। किन्तु 'जयोदय' में इन सब बातों का विस्तृत वर्णन है। (य) 'महापुराण' में वर्णन मिलता है कि हेमांगद इत्यादि को गंगा नदी के किनारे छोड़कर जयकुमार जब सम्राट् भरत से मिलने गए तो प्रकीर्ति इत्यादि ने उसका स्वागत किया। किन्तु जयोदय' में जयकुमार का प्रकोर्ति इत्यादि से स्वागत पाने का वर्णन नहीं है। (२) 'महापुराण' में वर्णित है कि जब जयकुमार सम्राट् भरत से विदा लेकर गंगा नदी के किनारे पहुंचा, तब एक सूखे वृक्ष की डाली के प्रप्रभाग पर स्थित सूर्याभिमुख एक कौए को रोता हुमा देखकर वह सुलोचना के अनिष्ट की माशंका से मूच्छित हो गया पोर पुरोहित के वचनों से प्राश्वस्त होकर उसने मागे चलना प्रारम्भ किया। किन्तु 'जयोदय' में इस घटना का उल्लेख नहीं है। (ब) 'महापुराण' में वर्णन मिलता है कि काली देवी ने जयकुमार के हाथी को सरयू और गंगा के संगन पर पकड़ा। किन्तु 'जयोदय' में सरयू मोर गंगा के संगम का उल्लेख नहीं है। (प) 'महापुराण' में उक्त घटना के पश्चात् जयकुमार के सीधे हस्तिनापुर पहुंचने का वर्णन है, जबकि 'जयोदय' में जयकुमार भीलों और ग्वालों की बस्तियों में होता हुमा हस्तिनापुर पहुंचा है। (न) 'महापुराण' में उल्लिखित है कि पुत्री के सुख-समाचार को जानकर राजा प्रकम्पन ने हेमांगद का राज्याभिषेक कर दिया मोर सुप्रभा एवं अनेक राजामों के १. महापुराण (प्रादिपुराण, भाग-२), ४३।१८० २. बही, ४५६७-६८ ३. जयोदय, १३॥५२-११६, चतुर्दश से सप्तदश सर्ग तक । ४. महापुराण (मादिपुराण, भाग-२), ४५।११४-११५ ५. वही, ४५।१३६-१४१ ६. वही, ४५।१४४ ७. वही, ४५॥१७०-१७७ ८. बयोदय, २०११-७८ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि मानसागर के संस्कृत-काव्य-प्रन्यों के स्रोत साथ भगवान् ऋषभदेव से दीक्षा ग्रहण करके केवल ज्ञान प्राप्त कर लिया।' पर 'जयोदय' में राजा के वैराग्यमात्र ग्रहण करने का वर्णन मिलता है। (क) 'महापुराण' में वर्णन मिलता है कि जयकुमार ने अपने महल की छत पर एक कृत्रिम हापी में बैठे हुए विद्याधर-दम्पती को देखा । पर 'अयोग्य' में कृत्रिम हाथी का नहीं, बरन पाकाश-विमान का वर्णन है।' (ब) 'महापगण' में जयकुमार और सुलोचना के पूर्वजन्मों का वर्णन बड़े विस्तार मे किया गया है। वहां इन दोनों के प्रत्येक जन्म के सम्बन्धियों के जन्मों से सम्बन्धित अवान्तर कथामों का भी विस्तृत वर्णन है, पर 'अयोग्य' में पूर्वजन्मों का वर्णन संक्षेप में ही किया गया है। (भ) 'महापुराण' में सुलोचना एवं जयकुमार के हर जन्म के सम्बन्धियों से सम्बन्धित कथाएं विस्तृत होने के साथ ही प्रत्यधिक जटिल भी हैं, जिससे पाठक को मूलकपा को समझने में काफी असुविधा होती है। इसमें लोकपाल के पुत्र श्रीपाल का वृत्तान्त भी विस्तार से वरिणत है।' 'जयोदय' में जयकुमार पोर सुलोचना के पूर्वजन्म के सम्बन्धियों से सम्बन्धित प्रवान्तर कथामों से मूलकथा को नहीं उलझाया गया है; और श्रीपाल की कथा का भी जयोदय में प्रभाव है। (म) 'महापुराण' में वर्णन मिलता है कि स्वर्ग में उत्पन्न होने के बाद पूर्वजन्म को कथाएं सुनने सुनाने के बाद सुलोचना मोर जयकुमार ने गुणपाल तीर्थकर की वन्दना की। किन्तु 'जयोदय' में यह वर्णन नहीं मिलता। (य) 'महापुराण' में वर्णन है कि ऋषभदेव की वन्दना के पश्चात् उनके उपदेश से प्रभावित होकर जयकुमार ने शिवंकरा महादेवी के पुत्र अनन्तवीर्य का राज्याभिषेक कर दिया और अपने छोटे भाई विजय, संजयन्त एवं रविकीर्ति, रविजय, मरिंदम, परिजय इत्यादि चक्रवर्ती के पुत्रों के साथ दीक्षा धारण कर ली। किन्तु 'जयोदय' में इस सन्दर्भ में जयकुमार के अतिरिक्त अन्य किसी की चर्चा नहीं की गई है। १. महापुराण (मादिपुराण, भाग-२), ४५।१८६-२०६ २. अयोदय, २०६७ ३. महापुराण (माधिपुराण, भाग-२), ४६।१ ४. जयोदय, २३।१० ५. महापुराण (मादिपुराण, भाग-२), ४६।१६-३६६ ६. जयोदय, २३।४५-६७. ७. महापुराण (मादिपुराण, भाग-२), ४७।१-२५० ८. वही, ४७।२५१-२५२ ९. वही, ४७।२७४-२७९ १०. जयोदय, २६६८-१०७ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य- एक प्रध्ययन जयोदय महाकाव्य की कथा की तुलना जब हम 'महापुराण' में वरिणत जयकुमार की कथा से करते हैं तो ज्ञात होता है कि महाकवि ने 'जयोदय' के कथानक में परिवर्तन तो किए हैं पर परिवर्धन कोई नहीं किया है । ७४ (ङ) वीरोदय महाकाव्य के कथानक का स्रोत 'वोvier' महाकाव्य के कथानक का स्रोत महापुराण का तृतीय भाग उतरपुराण है, जिसमें पर्व ७४ से ७६ तक भगवान् महावीर की कथा बड़े विस्तार से बरित है। इस कथा का सारांश इस प्रकार है : विदेह क्षेत्र में सीता नदी के किनारे पर स्थित पुष्कलावती नाम के देश की पुण्डरीकणी नगरी में मधु नामक वन है । उस वन में पुरुरवा नाम का भीलराज अपनी स्त्री कालिका के साथ रहता था । इस भील ने क्रमशः सोधर्म स्वर्ग के देव श्री ऋषभदेव के पौत्र मरीचि के रूप में जन्म लिया। यह प्रपने बत्तीसवें जन्म में प्रत स्वर्ग में बाईस सागर की प्रायु वाला श्रेष्ठ इन्द्र हुम्रा । विदेह देश में स्थित कुण्डनपुर में राजा सिद्धार्थ का राज्य था; उनकी रानी प्रियकारिणी ने भाषाढ़ शुक्ल षष्ठी के दिन रात्रि के अन्तिम प्रहर में सोलह स्वप्न देखे; साथ ही मुख में प्रवेश करते हुए एक अन्य हाथी को भी देखा । प्रातः काल स्नान करने के बाद स्वप्नों का फल जानकर वह प्रत्यन्त सन्तुष्ट हो गई । इसी बीच - सभी देवगणों ने रानी का अभिषेक किया; प्रोर देवी-देवों को उसकी सेवा में नियुक्त किया । चैत्र शुक्ल त्रयोदशी के दिन रानी प्रियकारिणी ने प्रच्युतेन्द्र नाम के कुलभूषण पुत्र को जन्म दिया । प्रियकारिणी के पुत्र को सौधर्मेन्द्र ने स्वर्ग से श्राकर ऐरावत हाथी पर चढ़ाया; मोर सुमेरु पर्वत पर ले जाकर उसका अभिषेक किया; स्तुति की; और उसे उसने वीर और वर्धमान, दो नाम भी दिये । तत्पश्चात् बालक को उसके माता-पिता को दे दिया; श्रीवर्धमान को प्रणाम करके देवगरणों सहित इन्द्र ने स्वर्ग को प्रस्थान किया । श्रीवर्धमान की प्रायु बहत्तर वर्ष थी; मौर वह सात हाथ ऊँचे थे । संजय और विजय नाम के दो चारण मुनियों ने उनका दर्शन करके उनका नाम सन्मति रखा । एक बार इन्द्र की सभा में भगवान् की शूरवीरता की प्रशंसा हो रही थी, तब संगम नामक देव ने सर्प का रूप धारण करके श्रीवर्धन की परीक्षा लेनी चाही । सर्प को देखकर वर्धमान के साथ खेलने वाले बालक डर कर भाग गये, किन्तु वर्धमान ने निर्भय होकर उस सर्प पर चढ़कर क्रीड़ा की । कुमार की क्रीड़ा से प्रसन्न होकर संगम ने श्रीवर्धमान की स्तुति करके उनका नाम 'महावीर' रख दिया । जब भगवान् तीस वर्ष की अवस्था पार कर चुके तव उन्हें प्रात्मज्ञान हुआ; और सभी पूर्वजन्मों का स्मरण हो गया। इस समय देवगरणों ने उनकी स्तुति की। भगवान् चन्द्रप्रभा नाम की पालकी पर सवार हुए। उस पालकी को पृथ्वी के राजाओं Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-काव्य ग्रन्थों के स्रोत - ७५ ने फिर विद्याधर राजापों ने और फिर इन्द्रों ने उठाया। षण्ड वन में पहुंचकर भगवान् पालकी से उतर गा और शिला पर बैठ गए। मार्गशीर्ष की कृष्णपक्ष की दशमी तिथि को उन्होंने अपने बस्त्राभूषण त्यागकर संयम धारण कर लिया। इन्द्र ने भगवान् के वस्त्राभूषण और केशों को उठा लिया। उसने देवगणों के साथ जाकर क्षीरसागर में उन वस्तुमों को विसर्जित कर दिया। इसी समय भगवान् को मनः पर्यय ज्ञान की प्राप्ति हुई। देवगण उनकी स्तुति करते हुये अपने-अपने स्थानों को चले गये। व्रत को पारणा के लिए भगवान कूल ग्राम पहुंचे। वहां पर राज्य करने वाले कूल नामक राजा ने उनके दर्शन किये; उनकी तीन प्रदक्षिणा करके उन्हें बार-बार प्रणाम किया। उत्तम प्रासन पर बिठाकर उसने भगवान् को खीर का माहार समर्पित किया। इसके बाद एकान्त में तपश्चरण की इच्छा से भगवान् किसी तपोवन में पहुंचे और दशा प्रकार के घHध्यान के चिन्तन में लीन हो गये । एक दिन उज्जयिनी नगरी के प्रति मुक्तक श्मशान में प्रतिमायोग में स्थित भगवान् महावीर के धर्य की महादेव रुद्र ने परीक्षा लेनी चाही। उसने भगवान् को विचलित करने के लिए अनेक भयंकर कर्म किये. किन्तु अपनी चेष्टा में असफल होकर उसने भगवान् के महति मौर महाबीर दो नाम रखे; मोर उनकी स्तुति करके चला गया। राजा चेटक की पुत्री चन्दना को किसी विद्याधर ने अपनी स्त्री के भय से महाटवी में छोड़ दिया। वहाँ किसी भील ने उस कन्या को उठाकर वृषभदत्त सेठ को दे दिया। सेठ की शंकालु स्त्री सुभद्रा ने चन्दना पर अनेक प्रतिबन्ध लगा दिये । भगवान महावीर के दर्शनों से उसके बन्धन समाप्त हो गए। उसने भगवान् का स्वागत करके उन्हें प्राहार दिया, फलस्वरूप वह अपने सम्बन्धियों के पास पहुँच गई। छमस्थ अवस्था के बारह वर्ष व्यतीत करने के बाद जम्भिक ग्राम के ऋजुकूला नदी के तटवर्ती मनोहर नामक वन के मध्य में रत्नमयी शिला पर बैठकर भगवान् प्रतिमायोग में स्थित हो गये। वैशाख शुक्ला दशमी के दिन बह क्षपणक श्रेणी पर प्रारूढ़ हुए। शुक्लध्यान के द्वारा पातिया कर्मों को नष्ट करके उन्होंने कैवल्यज्ञान प्राप्त कर लिया। इसी बीच सौधर्मेन्द्र ने देवगरणों के साथ माकर उनकी पूजा की। समवशरण की रचना के पश्चात् भगवान् परमेष्ठी और परमात्मा पदों से सुशोभित हुए। ___ इस समय इन्द्र की प्रेरणा से गौतमगोत्रीय इन्द्रभूति ब्राह्मण भगवान् के पास प्राया। भगवान् का उपदेश सुनकर वह उनका शिष्य बन गया । सौधर्मेन्द्र ने उसकी पूजा की । इन्द्रभूति ने पांच सौ ब्राह्मणों के साथ भगवान् को नमस्कार करके Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य-एक अध्ययन संयम धारण किया। गौतम इन्द्रभूति भगवान् का प्रथम गणधर बना। उसके बाद वायुभूति, अग्निभूति, सुधर्म इत्यादि दश गणधर भोर हुए। भगवान् के समीप तीन सो ग्यारह अंग, चौदह पूर्वो के धारक, नौ हजार-नो सो संयम को धारण करने वाले शिक्षक, एक हजार तीन सो अवधिज्ञानी, सात सौ केवलज्ञानी परमेष्ठी, नौ सौ विक्रिया ऋद्धि के धारक, पांच सौ मनःपर्ययज्ञानी, चन्दनादि छत्तीस हजार प्रायिकायें, एक लाख श्रावक, तीन लाख श्राविकायें. अनेक देव-देवियां और तिर्यञ्च थे। भगवान् का उपदेश सुनकर अनेक लोग लाभान्वित हुए। धर्म का उपदेश देते हुए भगवान् राजगृह पहुँचे और वहां विपुलाचल पर स्थित हो गए। राजगृह का राजा श्रेणिक मौर उनका पुत्र अभयकुमार भगवान के दर्शनों के लिए गए। राजा पौर राजकुमार ने गणधर स्वामी से अपने पूर्वजन्मों के विषय में सुना; मोर अन्य केवली पोर माथिकामों इत्यादि के वृत्तान्त भी सने । राजा श्रेणिक को इन्द्रभूति गणधर ने भगवान का अग्रिम कार्यक्रम बताया कि भनेक देशों में विहार करते हुए भगवान् अन्त में पावापुर जायेंगे, वहां के मनोहर नामक बन में अनेक सरोवरों के बीच मरिणमयी शिला पर विराजमान होंगे। दो दिन तक यहां स्थित रहकर कात्तिक कृष्ण चतुर्दशी के दिन रात्रि के अन्तिम समय में शुक्लध्यान करेंगे। फिर एक हजार मुनियों के साथ मोक्षपद प्राप्त करेंगे । इन्द्र पाकर भग्नीन्द्र कुमार के मुकुट से प्रज्वलित होने वाली अग्नि की शिखा पर भगवान् का शरीर रखेंगे; उनकी पूजा करेंगे। इस प्रकार भगवान् निर्माण को प्राप्त करेंगे। भगवान् के निर्वाण के बाद गौतम इन्द्रभूति को कंवल्यज्ञान की प्राप्ति होगी। गौतम इन्द्रभूति के बाद सुधर्म गणधर कैवल्य ज्ञान प्राप्त करेंगे । जम्बूस्वामी पन्तिम केवली होंगे। इसके बाद नन्दी मुनि, भेष्ठो धनमित्र, अपराजित, गोवर्धन पौर भद्रबाह मुनि भूतकेवली होंगे । इसके बाद विशाखार्य, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जय, नागसेन, सिद्धार्थ, तिषेण, विजय, बुद्धिल, गंगदेव मोर बुद्धिमान् धर्मसेन जनधर्म के अनुयायी होंगे । नक्षत्र, जयपाल, पाण्ड, ध्रुवसेन मोर कंसायं ग्यारह मंगों को जानने वाले होंगे । सुभद्र, यशोभद्र, प्रकृष्ट, बुद्धिमान्, यशोबाहु मोर चोथे लोहाचार्य पार पाचारांगों के ज्ञाता होंगे।' (यह कथा यहीं समाप्त हो जाती है) (च) मूलकथा में परिवर्तन और परिवर्धन महाकवि श्रीज्ञानसागर ने महापुराण में वर्णित महावीर की कथा में ही परिवर्तन नहीं किया है अपितु उसके क्रम में भी परिवर्तन किया है। उनके द्वारा किए गए परिवर्तन इस प्रकार हैं: (क) 'महापुराण' में महावीर की कथा का प्रारम्भ उनके पूर्वजन्मों के १. गुणभद्राचार्य विरचित महापुराण (उत्तरपुराण), पर्व ७४ से ७६ तक । Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-काव्य-ग्रन्थों के स्रोत वर्णन से किया गया है।' इसके विपरीत 'वीरोदय' में कथा का प्रारम्म कुण्डनपुर नगर-वर्णन से किया गया है। इसमें पूर्वजन्मों का वर्णन बाद (ख) 'महापुराण' में भगवान् महावीर के पूर्वजन्मों का जितने विस्तार से वर्णन किया गया है, उतने विस्तार से 'वीरोदय' में नहीं किया गया है। (ग) 'महापुराण' में पूर्वजन्मों की कथा पुरुरवा भील के भव से प्रारम्भ की गई है, जिसमें भील का पूर्ण परिचय दिया गया है।५ 'वीरोदय' में पूर्वजन्मों की कथा के वर्णन में ऋषभदेव के पौत्र मरीचि के जन्म का सर्वप्रथम उल्लेख है। (घ) 'महापुराण' में वरिणत भगवान् महावीर के जटिल, ब्राह्मण, सौधर्म स्वर्ग का देव, पुष्यमित्र ब्राह्मण, सौधर्म स्वर्ग का देव, अग्निसह नामक ब्राह्मण, स्वर्ग का सात सागर की प्रायु वाला देव, मग्निमित्र ब्राह्मण, माहेन्द्र स्वर्ग का देव, · भरद्वाज ब्राह्मण और माहेन्द्र स्वर्ग का सात सागर की मायु वाला देवइन दस भवों का वर्णन 'वीरोदय' महाकाव्य में नहीं किया गया है। (ङ) 'महापुराण' में वर्णित भगवान् के २३वें सिंह भव में उनको उपदेश देने वाले मुनियों का नाम प्रतिजय और अमितगुण बताया गया है। 'वीरोदय' में मुनि के नाम का उल्लेख नहीं है । (च) 'महापुराण' में बताया गया है कि यह सिंह मरकर सौधर्म स्वर्ग में सिंहकेतु नाम का देव हुमा, किन्तु वीरोदय में स्वर्ग एवं देव का नामोल्लेख नहीं है। (छ) 'महापुराण' में महावीर की माता प्रियकारिणी द्वारा देखे गये सोलह स्वप्नों का उल्लेख नहीं है, और इसका कारण यह है कि 'महापुराण' के रचयिता ने ऋषभदेव के जन्म-प्रसंग में ही तीर्थङ्कर की माता को दिखाई देने वाले स्वप्नों १. गुणभद्राचार्य विरचित महापुराण (उत्तरपुराण), ७४।१५-१६ २. वीरोदय, २।२१ ३. महापुराण (उत्तरपुराण), ७४।१-२५० ४. वीरोदय, ११।१-३६ ५. महापुराण (उत्तरपुराण), ७४-१५-२२ ६. वीरोदय, ११८ ७. महापुराण (उत्तरपुराण), ७४१६८-८० ८. वही, ७४।१७३ ६. वही, ७४१२१६ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य-एक अध्ययन का वर्णन कर दिया है । किन्तु 'वीरोदय' में रानी प्रियकारिणी द्वारा देखे गये स्वप्नों का विस्तार से वर्णन है। (ज) 'महापुराण' में जिस तिथि को रानी ने स्वप्न देखे, उसका भी उल्लेख 'वीरोदय' में नहीं है । (झ) 'महापुराण' में वर्णन मिलता है कि अभिषेक के समय इन्द्र ने भगवान् को वीर पोर वर्धमान ये दो नाम दिये । 'वीरोदय' में केवल 'वीर' नाम का ही उच्चारण इन्द्र द्वारा किया गया है । ५ वर्धनान नाम सिद्धार्थ ने ही दिया। (ब) 'महापुराण' में भगवान् की आयु और लम्बाई का उल्लेख है, 'वरोदय' में इस बात का कोई संकेत नहीं किया गया है। (ट) संजय मौर विजय नाम के दो चारण मुनियों ने भगवान् का नाम 'सन्मति' रखा, 'महापुराण' में उल्लिखित इस घटना का उल्लेख 'वीरोदय' में नहीं मिलता। (ठ) संगम देव ने सर्प का रूप धारण करके भगवान् के धर्य की परीक्षा ली, प्रौर तत्पश्चात् भगवान् का नाम 'महावीर' रखा, 'महापुराण' में वरिणत इस कथा का भी वर्णन 'वोरोनय' में नहीं है। (ड) जब भगवान् को प्रात्मज्ञान हुप्रा और पूर्वजन्मों का स्मरण हुमा, तब उनकी अवस्था तीस वर्ष की थी,१० 'महापुराण' में उक्त बात का संकेत 'वीरोदय' में नहीं मिलता। .. (ढ) मनःपर्ययज्ञान प्राप्त करने से पूर्व भगवान् चन्द्रप्रभा नाम की पालको पर सवार हुए। उस पालकी को पृथ्वी के राजाओं ने, फिर विद्याधर राजाओं ने, और फिर इन्द्र ने उठाया। षण्ड-वन में पचकर भगवान् पालकी से उतर गये, मोर एक शिला पर बैठ गये। उनके द्वारा उखाड़े हुए केसों और वस्त्राभूषणों को उठाकर इन्द्र ने क्षीरसागर में विसजित कर दिया । १ १ 'महापुराण' के इस वर्णन का 'वीरोदय' में प्रभाव है । १. महापुराण (प्रादिपुराण, भाग-२), १२।१०२-१२० २. वीरोदय, ४२७।६१ ३. महापुराण (उत्तरपुराण), ७४।२५३ ४. वही, ७४१२७६ ५. वीरोदय, ७।३१ ६. वही, ८६ ७. महापुराण (उत्तरपुराण), ७४।२७६-२८१ ८. वही, ७४।२८२-२८३ ६. वही, ७४१२८७-२६५ १०. वही, ७४।२६६-२६७ ११. वही, ७४।३०५-३०६ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-काव्य-ग्रन्थों के स्रोत - ७६ (ण) व्रत की पारणा के लिए भगवान् का कूलग्राम जाना, वहां के राजा कूल से प्रादर प्राप्त करना, तत्पश्चात् दश प्रकार के धयंज्ञान में लीन होना इत्यादि' 'महापुराण' में वर्णित बातों का वर्णन 'वीरोदय' में नहीं है । (त) 'महापुराण' में वरिणत महादेव रुद्र द्वारा ली गई भगवान् की परीक्षा का उल्लेख भी 'वीरोदय' में नहीं है। (य) राजा चेटक की पुत्री चन्दना का उल्लेख भी 'महापुराण' में ही है। 'वीरोदर' में नहीं। (द) 'महापुराण' में वर्णन है कि जम्भिक ग्राम के समीपस्थ ऋजुकूला नदी के तटवर्ती मनोहर नामक बन में भगवान् को कैवल्यज्ञान प्राप्त हुमा ।। 'वीरोदय' में इन स्थानों का उल्लेख नहीं है । (घ) 'महापुराण' में वर्णन है कि समवशरण मण्डप में भगवान् से प्रभावित होने के पश्चात् इन्द्रभूति भगवान् का प्रथम गणघर बना । राजा श्रेणिक को उसी ने बताया कि भगवान् मोक्ष कब प्राप्त करेंगे।५. 'वीरोदय' में यह बात इन्द्रभूति से नहीं कहलवाई है, और न ही भगवान् के अग्रिम कार्यक्रम के रूप में उसका उल्लेख है। कवि ने क्रमशः घटित होने वाली घटनामों के रूप में इनको प्रस्तुत किया है। (न) 'महापुराण' में स्थान-स्थान पर भगवान् के उपदेश का उल्लेख मात्र है, किन्तु 'वीरोदय' में भगवान् के उपदेशों का विस्तार से वर्णन है । मूलकथा में परिवर्धन (क) 'महापुराण' में भगवान् का अभिषेक कराने के लिए इन्द्रादि देवगणों के साथ इन्द्राणी के आने का वर्णन नहीं मिलता। किन्तु 'वीरोदय' में प्रसूतिकक्ष से भगवान् को बाहर लाने का, अभिषेक के पश्चात् वस्त्राभूषण धारण कराने का कार्य इन्द्राणी द्वारा ही वरिणत है। १. महापुराण (उत्तरपुराण), ७५॥३१८.३३० २. वही, ७३।३३१-३३७ ३ वही, ७४।३३८-३४७ ४. वही, ७४।३४८-३५५ ५. वही, ७४।३७१, ७६१५१२ ६. वीरोदय, १४।१, २११२१ ७. महापुराण (उत्तरपुराण), ७४१३५६, ३६६-३७०, ३०४ ८. वीरोदय, १४।२४।४३, १६।२-३० तथा १७।१६ सर्ग । ६. वही, ७.१३, ३५, ३६ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य-एक अध्ययन (ख) 'महापुराण' में 'वीरोदय' में वर्णित इस बात का उल्लेख नहीं मिलता कि जब इन्द्र भगवान् महावीर का जन्माभिषेक करके स्वर्ग चला गया, तब राजा सिद्धार्थ ने पुनः उनका जन्माभिषेक किया।' (ग) 'महापुराण' में 'वीरोदय' में वर्णित इस बात का भी उल्लेख नहीं मिलता कि भगवान् के युवक होने पर उनके विवाह का प्रस्ताव माया, जिसे उन्होंने अस्वीकृत कर दिया ।२ (घ) 'वीरोदय' में उक्त घटना के बाद ही भगवान् के विरक्त होने का वर्णन है । यह वर्णन भी 'महापुराण' में नहीं मिलता। (ङ) 'वीरोदय' में पौराणिक प्राख्यानों और ऋषभदेव से सम्बन्धित घटनामों का वर्णन है।४ 'महापुराण' में भगवान् के उपदेश के बीच में इन कथापों का उल्लेख नहीं है। (च) भगवान् महावीर के पश्चात जैन-धर्म में ह्रास भोर परिवर्तन का जो वर्णम 'वीरोदय' में किया गया है, वह 'महापुराण' में नहीं है । (छ) सुदर्शनोदय महाकाव्य के कथानक का स्रोत 'सुदर्शनोदय' के नायक सुदर्शन की कथा हमें अनेक पूर्ववर्ती कवियों द्वारा रचित कथाकोशों एवं काव्यों में देखने को मिलती है, जिनमें (क) हरिषेणाचार्यकृत बृहत्कथाकोश, (ख) मुनि नयनन्दि कृत सुवंसरणचरिउ, (ग) रामचन्द्र मुमुक्षकृत पुण्यास्रव कथाकोश (घ) नेमिदत्ताचार्यकृत पाराधनाकथाकोश (ङ) सकलकोतिकृत सुदर्शनचरित और (च) विद्यानन्दिविरचित सुदर्शनचरित उल्लेखनीय हैं। क्रमशः इन सबका सारांश प्रस्तुत हैवृहत्कथाकोश में वरिणत 'सुमग गोपाल' के कथानक का सारांश___अंगदेश में विद्यमान चम्पापुरी में दन्तिवाहन नाम का राजा राज्य करता था। उस राजा की रानी का नाम प्रभया था। रानी की पण्डिता नाम की एक दासी थी। इसी नगर में ऋषभदास नामक सेठ अपनी स्त्री जिनदासी के साथ रहता था। इस सेठ की भैसों को सुभग नाम का ग्वाला चराया करता था। एक दिन सुभग भैसों को चराने के लिए जंगल में गया। लोटते समय मार्ग में उसने शीतकाल में एक चारणमुनि को तप करते हुए देखा। घर माकर वह सो गया। मुनि के गुणों पर प्राकष्ट होकर वह प्रातःकाल पुनः भैसों को लेकर उसी दिशा की ओर चल पड़ा। वहां मुनि को नमोऽहंते मन्त्रोच्चारणपूर्वक १. वीरोदय, ८।१.६ २. वही, ८।२२-४६ ३. वही, नवम सर्ग। ४. वही, ८।३६-४१, १७४२०, ३७, १८।११-४३ ५. वही, २२वा सर्ग, Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत काव्य-प्रन्यों के स्त्रोत पाकर वह सो गया। मुनि के गुणों पर प्राकृष्ट होकर वह प्रात:काल पुनः भैसों को लेकर उपी दिशा की ओर जा पड़ा। हाँ मुनि की 'नमोऽहने मन्त्रोच्चारण पूर्वक प्राकाशगामिनी विधा को देख कर स्वयं भी उसे प्राप्त करने की इच्छा करने लगा। सेठ ने उसे जिननाम लेने को मना किया। तब सेठ दो मुनि का वृत्तान्त सुनाकर उसने जिननाम छोड़ने में पपी समर्थ प्रकट की। सुग गोप की बात सुनकर पेठ ने उसे जियारे को पमपि दी। एक दिन मेठ की भै गंगा में उतर कर दूसरी पोर एक खेत में पहुँच गई। यह देखकर ग्वाला उन्हें लाने के गिर जब वेगपूर्वक नदी में कूदा तो एक लकड़ी की नोक के शिर में चुभ जाने के कारण उसकी मृत्यु हो गई। बराश्चात् ग्वाले का जीव सेठ को पत्नी जिमदासी के गर्भ में प्रा गया। गर्भावस्था के नौ महीने बीतने पर उसने एक पुत्र को जन्म दिया। उसका नाम सुदर्शन रखा गया । मुदर्शन कमशः सब विद्यानों और कलामों को प्राप्त करता हुमा युवावस्था में पच गया। __चम्पापुर में ही सागरसेन नामक सेठ रहता था। उसकी स्त्री सागरसेना से मनोरमा नाम की पुत्री ने जन्म लिया। इसी मनोरमा से मृदर्शन का विवाह हो गया । मनोरमा ने सुकान्त नामक पुत्र को जन्म दिया। ऋषभदास ने सुदर्शन को सेठ का पद देकर स्वयं समाविगुप्त मुनि के. समीप दीक्षा धारण कर ली। सुदर्शन का मित्र कपिल ब्राह्मण राजा का पुरोहित था। इसकी कपिला नाम की स्त्री सुदर्शन के गुणों पर प्रासबन हो गई। एक दिन किसी दूती के द्वारा संदेश को पहुँचाकर उसने सुदर्शन को अपने पास बुलवाया। उसके घर पाकर सुदर्शन ने कपिल के विषय में पूछा। तव कपिला ने कहा कि वह अन्दर सो रहे हैं, तुम शीघ्र जात्रो। अन्दर जाकर, अपने मित्र को न पाकर सुदर्शन ने पुनः कपिल के विषय में पूछा। तब कपिला ने पुनः कहा कि वह घर में नहीं है और यदि तुम मेरा इच्छित कार्य नहीं करोगे तो मैं तुम्हारा वष करवा दूंगी। कपिला के निन्दित वचन मुनकर एवं बेष्टाएं देखकर सुदर्शन ने अपने को पौरुषहीन बता दिया । यह सुनकर कपिला ने विरक्त होकर उसे विदा कर दिया। एकदिन राजा दन्तिवाहन कपिल मोर सदर्शन के साथ उपवन में बिहार करने को गया। रानी अभया, कपिला पोर मनोरमा भी शिविका में बैठकर पन जाने के लिए निकलीं। मार्ग में प्रभया ने कगिला से पूछा कि पुत्रादि से युक्त यह किसकी स्त्री है? कपिसा ने उत्तर दिया कि यह सुदर्शन की भार्या है। कपिला के वचन सुनकर रानी मे पुषन्ती मनोरमा की प्रशंसा की। रानी के वचन सुनकर कपिलासकर बोली कि युवतियां तो कौशल से पुत्रों को उत्पन्न करती हैं। रानी ने मनोरमा के पातिव्रत्य की बात कहकर उसकी इस कठोर बात को कहने का Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ महाति जानसागर के काम.....क अध्ययन कारण पछा, तब कपिला ने कहा कि सुदर्शन ने मुझे बताया था कि वह नमक है । कपिल के व वन मनकार रानी ने कहा कि तुम ठगी गई हो। मदर्शन अपनी स्त्री के लिए नहीं, अन्य स्त्रियों के लिए नपुंसक है। करिता अभाः को उपके पर की चुनौती देने हा मुदर्शन को वश में करने के लिए न । अभया ने कह दिया कि मैं सुदर्शन को वा में करने में समर्थ हैं। माजमहल पहुँचकर गनी ने अपनी पण्डिताय को बुलाया और लज्जा त्याग कर कहा कि मदर्शन को शीघ्र हो मेरे घर ले प्रा. अ.था मैं पागा त्याग दंगी। पण्डिता ने इसे प्रशोभन कार्य समभ कर रानी को जात गमभाया। तब रानी ने कहा कि मैंने कपिला ब्राह्मणी के सम्मुख प्रतिज्ञा बी क मादि वह मेरे द्वारा प्रसन्न नहीं किया गया तो मैं प्राण त्याग दूंगी। निकाय दामी ने अध्या मे कहा कि पर्व के दिनों में रात्रिवेला में एकान्त में वह सदर्शन स्थिरचित्त होकर बैठा रहता है। तभी उपाय सहित सको लाया जायगा ! - इसके बाद वह दामी कुम्भकार के घर गई और रमने काभकार मे सात मिट्टी के पलले बनाये। उनमें से एक पुतले को वापर प्रतिपदा के दिन दासी गर्न के महल की प्रोर कढ़ी तो नामाल ने उगे?: । द्वगाल के प्रश्नों को सनसार सने कह दिया कि जो मुझे अच्छा लगता है. उसे लेकर जा रही हूँ, नुहा नया न कमान है ? तब क्रोध में युका म का रनरीय पकड़कर खींवा, कसम्बका पुतना जमीन गिर करके नईया । बोध से कम्ति शी यानी पण्डिया ने कहा कि यह पुल मैं मर के लिए ले जा रही थी, इसके पूजन के पश्चात हो रानी नअन गरेगः । किन्तु वह पुतला तुम्हारे द्वारा नष्ट कर दिया गया। विना पुनो के ग. देगकार रानी पीड़ित होंगी। कल इस वृत्तान्ट को राजा से कहार मैं तुम्हारा सिर अवश्य ही कटवा दंगी। दामी के वचनों से डरकर द्वारपाल से उससे अनुना की और दासी को. उसका इच्छित कार्य करने की अनुमति दे दी। द्वारपाल के वचनों से दामी सन्तुष्ट हो गई। ताश्चात् प्रष्टमी तिथि के दिन जब दागी ने मशान : प्रतिगायोग में स्थित सुदर्शन को देखा तय सुदर्शन को उठाकर वह रानी के पास ले गई । गनी की दुश्चेष्टानों से अप्रभावित सदर्शन निश्चल ही बैठा रहा । अन्त में 'इस श्रेष्ठी ने मेरा भोग कर लिया, शीघ्र ही पाओ', इस प्रकार के रानी के वचनों से कष्ट राजा ने लोगों में कहा कि शीघ्र ही श्मशान ले जाकर इसका , शिमछेद कर दो। श्मशान में ले जाकर जैसे ही वे उसे तलवार से मारने को उद्घत हुए. कि तलवार सुदर्शन के गले में पुष्पमाला के रूप में स्थित हो गई। यह घटना होते ही विस्मित Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत काव्य ग्रन्थों के स्रोत हए सभी लोग गदगंन करने लगे। प्रशिसे में मार राजा दनिया :.: ::: :: :: : : :: राज्य ग्रहगा करने की जि । गाना: भावि के. प्रति अपनी निला पोट कर दी। राजः प्रौर मदान परस्पर वाला कर ही रहे थे कि इनने में ही विमलवायन नामक विदा वा माये । मन में सवारियह त्या करके उनसे दीक्षा की यवना को विवहा ने मदर्शन को देगा दे दो। सन का याममा वार मानकर रो ने माघार 7 या वर मरकर पनि में गहुई : राज के दाम 11: तीन को छोड दिया पोटावदी गई। वहां पप वेग के दर्शन का वृनान्न मनाकर देवदला नाम की वेय' के घर रहने लगी। एक बार सदर्शन मुनि भ्रमण करते " पाटलिपत्र चे । गिद्धता दासी ने देवदना को सदगंन के दर्शन कगर। देवता ने कहा कि काला बागी और रानी अभया कामगार में प्राभिज थी मैं स गनि के तृदय में जाता का. सञ्चार कम्गी : ग' 7 देवता ने भोजन करने नाम बाग द्वारा सुदर्शन को ५' वाया : योगी मन देव दत्तः के घ ! जय ही उन्होने घर में प्रवेश किया, बादत ने दार बन्द कर दिया। तीन दिन कि उसने तरहतरह की नामटानी। दर्शन के ऊपर नामों का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। नोबिल मेरो लदेव नः भापीन रीमि करने लगी। में गुदा - पाया गई। वात गतिमा प्रक' गहाना कर यहांन प्रतिमायोग में स्थिर होगः । न मो दिन त - "य कटोर चेष्टायें की। गालन बीत जाने र मन के घानिया और उन्हें कैवल्य की प्राप्ति हो गई। गुण्डा वलो सुदर्शन छर इत्यादि से सुशोभित होने लगे । इसके बाद सदर्शन मुनि के पाम देवगण गाये । देवदत्ता, पण्डिता धाय एवं व्यन्तरी सुदर्शन वली के समीर में गई। वहाँ देवगणों के सम्मुख धर्मोपदेश देते हुए , सुदर्शन के.वाक्य सनकार इन तीनों ने श्रावक धर्म ग्रहण कर लिया। मुनि नयान्दि विरचिन 'सुवंसावरिउ' । सारांश राजगृह के शासक राजा थेटिक के पूछे जाने पर गौतम गधर ने पंचनमस्कार मन्त्र को प्राप्त करने वाले भव्यों के विषय में कहा.. १. हरिपेणाचार्य विरनित वृहत्कथाकोट, मृभगगोपाल कथानकम, ६०वीं कथा । Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य- एक अध्ययन अंगदेश में स्थित चम्पापुरी में धाईवाहन नामक राजा राज्य करता था । उसकी रानी का नाम ग्रभया था। इसी नगर में सेठ ऋषभदास ग्रपनी स्त्री प्रद्दासी के साथ रहता था। उनका सुभग नाम का एक ग्वाला था । एक बार सेठ ने देखा कि सुभग ग्वाला प्रत्येक कार्य करने के पूर्व 'नमोऽर्हते' मन्त्र का स्मरण करता है। उनसे उसको डाटा पौर मन्त्रोच्चारण का कारण पूछा। तब ग्वाले ने सेठ से कहा - मघ के महीने में भयानक जंगल में, सन्ध्या के समय एक दिगम्बर मुनि को मैंने देखा । उनकी वन्दना के बाद घर प्राया । प्रातःकाल यति लेकर उनके पास गया। मैंने परने हाय गर्म करके बार-बार उनके शरीर का स्पर्श किया। सूर्योदय होते ही मुनि ने पैंतीम प्रक्षरों का उच्चारण करने के बाद प्राकाशगार्ग में विहार किया। मैं उन्हीं अक्षरों का स्मरण किया करता हूँ । अन्त में सेठ ने उसे मन्त्रोच्चारण की प्राज्ञा दे दो । 1 रात्रि समाप्त होने पर मैं ८४ एक बार वह ग्वाला नदी को गया । वहाँ वह अन्य ग्वालों के साथ क्रीड़ा करने लगा | उसी समय एक खेत का रखवाला घबराता हुआ उसके समीप घाया और बोला कि तुम्हारी गायें नदी के दूसरे तट की ओर गम्भीर जल में पहुँच गई हैं। यह सुनकर कीड़ा छोड़कर वह मंत्र का स्मरण करके नदी में कूद पड़ा। जल के मध्य में एक नुकीला ठूंठ था, जो उसके हृदय में चुभ गया। पीड़ा को भूलकर उसने अन्त में निदान किया कि मंत्र के उच्चारण के फल में मेरा जन्म उसी कुल में हो । सुभग गोर के जीव के जन्म लेने के पूर्व प्रददामी ने मोते समय पाँच स्वप्न देखे - विशाल पर्वत, कल्पतरु, अमरेन्द्र गृह, विशालसमुद्र और शोभायुक्त अग्नि । प्रातःकाल अपने पति के पास जाकर उसने अपने स्वनों के विषय में बताया दोनों परस्पर परामर्श करके जिनमन्दिर को गये। वहाँ एक मुनि ने स्वप्नों के परिणाम के विषय में पूछने पर उन्होंने बनाया कि तुम्हारा पुत्र पर्वत देखने के कारण सुधीर, कल्पतरु देखने के कारण दानी, अमरेन्द्र का गृह देखने के कारण देववन्द्य, समुद्र को देखने के कारण गंभीर और अग्नि को देखने के कारण पापों को नष्ट करने वाला होगा । प्रनेक गुरणों से युक्त तुम्हारा पुत्र अन्त में मोक्षपद को प्राप्त करेगा । यह सुनकर वे गुनि को प्रणाम करके प्रसन्नतापूर्वक घर लौट पाये । सुभगगोप के जीव ने सेठानी के गर्भ में प्रवेश किया । पौष मास के शुक्लपक्ष की चतुर्थी तिथि, बुधवार के दिन, मर्हद्दासी ने पुत्र को जन्म दिया । सेठ के घर में बड़ी चुम-धाम से पुत्र जन्मोत्सव सम्पन्न किया गया । जन्म के ग्यारहवें दिन प्रहंदासी पुत्र के नामकरण के लिए जिनमन्दिर गई। वहाँ एक मुनिराज ने बालक का नाम सुदर्शन रखा। जब सुदर्शन आठ वर्ष का हुधा, तब सेठ पोर सेठानी उसे विद्या दिलाने के लिये एक मुनिराज के पास गये । Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि मानसागर के संस्कृत-काम्य-प्रमों के लोत ८५ मुनि से विद्या प्राप्त करने के बाद सुदर्शन सोलह साल का युवक हो गया, तब सस्त नर-नारी उससे प्रतिशय प्रेम करने लगे। ___नगर में भ्रमण करते हुए सुदर्शन की मंत्री गुणों से सम्पन्न कपिल ब्राह्मण से हो गई । एक दिन वे दोनों मित्र जब बाजार मार्ग से चल रहे थे, तब उन्होंने एक सुन्दरी बाला को देखा। सुदर्शन ने कपिल से उस रूपवती बाला का परिचय पूछा । कपिल ने बताया कि यह सागरदत्त सेठ की सागरसेना नाम की स्त्री से उत्पन्न मनोरमा नाम की कन्या है। उस बाला को देखकर और उसका परिचय पाकर सुदर्शन काम के वशीभूत हो गया। कपिल ब्राह्मण ने सुदर्शन को स्त्रियों के लक्षणों का उपदेश दिया। अपने मित्र के वचन सुनकर और उसकी प्रशंसा करके व्याकुल सुदर्शन घर चला गया। मनोरमा भी बार-बार सुदर्शन का स्मरण करके व्याकुल होने लगी। - सुदर्शन को अवस्था देखकर सेठ वृषभदास ने उसका विवाह कराने का विचार किया। तब उसे ध्यान पाया कि एक बार द्यूतकीड़ा के समय सेठ सागरदत्त ने कहा था कि यदि मेरी पुत्री उत्पन्न हुई तो उसका विवाह तुम्हारे पुत्र से किया जायगा। जैसे ही सेठ वषमदास मनोरमा को अपने पुत्र के लिए मांगने का विचार कर रहा था कि उसी समय सेठ सागरदत्त वहां प्रा पहुँचा। ऋषभदास की इच्छा जानकर सेठ सागरदत्त प्रसन्नतापूर्वक ताम्बूल लेकर श्रीधर ज्योतिषी के पास पहुंचा मोर उससे विवाह हेतु लग्न पूछा । श्रीधर ने बताया कि वैशाखमास में, शुक्लपक्ष में, पञ्चमी तिथि को रविवार के दिन, मिथुन लग्न ही उत्तम लग्न है। तिथि का निश्चय हो जाने पर दोनों सेठों ने पुत्र-पुत्री के विवाह की तैयारियां की। मध्याह्न के समय उन दोनों के पुत्र एवं पुत्री का परस्पर विवाह सम्पन्न हो गया। विवाह के पश्चात भोगविलास करते हुए उनका सुकान्त नाम का पुत्र हुमा। एक बार समाधिगुप्त नामक मुनि अपने संघ सहित उपवन में माये । सेठ वर्षभदास भी उनके दर्शन करने के लिए गया। ऋषभवास के पूछने पर उन्होंने उसे धर्म का स्वरूप बताया। मुनि के वचन सुनकर सेठ ने घर पाकर सुदर्शन को लोकम्यवहार की शिक्षा दी और अपने वन जाने की इच्छा भी प्रकट कर दी। पुत्र ने भी तप करने की इच्छा प्रकट की तो सेठ ने उसे कुल का भार ग्रहण करने को कहा । पुत्र को समझाकर सेठ और सेठानी समापिगुप्त को प्रणाम करके तपस्या के पश्चात् देवलोक को गये। पिता के बाद सुदर्शन सुखपूर्वक दिवस व्यतीत करने लगा। कपिस भट्ट की स्त्री कपिला ने जब सुदर्शन के सौन्दर्य के विषय में सुना तो मोहित हो गई। अपनी सखी के पंचम राम गाने पर भी उसका मन शान्त नहीं हुमा। कपिलाको विरह वेदना को जानकर सती ने मार्ग में जाते हुए सुदर्शन को देखकर कपिला को उसका दर्शन करवाया। कपिना ने अपनी सती सुवर्शनको पर ले पाने के लिए Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य--एक अध्ययन कहा। मखी सुदन के पास गई और मित्र के मस्तक में वेदना के बहाने से शीघ्र ही उपका घर न पाई । जब उसने अपने मित्र कविय में पूछ तब कपिला ने उसका हाथ पकड़कर रतिसुख की कामना की। सुदर्शन ने कहा मैं तो नपुंसक हूँ । यह सुनते ही विरक्त होकर कपिला ने उसका हाथ छोड़ दिया। __ कुछ दिनों पश्चात् बसन्त ऋतु के प्रागमन पर बनपाल ने राजा को उपवनमें पाने का निमन्त्रण दिया। राज रानी, मुदर्शन-मनोरमा और कपिल एवं कपिला उद्यान-बिहार के ! नए ग? । मनारमा का दखकर रानी ने उसकी प्रशंमा को। रानी के वचन सुनकर कपिलान बताया कि मनोरमा पुत्रवती कैसे हो सकती है ? क्योंकि इसके पति की नपुंसकता के विषय में मैंने किसी से सुना है। तब रानी ने चतुराई में कपिला का सारा वृत्तान जान लिया। उसन कपिला से कह दिया कि वह ठगी गई है। तब कपिला न रानी से कहा कि मैं तो माधारण ब्राह्मणी हूँ और तुम राबरानी हो, मत. तुम ही उस मुदर्शन का चित्त चंवल करके दिखा दो। रानी प्रभया ने कपिला के वचन सुनकर प्रतिज्ञा की कि यदि मैं सुदर्शन के साथ रमण करने में असमर्थ हो जाऊंगा ता गल में फांसी लगाकर आत्मघात कर लूगो । उद्यान क्रीड़ा प्रोर जलक्रीड़ा के बाद रानी न गगार किया। प्रभयादेवी राजमहल में प्राई और शय्या पर लेट गई । उसकी पंडिता धाय ने उसके अनमनेपन का कारण पूछा। रानी ने उसके पाग्रह पर सम्पूर्ण वृत्तान्त मौर पपनी प्रतिज्ञा के विषय में बता दिया। पण्डिता ने रानी को समझाया, उसे हितोपदेश दिया, लेकिन अपनी प्रतिज्ञा की बात बताकर रानी अपने निश्चय पर रद रहो । अन्त में पण्डिता ने रानी की बात मान ली। . (इसके आगे पुतलों द्वारा द्वारपालों को वश में करने का वृत्तान्त 'बृहत्कथाकोश' के समान है।) अष्टमी तिथि के दिन सुदर्शन, मुनि को प्रणाम करके उपवास लेकर श्मशान की मोर चल पड़ा । उसके मार्ग में अनेक अपशकुन माये । लेकिन सभी बाधामों की चिन्ता किए बिना ही भयंकर श्मशान में प्रविष्ट हुमा । वहाँ पहुँचकर जिनेन्द्रदेव का स्मरण करते हुए वह कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़ा हो गया। रात्रि के समय पण्डिता दासी वहाँ पहुंची। उसने सुदर्शन को प्रणाम किया और रानी प्रभया के जीवन की रक्षा करने की प्रार्थना करने लगी। पण्डिता के वचनों का सुदर्शन पर कोई प्रभाव नही पड़ा । पण्डिता ने यह समस्त वृत्तान्त रानी प्रभया को सुना दिया। रानी ने पण्डिता को पुन: भेजा और कहा कि गुदर्शन को जबर्दस्ती उटाकर ले मा। पुतले के बहाने से सबको जिज्ञासा शान्त करती हुई पण्डिता धाय न सुदर्शन को लेकर महल में प्रवेश किया। रानी के प्रसाद न पहुंचकर पण्डिता ने सुदर्शन को गड्ढे में डाल दिया। यह सब स्थिति देखकर सुदर्शन किंकर्तव्यमूढ़ हो गया। उसने प्रतिज्ञा की कि यदि इस वृत्तान्त के बाद मेरा जीवन शेष रहा तो मैं तपश्चरण करूंगा। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत काव्य-ग्रन्थों के त्रांत रानी भयाने सुदर्शन के रूप पर मोहित होकर अनेक मधुर बचन कहे; भांति-भांति की कामवेगवों में मंलग्न रही । अन्त में क्रुद्ध होकर सुदर्शन को फटकारा । पुनः प्रभया ने सुदर्शन को धमकी दी। जब सुदर्शन के मन में कोई भी अन्तर नहीं पाया, वह जरा भी व्याकुल नहीं हुपा, तब रानी बहुत व्याकुल हो गई। मुदर्शन को उठाकर छोड़ने के लिए जैसे ही उसने कदम बढ़ाये कि प्रातःकाल हो गया। उसने सुदर्शन को पुनः विस्तर पर डाल दिया। अपने शरीर पर नखों से प्रहार किया और छाती पीटकर कहने लगी कि इस बनिये ने मेरे सुन्दर अंगों को नोच डाला। ८७ राती की पुकार सुनकर प्रनेक वीरपुरुष धनुष बाण इत्यादि लेकर दौड़ पड़े । राजा को जैसे ही यह समाचार ज्ञात हुम्रा, उसने अपने सेवकों को आज्ञा दी कि जाकर रानो की रक्षा करो, परपुरुष को पकड़कर शीघ्र ही मार डालो । राजा के वचन सुनकर मदोन्मत्त सेवकों ने सुदर्शन को घेर लिया । यह समाचार जानकर सुदर्शन की पत्नी मनोरमा विलाप करती हुई उसी स्थल पर पहुंच गई । वह अपने अनुभूत सुखों का स्मरण करके अत्यन्त व्याकुल हो रही थी । किन्तु सुदर्शन का अपने समक्ष होने वाली घटनाओं से कोई प्रयोजन न था। उसके मन में वैराग्य को भावना प्रबलतम रूप धारण कर रही थी । इसी समय भटों ने सुदर्शन पर तलवार के प्रहार करने शुरू कर दिये । इतने में ही एक व्यन्तर ने प्राकर सभी भटों को रोक दिया और तलवारों के प्रहारों को मालायों के रूप में परिणत कर दिया । देवगणों ने प्राकाश से युष्पवृष्टि की । राजा ने उक्त समाचार सुनकर मोर भटों को भेजा । व्यन्तर ने उन भटों को भी भयभीत कर दिया। अन्त में क्रुद्ध होकर राजा स्वयं रणभूमि में पहुँच गया । राजा की एवं व्यन्तर की सेनाओं में घोर संग्राम हुप्रा । व्यन्तर की माया से भयभीत होकर राजा भागने लगा । तब व्यन्तर ने उसका पीछा किया और कहा कि तेरी रक्षा केबल सुदर्शन कर सकता है । व्यन्तर के वचन सुनकर राजा सुदर्शन की शरण में गया और प्राणों की याचना करने लगा । सुदर्शन ने राजा की रक्षा की । व्यन्तर ने सभी सैनिकों को जीवित कर दिया प्रौर राजा को रानी का सारा वृत्तान्त सुनाया। तब राजा भक्तिपूर्वक सुदर्शन से क्षमायाचना करने लगा। सुदर्शन से क्षमा प्राप्त करके राजा ने सुदर्शन को प्राधा राज्य देना चाहा, किन्तु सुदर्शन ने राजा की इस प्रार्थना को अस्वीकार कर दिया । राजा के बहुत रोकने पर भी सुदर्शन ने दंगम्बरी दीक्षा धारण की इच्छा प्रकट की । सुदर्शन का निश्चय दृढ़ जानकर राजा ने उसकी स्तुति की। राजा के नगर मे पहुंचने तक प्रभया ने रस्सी का फंदा बनाकर वृक्ष पर लटककर प्रात्मघात कर लिया। मरकर वह पाटलिपुत्र नगर में व्यन्तरी हुई। पण्डिता भी डरकर पाटलिपुत्र की भोर भागी; मोर वहाँ देवदत्ता गणिका के यहाँ रहने लगी । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य- एक अध्ययन तत्पश्चात् सुदर्शन अपने पुत्र को अपना पद देकर बहुत से लोगों के साथ जिनमन्दिर गया । वहाँ उसने जिनेन्द्रदेव की स्तुति की। इसी बीच उसने मन्दिर में वैठे हुये विमलवाहन मुनि को देखा। उसने मुनि को प्रणाम करके उनसे अपने अन्य जन्मों के विषय में पूछा। मुनिराज ने बताया : विन्ध्य देश में स्थित कोसल प्रदेश की प्रजा को त्रस्त करने वाला व्याघ्र नाम का भील विन्ध्य पर्वत पर अपनी स्त्री कुरंगिणी के साथ रहता था । इस भील नें कोसल के राजा के सेनापति को भी पराजित किया । किन्तु राजकुमार लोकपाल ने उसका वध कर दिया। मरकर भील वत्सदेश में एक ग्वाले का कुत्ता हुप्रा । कुरंगिणी मरकर काशीदेश में भैंस हुई। कुत्ता मरकर चंगपुरी के सिंह की प्रिय सिही सा पुत्र हुप्रा । यही मरकर सुभग ग्वाला हुआ। सुभगग्वाला नमस्कार मंत्र के परिणाम स्वरूप सेठ सुदर्शन हुप्रा । भैंस मरकर चंपानगर के श्यामल नामक धोबी की यशोमती नामक स्त्री से बरिसनी नाम की पुत्री हुई। विधवा होकर उसने व्रत धारण कर लिया । वही मरकर सुदर्शन की प्रिय स्त्री मनोरमा हुई। मुनि ने सुदर्शन को बताया कि वह अनन्तचतुष्टय एवं मोक्ष प्राप्त करेगा घोर मनोरमा देव मनुष्यों के सुख भोगकर मोक्ष प्राप्त करेगी। मुनि ने उक्त वृत्तान्त सुनकर सुदर्शन को धर्मोपदेश दिया । ६६ सुदर्शन ने मुनि के बचन सुनकर तपश्चरण प्रारम्भ कर दिया । अपनी स्त्री और सुदर्शन के परस्पर विरोधी प्राचरण को देखकर विरक्त राजा ने अपना राज्य पुत्र को सौंप दिया और मुनीन्द्र को नमस्कार करके उसने दिगम्बर मुनि का वेश धारण कर लिया । उसकी सभी रानियों ने भी दीक्षा धारण कर ली। सुदर्शन ने इन सभी त्यागी जनों के साथ नगर में भिक्षाचरण किया। तत्पश्चात् जिनमम्बिर जाकर अपने गुरु की प्राज्ञानुसार योग्य प्राचरण प्रारम्भ कर दिया । I उधर पण्डिता ने देवदत्ता वेश्या को सुदर्शन से सम्बन्धित सारा वृत्तान्त सुनाया । देवदत्ता ने कपिला घोर प्रभया के वृत्तान्त जानकर दोनों की हंसी उड़ाई और स्वयं सुदर्शन को तपोभ्रष्ट करने की प्रतिज्ञा की । 1 इसी बीच घूमते हुए सुदर्शन पाटलिपुत्र पहुँचे । चबलगृह पर चढ़ी हुई पण्डित ने उन्हें देखा तो देवदत्ता को भी उनके दर्शन करा दिये । देवदत्ता की दासी ने उसकी प्राज्ञा से सुदर्शन को प्रासाद के नीचे ठहरा दिया। निर्लिप्त सुदर्शन के पास जाकर देवदता ने उन्हें सुखोपभोग के लिए ग्रामन्त्रित किया । उसने तीस दिन तक सुदर्शन मुनि के प्रति तरह-तरह की काम चेष्टाएं कीं। अन्त में निराश होकर मुनि को श्मशान में जाकर छोड़ दिया। मुनि इन सब क्रियाधों के प्रति तटस्थ ही रहे। सुदर्शन मुनि तप कर ही रहे थे कि बिहार की इच्छा से निकली हुई एक व्यन्तरी का विमान उनके ऊक्र स्थित हो गया । फलस्वरूप वह बहुत क्रुद्ध हुई । Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत काव्यग्रभ्यों के खोत κε श्मशान में बैठे हुए मुनि को देखकर उसे अपने पूर्वजन्म की याद प्रा गई। प्रत उसने मुनिपर घोर उपवर्ग करना प्रारम्भ कर दिया। सुदर्शन मुनि पर इन बीर उपसर्गों का कोई प्रभाव नहीं पड़ा । इसी समय सुदर्शन की रहने भी रक्षा करने वाला व्यन्तर वहाँ पहुँच गया । उपकार का परस्पर घोर युद्ध हुप्रा । मन्त में व्यन्तरी डरकर भाग गई। मुनिवर सुदर्शन पुनः जिनचरणों का स्मरण करने लगे । इस घटना के बाद सातवें दिन घातिया कर्मों के नष्ट हो जाने पर सुदर्शन को ज्ञान की प्राप्ति हुई । इस शुभ अवसर पर सुरेन्द्र प्रपने गजेन्द्र पर चढ़कर सुदर्शन के पास आया। उसने मुनि की स्तुति की। कुबेर ने समवसरण मण्डप की रचना की। उसके मध्य में केवजी भगवान् सुदर्शन भद्रपीठ पर प्रासीन हुए। लोगों की इच्छानुसार उन्होंने उपदेश दिये । व्यन्तरी ने मुनि की प्राज्ञा से सम्यक्त्व धारण कर लिया। पण्डिता श्रीर देवदत्ता ने भी तपश्चरण धारण कर लिया। मनोरमा ने जब सुना कि सुदर्शन को केवल्यज्ञान की प्राप्ति हो गई है, तब वह भी घर छोड़कर प्रार्थिका हो गई। प्रन्त में देवलोक को गई। सुदर्शन को पौष मास की पंचमी तिथि को सोमवार के दिन मोक्ष को प्राप्त हो गई । गौतम गणधर से यह वृत्तान्त सुनकर मगधेश्वर श्रेणिक ने भगवान् को प्रणाम किया और राजप्रसाद लोट माया ।" youtoonerate में वर्णित 'सुभगगोपालवर सुदर्शन सेठ कथा' का सारांश इस कथा में 'सुदंसणचरिउ' की कथा से केवल इतना ही अन्तर हैं कि इसमें ग्वाला रात भर मुनिराज के पास बैठकर उनकी सेवा करता रहा। शेष कथा सुसरणचरिउ' के ही समान है । 3 ब्रह्मचारी नेमिदस विरचित 'प्राराधना कथाकोश' में वर्णित 'पंचनमस्कारनम प्रभाव कमा इस कथा में सुकान्त जन्म वृतान्त प्रोर कपिल ब्राह्मण एवं उसकी पत्नी कपिला का वृत्तान्त नहीं है । पूर्वग्रन्थों में द्वारपालों को वश में करने के लिए सात पुतलों का वर्णन है । परन्तु इसमें एक ही पुतले का उल्लेख प्राया है । शेषकवा 'बृहत्कथाकोश' की कथा के समान है। भट्टारक सकमकीत विरचित 'श्री सुदर्शन चरित' इसमें सेठ बृषभदास एवं बैठ सागरबस द्वारा सुदर्शन एवं मनोरमा के १. प्रा० नयनंदि विरचित, 'सुदंसणचरित' सन्धि १ से १२ तक । २. रामचन्द्र मुमुक्षु विरचित, 'पुण्यासवकथाकोश', २।१७वीं कथा । ३. ब्रह्मचारी नेमिक्स विरचित, धाराधना कथाकोश, १२१, Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० महाकवि ज्ञानसागर के काव्य एक अध्ययन विवाह के लिए की गई पूर्वप्रतिज्ञा का वर्णन नहीं है। इसकी शेष कषा पूर्वग्रन्थों के ही समान है ।" श्रीविद्यानन्दविरचित 'सुदर्शन चरित' - इस ग्रन्थ की कथा मी पूर्वग्रन्थों के समान है । स्पष्ट है कि 'बृहत्कथाकोश' प्रोर 'सुदंसणचरिउ' के कथानक ही सुदर्शनोदय के कथानक के स्रोत हैं । अन्य चार ग्रन्थ इन दोनों की अनुकृतिमात्र हैं। प्रत: मूलकथा में कवि ने क्या परिवर्तन किये हैं ? यह देखने के लिए इन्हीं दोनों ग्रन्थों से 'सुदर्शनोदय' की तुलना करना उचित होगा। सर्वप्रथम 'बृहत्कथाकोश' मोर 'सुदर्शनोदय' की तुलना प्रस्तुत है : बृहत्कथा और सुदर्शनोदय -- हरिषेणाचार्यकृत 'बृहत्कथाकोश' में वरिगत सुभगगोपाल की कथा मोर 'सुदर्शनोदय' की कथा में निम्नलिखित भिन्नतायें दृष्टिगोचर होती है : (क) 'बृहत्कथाकोश' में रजा का नाम दन्तिवाहन एवं रानी का नाम श्रभया है । 3 'सुदर्शनोदय' में इनका नाम क्रमशः धात्रीवाहन और प्रभयमती है । ४ (ख) 'बृहत्कथाकोश' में सेठानी का नाम जिनदासी है।' 'सुदर्शनोदय' में जिनमति है । (i) 'बृहत्कथाकोश' में राजा एवं सेठ के परिचय के बाद सेठ के ग्वाले का वृत्तान्त ति है । 'सुदर्शनोदय' में यह वृत्तान्त मुनि ने सुदर्शन के पूर्वजन्मों का वर्णन करते हुए सुनाया है । (घ) 'बृहत्कथाकोश' में मुनि के 'नमोऽरिहंताणं' मन्त्र के उच्चारण के पश्चात् आकाशगमन का वर्णन है, पर वह 'सुदर्शनोदय' में नहीं है । ह १. भट्टारक सकनकीर्ति विरचितं सुदर्शनचरित पं० हीरालाल सिद्धान्तशास्त्री, पन्नालाल दिगम्बर जैन सरस्वती भवन, ब्यावर से प्राप्त हस्तलिपि की प्रतिलिपि पर ग्राधारित । २. श्रीविद्यानन्दिविरचित, सुदर्शनचरित, संपादक डॉ. हीरालाल जैन; भारतीय ज्ञानपीठ वाराणसी । ३. बृहत्कथाकोश, ६०1१-२ ४. सुदर्शनोदय, १३८ - ४० ५. बृहत्कथाकोश, ६० ३ ६. सुदर्शनोदय, २।४ ७. बृहत्कथाकोश, ६०।४ ५. सुदर्शनोदय, ४।१८-२२ ६. बृहत्कथाकोश, ६०।१० Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत काव्य-ग्रन्थों के स्रोत (ङ) 'वृदयाकोग' में सेठ ने उसे जिननाम लेने से रोका था लेकिन 'सुदर्शनोद में ऐमा उल्लेख नहीं मिलता। (च) 'बृहत्कथाकोश में सभी भंसों को वापिस लाने के लिए सुदर्शन के नदी में क का वर्णन है.२ लेकिन 'स.दर्शनोदय' में एक ही भैस को निकालने के लिए समान का सरोवर में कूदने का वर्णन है । (छ) वृहत्कयाकोश के अनुसार ग्वाला काठ की नोक से शिर में चोट लगने के कारण मरा है । ४ 'सुदर्शनोदय' में काठ की नोक से घायल किसी अंग विशेष का उल्लेख नहीं है। (अ) वृहत्कयाकोश' के अनुसार जिन दासी ने गर्भावस्था के पांचवें महीने में जिनप्रबन की इच्छा व्यक्त की.५ पर सुदर्शनोदय' में ऐसा वर्णन नहीं है । (झ) 'बृहत्कथाकोश' में मनोरमा के माता-पिता का नाम. क्रमशः सागरसेना पोर सागरसेन बनाया गया है । ६ किन्तु 'सुदर्शनोदय' में मनोरमा के पिता का नाम सागरदत बताया गया है और माता का नामोल्लेख नहीं है। (त्र) 'वृह कयाकोश' में विवाह के बाद सुदर्शन एवं मनोरमा के पुत्र सकान्त के जन्म का वर्णन है, किन्तु 'सुदर्शनोदय' में पुत्रजन्म का उल्लेख नहीं है। (ट) 'वृकयाकोग' में वर्णन है कि सुदर्शन-मनोरमा की पुत्रोत्पत्ति के बाद सेठ वषभदास ने ममाधिगुप्त मुनि के समीप दीक्षा धारण कर ली। 'सुदर्शनोदय' के पनुसार सेठ नगर के उद्यान में मुनि का प्रागमन सुनकर परिवार सहित उनके दर्शन करने जाता है, पीर उनका धर्मोपदेश सुनकर दीक्षा धारण कर लेता है। (ठ) 'बृहत्कथाकोश' के अनुसार सुदर्शन का मित्र कपिल राजा के पुरोहित का पत्र था।'' १. वृहत्कथाकोश, ६०।१५ २. वही, ६०।१६ ३. सुदर्शनोदय, ४।२६ ४. बृहत्कथाकोश ६०।२२ ५. वही, ६०।२३ ६. वही, ६०।३२ ७. सुदर्शनोदय, ३१३४ ८. बृहत्कथाकोश, ६०३३ ६. वही, ६०।३५ १०. सुदर्शनोदय, ४।१-१४ ११. बृहत्कपाकोश, ६०३७ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य-एक अध्ययन (3) 'बृहत्कयाकोश' के अनुसार कपिला ब्राह्मणी ने सुदर्शन को उसकी हत्या की धमकी दी है, किन्तु 'सुदर्शनोदय' में ऐसा वर्णन नहीं मिलता। () 'बृहत्कथाकोश' में दासी द्वारा सात पुतले बनवाने का वर्णन है । किन्तु सदर्शनोदय में एक ही पुतला बनवाने का वर्णन है। (ण) 'वृहत्कथाकोश' के अनुसार सुदर्शन को प्रजेय जानकर राजा ने सुवर्णकमलों से उसका स्वागत किया और प्राषा राज्य लेने का निवेदन किया। किन्तु 'सुदर्शनोदय' में केवल राज्य लेने की प्रार्थना करने का वर्णन है। (त) 'बृहत्कथाकोश' के अनुसार राजा पोर सुदर्शन के बार्तालाप के बीच में ही विमलवाहन नामक मुनि प्राये; सुदर्शन की याचना पर उन्होंने उसे दैगम्बरी दीक्षा दे दी।' किन्तु 'सुदर्शनोदय' के अनुसार राजा को सम्पत्ति ठुकराकर सुदर्शन मनोरमा के समीप जाता है। तत्पश्चात् उससे परामर्श करके दीक्षा ग्रहण करता (घ) 'बृहत्कयाकोश' के अनुसार सुदर्शन की निश्चलता देखकर निराश देवदत्ता उसे श्मशान में छोड़ पाती है। किन्तु 'सुदर्शनोदय' के अनुसार देवक्ता सुदर्शन की हड़ता देखकर उनसे धर्मोपदेश का भाग्रह करती है। (द) 'बृहत्कथाकोश' के अनुसार पण्डिता एवं देवदत्ता सुदर्शन के कैवल्यज्ञान के पश्चात् सुदर्शन से धर्मोपदेश सुनकर श्रावक धर्म को धारण करती है। लेकिन 'सुदर्शनोदय' में सुदर्शन से पोपदेश सुनकर उसकी कंवल्यज्ञानप्राप्ति के पूर्व ही संयम धारण करने का वर्णन है।" (घ) बहत्कयाकोश' में वरिणत भ्यन्तरी (मभयमती) द्वारा श्रावक व्रत को धारण करने का वर्णन 'सुदर्शनोदय' में नहीं है। (न) बहत्कयाकोश' में ग्वाला मुनि के उच्चारण करने पर मंत्र का ज्ञान प्राप्त १. बृहत्कथाकोश, ६०४७ २. वही, ६०६१ ३. सुदर्शनोदय, ७१ ४. वृहत्कपाकोश, ८००२३ ५. सुदर्शनोदय, ८।१३ ६. बृहत्कथाकोश, ६०।१३० ७. सुदर्शनोवय, ८।१४-३२ ८. बृहत्कषाकोश, ६०।१५१ ६. सुदर्शनोदय, ६।३०-३१ १०. बृहत्कथाकोश, ६०।१६८ ११. सुदर्शनोदय, ६७३-७४ १२. बृहत्कबाकोष, ६.१३९ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-काव्य-अन्धों के स्रोत करता है ।' 'सुदर्शनोदय' में मुनि उसे मंत्रोच्चारण का उपदेश देते हैं । (१) बहत्कयाकोश' में बाद की कथा में मनोरमा का वर्णन बिल्कुल नहीं है। सुदर्शनोदय' के अनुसार मनोरमा पति का अनुकरण करती हुई ही प्रायिका का व्रत धारण कर लेती है। परिवर्षन(क) 'सुदर्शनोदा' में वर्णित माता का स्वप्न दर्शन का वर्णन बृहत्कयाकोश' में . नहीं है। (३) 'सुदर्शनोग्य' में वणित मनोरपा एवं सुदर्शन के पूर्वजन्मों का वर्णन' 'बृहत्कथाकोश' में नहीं है। .. (ग) 'सुदर्शनोदय' में वरिणत ग्वाले द्वारा मुनि की शीतबाधा दूर करने का वृत्तान्त' बृहत्कथाकोश' में नहीं है। (घ) 'सुदर्शनोदय' में वर्णित सुदर्शन और मनोरमा के परस्पर दर्शन के फलस्वरूप उत्पन्न प्रेम का वर्णन 'बृहत्कथाकोश' में नहीं है। सुरंगणवरिउ और सुदर्शनोदय • मुनि नयनंदि विरचित 'सुदंसणचरिउ' सुदर्शनोदय' से निम्नलिखित गतों में भिन्न हैं : -- (क) 'सुदंसणचरिउ' में वर्णित राजा श्रेणिक और उनके राजपरिवार का 'सुदर्शनोदय में उल्लेख नहीं है। (ख) 'सुदंमाण वरिउ' में सेठानी का नाम प्रहंदासी है, जबकि 'सुदर्शनोदय' में जिनमति है। (ग) 'सुदंसणचरिउ में पाले का वृत्तान्त कथा के प्रारम्भ में है ।' 'सुदर्शनोक्य' में यह वृत्तान्त पर्वजन्मवर्णन के प्रसंग में है ।१२ (घ) 'सुदंसरण परिउ' में बहुत सी गायों के गंगा नदी में प्रविष्ट होने का वर्णन १. बृहत्कथाकोग, ६०११-१४ २. सुदर्शनोदय, ४२५ ३. वही, ८।२७, ३३.३५ ४. वही, २।१०-१६ ५. वही, ४१६-३७ ६. वही, ४१२४ ७. वही, ३४३४.३५ ८. सुदंसणचरिउ, १, २१ १. वही, ४५ १०. सुदर्शनोदय, २१४ ११. सदसणचरिउ, २१६-१५ १२. सुदर्शनोदय, ४१८, २२-२७ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. महाकवि ज्ञानसागर के काव्य - एक अध्ययन है।' किन्तु 'सुदर्शनोदय' में केवल एक भैस के सरोवर में घुसने का वर्णन (ङ) सदसणचरिउ' के अनुसार नदी में स्थित ठ की नोक से हृदय विध के कारण मृत्यु को प्राप्त ग्वाले ने मरने के पहले सेठ के यहाँ पुत्र रूप में उत्पन्न हान की कामना की, किन्तु सदर्शनोदय' में ऐमा उल्लेख नहीं मिलता। (च) 'सुदंसणचरिउ' में सुदर्शन के जन्म, विवाह एवं मोक्ष की तिथियों का विस्तार से उल्लेख है । 'सुदर्शनोदय' में इसका प्रभाव है। (छ) सदसणचरिउ' के अनुसार मुनिराज ने सेठ के पुत्र का नामकरण किया । 'सुदर्शनोदय' में सेठ ने स्वयं पुत्र का नामकरण किया । (ज) 'सुदंसरण चरिउ' के अनुसार विद्या प्राप्ति के बाद मदर्शन सोलह साल का था। पर 'सुदर्शनोदय' में सुदर्शन की अवस्था का कोई उल्लेख नहीं है । (झ) 'सुदंसणचरिउ' में उल्लिखित मनोरमा की माता रागरसेना का 'सुदर्शनोदय' में कोई उल्लेख नहीं है ।। (अ) 'सदसणाचरिउ' के अनुसार सुदर्शन ने बाजार में जाने हुए मनोरमा को देखा। किन्तु 'सुदर्शनोदय' के अनुसार जिनभन्दिर में दोनों का प्रथम साक्षात्कार हुमा। (ट) 'सुदंसण नरिउ' के अनुसार सेठ सागरदन और संठ वृषभदास अपनी पुत्री एवं पुत्र के विवाह के लिए परस्पर वचनबद्ध थे।' 'सदर्शनाय' म मा तर्णन नहीं है। . (ठ) 'सुदंगणचरिउ' में उल्लिखित श्रीधर ज्योतिषी का', 'सदा दय : उल्लेख नहीं मिलता। (ड) सदसणचरिउ' के अनुसार सेठ के साथ सेठानी ने भी तपस्चर किया। १. सुदसरण चरिउ, २.१४ २. सुदर्शनोदय, ४:२६ ३. सुदंसरण चरिउ. २०१४ ४. वही, ३१३, ५।४, १२।६ ५. बही. ३। ६. सुदर्शनोदय, ३१५ ७. सुदंसणचरिउ, ३६ ८. वही, ४१ ६. वही, ३।३ ५।४, ४१ १०. सुदंर्शनोदय, ३.३४.३५ ११. स दंभगाचरिउ, ५।२ १२. वही, ५।३ १३. वही, ६।२० Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत काव्य ग्रन्थों के स्रोत किन्तु सुदर्शनोदय' मे केवल मेठ वृपभदास के ही दीक्षित होने का वर्णन हैं ।' (ढ) 'सदसचरिउ' के अनुसार कविता सुदर्शन के गुणों को सुनकर मोहित हो गई । किन्तु सुदर्शनोदय के अनुसार कपिला सुदर्शन के गुणों को देखकर मोहित हुई, न कि उसके गुणों को सुनकर 13 (ण) 'सुमन' में वागत कपिला की सखी के पंचमराग गाने का सुदर्शनोदय में कोई उल्लेख नहीं है । ५ (त) 'सुबं मरणचरिउ' में सात पुतलों द्वारा दासी के सातों द्वारपालों के वश में करने का वर्णन है । (ब) 'मुगाचरित्र' में उल्लिखित सुदर्शन के अपशकुनों का 'सुदर्शनोदय में कोई उल्लेख नहीं है । (द) 'सुमन' में दासी के सुदर्शन के पास दो बार जाने का वर्णन है । 'सुदर्शनोव्य' के अनुसार दासी एक ही बार सुदर्शन के पास गई और उसे रानी के पास ले आई। (a) सुदंराचरिउ' में रानी ने अपने शरीर को नखों से क्षत-विक्षत करके सुदर्शन कोदो जबकि सुदर्शनोदय' में नखक्षत बना लेने का उल्लेख नहीं 10 है । (त) 'नुदंसणचरिउ' में वर्णित व्यन्तर द्वारा सुदर्शन की रक्षा का वृत्तान्त' 'सुदर्शनोदय' में नहीं है ! से (प) 'सुगारिन' में राजा व्यन्तर से वास्तविकता को जानकर क्षमायाचना करता है । १२ सुदर्शनोदय' में राजा श्राकाशवाणी से वास्तविकता का ज्ञान शाप्त करता है है। १. सुदर्शनोदय, ४:१४ २. सुदंमणचरिउ, ७२ ३. सुदर्शनोद ५।१ ४. सुदंगाचरिउ ७।२ ६५ ५. वही, ८११० ६. सुदर्शनोदय, ७।१ ७. सुदं नाचरिउ ८ । १५ वही ८२०-२२ ८. ६. सुदर्शनोदय, १1३६ १०. सुदंसणचरिउ, ८, ३४ १९. वही, ८।१४३, ६१-१८ १२ . वही, ६।१८ १३. सुदर्शनोदय, ८ - १० Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के काग्य -एक अध्ययन (फ) 'सुरसणचरिउ' में वर्णित पूर्वजन्मों के प्रसंग में भील से सम्बड राजा भूमिपाल का वर्णन' 'सुदर्शनोदय' में नहीं है। (ब) सुदंसणचरिउ' में प्रभयावृतान्त के बाद सुदर्शन विमलवाहन मुनि से अपने पूर्वजन्मों के विषय में जानता है । 'सुदर्शनोदय' में यह घटना सेठ वृषभवास के दीक्षित होने के बाद की है। (म) सदसरणचरित' में राजा एवं अन्य लोगों के सदर्शन के प्राचरण से प्रभावित होकर दीक्षा ग्रहण करने का वर्णन है । पर 'सुदर्शनोदय' में इस घटना का उल्लेख नहीं है। (4) 'सुदंसरणचरिउ' के अनुसार देवदत्ता वेश्या अपने प्रयास में असफल होकर सुदर्शन को पुनः श्मशान में छोड़ पाई। पण्डिता के साथ उसके तप तब ग्रहण किया, जब सुदर्शन को कैवल्य की प्राप्ति हो गई। सुदर्शनोदय' के अनुसार सुदर्शन की दृढ़ता से प्रभावित होकर वेश्या ने अपने कुकृत्यों को निन्दा की और पण्डिता के साथ सुदर्शन से दीक्षा ग्रहण की। (य) 'सुदंसणचरिउ' के अनुसार प्रमता के भ्यन्तरी रूप से उसो व्यन्तर ने पुन: सुदर्शन की रक्षा को, जिसने राजा बारा वध करवाते समय उसकी रक्षा की थी। किन्तु 'सुदर्शनोदय' के अनुसार मदर्शन अभयमती द्वारा किये गये उपरागों को महन करते रहे। (र) 'सुदंसरण चरिउ' के अनुसार सुदर्शन के लिए इन्द्र द्वारा समवशरण मणप-निर्माण वर्णन 'सुदर्शनोदय' में नहीं है। (ल) सदसणचरिउ' में न्यन्तरी के सम्यक्त्वधारण का उल्लेख है। किन्तु 'सुवर्शनोदय' में ऐसा उल्लेख नहीं है। (व) 'सुसंसरणचरित' में वर्णन है कि मनोरमा सदर्शन के कैवल्यज्ञान की प्राप्ति के गाव मायिका बनी।' १ स दर्शनोदय' के अनुसार सुदर्शन द्वारा तपश्चरण की इम्बा १. सुदंसरणचरिउ, १०४ २. वही, १०४ ३. सुदर्शनोदय, ४१६ ४. सदसरणचरिउ, १११ ५. वही, १११११, १२२६ ६. सुदर्शनोदय, ६।३०,७४ ७. सदसणचरित, १९६१२-२२ ८. सुदर्शनोदय, ६७६-८३ १. सुदंसरणचरिउ, १२६३ १०. वही. १२।५-६ ११. वही, १२॥६ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत काव्य-ग्रन्थों के स्रोत २७ प्रकट करने के बाद मनोरमा भी उसके दीक्षित होने पर प्राविका घर्म में दौक्षिता हो गई । ' 3 (श) 'सुदंसरणचरिउ' का कथानक पुनः राजा श्रेणिक के उल्लेख से समाप्त हुमा है । 'सुदर्शनोदय' के कथानक की समाप्ति सुदर्शन मुनि की मोक्षप्राप्ति के उल्लेख से हुई है। परिवर्धन उपर्युक्त परिवर्तनों के प्रतिरिक्त कवि ने 'सुदर्शनोदय' में थोड़ा सा किन्तु महत्वपूर्ण परिवर्धन भी किया है । 'सुदर्शनोदय' के स्रोत के रूप में हमने जिन छः थों का उल्लेख किया है, उनमें किसी में भी 'सहस्रदलकमलवृत्तान्त' नहीं है । यह वृत्तान्त केबल 'सुदर्शनोदय' में ही मिलता है । ४ 'श्रीसमुद्रदत्तचरित्र' कथानक के स्रोत के रूप में 'वृहत्कथाकोश में बरिंगत 'श्रीभूतिपुरोहितकचानक' मोर 'आराधना कथाकोश' में वरिणत 'श्रीभूतेः कथा' उल्लेखनीय हैं । सर्वप्रथम 'बृहत्कथाकोश' में भाए हुए कथानक का सारांश प्रस्तुत है × × × × × जम्बूद्वीप में विद्यमान भरतक्षेत्र में स्थित सिंहपुर में सिहसेन नामक राजा राज्य करना था । उसकी पत्नी का नाम रामदत्ता था। इस राजा का श्रीभूति नाम का पुरोहित था, पुरोहित की स्त्री का नाम श्रीदत्त था । भरतक्षेत्र में ही स्थित पद्यखण्डनगर में सुमित्र नामक वैश्य अपनी स्त्री सुमित्रदत्ता के साथ रहता था, उसके पुत्र का नाम था सुमित्रदत | एक बार धनार्जन की इच्छा से वे सब सिंहपुर प्राये । वहीं श्रीभूति की सत्यवादिता के विषय में सुनकर अपने दिव्य मरिण रत्न सौंपकर घोर अपना धन किसी वैश्य के यहाँ रखकर पुनः सभी पद्मखण्डपुर लोट गये । कुछ दिनों के पश्चात् सुमित्र प्रपने पुत्र और मित्रों के साथ रत्नद्वीप गया। समुद्र में तूफान ना जाने के कारण सभी वैश्य तो मृत्यु को प्राप्त हो गए, किन्तु सुमित्रदत्त उस उपद्रव से बचकर सिंहपुर पहुँचा । अपने पिता की बार्ता उसने अपनी माता और स्त्री को सुनाई पिता को जलदान दिया; और तत्पश्चात् श्रीभूति ब्राह्मण के पास गया। थोड़ी देर रुककर उसने अपने रत्नों की पोटली मांगी। उसके वचन सुनकर वाणी को प्राडम्बरयुक्त करके श्रीभूति ने उससे कह दिया कि मैं तुम्हारे रत्नों के विषय में कुछ नहीं १. सुदर्शनोदय, ८३३-३४ २. सुदंसरणचरिउ १२७ ३. सुदर्शनोदय, १८५-६३ ४. वही. ४।१८-२२ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ महाकवि ज्ञानसागर क काव्य-एक अध्ययन जानता। श्रीभूति के प्रभाव के कारण राजा एवं पुरवासियों ने भी उसकी बात का विश्वास नहीं किया। व्याकुल होकर सुमित्रदत्त रामदत्ता के गृह के निकट स्थित पीपल के वृक्ष पर रात्रि के अन्त में चढ़कर रोज कहने लगा कि 'हे राजन् ! तुम्हारे राज्य में निवास करने वाले श्रीभूति ने मांगने पर भी मेरे पाँच रत्न नहीं लौटाए। एक दिन रात्रि में पति के साथ सोती हुई रामदत्ता ने उसकी मावाज सुनकर राजा से कहा कि यह बात मैं छः महीनों से सुन रही है। प्राप सत्यासत्य को परीक्षा करके बताईये कि रत्न किसके है ? रामदत्ता के वचन सुनकर राजा ने कह दिया कि यह पागलपन के कारण ऐसा कह रहा है। रामदत्ता के पुनः प्राग्रह करने पर राजा ने श्रीभूति को अपने घर बुलाया मोर पूछा कि तुमने इस वैश्य के रत्न लिये हैं अथवा नहीं । राजा के वचन सुनकर श्रीभूति ने रत्नों के विषय में अस्वीकृति प्रकट कर दी। एक दिन रामदत्ता के कहने से राजा ने पुरोहित के साथ द्यूतक्रीड़ा की। उस समय रानी ने पुरोहित से वस्तु प्राप्त करने के लिए उसके अभिज्ञान के प्रक्षर पूंछ । अभिज्ञान के अक्षर जानकर रानी की दासी बुद्धिमती ब्राह्मणी के घर गई मोर प्रभिज्ञान की सहायता से उसने ब्राह्मणी से वरिणक के रत्न माँगे । उसकी बात सुनकर ब्राह्मणी ने कह दिया कि मैं उन रत्नों के विषय में नहीं जानती। यूतक्रीड़ा में यज्ञोपवीत जीतने पर रानी ने दासी को पुनः श्रीभूति के घर भेजा। दासी ने ब्राह्मणी से कहा कि इस दूसरी पहिचान को देखकर रत्न दे दो। तब भी उसने कह दिया कि वे रत्न तो नष्ट हो गए, न मालूम कहां गये । तीसरी बार दासी श्रीभूति के नाम से अंगूठी लाई और बोली कि श्रीभूति ने कहा है कि वैश्य के रत्न मुझे दे दो। अंगूठी देखकर पति पर क्रोध करती हुई उसकी स्त्री ने पांचों रत्न लाकर बुद्धिमती के हाथ में दे दिए । बुद्धिमती ने वे सब रत्न रानी को दिए। रामवत्ता ने वे रत्न लेकर राजा से यूतक्रीड़ा बन्द करने को कह दिया। इतकारों के चले जाने पर रानी ने राजा को पांचों रत्न दे दिए । तत्पश्चात् राजा ने उन रत्नों को प्रन्य रत्नों के साथ मिलाकर सुमित्रदत्त को दिखाया । सुमित्रदत्त ने उनमें से अपने ही रत्न उठा लिए। यह देखकर धन चुराने वाले श्रीभूतिपुरोहित को राजा ने अपने देश से बाहर निकाल दिया। अपमानित श्रीभूति हृदय फट जाने से मर गया। प्रातघ्यान करके मरने के बाद वह सिंहसेन राजा के ही भण्डार में सर्प के रूप में पहुंचा। श्रीभूति के स्थान पर राजा ने धम्मिल्ल नामक ब्राह्मण को पुरोहित का पद दे दिया। इसके बाद सुमित्रदत्त ने पद्मखण्डपुर जाकर साधुओं को दान दिया और बोला कि मैं अगले जन्म में रामदत्ता का पुत्र बनूंगा । विमलकान्तार नामक पर्वत पर जाकर वरधर्म मुनि के समीप उसने तपस्वियों का व्रत धारण कर लिया। उसकी Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत काव्य-ग्रन्थों के स्रोत माता उसके जैनधर्माचरण से विरोध करके मरने के बाद उसी पर्वत पर भवामक व्याघ्री के रूप में उत्पन्न हुई । एक दिन सुमित्रदत्त मुनि की वन्दना करने के लिए गया, तब उस व्याघ्रो ने उसको खा लिया । तत्पश्चात् वह राजा सिंहसेन श्रौर रामदत्ता के पुत्र सिचन्द्र के नाम से उत्पन्न हुआ । उसके भाई का नाम पूर्णचन्द्र था । एक दिन राजा सिंहसेन अपना धन देखने की इच्छा से प्रपने भण्डार में प्रविष्ट हुआ, तब पूर्व वैर के कारण गन्धन नामक सर्प (श्रीभूति के जीव) ने क्रुद्ध होकर उसे डस लिया । विप दूर करने के लिए गरुड़-मन्त्र का ज्ञाता सिंहपुर में बुलाया गया । उसने काकोदर के मन्त्रों से सब सर्पों को बुलाया और गरुड़मन्त्र की शक्ति से बास्तविक अपराधी को पहचान लिया और कहा- या तो अपना विष बापिस लो या अग्निकुण्ड में प्रवेश करो । εε इस समय सर्प को पूर्वजन्म का वृत्तान्त याद श्राया । तब राजा के प्रति अपने वर के कारण उसने अग्निकुण्ड में ही प्रवेश कर लिया; श्रौर मरकर कालवन में चमरी मृग हुमा । राजा सिंहसेन विन्ध्यवन में मदस्रावी हाथी के रूप में जन्मा । धम्मिल्ल नामक पुरोहित बन्दर हुप्रा । इसके बाद सिंहचन्द्र सिंहपुर का राजा हुमा । पोदनपुर में पूर्णचन्द्र नाम का राजा था। उनकी स्त्री का नाम हिरण्यमती या । ये ही रामदत्ता के माता-पिता थे । एक दिन भद्रबाहु नामक गुरु से धर्म के विषय में जानकर पूर्णचन्द्र श्रमण हो गए। दत्तक्षान्तिका प्रार्थिका के पास हिरण्यमतो भी प्रायिका हो गई । हिरण्यमती ने अपने पति पूर्णचन्द्र मुनि को प्रणाम करके उनसे रामदत्ता का वृत्तान्त पूछा । पूर्णचन्द्र ने अपनी पुत्री रामदत्ता और जामाता सिंहसेन का सम्पूर्ण वृत्तान्त सुना दिया । हिरण्यमती दत्तशान्तिका के साथ रामदत्ता के समीप पहुँची। रामदत्ता ने माता को दीक्षा ग्रहण किए हुए देखा, तो उसने भी प्रव्रज्या ग्रहण कर ली । सिहचन्द्र ने भी माता के संन्यास लेने पर पूर्णचन्द्र को राज्यभार देकर भद्रबाहु मुनि के समीप में तप किया और चारण मुनि बन गया । पूर्णचन्द्र राजा बनकर जिनवाक्यों से विमुख हो गया, तब रामदत्ता ने सिंहचन्द्र से पूंछा कि पूर्णचन्द्र धर्माचरण कब करेगा ? तो सिचन्द्र ने कहाइसी भरतक्षेत्र में कौशल देश में स्थित वर्धक ग्राम में मृगायण नाम का ब्राह्मण था । उसकी पत्नी का नाम मथुरा था । मृगायण ब्राह्मण मरकर साकेत नगर में राजा प्रतिबल घोर श्रीमती की पुत्री हिरण्यमतिका के रूप में उत्पन्न हुआ । उसका विवाह पोदनपुर के नरेश पूर्णचन्द्र के साथ हुआ । मथुरा ने उसकी पुत्री रामदत्ता के रूप में जन्म लिया । मृगायण ब्राह्मण को वरुणा नाम की लड़की ने तुम्हारे पुत्र पूर्णचन्द्र के रूप में जन्म लिया। मैं ही पहले जन्म में सुमित्रदत्त था। मेरे पिता सिंहसेन मरकर हाथी के रूप में जन्मे । चमरीमृग' मरकर वन में - Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० महाकवि ज्ञानसागर के काव्य-एक अध्ययन सपं हमा । सर्प ने हाथी को उस लिया। वह हाथी सहस्रार स्वर्ग में श्रीप्रभारण्य विमान में श्रीधर नाम का देव हुमा । पम्मिल्ल जब बन्दर के रूप में उत्पन्न हुमा तो पसने श्रीभूति रूप को नष्ट कर दिया। बन में विचरण करने वाले किरातराज के सेवक एक भील ने हाथी के मस्तक से मोती और दांत निकालकर अपने एक वश्य मित्र को दे दिये । उसने वे मुक्ताएं और हाथी दांत तुम्हारे पुत्र पूर्णचन्द्र को दिये हैं। हाथीदांत का उपयोग तो उसने अपना पलंग बनवाने में किया है और मोतियों को अपने हार में डाल लिया है। सिंहचन्द्र मुनि के वचन सुनकर रामदत्ता अपने पुत्र को धर्मोपदेश देने के लिए गई। पूर्णचन्द्र ने रामवत्ता के वचन सुनकर श्रावक धर्म अंगीकृत कर लिया; पौर अन्त में वह सहस्रार स्वर्ग के वेडूयं विमान में देव हुआ । रामदत्ता भी स्वयंप्रभ विमान में सूर्यप्रभ देव के रूप में उत्पन्न हुई। तपश्चरण के बाद सिंहचन्द्र ग्रेवेयक में देव हमा। सूर्यप्रभ देव स्वर्ग से निकलकर भरतक्षेत्र में विजया पर्वत के दक्षिण में स्थित धरणीतिलक नगर में प्रतिबल राजा और रानी सुशीला की पुत्री श्रीधरा के रूप में उत्पन्न हुआ । उसका विवाह कालकपुर के सुदर्शन के साथ हो गया । वैडूर्य विमान बाला देव उसकी पुत्री यशोधरा के रूप में उत्पन्न हुमा। विजयाध पर्वत की उत्तरश्रेणी में प्रभात नामक नगर है। वहाँ सूर्यदत्त नामक विद्याधरों का राजा राज्य करता था। यशोधरा का विवाह इसी के साथ हुप्रा । इन दोनों का रश्मिवेग नाम का पुत्र हमा। इस पुत्र को राज्य सौंपकर सूर्यवत्त ने मुनिचन्द्र के समीप दैगम्बरी दीक्षा ग्रहण कर ली। श्रीधरा पोर यशोधरा ने गुणमती प्रायिका के समीप तप करना प्रारम्भ कर दिया। एक बार रश्मिवेग सिद्धकूट में स्थित जिनदेव के पूजन हेतु गया। वहां पर हरिषचन्द्र मुनि के पास में उसने तप किया। एक बार श्रीधरा के साथ पशोपरा उस मुनि को प्रणाम करके वहीं बैठ गई। तब अजगर के रूप में उत्पन्न श्रीभूति के जीव ने उन तीनों को खा लिया। रश्मिवेग कापिष्ठ नामक स्टा में प्रकंप्रभ नामक देव हुअा। दोनों प्रायिकायें भी मरकर उसी स्वर्ग में देवता हुई। अजगर ने दुःज से युक्त चतुर्थ नरक को प्राप्त किया। चक्रपुर में अपरावित नाम का राजा राज्य करता था। उसकी पत्नी का नाम सुन्दरी था। सिंहचन्द्र इन दोनों का पुत्र चक्रायुष हुमा । उसकी प्रिया का नाम चित्रमाला था। प्रप्रभ नामक देव इनके पुत्र वज्रायुध के रूप में उत्पन्न हुमा। यह पूर्वजन्म में सिंहसेन था। पृथ्वीतिलक नगर में अतिवेग नाम का राजा था। उसकी पत्नी प्रियंकरा से रामदत्ता के जीव ने जो श्रीपरा के रूप में उत्पन्न हुई थी, इनकी पुत्री रत्नमाला के रूप में जन्म लिया। इसका विवाह पूर्वजन्म की प्रीति के कारण वज्रायुध से हुमा । यशोषरा ने इनके पुत्र रत्नायुध के रूप में जन्म लिया। वह पूर्वजन्म में Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-काव्य-ग्रन्थों के स्रोत पूर्णचन्द्र था। चक्रायुष ने अपनी राज्यलक्ष्मी वज्रायुध को दे दी मोर स्वयं जिनदीक्षा ग्रहण कर ली, तत्पश्चात् मोक्ष प्राप्त कर लिया। x x x x x।' प्राराषनाकथाकोश में वरिणत 'श्रीमूतेः कथा' का सारांश सिंहपुर में राजा सिंहसेन राज्य करता था। उसकी रानी का नाम रामदत्ता था। उनका श्रीभूति नाम का पुरोहित था, जिसने सत्यवक्ता के रूप में अपनी झूठी प्रसिद्धि फैला रखी थी। . पद्मखण्डपुर में सुमित्र नामक श्रेष्ठ वैश्य रहता था। उसकी पत्नी सुमिमा के गर्भ से समुद्रदस नामक पुत्र की उत्पत्ति हुई थी। एक बार व्यापार के लिए या सिंहपुर गया। वहां इसने श्रीभूति के पास अपने पांच रत्न रखकर रत्नद्वीप के लिए प्रस्थान किया । समुद्र के मध्य में पहुँचते ही जहाज के टूट जाने पर बहुत से यात्री मर गये, किन्तु समुद्रदत्त किसी प्रकार से बचकर सिंहपुर पहुंचा। उसने श्रीभूति से अपने रस्न मांगें। धन के लोभी श्रीभूति ने उसको पागल बताकर उसकी याचना अस्वीकृत कर दी। समुद्रदत्त ने भी यह श्रीभूति मेरे पांच रत्न नहीं दे रहा है, यह बात सारे नगर में फैला दी। रात के समय राजमन्दिर के पास में वह छः महीने तक रोज चिल्लाकर उक्त तथ्य दोहराया करता था। उसका कथन सुनकर रामदत्ता सिंहसेन के पास गई । उसने राजा से कहा कि पुरुष पागल नहीं है । तत्पश्चात् उस रानी ने द्यूतक्रीड़ा में संलग्न श्रीभूति से कहा कि प्राज मापने क्या खाया है ? उसके बताने पर रानी ने अपनी चतुर सेविका को श्रीभूति की स्त्री के पास भेजा। लेकिन उसने सेविका को रत्न नहीं दिये । तत्पश्चात् रानी ने श्रीभूति के नाम से युक्त अंगूठी जीतकर पुनः दासी को भेजा । लेकिन ब्राह्मणी ने उन रत्नों को लोभ के कारण नहीं दिया। पुनः श्रीभूति के यज्ञोपवीत के सहारे दासी ने रत्न मांगें, तब उरकर उसने उन रत्नों को दे दिया। रानी ने वे रत्न राजा को दिखाये । राजा सिंहसेन ने उन रत्नों को अन्य रत्नों से मिलाकर वणिवपुत्र समुद्रदत्त से कहा कि जो तुम्हारे रत्न हैं, उन्हें ले लो। समुद्रदत्त ने रत्नों में से अपने रत्न उठा लिए। सिंहसेन ने उसके पापरण पर प्रसन्न होकर उसको श्रेष्ठिपद दे दिया। तत्पश्चात् श्रीभूति के दुराचरण से रुष्ट राजा ने धर्माधिकारियों से पूछा कि इसको क्या दण्ड दिया जाय? उनकी सम्मति के अनुसार श्रीभूति का सब धन ले लिया गया; तोस पहलवानों ने उस पर मुष्टिप्रहार किया और कांसे के बर्तन में रखकर ताजा गोबर खिलाया गया। नगरवासियों से इस प्रकार दण्डित होकर श्रीभूति मन्तान पूर्वक मरा। . उपर्युक्त दोनों ग्रन्थों में वर्णित कथा को जब हम श्रीज्ञानसागर द्वारा १ हरिषेणाचार्यविरचित बृहत्कथाकोश, श्रीभूतिकथानकम्, श्लोक संस्था २८-१८५ २. ब्रह्मचारीनेमिक्त्तविरचित मारापनाकपाकोश, २१२७ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य--एक अध्ययन रचित श्रीममुद्रदत्त चरित्र को कथा से मिलाते हैं तो ज्ञात हो जाता है कि मुनिश्री ने अपने काव्य के कथानक का स्रोत इन्हीं से लिया है। प्रब देखना यह है कि कवि ने अपने काध्य में इन दोनों ग्रन्थों से क्या और कितना अंश परिवर्तित पोर परिवधित किया है। सर्वप्रथम बृहत्कथाकोश और श्रीसमुददत्तचरित्र को तुलना प्रस्तुत है :वृहत्कयाकोश और समुद्रदत्तचरित्र (क) 'वृहत्कथाकोश' में वर्णित संजयन्त मुनि से सम्बन्धित घटनामों का 'श्रीसमुद्रदत्तचरित्र' में प्रभाव है। (ख) 'बृहत्कथाकोश' में सिंहपुर पौर उसके राजा का वर्णन पहले किया गया है। जबकि श्रीममुद्रदन त्ररित्र' में पद्मखंण्डपुर और उसके निवासी भद्रमित्र वैश्य का वर्णन पहले किया गया है। (ग) बृहन्कथाकोश' में नायक एक सुमित्रदत्त है, जबकि 'श्रीसमुद्रदत्तचरित्र' में भटमित्र है। (च) 'बृहत्कथाकोश' में सुमित्रदत्त की माता का नाम सुमित्रदत्ता पौर पिता का नाम मुमित्रा है । परन्तु 'श्रीसमुद्रदत्तचरित्र' में माता का नाम सुमित्रा पौर पिता का नाम सुदत्त है। (ङ) बृहत्कथाकोश' के अनुसार सुमित्र सपरिवार धनार्जन की इच्छा से सिंहपुर माया । श्रीसमुद्रदत्तचरित्र' में भद्रमित्र पिता-माता की प्राज्ञा से धनार्जन के लिए रत्नदीप गया।' (च) 'बृहत्कथाकोश' में वर्णन मिलता है कि सिंहपुर प्राकर उन्होंने अपने रत्न श्रीभूति को सौंपे, पुनः सभी वैश्य पाखण्डपुर लोटे । कुछ दिनों के बाद सुमित्र वैश्य बहुत से मित्रों के साथ रत्नद्वीप को गया। समुद्र में तूफान पाने के कारण वे सभी वैश्य मृत्यु को प्राप्त हो गये, केवल सुमित्रदत्त हो बचा। किन्तु १. बृहत्कथाकोश, ७८।१-२७, १८६-२६० । २. वही, ७८।२६ ३. श्रीसमुद्रदत्तचरित्र, ११२६-३० ४. बृहत्कथाकोश, ७८६३६ ५. श्रीसमुद्रदत्तचरित्र, ११३० ६. बृहत्कथाकोश, ७८,२६ ७. श्रीसमुद्रदत्तचरित्र, ११२६ ८. बृहत्कथाकोश, ७८।३७ .. ९. श्रीसमुद्रदत्तचरित्र, ३।२-१७ १०. बृहत्कथाकोश, ७८।३६-४ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत -काव्य-प्रन्यों के स्रोत श्रीसमुद्रदत्तचरित्र' में वैश्यों की इस आकस्मिक मृत्यु का उल्लेख नहीं है । पितु इसमें वर्णन है कि रत्नद्वीप से रत्न अजित करके भद्रमित्र सिंहपुर पहुंचा, वहाँ पर श्रीभूति को सात रत्न सौंपकर उसकी सहमति से अपने माता-पिता को लेने पहुँच गया और उनको लेकर सिंहपुर मा गया।' (छ) 'वृहत्कथाकोश' में सुमित्रदत्त की भार्या का भी उल्लेख मिलता है, जो 'श्रीसमुद्रदत्तचरित्र' में नहीं है। (ज) 'बृहत्कथाकोश' में सुमित्रदत्त द्वारा पांच रत्नों के सौंपने का उल्लेख है, पर श्रीसमुद्रदत्तचरित्र में इनकी संख्या सात है । (झ) बृहत्कथाकोश' में रानी छ: महीनों तक समित्रदत्त की पुकार सुनती रही, तब उसने सत्य की खोज करने के लिए राजा से निवेदन किया, किन्तु श्रीसमुद्रदत्तचरित्र' में भद्रमित्र के पुकारने की कोई निश्चित अवधि नहीं पाई गई है। (ब) 'बृहत्कथाकोश' में राजा ने श्रीभूति को घर बुलाकर डांटकर उससे रत्नों के विषय में पूंछा है । लेकिन 'श्रीसमुद्रदत्तचरित्र' में कहीं भी ऐसा उल्लेख नहीं है । (ट) बृहत्कथाकोश' में रानी की सम्मति पर राजा ने श्रीभूति के साथ जुमा खेला। लेकिन 'श्रीसमुद्रदत्तचरित्र' में रानी रामदत्ता ने राजा को दरबार लगाने के लिए कहा और मनायास उपस्थित श्रीभूति को अपने साथ शतरंज खेलने में लगा लिया। (ठ) 'वृहत्कथाकोश' में वर्णन है कि द्यूतक्रीड़ा के बीच में श्रीभूति के चिह्न को जानकर, फिर यज्ञोपवीत जीतने पर और अन्त में श्रीभूति की नामांकित अंगूठी जीतने पर रानी रामदत्ता ने तीनों वस्तुप्रों को अपनी बुद्धिमती नाम की वासी द्वारा श्रीभूति की पत्नी श्रीदत्ता के पास भेजा । श्रीदत्ता ने प्रथम दो वस्तुमों को देखने पर रत्न नहीं दिये किन्तु पति की नामांकित अंमूठी देखकर उसे विवश होकर रत्न देने पड़े।' 'श्रीसमुदत्तचरित्र' में रामदत्ता की दासी पौर श्रीभूति की पत्नी का नाम १. श्रीसमुद्रदत्तचरित्र, ३.२४-२७ २. बृहत्कथाकोश, ७८।४६ ३. वही, ७८१५५ ४. श्रीसमुद्रदत्तचरित्र, ३॥१७ ५. बृहत्कबाकोश, ७८१५६ ६. वही, ७८१६४.६५ ७. बृहत्कयाकोश, ७८६७ ८. श्रीसमुद्रदत्तचरिष, ४१ ६. बृहत्कपाकोश, ७८।८१-८३ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य-एक अध्ययन बताया गया है । दासी को श्रीभूति के घर तीन बार नहीं भेजा गया। वह एक ही बार शतरंज में जीती हुई तीनों वस्तुओं को लेकर गई पोर मन्त्री जी ने रत्न मंगाये हैं, ऐसा कहकर रत्न मांग लाई। वहाँ श्रीभूति की पत्नी के क्रोध का भी उल्मेस (1) 'बृहत्कथाकोश' में वर्णन है कि रानी ने चतुराई से रत्न पाकर राजा से चूतक्रीड़ा समाप्त करने को कहा। द्यूतकारों के चले जाने के बाद एकान्त में उसने राजा को रत्न दिए । 'श्रीसमुदत्तचरित्र' में वर्णन है कि रानी ने वे रत्न राब-. दरबार में पहुंचाये । (8) 'बृहत्कथाकोश' में बताया गया है कि धन के लोभ में श्रीभूति को निर्वासन का दण्ड मिला, किन्तु 'श्रीसमुद्रदत्तचरित्र' में केवल कठोर दण्ड दिये जाने का वर्णन (ण) 'बृहत्कथाकोश' में अपने रत्न पाने के बाद सुमित्रदत्त के परखपुर जाने का वर्णन है। किन्तु 'श्रीसमुद्रदत्तचरित्र' में दुबारा पाखण्डपुर जाने का वर्णन नहीं मिलता। (त) 'बृहत्कथाकोश' में परणीतिलक के राजा का नाम प्रतिबल है, जबकि 'श्रीममुद्रदत्त चरित्र' में इसका नाम मादित्यवेग है। (घ) 'बृहत्कथाकोश' के अनुसार श्रीपरा का विवाह कालकपुर के राजा सुदर्शन . साथ हुआ है। 'श्रीसमुद्रदत्तचरित्र' में अलकापुरी के राजा दर्शक के साथ पीपरा का विवाह हुमा है। (१) 'बृहत्कथाकोश' में वर्णित यशोधरा के पति का नाम सूर्यप्रभ एवं उसकी राजषानी का नाम प्रभातनगर है।" 'श्रीसमुद्रदत्तचरित्र' में इनका नाम सूर्यावतं मौर भास्करपुर है ।१२ १. श्रीसमुद्रदत्तचरित्र, ३४२-४ २. बृहत्कषाकोश, ७८८१-१३ ३. श्रीसमुद्रदत्तचरित्र, ४१ ४. बृहत्कथाकोश, ७८८८ ५. श्रीसमुद्रदत्तचरित्र, ४४ ६. बृहत्कथाकोश, ७८६२ ७. वही, ७८।१५५ ८. बीसमुद्रदत्तचरित्र, ५३१७ ६. बृहत्कथाकोश, ७८।१५६-१५७ १०. श्रीसमुद्रदत्तचरित्र, २२० ११. बृहत्कथाकोश, ७८१५६-१६० १२. श्रीसमुद्रदत्तचरित्र, ५२२२ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि मानसागर के संस्कृत-काव्य-प्रन्थों के स्रोत (घ) वृहत्कथाकोश' में चक्रायुष के अतिरिक्त वज्रायुध एवं रत्नायुध के वृत्तान्त भी है.' लेकिन 'श्रीसमुद्रदत्तचरित्र' में इनका केवल उल्लेख है । पाराषनाकथाकोश पोर श्रीसमुद्रदत्तचरित्र 'पाराषनाफयाकोश' में वर्णित श्रीभूतेः कथा' पौर श्रीज्ञानसागर विरचित 'श्रीसमुद्रदत्तचरित्र' में निम्न भिन्नतायें दृष्टिगोचर होती है :(क) 'माराधनाकथाकोश' में कथा केवल राजा द्वारा श्रीभूति के पण्डित होने पौर तत्पश्चात् उसके मर जाने तक है। 'श्रीसमुद्रदत्तचरित्र' में श्रीभूति से सम्बन्धित सभी पात्रों के जन्म-जन्मान्तरों के भी वर्णन हैं।" (ख) 'पाराषनाकवाकोश' में नायक का नाम समुद्रदत्त है,५ जवकि 'श्रीसमुद्रवत्तचरित्र' में इसका नाम भद्रमित्र है।' (ग) 'पाराधनाकपाकोश' में रत्नों की संख्या पांच है, जबकि 'श्रीसमुद्रदत्तपरिव' में सात है। (घ) 'माराधनाकयाकोश' में समुद्रदत्त के मित्रों के समुद्र में डूब जाने पर समुद्रदत्त के बीवित रह जाने का वर्णन है। परन्तु 'श्रीसमुद्रदत्तचरित्र' में यह वर्णन नहीं है। () 'पारापनाकथाकोश' में वर्णन है कि समुद्रदत्त ने रत्न ठग लिये जाने पर छः महीनों तक पुकार की पी, लेकिन 'श्रीसमुद्रदत्तचरित्र' में समय की किसी निश्चित अवधि का उल्लेख नहीं है। (च) 'पारापनाकथाकोश' में रामबत्ता चिह्न, अंगूठी मोर पसोपवीत को क्रमशः भिजवाती है, लेकिन श्रीभूति की स्त्री यज्ञोपवीत देखने पर ही रल देती है। किन्तु 'मीसमुद्रदत्तचरित्र' अनुसार रानी तीनों वस्तुएं एक साथ भिजवाकर रत्न मंगा सेती है। १. बृहत्कयाकोश, ७८१८६.२४५ २. श्रीसमुत्पत्तचरित्र, ६।२४, २६ ३. पारापनाकपाकोश, २७।१-३१ ४. बीसमाबतचरित्र, तीसरे से छठे सगं तक ५. मारापनाकपाकोश, २७।४ ६. श्रीसमुद्रातचरित्र, १॥३० ७. पारापनाकवाकोश, २७.५ ८. श्रीसमुद्रदत्तचरित्र, ३॥१से 1. भारापनाकपाकोश, २७॥६॥ १०. वही, २७।१० ११. वही, २७॥१७-२३ १२. वही, २७२-1 Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य-एक अध्ययन (छ) 'माराधनाकथाकोश' में श्रीभूति को दिये जाने वाले दण्डों का नामोल्लेख है। जबकि श्रीसमुद्रदत्तचरित्र में इनका नामोल्लेख नहीं है। उपर्युक्त परिवर्तन के अतिरिक्त कवि ने अपने इस काम्य में दो परिवर्धन भी किए हैं, जो इस प्रकार हैं :(क) श्रीज्ञामसागर ने धनार्जन के पूर्व स्वावलम्बन सम्बन्धी कथा का वर्णन किया है, जो 'बृहत्कथाकोश' एवं 'पाराधनाकयाकोश' में नहीं मिलती। (ख) 'श्रीसमुद्रदत्तचरित' में राजा ने भद्रामित्र को राजसेठ का पद दिया है। किन्तु यह वर्णन 'बृहत्कथाकोश' में नहीं है। ___ 'दयोदयचम्पू' काव्य के कपानक का स्रोत ढूंढते समय हमें उसकी कथा दो स्थलों पर देखने को मिली है. एक तो हरिषेणाचार्यकृत 'बृहत्कथाकोश' भोर दूसरी ब्रह्मचारी श्री नेमिदत्त जी रचित 'पाराधनाकयाकोश' की 'मृगसेन धीवर की कथा' के रूप में। सर्वप्रथम 'बृहत्कथाकोश' में वर्णित कथानक का सारांश प्रस्तुत है 'अवन्ती नामक देश में शिप्रा नदी के किनारे शिशपा नामक मछुपों के ग्राम में भवदेव नामक मछुमा अपनी स्त्री भवत्री के साथ रहता था। उनके पुत्र का नाम था मृगसेन । वहीं पर सोमास नामक मछुमा और उसकी स्त्री सेना अपनी पुत्री घण्टा के साथ रहते थे। मृगसेन पौर घण्टा का विवाह हो गया। पाश्वनाथ जिनेन्द्र के मन्दिर में एक मुनि से धर्मोपदेश श्रवण करके मृगसेन ने प्रतिज्ञा की कि जल में सर्वप्रथम माने वाली मछली को वह छोड़ देगा। तत्पश्चात् कन्धों में जाल डालकर वह नदी को तरफ चला गया। वहाँ जाकर जैसे ही उसने नदी में जाल फैलाया, वैसे ही एक बड़ी मछली जाल में फंस गई। उसने उस मछली को मुक्त कर दिया; और पुनः नदी में बाल डाला, तब बार-बार वही मछली उसके जाल में फंसी। फलस्वरूप विरक्त होकर खाली जाल को कन्धे पर लटकाकर वह घर की मोर चल पड़ा। उसकी पत्नी घण्टा ने पति को खाली हाथ माता हुमा देखकर निष्ठुर वचन कहे। मृगसेन ने उसे अपनी प्रतिमा के विषय में समझाया और कहा कि एक ही मछली चार बार जाल में फंसी, इसीलिए उसे मुक्त करके खाली हाथ घर मा गया है। घण्टा ने उसके समक्ष माजीविका की समस्या प्रस्तुत की और उसे घर से बाहर निकाल दिया। घर से निकलकर वह एक सूनी धर्मशाला में पहुँचा। कुछ देर बाब निहित होने पर एक सर्प के डसने से उसकी मृत्यु हो गई। भूख से व्याकुल घण्टा धीवरी भी उसे खोजती हुई वहीं पा गई; भोर पति के द्वारा गृहीत त का अनुसरण करने की इच्छा से उसने सर्प के बिल में हाथ मल दिया। दुष्ट सर्प काटने में उसकी भी मृत्यु हो गई। १. श्रीसमुद्रदतचरित्र, दूसरा सर्ग । २. वहाँ । Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत काव्य-ग्रन्थों के स्रोत १०७ उज्जयिनी नगरी में राजा वृषभदत्त राज्य करता था; उसकी रानी का नाम था वृषभदत्ता । उसी राजा के राजश्रेष्ठी का नाम था गुणपाल | गुणपाल की गुणश्री नाम की पत्नी थी। घण्टा धीवरी ने इन्हीं दोनों की पुत्री विषा के रूप में जन्म ग्रहण किया। इसी नगर में श्रीदत्त नाम का सार्थवाह अपनी स्त्री श्रीमती के साथ रहता था । मृगसेन ने उसके पुत्र सोमदत्त के रूप में जन्म लिया । सोमदत्त जब गर्भ में था तभी उसके पिता की मृत्यु हो गई। बालक के बढ़ते-बढ़ते उसका सम्पूर्ण कुल नष्ट हो गया । भूख से व्याकुल सोमदत्त एक दिन भोजन की इच्छा से गुणपाल के घर पहुँचा । श्रेष्ठी के बर्तनों में पड़ी हुई जूठन को उसने खाना प्रारम्भ कर दिया। इसी समय एक मुनि प्रपने शिष्यमुनि के साथ वहाँ पहुँचे । सोमदत्त की सुन्दर प्राकृति को देखकर छोटे मुनि ने बड़े मुनि से कहा कि यह बालक श्रेष्ठ लक्षणों से युक्त होते हुए भी माता-पिता और बन्धुनों से रहित हो गया है और कटोरे में पड़ी हुई जूठन खा रहा है। उसके वचन सुनकर बड़े मुनि ने कहा कि यह बालक सेठ गुरणपाल की सम्पूर्ण सम्पत्ति का स्वामी होगा। मुनि के इस वाक्य को सुनकर गुणपाल विस्मित हो गया और मुनि के वचन की सत्यता पर विचार करने लगा । तत्पश्चात् उसने उस बालक को मारने के लिए एक चाण्डाल को बुलाया और उसे घन का प्रलोभन भी दिया। चाण्डाल ने उसकी बात सुनकर बालक को उठाया मोर नदी के किनारे गहन वन में छोड़ दिया प्रोर लोडकर उसकी मृत्यु की घोषणा कर दी। नहाकर, नदी का जल पीकर और फल खाकर वह बालक वृक्ष के नीचे सो गया । थोड़ी देर बाद गोविन्द ग्वाले ने वहाँ उसे सोता हुआ देखा। उस बालक को देखकर गोविन्द ने प्रसन्नतापूर्वक घर लाकर प्रपनी स्त्री धनश्री को दे दिया । धनश्री उसे अपने पुत्र के ही समान पालने लगी। धीरे-धीरे सोमदत्त युवक हुआ । एक दिन सेठ गुरणपाल वहाँ पहुँचा तो सोमदत्त को देखकर प्राश्वयंचकित हो गया । उसने गोविन्द से उसके विषय में जिज्ञासा प्रकट की । गोविन्द ने सोमदत्त की अपने पुत्र के रूप में घोषणा कर दी। तब गुरणपाल ने कहा कि प्रपने पुत्र को जरा मेरे घर भेज दीजिए । गुगपाल की बात सुनकर गोविन्द ने अपने पुत्र को सुसज्जित किया, तब सेठ ने उसे एक पत्र देकर विदा किया। उस पत्र में गुरणश्री के लिए प्रादेश था कि पत्रवाहक को विष दे देना । पत्र लेकर सोमदत्त शीघ्रता से एक उद्यान में पहुँचकर एक वृक्ष के नीचे सो गया । उसी समय वसन्तसेना नाम की वेश्या ने वहाँ प्राकर उसके गले में पड़े हुए पत्र को पढ़ा। पत्र के विषय की प्रसंगति का विचार करके उसने पत्र में सुधार कर दिया कि पत्रवाहक को अपनी पुत्री विषा दे देना । पुनः पत्र को सोमदत्त के गले में डालकर बसन्तसेना शीघ्र हो अपने उठकर गुणपाल के घर गया और गुणपाल के घर चली गई । सोमदत्त वहाँ से पुत्र महाबल को उसने पत्र दे Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ महाकवि ज्ञानसागर के काग्य-एक अध्ययन दिया। महाबल ने पत्र पढ़कर माता एवं अन्य बान्धवों से परामर्श करके शुभ दिन और शुभनक्षत्र में उन दोनों (विषा और सोमदत्त) का विवाह बड़ी धूमधाम से करने का प्रायोजन किया। वरवधू वेदी में बैठे ही थे कि गुणपाल अपने घर पहुँच गया। वर मोर वधू को देखकर क्रोष के कारण धूलिघूसरित शरीर से ही बिस्तर पर लेट गया। पिता को विस्तर पर लेटा हुमा देखकर महाबल ने निवेदन किया कि यह कार्य आपकी इच्छा से सम्पन्न किया जा रहा है, प्रतः पाप मौन क्यों है ? महाबल की बात सुनकर गुणपाल बोला कि जब तक मैं घर में नहीं . माया, तब तक तुमने विषा का विवाह कैसे निश्चित किया ? महाबल ने उत्तर दिया कि पापका पत्र पढ़कर ही मैंने यह विवाह निश्चित किया है । महाबल की बात सुनकर गुणपाल अत्यधिक दुःखी हुमा। गुणधी को प्राग्रह करने पर उसने सम्पूर्ण पूर्ववृत्तान्त सुना दिया। इसके बाद सन्ध्याकाल में धूपपुष्पादि देकर गुणपाल ने अपने जामाता सोमदत्त को नागमन्दिर भेजा। उसको पकेले जाता हुमा देखकर महाबल ने उसके हाथ से पूजा की सामग्री बलपूर्वक लेकर उसे वहीं रोक दिया; मोर स्वयं नागमन्दिर की ओर चल पड़ा। वहाँ पूजा की सामग्री लाने वाले युवक की हत्या के लिए गुणपाल ने एक चाण्डाल को नियुक्त कर दिया था। महाबल जैसे ही नागमन्दिर पहुंचा, वैसे ही चाण्डाल ने तलवार से उसकी हत्या कर दी। . गुणपाल जामाता को जीवित देखकर और पुत्र की मृत्यु का समाचार मानकर मौन और दुःखी हो गया। इसके बाद गुणपाल ने गुणश्री से शत्रुरूप जामाता को मारने का उपाय पूछा। उसके बचन सुनकर गुणश्री ने पीघ्र ही विषमय लड्डू तैयार किये । उसने अपनी पुत्री विषा को समझाया कि ये लड्डू केवल अपने पति को देना, अन्य किसी व्यक्ति को नहीं। ऐसा कहकर वह बाहर चली गई। इसके बाद ही भूख से व्याकुल सेठ गणपाल ने विषा से कहा कि राजकार्य से मुझे राजा ने बुलाया है। प्रतः जो कुछ भोजन है, वही मुझे दे दो। उसके पचन सुनकर विषा ने शीघ्र ही विषयुक्त लड्डु खाने को दे दिए । फलस्वरूप गुणपाल की मृत्यु हो गई। पति की मृत्यु से शोकाकुल गुणश्री ने भी उन लड्डुओं को बाकर मृत्यु को प्राप्त कर लिया। . इस घटना के बाद राजा ने सोमदत्त को पास बुलाया; अपनी पुत्री, अपना भाषा राज्य, गुणपाल का धन एवं राजश्रेष्ठी का पद उसे दे दिया। राजश्रेष्ठी ने नगर में सुखपूर्वक भोगों का अनुभव किया। ____ सुकेतु मूरि नामक मुनि को पाहार इत्यादि से सतहत करके उनसे धर्मोपदेश पूर्वजन्म के वृत्तान्त इत्यादि के विषय में सुना। तत्पश्चात् वह तपकरण करने लगा। पारों प्रकार की पारापनामों का सम्पादन करके सोमदत्त मुनि ने सर्वार्ष, सिरि को प्राप्त किया। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-काव्य-प्रन्यों के स्रोत १०६ इस प्रकार एक मछली को दया के कारण चार बार मुक्ति देने से सोमदत्त के जन्म में मुगसेन धीवर ने भी चार बार दया प्राप्त की।' पारापनाकपाकोश में परिणत मृगसेन धीवर की कथा प्रबन्ती प्रदेश में शिरीष नामक ग्राम में मृषसेन नामक मछुपा रहता था। एक बार कन्धे पर जाल लटकाकर वह मछलियां पकड़ने के लिए शिप्रा नदी को गया। मार्ग में उसने यशोपर नामक मुनिराज के दर्शन किए । उनको देखकर जाल इत्यादि बोड़कर उसने उन्हें भक्तिपूर्वक प्रणाम किया। उसने किसी नियम के पपदेश हेतु निवेदन किया। मुनि ने उसकी हिंसात्मक वृत्ति का विचार करके उसके दयापूर्वक कहा कि हे महाभाग ! आज से तुम्हारे जाल में जो मछली सबसे पहले पाए उसे छोड़ देना । इस नियम के साथ ही तुम पंचनमस्कार मन्त्र का भी ध्यान करना । मुनि का वाक्य सुनकर मुगसेन शीघ्र ही शिप्रा नदी पर पहुँचा प्रौर व्रत को स्मृतिपूर्वक जाल को जल में डालकर उसने एक बड़ी मछली पकड़ी। मुनि के सम्मत की गई प्रतिज्ञा के अनुसार उसने मछली को चिह्नित करके पुनः जल में छोड़ दिया। इसके बाद उसने जाल फैलाया तो वही मछली जाल में बार-बार भाई। इस प्रकार जब उसने पांच बार मछली को मुक्त किया, तब तक सूर्यास्त हो चुका था। मृगसेन गुरुबचन को स्मरण करता हुमा घर की भोर चला। अपने पति को खाली हाथ प्राता देखकर उसकी घण्टा नाम की स्त्री ने उस पर क्रोध प्रकट किया पोर झोपड़ी में प्रवेश करके शीघ्र ही द्वार बन्द कर दिया। तत्पश्चात् मृगसेन बाहर ही पंचनमस्कार मन्त्र का स्मरण करता हुमा एक पुराने काठ पर सो गया। रात्रि में उसमें से एक सर्प ने निकलकर उसके प्राण हर लिये । प्रातःकास घण्टा उसे मरा हुमा देखकर अत्यधिक शोकाकुल हो गई और जिस पवित्र व्रत का पालन इसने किया, मैं भी उसी का पालन करूंगी। अगले जन्म में भी यह मेरा स्वामी हो ऐसा निश्चय करके उसने मुगसेन के साथ ही अग्नि में प्रवेश कर लिया। विशाला नगरी में विश्वंभर नामक राजा राज्य करता था। उसकी रानी का नाम था विम्बगुणा । उसी नगर में गुणपाल नामक सेठ धनश्री नामक सेठानी के साथ रहता था। उनकी सबन्धु नाम की पुत्री थी। उस धनश्री के गर्भ में मगसेन के जीव ने प्रवेश किया। राजा विश्वंभर ने अपने मन्त्रिपुत्र नर्मधर्म के लिए गुणपाल से उसकी पुत्री सुबन्धु की याचना की। किन्तु नर्मधर्म के दुराधरण से भयभीत गुणपाल के हृदय में सबन्धु को देने का साहस नहीं हुमा सर्वस्वनाश रोकने की इच्छा से गुणपाल ने अपनी गमिणी स्त्री को अपने मित्र श्रीदत्त सेठ के घर ठहरा दिया और पुत्री को लेकर चुपचाप कौशाम्बी नगर में पहुंच गया। १. हरिषेणाचार्यविरचित बृहत्कथाकोशः ७२वीं कया। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य-एक अध्ययन इस वृत्तान्त को जानकर गुणपाल कौशाम्बी से उज्जपिनी नगरी मा गया। . इस प्रकार पनकीति की अपने पिता से भी भेंट हो गई। भगवान् जिनेन्द्र की पूजा पौर परोपकार में उसने सुख का अनुभव किया। एक दिन सेठ गुणपाल पनकीर्ति एवं मनंगसेना बेश्या सहित यशोध्वज नाम के मुनि के दर्शन करने के लिए गया । गुणपाल ने मुनि से पनकीर्ति के जीवन में पाने वाले उत्थान-पतन के विषय में जिज्ञासा प्रकट की। मुनि ने बताया कि पूर्वजन्म में पनकीति मगसेन धीवर पा और श्रीमती उसकी उस जन्म की घण्टा नाम की स्त्री पो । जिस मछली को इसने पांच बार मुक्त किया था, वही इस जन्म में मनंगसेना के रूप में उत्पन्न हुई है। मुनि मुख से अहिंसा का फल एवं जैनधर्म का उपदेश सुनकर वे सब जनधर्म में रत हो गये । धनकीति, श्रीमती मोर पनंगसेना ने जातिस्मृति की शक्ति को प्राप्त करके वैराग्य धारण कर लिया। पनकीति ने केशों को उखार रिया; पोर जिमदीक्षा ग्रहण कर ली। तपश्चरण के पश्चात् यह केवली हो गया भोर उखने सर्वार्थसिद्धि के सख को प्राप्त किया। श्रीमती पौर प्रनंगसेना ने भी दीक्षा ग्रहण कर ली और अपने-अपने पाचरण के अनुसार स्वर्ग प्राप्त किया। उपर्यक्त ग्रन्थों में पाये हुए मगसेन धीवर के कथानक को देखने से शात होता है कि श्रीज्ञानसागर विरचित 'दयोदयसम्पू' का कथानक 'वृहत्कथाकोश' के कपानक से पूर्ण समानता रखता है। चूंकि 'पाराधमाकवाकोश' में इस कथामक का अत्यधिक परिवर्तित रूप मिलता है । अतः वृहत्कथाकोश' में परिणत 'मगसेन धीवर की कषा' को ही 'दयोदयचम्पू का स्रोत मानना चाहिए, 'भारापनाकपाकोश को अब देखना यह है कि 'बृहत्कथाकोश' में पाई हुई कथा में महाकवि ने कहाँ-कहाँ परिवर्तन किया है :(क) 'हत्वयाकोश' में मगसेन धीवर मोर घण्टा धीवरी के माता-पिता का उल्लेख है, जो 'पयाचम्पू' में नहीं है। () 'बृहत्कथाकोश' में कक्षा का प्रारम्भ बीबर के वृत्तान्त से ही होता है, किन्तु 'योदयचम्पू' में कथा का प्रारम्भ उज्जयिनी नगरी के राजा के वर्णन हुमा (1) 'वृहत्कथाकोश' में खाली हाथ लौटे हुई मृगसेन धोबर से घण्टा का पानुपद्रव १. ब्रह्मचारी नेमिरतात 'माराधनाकथाकोश', २०२५ २. बृहत्कथाकोश, ७२२२ ३. वही, ७१।१-२ ४. दयोदयचम्प, १११२ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-काव्य-प्रन्थों के स्रोत १११ पाकर धनकीति शीघ्रता से गन्तव्य की मोर चल पड़ा। उज्जयिनी नगरी में वह एक महान मानवन में प्रविष्ट हुमा । राह की थकान को दूर करने के लिए एक वृक्ष के नीचे सो गया । थोड़ी देर बाद अनङ्गसेना वेश्या वहां आई; मोर उसने उस युवक को सोते हुए देखा । पूर्वजन्म के उपकार के कारण उत्पन्न स्नेह के वश उसने उसके पास रखे पत्र को पढ़कर उसके अक्षरों पर विचार किया। तत्पश्चात् अपने नेत्र के काजल को सलाई में लगाकर पत्र में लिखा-'मेरी भार्या ! यदि तुम मुझसे स्नेह करती हो, पौर पुत्र महाबल ! यदि तुम मुझे अपना पिता समझते हो तो मेरी अपेक्षा के विना ही धूम-धाम से मेरी पुत्री श्रीमती इसको दे देना।' इस कार्य को करके पुनः पत्र को पूर्ववत् रखकर चली गई। __ जब धनकोति सोकर उठा तो श्रीदत्त के घर जाकर उसने वह पत्र उन माता-पुत्र को सौंप दिया । शीघ्र ही उसका विवाह श्रीमती के साथ हो गया। इस वृत्तान्त को सुनकर श्रीदत्त ने व्याकुल मन से लौटकर नगर के बाहर चण्डिका के मन्दिर में एक पुरुष को धनकीति के वध के लिए नियुक्त कर दिया। घर पाकर उसने धनकोति से कहा कि मेरे घर की यह रीति है कि विवाह के बाद लड़का रात्रि के समय में कात्यायनी के मन्दिर में जाता है। ऐसा सुनकर धनकीति सहमति प्रकट करके पूजा की सामग्री लेकर निकला तो नगर के बाहर उसके साले ने उसे देखा, मोर पूछा कि इस समय अंधेरा हो जाने पर आप अकेले कहाँ जा रहे हैं ? उसने बताया कि माता की प्राज्ञा से दुर्गा के मन्दिर में जा रहा हूँ। महाबल ने धनकीर्ति को रोक दिया और स्वयं मन्दिर चला गया। घनकीति तो निर्वाध घर पहुँच गया; और महाबल यमलोक को गया। पुत्रशोक से विह्वल श्रीदत्त ने एकान्त में अपनी पत्नी से कहा कि यह धनकोति किस प्रकार मारा जाए ? उसने कहा कि आप चुप ही रहें, भापका वांछित कार्य मैं करूंगी। तत्पश्चात् उसने विष मलकर लड्डू बनाये और अपनी पुत्री से कहा कि उज्ज्वल कान्ति बाले लड्ड अपने पति को देना मोर श्यामवर्ण वाले लड्डू अपने पिता को देना। पुत्री को निर्देश देकर वह शीघ्र ही स्नान के लिए नदी को चली गई। माता की दुश्चेष्टा से अनभिज्ञा श्रीमती ने उज्ज्वल कान्ति वाला लड्डू अपने पिता को दे दिया, उस लड्डू को खाते ही सेठ श्रीदत्त की मृत्यु हो गई। . भीमती की माता विशाखा ने घर पाकर जब स्वामी को जीवित नहीं देखा; तब शोकाकुल होकर अपने पति के क्रूरकर्म की निन्दा की; श्रीमती को प्राशीर्वाद दिया; और स्वयं भी विषमय लड्डू खाकर यमलोक चली गई। इस प्रकार पांच बार मृत्यु के मुख से बचकर धनकीति सुखपूर्वक रहने लगा। एक दिन शुभमुहूर्त में विश्वंभर ने अपनी पुत्री धनकीति को दे दी; मोर उसे महाठिपद पर मासीन किया। Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० महाकवि ज्ञानसागर के काव्य- एक अध्ययन एक दिन श्रीदत्त के गृह में शिवगुप्त मौर गुप्त नामक दो मुनि प्राये । श्रीदत्त के गृह में निवास करती हुई गाभणी धनश्री को देखकर गुप्तमुनि ने ज्येष्ठ मुनि से पूछा कि कौन दुःखदायी पुत्र इसके गर्भ में है जिसके कारण यह स्त्री इतनी दुःखी दिखाई दे रही है । उनके वचन सुनकर शिवगुप्त ने गुप्त मनि से कहा कि यह सेठानी अभी तो दुःखी दिखाई दे रही है, लेकिन दुःख के दिन बीत जाने पर इसका पुत्र जैनधर्म का धुरन्धर होगा। राजश्रेष्ठी के पद को प्राप्त करके विश्वंभर राजा की कन्या का पति होगा। दुष्ट श्रीदत्त मुनि के वचनों को सुनकर गर्भस्थ बालक को मारने की इच्छा करने लगा। धनधी ने प्रसूतिवेला में पुत्र को जन्म दिया। प्रसूति के कष्ट से वह मूच्छित हो गई। यह समाचार पाकर श्रीदत्त ने घर की वृद्ध स्त्रियों से यह घोषणा करा दी कि मरा हुमा बालक उत्पन्न हुअा है; और सद्योजात शिशु को वथ हेतु एक पाण्डाल के हाथों में सौंप दिया। चाण्डाल ने उस बालक के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उसे मारने के बदले एकान्त स्थान में छोड़ दिया और घर चला गया। श्रीदत्त का बहनोई सेठ इन्द्रदत्त घूमता हुआ उसी स्थान पर पहुंचा । ग्वालों की बातों से उस बालक का समाचार जानकर निःसन्तान होने के कारण बालक को प्रसन्नतापूर्वक उठा लिया और घर जाकर अपनी स्त्री राधा से उसका पालन करने को कह दिया । अपने पुत्र की उत्पत्ति की घोषणा करके उन्होंने महान् उत्सवों की प्रायोजना की। श्रीदत्त ने जब यह समाचार सुना तो वह इन्द्रदत्त के घर माया भौर कंपटपूर्वक बहिन के साथ उस बालक को अपने घर ले गया। बालक को मारने की इच्छा से उसने उसको एक चाण्डाल को दे दिया। बालक की रूप-सम्पदा से द्रषित होकर चाण्डाल ने उसे घने वृक्षों के बीच एकान्त स्थित नदी के किनारे रख दिया और घर चला गया। सन्याकाल में उस बालक को वहाँ देखकर ग्वालों ने उसे उठाकर ग्वालों के मुखिया गोविन्द को दे दिया। पुत्र की इच्छा से गोविन्द ने उसे घर लाकर अपनी स्त्री सुनन्दा को सौंप दिया। उन्होंने उस बालक का नाम धनकीति रखा और बरे स्नेह से उसका पालन किया । धीरे-धीरे वृद्धि को प्राप्त करते हुए धनकीर्ति को एक दिन दुष्ट श्रीदत्त ने देख लिया। उसका वृत्तान्त जानकर उसने गोविन्द से कहा कि मेरे घर में एक मावश्यक कार्य है, अतः इस पत्र को लेकर अपने पुत्र को भेज दो। गोविन ने धनकीति को जाने की स्वीकृति दे दी। उस दुष्ट ने अपने पत्र में पत्र महाबल को सम्बोधित करते हुए लिखा था कि इस कुल का नाश करने वाले व्यक्ति को अवश्य ही मार देना । उस पत्र को लेकर पिता पोर सेठ की अनुमति Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत काव्य-ग्रन्थों का स्रोत ५ संक्षिप्त है, किन्तु दयोदयचम्पू' में यह विस्तृत है । 3 (घ) 'वृहत्कथाकाश' में वर्णन है कि मृगसेन को मरा हुआ देखकर घंटा घीवरी ने उसके भार्ग का अनुसरण करने के लिए सर्प के बिल में हाथ डाला, किन्तु 'दयोदयचम्पू' में वर्णन है कि जैसे ही घण्टा ने पति का अनुसरण करने का विचार निया, वैसे ही जिस सर्प ने मृगसेन को डसा था, उसी ने घंटा को भी उस लिया । * (ङ) 'वृहत्कथाकोश' में उल्लिखित है कि गुरणपाल ने गोविन्द से कहा कि वह आवश्यक कार्य से सोमदत्त को उसके घर भेज दे, किन्तु 'दयोदयचम्पू' में वह सोमदत्त से पूछता है कि प्रावश्यक कार्य से किसको घर भेजा जाय, लब सोमदत्त कह देता है कि मैं ही चला जाऊँगा । ६ (च) 'बृहत्कथाकोश' में वर्णन है कि विषा और सोमदत्त के विवाह का कार्य जिस दिन सम्पन्न होना था, गुणपाल उसी दिन अपने घर म्रा धमका; और अपने पुत्र पर क्रोधित हुप्रा, ७ किन्तु 'दयादयचम्पू' में जब गुणपाल को विषा और सोमदत्त के विवाह का समाचार ज्ञात होता है, उस समय वह गोविन्द ग्वाले के घर में ही होता है । गोविन्द वाले के जिज्ञासां करने पर ऊपरी तौर पर प्रसन्नता प्रकट करके उसे उन दोनों के विवाह की सूचना देता है । घर लौटकर पुत्र पर पत्नी से बात बनाते हुए कहता है कि तुम लोगों से तो इस विवाह के सम्बन्ध में स्वीकृति मांगी थी, कार्य सम्पन्न करने को नहीं कहा था। 5 (छ) 'बृहत्कथाको' में नागमन्दिर वृत्तान्त के पर अपनी व्याकुलता का कारण बता देता है, नागमन्दिर के बाद का है । १० ११३ पहले ही गुणपाल, गुरणश्री के प्राग्रह किन्तु 'दयोदयचम्पू' में यह वृत्तन्ति (ज) 'बृहत्कथाकोश' में वर्णन है कि गुणश्री पुत्री को निर्देश देती है कि ये लड्डू केवल अपने पति को ही देना, अन्य किसी को नहीं, ११ किन्तु ' दयोदयचम्पू' में १. बृहत्कथाकोदा, ७१।१५- २३ २. दयोदयचम्पू, २ श्लोक ७ के बाद से श्लोक २३ के पूर्व तक । ३. बृहत्कथाकोश, ७२/७६ ४. दयोदयचम्पू, २ श्लोक ३२ के पूर्व से श्लोक ३३ के बाद तक । ५. बृहत्कथाकोश, ७२।५७ ६. दयोदयचम्पू, ४ श्लोक के बाद के गद्यभाग । बृहत्कथाकोश, ७२|७६ = १ 6) दयोदयचम्पू ५ प्रारम्भ के गद्यभाग एवं १ से ६ श्लोक तक । ६. बृहत्कथाकोश, ७२८४-८७ १०. दयोदयचम्पू, ६ प्रारम्भ का गद्यभाग एवं १ से ३ श्लोक तक । ११. बृहत्कथाकोश, ७२।६६-६७ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकविज्ञानसागर के काव्य-एक सम्पयन मुखपी महू तो बनाती है, किन्तु पुत्री को इनके विषय में कोई निर्देश नहीं . (क) 'बुहरकचाकोश' में सोमदत्त को उपदेश देने वाले मुनि का नाम सुकेतुसरि बताया गया है। किन्तु दयोदयचम्पू' में ऋषि का नाम नहीं मिलता है। . . उपर्युक्त परिवर्तनों के प्रतिरिक्त कवि ने 'योदयचम्पू में तीन परिवर्धन भी किये है, जो इस प्रकार हैं:(6) 'दयोदयबम्पू में सोमवत्त को शिक्षा का भी उल्लेख है', वो 'बहकमाकोश'. में नहीं पाया जाता। .. (8) 'दयोदयबम्पू' में विषा विवाह के पूर्व ही सोमदत्त का दर्शन करके उस पर मासक्त हो जाती है, पर 'वृहत्कथाकोश' में ऐसा प्रसंग नहीं है। (ब) 'योदयचम्पू' में वर्णन है कि जब सोमदत्त नागमन्दिर का रहा था, उस समय महाबल प्रायवालकों के साथ गुल्ली-बण्डा खेल रहा था। सोमदत्त को प्राता हुमा देखकर उसने सोमदत्त को क्रीड़ा में अपने स्थान पर नियुक्त किया और स्वयं पूज सामग्री मेकर मन्दिर चला गया। किन्तु बृहत्तामाकोश' में इस सेम का उल्ले __स्पष्ट है कि ये परिवर्तन एवं परिक्धन कास्यास्वार में सहयता माने में सहायक सिद्ध हुए हैं। (5) सारांश . . उपर्णत क्वेिवन से स्पष्ट है कि कवि के काव्यों के मूलस्रोत के रूप में कः अन्य सामने पाते है-महापुराण, वृहत्कवाकोश, पाराधनाकपाकोश, सुदंसणचरिक, पुण्याला कपाकोश पोर सुदर्शनचरित। विवर के बयोदय एवं वीरोय. महाकायों के कपानक का स्रोत महापुराण है। सुदर्शन के कथानक का स्रोत वृहकमा के अतिरिक्त पाराधना कथाकोश, सुदंसखचरिक, पुण्यालयकवाकोश और सुवर्शनपरित नामक पार ग्रन्थ हैं; एवं अन्य दोनों-श्रीसमुद्रदत्तचरित्र और बोक्यच. कायों के स्रोत बृहत्कयाकोश पोरापनाकपाकोश-दो ग्रन्थ है। महाकवि श्रीज्ञानसागर ने मूलकया में अधिक परिवर्तन किया है । पौराणिक मास्यान को महाकाव्य का रूप देने में कवि को सफलता दिलाने वाला महाकाम्य 'पीरोदय' है । यह 'जयोदय' की अपेक्षा अधिक रोचक बन गया है। सेकषि ने १. दयोदयचम्प, ६ श्लोक ५ के बाद का गम भाव । २. बहरकपाकोश, ७२६१०६ ३. दयोदयबम्पू, ४ श्लोक ६ एवं उसके बाद का मवमान। ४. पही. ४ श्लोक १४ के पूर्व का गबभाव एवं १४-१६ ५. वही ५ श्लोक १४ के पूर्व का गबमान। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकविमानसागर के संस्कृत-काव्य-प्रन्यों के बोत रोनों ही काव्यों की कपा की प्रतः कषानों को हटाने का प्रयत्न किया है। 'वीरोदय' महाकाव्य में परिणत जन्माभिषेक.'महापुगण में रिणत जन्माभिषेक की अपेक्षा अधिक रोचक है। ___'सुदर्शनोदय की कथा बिन छ. ग्रन्थों में मिलती है। उनमें मूल स्रोत 'ब्रात्कषाकोश ही है। प्रन्य ग्रन्थकारों ने इसी के माधार पर अपनी रचनाय प्रस्तुत की हैं, किन्तु हमारे कवि ने इन रचनामों से भी कुछ बातें ग्रहण की हैं :- यथा सुदर्शनोदय' में प्रारापनाकपाकोश' के अनुसार ही सुकान्त की उत्पत्ति एवं सात पुतलों का वर्णन नहीं मिलता, वरन् उसमें पूर्वजन्मवृत्तान्त एवं पांच स्वप्नों का वर्णन मुनि नयनंदि विरचित 'सुदंसणचरिउ' के भी अनुसार है । सेठ वृषभदास का मुनिदर्शन भी नयनंदि के अनुसार है। सुभग ग्वाले द्वारा रातभर मुनि की सेवा का वर्णन 'सुदर्शनोदय' के समान ही 'पुण्यासव-कथाकोश' एवं सकलकोति विरचित 'सुदर्शनचरित' में भी मिलता है। श्रीज्ञानसागर ने 'बृहत्कथाकोश' के समान ही अपने इस काव्य में अन्तःकथानों को नहीं बढ़ाया है। कथा को काव्य रूप में परिणत करने में उन्हें सफलता मिली है। कवि द्वारा किये परिवर्तनों एवं परिवर्धनों से काव्य में पर्याप्त रोचकता मा गई है। साथ ही काव्य के नायक का स्थान भी पाठक के समक्ष ऊंचा हो गया है। श्रीसमुद्रदत्तचरित्र' का कयास्रोत निस्सन्देह 'बृहत्कथाकोश' ही है। 'माराधनाकथाकोश' की कथा भी इसी के प्राधार पर लिखी गई है। किन्तु कवि ने भद्रमित्र को राजश्रेष्ठी बनाने का वर्णन 'पाराधना-कथाकोश' के ही अनुसार किया है। इस काम्य के मध्यभाग में रोचकता की कमी है। 'योदयबम्पू' काव्य के भी कथानक का बोत 'बृहत्कथाकोश' ही है। कोश की कथा को 'चम्पूकाव्य' के रूप में परिणत करने में कवि को जो परिवर्तन एवं परिवन करने पड़े हैं, उनसे काव्य में रोचकता एवं नाटकीयता का समावेश हो पपि कवि ने अपने काग्य मुख्य रूप से 'महापुराण' एवं बृहत्कथाकोश' के ही पाधार पर लिखे हैं, तथापि हम ऐसा नहीं कह सकते कि कवि की कृतियाँ इन दोनों की अनुरूतियां हैं। कवि ने अपने वर्णनकोशल, प्रलंकार-प्रयोग, जनदर्शनोपदेश इत्यादि से कवायों को काव्य में बदल दिया है। इस प्रकार सात्त्विक अभिरुचि वाले पोर दार्शनिक अभिरवि वाले दोनों ही प्रकार के पाठकों के लिए सामग्री जुटाने में कवि को पद्भुत सफलता मिली है। Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-काव्य-ग्रन्थों की ___ काव्यशास्त्रीय विधाएँ (क) काव्य एवं काव्यविधाएँ : एक संक्षिप्त परिचय काव्य 'काव्य' शब्द कव धातु में ण्यत् प्रत्यय के योग मे निष्पन्न हुअा है। 'कव' का तात्पर्य है-- वर्णन करना । इस प्रकार काव्य शब्द का अर्थ है--कविकृत किसी पदार्थ का सुन्दर वर्णन। किमी भी व्यक्ति के स्वरूप का ज्ञान करने के लिए हम उसके नख-शिख का मानोवन करते हैं। इसी प्रकार काव्य का क्या स्वरूप है ? यह जानने के लिए हमें उसके प्रमुख अंगों के विषय में जानना चाहिए । लीजिए, अापके समक्ष काव्य-पुरुष के अंगों का परिचय प्रस्तुत है :शब्द : कवि को किसी पदार्थ का वर्णन करते समय सर्वप्रथम शब्दावली का सहारा लेना पड़ता है । वर्णन में प्रयुक्त किये जाने वाले शब्द सार्थक होने चाहिएं। अर्थ : कवि जब किसी पदार्थ का वर्णन करता है तो उस वर्णन का कुछ न कुछ प्रर्ष अवश्य निकलता है । जब चाहे यह अर्थ पाठक का मनोरञ्जन करे या उसे बौद्धिक व्यायाम कराये। अलंकार : पुरुष प्रपने को सुसज्जित करने के लिए, अपनी समृद्धि-बहुलता को प्रकट करने के लिए और स्त्रियां प्राने सौभाग्य को सूचित करने के लिये कटक कुण्डलहारादि अलंकारों का उपयोग करती हैं। इसी प्रकार कवि अपने पाण्डित्य-प्रदर्शन के लिए प्रानो कविता-कामिनी को अनुप्रास, उपमा, श्लेष इत्यादि से सुसज्जित करता है। एक यशस्वी व्यक्ति के लिए कुण्डलादि प्रावश्यक नहीं, इसी प्रकार कवि के काव्य का भावपक्ष प्रबल होने पर काग्य के लिए उपमा-अनुप्रासादि की आवश्यकता नहीं है। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यशास्त्रीय विधाएं ११७ छन् पुरुष को गतिशील बनाने का महत्वपूर्ण और मूर्त साधन हैं ---उसके चरणद्वय। इसी प्रकार काव्य-पुरुष की गति अवरुद्ध न हो, उसमें प्रवाह होइसके लिए कवि छन्दों का प्रावलम्बन लेता है। गद्य-काव्यों में इसकी इतनी प्रावश्यकता नहीं होती, किन्तु पद्य काव्य पूर्णतया इनका सहारा लेकर लिखा जाता है। छन्दों को इसी महत्ता के कारण महर्षि पाणिनि ने छन्दों को वेदों का चरण कहा है।' प्रात्मा (हृदय) पुरुष केवल अपने शरीर के बल पर जीवित नहीं रह सकता। उसे जीवित रखने वाली एक प्रमूर्त शक्ति है, और वह है प्रात्मा । इसी प्रकार काव्य भी केवल शब्दार्थमय शरीर से ग्राह्य नहीं बन सकता और न केवल छन्द प्रौर मलकार ही उसे ग्राह्य बना सकते हैं। वरन् काव्य को ग्राह्य बनाने के लिये भी प्रात्म-शक्ति पावश्यक है-उस प्रात्मशक्ति को हम साहित्यिक भाषा म 'रस' कहते हैं। इसके विना काव्य या तो निष्प्राण होता है, या पाठक के बौद्धिक व्यायाम का साधन । प्रतः बुद्धि प्रौर सहायता से युक्त अच्छे पुरुष के समान एक अच्छा काव्य भी वही माना जाता है जिसमें बुद्धि-पक्ष पोर हृदय-पक्ष का समन्वय हो । वर्य-विषय प्रत्येक काव्य का कोई न कोई वर्ण्य-विषय होता है । चाहे काव्य किसी कथा पर आधारित हो, या किसी की भक्ति पर, या देश-प्रेम पर । वयं-विषय न होने पर कवि किसका वर्णन करेगा ? शैली पुरुष अपना मुख्य ध्येय प्राप्त करने के लिए कोई न कोई मार्ग चुनता है। कवि के काव्य लिखने का मुख्य उद्देश्य है - सद्यः परनिति'। अपने इस उद्देश्य तक पहंचने के लिए उसे काव्य में कोई न कोई मार्ग चुनना पड़ता है। साहित्य में इसी मार्ग का प्रचलित नाम है शैली। गुण-दोष जिस प्रकार मनुष्यों में गुण-दोष देखने को मिल जाते हैं, उसी प्रकार काव्यों में भी ये पाये जाते हैं। पर जिस प्रकार पूज्य ऋषिजन पुरुष को गुणों को ग्रहण करने का और दोषों से बचने का उपदेश देते हैं, उसी प्रकार साहित्यशास्त्री १. छन्दः पादौ तु वेदस्य हस्ती कल्पोऽप पठ्यते । ज्योतिषामयनं चक्षुनिरुक्तं श्रोत्रमुच्यते ।। fक्षा प्राणं तु वेदस्य मुखं व्याकरणं स्मृतम् । तस्मात्साङ्गमधीत्यैव ब्रह्मलोके महीयते ॥ -पाणिनीय शिक्षा, श्लोक ४१ पोर ४२ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ महाकवि मानसागर के -एक व्यय भी अच्छे कवि को यह उपदेश देते हैं कि वह भी यपा-सम्भव अपने काम में 'माधुर्यादि गुणों का प्राधान करे, और दुष्क मत्वादि दोषों से बचे। - मेरा विचार है कि उपर्यस्त विवेचन से काव्य का स्वरूप स्पष्ट हो गया होगा। अनेक प्राचीन काव्याचार्यों ने काव्य के एक से एक बढ़िया लक्षण किये हैं। मेरा यह उपर्युक्त विवेचन उन्हीं के लक्षणों का सार है। प्रत: मलग से काव्य का लक्षण देना यह प्रकट करेगा कि मुझे उन विद्वानों का लक्षण मान्य नहीं। यहाँ सभी प्राचार्यों के लक्षण न देकर केवल दो पाचार्यों के लक्षण दिये जा रहे १. 'तददोषी शब्दार्थो सगुणावनलंकृती पुन: क्वापि । -मम्मटाचार्य विरचित काव्यप्रकाश । १. 'रमणीयार्थप्रतिपावकः शब्दः काव्यम् ।' -पण्डितराज जगन्नाव विरचित रसगंगाधर, १११ काम्य-विधाएं काव्य के सर्वप्रथम दो भेद होते हैं :--पहमा श्य-काम्य और दूसरा भय. काव्य । क्य काव्य वे काव्य होते हैं जिन्हें रंगमंच पर अभिनीत किया जाता है, भोर व्यक्ति पात्रों के अभिनय को देखकर रसास्वादन करता है। रश्य-काव्य के अन्तर्गत नाटक, प्रकरण प्रादि पाते हैं। श्रव्य-काव्य वे काव्य है, जिन्हें केवल सुना मोर पढ़ा जाता है । वक्ता सुनाकर और श्रोता सुनकर रसानुभूति करते हैं। श्य. काव्य के १० प्रमुख भेद होते हैं-१-नाटक, २-प्रकरण, ३ - भारण, ४-माघोग, ५---समवकार, ६-मि, ७-ईहामन, ८-ग्रंक, -बीपी पोर.१.प्रहसन । अभ्य-काव्य के सर्वप्रथम तीन भेद किये जाते हैं-१-पचात्मक काम्य, २. गद्यात्मक काम्य और ३-गद्यपदात्मक काव्य । पद्यात्मक काव्य के दो प्रमुख भेद हैं-१-महाकाव्य प्रौर २-खण्डकाव्य । गडात्मक काम के भी दो प्रमुख भेद माने गये है--कला पोर २-प्रास्थायिका . गद्यपद्यात्मक काम्य को बम्यू-काव्य कहा जाता है। पयपि काम्याचाों ने इन काव्यों के अन्य भी भेदोपभेदों की गणना की है, किन्तु यहां अपने शोष-प्रबन्ध की विषय-वस्तु पोर स्वरूप का विचार करते हुए मैंने काय के प्रमुख एवं प्रचलित भेदों का ही उल्लेख किया है। इनप्रमुख-प्रमुख काव्य-भेदों का देशावित इस प्रकार Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाम्बमास्त्रीय विधाएं काव्य बकाव्य (रूपक) . नाटक | भाण | समवकार | ईहामग | वीषी - प्रकरण व्यायोग-हिम अंक। प्रहसन गयकाव्य पचकाव्य मयपमितिकाम्य कपा मास्यापिका महाकाव्यपकाय (ख) कवि के संस्कृत-काव्य एवं काव्य-शास्त्रीय विधा : एक समन्वय महाकवि श्रीमानसावर ने संसात-भाषा का प्राय लेकर जिन कृतियों का प्रणयन किया, वे इस प्रकार है-१-जयोदय, २-धीरोदय, ३-सुदर्शनोदय, ४-बीसमुद्रस्तचरित्र, ५-श्योदय, ६-मुनिमनोरंजन शतक, ७-प्रबंधनसार पोर ८-सम्पत्वसार शतक । काग्य का स्वरूप ध्यान में रखते हुए हम इन पाठ रचनामों में से प्रषम छ को संस्कृत-काग्यों की गोटि मेंस सकते हैं। अब देखना यह है कि इन संस्कृतकाम्पों में कोन काव्य, काम की सिविषा अन्तर्गत पाता है। इस परीक्षा हेतु हम सर्वप्रथम पयोदय को ही मेते है:बोरव यह एक महाकाम है। भारतीय प्राचार्य कहाकाव्य में जिन विशेषतामों का होना पावश्यक समझते थे, वे इस प्रकार हैं। १-कवावस्तु सगंबड होनी चाहिए और सर्व भी पाठ से अधिक सवाचित पाकार पाने होने चाहिए। २-प्रारम्भ में पाशीर्वादात्मक, नमस्कारात्मक या वस्तुनिर्देशात्मक मंगमापरण होना चाहिये। ३-चानक इतिहास या किसी सज्जन से सम्बड होना चाहिये । ... ४-पुरुषार्ष-पतुष्टय में से एक की सिदि करनी ही चाहिये। -भावक पतुर, ज्यात पौर चीन होना चाहिए। Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० महाकवि ज्ञानसागर के काव्य-एक अध्ययन ६-नगर, समुद्र, पर्वत, ऋतु, वन, चन्द्रोदय, चन्द्रास्त, मूर्योदय. मर्यान, सन्ध्या, रात्रि, प्रदोष. अन्धकार, दिन, मध्याह्न, जनक्राडा. मधुरा प्रमात्मव, मगया, वियोग, प्रेम, विवाह, कुमारोत्पत्ति, संवाद, दूना भर पर, मगया, नायकाभ्युदय, मुनि यज्ञ इत्यादि का यथावगर मुन्दर यान । गहिये। ७-शृङ्गार. वीर पोर शान्त रसों में से कोई एक रम (प्रय न) होना चाहिए, और शेष रस उस प्रङ्गी रस के प्रङ्ग (महामा) ना । ८-नाटक के ही समान पंचसन्धियों (मुख, प्रतिमुख, गर्भ, विमर्श, उपगढति) का समावेश होना चाहिए। ६-प्रायः पूरे सर्ग में एक ही छन्द का प्रयोग होना चाहिये, पर सगं के अन्त में छन्द अवश्य बदल जाना चाहिए। १.-प्रत्येक सर्ग के अन्त में अग्रिम सर्ग में प्राने वाली कथा को सूचना होनी चाहिये। ११-सर्ग का नामकरण उस सर्ग में वर्णित कथा के प्राधार पर करना चाहिये । १२-काव्य को लोकरंजक एवं उत्तम अलंकारों से अलंकृत होना चाहिए। १३-दुष्टों की निन्दा पौर सज्जनों की प्रशंसा होनी चाहिए । १४-महाकाव्य को मनोहर बनाने के लिए प्रावश्यक है कि नायक के गुणों का वर्णन करने के पश्चात् उसके द्वारा उसके शत्रुनों को पराजय का वर्णन हो। साथ ही शत्र के भी वंश और पराक्रम का वर्णन करना चाहिए, ताकि यह सिर हो जाय कि नायक अपने से हीन व्यक्ति को नहीं, अपितु अपने समान ही बलशाली व्यक्ति को हराने में समर्थ है। ११-महाकाव्य का नामकरण कवि, कथावस्तु, नायक या अन्य किसी आधार पर किया जाना चाहिये ।' महाकाव्य के उपर्युक्त लक्षणों में से यदि कोई लक्षण महाकाव्य में न घटे, पर उसका प्रतिपाद्य अच्छा हो, उसका वर्णन सहृदय को सहज ही प्राकष्ट कर सके तो भी ऐसे काम्य को महाकाव्य की संज्ञा दैना उचित ही होगा। ___ जयोदय के अनुशीलन से यह स्पष्ट हुमा है कि महाकाव्य की ये सभी विशेषतायें उसमें पाई जाती हैं, विवरण इस प्रकार है। १. जयोदय की कथावस्तु २८ सों में निबद्ध है। १. (क) भामह, काव्यालकार ११६-२३ (ख) दण्डी, काव्यादर्श, १११४-१६ (1) विश्वनाथ, साहित्यदर्पण, ६।३१५ के उत्तरार्ध से ३२५ के पूर्वार्ध तक । २. रडी, काम्यावशं, ११२०-२२ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ এবামীর বির্য २. प्रारम्भ में मंगलाचरण के रूप में कवि ने जिनदेव की वन्दना की है। "श्रिया श्रितं सन्मतिमात्मयुक्त्याखिनज्ञमीशानमपीति मक्त्या । - तनोमि नत्वा जिनप सुभक्त्या जयोदयं स्वाम्भुदयाय शरत्या ।। - जयोदय, ११ ३. जयोदय का कथानक 'महापुराण' में कहे गये जयकुमार और सुलोचना वृत्तान्त पर साधारित है। ४. जयोदय महाकाश्य में धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष रूप पुरुषार्थ-चतुष्टय का भी यथास्थान वर्णन है।' काव्य के अन्त में जयकुमार द्वारा की गई तपस्या मोक्षरूप पुरुषार्थ को सिद्ध करती है ।२ . ५. जयोदय महाकाव्य के नायक जयकुमार हैं । भरत चक्रवर्ती के सेनापति का पद उन्हें प्राप्त है। वह क्षत्रियकुलोत्पन्न हैं। वह बीरादात्त और चतुर हैं। उसमें राजनीतिज्ञता, वारुता, बुद्धिमत्ता, विता, धमिकता, अपराजेयता मादि श्रेष्ठ गुण विद्यमान हैं। ३. जयोदय में विविध स्थलों का और वृत्तान्तों का मुन्दर वर्णन है। इस महाकाव्य में कवि ने काशी, हस्तिनापुर, और अयोध्या नामक नगरो का यथास्थान वर्णन किया है। कवि ने अपने इस महाकाव्य में पर्वत, वन, सूर्योदय, सूर्यास्त, चन्द्रोदय," चन्द्रास्त,१२ प्रभात,१३ सन्ध्या,४ अन्धकार'५ पोर रात्रि इन सभी का मनोहारी वर्णन किया है। १. (क) जयोदय, २४॥५८८५ (ब) वही, १०.१३ सर्ग (ग) बही, २६-२८ सर्ग २. वही, २८१-६८ ३. वही, ६।११४ ४. वही, ३१३० ५. वही, १९१६७८६ वही, २०१२-६ वही, २४॥२-५७ वही, २११४१-६४, १४।४-६ वही, १८।१-३२ १०. वही, १५॥१-६ ११. वही, १९, ७४-८२ १२. वही, १८६३ १३. वही, १८वां सर्ग १४. वही, १२५३-३७ १५. वही, १५॥३५-३७ ११. वही, १५॥३८-१.८ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य-एक अध्ययन बनकोड़ा,' मधुपान, सुरतक्रीड़ा, विवाह, दूताभियान,' संवाद' एवं तीर्थयात्रा इत्यादि भी कवि द्वारा काम्य में वर्णित किये गये हैं। जयकुमार 'जयोदय' के नायक है। कवि ने इस महाकाव्य में जयकुमार के द्वारा अनेक बार बाह्य और प्रान्तरिक विपत्तियों के ऊपर प्राप्त विजय का वर्णन किया है। अन्त में जयकुमार की अपने ऊपर विजय द्वारा कवि ने नायकाभ्यदय को और भी अधिक महत्त्व प्रदान किया है।' प्रायः सभी पार्मिक काध्यों में ऋषि-मुनियों का वर्णन अवश्य ही होता है। 'जयोदय' जैनधर्म पर माधारित महाकाव्य है। इसमें दो बार मुनियों का उल्लेख मिलता है । सर्वप्रथम जब जयकुमार वनक्रीड़ा के लिये जाते है, तब वहाँ एक तपस्वी पहुंचते हैं ऋषि-वर्णन से सम्बद्ध द्वितीय स्थल वह है जहां पर पुत्र का राजतिलक करने के बाद जयकमार ऋषभदेव के पास जाकर उनसे बीमा की याचना करते हैं।" उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि 'बयोक्य' विविधस्वतीय वर्णन मोर प्रसान्तों से सुशोभित है । कवि का यह विविध-वर्णन उसकी सूक्ष्म-दर्शन-शक्ति का परिचायक है। .. जयोदय' महाकाव्य में स्थान-स्थान पर श्रङ्गार, बीर, और शान्त रसों कापौर भक्तिभाव'५ का परिपाक देखने को मिलता है। श्रङ्गार रस, वीर रस और भक्ति भावं इस काव्य के मंगोरस-शान्तरस-को पुष्ट करने वाले हैं। १. योदय, १४१७.६९ २. बही, १७वा सर्ग ३. वही, १७वा. सर्ग ४. वही ५, ६, १०, ११, १२सर्ग १. वही, २२१-१५, १६-७३, ६।५८-९४ १. वही, ७वा सर्ग ७. वही, २४वा सर्ग ६. बही, (क) अहम सग । . (ब) २८वा सर्व । १. वही, २०७१ १०. वही, ११७७ ११. वही, २६०७३-७४ १२. वही, २२वा मोर २८वा सर्ग। १३. वही, १८५-११५, ८या सर्व । १४. वही, २५-२८ सर्ग। " वही, १९षा सर्व, २१ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यशास्त्रीय विधाएँ १२३ ८. जयोदय में पंचसन्धियों का भी निर्वाह किया गया है। जयोदय के प्रथम सर्ग में अतः वह इस काव्य की 'मुखसन्धि' माना काशीनरेश की पुत्री सुलोचना के स्वयंवर माना जा सकता है तृतीय सगं में पुन: काव्य का मुख्य उद्देश्य वैराग्य उत्पत्ति है । २ जयकुमार का परिचय दिया गया है, ' जा सकता है । काव्य ने तृतीय में का सन्देश लाता है, इस सगं को काव्य की प्रतिमुख सन्धि' क्योंकि प्रथम सर्ग में सुलोचना का भी उल्लेख प्राया है। जयकुमार मीर सुलोचना के विवाह की सूचना मिलती है। सुलोचना मोर जयकुमार के संयोग के पश्चात् जयकुमार में इस उद्देश्य का सूचक काव्य का २३व सर्ग है जिसमें जयकुमार की मूर्च्छा श्रीर पूर्वभव-मरण का वर्णन है । प्रतः यह सगं इस काव्य की 'गर्भसन्धि' के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। २४६ सगं काव्य' की 'विमर्शसन्धि' के रूप में विद्यमान है । इसमें एक देव की पत्नी विरहिणी के रूप में जयकुमार को विचलित करने प्राती है। तब श्रोता के मन में यह शंका होने लगती है कि कदाचित् जबकुमार अपना लक्ष्य प्राप्त न कर सकें। काव्य के २५ वें सर्ग में जयकुमार के वैराग्य का वर्णन है, अतः यह सगं काव्य की 'उपसंहृतिस ंधि' को सूचित करता है । " ६ 5 ८. 'जयोदय' में २८ सगँ हैं। कवि ने कुछ सर्गों में तो एक ही छन्द को पूरे सगं में प्रयुक्त करके अन्तिम श्लोकों में छन्द बदल दिया है, लेकिन धन्य सर्गों में कवि ने छन्दों के स्वतन्त्र प्रयोग किये हैं। उन्होंने विशेषरूप से उपजाति, धनुष्टप् वियोगिनी, ६ मात्रासमक, १० 'कालभारिणी," रथोद्धता, १३ द्रुतविलम्बित, " प्रादि छन्दों का प्रयोग किया है । १. जयोदय, १२ - ७६ २. बही, ३।२१-१५ ३. वही, १,७५,६९ ४. वही, २३।११-२७ वही, २४।१०४-१४७ वही, २५ सर्ग ७. वही, १२-३, ५-६, ६-१०, १२, १४, १५-१६, २३-२५ ८. वही, ७११-५४ ९. वहीं, १३-१-८१ १०. बही, १४।१-८२, ८७, १३-१४, १६ ११. बही, १२ ।१ - ८१, ८३-१०८, १२२-१३८ १२. बही, २१-१३, ११३, १२२-२२६१३६ १३१ १४०-१४१, १५४ ११. बही: २।१-८६ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य- एक अध्ययन १० प्रायः प्रत्येक सर्ग में अगले सर्ग में वर्णित घटना की सूचना है। जैसे सप्तम सर्ग में अर्ककीर्ति और जयकुमार के युद्ध की सूचना है, और पाठवें सर्ग में दोनों के युद्ध का वर्णन है । सर्गों का नाम भी उनमें घटना के माधार पर रखा गया हैयथा--प्रथम सर्ग में जयकुमार ने मुनि की वन्दना की है- इसलिये इस सर्ग का नाम 'मुनिवन्दनावर्णन सगं' है । चतुर्थ सगं में स्वयंवर के लिये प्रकीति भी काशा पहुंचता है, इसलिये इस सर्ग का नाम 'अर्ककीर्तिसमागमसर्ग' है। अष्टादश सर्ग में प्रभात-वर्णन होने के कारण सर्ग का नाम 'प्रभात-वर्णन-सर्ग' रखा गया है। . ११. 'जयोदय' काव्य को कवि ने विविध प्रलंकारों से सुसज्जित किया है। उनके प्रिय अलंकार हैं-अनुप्रास,' यमक,२ उपमा, उत्प्रेक्षा,४ प्रपतुति,५ रूपक विरोधाभास, और चित्रालंकार । १२. जयोदय महाकाव्य में दुष्ट-निन्दा और सत्प्रशंसा यद्यपि कवि ने सोधे-सीधे नहीं की है, किन्तु काव्य के खलनायक मर्ककीति का पराभव और जयकुमार के गुरणसहित परिचय'में हो दुष्टों को निन्दा मोर सज्जनों की प्रशंसा छिपी हुई है। १३. 'जयोदय' में जयकुमार के प्रशंसात्मक परिचय में कवि ने अनेक श्लोक लिखे हैं। उन्होंने नायक का भौतिक-प्रभ्युदय दिखाने के बाद आध्यात्मिक प्रभ्युदय भी दिखा दिया है। १४. कवि ने काव्य का नामकरण इस काव्य के नायक के नामानुसार 'जयोदय' रखा है। साथ ही इस कान्य का एक मोर नाम कवि को अभीष्ट है; वह है'सुलोचना-स्वयंवर'। कवि ने इस कान्य के ये दोनों ही नाम सार्थक रखे हैं। १. जयोदय, प्रायः सभी सर्ग २. वही, २४१५५, २५।६, १४, ४६, ८२-८४ ३. वही, ६५१, २०१५, १८१३७, ६३ ४. वही, ३१५२, १०।११, १५॥५३ ५. वही, ११५२, १३३१०२, २४॥३६ ६. वही, ८।६३, २५।३० ७. बही, २८५-६५ ८. वही, प्रत्येक सगं का उपान्त्य श्लोक एवं २८७१ १. वही, ८८४, ६५ १०. वही, १२२-७६, १०४-११७ ११. वही, १-२-७६, १०४-११७ १२. वही, ८८४ १३. वही, २८६६.६० Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यशास्त्रीय विधाएं १२५ 'जयोदय' का तात्पर्य है-जय का उदय प्रर्वात् विजय । यह पहले ही कहा जा चुका है कि जयकुमार को पूर्ण विजय और माध्यात्मिक उन्नति रूप जीवन का मुख्य लक्ष्य हो कवि का मन्य उद्देश्य है। इस उद्देश्य का निर्वहण भी कवि ने खूब कुशलता के साथ किया है। अतः इस काव्य का 'जयोदय' नाम पूर्णरूपेण ठीक है। इम काव्य को प्रमख घटना है-जयकुमार और सुलोचना का स्वयंवर । इसी घटना के कारण ही जपक मार और प्रकीति का युद्ध होता है, और हमें जयकुमार के पराक्रम का वास्तविक ज्ञान भी हो जाता है। अतः इस काठप का दूसरा नाम 'सलोचना-स्वयंवर' भी सही है, किन्तु 'जयोदय' जैसा छोटा मोर सार्थक नहीं । वैसे दोनों ही नाम मान्य हैं। उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि 'जयोदय' पूर्णरूपेण महाकाव्य की कोटि में ग्रा जाता है। काव्य-शास्त्रियों को मान्य महाकाव्य की प्राय: प्रत्येक विशेषता हमें 'जयोदय' में देखने को मिलती है। इस काव्य को पढ़कर श्रोता की बुद्धि और हृदय दोनों प्रसन्न हो सकते हैं। वीरोक्य काव्यशास्त्रियों को मान्य महाकाव्य की विशेषताओं की कसौटी में 'वीरोदय' को कसने से यह ज्ञात हो जाता है कि 'बोरोदय' भी एक महाकाव्य है। अब 'वीरोदय' का महाकाम्पत्व प्रापके सामने प्रस्तुत है :---- १. 'वीरोदय' की कथावस्तु २२ सगों में निबद्ध है। २. प्रत्येक कार्य के पूर्ण होने में कोई विघ्न-बाधा न पाये. इसलिये व्यक्ति अपनी बाधामों को दूर करने के लिये प्राय: प्रत्येक कार्य के प्रारम्भ में अपने अभीष्ट की प्रार्थना करता है । महाकवि श्री ज्ञानसागर ने भी सम्भवतः इसीलिये 'वीरोदय के प्रारम्भ में मंगलाचरण के रूप में श्रीभगवान् की स्तुति की है। मंगलाचरण का एक श्लोक प्रस्तुत है। 'चन्द्रप्रभं नौमि यदङ्गसारस्तं कौम दस्तोममरीचकार । सुखंजन: संलभते प्रणश्यत्तमस्तयाऽऽत्मीयपदं समस्य ॥" ---वीरोदय, ११ ३. भगवान् महावीर जैन धर्म के अन्तिम तीथंकर थे। भारतवर्ष में ऋषभदेव के समान ही महावीर जो की भी प्रसिद्धि है। इन्हीं वीर भगवान् के जीवन पर यह काव्य प्राधारित है। 'वीरोदय' के कथानक का स्रोत 'महापुराण' से लिया गया है। ४. इस काव्य में 'मोक्ष' रूप पुरुषार्थ की सिद्धि का स्पष्ट हो, संकेत है। कवि के कथनानुसार : Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२१ महाकवि मानसागर के काय-एक अध्ययन "पावानगरोपवने मक्तिश्रियमनुगतो महावीरः । तस्या वर्मानुसरन् गतोऽभवत् सर्वया धीरः॥" -वीरोदय, २०२१ कात्तिक मास की चतुर्दशी तिथि की रात्रि को वीरभगवान् ने मुक्ति लक्ष्मी का वरण किया। ५.. इस काव्य के नायक लोकविश्रुत भगवान महावीर है । महावीर में एक नायक के सभी गुण विद्यमान हैं । वह परमधार्मिक, अद्भुत सौन्दर्यशाली, सांसारिक राग से दूर, जन-धर्म के उद्धारक, दुःखियों का कल्याण करने वाले हैं। कानपुर के राजा सिद्धार्थ मोर रानी प्रियकारिणी को महावीर के पिता-माता होने का गौरव प्राप्त है।' । 'वीरोदय' में विविध-स्थलों पोर वृत्तान्तों का भी यथास्थान वर्णन मिलता है। इस काव्य में कवि ने कण्डनपुर के वैभवपूर्ण वर्णन से हमारे समन एक समृड नगर की झांकी प्रस्तुत कर दी है। समा का भी सुन्दर वर्णन यवास्थाम किया गया हैं। 'वीरोदय' में कवि ने हिमालय, विवा' और सुमेह' इन तीनों पर्वतों का प्रासंगिक उल्लेख किया है । 'पीरोग्य' का सर्वाधिक मनोहारी उसका पातु-वर्णन है । कवि ने वर्षा, बसन्त,गीत,' प्रीष्म, इन पाँच ऋतुमों का वर्णन इस काम्य में किया है । बोरोदय' में भगवान महावीर के जन्माभिषेक का बड़ा दिव्यवर्णन कवि ने प्रस्तुत किया है। सर्वप्रथम देवगणों ने पोर तत्पश्चात् राजा सिखाप ने भगवान् का बन्माभिषेक घूम-धाम से किया। १. वीरोक्य, ७३८ २. वही, २०२१-५० ३. बही, ७।२२-१३ ४. वही, २७ ५. वही, २८ ६. वही, २२, ३, ७॥१७-२२ ७. वही ४१२-२६ ८. वही, ६-१२-३से १. वही, ११.४५ १.. बही, १२।१-३१ ११. ही, २११-२० १२. बही, Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काम्यत्रीय विधाएँ 'बोरोदय' में तीन संवाद देखने को मिलते हैं-(क) रानी प्रियकारिणीराजा सिद्धार्थ का संवाद,' (ब) रानी प्रियकारिणी-देवी-संवाद, और (मे) राजा सिवा-वर्डमान-संवाद । 'वीरोदय' में एक स्थल पर देवगणों को यात्रा का वर्णन है। इसके अतिरिक्त कवि ने देवालय प्रौर समवसरण-मण्डपका भी वर्णन. अपने इस काव्य में किया है। काव्य में भगवान् के पूर्वजन्मों का वर्णन भी विस्तार से किया गया है। काम के उपसंहार में परिणत जैन-धर्म एवं दर्शन कवि को सच्चा जननामिक सिब करने में समर्थ है। . उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि धीरोदय' में विषिषस्थलीय-वर्णन और वृत्तान्त-पर्सन मिलते हैं। ये सब वर्सन कवि की सूझ-बूझ के परिचायक है। कवि मेयपाशविक प्रकृति-वर्णन पोर नगर-वर्णन भी अपने इस काव्य में किया है। .. 'होय' में हमें इंगाररस, अदभुत रसवात्सल्य-माव'' और भक्ति. मा की बटा पत्र-सन देखने को मिलती है। लेकिन अंगीरस का स्थान 'शान्त-रस को ही प्राप्त है।'३ शेष रस एवं भाव इस रस के अंग ही हैं। .. ८. बीरोदय' पंचसन्धियों की रष्टि से सरल काव्य है। काव्य के प्रथम सर्ग में बीरमनवान् के जन्म का उल्लेख है, यह काव्य की मुखसन्धि है । इसके पश्चात १.. बीरोग्य, ४१३४६१ २. वही, २२७-३४ १. वही २१२२-४६ . ४.. बही, ६-१२ . ५. वही, २२३३-३४ . ६. वही, १३॥१-२५. ७. वही, १५वा सर्ग ५. वही, १६वा सर्ग १८वा सर्ग, १९वा सर्ग पोर या सर्व १०. ही, ६।१० ११. वही, ८७,४६ १२. 'बही ४१६३ १३. वही, नवम सर्ग और दशम सर्ग १४. वही, पर Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य- एक प्रध्ययन छठे सर्ग में पुनः वीरभगवान् के जन्म का सविस्तार वर्णन है, ' यह काव्य की प्रतिमुख सन्धि है । इस काव्य में कवि का प्रमुख उद्देश्य वोरभगवान् की मुक्ति द्वारा शान्तरस की स्थापना करना है । कवि का यह उद्देश्य महावीर द्वारा किए गये विवाह के विरोध में छिपा है, यह इस काव्य की गर्भसन्धि है । काव्य के एकादश, द्वादश, त्रयोदश सर्गों में भगवान् अपने पूर्वभवों का विचार करते हैं, उग्र तपस्या करते हैं । इस प्रकार काम-क्रोध इत्यादि प्रान्तरिक शत्रुओं पर विजय प्राप्त करके कैवल्यज्ञान प्राप्त करते हैं; और गौतम को सदुपदेश देते हैं । काव्य के इन स्थलों कोविमर्श सन्धि कहा जा सकता है । १२ सर्ग में कवि ने भगवान् महावीर के मोक्ष लाभ का उल्लेख किया है; 3 कवि की उद्देश्यपूनि रूप यह स्थल काव्य की निर्वहण सन्धि है । ६. छन्दों के निर्वाह में भी इस काव्य में कवि ने कुशलता का परिचय दिया है । इस काव्य में यथाशक्ति छन्दों के नियमों का पालन हुआ है। यथा- प्रथम सगं में उपजाति छन्द का उपयोग है; और इस सगं का प्रन्तिम श्लोक मात्रासमक छन्दोबद्ध है । इसके अतिरिक्त कवि ने अनुष्टुप् इन्द्रवज्रा, उपेन्द्रवज्जा, शार्दूलविक्रीडित, वसन्ततिलका इत्यादि छन्दों का बहुतायत से प्रयोग किया है। १०. ' वीरोदय में प्रत्येक सर्ग के अन्त में अग्रिम सर्गों में आने वाली घटनाओं की प्रो संकेत है। उदाहरण के लिए प्रथम मर्ग का ही अन्तिम श्लोक प्रस्तुत है" इति दुरितान्धकारके समये नक्षत्रौषसङ्कुलेऽघमयं । प्रजनि जनाऽह्लादनाय तेन वीराह्वयं वसुधास्पदेन ॥ " वीरोदय, १३ इस श्लोक से इस बात का संकेत मिल जाता है कि अब काव्य में भगवान् महावीर के जन्म उनके वैराग्य, लोककल्याण के लिए प्रयत्नशीलता और मोक्ष इत्यादि का वर्णन होगा। कवि ने सर्गों का नाम भी उनमें वरिणत कथाओं के अनुसार किया है । यथा प्रथम सर्ग का नाम कवि ने 'प्राक्कथन' रखा है । दूसरे सगं में जम्बू द्वीप, भरत क्षेत्र, भारतवर्ष, कुण्डनपुर इत्यादि का वर्णन है; इसलिए इस सगं का नाम कवि ने द्वोपप्रान्तपुराभिवर्णनकरः' रखा है। इसी प्रकार तृतीय सगं का नाम उसके वर्ण विषय के अनुसार 'श्रीसिद्धार्थतदङ्गनाविवरणः ' है । ११. 'वो रोदय' में कवि ने प्रनेक उत्तम अलंकारों का प्रयोग किया है । 'जयोदय' १. वीरोदय ६।३५-३६ २ . वही, ८।२३-४५ ३. बही, २१।२२ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यशास्त्रीय विधाएं १२९ की तरह 'वोरोदय' अन्त्यानुप्रास से अलंकृत है। यमक', उपमा, अपह्नुति', उत्प्रेक्षा ४, भ्रान्तिमान्', परिसंख्या', प्रादि अलंकारों की छठा काव्य में विशेष दर्शनीय है। १२. काव्य के प्रारम्भ में ही कवि ने सज्जनों की प्रशंसा विस्तार से की है और दुर्जनों की प्रालंकारिक पालोचना भी कर दी है। १३. इस काव्य के नायक भगवान महावीर की कवि ने स्थान-स्थान पर प्रशंसा की है।' काव्य के परिशीलन से यह ज्ञात हो जाता है कि वीरभगवान् युद्धवीर तो नहीं, पर धर्मवीर प्रवश्य हैं । १० उन्हें वाह्य शत्रुओं से युद्ध की कोई प्रावश्यकता नहीं हुई, हां भीतर के शत्रनों पर विजय प्राप्त करके वोरभगवान् ने मोक्ष प्राप्त कर लिया।'' इस प्रकार 'वीरोदय' में नायक का ही प्रभ्युदय दिखाया है। १४. नायकप्रधान इस काव्य का नाम काव्य के नायक के नाम पर ही प्राधारित है। नायक का नाम है-महावीर; और महावीर के अभ्युदय से शान्त-रस की स्थापना ही कवि का लक्ष्य है; इस लक्ष्य का निर्वहण कवि ने बड़ी सूझ-बूझ के साथ किया हैं। प्रतः काव्य के नायक और काव्य के लक्ष्य के प्राधार पर कवि ने इस काम्य का नाम जो 'वीरोदय'–वीर का उदय--प्रभ्युन्नति-रखा, वह सर्वचा उचित है। 'बीरोदय' की उपर्युक्त काव्यशास्त्रीय मालोचना से स्पष्ट हो जाता है कि वह शान्त-रस-प्रधान महाकाव्य की कोटि में प्राने के लिए पूर्ण समर्थ काव्य है। महाकाव्य के लिये बताये गये प्रेमोत्सव, विवाह, मधुपान, जलक्रीड़ा इत्यादि का भले ही इसमें वर्णन न हो-(पूर्णतया शान्त रस-प्रधान होने के कारण)-तथापि भगवान के जन्माभिषेक, तपश्चरण, कैवल्यज्ञान लाभ, जनता को सम्बोधन इत्यादि १. बीरोदय, ३।२५, १७।११ २. वही, १३, २२०, ३।१६, ६।३६ ३. वही, २१४६, ४७, ६।३०, २१, ३० ४. वही, १।१५, ३१३६, ४३ ५. वही, ७१. ६. वही, २०४८-४९ ७. वही, १।१०-१५ ८. वही, १।२६-२१ ६. बही, ६६, ८।१२-२१, २०१५ १०. वही, १०।२८-३६ ११. वही, दशमसर्ग, ११॥३७.४४, १२॥३२.४५, २११२२ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० महाकवि ज्ञानसागर के काव्य - एक प्रध्ययन का खूब विस्तार से वर्णन है। इसके प्रतिरिक्त काव्य-शास्त्रियों द्वारा स्वीकृत महाकाव्य की सगसम्बन्धी, भावपक्षसम्बन्धी, कलापक्षसम्बन्धी, चरित्रसम्बन्धी सभी विशेषतायें इसमें दृष्टिगोचर होती हैं। साथ ही सहृदय को प्रभावित करने में भी यह काव्य पूर्ण समर्थ है । अतः हम निर्विवाद रूप से इसको महाकाव्य कह सकते हैं । सुदर्शनोदय - 'सुदर्शनोदय' के परिशीलन से भी यह स्पष्ट हो जाता है कि यह एक महाकाव्य है, तथापि विद्वानों और सहृदय सामाजिकों की दृष्टि के लिए; महाकाव्य के लक्षणों के माधार पर किया गया सुदर्शनोदय का परीक्षण प्रापके समक्ष प्रस्तुत है १. 'सुदर्शनोदय' को कथावस्तु नो सगों में निबद्ध है । २. इस काव्य के प्रारम्भ में मंगलाचरण के रूप में कवि ने बीरभगवान् की स्तुति की है - "वीरप्रभुः स्वीयसुबद्धिमाबा भवाब्धितीरं गमितप्रजाबान् । सुधीवराराध्यगुणान्वया वाग्यस्यास्ति नः शास्ति कवित्वगावा ॥" - सुदर्शनोदय, १1१ ३. 'सुदर्शनोदय' की कथा का प्राचार हरिषेण कृत 'बृहत्कथाकोश' का 'सुभगगोपाल' नामक कथानक है । ४. इस काव्य में भी कवि ने मोक्ष रूप पुरुषार्थ की सिद्धि उपस्थित की है। काव्य के अन्त में उन्होंने कहा है : —- "नदीपो गुणरत्नानां जगतामेकदीपकः । स्तुतां जनतयाऽधीतः स निरंजनतामधात् ॥” - सुदर्शनोदय ६।८७ ૨ 3 ૪ ५. इस काव्य का नायक सेठ सुदर्शन है। सुदर्शन में घीरप्रशांत नायक के सभी गुण हैं । वह चतुर, ' परमधार्मिक, वैश्यकुलोत्पन्न, ३ मनोहर प्राकृति, सुकुमारहृदय और दृढ़ व्यक्तित्व वाला है। चम्पापुरी के सेठ वृषभदत्त और जिनमति सुदर्शन के माता-पिता हैं। १. सुदर्शनोदय, ५।११-२० २. वही, ५ प्रारम्भ के गीत ३. वही, ३।१ ४. वही, ३।१५ ५. वही, ८।१४-१६ ६. वही, ५।१६ - २० ७२१-३०, ६२८ ७. वही, ३।१-१६ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यशास्त्रीय विधाएं १३१ ६. अन्य महाकाव्यों की भांति 'सदर्शनोदय' में भी विविध-स्थलों और वृत्तान्तों का स्थान-स्थान पर उल्लेख मिलता है। अंगदेश,' चम्पापुरी और अंगदेश के ग्रामों का कवि ने प्रसंगानुकूल वर्णन किया है। वसन्तवर्णन प्रभातवर्णन५, रात्रिवर्णन', उद्यानविहारवर्णन , नायक-नायिका प्रेमवर्णन, विवाहवर्णन और सुदर्शनकुमार की उत्पत्ति का वर्णन' कवि के प्रकृति-प्रेम एवं वर्णन-कौशल के परिचायक हैं। 'सुदर्शनोदय' में हमें कुछ संवाद भी दृष्टिगोचर होते हैं । यथा-(क) वृषभदास-बितरति-संबाद १, (ख) वृषभदाम-मुनिराज-संवाद,' २ (ग) वृषभदास-सागरदत्तसंवाद,१३ (घ) वषभदास-मुनिराज-संवाद ४ प्रादि । 'सदर्शनोदय' में मुनियों ५ एवं जिनदेव की मूर्ति'६ का भी वर्णन मिलता है । कई स्थलों पर कवि ने जैनधर्म के कुछ सारभूत-तत्त्वों का वर्णन अपने काव्यों में किया है। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि 'सुदर्शनोदय' में कवि ने विविधस्थलीय-वर्णन, प्राकृतिक-पदार्थ-वर्णन, विविध-वृत्तान्त-वर्णन और स्त्री-पुरुषों के मनोवैज्ञानिक चित्रण द्वारा प्रपनी सूक्ष्म-दर्शन-शक्ति का अद्भुत परिचय दिया है। ७. सुदर्शनोदय' में जिन रसों एवं भावों का वर्णन किया गया है, वे इस प्रकार १. सुदर्शनोवय, १।१५-२४ २. वही, १०२५-३७ ३. वही, १।२०-२२ ४. वही, ६ प्रारम्भ के २ गीत, १-४ ५. वही, ५ प्रथम गीत । ६. वही, ७ श्लोक के बाद का दूसरा गीत । ७. वही, ६।२-४ ८. वही, ३१३५ १. वही, ३४८ १०. बही, २।२६-५०, ३१.१० ११. बही, २०१३-२३ १२. वही, २।२६-४० १३. वही, ३४५-४७ १४. वही, ४।५-१२ १५. वही, ४११, १६-३८ १६. वही, ५ पृ. ८२ का गीत । Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य- एक अध्ययन (क) शङ्गार रस', (ख) वात्सल्य रस, २ (ग) अदभुत रस, (घ) भक्तिभाव,४ (ङ) शृङ्गाराभास और शान्तरस । काव्य के परिशीलन से ज्ञात हो जाता है कि शान्तरस अंगी रस है । शेष रस एवं भाव इसके अंग हैं । ८. 'सुदर्शनोदय' में यथाशक्ति पांच सन्धियों' का निर्वाह हुआ है । काव्य के द्वितीय मर्ग में ऋषि ने वषभदत्त ग्रौर जिनमति के सम्मुख उनके पुत्र होने की घोषणा की है; यह काव्य की 'मुख मन्धि' है। तृतीय सर्ग में सदर्शन को उत्पत्ति का वात्सल्य रस' से परिपूर्ण वर्णन है; यह काव्य की 'प्रतिमुख-सन्धि' है। काव्य को चरमपरिणति सुदर्शन की मोक्ष-प्राप्ति में है; और काव्य का मुख्य रस है --शान्त रस । काव्य का यह उद्देश्य पिता की विरक्ति के पश्चात् स दर्शन के मुनि के प्रति कहे हुए विरक्तिपूर्ण वचनों में छिपा हमा है। अत: यह स्थल काव्य की 'गर्भ-सन्धि' है। काव्य में कपिला-ब्राह्मणी, प्रभयमती रानी और देवदत्ता वेश्या के प्रपंचों में जबजब सुदर्शन पड़ता है, तब-तब पाठक को यही लगता है कि सम्भवत: सुदर्शन अपने उद्देश्य को प्राप्त न करे । काव्य के ये सभी स्थल विमर्श-सन्धि के रूप में स्वीकार किये जा सकते हैं। अन्त में सदर्शन ने सभी विपत्तियों पर विजय प्राप्त की। उन्हें कैवल्यज्ञान भी प्राप्त हमा, तत्पश्चात् उन्होंने मोक्ष भी प्राप्त कर लिया .१' यह काव्य की निर्वहण-सन्धि' है, जिसके द्वारा कवि ने अपने उद्देश्य का निर्वाह किया है। ६. 'सुदर्शनोदय' में कवि छन्दों के प्रति स्वतन्त्र हो गये हैं। केवल पंचम सर्ग में ही मनुष्टुप् और अन्तिम नोक में द्रुतविलम्बित छन्द का प्रयोग किया गया है। इस सर्ग में भी बीच-बीच में गीत मा गए हैं । उपजाति, इन्द्रवज्रा, रथोद्धता, वंशस्थ, वमन्ततिलका, शार्दूलविक्रीडित छन्दों का क्रम-रहित प्रयोग इस काव्य में यत्र-तत्र मिल जाता है । उपजाति छन्द का काव्य में सर्वाधिक प्रयोग किया गया है। १०. 'सुदर्शनोदय' में 8 सर्ग हैं। प्रत्येक सर्ग का अन्त मागे के सगं की सूचना देता है, यथा१. सुदर्शनोदय, ३१३५ - - २. वही, ३६ ३. वही, ८१ ४. वही, ४१४६ ५. वही, ६।१७ ६. वही, ८।२५, ३२, ९८४ ७. वही, २०२६-४० ८. वही, ३।१-१५ ६. वही, ४।१५ १०. वही, ५।१-२०, ७।१०-३६, ६-१२-२६ ११. वही, ६।४८-८६ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यशास्त्रीय विधाएँ "सार्धं सहस्रद्वयात्तु हायनानामिहाद्यतः । बभूवायं महाराजो महावीरः प्रभोः क्षरणे ॥” —सुदर्शनोदय, १।४५ काव्य का यह श्लोक धात्रीवाहन की राजधानी चम्पापुरी से ही आगे की कथा संबद्ध है, ऐसी सूचना देता है । कवि ने प्रत्येक सर्ग का नामकरण उस सगं में वरिंगत कथा के आधार पर किया है । यथा - काव्य में प्रथम सर्ग में अंगदेश के १३३ वाहन का वर्णन है; इसीलिए सगं का नाम कवि ने 'देशादेनं पतेश्च वर्णनपरः प्राद्यः सर्गः' रखा है । इसी प्रकार द्वितीय सर्ग में सुदर्शन की माता उसके जन्म से पूर्व कुछ सुन्दर स्वप्न देखती है, जिनका परिणाम सुदर्शन के माता-पिता एक ऋषि से ज्ञात करते हैं; अतः सगं का नाम कवि ने 'श्रीयुक्तस्य सुदर्शनस्य जननी स्वप्नादिवाक्सम्मतः द्वितीयः सर्गः रखा है । ११. 'सुदर्शनोदय' में कवि ने अनेक उत्तम उपमालंकारों का प्रयोग करके अपने प्रबल कला-कौशल का परिचय दिया है । 'जयोदय' एवं 'वीरोदय' की भाँति हो 'सुदर्शनोदय' में भी हमें प्रायः मन्त्यानुप्रास की शोभा दृष्टिगोचर होती है। इसके प्रतिरिक्त यमक, ' इलेष, २ उपमा, उत्प्रेक्षा, श्रादि अलंकार प्रमुख रूप से प्रयुक्त किये गए हैं । १२. काव्य के प्रारम्भ में ही कवि ने सज्जनों की प्रशंसा मुक्तकण्ठ से की है; कवि के अनुसार सज्जनों की परम्परा विपत्तियों का विनाश करने वाली होती है । " सुदर्शन का वध करने हेतु वर्षिक को प्राज्ञा देने वाले राजा धात्रीबाहन की, एक नागरिक से कवि ने जो निन्दा करवाई है उससे दुष्टों की हो निन्दा अभिव्यक्त होती है । ६ १३. महाकाव्य में स्थान-स्थान पर कवि ने सेठ सुदर्शन के गुणों का उल्लेख किया है। सुदर्शन जैन धर्म पर प्रास्था रखने वाला, ऋषि-मुनियों की भक्ति करने बाला, प्रपनी पत्नी मनोरमा से पूर्ण संतुष्ट, डढ़व्यक्तित्व वाला और मोक्षरूप १. सुदर्शनोदय, ३।१६, ६ सारंगनामराग । ८ ० २. वही, ५ प्रभातकालीन राग । ३. वही, २०४३ ४. वही, ३।७ ५. बही, १८.६ ६. वही, ८।३ ७. वही, ३।३४, पंचम सर्ग के गीत, ७।११ ८. वही, ४।१५, ४६, ६।२६-३२ ६. वही, ६।२२ १०. बही, ७/२६, ६/२६,८३ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ महाकवि शानसागर के कान्य-एक अध्ययन पुरुषार्थ की पोर अग्रसर है।' कवि ने सुदर्शन के जन्म से लेकर निर्वाण तक के सभी वृत्तान्तों का उल्लेख काव्य में कर दिया है। 'स दर्शनोदय' के परिशीलन से ज्ञात होता है कि सुदर्शन का शत्रु और कोई नहीं, उसका रूप और गुण ही उसके शत्रु हैं, इन्हों के कारण रानी अभयमती, कपिला ब्राह्मणी और देवदत्ता वेश्या उस के मोक्षमार्ग में बाधक बनती हैं। किन्तु सुदर्शन अपने रूप के प्रति निस्पह है; अतः वह इन कुटिन स्त्रियों की कुचेष्टानों के प्रति भी निःस्पह ही बना रहता है; और विजय भी प्राप्त करता है। तीनों ही स्त्रियों को उसके पर्वत तुल्य व्यक्तित्व के समक्ष मुकना पड़ता है; और सुदर्शन मोक्षरूप अभ्युदय को प्राप्त कर लेता है। १४. उदर्शनोहर' सेठ सुदर्शन की कथा पर प्राधारित काव्य है । काव्य के नाम से स्पष्ट है कि कवि ने काव्य का नाम नायक के नाम पर रखा है। सुदर्शन इस काव्य का दायक है; और सुदर्शन द्वारा मोक्ष रूप पुरुषार्थ की सिद्धि से शान्त रस की संस्थापना ही कवि का मुख्य लक्ष्य है । काव्य के नायक और मुख्य रस के स्थापन के उद्देश्य से ही कवि ने काव्य का नाम 'सूदर्शनोदय' रखा है। इस प्रकार 'सदर्शनोदय' के परिशीलन से और उपयुक्त विवेचन से स्पष्ट है कि 'सुदर्शनोदय' शङ्गार रस से परिपुष्ट शान्त रस प्रधान महाकाव्य है। उसका कलेवर 'जयोदय' और 'वीरोदय' के समान विशालकाय नहीं है, तथापि महाकाव्य के सभी गुण उसमें परिलक्षित हैं । अपने अन्य काव्यों की भाँति कवि ने इस काव्य में भी नायकाभ्युदय को बड़े कौशल से दर्शाया है। उनके शब्दालंकारों और मनमाने ढंग से प्रयुक्त छन्दों ने कहीं भी कथानक के प्रवाह को अवरुद्ध नहीं किया है। इस काव्य में महाकाव्य की सभी विशेषताएं सहज ही में प्राप्त हैं; इसलिए हम निर्विवाद रूप से इसको महाकाव्य की कोटि में पहुँचा हुअा काव्य मान सकते हैं। इस काव्य को एक और विशेषता है जिसके कारण यह काव्य सहृदयग्राहा बन जाता है;-वह है इसमें स्थल-स्थल पर पात्रों के मनोभावों को प्रकट करने वाले सुन्दर रागों में बद्ध गीतों की विधमानता। भीसमुद्रवत्तचरित्र अब श्रीज्ञानसागर की चतुर्थ कृति 'श्रीसमुदत्तचरित्र' के परीक्षण का क्रम है । महाकाव्य की विशेषतामों द्वारा इस काव्य के परीक्षण से यह सिद्ध हो जाता है कि 'श्रीसमुद्रदत्तचरित्र' भी एक महाकाव्य है। विद्वानों के संतोष हेतु हम काम्प की महाकाव्य-सम्बन्धी विशेषतामों का प्रस्तुतीकरण कर रहे हैं :-- १. इस काव्य की कथावस्तु नो सों में निबद्ध है। २ इस काव्य के प्रारम्भ में मङ्गलाचरण के रूप में भगवान् ऋषभदेव, भगवान् वर्षमान एवं अन्य तीर्थङ्करों की वन्दना की गई है। १. सुदर्शनोक्य, ८।१४-२७ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यशास्त्रीय विधाएं "नमाम्यहं तं पुरुष पुराणमभूद युगादी स्वयमेकक्षाणः । थियोऽसि पुत्या दुरितच्छिदर्यमुत्तेजनायातितरां समर्थः । श्रीवदमानं भुवनत्रये तु विपत्पयोघेस्तरणाय सेतुम् । नमामि तं निजितमीनकेतुं न मामितो हन्तु यतोऽघहेतुम् ॥' प्रणोमि शेषानपि तीर्थनाथान् समस्ति येषां गुणपूर्णगाषा। भवान्धगर्ते पतते जनायाऽनुकीर्तितालम्बनसम्प्रदाया ॥" --श्रीसमुद्रदत्तचरित्र, १११, ३. गुणभद्राचार्य रचित 'महापुराण' इस कान्य के कथानक का स्रोत है। सारी हरिषेणाचार्यरचित 'बृहत्कथाकोश' भी। ४. कवि के अन्य काव्यों के समान ही यह काव्य भी मोक्षरूप पुरुषार्थ की सिद्धि करने वाला है।' ५. सत्यवादी भद्रमित्र इस काव्य का नायक है जो एक श्रेष्ठ वैश्य का पुत्र है। बाद में वह राजा सिंहचन्द्र, वेयक के महमिन्द्र ४. भोर चक्रायुष के रूप में भी जन्म ग्रहण करता है । सत्याचरण, जैनधर्म के प्रति निष्ठा, स्वावलम्बन प्रादि उसके प्रधान गुण हैं। ६. महाकवि ज्ञानसागर ने इस काव्य को विविध.वस्तुओं एवं वृत्तान्तों के वर्णन से इस प्रकार प्राच्छादित कर दिया है कि कभी-कभी पाठक भ्रान्त होकर मूल-कथानक से दूर भी चला जाता है । लीजिए प्रस्तुत है कवि के विविध वर्णन का परिचय । कवि ने इस काव्य में स्वर्ग, नरक,१० प्रलकापुरी'', चक्रपुर,२ विजयार्ष-पर्वत, राजा ऐरावण भोर राजकुमारी प्रियङ्गुश्री का विवाह,१४ चक्रायुष का जन्म १. श्रीसमुद्रदत्तचरित्र, ७।३०-३३ २. वही, १-२६.३० ३. वही, ४१६ ४. वही, ५१६ ५. बही, ६।१५ ६. वही, ४।२-३ ७. वही, ७।३० ८. वही, ११३१-३६, २१-४ ६. वही, ४॥३६, ५॥१४, १५, ३३ १०. वही, ४।३७, ५॥३४ ११. वही, २०१० १२. वही, ६.१-८ १३. वही, २०१६ १४. वही, २१-६ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के काम्य-एक अध्ययन महाकच्छ की स्तम्बकगुच्छनगर की यात्रा, भद्रमित्र की रत्नद्वीप यात्रा,२ नायकाभ्युदयः इत्यादि का वर्णन यथास्थान किया है। जैन-धर्म का काव्य होने के कारण इसमें मुनि-वर्णन भी इष्टिगोचर होता है। पात्रों के पूर्वजन्मों पोर पुनर्जन्मों और पुनर्जन्म के वृत्तान्त भी इसमें यथास्थान हैं ।५ काव्य के प्रष्टमसगं में जैन-धर्म का विस्तृत उपदेश प्रस्तुत किया गया है, और नवम सर्ग में चक्रायुध के उग्र तपश्चरण का वर्णन है। ७. 'श्रीसमुद्रदत्तचरित्र' में शान्त, रोद्र, वत्सल रसों एवं भक्तिभाव का वर्णन मिलता है। इस काव्य में प्रङ्गी रस का पद शान्तरस ने ही प्राप्त किया है। ८. इस काव्य में कवि ने पंचसन्धियों का भी निर्वाह करने का प्रयास किया है। प्रथम सर्ग में भद्रमित्र का उल्लेख कान्य की 'मुख-सन्धि' है। तृतीय सर्ग में ममित्र को चारित्रिक विशेषतामों का ज्ञान होता है,'' यह काम्य को 'प्रतिमुखसम्धि है। सत्यघोष नामक राजा के मंत्री से अपना धन पाकर भद्रमित्र एक मुनिराज के दर्शन मोर उपदेश से प्रभावित होता है; १२ यह काम्य की 'गर्भसन्धि' है . १. भोसमददत्तचरित्र, २०१८:१६ २. वही, ३॥१५-१७ १. वही, ६।२६-३० ४. (क) वही, ४१६ (ब) वही, ५१२७ ५. (क) वही, १६३० (ख) वही, ४६ (ग) वही, ५११६ (घ) वही, ६।१४ (छ) बही, ४१२६ (च) बहो, ४॥३२ (घ) वही, ४१३३ वही, ७।१-२४, ९१-२९ ७. वही, २३३२ ८. वही, ३१० १. वही, २६ १०. वही, १-२६-३१ ११. वही, ३३१.४, ७-६, १४, १५, २७, ३१, ११ १२. की, * Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यशास्त्रीय विधाएँ १३७ सत्य की विजय भद्रमित्र को खा क्योंकि इसमें काव्य का मुख्य उद्देश्य 'आगे नायक का वैराग्य एवं छिपा हुआ है । भद्रमित्र की माता द्वारा व्याघ्री के रूप में जाना, ' पुनः सिंहचन्द्र के रूप में जन्म, २ नवग्रेवेयक के प्रहमिन्द्र के रूप में जन्म उ ये सब 'विमर्श-सन्धि' से सम्बन्धित स्थल हैं। पुनः पुनः जन्म-मरण के चक्र से ऐसा लगता है कि सम्भवत: नायक मोक्ष न प्राप्त कर सके । अन्त में चक्रायुध (भद्रमित्र ) सांसारिक पदार्थों का परित्याग करके कैवल्यज्ञान प्राप्त कर लेता है । प्रतः मोक्ष एवं सत्य की विजय होती है, यही काव्य की 'निर्वहण सन्धि' है । ९. 'श्रीसमुद्रदत्तचरित्र' के परिशीलन से यह स्पष्ट हो जाता है कि कवि ने महाकाव्य-विषयक छन्दों के नियमों को अपनाने का पूर्ण प्रयास किया है। काव्य के प्रथम, द्वितीय, चतुर्थ, पंचम, सप्तम और नवम सर्गो में क्रमशः उपजाति, वियोगिनी, वंशस्थ, स्वागता, द्रुतविलम्बित और मनुष्टुप् छन्दों का प्रयोग किया गया है। तृतीय सर्ग में उपजाति, इन्द्रवज्रा और वसन्ततिलका छन्दों का मिश्रित प्रयोग है । प्रत्येक सगं के धन्त में छन्द बदला गया है । १०. 'श्रीसमुद्रदत्तचरित्र' में भी मन्त्यानुप्रास की छटा सर्वत्र विद्यमान है । इसके प्रतिरिक्त कवि ने इस काव्य को यमक उपमा, प्रर्थान्तरन्यास, ७ परिसंख्या 5, विरोधाभास, प्रादि प्रलंकारों से सुसज्जित किया है । & ११. प्रस्तुत काव्य के प्रथम सर्ग में कवि ने सज्जनों की प्रशंसा ' १० निन्दा की है ।" सिंहपुर के राजा सिंहसेन के ब्राह्मण मंत्री भद्रमित्र के रत्नों को हड़पना चाहता है, भद्रमित्र को उसके रत्न प्राप्त हो जाते हैं १२. श्रीसमुद्रदलचरित्र' का नायक भद्रमित्र है । इस काव्य में शत्रुरूप में कवि ने सत्यघोष को प्रस्तुत किया है । सत्य घोष किन्तु सत्य की विजय होती है; प्रोर सत्यघोष की वास्तविकता सबको ज्ञात । १. २. बही, ४६ ३. वही, ४. वही, ९।३०-३१ श्रीसमुद्रदत्तचरित्र, ४६ ५।१६ एवं दुर्जनों की ५. वही, १।१५ ६. वही, ३।१७ ७. वही, ४।२ ८. वही, ६०६ ६. वही ६।५-७ १०. वही, १/१५, १७ - १८, २१-२४ ११ वही, १।१६-१७, १६-२४ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य-एकलव्यवन हो जाती है, अत: उसे अपदस्थ कर दिया जाता है । भद्रमित्र सत्य के बल पर अपने अन्य तीन जन्मों में भी सुखपूर्वक समय व्यतीत करता है । तत्पश्चात् अपने ऊपर भी विजय प्राप्त करके, कैवल्यज्ञानलाभ करता है । भद्रमित्र की इसी विजय द्वारा कवि ने नायकाभ्युदय दिखाया है। १३. प्रस्तुत काव्य के कवि ने दो नाम रखे हैं :-१. भद्रोदय और २. श्रीसमद्रदत्तचरित्र । ये दोनों ही नाम काव्य के नायक के नाम पर आधारित हैं। भद्रोदय का तात्पर्य है भद्र (मित्र) की उन्नति । काव्य में भवामित्र के भौतिक एवं माध्यात्मिक . दोनों ही प्रकार से प्रभ्युदय प्राप्त करने का वर्णन है। इसलिये इस काव्य का भद्रोदय नाम सार्थक है । भद्रमित्र का दूसरा नाम समुद्रदत्त भी है। काव्य में उसके चार जन्मों का वर्णन मिलता है। चारों ही जन्मों में उसकी चारित्रिक विशेषतामों पर कवि ने प्रकाश डाला है, इसलिए इस काव्य का 'श्रीसमुद्रदत्तचरित्र' नाम भी सार्थक है। . 'श्रीसमुद्रदत्तचरित्र' सम्बन्धी उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि इस कान्य में कवि ने सर्गों का नामकरण नहीं किया है। प्राकृतिक वर्णन के नाम पर इसमें केवल कवि ने विजयाध-पर्वत का ही वर्णन किया है। स्थान-स्थान पर राजामों द्वारा जन-मुनियों से दीक्षा-प्राप्ति का वर्णन है और काव्यों के पात्रों के कई जन्मों का वर्णन कवि ने किया है। फलस्वरूप काव्य में प्रवाहहीनता और नीरसता मा गयी है । इतना होने पर भो 'श्रीसमुद्रदत्तचरित्र' को महाकाव्य मानने में हमें प्रापत्ति नहीं होनी चाहिए । क्योंकि महाकाव्य के काव्य-शास्त्रियों द्वारा बताये गए एक-दो लक्षणों को छोड़कर शेष सभी लक्षण इसमें घटित होते हैं। रयोदय-चम्पू कवि की पांचवी कृति 'दयोदय' है। कवि ने इस पुस्तक के नाम के मार्ग 'चम्पू' शब्द जोड़ दिया है। प्रतः कषि के कथन को स्वीकार करते हुए हमें भी इसे 'चम्पू' मान लेना चाहिए । स्पष्टीकरण के लिए -काव्यशास्त्रियों द्वारा बताई गई 'चम्पू-काव्य' की विशेषताएं कहां तक इस काव्य में सष्टिगोचर होती हैं-इसकी जानकारी के लिए बम्पूकाव्य की विशेषताएं और उसके प्राधार पर 'बयोदय' की पालोचना प्रस्तुत है : अनेक काव्यशास्त्रियों पोर चम्पूकाव्य का प्रणयन करने वाले कवियों ने अपने-अपने तरीके से 'चम्पूकाव्य' के लक्षण बताए हैं। उनके बताए गए लक्षणों की ही सारभूत विशेषताएं इस प्रकार हैं :१. गद्य-पद्य-मिश्रित चम्पू-काव्य वह काव्य होता है, जिसमें गद्य-पद्य दोनों का व्यवहार मेता है। पम्पू का यह लक्षण भ्रामक प्रतीत होता है । क्योंकि गद्य-पच का मिश्रण नाटक कपासाहित्य में भी मिलता है । साथ ही चम्मू-कान के मतिरिक्त. पच-पच मिति काव्य के दो पोर भी भेव हैं: Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कामशास्त्रीय विधाएँ (क) विरुद काव्य – जब किसी राजा की गद्य-पद्य के माध्यम से स्तुति की जाय तो उस काव्य की संज्ञा विरुद होती है । चम्पूकाव्य में राजस्तुतिरूप राजभक्तिभाव का ही बर्णन नहीं होता । उसमें महाकाव्य, कथाकाव्यों के समान ही सरसता, सगुणता प्रादि विशेषताएं पाई जाती हैं । (ख) करम्भक - जो काव्य अनेक भाषाओं में लिखा जाता है, उसे करम्भक कहते हैं । चम्पूकाव्य केवल एक भाषा के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता है, इसलिए चम्पूकाव्य करम्भक से भी पृथक् काव्य-भेद है; प्रोर करम्भक एवं बिरुद की अपेक्षा महत्वपूर्ण भी । साहित्य में संवाद मोर गद्य भाग की पुष्टि के लिये ही पद्य का प्रयोग होता हैं, जबकि चम्पू में कवि गद्य एवं पद्य दोनों के प्रति निष्पक्ष होता है । वह कहीं भी गद्य या पद्य को प्रयुक्त कर सकता है । प्रायः चम्पूकाव्यों में गद्य और पद्य की मात्रा समान होती है । संक्षेप में हम कह सकते हैं कि नाटक, कथा-साहित्य, विरुदकाव्य प्रोर करम्भकाव्यों में गद्य-पद्य का मिश्रण प्रवश्य पाया जाता है, किन्तु नाटक में संबाद की पुष्टि के लिये, कथा-साहित्य में किसी पात्र का गुरण-विशेष दिखाने के लिए, विरुद में राजस्तुति के लिए, करम्भक में विविध भाषात्रों के माध्यम से पद्यों का प्रयोग गद्य के साथ होता है, इस प्रकार इनमें संवाद, पात्र, राजस्तुति प्रोर विविधभावाज्ञान प्रदर्शन का ही प्राधान्य होता है, शेष बातें गौण होती हैं । प्रत: गद्यपद्यात्मक काव्य को चम्पू कहा जाता है, इस कथन में प्रतिव्याप्ति की संभावना नहीं करनी चाहिये । २. धव्य-काव्य---- श्रव्य-काव्य के तीन भेद होते हैं-गद्य, पद्य और चम्पू - यह काव्यविधाधों के विभाग रेखाचित्र से स्पष्ट हैं । भतः चम्पूकाव्य गद्यपद्यात्मक होकर भी नाटक के समान काव्य की श्रेणी में नहीं माता । वह गद्यकाव्य या पद्यकाव्य की ही तरह भव्य होता है । ३. प्रबन्धात्मकता प्रबन्ध-काव्य वह काव्य है जिसमें पूरे काव्य में हमें एक कथा का ही विकास मिलता है; प्रत: चम्पूकाव्य में भी एक कथा के क्रमिक विकास का होना काव्यशास्त्रियों द्वारा स्वीकृत है । ४. वर्णन - प्रधान - अन्य काव्यों के समान ही चम्पू-काव्य में भी प्राकृतिक पदार्थ, वैकृतिक पदार्थ मौर विविध वृत्तान्तों का वर्णन होना चाहिए । ५. अलंकारसुसज्जित - चम्पूकाम्य में शब्दालंकारों धीर धर्षालंकारों का प्रयोग होना चाहिए । Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य-एक अध्ययन ६. सरस 'चम्पूकाव्य' काव्य की श्रेणी में प्राता है, प्रतः अन्य काव्यों के समान उसमें भी काव्य की प्रात्मा.रस को विद्यमानता अपेक्षित है। ७. उदात्तनायकोपेत चम्पूकाव्य की कथा किसी श्रेष्ठ नायक से सम्बन्धित होनी चाहिए। ६. गुरण ___ यथास्थान इसमें प्रसाद, माधुय्यं पौर मोज गुणों का समावेश होना चाहिए। ६. मागों में विभक्त __ महाकाव्य सगों में निबद्ध कथा बाला काव्य है, इसी प्रकार चम्पू-काम्य की कपा भी उच्छवास, अंक, लम्ब इत्यादि में विभक्त होनी चाहिए। १०. चमत्कारप्रधान चमत्कार का तात्पर्य है - उक्ति की विचित्रता। यह लक्षण प्रायः सभी कायों में घटित होता हैं; किन्तु पम्पूकाव्य में गद्य-पद्य के माध्यम से कवि को दुगुना चमत्कार दिखाने का अवसर प्राप्त हो जाता है। प्रत: 'चम्पूकाम्य' प्रन्य काव्यों की तुलना में अधिक चमत्कार प्रधान होता है।' ___अब देखना यह है कि दयोदय' काव्य में 'चम्पू-काव्य' की कौन-कौन विशेषताएं प्राप्त होती हैं :१. गव-पच-मिश्रण दयोदय के परिशीलन से ज्ञात हो जाता है कि उसमें गद्य-पद्य का अद्भुत संमिश्रण है। कवि ने गद्य और पद्य का यथेच्छ व्यवहार किया है। कहीं-कहीं पचों के पतिशय प्रयोग के मध्य गरा के दर्शन भी नहीं होते, तो कहीं पर पद्य पोर गय को साथ-साथ प्रयुक्त किया गया है। कवि का न तो गर के प्रति विशेष माग्रह है पोर न पद्य के प्रति । गय मोर पद्य के प्रति निष्पक्ष व्यवहार ही कवि को प्रभीष्ट है। भव्यकाण्यत्व काव्य की मुख्य रूप से दो विधाएं है-दृश्य और श्रब्य । पम्पू-काव्य गयकाम्य पौर पद्य काव्य रूप अन्य काव्यों का मिषण है; प्रतः वह भी श्रव्य-काम्य १. (क) विश्वनाषः साहित्यदर्पण, ६३३६-३३७ (ख) दण्डी : काव्यादर्श, ११३१ (ग) हेमचन्द्राचार्यः काम्यानुशासन, CE (घ) त्रिविक्रमभट्टः नलचम्पू १।२४-२५ (5) डॉ. छविनाथ त्रिपाठी: चम्पू काव्य का मालोचनात्मक एवं साहित्यिक अध्ययन, प.सं. ४ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यशास्त्रीय विषाएं ही हैं, दृश्य नहीं । श्रोता को कभी गद्य का मानन्द मिलता रहे और कभी पद्य का। 'पम्पूकाव्य का यह लक्षण 'दयोदय' में घटित होता है । ३. प्रबन्धात्मकता ___'योदय' में मृगसेन धीवर मोर घण्टा धीवरी की कथा क्रम से विद्यमान है । इस कथा का स्रोत हरिषेणाचार्य रचित 'बहत्वथाकोश' है । मगसेन धीवर एक मुनि के उपदेश से प्रभावित होकर अहिंसा धर्म को स्वीकार कर लेता है; और पत्नी को फटकार सुनकर एक धर्मशाला में पहुँचकर लेट जाता है । वहाँ एक सर्प के डसने से उसकी मृत्यु हो जाती है । पति को ढूंढती हुई घण्टा-धीवरी भी उसी धर्मशाला में पहुँचती है; और सपं के काटने से उसकी भी मत्यु हो जाती है। धीवर सोमदत्त के रूप में पोर धीवरी श्रेष्ठी की पुत्री के रूप में उत्पन्न होती है। गुणपाल श्रेष्ठी के बाधक होने पर भी सोमदत्त का विवाह गुणपाल श्रेष्ठी की पुत्री विषा से हो जाता है । सोमदत्त के तेजस्वी व्यक्तित्व मे प्रभावित होकर राजा भी अपनी पुत्री का विवाह सोमदत्त से कर देता है; और अपना प्राधा राज्य भी उसे दे देता है। एक मुनिराज के दर्शन के फलस्वरूप सोमदत्त पोर उसकी दोनों पत्नियों को वैराग्य हो जाता है । तपश्चरण के फलस्वरूप तीनों को स्वर्ग मिल जाता है । स्पष्ट है कि एक ही कथा के पल्लवित होने के कारण 'दयोदय' प्रबन्धकाव्यगुणोपेत है। ४. वर्णन-प्रधान-- 'दयोदय में कवि ने प्राकृति : पदार्थों मोर वृत्तान्तों का प्रसंगानुसार वर्णन किया है। प्रातःकाल, रात्रि, शिप्रा नदी, उज्जयिनीनगरी, विषा-सोमदत्त का विवाह मुनि-माहात्म्य एवं गुणपाल की हठधर्मिता का वर्णन कवि ने प्रत्यन्त मालंकारिक शैली में किया है। १. दयोदयचम्पू, ३ श्लोक ७ के पूर्व के गद्यभाग, ७-६, श्लोक के बाद के गद्यभाग। २. वही, २ श्लोक २ से पूर्व का गद्य भाग एवं श्लोक २ ३. वही, पृ० १० का गवभाग ४. वही, १११०-११ ५. वही, ४१८-२५ ६. वही, १११८, श्लोक २२ से पूर्व का गद्यभाग और २२-२६, ७ श्लोक १७के बाद के गद्यभाग से श्लोक ३७ के बाद के गद्यभाग तक । ७. बही, १११५ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ महाकवि मानसागर के काव्य-एक अध्ययन ५. अलंकारसुसज्जित कवि ने 'दयोदय' को शब्दालंकारों और अर्थालंकारों से सुसज्जित किया है। अन्त्यानुप्रास,' श्लेष, उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, विषम इत्यादि प्रलंकारों की छठा काव्य में विशेष दर्शनीय है। ६. सरस वैसे तो 'दयोदय' में शङ्गार रस, वत्सल रस मोर भक्तिभाव का मास्वादन पाठक को यत्र-तत्र होता रहता है। किन्तु कवि की सभी फतियों की भांति इस काव्य का मङ्गोरस शान्त ही है । ७. उनातनायकोपेत_ 'दयोदय' काव्य की कथा एक ऐसे व्यक्ति पर प्राधारित है, जो अपने पूर्वजन्म में एक ऋषि के उपदेश से प्रभावित होकर अहिंसा-व्रत अपना चुका पा; और मुनि के आदेशानुसार उसने जाल में माई मछली को जीवन-दान दिया था। अपने वर्तमान में वह एक मातृ-पितृविहीन बालक के रूप में गुणपाल को कुदृष्टि से बचता हुमा एक ग्वाले के पास पहुंच जाता है । बार-बार गुणपाल की दुर्भावना का शिकार होने से बचता है । सेठ गुणपाल की पुत्री विषा और राजकुमारी गुणमाला से उसका विवाह होता है । राजा उसके गुणों पर रीझ कर अपना आषा राज्य उसे सौंप देता है। अन्त में ऋषि का उपदेश सुनकर सोमदत्त को वैराग्य हो जाता है पौर वह जैन-मुनि बन जाता है । इस प्रकार काव्य का नायक सोमदत्त सौन्दर्यशाली दिव्यगुणोपेत, दयालु और सरलहृदय है । प्रतः 'दयोदय' की कपा एक निर्मल चरिण वाले व्यक्ति पर माषारित है। १. दयोदयचम्पू, १।२६, २।३२, ६।३ २. वही, ७१२ ३. वही, ३ श्लोक ६ के बाद के गद्य भाग । ४. वही, ३ श्लोक ७ पौर उसके पूर्व के गद्यभाग। ५. वही, २१३१ ६. वही, २५ ७. वही, ४।१४-१६ ८. .बही, ३ श्लोक १० के बाद के गधमाग । ९. वही,७ पु. १४३ का गीत । १०. वही, ७ श्लोक १७ के बाद के नवभाग से श्लोक ३५ तक। Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कामशास्त्रीय विधाएं . . ८. गुगयुक्त 'वयोदय' माधुर्य' मोर प्रसाद गुण सम्पन्न रचना है । है. मागों में विभक्त प्रायः देखा जाता है कि चम्पू-काव्य उच्छवास, स्तबक इत्यादि में विभक्त होता है। हमारे पालोच्य कवि की यह कृति 'दयोदय' भी सात लम्बों में विभक्त है। इन लम्बों के पद्यों में अनुष्टुप्, उपजाति, इन्द्रवधा, उपेन्द्रवजा, वंशस्थ, वसन्ततिमका, बियोगिनी, द्रुतविलम्बित, शिखरिणी, शार्दूलविक्रीडित इत्यादि छन्दों का प्रयोग किया गया है। 'दयोदय' के परिशीलन से यह ज्ञात होता है कि इसकी कया चमत्कारीस्पादक है। स्थान-स्थान पर उक्तिचित्य के दर्शन होते हैं। पद्य के माध्यम से शान्दी कोड़ा, गद्य के माध्यम से शादी कीड़ा, प्रसाद-माधुर्य-गुण एवं अन्योक्ति का मिला जुला चमत्कार, तथा सुभाषित मुक्ता-राशि के स्थल यत्र-तत्र दृष्टिगोचर होते हैं। उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि काव्य-शास्त्रियों द्वारा मान्य चम्पू-काव्य की सभी विशेषताएं हमें 'दयोदय चम्पू में मिलती हैं। इसके अतिरिक्त इसमें गद्य पद्य के मिश्रण का जितना प्राधान्य है, उतना और किसी अन्य तत्त्व का नहीं । 'विरुद-काव्य' में प्राप्य राजस्तुति का इसमें सर्वथा प्रभाव है । विविध भाषा में रचित करम्भक काव्य के समान इसमें अनेक भाषायें न होकर केवल संस्कृत भाषा है। इसके पद्य संवादों की पुष्टि के लिए नहीं हैं। कथा-साहित्य की भांति इसमें पद्यमात्रा विरल न होकर अविरल है । अतः स्पष्ट है कि 'दयोदय' एक चम्पू-काव्य है, जो गद्य-पद्यमयी-गंगा-यमुना के संगम को जलधारा रूप वाणी से पाठक को पाह्लादित करने में पूर्ण समर्थ है । मुनि मनोरंजन शतक संस्कृत भाषा में लिखी गई कवि की यह छठी साहित्यिक कृति है । यह कति १. दयोदयचम्पू, ४२० २. बही, ११२३ ३. वही, २।२४ ४. वही, १ श्लोक २१ के बाद का चतुर्थ गद्यभाग। ५. वही, १ श्लोक के बाद की सूक्ति, ३ प्रथम गवभाग को सूक्ति । ६. वही, ४।२१ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ महाकवि ज्ञानसागर के काग्य-एक अध्ययन मुक्तक नामक पद्य-काव्य भेद के अन्तर्गत प्राती है। संस्कृत काव्य-शास्त्रियों को रष्टि में मुक्तक-काव्य ऐसा छन्दोबद्ध काव्य है, जिसके पद्यों की विषय-वस्तु स्वतन्त्र होती है । अतः निरपेक्ष विषय-वस्तु वाले पद्यों के संग्रह को मुक्तक-काव्य कहते हैं।' प्रस्मदालोच्य महाकवि ज्ञानसागर जी को उक्त रचना में मुक्तक काम्य का यह लक्षण पूर्णरूपेण घटित होता है। किन्तु इसके 'मुनिमनोरंजनशतक' नाम में 'मनि' एवं शतक' शब्द तो ठीक है, किन्तु 'मनोरंजन' शब्द का प्रयोग प्रापत्तिजनक है । क्योंकि इस कृति का प्राद्योपान्त परिशीलन करने से ज्ञात होता है कि इसमें मनोरंजन नाम की कोई वस्तु नहीं। इसमें तो मुनियों के माचार-व्यवहार के विषय में लिखा गया है । इस दृष्टि से महाकवि यदि इसका नाम 'मुनिधर्मनिरूपण' रखते तो पषिक संगत होता। किन्तु यह भी सम्भव है कि वह स्थूल मनोरंजन को मनोरंजन मानते ही न हों। उन्हें कत्र्तव्य-पालन एवं धर्मयुक्त चेष्टामों में ही मनो. रंजन-प्राप्ति होती हो । यदि ऐसा रहा है, तब तो ठीक ही है। इसमें १०० श्लोक पाए जाते हैं, जैसाकि इसके नाम में पाए हुए 'शतक' शब्द से ही स्पष्ट है । इस रचना की विषय-वस्तु है मुनियों के कर्तव्यों का निरूपण । मुनवेश धारण वाले व्यक्ति को बाह्य प्राडम्बर पूर्णरूपेण छोड़ देना चाहिए। उसे अपने उपयोग के लिए एक मयूरपिच्छिका और कमण्डलु धारण करना चाहिए। एक ही समय भोजन एवं जल, ग्रहण करना चाहिए। रात्रि के समय कहीं नहीं जाना चाहिए । जब कोई श्रद्धापूर्वक भोजन दे, तभी ग्रहण करना चाहिए। पंचमहावतों के प्रति प्रतीव सावधान रहना चाहिए। भाषा, एषणा इत्यादि पंच समिति, त्रिगुप्ति, सम्यकदृष्टि, सम्यगशान और सम्यक्चारित्र- इस रत्न-त्रय को धारण करना चाहिए। जनता को प्रबुद्ध करना, धर्म पर मास्था रखना, प्रात्मस्वरूप को पहिचानना प्रादि मुनियों के कर्तव्य हैं । कवि की इस रचना को भाषा-शैली सरल एवं सुबोष है। यह त्याग का पाचरण करने की इच्छा रखने वाले व्यक्तियों के लिए माज अत्यन्त उपयोगी है। १. 'छन्दोबद्धपदं पयं तेनैवेन च मुक्तकम् ।' - साहित्यदर्पण, ६।३१३ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कवि की संस्कृत काव्यसम्पदा का परिचयात्मक प्रतिसंक्षिप्त रेखाचित्र जयोदय महाकाव्य वीरोदय महाकाव्य सुदर्शनोदय महा- श्रीसमुद्रदत्तचरित्र दयोदयचम्पू काव्य महाकाव्य मुनिमनोरंजनशतक सर्गसंख्या २८ सर्गसंख्या श्लोकसं. २८ २२ ३०७६ Ect ४१२ ३४५ १०० छन्दःसं. १८ १२ अंगी रस शान्त शान्त शान्त शान्त शान्त अंग रस शृङ्गार, रौद्र, बीर, करुण, रोद्र शृङ्गार, करुण अद्भुत और वत्सल पोर वत्सल । मोर वत्सल शृङ्गार, वीर, हास्य, अद्भुत रोद, हास्य बीभत्स पोर वत्सल मोर वत्सल । वैदर्भी बनी सैली बंदी दर्नी दी . Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के काग्य-एक अध्ययन कवि के पार्शनिक प्रन्थ उपर्युक्त साहित्यिक ग्रन्थों के अतिरिक्त कवि ने संस्कृत भाषा में दो पार्शनिक अन्य भी लिखे हैं-प्रवचनसार एवं सम्यक्त्वसारशतक । प्रबचनसार में द्रव्य का स्वरूप निरूपित किया गया है; भोर सम्यक्त्वसारशतक में सम्यक्त्व का स्वरूप एवं सम्यकदृष्टि, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र-नामक उसके तीन प्रकारों के विषय में बताया. गया है। दोनों ही ग्रन्थों की उक्त वर्ण्य-वस्तु दार्शनिक है। इन दोनों ही ग्रन्थों में काव्य-शास्त्रीय विमानों का कोई भी लक्षण नहीं मिलता है। चूंकि हमें अपने शोध-प्रबन्ध में कवि की संस्कृत भाषा में रचित साहित्यिक कृतियों का ही मूल्यांकन करना है, इसलिए इन दोनों दार्शनिक कृतियों का परिचय हम यहाँ न देकर शोधग्रन्थ के परिशिष्ट भाग में जहाँ कवि की हिन्दी रचनामों का परिचय दिया जायगा, प्रस्तुत करेंगे। सारांश इस प्रकार श्री ज्ञानसागर की कृतियों के काव्यशास्त्रीय परिशीमन से यह ज्ञात हो जाता है कि कवि ने संस्कृत भाषा की साहित्यिक विधा में चार महाकाव्य, एक चम्पूकाव्य मोर एक मुक्तक काव्य की रचना की है। कवि की ये सभी साहित्यिक कृतियां उसकी बहुमुखी प्रतिभा का परिचय देती हैं । साहित्य के प्रायः अधिकांश ग्रन्थों में रसराज शङ्गार की महिमा गाई गई है, किन्तु कवि की रचनात्रों के परिशीलन से स्पष्ट हो जाता है कि उन्होंने सभी रसों की परिणति शान्त रस में मान ली है । पूर्वजन्म की कपात्रों से बोझिल 'श्रीसमुद्रदत्तचरित्र' के अतिरिक्त अन्य किसी भी रचना में कथानक का प्रवाह अवरुद्ध नहीं हुमा है । 'सुदर्शनोदय' और 'दयोदय' के कथानकों में तो अद्भुत प्रवाह है। काव्यशास्त्रीय मानदण्डों को स्वीकार करती हुई महाकवि ज्ञानसागर की ये सभी साहित्यिक कृतियाँ सहृदय सामाजिकों, धार्मिकों और काव्यशास्त्रियों को सन्तुष्ट करने में पूर्णतया समर्थ हैं। Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्याय महाकवि ज्ञानसागर की पात्रयोजना (क) काव्य में पात्रों का महत्त्व 'पात्र' शब्द का तात्पर्य है-रक्षा करने वाला। इस दृष्टि से यदि हम काव्य में 'पात्र' की परिभाषा करें, तो उस परिभाषा की शब्दावली होगी--'काव्य में कथानक की रक्षा करने वाले व्यक्तियों को पात्र कहा जाता है।' किसी भी काव्य के लिए कथानक-तत्व बहुत प्रावश्यक हैं; किन्तु इस तत्त्व की महत्ता, उस काव्य में प्रयुक्त पात्रों पर प्राधारित होती है। भोजन को महत्ता भोक्ता पर, सष्टि रूपी रंचमंच की महत्ता जीवधारी रूप कलाकार पर, शरीर की महत्ता उस शरीर में रहने वाली शक्ति पर निर्भर है, इसी प्रकार काव्य के कथानक की महत्ता पात्रों पर प्राधारित है । पात्रों को कथानक रूपी शरीर की शक्ति माना जा सकता है। शक्ति के बिना शरीर शव ही होता है, इसी प्रकार पात्रों के बिना कथानक की सत्ता नहीं मानी जा सकती है। जिस प्रकार किसी सुरभित कुसुम के चारों मोर भ्रमर मंडराते हैं, उसी प्रकार कथानक के चारों मोर पात्र घूमते रहते हैं । प्रतः काव्य के कथानक प्रौर पात्रों के सम्बन्ध को प्रस्वीकृत नहीं किया जा सकता । एक पाचक अपने भोजन की प्रशंसा भोक्ता के माध्यम से सुन सकता है, इसी प्रकार कवि अपने कथानक का प्रशंसनीय प्रस्तुतीकरण पात्रों की समुचित योजना से हो कर पाता है। पात्र ही कवि के मानदण्डों को सामाजिक तक पहुँचाते हैं। जिस प्रकार यज्ञ में अग्नि ही यजमान की माहुति देवगणों तक पहुंचाता है, उसी प्रकार कवि इन पात्रों के माध्यम से स्वयं को समाज के बीच पहुंचाने में समर्थ होता है। पात्रों के माध्यम से ही कवि अपने साहित्य को समाज का दर्पण बना पाता है। नाटककार की तो सारी सफलता पात्रों के ही प्रस्तुतीकरण पर निर्भर करती है । नाटक के अतिरिक्त उपन्यास, महाकाव्य और खण्डकाव्यों के लिए भी काव्यशास्त्री पात्रयोजना में महत्त्व का उद्घोष करते प्रतीत होते हैं, तभी तो वे कहते हैं कि काव्य को कथा किसी सज्जन के जीवनवृत्त पर भाषारित होनी चाहिए। काव्य का जायक उदात्त होना चाहिए मोर काव्य में उसकी विजय भी दिखाई जानी चाहिए। प्रतएव किसी भी कवि की काव्य के कथानक के ही समान पात्रों की योजना का भी ध्यान रखना चाहिए । काग्य में पात्रों की संख्या ऐसी हो कि पाठक पूरा Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य-एक अध्ययन काव्य पढ़ते समय उन सभी से परिचित रहे; और प्रमुख पात्रों का सम्पूर्ण व्यक्तित्व हमारे समक्ष प्रस्तुत हो जाय । (ख) कविवर ज्ञानसागर के पात्रों का प्राकलन एवं वर्गीकरण श्री ज्ञानसागर ने पांच संस्कृत काव्य ग्रन्थों की रचना की है-जयोदय, बोरोदय, सुदर्शनोदय, श्रीसमुद्रदत्त चरित्र प्रौर दयोदय-चम्यू । सर्वप्रथम 'जयोदय' के पात्र आपके समक्ष प्रस्तुत हैं । 'जयोदय' काव्य में कथा को पाठकों तक पहुँचाने वाले पात्रों की संख्या सत्रह हैं। उनका परिचयात्मक रेखाचित्र इस प्रकार है जयोदय के पात्र ऋषि वर्ग राजवर्ग राजसेवक वर्ग बन्तर बगं ऋषिराज ऋषभदेव हरि पूरुषपात्र स्त्रीपात्र मनवद्यमति दुर्मर्षण सुमुख विद्यादेवी मंत्री सेवक दूत पुरुष पात्र स्त्रीपात्र जयकुमार | प्रकम्पन | अनन्तवीर्य सुलोचना प्रक्षमाला प्रकीर्ति भरत चक्रवर्ती पुरुषपात्र स्त्रीपात्र व्यन्तर देव स्त्रीवेषधारी देव सपिणी _ 'वीरोदय' में कवि ने जिन पात्रों का अवलम्बन लेकर कथानक को गति प्रदान की है, वे सात प्रकार के हैं । उनका परिचय निम्नलिखित रेखाचित्र से किया जा सकता है Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिव्य पात्र I पुरुष पात्र 1 इन्द्रादि देवता T वर्द्धमान पुरुष पात्र सुदर्शन इन्द्राणी T ऋषि वर्ग | स्वप्नावली का तात्पर्य बताने वाले ऋषि । ऋषि । I पुरुष पात्र T पुरुष पात्र सिद्धार्थ गौतम इन्द्रभूति श्रादि ग्यारह गरणधर प्रियकारिणी 'सुदर्शनोदय' काव्य की कथा कवि ने सोलह पात्रों द्वारा उपस्थित की है । इस काव्य के पात्रों का रेखाचित्र इस प्रकार है सुदर्शनोदय के पात्र 1 बृषभदा धात्री हन वीरोदय के पात्र I स्त्री पात्र 1 सागर दत्त पुनदास को उपदेश देने वाले श्री, ही देवियाँ i राज वर्ग कपिल 1 राजसेवक वर्ग पुरुष पात्र द्वारपाल I वधिक स्त्री पात्र अभयमती मनोरमा श्रदिव्य पात्र कपिला ' स्त्री पात्र पण्डितादासी स्त्रीपात्र T प्रज वर्ग देवदत्ता वेश्या जिनमति स्त्री पात्र कपिला की दासी Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५. महाकवि ज्ञानसागर के काम्य-एक अध्ययन भव प्रस्तुत है-श्री समुद्रदत्तचरित्र के बीस पात्रों का परिचयात्मक रेखाचित्र श्रीसमुद्रक्तचरित्र के पात्र ऋषि वर्ग ऋषि वर्ग राजवर्ग राजसेवकवर्ग प्रवावर्ग पुरुष पात्र स्त्री पात्र | पूर्णविषु | भद्रबाहु | गुणवती मायिका । हिरण्यवती ! मुनि दान्तमति परमं हरिश्चन्द्र पिहिताश्रव मुबिराज, मुनि, मुनि पुरुष पात्र स्त्रीपात्र सिंहसेन | राजा अपराजित रामदत्ता । चित्रमाला पूर्णचन नामपराजित सुन्दरी पात्र स्त्री पात्र स्त्रीपात्र सम्पपोष ििम्मल्ल रामदत्ता की सेविका पुरुषपात्र स्त्रीपात्र भद्रमित्र सुदत्त सुमित्रा Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर की पात्रयोजना १-५२ :: 'दयोदयचम्पू' में कवि ने कथानक - निर्वाह के लिए पन्द्रह पात्रों की परिकल्पना की है, जिनका परिचयात्मक रेखाचित्र इस प्रकार है ऋषि वर्ग I पुरुष पात्र ' वषभदत सोमदत्त के पूर्व जन्म की कथा सुनाने वाले मुनि दयोदय के पात्र I राज वर्ग 1 गुणमाला स्त्रीपात्र 1 सोमदत्त के मन में वैराग्य उत्पन्न करने बाले मुनि राजसेवक वर्ग वृषभदत्ता राजसेवक पुरुषपात्र I सोमदत्त गुणपाल गोविन्द महाबल चाण्डाल विषा T मंत्री प्रजावगं स्त्रीपात्र 1 गुणमति वसन्तसेना श्री ज्ञानसागर के काव्य-ग्रन्थों का अनुशीलन करने से यह ज्ञात होता है कि उन्होंने अपने काव्यों में समाज के प्रायः प्रत्येक वर्ग के पात्रों को लिया है । वहाँ एक भोर उनके काव्यों में इन्द्रादि देवताओंों को लिया गया है, वहीं दूसरी भोर चाण्डाल वर्षिक और पिशाच योनि वाले प्राणियों को भी लिया है। एक मोर अपने पति सिद्धार्थ से प्रेम करने वाली रानी प्रियकारिणी है, तो दूसरी घोर वासना से अन्धी रानी अभयमती भी है। इस प्रकार उनके पात्रों में कौतुकजनक विविधता विद्यमान है । अब श्रीज्ञानसागर के सभी पात्रों का, उनकी कोटि के प्राधार पर, निम्नलिखित रेखाचित्र प्रस्तुत किया जा सकता है Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ मानव वर्ग पुरुष पात्र | ( सभी सत्पात्र हैं) 1 ऋषि वर्ग 1 पुरुष पात्र T सत्पात्र एक ही दृष्टि में श्रीज्ञानसागर के पात्र 1 देव वर्ग 1 सत्पात्र स्त्री पात्र पुरुष पात्र 1 स्त्री पात्र ( सभी सत्पात्र हैं ) महाकवि ज्ञानसागर के काव्य- एक प्रध्ययन राजवर्ग 1 पुरुष पात्र T सत्पात्र कुटिलपात्र सत्पात्र कुटिलपात्र 1 पुरुष पात्र कुटिल पात्र पुरुष पात्र ( सभी कुटिल पात्र हैं) स्त्रीपात्र I कुटिलपात्र सत्पात्र सत्पात्र मानवेतर वर्ग स्त्री पात्र (सभी कुटिल पात्र हैं) राजसेवक वर्ग प्रजावगं व्यन्तर बगं 1 स्त्री पात्र T कुटिलपात्र स्त्री पात्र कुटिल पात्र Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर की पात्रयोजना १५३ उपर्युक्त रेखाचित्र को देखने से स्पष्ट हो जाता है कि श्री ज्ञानसागर के काव्यों में हमें अठारह कोटि के पात्र गोचर होते हैं । निम्नलिखित सारिणी से यह भी स्पष्ट हो जायगा कि कवि के समस्त पात्र कितने हैं ? और किस कोटि में प्राते हैं कोटि १. (क) मानव वर्ग वर्ग ४. ५. ऋषिवर्ग के पुरुष पात्र २. ऋषिवर्ग के स्त्री पात्र ३. राजवर्ग के पुरुषसत्पात्र राजवर्ग के कुटिल पुरुषपात्र राजवर्ग के स्त्रोत्पात्र ६. राजवर्ग के स्त्री कुटिलपात्र ७. राजसेवक वर्ग के पुरुष पात्र ८. राजसेवक वर्ग के पुरुष कुटिल पात्र ६. राजसेवक वर्ग के स्त्री सत्पात्र १०. राजसेवक वर्ग के कुटिल स्त्री पात्र नाम संख्या स्वप्नावली का अर्थ बताने वाले ऋषिराज, सेठ वृषभदास को दीक्षा देने वाले मुनिराज, सोमदत्त के पूर्वजन्म की कथा सुनाने वाले मुनि, सोमदत्त के मन में वैराग्यभावना जगाने वाले मुनिराज, वरधर्म मुनिराज, पूर्णविधु मुनि, हरिश्चन्द्र मुनि, भद्रबाहु पिहिताश्रवमुनि, जयकुमार को उपदेश देने वाले मुनिराज एवं ऋषभदेव । गुणवती प्रायिका, दान्तमति एवं हिरण्यवती । ११ सिद्धार्थ, वर्धमान, धात्रीवाहन, वृषभदत, सिहसेन, पूर्णचन्द्र, राजा अपराजित, जयकुमार, प्रकम्पन, भरतचक्रवर्ती एवं जयकुमार का पुत्र । अर्ककीर्ति । प्रियकारिणी, वृषभदत्ता, गुणमाला, रामदत्ता, सुन्दरी, चित्रमाला, सुलोचना प्रौर अक्षमाला । रानी श्रभयमती । धम्मिल्ल, द्वारपाल, वृषभदत्त का सेवक, काशीनरेश का दूत, अनवद्यमति मंत्री एवं aratवाहन का राजबधिक । सत्यघोष तथा प्रर्ककीर्ति का सेवक रामदत्ता की सेविका तथा विद्यादेवी । पण्डिता दासी ११ १ ८ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ iny ११, प्रजावर्ग के पुरुष सत्पात्र १२. प्रजावर्ग के कुटिल पुरुषपात्र १३. प्रजावर्ग के स्त्रीसत्पात्र जिनमति, मनोरमा, गुणमति, बिषा, वसन्तसेना एवं सुमित्रा । १४. प्रजावर्ग के कुटिल स्त्रीपात्र कपिला, देवदत्ता तथा कपिला की दासी (क) मानवेतर वर्ग १५. देववर्ग के पुरुष सत्पात्र १६. देववर्ग के स्त्री सत्पात्र १७. व्यन्तर वर्ग के कुटिल पुरुष पात्र महाकवि ज्ञानसागर के काव्य- एक अध्यय गौतम इन्द्रभूति, वृषभवास, सुदर्शन, सागरदत्त, कपिल, महाबल, सोमदत्त, गोबिन्द, भद्रमित्र, सुदत्त, वधिक एवं चाण्डाल । सेठ गुणपाल १८. व्यन्तरवर्ग के कुटिल स्त्री पात्र इन्द्र तथा अन्य देवगण इन्द्राणी तथा अन्य श्री, ही प्रादि देवीगरण व्यन्तरी की योनि में अवस्थित सर्पिरणी का स्वामी व्यन्तर, मकररूपधारी देव तथा स्त्रीरूप धारी देव । सर्पिणी २ पात्रों का कुल योग ७६ उपर्युक्त सारिणी से स्पष्ट है कि कवि ने प्रपने काव्यों में कुल ७६ पात्र प्रयुक्त किये हैं। इनमें से मानव वर्ग में ६८ भोर मानवेतर वर्ग में ८ पात्र माते हैं। मानव वर्ग के कुल पुरुष पात्रों की संख्या ४४ है । इनमें से ४० पात्र सत्पात्र हैं मोर ४ कुटिल हैं। मानव वर्ग के स्त्रीपात्रों की संख्या २४ है । इनमें से १६ सत्पात्र हैं और ५ कुटिल पात्र । देववर्ग में चार पात्र हैं, पर हैं सभी सत्पात्र । व्यन्तर वर्ग में भी चार ही पात्र हैं, पर ये सभी कुटिल पात्र हैं । महाकवि ज्ञानसागर के पात्रों के उपरिलिखित वर्गीकरण में 'मानव वर्ग' से हमारा तात्पर्य उस वर्ग के पात्रों से है जो पृथ्वी पर जन्म लेते हैं; बढ़ते हैं और प्रपनी जीवनलीला इसी बसुन्धरा पर करते हैं। इस वर्ग में भी वरीयता की दृष्टि से हमने ऋषिवर्य को सर्वप्रथम माना है । (क) विवर्ग श्री ज्ञानसागर के काव्यों में ऋषिवर्ग के पात्रों में हमने उन्हें माना है जो मोक्ष की घोर प्रसर हैं, पूर्णतया सत्त्वगुणोपेत हैं; सांसारिक भोगविलासों से मिलिप्त हैं, प्रज्ञानान्धकार में निमग्न जनता के प्रबोधक हैं, अपने देवोपम व्यवहार से मानवलोक एवं देवलोक के मध्य में स्थित रहते हैं प्रोर मनुष्य जैसे होते हुये भी भपने 'दिव्य गुणों के कारण सर्वबन्ध है । Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर की पात्रयोजना १५५ ___ कविवर श्री ज्ञानसागर ने अपने काव्यों में ऋषिवर्ग के चौदह (पुरुष और स्त्री) पात्रों का उल्लेख किया है। उनके ये पात्र व्यक्तिगत परिचय से हीन होकर हमारे सामने माते हैं। इसमें इनको ऐतिहासिकता एवं वास्तविकता सन्दिग्प हो पाती है। प्रतः ये हमें काल्पनिक पात्र से प्रतीत होने लगते हैं। किन्तु ये पात्र हमारे लिए वन्य भी हो जाते हैं। क्योंकि जब पुरुष मुनि बनता है, तब सांसारिक भोग-विलास का परित्याग करके अपने सांसारिक नाम का भी त्याग कर देता है। उसके लिए मात्मा का कोई महत्त्व नहीं रहता; परमात्मा ही उसके लिए सर्वस्व होता है। ऐसी स्थिति में जनता को प्रबुद्ध करना ही उसका नाम पोर काम होता है। फिर समाज उनके नाम को नहीं, काम को पूजता है। समाज को जागरित करने वाली ऐसी ही दिव्यविभूतियों का वर्णन कवि ने ऋषिवर्ग के पात्रों के रूप में किया है। (ख) राववर्ग कवि द्वारा प्रयुक्त राजवर्ग के पात्रों से हमारा तात्पर्य उन पात्रों से है, जो किसी देश के राजा हैं, राजा की स्त्रियां हैं, राजकुमार हैं और राजकुमारियां हैं। मतः राजवर्ग के पात्रों से तात्पर्य है राजपरिवार पात्र । कवि ने राजवर्ग के २१ पात्रों को प्रयुक्त किया है। इस वर्ग के पात्र मच्छी से अच्छी प्रकृति वाले हैं और दुष्ट से दुष्ट प्रकृति वाले भी । जहाँ मुनि अपनी दिव्य वाणी से जनता पर शासन करते हैं, वहां इस वर्ग के पात्र अपने भुजबल से जनता पर शासन करते हैं। प्रतः वरीयता की रष्टि से इनका स्थान द्वितीय है। (ग) राजसेवक वर्ग इस वर्ग में राजवर्ग की सेवा करने वाले पात्र पाते हैं। इनको तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है । मंत्री, सभासर इत्यादि राजकर्मचारी प्रथम श्रेणी के पात्र हैं । द्वारपाल, दूत इत्यादि द्वितीय श्रेणी के पात्र हैं। बषिक, चाण्डाल इत्यादि तृतीय श्रेणी के पात्र हैं। हम देखते हैं कि हमारे पालोच्य महाकवि श्री ज्ञानसागर ने इन तीनों ही श्रेणियों के पात्रों को काव्यों में प्रावश्यकतानुसार प्रयुक्त किया है। इन पात्रों की कुल संख्या ११ है। इस संख्या में पुरुष पात्र एवं स्त्रीपाप-दोनों ही सम्मिलित है। (घ) प्रजावर्ग उपर्युक्त पात्रों के अतिरिक्त नागरिक पात्र 'प्रजावर्ग' के अन्तर्गत पाते हैं। इन पात्रों को राजकीय कर्मचारियों के अधीन रहना पड़ता है, इसलिए वरीयता की दृष्टि से इनका चतुर्थ स्थान है । भाषिक दृष्टि से इन पात्रों को तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है, उच्चवर्गीय पात्र-जैसे सेठ वृषभदास, सेठ गुणपाल, सेठ सागरपत्त मावि मध्यवर्गीय पात्र जैसे, गोविन्द ग्वाला, कपिल पादि; और निम्नवर्गीय Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य- एक अध्ययन पात्र-जैसे वधिक, चाण्डाल प्रादि । कवि ने अपने कायों में तीनों ही श्रेणी के पात्रों को प्रयुक्त किया है । कवि के काव्यों में इन पात्रों की संख्या २२ है। मानवेतर वर्ग इस वर्ग में वे पात्र पाते हैं, जिन : पृथ्वी से सम्बन्ध नहीं होता; और यदि होता भी है तो बहुत ही कम । ये पृथ्वीलोक के अतिरिक्त अन्य लोकों में भी विचरते रहते हैं। इस वर्ग के पात्रों के भी दो विभाग किये गये हैं, देव वर्ग मोर व्यन्तर-वर्ग। (क) देव वर्ग स्वर्ग लोक में रहने वाले, प्रलौकिक गुणों और समादि से युक्त पात्र इस वर्ग के अन्तर्गत आते हैं : कवि के काव्य में इस वर्ग के ४ पात्र प्रयुक्त किये गये हैइन्द्र, देवगण, इन्द्राणी और भी, ह्रो देवियाँ । ये सभी पात्र मनुष्य लोक के प्राणियों का कल्याण करने के कारण सत्पात्रों को कोटि में प्राते हैं। (ख) व्यन्तर वर्ग इस वर्ग में पिशाच पोर यक्ष योनि के पात्र पाते हैं. जिनमें मनुष्यों में प्राप्त होने वाली सामान्य विशेषतानों का प्रभाव होता है ।' प्राय: इस वर्ग के पात्र मायाचारी होते हैं और अपनी माया से जनसामान्य को कष्ट देते हैं । श्री ज्ञानसागर के काव्यों में इन कुटिल पात्रों की संख्या ४ है । उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि हमारे पालोच्य कवि श्री ज्ञानसागर ने समाज में प्राप्य प्रत्येक प्रमुख वर्ग और प्रकृति वाले पात्रों को अपने काव्यों में उपस्थित किया है । प्रब उन पात्रों में से कतिपय ऐसे पात्रों का चरित्र-चित्रण प्रस्तुत है, जिन्होंने काव्यों के कथानकों को प्रमुख रूप से प्रभावित किया है । जयोदय के पात्र जयकुमार यह सम्राट भरत के सेनापति हैं। हस्तिनापुर का शासन इनके ही अधीन है । जयकुमार के पिता का नाम है सोमदेव : काशीनरेश महाराज प्रकम्पन की पुत्री सुलोचना इनकी पत्नी है। जयकुमार 'जयोदय' नामक काव्य के नायक हैं । काव्यशास्त्रीय दृष्टि से इनको धीरोदात्त नायक की. श्रेणी में रखा जा १. व्यन्तरः (विशिष्टः अन्तरो यस्य-प्रा. ब.)। पिशाच, यक्ष प्रादि एक प्रकार का अतिप्राकृतिक प्राणी। -वामन शिवराम प्राप्टे का संस्कृत-हिन्दी-कोश, (प्रकाशक-मोतीलाल बनारसीदास) पृष्ठ संख्या ६८५ २. जयोदय, ६१ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर की मात्रयोजना १५७ सकता है। वीरता--जयकुमार अप्रतिम योद्धा है । एक चक्रवर्ती के सेनापति में जो गुण होने चाहिएं, वे सब इन में हैं । जयकुमार के ही कारण भरत को सदैव विजय की प्राप्ति हुई है । अपने भी सभी त्रुनों को इन्होंने समाप्त कर दिया है । इनकी वीरता का उदाहरण देखिये--सुलोचना ने स्वयंवर में जयकुमार का चुनाव किया; भोर इनके गले में जयमाला डाल दी . प्रतएव जयकार के साथ सुलोचना का विवाह होना निश्चित हो गया। इसी बोच जयकार का एक प्रतिद्वन्द्वी-मर्ककीति अपने एक सेवक के कहने पर जपक मार से युद्ध के लिए तैयार हो जाता है । ऐसे समय में जयकुमार महाराज प्रकम्पन को धैर्य बंधा कर युद्ध करने के लिए तत्पर हो जाते हैं। यह अपनी सेना सहित अर्ककीर्ति के साथ बड़ो वीरता से लड़ते हैं मोर विजय भी प्राप्त कर लेते हैं । परम जैन धापिक - जयकुमार को जिनेन्द्र भगवान पर पूर्ण प्रास्था है । प्रतिदिन नियमपूर्वक यह सन्ध्योपासना के साथ जिन भगवान की पूजा करते हैं। यह प्रत्येक ऋषि का स्वागत करते हैं और उनके द्वारा बताई गई धर्म की सभी बातों को ध्यानपूर्वक सुनते भी हैं । अर्ककोति को पराजित करने के बाद भी यह प्रायश्चित्त रूप में जिनदेव की स्तुति करते हैं ।५ जब यह ग्रोर पुलोचना दोनों अपने पूर्वजन्मों का स्मरण करते हैं, तब जयकुमार अपना राम राज्य पर भाई विजय को सौंप कर तीर्थाटन के लिए निकल पड़ते है । हिमालय पर्वत में स्थित एक देव लय में जाकर यह जिनदेव की स्तुति करते हैं ६ जब जय कुमार के हृदय में रग्य उत्पन्न होता है, उस समय यह जैन धर्म दीर्थ : र ऋषभदेव के पास चले जाते हैं और उनसे दीक्षा की याचना करते हैं । इमरे पश्चात् तपस्या करते हैं।" प्रभावशाली व्यक्तित्व एवं सौन्दयं -... जयकुमार प्रभावशाली व्यक्तित्व और सौन्दयं के स्वामी हैं। इन्होंने कच्छप १. महासत्त्वोऽतिगम्भीरः क्षमावानविकत्थनः ।। स्थिरो निगूढाहारो धीरोदात्तो दृढव्रतः। _ -- दशरूपक, २।४ का उत्तरार्ध और ५वीं का पूर्वाधं । २. जयोदय, ७।८३-११५, ८।१-८४ ३. वही, १६वा सर्ग ४. वही, १८८-११२, २।१-१४१ ५. वही, ८८६-६५ ६. वही, २४१५८-८५ ७. वही, २६।३८-१०७, २७वा सर्ग, २७.१.६६ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ महाकवि ज्ञानसागर के काग्य -एक अध्ययन की भांति पृथ्वी का भार सम्भाल रखा है। यह विद्वान् भी हैं। प्रताप में सूर्य के समान हैं। इनकी कीर्ति चन्द्रमा की ज्योत्स्ना के समान है। यह याचकों की प्रभिलाषा पूर्ण करने वाले हैं। इनकी भुजाय इन्द्र के हाथो को सूंड के समान लम्बी पौर बलशाली हैं। राजा जयकुमार से हो पृथ्वी का राजन्वती नाम सार्थक है। इनके सुन्दर चरणों के समक्ष कमलों की कोई गिनती नहीं। इनके हाथ कल्पवृक्ष के समान हैं । इनके नेत्र नीलकमल के समान हैं। कमल पौर चन्द्रमा प्रयत्न करके भी इनके मुख की समता नहीं कर सके हैं। इनका गला शंख को पराजित करने वाला है।' अत्यन्त यशस्वी जयकुमार के उपर्युक्त गुणों से प्रभावित होकर ही सुलोचना ने चक्रवर्ती के पुत्र को भी छोड़कर उनका वरण किया। काशीनरेश का दूत भी बब सुनोचना के स्वयंवर का समाचार लाता है, तब वह भी जयकुमार को सुलोचना के लिए सर्वथा योग्य बता देता है। राजनीतिज्ञ और विनम्र जयकुमार एक श्रेष्ठ राजनीतिज्ञ भी हैं। इनकी सभा शरत्कालीन राजहंस के परिवार के समान है, जिसमें विद्वान् और सहृदय सभासद् बैठते हैं। उस सभा में प्रजा का हित चाहने वाले मंत्री, कुशल पुरोहित मोर कार्य में तत्पर दूत हैं। जयकुमार के गुणों का प्रसार करने वाले चारण भी हैं। एक योग्य राजा के समान जयकुमार सभा में पाये हुये काशीनरेश के दूत का स्वागत करते हैं। युद्ध में मर्ककीति को पराजित करने के बाद जब यह सुलोचना से विवाह कर लेते हैं, तब यह भरत चक्रवर्ती के पास प्रयोध्या जाकर अपने अपराधहेतु क्षमायाचना भी करते हैं। भ्रमणशील जयकुमार को घूमने का बहुत शौक है । यह आये दिन वन-उपवन में विहार करने जाते रहते हैं । विवाह के पश्चात् अपने साथियों सहित गंगा नदी के तट पर पड़ाव डाल देते हैं। यहां पर इनके साथी वन-क्रीडा करते हैं। अब सुलोचना और जयकुमार को अपने पूर्वजन्म का स्मरण हो जाता है, तब जयकुमार सुलोचना के साथ तीर्थाटन को निकल पड़ते हैं। सुमेरु, उदयाचल पोर हिमालय पर्वत पर भ्रमण करते हैं। १. जयोदय, ११३-६३ २. वही, ३।६७ ३. वही, २०११-३१ ४. वही, त्रयोदश एवं चतुदंश सर्ग। ५. वही, ३४।१-५७ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर को पात्रयोजना १५९ इस प्रकार हम देखते हैं कि जयकुमार में यशस्विता, सत्यप्रियता, भक्ति, सुन्दरता, अपराजेयता मादि सभी श्रेष्ठ गुण विद्यमान हैं। सुलोचना यह काशी के राजा प्रकम्पन की पुत्री है। इसकी माता का नाम सुप्रभा है। यह 'जयोदय' काव्य के नायक जयकुमार की पत्नी मौर काव्य की नायिका है । इसकी छोटी बहिन का नाम प्रक्षमाला है। सौन्दर्यशालिनी. सुलोचना लावण्य की निधि हैं। इसका अंग-प्रत्यंग सुन्दर है । नित्य नवीन सौन्दर्य को धारण करने वाली सुलोचना चन्द्रलेखा के समान सबको प्रसन्न करने वाली है । इसने कुमारावस्था को छोड़कर युवावस्था में प्रवेश कर लिया है । इसके हाप कमल के समान हैं। चन्द्रमा इसके मुख को कान्ति की कुछ ही समता धारण करता है। काजल से युक्त इसकी प्रांखें लोगों के हृदय को मनायास ही माकर्षित कर लेती हैं । इसकी भौहें कामदेव की धनुलंता के समान हैं । इसका अपरोष्ठ बिम्ब फल के समान रक्तवर्ण वाला है । इसकी चोटी नागिन के समान लहराती हुई काले बालों वाली है । मध्यदेश में रसकूपिका के समान नाभि सुशोभित है। विधाता ने मानों नाभिरूपी बाबड़ी को खरीदने के लिए ही रोमराजिरूपी कदाली का निर्माण किया है । इसका शरीर सुवर्ण के समान कान्तियुक्त है। इसकी जंघायें गोल और रोमों से रहित हैं। उदर पर त्रिवलि सुशोभित है।' इसके नेत्र मछली के समान चंचल हैं । इसके स्तन कालागुरु के लेपन से युक्त एवं पुष्ट हैं। इसके चरण-कमलों की कान्ति लाल है । इस मगनयनी का सौन्दर्य रम्भा को भी पराजित करने वाला है। इस विशाल नितम्बों वाली सुलोचना की त्रिवली में सरस्वती, लक्ष्मी और सती की शोभा विद्यमान है। चतुर और गुणग्राहिका स्वयंवर-मण्डप में अनेक राजा बैठे हैं। विद्यादेवी सुलोचना को प्रत्येक राषा का परिचय देती जाती है। विद्यादेवी के परिचय में कसो व्यंजना है ? इसे यह अच्छी तरह समझ जाती है । सब राजाओं को छोड़कर जब सुलोचना बयकुमार के पास पहुँचती है, तब विद्यादेवी जयकुमार का विस्तृत प्रशंसात्मक परिचय देती है। जयकुमार के गुणों से प्रभावित होकर यह जयकुमार के गले में जयमाला डालकर अन्य राजाओं को निराश कर देती है। १. अयोदय, ३१३७-६२ २. वही, ११वा सर्ग। ३. वही, ६।५-१२७ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० महाकवि ज्ञानसागर के काव्य-एक अध्ययन वोर और पतिव्रता पार्यललनामों के समान सुलोचना पतिव्रता स्त्री है। अपने गुणों से इसने जयकुमार को अपने वश में कर लिया है। जन चक्रवर्ती भरत के पास से लौटकर पुनः जयकुमार गंगानदी के तट पर पहुँचते हैं, तब एक देव मकर का रूप धारण करके जयकुमार के हाथी पर आक्रमण करना चाहता है । इस समय जयकुमार को विपत्ति में देखकर यह 'नमोंकार' मन्त्र का जाप करती है; और अपने सतीत्व के प्रभाव से जयकुमार की रक्षा करती है।' तीर्थाटन के समय पर्वत की शोभा देखते हुए सुलोचना पति से अलग हो जाती है। इसी समय एक देवी विरहिणी स्त्री के रूप में जयकुमार के पास पाती है। जयकुमार जब उसके संग की प्रार्थना को ठुकरा देते हैं, तब वह उनको लेकर भागती है। उस समय भी सुलोचना किंकर्तव्यविमूढ़ न होकर उस देवी को फटकारती है । फलस्वरूप वह देवी जयकुमार को छोड़कर चली जाती है । ___ इस प्रकार सुलाचना में शील, स्वाभिमान, धर्य, पतिभक्ति मादि सभी श्रेष्ठ गुण मिलते हैं। अपने इन्हीं गुणों के कारण यह अपने पति को प्रसन्न करने में समर्थ है। प्रकोति-- ___ यह चक्रवर्ती भरत का पुत्र है। यमी काव्य के नायक जयकुमार इसके पिता के ही सेनापति हैं, किन्तु प्रेम के क्षेत्र में यह उनका प्रतिद्वन्द्वो है। ईर्ष्यालु सलोचना स्वयंवर में प्रना राजारों के समान ही अर्ककीर्ति को भी निराश होना पड़ता है । अर्क कीति का एक सेक दुर्मर्षण जयकुमार के उत्कर्ष को सहने में असमर्थ होकर अपने स्वामी को जपामार और राजा प्रकम्पन के विरुद्ध भड़काता है । तब यह सेवक के कहे वनरों को दिना विवारे नान लेता है; और काशीराज को मारकर उनको पुत्री सुलोचना को लाने का प्रादेश दे देता है। इस समय इसको जयकुमार के सेनापतित्व से भी ईर्ष्या हो जाती है । प्रविनीत काशीराज एवं जयकुमार के विरुद्ध एवं निराशा और क्रोध से युक्त वचन सुनकर इसका अनवद्यमति नाम का मंत्री इसे समझाता है और काशी और जयकुमार से भरत चक्रवर्ती के स्नेह-सम्बन्धों की बात पर विचार करने का उपदेश १. जयोदय, २०४८-६५ २. वही, २४।१०५-१४६ ३. वही, ७।२२ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि मानसागर को पात्रयोजना देता है । किन्तु प्रकीर्ति कोषाविष्ट होकर मंत्री के उपदेश से जरा भी प्रभावित नहीं होता। प्रात्मविश्वास में कमी मर्ककीति का अपनी ही बुद्धि पर अविश्वास है । स्वयंवर में पराजित होकर वह स्वयं जयकुमार से वैर नहीं ठानता। किन्तु अपने सेवक के उत्तेजित करने पर ही इसे जयकुमार के प्रति क्रोध पा जाता है।' बम्मी एवं मदोन्मत पकीर्ति की इच्छा का समाचार काशीराज प्रकम्पन के पास भी पहुंचता है । तब वह अपना एक दूत इसको शान्त करने के लिए भेजते हैं। पर यह टस से मस नहीं होता और बयकमार से युद्ध की तैयारी करने लगता है । फलस्वरूप इसका जयकुमार से घोर युद्ध होता है । युद्धवीर जयकुमार के समक्ष इसका गर्व चूर हो जाता है और जयकुमार इसको बन्दी बना लेते हैं। इसे अपने चक्रवर्ती के पुत्र होने का गर्व है। देशकाल के मान एवं स्वामिमान से रहित . जयकुमार प्रकीति के पिता के सेनापति हैं, प्रतएव उनके शोर्य में कोई संदेह नहीं होना चाहिए । इतना जानते हुए भी यह उनसे युद्ध करने को तैयार हो जाता है । मदोन्मत पर्ककोति समझता है कि सुलोचना का विवाह उसी से होना चाहिए पा, प्रतः देशकाल का विचार किये बिना ही विवाह के मांगलिक अवसर पर बाषा उपस्थित कर देता है। इसके मन में स्वाभिमान का पूर्णरूपेण प्रभाव है। पराजित एवं अपमानित होने के बाद भी यह काशीराज प्रकम्पन की दूसरी पुत्री पक्षमाला से विवाह करने को तैयार हो जाता है। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि यपि प्रकीति भरतचक्रवर्ती का पुत्र है, तथापि दम्भ, मदोन्मत्तता, कोष, वैर, ईर्ष्या, अविश्वास इत्यादि इसमें प्रचुर मात्रा में हैं। अपने इन दुर्गुणों के कारण ही यह प्रेम के क्षेत्र में तो पराजित होता ही है, युद्धक्षेत्र में भी पराजय ही प्राप्त करता है । इसकी इन विशिष्टतामों को देखकर इसे काव्य का सलनायक कहा जा सकता है।' १. जयोग्य, १२-४४ २. बही; ७१-७ १. वही, ७।५५-११५, ८।१-१४ ४. वही, ७४५-४६ ५. वही, १९ 1. मुन्धो पीरोइतः स्तम्बः पापद्व्यसनी रिपुः ।' -शरूपक, २९ का उत्तरार्ष। Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य -एक अध्ययन राजा प्रकम्पन राजा प्रकम्पन भरत चक्रवर्ती के अधीनस्थ राजा हैं। यह काशी नगरी पर शासन करते हैं। इनकी पत्नी का नाम सप्रभा है। हेमांगद इत्यादि इनके एक हजार वीर पुत्र हैं । सुलोचना पोर अक्षमाला इनको दो पुत्रियां हैं । यह राजनीतिज्ञ हैं। मीर इनके स्वभाव में किचित् भीरुता भी है। स्वयंवर में सुलोचना बयकुमार का वरण करती है और पराजित प्रर्ककीति क्रुद्ध हो जाता है । तब चक्रवर्ती के पुत्र के क्रोध को देखकर यह घबड़ा जाते हैं । अपनी पुत्री के सौभाग्य मौर चक्रवर्ती के पुत्र के क्रोध के बीच यह अत्यन्त किंकर्तव्यविमूढ़ता का अनुभव करते हैं।' चक्रयर्ती की कोप-भाजनता से बचने के लिए अपनी दूसरी पुत्री प्रक्षमाला का विवाह प्रकीति से कर देते हैं।२ योग्य सामन्त एवं जिम्मेदार अभिभावक राजा प्रकम्पन एक योग्य सामन्त हैं। वह अपने राज्य की प्रत्येक घटना भरत चक्रवर्ती के पास भेजते रहते हैं। प्रककीर्ति के विवाह का समाचार भी यह उनके पास भेज देते है। इससे सम्राट के प्रति इनको विनम्रता का ज्ञान हो जाता है। प्रत्येक सुयोग्य अभिभावक के समान राजा प्रकम्पन भी अपनी पत्रियों के विवाह के प्रति चिन्तित हैं। सुलोचना का विवाह वह स्वयंवर-विधि से सम्पन्न करते हैं, और अक्षमाला का विवाह प्रर्ककोति को योग्य समझकर उसके साथ कर देते हैं। — दया, ममता, स्नेह से युक्त राजा अकम्पन वास्तव में स्तुत्य हैं। वीरोदय के पात्रभगवान महावीर.. भगवान महावीर के लोकविश्रुत चरित्र को प्राज न केवल जैनधर्मानुयायी जानते हैं, अपितु भारत का प्राय: प्रत्येक प्रबुद्ध नागरिक जानता है। भगवान् महावीर जैनधर्म के २४वें तीर्थङ्कर हैं। कुण्डनपुर के शासक राजा सिद्धार्थ की पटरानी प्रियकारिणी के गर्भ से प्रापका जन्म चैत्रमास की शुक्ल-पक्ष की त्रयोदशी १. जयोदय, ७५५ २. वही, १९ ३. वही, ६।६२ ४. वही, सर्ग ३, सर्ग ७ ५. वही, १३, १६. Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर की पात्रयोजना १६.३ को हुआ था । भगवान् महावीर लोकनायक तो हैं ही, साथ ही 'वीरोदय' महाकाव्य के नायक भी हैं ।' काव्यशास्त्रीय दृष्टि से भगवान् को घीरशान्त श्रेणी में रखा जा सकता है । प्रभावशाली व्यक्तित्व भगवान् महावीर प्रद्भुत व्यक्तित्व के स्वामी हैं। प्रभी उनका गर्भावतरण हो हुधा है कि सारी पृथ्वी हरी-भरी हो गई है । महापुरुषों के जन्म से पहले उन्हें जन्म देने वाली माताएं कुछ दिव्य स्वप्न देखती हैं, ऐसे ही सोलह स्वप्नों को महावीर की माता प्रियकारिणी ने देखा था । यह भगवान् का ही प्रभाव है कि उनके गर्भावतरण के पश्चात् उनकी माता की सेवा के लिए इन्द्र ने श्री, ही प्रादि देवियों को भेज दिया । देवराट् इन्द्र भगवान् के जन्म पर उनके अभिनन्दन के लिए, ग्रन्थ देवगणों के साथ भगवान् की जन्मभूमि कुण्डनपुर पहुँच जाते हैं प्रोर सुमेरु पर्वत पर ले जाकर भगवान् का अभिषेक करते हैं।" भगवान् के बढ़ते हुए सौन्दर्य को देखकर ही उनके पिता ने उनका नाम 'श्रीवर्धमान' रख दिया । उनका शरीर पूर्ण स्वस्थ था । युवावस्था की प्रोर बढ़ते हुए भगवान् महावीर में हमें ढ़ता, त्याग और संयम की त्रिवेणी देखने को मिलती है। वह पिता द्वारा किए गए विवाह के प्रस्ताव को ढ़ता से प्रस्वीकृत कर देते हैं। कोन सा युवक होगा, जो विवाह से अपने को विमुख रख सके ? पर महाबीर तो त्याग और संयम की मूर्ति हैं । उनके पिता राजा सिद्धार्थ को भी उनके इस दृढ़ निश्चय के भागे झुकना ही पड़ता है ।" उनसे द्वेष रखने वाला गौतम इन्द्रभूति भी अपने को उनके चरणों में समर्पित कर देता है ।" यह नहीं, उनके व्यक्तित्व से प्रभावित होकर न जाने जितने लोग जैन मतावलम्बी बन जाते हैं । १. नेता विनीतो मधुरस्त्यागी दक्षः प्रियंवदः । रक्तलोकः शुचिर्वाग्मी रूढवंशः स्थिरो युवा || बुद्धयुत्साहस्मृतिप्रज्ञाकलामानसमन्वितः । शूरो दृढश्च तेजस्वी शास्त्रचक्षुश्च धार्मिकः ।। बही, २४ वीरोदय, २।२७, ३४-६१ २. ३. ४. वही ५।१-८ ५. बही, ७१६-३८ ६. वही, ८६ ७. वही, ८।२२-४५ ८. वही, ८।४६ ४. वही, १३०३२ - दशरूपक, २११-२ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ बेराग्य भावना राजकुमार होते हुए भी भगवान महावीर में त्याग भीर वैराग्य वैसे ही विद्यमान हैं जैसे वस्त्र में तन्तु । युवक महावीर के समक्ष एक मोर पिता द्वारा प्रस्तुत विवाह का प्रस्ताव है और दूसरी प्रोर सांसारिक प्राणियों के दुःख से उत्पन्न राग्य का प्रागमन है । ऐसी स्थिति में भगवान् किंकर्तव्यविमूढ़ नहीं होते । वह स्थिरहृदय से भोग का मार्ग छोड़ कर त्याग प्रोर वेराग्य का मार्ग चुन लेते हैं । ' प्राणियों में शान्ति के प्रभाव धौर समाज में वर्गवाद तथा विषमता के साम्राज्य ने उन्हें त्याग की घोर प्रग्रसर कर दिया। संयम का प्रवलम्बन लेकर भगवान् ने समस्त सांसारिक सुखों को तिलांजलि दे ही दी । २ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य- एक प्रध्ययन तर्करणा और चिन्तनशीलता भगवान् महावीर अपने पिता के विवाह सम्बन्धी प्रस्ताव को ठुकराते समय अद्भुत तर्कणाशक्ति का परिचय देते हैं। स्त्री को वह सबसे बड़ा बन्धन मानते हैं, उनकी शक्ति से उनके पिता भी प्रभावित होते हैं । चिन्तनशील तो इतने हैं कि संसार की दुःखमयी दशा को देखकर उसके दुःख को कम करने के प्रतिरिक्त फिर अन्य किसी वस्तु के बारे में नहीं सोचते । चिन्तन करते-करते अपने पूर्वजन्म का भी उन्हें ज्ञान हो जाता है । तब अपने पूर्वजन्म में किए गए दुष्कृत्यों से उत्पन्न पाप को दूर करने के लिए वह प्रात्मशुद्धि की ओर प्रग्रसर हो जाते हैं । ४ निष्कपट व्यवहार पोर नम्रता- भगवान् में ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध इत्यादि दुर्गुणों का लेशमात्र भी नहीं है । उन्होंने पनी नम्रता भोर विवेकशीलता से हो सबको जीत लिया है। उनके साथ कोई भी कैसा ही व्यवहार क्यों न करे, पर उनका प्राचरण सबके प्रति freeपट ही रहता है । गौतम इन्द्रभूति जो उनसे द्वेष रखता है, उसके साथ भी वह नम्रता का व्यवहार करते हैं । प्रतिशोध की भावना का उनके मन में कोई स्थान नहीं है । 'तपस्वी भगवान् के प्रात्मचिन्तन से अपने पूर्वजन्म में किए गए अच्छे बुरे कार्यों का जब ज्ञान होता है, तव ब्रात्मशुद्धि के उपायरूप में उप्रतपश्चरण करते हैं। उन्हें अपने शरीर से जरा भी ममता नहीं है। सभी प्रकार के प्राकृतिक परिवर्तनों को १. वीरोदय, ८।२१-४५ २. वही, ६।१-१७, १०1१-२६ ३. वही, १३०, ४६ ४. वही, १००३८, १११-४४ ५. वही, १३।२५-२९ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर को पात्रयोजना वह सहते रहे । शीत में सिहरन, वर्षा में जलधारा पोर ग्रीष्म का संताप, उनका कुछ न विगाड़ सके । उन्होंने भूख-प्यास पर भी विजय प्राप्त कर लो। अन्त में वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को उन्हें कैवल्य ज्ञान प्राप्त हो गया पोर उनका अन्तःकरण पूर्णरूपेण निर्मल हो गया।' परोपकारी भगवान् ने जो उग्रतपश्चरण किया, उनमें कोई स्वार्थ निहित नपा। सांसारिक प्राणियों के दुःख ने ही उन्हें वैराग्य की ओर अग्रसर किया था। जिस प्रकार एक अच्छा चिकित्सक रोगियों की उचित चिकित्सा के लिए स्वयं प्रशिक्षण ग्रहण करता है. उसी प्रकार जनता को प्रबुद्ध करने के लिए भगवान ने भात्मशुद्धि की, और फिर जनता की सेवा में लग गए। जन धर्म के व्याख्याता भगवान में अद्भुत व्याख्यानशक्ति है । उन्होंने अपने व्याख्यानों द्वारा जनता को ऋषभदेव के जैनधर्म के सम्पूर्ण सार-तत्व से परिचित कराया। उनकी अद्भुत व्याख्यान शक्ति से प्रभावित होकर ही गौतम इन्द्रभूति इत्यादि गणपर उनके वशवर्ती हो गए । अपनी व्याख्यान-शक्ति के कारण वह माराजरंक सभी के बन्ध बन गए थे। सांसारिक प्राणियों के दुःख से दुःखी, त्रिकालज, भक्तवत्सल, महिंसाधर्म के उपदेशक, भगवान महावीर वास्तव में हम सबके लिए पूज्य है।' राणा सिद्धार्य राजा सिद्धार्थ विदेह देश में अवस्थित कुण्डनपुर नगर के शासक हैं। उनमें सौम्पयं, धैर्य, दानशीलता, प्रजावत्सलता, स्वास्थ्य, पराक्रम, यश, सम्पत्ति इत्यादि गुण विद्यमान है । वह श्रेष्ठ धनुर्धर हैं । पुरुषार्ष-चतुष्टय के शाता हैं। वर्णाश्रमव्यवस्था का सम्यक प्रबन्ध करने में रुचि रखते हैं । सम्पूर्ण विवानों से सम्पन्न है एवं राजनीतिक भी हैं। उनमें मानवक्ष प्रबुख है। रानी प्रियकारिणी की स्वप्नाबली का मयं बताने में उन्हें किसी की सहायता उपेक्षित नहीं है । शत्रुषों का संहार करने वाले वह राजा अपनी रानी प्रियकारिणी से प्रत्यधिक प्रेम करते हैं, और उसकी सुरक्षा हेतु प्रयत्न भी करते हैं । १. बीरोदय, १२।२२-४. २. बही, ६१-१७, १०१२-२१ ३. वही, ६॥२४, ३३-३८ ४. वही, ३॥१.१४ ५. बही, ४१३७-६२ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य-एक अध्ययन ऐसे ही योग्य शासक को, भगवान् महावीर ने उनके घर में जन्म लेकर पिता बनने का सौभाग्य प्राप्त कराया है। भगवान् को पुत्र रूप में प्राप्त करके सिद्धार्थ अधिक हर्षित होते हैं। उनका लालन-पालन बड़े चाव से करते हैं। अपने पुत्र की हर इच्छा पूरी करने में सचेष्ट रहते हैं। उत्तरदायी पिता की तरह युवावस्था प्राने पर पुत्र का विवाह भी करना चाहते हैं। किन्तु पुत्र को वैराग्य भावना को देखकर, उसके.ज्ञान और उसके प्रति प्रतिशय स्नेह के कारण उससे पुनः पुनः गृहस्थ जीवन विताने हेतु हठ भी नहीं करते ।' प्रत: राजा सिद्धार्थ ज्ञान, संतोष, धर्मशीलता इत्यादि गुणों के समूहरूप हैं। प्रियकारिणी ___ यह राजा सिद्धार्थ की पट्टमहिषी हैं। इन्हें महावीर को माता होने का सौभाग्य प्राप्त है । यह सौन्दर्य और प्रभावशाली व्यक्तित्व से सम्पन्न हैं। यह रानी अपने मधुर व्यवहार से सबको माकर्षित करने वाली हैं। सभी याचकों की कामना पूर्ण करने वाली हैं । इनका मुख चन्द्र के समान सुन्दर है। इनके शरीर के अंग श्रेष्ठ उपमानों के उपमेय हैं। इनके नेत्र चंचल और करतल मंगे के समान लाल हैं। यह सुन्दर चेष्टानों और सौन्दर्य से राजा सिद्धार्थ के मन को जीतने में पूर्ण समर्थ हैं। इनकी भुजलतामों में कमलनाल की सी कोमलता है, बाल अत्यन्त घने हैं, गमा शंख के समान है, जंघायें पुष्ट और सुन्दर हैं, तथा स्तनद्वय पर्याप्त समुन्नत हैं। इनमें विद्या मोर बुद्धि दोनों विद्यमान हैं । विनम्रता, सरलता, निर्मलता, दूरदशिता इत्यादि गुण इनमें अतिशयता से विद्यमान हैं । यह जैनधर्ममतावलम्बिनी हैं। साथ ही यह जैन-धर्म के नियमों मोर पालनीय कर्तव्यों को अच्छी तरह जानती भी हैं । अपनी सेवा के लिए आई हुई देवियों के साथ यह मधुर व्यवहार करती हैं। उन्हें समय-समय पर जन-धर्म का उपदेश भी देती हैं । इनके गुणों से प्राकष्ट देवियाँ इनकी सेवा बड़ी तत्परता से करती हैं। __ यह पतिव्रतामों में अग्रगण्य हैं। अपने मन की कोई बात पति से नहीं विपाती हैं । यह पति को प्रसन्न करना भी जानती हैं। रात्रि में देखे गए सोलहस्वप्नों को यह प्रातःकाल होते ही अपने पति को बता देती हैं। भगवान् को पत्र रूप में पाकर यह अपने को धन्य समझती हैं । इस प्रकार यह श्रेष्ठ स्त्रियों में अपने गुणों से मूर्धन्य हैं। १. वीरोदय, ८।२२-४६ २. वही, ३॥१५-३६ १. वही, २२१-३४ ४. वही, ५-१८, ३५-४२ ५. वही, ४१२७-३६ ... वही, ४१६२, ६।४० Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर को पारयोजना श्री, ह्रो देवियाँ ___ भगवान महावीर के गर्भावतरण के पश्चात् देवराट इन्द्र की प्राज्ञा से श्री, ह्री इत्यादि देवियां माता प्रियकारिणी की सेवा हेतु पाती हैं। राजा की अनुमति पाते हो रानी की सेवा में जुट जाती हैं। यह देवियाँ भगवान् महावीर के प्रति हृदय में भक्ति को धारण करती हैं। अपने आराध्य देव की माता की सेवा करके वे अपने को धन्य समझतो हैं । माता के साथ-साथ ही भगवान् की पूजा भी कर लेती हैं। ये अत्यन्त प्राज्ञाकारणी हैं। रानी प्रियकारिणी की प्रत्येक प्राज्ञा शिर झका कर स्वीकार कर लेती हैं. प्रौर पुन: नवीन प्राज्ञा की प्रतीक्षा करती हैं। वे रानी को सेवा निष्काम भाव से करती हैं। उन्हें सेवा के बदले में कोई पारिश्रमिक नहीं लेना है । बस, उनका काम तो इन्द्र की प्राज्ञा को पूरा करना है । ये सभी देवियाँ अत्यन्त कायं कुशल हैं। रानी को स्नान कराने, उसकी साज सज्जा करने, उसे सुस्वादु भोजन कराने, गीत-नत्य-वाद्यादि से उसका मनोरञ्जन करने, उसे नमण कराने, उसके साथ धर्मवार्ता करने इत्यादि सभी कार्यों में पारंगत हैं । व्यवहारकुशलता भी इनका गुण है। ये रानो से अत्यन्त मधुर मौर विनम्र व्यवहार करती हैं। उसको कभी अकेला नहीं छोड़ती। उसकी सेवा में प्रहमहमिकया भाग लेती हैं। रानी की इच्छाप्रो में कोई बाधा उपस्थित नहीं करतीं। अपने सुन्दर व्यवहार से शीघ्र ही ये देवियां माता को अनुकूल करने में सफल हो गयीं, और उसके हृदय में इन्होंने अपने लिए स्थान भी बना लिया। सुदर्शनोदय के पात्र :सुदर्शन सुदर्शन वैश्यकुलभूषण है । उसके पिता नगर के प्रतिष्ठित सेठ हैं। उसकी माता जिनमति वास्तव में ही जिनमति भगवान् के प्रति बुद्धि रखने वाली है। अधिक सौन्दर्यशाली होने के कारण हो पिता ने उनका नाम सुदर्शन रखा है। १. बीरोदय, ५।४, ६, १६ २. बही, ५१५, ७ ३ वही, ५।८-१६, २५, २६, ३३-४२ ४. सुदर्शनोदय, २०४ ५. 'सुतदर्शनतः पुराऽसको जिनदेवस्य ययौ सुदर्शनम् । इति चकार तस्य सुन्दरं सुतरां नाम तदा सुदर्शनम् ॥' वही, ३३१५ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य-एक अध्ययन उसने अपनी बालक्रीड़ामों से अपने माता पिता एवं परिजनों को मोह लिया है।' उसमें महापुरुषों के लक्षण हैं। इसी कारण उसकी माता उसके जन्म के पूर्व उसकी घोरता, दानवीरता; सद्गुणसम्पन्नता, देवप्रियता, मुमुक्षता मादि गुणों को सूचित करने वाले सुमेरु पर्वत, कल्पवृक्ष, रत्नाकर, निम प्रग्नि और प्राकाशचारी विमान को स्वप्न मे देखती हैं। सुदर्शनोदय महाकाव्य का नायक सुदर्शन 'सुदर्शनोदय' महाकाव्य की कथा का केन्द्र होने के कारण इस काम्य का नायक है । काव्यशास्त्रीय दृष्टि से उसे धीरप्रशान्त नायक की कोटि में रखा जा सकता है। मरभुत ग्रहण शक्ति ___ सुदर्शनोदय में किसी वस्तु को ग्रहण करने की अद्भुत क्षमता है। कुमारा. वस्था में विद्याप्राप्ति के लिए उसे गुरुजनों के पास भेजा गया । शीघ्र ही उसने सभी विचामों को ग्रहण कर लिया। सरस्वती देवी उसकी वशवर्तिनी हो गई। मादर्श प्रेमी और पति जिन मन्दिर में पूजन के लिए गया हुआ सुदर्शन, सेठ सागरदत्त की पुत्री मनोरमा के प्रति प्राकर्षित हो जाता है। बाद में सुदर्शन एवं मनोरमा का विवाह भी हो जाता है, किन्तु सुदर्शन ऐसा मनुकूल नायक है कि मनोरमा के अतिरिक्त अन्य किसी स्त्री की ओर प्रांख उठाकर भी नहीं देखता। साधारण स्त्रियों की तो बात हो क्या, रानी अभयावती के सामन्त्रण को भी वह ठकरा देता है। स्पष्ट है कि पूर्वजन्म के समान ही इस जन्म में भी वह मनोरमा से सच्चा प्रेम करता है। पैराग्यमावना जैसे ही सुदर्शन के पिता एक ऋषिराज से दीक्षा लेकर मुनि बन जाते हैं, १. सुदर्शनोदय, ३१२०-२७ २. वही, २०११-१८, ३६-४. ३. सामान्यगुणयुक्तस्तु धीरशान्तो विजादिकः । -दारूपकः शचतुर्ष का उत्तरार्ष । ४. सुदर्शनोक्य, ३१३१ ५. बही, २३४, ४८ १. 'अनुकूलस्स्वेकनायिकः।' -दशरूपक, २१७वीं कारिका के उत्तरार्षका अन्तिम परण। ७. सुदर्शनोदय, २९ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर की पात्रयोजना वैसे ही उसके मन में भी विरक्ति उत्पन्न हो जाती है। वह भी उन मुनि से अपने हृदय की दुर्बलता का निवेदन करता है। कपिल ब्राह्मणी, रानी मभयमती पोर देवदत्ता वैश्या के कुत्सित माचरण से उसके मन में उत्पन्न हुमा वैराग्य का बीज अंकुर का रूप धारण कर लेता है। अन्त में अपनी पत्नी के सहयोग प्रौर सहमति से वैराग्य का अंकुर वृक्ष का रूप धारण कर लेता है। अपने सत्प्रयत्न से बाद में वह कंवल्य लाम भी कर लेता है। ऋषि-मक्ति एवं सेवा भावना अपने पिता के ही समान सुदर्शन के हृदय में भी समाज के उतारक ऋषियों प्रति भक्ति-भावना है। सेठ वषमदास को दीमा देने वाले ऋषि के प्रति तो वह नतमस्तक हो ही जाता है, साथ ही उनके समझाने पर प्रादर्श-गहस्थ धर्म का पालन भी करता है। वैराग्य उत्पन्न हो जाने पर वह जिनमन्दिर के एक मुनिराज से दीक्षा लेकर दिगम्बर मुनि बन जाता है। उसके मन में ऋषि मुनियों के प्रति भक्तिभावना इस जन्म से नहीं, अपितु पूर्वजन्म से ही विद्यमान है। पूर्वजन्म में भी उसने एक ऋषि की निष्काम भाव से सेवा की थी। जैन धर्म के प्रति प्रास्थावान सुदर्शन की जैनधर्म मौर जिनेन्द्रदेव पर अत्यधिक श्रद्धा है । समय-समय पर वह जिनमन्दिरों में जाकर अपने भक्तिभावना से मोतप्रोत गीतों से भगवान् को प्रसन्न करने का प्रयत्न करता रहता है। मुनियों द्वारा व्याख्यात जैनधर्म के उपदेशों का भी उस पर खूब प्रभाव पड़ता है। अन्त में स्वयं जैनधर्म का महान् ज्ञाता बन जाता है और जनता को धर्माचरण-हेतु प्रेरित भी करता है ।' त्यागो सुदर्शन के पास भोग के साधनों की कोई कमी नहीं है । उसकेरू प-सौन्दर्य पर मोहित होकर कपिला, अभयमती और देवरता उसे मामन्त्रित करती हैं। १. सुदर्शनोदय, ४११५ २. वही, ४११५ ३. बही, २२०, ७२१-२६ ४. बही, २३-३२ ५. वही, ९८५-८६ ६. वही, ४४७ ७. वही, ८॥३२ ८. वही, ४१३२-२५ बही, पञ्चम सर्व के प्रारम्भ के गीत । १०. वही, ९।-१०, ३-७१ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० महाकवि ज्ञानसागर के काव्य-एक अध्ययन किन्तु वह युक्तिपूर्वक तीनों स्त्रियों को ठुकरा देता है, वासना का कोई भी करण उसे छूने में असमर्थ है।' सुदर्शन के प्रभावशाली व्यक्तित्व से प्राश्चर्यचकित राजा घात्रीवाहन उसे अपना राज्य तक देने को तैयार हो जाता है, किन्तु वह उसे ग्रहण नहीं करता। अन्त में अपना घर भी छोड़ देता है । वास्तव में उसका त्याग सराहनीय है। संगीत प्रिय - सुदर्शन में साहित्य, संगीत और भक्ति का अद्भुत समन्वय दृष्टिगोचर . होता है । वह जिनदेव का भक्त है । जिनदेव का पूजन करते समय वह जिन भजनों को गाता है, उनमें अनेक राग-रागिनियों का प्रयोग करता है। उसे प्रभातकालीन राग रसिक राग, काफी होलिकाराग, श्यामकल्याण प्रादि शास्त्रीय रागों का ज्ञान है। उसके द्वारा प्रस्तुत एक भजन में उसको साहित्यप्रियता, संगीतप्रियता पौर भक्तिभावना का दर्शन कीजिये "कदा समयः स समायादिह जिनपूजायाः ॥ कञ्चनकलशे निर्मलजलमधिकृत्य मञ्जुगङ्गायाः । वारांधारा विसर्जनेन तु पदयोजिन मुद्रायाः लयोऽस्तु कलङ्ककलाया: ।।" --'सुदर्शनोदय'-५। काफी होलिकाराग-गीत की प्रथम पंक्तियां । चारित्रिक दृढ़ता--- सुदर्शन में पाठक को प्रभावित करने वाला गुण है-उसको चारित्रिक दृढ़ता । मनोरमा से विवाह हो जाने के पश्चात्, कपिला, प्रभयमती पोर देवदत्ता ने पृथक-पृथक उसे डिगाने की कोशिश की, किन्तु वह पर्वतराज हिमालय की तरह अचल रहा । उसको दृढ़ता के सामने तीनों कुलटानों के प्रयत्न निष्फल हो गये।' कल्पना कीजिये कि स्त्रियों के इन कुचक्रों से पुरुष अप्रभावित कैसे रह सकता है ? यह तो सुदर्शन जैसे दृढ़ व्यक्तित्व से ही सम्भव है । वह कपिला को युक्ति से, अभयमती को मौन से और देवदत्ता वेश्या को धार्मिक वचनों से पराजित करके अपनी स्तुत्य सहनशीलता का परिचय देता है। विनम्र एवं सरल सुदर्शन में एक अोर हिमालय की सी दृढ़ता है तो दूसरी मोर फलों के भार से नत वक्षों के समान विनम्रता भी। कपिला को दासी के वचनों पर वह शीघ्र १. सुदर्शनोदय, ५४७, ७।२६, ६।३० २. वही, ८।१२-२८ ३. वही, १४७, ७।३०, ९३. Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर को पात्रयोजना ... १७१ ही विश्वास करके उसके घर चल पड़ता है। स्त्रियों के दुराचरण के प्रतिशोष की भावना उसके मन में नहीं पाती। वह इतना लज्जाशील है कि अपने मोर मनोरमा के प्रेम का निवेदन स्वयं अपने माता-पिता के समक्ष नहीं कर पाता। मित्रों के माध्यम से ही उसके पिता उसकी मनोदशा जान पाते हैं। राजा धात्री. वाहन जब अपनी रानी के झूठे प्रपञ्च पर विश्वास करके उसको दण्डित करना चाहते हैं, तब भी वह विनम्र होकर अपने मौन से उनकी प्राज्ञा. स्वीकार कर लेता है । प्रतएव सुदर्शन मधुर व्यवहार वाला, लोकप्रिय, नवयुवावस्था में विद्यमान, तेजस्वी, परमधार्मिक एवं पवित्र प्राचरण करने वाला है । मनोरमा यह चम्पापुर में निवास करने वाले सागरदत्त नामक सेठ की पुत्री है और 'सुदर्शन' काव्य के नायक सुदर्शन की पत्नी है। अत: यह इस काव्य की नायिका है। काव्य-शास्त्रीय दृष्टि से इसे स्वीय नायिका की श्रेणी में रखा जा सकता है। सौन्दर्यशालिनी मनोरमा का सौन्दर्य नगर में प्रसिद्ध है। उसके इसी सौन्दर्य पर सुदर्शन मुग्ध हो जाता है और उससे प्रेम करने लगता है। सदर्शन के पूर्वजन्म की कथा बताने वाले ऋषिराज भी उसके सौन्दर्य की प्रशंसा करते हैं। उसके सौन्दर्य मोर सौभाग्य का वर्णन रानी प्रभयमती भी करती है ।५ कपिला भी उसके सौन्दर्य की मोर प्राकृष्ट है । पतिव्रता मनोरमा सुदर्शन को प्रथम दर्शन से ही प्रेम करने लगती है । मित्रों से समाचार जानकर जब वृषभदत्त मनोरमा और सुदर्शन का विवाह कर देते हैं, तब तो मनोरमा पूर्णरूपेण ही उसकी हो जाती है। उसके पातिव्रत्य में उसका पूर्वजन्म १. सुदर्शनोदय, ३४२ २. वही, ७३६, ८।४-८ ३. 'नायकसामान्यगुणभवति यघासम्भवर्यक्ता ।। .. विनयावावियुक्ता गृहकर्मणा पतिव्रता स्वीया । -साहित्यदर्पण, ३।६८-६६ ४. देवीयं ते महाभाग समा समतिलोत्तमा ।' ___ -- सुदर्शनोदय, ४।३८ का उत्तरार्ध । ५. वही, ६५ ६. वही, ६४ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य-एक अध्ययन का संस्कार भी सहायक है । वह पूर्वजन्म में भी, जब सुदर्शन भीम पा, उसकी पत्नी थी। यह उसके पातिव्रत्य का ही प्रभाव है कि सुदर्शन अन्य किसी स्त्री पर मासक्त नहीं होता । जब सुदर्शन उसके समक्ष मोक्षानुगामी होने की इच्छा प्रकट करता है, तो वह भी उसी मार्ग का अनुसरण करती है और आर्यिका बनने का निश्चय कर लेती है। वह सदैव पति के अनुकूल रहती है और उसकी इम्यामों का प्रादर करती है। वैराग्यमावना से युक्त ___ सत्पथगामिनी मनोरमा ने पूर्वजन्म में एक बार एक धोनी की पुत्री के रूप में जन्म लिया था। इस जन्म में प्रायिका-संघ की संगति में वह क्षुल्लिका हो गई पौर उच्चकुलीन स्त्रियों के ही समान पूज्या हो गई। प्रत्यावश्यक वस्त्र पोर पात्रों के अतिरिक्त उसने अन्य सभी वस्तुओं का परित्याग कर दिया। अनेक गणों से सम्पन्न वह उपवास इत्यादि भी रखती थी, और हिंसा से सर्वथा दूर थी। इस जन्म में भी मनोरमा वैसी ही निर्मल अन्तःकरणवाली है। पूर्वजन्मों के संस्कारवा पति के वैराग्य धारण करते ही वह स्वयं भी प्रायिका बनने का निश्चय कर लेती है। मनोरमा के निश्चय से सुदर्शन का प्रात्मबल और भी बढ़ जाता है। प्रायिका बनकर मनोरमा सारे प्रपंचों को त्याग देती है।" संक्षेप में मनोरमा.प्रपने सौन्दर्य, पतिभक्ति, मधुरव्यवहार, सरमता, संतोष इत्यादि गुणों के कारण ही स्त्रियों में श्रेष्ठ हो जाती है, और प्रभयमती, कपिला, इत्यादि को पराजित करके पाठक के हृदय में नायिका के रूप में स्थान पा लेती है। प्रमयमती यह चम्पापुर के राजा धात्रीवाहन की रानी है । अपने रूप, सौन्दर पोर पातुर्य से यह अपने पति को रिझाने में समर्थ है। साथ ही कुटिलता भी इसमें कूट-कूट कर भरी हुई है। यह कामान्य है और अपने दुराचरण से काग्य की सम. नायिका भी है। १. सुदर्शनोदय, ४।२८-२९, ३७ २. "प्राणाधार भवांस्तु मां परिहरेत्समवाञ्छया निवते: किन्वानन्दनिबन्धनस्त्वदपरः को मे कुलीनस्थितः । नाहं त्वत्सहयोगमुज्झितमलं ते या गतिः सेव मेस्त्वार्याभूयतया चरानि भवतः सान्निध्यमस्मिन् क्रमे ॥" . -सुवर्शनोदय, ८।२७ ३. वही, ४१२८-३७ ४. वही, ८।३३.३४ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर की पात्रयोजना सुदर्शन की प्रशंसक— उद्यान-विहार के लिए एकत्र लोगों में कपिला, प्रभयमती इत्यादि स्त्रियां भी हैं । कपिला मनोरमा का परिचय जानना चाहती है तो रानी प्रभयमती उसे राजसेठ सुदर्शन की बताती है । वह सुदर्शन को दर्शनीय पुरुषश्रेष्ठ बताती है । ' I कान्मारध सुदर्शन से समागम की इच्छक रानी वासना में इतनी मन्धी हो जाती है कि उसे अपनी भौर अपने पति की प्रतिष्ठा का जरा भी ध्यान नहीं रहता । स्पष्ट है कि बहु मात्र प्रपने पति से सन्तुष्ट नहीं है, वह प्रपनी पण्डिता दासी से सुदर्शन को महल में ले माने का प्राग्रह करती है । पण्डिता दासी उसे उसकी स्थिति समझाती है कि एक राजमहिषी की ऐसी चेष्टा ठीक नहीं। साथ ही वह सीता जैसी पतिव्रता स्त्रियों का प्रादर्श उसके समक्ष रखती है, किन्तु कामान्ध, हठी रानी उसकी किसी बात से प्रभावित नहीं होती, वह पुनः पुनः पण्डिता दासी से येन केन प्रकारेण सुदर्शन को ले माने का प्राग्रह करती है, विवश होकर पण्डिता को उसका प्राग्रह मानना ही पड़ता है। १७३ निर्लज्ज - fosता दासी युक्तिपूर्वक सुदर्शन को रानी के पास ले प्राती है मीर उसको पलंग पर लिटा दिया जाता है। रानी हर्षित होकर सुदर्शन के समक्ष अपनी संभोगइच्छा प्रकट कर देती है । निर्लज्जता के साथ-साथ वह शरीर के वस्त्रों को उतारते हुए सुदर्शन की कामाग्नि को प्रज्वलित करने की चेष्टा करती है। दुराचारिणी - सुदर्शन को डिगाने में प्रसमर्थ होकर जब रानी प्रभयमती निराश हो जाती है, तो वह पण्डिता दासी से उसको कक्ष से बाहर करने का उपाय पूंछती है । पण्डिता दासी के समझाने पर जोर-जोर से हल्ला मचाकर समस्त परिजनों को एकत्र कर लेती है । जिस सुदर्शन से समागम की उसने इच्छा की थी, उसको १. सुदर्शनोदय ६।५ २. बही, ६।१९ ३. वही, ६।२०- २३, एवं २३ के बाद का गीत । ४. वही, ६।२९ एवं साथ का गीत । ५. बही, ७।१६-२० Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य-एक अध्ययन अपमानित करवाने में भी उसने कोई कसर न रखी।' . सुदर्शन के निर्दोष सिद्ध हो जाने पर उसने निन्दा के भय से प्रात्म-हत्या कर ली मोर पाटलिपुत्र में वह व्यन्तरी देवी हो गई। इस योनि में प्राकर भी उसने तपस्वी सुदर्शन को नहीं छोड़ा और उसे भौति-भांति के कष्ट दिये । इस प्रकार रानी प्रभयमती कुटिला स्त्रियों का प्रतिनिधित्व करने वाली है। सेठ वषमदास- यह चम्पापुर का प्रसिद्धिप्राप्त वैश्यवर है। सद्गुण, चतुराई, चिन्तनशीलता दानशीलता इत्यादि गुण इसमें प्रचुर मात्रा में विद्यमान हैं। यह काव्य के नायक सुदर्शन का पिता है। पत्नी एवं पुत्र से प्रेम रखने वाला सेठ वृषभदास को अपने पुत्र मोर पत्नी से अत्यधिक प्रेम है। मुनि के मुख से सन्तान-प्राप्ति के विषय में सुनकर इसे प्रत्यधिक हर्ष होता है; और पत्नी के गर्भवती होने पर यत्नपूर्वक उसकी रक्षा करता है। अपने यहां पुत्रोत्पत्ति का समाचार जानकर हर्षित होता है । वात्सल्य से इसका हृदय भर जाता है। प्रसूतिका-गृह में जाकर माता एवं शिशु का गन्धोदक से संस्कार करता है । पुत्र के सौन्दर्य को देखते हुए यह उसका नाम 'सुदर्शन' रख देता है। उत्तरदायी पिता सुदर्शन पोर मनोरमा के परस्पर प्रेम व्यवहार को जानकर यह पुत्र के लिए चिन्तित हो जाता है। मनोरमा के पिता सागरदत्त की प्रार्थना पर यह प्रसन्नतापूर्वक मनोरमा और सुदर्जन के विवाह की स्वीकृत दे देता है। जिनदेव का मक्त और दानशील ___सेठ वृषभदेव की जिनदेव पर पूर्ण प्रास्था है। पत्नी के स्वप्न देखने पर १. "पावजताऽऽव्रजत त्वरितमितः भो द्वास्थजनाः कोऽयममितः । मुक्तकञ्चुको दंशनशीलः स्वयमसरलचलनेनाश्लीलः । भुजगोऽयं सहसाऽभ्यन्तरितः पावजताऽऽव्रजत त्वरितमितः ॥१॥ परिरूपोऽस्माकं योऽप्यमनाक्कुसमन्ध्यताभिसत मनाः (१)। कामलतामिति गच्छत्यभितः पावजताऽऽव्रजत त्वरितमितः ॥२॥ -सुदर्शनोदय, ७।श्लोक ३४ के बाद का गीत २. वही, ८।३५ ३. वही, २१३७-४६ ४. वही, ३४-५, ७, १२, १५ ५. वही, ३४६-४७ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर को पात्रयोजना १७५ यह उसको लेकर मन्दिर जाता है।' पुत्र प्राप्ति हो जाने पर भी जिनदेव के मन्दिर जाकर उसका पूजन करता है । इसी अवसर पर नागरिकों को प्रचुर मात्रा में धन देता है । जन-मुनियों पर प्रास्था ___ सेठ वृषभदास जिन मुनियों के प्रति प्रतिश्रद्धावान् हैं। पत्नी के द्वारा देखे गए स्वप्नों का वृत्तान्त जानने के लिए यह एक मुनि की ही शरण में जाता है, मोर पौर विनय पूर्वक प्रपना अभिप्राय उनसे कहता है । सुदर्शन के विवाह के पश्चात् नगर के उपवन में माए हुए ऋषिराज का दर्शन करने के लिए सपरिवार प्रस्थान करता है । उनके धर्मोपदेश से प्रभावित होकर दैगम्बरी दीक्षा ग्रहण कर लेता है। स्पष्ट है कि सेठ वृषभदास स्नेहशीन पति, पिता एवं एक धार्मिक नागरिक जिनमति यह सेठ वृषभदास की पत्नी है। यह सुकुमार देहयष्टि वाली, सौन्दर्यसम्पन्ना, सरल, पतिव्रता, प्रतिथि वत्सला, आभूषण सुसज्जिता, काले केशपाशों से युक्त, मच्छे कार्य करने वाली, मधुरभाषिणी भोर जिनदेव की परम भक्त है।' इसे सुदर्शन की माता होने का सौभाग्य प्राप्त है ।। श्रेष्ठ पुरुषों की माता के समान ही इसे भी पुत्र के जन्म से पूर्व दिव्य स्वप्न दिखाई देते हैं। इस प्रकार कुलीन स्त्रियों के गुणों से यह विभूषित है । पात्रीवाहन यह अंग देश में स्थित चम्पापुरी का शासक है। यह अनुपमेय, प्रतापशाली, नीतिज्ञ, युद्धवीर, प्रजावत्सल और अत्यधिक दानशील है। कुटिला रानी अभयमती इसी की पत्नी है । यह भगवान महावीर का ही समकालिक है। अपनी पत्नी पर . इसका प्रत्यधिक विश्वास है और यह सबसे अधिक प्रेम भी करता है। सम्भवतः १. सुदर्शनोदय, २।२४ २. वही, ३१५ ३. वही, ३६ ४. बही, २।२२-३४ ५. वही, ४११४ ६. वही, २।४-६ ..७. वही, २०१०-१६ ८. वही, ११३८-४०, ४५ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकविमानसागर के काम्य-एक अध्ययन अभवमती को कुटिलता पर ध्यान नहीं देता। अपनी पत्नी से प्रेम के कारण मोर बल्दबाजी से यह किसी और की बात नहीं सुनता । इसलिए अभयमती के प्रलाप को सुनकर यह विन सोचे-बिचारे सुदर्शन को अपने सेवकों द्वारा चाण्डाल के पास भेज देता है। चाण्डाल के प्रहार के निरर्थक हो पाने पर राजा स्वयं ही सुदर्शन को मारने की इच्छा से घटनास्थल पर पहुंच जाता है। किन्तु प्राकाशवाणी से वास्तविकता का ज्ञान होते ही यह सुदर्शन को महिमा से परिचित हो जाता है, उससे क्षमा मांगता है, यहां तक कि अपना राज्य भी उसे सौंपने को तैयार हो जाता है। एक नप में स्पिरमतिता एवं विवेकशीलता का जो गण होता है, उसका धात्रीवाहन में पूर्ण प्रभाव है । गम्भीरता से विचार करने की इसमें शक्ति नहीं है। यह कभी किसी के पक्ष में हो जाता है और कभी किसी के। इसी कारण यह उचित न्याय करने में भी असमर्थ है। कपिला ब्राह्मणी यह चम्पापुर में रहने वाले कपिल ब्राह्मण को स्त्री है। यह कामवासना से बग्ध रहती है । अन्य विघ्नबाधामों के समान सुदर्शन के साधना-मागं में यह भी बाषा-स्वरूपा ही है। कामुकी मन्दिर से लौटते हुए सुदर्शन के रूप-सौन्दर्य पर मोहित हो जाती है । अपनी दासी से छत-पूर्वक सुदर्शन को घर बुलवाती है । तत्पश्चात् उससे प्रणयनिवेदन करती है। प्रतिशोषमावनावती वसन्तोत्सव में सभी नगरवासियों के साथ यह भी बन-विहार के लिए पहुँचती है । सुदर्शन की पत्नी मनोरमा को देखकर यह रानी अभयमती से उसका परिचय पूंछती है। रानी अभयमतो से मनोरमा मौर सुदर्शन का परिचय पाकर अपने को ठगा जानकर यह प्रथम तो लज्जित होती है और फिर रानी द्वारा दिए मए उलाहनों की चिन्ता न करके रानी को सुदर्शन को वश में करने के लिए चुनौती दे देती है। १. सुदर्शनोग्य, ७३६ २. वही, ८-५-७, १०, १२-१३ ३. बहो, ५॥१.२० ४. वही, १३-१५ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर को पात्रयोजना १७७ उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि कपिला नारीजाति के लिए कलंक के समान है। उसमें कामुकता, निर्लज्जता, धूर्तता, प्रतिशोध की भावना, चंचलता और मज्ञानता इत्यादि सभी दुगंण विद्यमान हैं। पण्डिता दासी यह रानी प्रभयमती को दासो है । यह परमबुद्धिमती, प्राज्ञाकारिणी पौर स्वामिभक्त है । अवमर पाने पर यह अच्छे से अच्छा और बुरे से बुरा काम कर सकती है, बस रानी को प्रज्ञा होनी चाहिए। सुदर्शन को पाने के लिए व्याकुल रानो की मानसिक वेदना को यह नहीं सह पाती, और शीघ्र ही उसके दुःख का कारण भी पूछती है। प्रभयमती को वास्तविकता का ज्ञान होते ही यह उसे समझाती है । अपनी बातों से यह रानी को प्रबुद्ध करना चाहती है. इसे अपनी स्वामिनी के पद की प्रतिष्ठा का बहुत ध्यान है। स्वामिनी को समझाने के लिए दासी होते हुए भी सीता जैसी स्त्रियों के पातिव्रत्य धर्म का परिचय देकर पाठक को स्वामिनी के प्रति अपने हितचिन्तन का परिचय देती है । बुद्धिमती ___ जब यह देखती है कि इसके वचनों का रानी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा, तब यह पुनः रानी को समझाती है। उसे सुदर्शन के यश का भी ज्ञान है। साथ ही परपुरुष और परस्त्री के प्रति दृष्टिपात को उसी प्रकार समझती है, जैसे कि कोई कुत्ता जूठे भोजन को खाये ।' स्वामिभक्त अन्त में स्वामिनी के दुराग्रह पर प्रपने अस्तित्व का भी स्मरण करती है कि वह रानी की दासी है, उपदेशिका नहीं। इसलिए अपनी उपदेशात्मक प्रवृत्ति को छोड़कर स्वामिभक्त सेवक का रूप धारण करती है और पूजा हेतु मिट्टी के पुतले लाने के बहाने वह सदर्शन को श्मशान से उठा लाने की योजना बनाती है। पौर एक दिन उठा भी लाती है। 3 पूर्त जब रानी अपनी चेष्टा में असफल हो जाती है, तब वह पुनः पण्डितादासी से सुदर्शन को वहां से हटाने का उपाय पूछती है। तब हृदय से दुःखी पण्डितादासी रानी से 'त्रियावरित्र' दिखाने को युक्ति प्रयोग में लाने को कह देती है। उसकी यह युक्ति भी काम कर जाती है और सुदर्शन के प्राणों पर बन पाती है। १. सुदर्शनोदय, ६। क्लोक २५ के बाद का गोत । २. वही, ६।१६ मोर उसके बाद का गीत । ३. वही, ७८, १६ ४. वही, ७।३३।३६ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ महाकवि ज्ञानसागर के काम्य-एक अध्ययन प्रतिशोषमावनावती सुदर्शन के निर्दोष हो जाने पर जब रानी प्रात्मघात कर लेती है, तब पण्डितादासी चम्पापुर छोड़कर पाटलिपुत्र पहुँच जाती है। वहां रहने वाली एक देवदत्ता वेश्या की सेवा करने लगती है, और उसे सब वृत्तान्त सुना देती है। यह उसे सदर्शन के व्रत को भंग करने के लिए प्रेरित करती है। पर असफलता मिलने पर अन्त में देवदत्ता के साथ-साथ वह भी प्रायिका-व्रत धारण कर लेती है।' इस प्रकार पण्डितादासी में हमें स्वामिभक्ति, कुशलता, बुद्धिमत्ता इत्यादि गुणों के साथ ही धूर्तता, प्रतिशोध की भावना इत्यादि दुर्गुणों की भी झांकी देखने को मिल जाती है। जहां अपनी स्वामिभक्ति से यह पुरस्करणीय है वहां सुदर्शन जैसे निर्दोष व्यक्ति को बार-बार पीड़ा पहुंचाने के कारण दण्डनीय भी है । देवदत्ता वेश्या यह पाटलिपुत्र में रहने वाली एक वेश्या है। रानी अभयमती की दासी चम्पापुर से भागकर इसी की शरण में प्राती है । विवेकहीन यह विवेकहीन स्त्री है। यह सुदर्शन को अपनी इच्छा से नहीं, बल्कि पण्डितारानी के कहने पर पथभ्रष्ट करने की चेष्टा करती है। पण्डितादासी से सुदर्शन का परिचय पाकर उसे घर ले पाती है । कामुकी यह सुदर्शन के यतिवेश की हंसी उड़ाती है, और बार-बार उसके सौन्दर्य की प्रशंसा करती है । सुदर्शन के धर्मसम्मत वचनों से अप्रभावित रहकर अपनी कामचेष्टामों से उसे प्रभावित एवं उत्तेजित करने में प्रयत्नशील हो जाती हैं। 3. सुदर्शन की बढ़ता से प्रभावित .. देवदत्ता के तीन दिन तक प्रयत्न करने पर भी सुदर्शन अविचलित ही रहते है, तब यह उनकी दृढ़ता से प्रत्यन्त प्रभावित भी हो जाती है, उनकी सहनशीलता, नम्रता, बुद्धिमत्ता, परोपकारपरायणता प्रादि गुणों की स्तुति करके उनसे क्षमायाचना करती है और उनसे धर्मोपदेश करने की याचना करती है। १. सुदर्शनोदय, ६७४ २. वही, ९।१२-१३ ३. वही, ९।१४-१६, २७ और उसके बाद के गीत, एवं २८ ४. 'इत्येवं पदयोदयोदयवतोननं पतित्वाऽथ सा सम्प्राहाऽऽदरिणी गुणेषु शमिनस्त्वात्मीयनिन्दादशा। स्वमिस्त्वय्यपराद्धमेवमिह यन्मोहान्मया साम्प्रतं मन्तव्यं तदहो पुनीत भवता देयं च सूक्तामृतम् ॥ -सुदर्शनोदय ६३१ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर की पात्रयोजना सुदर्शन के वचनों से प्रभावित - सुदर्शन के जैनधर्मोपदेशामृत को सुनकर और उनका प्राशीर्वाद पाकर देवदत्ता का मोह नष्ट हो जाता है । मन में विरक्ति उत्पन्न हो जाने के कारण यह सुदर्शन मुनिराज से दीक्षा लेकर प्रायिका व्रत को धारण कर लेती है ।" देवदत्ता में कामचेष्टायें, वासनायुक्त कथन इत्यादि तो इसके व्यवसाय अनुरूप ही हैं । इसमें एक ही दुर्गुण विद्यमान है, वह यह कि सुदर्शन को डिगाने में उसने पण्डिता दासी की कुबुद्धि का उपयोग किया, अपने मस्तिष्क का नहीं । अन्य स्त्रियों (कपिला और प्रभयमती) की प्रपेक्षा यह भाग्यशालिनी है, तभी तो अपने अपराध के मार्जन हेतु यह सुदर्शन से क्षमायाचना करके त्याग और वेराग्य का मार्ग अपना लेती है । श्रीसमुद्रदत्तचरित्र के पात्र - 'भद्रमित्र १७६ श्रीपद्मखण्डनगर में रहने वाले वैश्यवर सुदत्त और उनकी पत्नी सुमित्रा के पुत्र का नाम भद्रमित्र की । प्रपने गुणों के कारण वह बालक सत्पुरुषों में प्रशंसनीय है। अच्छी-अच्छी बातों को वह शीघ्र ही ग्रहण करने वाला है । काव्यशास्त्रीय दृष्टि से वह 'श्रीसमुद्रदत्तचरित्र' महाकाव्य का घीर-प्रशान्त नायक । कवि ने उसके चार जन्मों का चित्र इस काव्य में खींचा है । स्वावलम्बी प्रौर कर्मठ भद्रमित्र अपने साथियों के बीच एक ऐसी कथा सुनाता है जिसमें स्वावलम्बन की शिक्षा मिलती है । उस कथा को सुनते ही भद्रमित्र अपने साथियों के साथ स्वयं घनाजंन करने का निश्चय कर लेता है । अपने निश्चय को वह अपने पिता के समक्ष प्रस्तुत कर देता है। उसके निश्चय को सुनकर जब उसके माता-पिता, उसके दूर जाने की बात से दुःखी होकर उसे रोकना चाहते हैं तो वह भावुक न होकर पिता का ध्यान कर्तव्य की ओर लगाता है और घर से रत्नद्वीप जाकर वह रत्नादि प्राप्त भी कर लेता है । ३ विदा ले लेता है । विनम्र और तार्किक - भद्रमित्र एकमात्र पुत्र होने पर भी प्रपने माता-पिता के समक्ष विनम्र होकर ही प्रपनी इच्छा प्रस्तुत करता है। उसके धनवान् पिता जब उसके धनार्जन की चेष्टा को अनावश्यक बताते हैं, तब अपने तर्कों से वह पिता का मुंह बन्द कर देता है । १. सुदर्शनोदय ६।३४ २. श्रीसमुद्रदत्तचरित्र, ३।१ ३. बही, ३।२ - १७ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० महाकवि ज्ञानसागर के काव्य - एक अध्ययन सरल और चतुर भद्रमित्र सरल हृदय वाला युवक है। सिंहसेन के धर्तमंत्री सत्यघोप पर वह एकदम विश्वास कर लेता है और उसे अपनी सारी अजित जमा पूंजी सौंप देता है।' किन्तु जब वह पुनः माता-पिता के साथ सिंहपर लौटता है और सत्यघोष से अपनी धनराशि मांगता है तो सत्यघोप स्पष्ट रूप से अस्वीकार कर देता है। भद्रमित्र यह सुनकर पहले तो उससे प्रार्थना करता है, किन्तु जब वह नहीं मानता तो उसे नीचा दिखाने की ठान लेता है, अपनी चतुराई से वह इस कार्य में भी सफल हो जाता है। सत्यवादी प्रौर सन्तोषी भद्रमित्र का सत्य पर पूर्ण विश्वास है। अपनी सत्यता से ही वह अपना अजित धन वापिस ले पाता है। राजा के हाथ में रखे हुये रत्नों के मध्य में केवल अपने ही रत्न उठाता है। अन्य रत्नों को भी देखकर उसकी नीयत खराब नहीं होती। दानशील-- अपने रत्न पाकर भदमित्र दानशील मोर सन्तोषी बन जाता है । वह अपनी सम्पदा का मुक्तहृदय से दान करता है। उसकी इस दानशील प्रवृत्ति से उसकी माता चिन्तातुर होकर उसे दान करने से रोकना चाहती है, पर माता की लोभी प्रकृति पर वह बिल्कल ध्यान नहीं देता। यहाँ तक कि माता उससे क्रुद्ध भी हो जाती है, और अगले जन्म में व्याघ्री बनकर उसको खा भी जाती है ।५ संयमी और रागहीन भद्रमित्र में संयम और वैराग्य दोनों ही गण प्राप्त होते हैं। राजा के हाथ में रखे हुए अन्य रत्नों को उठाने में उसका सत्य, संयम एवं सन्तोष बाधक हैं। अपनी माता. सत्यघोष मंत्री इत्यादि किसी ने भी उसके साथ कैसा ही व्यवहार किया हो; वह अपना संयम नहीं खोता : इस काव्य में भदमित्र के चार जन्मों का वृत्तान्त है -भद्र मित्र-सिंहचन्द्र-महमिन्द्र-चक्रायूघ । हम देखते हैं कि अपने इन सभी जन्मों में अन्ततोगत्वा उसके मन में वैराग्य उत्पन्न हो जाता है और वह समस्त सांसारिक सखों को छोड़ देता है। १. श्रीसमुद्रदत्तचरित्र, ३।२५-२७ २. वही, ३।३४-३० ३. वही, ४१.२ ४. वही, ४६ ५. ४८, ९ ६. वही, ४१८, ७।२३-३३ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर को पात्रयोजना १८१ भूतमविष्यत् का ज्ञाता और जैनधर्मोपदेशक सिंहचन्द्र का जन्म पाकर जब भद्रमित्र वैराग्य धारण करता है, उस समय . अपनी माता रामदत्ता की उसके पूर्वजन्म के वृत्तान्तों से अवगत कराता है। उसे जन.धर्म के ऐसे-ऐसे उपदेश देता है कि पाठक को उसकी सराहना करनी हो पड़ती है।' तपस्वी और भक्त प्राय: प्रत्येक जन्म में भद्रमित्र ने वैराग्य धारण करके तपस्या की है । अपने प्रथम जन्म में वरधर्म नामक मुनिराज का उपदेश सनकर ही भद्रमित्र में दानशीलता का गुण बढ़ गया ।२ प्रपने दूसरे जन्म में पूर्णविधु मुनि के सामीप्य में भदमित्र (सिंहचन्द्र) मुनि बन गया, उसने तप किया। इसी जन्म में उसने अपनी माता को भी प्रबुद्ध किया।' प्रानी कठिन तपस्या के फलस्वरूप सिंहचन्द्र ने अन्तिम ग्रेवेयक में इकतीस सासर को घायु वाले प्रहमिन्द का पद प्राप्त किया। अपने चतुर्थ जन्म में भी भद्रमि र ( बकायुध) जिनेन्द्र भगवान् का भक्त था। प्रौढ़ावस्था माने पर जब उसने देखा कि उसके केश कालिमा को छोड़कर श्वेतिमा धारण कर रहे हैं तो उसके मन में वैराग्य प्रा गया। वह प्रपना सारा राजपाट छोड़कर अपने ही पिता अपराजित जो दिगम्बर मुनि हो चुके थे-के पास पहुँचा । उनके उपदेश से वह भी मुनि बन गया। उसने उपभोग की सारी सांसारिक-वस्तुप्रों का परित्याग कर दिया। निरन्तर तप और साधना में ही उसने अपना ध्यान लगा दिया। अन्त में उस योगिराज ने कैवल्म प्राप्त कर लिया । सत्यषोष यह सिंहपुर के राजा सिंहसेन का मंत्री है। इसका नाम श्रीभूति है और जाति से ब्राह्मण है । इसने अपने गले में एक छुरी बांध रखी थी; और यह घोषणा कर रखी थी कि-'मैं कभी झूठ नहीं बोलंगा, यदि कभी झूठ बोला तो इसी छरी से प्रात्मघात करूंगा' । उसके इसी प्रचार के कारण इसका नाम 'सत्यघोष' पड़ गया है। प्रसत्यवादी प्रौर कपटी इसकी प्रसिद्धि तो सत्यवादी के रूप में है, किन्तु है यह झूठ बोलने वालों में १. श्रीसमुद्रदत्तचरित्र, ४।२२-३६ २. वही, ४१६ ३. वही, ४।१८, ४।२२-३६ ४. वही, ५११६ ५. बही, सातवां सर्ग। Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १८२ महाकवि - ज्ञानसागर के काव्य - एक प्रध्ययन अग्रगण्य । भद्रमित्र की धरोहर को यह वापस नहीं करता है मोर उल्टे उसे ही झूठा कहकर सभा से निकलवा देता है ।" प्रमादी सत्य के प्रति तो सत्यघोष प्रमादी है ही, साथ ही व्यवहार में भी प्रमाद करता है । वह तो अपने को कुशल समझता है, किन्तु दूसरे की चतुराई नहीं समझ पाता । रानी रामदत्ता के ग्रामन्त्रण पर वह उसके साथ शतरंज खेलने को तैयार हो जाता है | रानी रामदत्ता उसे हराकर उसकी छुरी, जनेऊ भोर मुद्रिका पर प्रधिकार प्राप्त कर लेती है। इन्हीं तीनों वस्तुनों को वह उसकी प्रनुपस्थिति में उसके घर भेज कर दासी से भद्रमित्र के सातों रत्न माँग लेती है । भद्रमित्र को ठगने वाला सत्यघोष रानी के द्वारा मात खा जाता है । प्रतिशोध की भावना से युक्त जब दरबार में सत्यघोष की वास्तविकता का ज्ञान होते ही उसे प्रपदस्थ करके घम्मिल को मंत्री योर भद्रमित्र को राजसेठ बना दिया जाता है तो सत्यघोष अपनी मानहानि से क्षुब्ध होकर, चिन्ता में घुल-घुल कर मृत्यु को प्राप्त होता है । 3 मरकर सर्प हो जाता है। राजा के भण्डार में सर्प रूप में रहने वाला वह दुष्ट एक दिन राजा सिहसेन को उस लेता है और स्वयं भी मरकर चमरमृग हो जाता है । * चमरमृग की योनि से पुनः उसे सर्प की योनि मिलती है, वह फिर राजा के जीब प्रशनिघोष हाथी के मस्तक को डस लेता है । घम्मिल का जीव बन्दर उस सर्प को मार देता है । इस योनि में मरकर सत्यघोष तीसरे नरक में जाता है, पुनः अजगर की योनि में प्राता है, प्रोर श्रीधरा मोर यशोधरा नामकी प्रायिकाओं भोर सिहसेन के रूप में उत्पन्न भद्रमित्र (सिहचन्द्र मुनिराज ) को खा जाता है । फलस्वरूप पंकप्रभा नाम के चौथे नरक के कष्टों का भागी बनता है। इस प्रकार मरने के पश्चात् भी वह राजा सिहसेन और भद्रमित्र से बदला लेता ही रहता है। उन्हें तो अपने पुण्यों के कारण सद्गति ही प्राप्त होती है, किन्तु यह पापमय प्रवृत्ति होने के कारण दु:ख पूर्ण जीवन ही व्यतीत करता है, और नरक के कष्टों को सहता है। १. श्री समुद्रदत्तचरित्र, ३ । २८-३२ २. बही, ३।४०-४४ ३. बही, ४।५ ४. वही, ४।११, ३५ ५. वही, ४।३५ ६. वही, ४।३७, ५ ३२ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर की पात्रयोजना १८३ रामदत्ता सिंहपुर के राजा सिंहसेन की रानी है। इसके दो पुत्र हैं-सिंहचन्द्र (भद्रमित्र) और पूर्णचन्द्र । रूप और सौन्दर्य की स्वामिनी होते हुए भी वह प्रजाहित में रुचि लेती है । सत्यघोष से ठगा हमा प्रोर अपमानित भद्रमित्र जब अपना वृत्तान्त सुनाते हुए पोर सत्यपोष को शाप देता हुए प्रत्येक प्रातःकाल को भावाज लगाने लगता है, तब रामदत्ता वृक्ष पर चढ़े हुए भद्रमित्र के करुण वृत्तान्त को जानकर वास्तविकता का पता लगाने को तत्पर हो जाती है । राजा से सलाह करके उसको दरवार में भेज देती है और स्वयं सत्यघोष को मीठी-मीठी बातों में फंसाकर शतरंज में उसे हराकर, उसको मुद्रिका, जनेऊ मोर छुरी प्राप्त कर लेती है। इन तीनों वस्तुओं को मन्त्री के घर भेजकर, अपनी दासी से मन्त्री की पत्नी से रत्नों की पोटली मंगवा लेती हैं।' रामदत्ता पतिव्रता स्त्री है। जब सर्प के काटने से इसका पति मृत्यु को प्राप्त हो जाता है, तब यह अत्यन्त शोकाकुल हो जाती है। दान्तमति पोर हिरण्यवती नामकी मार्थिकामों के प्रागमन पर यह भी माथिका व्रत धारण कर लेती है। तपस्या करने के बाद जब सिंहचन्द्र मुनि बन जाता है, तब रामदत्ता उसके पास जाकर अपने दूसरे पुत्र पूर्णचन्द्र की भोगप्रवृत्ति की निवृत्ति का उपाय पूछती है। सिंहचन्द्र के द्वारा पूर्ण वृत्तान्त जानकर यह पूर्णचन्द्र के पास पहुँचती है और सांसारिक भोगों के दोषों से अवगत कराती है तथा उसे धर्माचरण में लगा देती है। अपने को कृतात्य समझकर रामदत्ता प्रायिका समाधि से शरीर त्याग कर स्वर्ग पहुँच जाती है। इस प्रकार रानी रामदत्ता बुद्धिमती, प्रजावत्सम, पतिव्रता, पुत्रों के हितचिन्तन में लगी रहने वाली पोर सात्विक भाचार-व्यवहार वाली है। बयोदयचम्पू के पात्र सोमबत्त . यह 'दयोक्य-चम्पू काव्य का नायक है। काव्यशास्त्रीय दृष्टि से हम इसे धीर-प्रशान्त नायक की कोटि में रख सकते हैं। यह उज्जयिनी नगरी के सार्थवाह १. श्रीसमुद्रदत्तचरित्र, ३१२७-४४ २. वही, ४।१५-१६ ३. वही, ४।१६-३६, ५०१-१३ ४. वही, ४१४ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य - एक अध्ययन श्रीदत्त और उनकी पत्नी श्रीमती का पुत्र है। देव-दुविपाक से इस समय यह मातापिता के स्नेह से वंचित है । पूर्वजन्म में वह उज्जयिनी नगरी की शिशपा नामक वस्ती में मृगसेन नामक धीवर था और इसकी पत्नी का नाम घण्टा था। प्रबल भाग्य एवं प्रभावशाली व्यक्तित्व-.. 1 सोमदत्त प्रबल भाग्य और अद्भुत व्यक्तित्व का स्वामी है। इसी कारण अन्त तक उसका बाल बाँका नहीं होता । सेठ गुणपाल बार-बार कहीं यह जीवित रहा, तो मुनिवचनों के अनुसार ग्रवश्य ही मेरी पुत्री का स्वामी होगा, यह सोचकर उसका वध करने का प्रयत्न करता है सौभाग्यवश नोमदत्त तो उसके षड्यन्त्रों से साफ साफ बच निकलता है; प्रौर उसको मारने के लिए प्रयत्नशील गुणपाल न केवल अपने प्राणों से हाथ धो बैठता है, अपितु अपने पुत्र और पत्नी की भी मृत्यु का कारण बनता है । ' इधर सोमदत्त राजकुमारी गुणमाला सहित राजा वृषभदत्त के प्रावे राज्य का भी स्वामी हो जाता है। २ बिषा तो उसको प्राप्य है ही । सोमदत्त का प्रभावशानी व्यक्तित्व ही मुनियों की वारणी में गुणपाल को उसके भूत भविष्य से परिचित करा देता है । 3 चाण्डाल के द्वारा निर्जन स्थान पर छोड़े जाने पर गोविन्द वाला उसे पाल लेता है। उसके व्यक्तित्व से प्रभावित होकर ही वसन्तसेना गुणपाल द्वारा लिखित पत्र की विषय वस्तु बदल देती है । विषा, महाबल एवं राजकुमारी भी उसके प्रभावशाली व्यक्तित्व के प्रशंसक हैं । सरल सोमदत्त में सरलता का गुरण कूट-कूट कर भरा हुआ है । ईमानदार भी इतना है कि मार्ग में गुणपाल द्वारा लिखित पत्र को खोलकर पढ़ने की भी इच्छा नहीं । उसके अभिभावक गोविन्द के घर जब गुणपाल पहुंचता है तो वह सरल मन से उसकी सेवा करता है । उसे गुणपाल से कोई शिकायत नहीं है। उसकी मृत्यु के पश्चात् जब वह राजसभा में बुलवाया जाता है, तो अपने श्वसुर के प्रति शोकाकुल १. दयोदयचम्पू, ४।१४ और उसके बाद का गद्य, ६।६ प्रोर उसके बाद का गद्य भाग । २. वही, ७। श्लोक १६ के पूर्व का गद्यभाग । ३. वही, १1१८ - २१ ४. वही, ३ श्लोक ६ के बाद का दूसरा गद्यभाग, भौर श्लोक ६ के बाद का दूसरा भाग । ५. वही, ४। श्लोक ११ के पूर्व के गद्यभाग से श्लोक १३ तक ६. वही, ४।८-१० Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर को पात्रयोजना हो जाता है।' विनय और विद्या से युक्त विनय से सुशोभित विद्या सोमदत्त का आभूषण है। उसका अभिभावक गोविन्द ग्वाला बस्ती में रहता है । उसकी प्रार्थिक दशा इतनी अच्छी नहीं है कि वह उसे उच्च शिक्षा के लिए बाहर भेज सके। फिर भी उस गांव में जितनी शिक्षा मिलती थी, उसे वह ग्रहण कर चुका था।२ यदि प्राधिक सुविधा मिलने पर वह . उच्च शिक्षा हेतु विद्यालय जाता तो वह उसे भी ग्रहण कर लेता । विनम्र इतना है कि किसी की भी कही बात बिना आग्रह के ही मान लेता है । राजा वषभदत उसे प्राधा राज्य और अपनी पुत्री गुणमाला को सौंपते हैं, तो यह बड़ी विनम्रता से दोनों को ग्रहण कर लेता है। प्राज्ञाकारी सोमदत मद्भुत प्राज्ञाकारी है। वह गोविन्द को अपना वास्तविक पिता मानता हुआ, विना तर्क-वितर्क के उसकी प्रत्येक प्राज्ञा को सिर झुकाकर स्वीकार कर लेता है। अपने पिता को ही प्राज्ञा से वह गुणपाल के आतिथ्य में कोई कसर नहीं छोड़ता।४ गणपाल की प्राज्ञा मिलते ही उसके घर चला जाता है जहां विष के स्थान पर भाग्य-प्रावल्य से विषा की प्राप्ति हो जाती है। गणपाल के कहने पर वह नागमन्दिर चला जाता है ।६. राजा के बलाते ही उसकी सभा में उपस्थित हो जाता है। उसी की प्राज्ञा से वह गणमाला से भी विवाह कर लेता है। शक्ति और भक्ति का समन्वय ___सोमदत्त अतिथि-वत्सल है। अपने यहां पहुंचे हुए साधुनों का सत्कार करना वह अच्छी तरह जानता है । अपने पूर्वजन्म में भी तो एक मुनि के उपदेश से ही उसने अहिंसा धर्म को अपना लिया था। वह जैन-धर्म का समर्थक है । गहस्थ १. दयोदयचम्पू, ७। श्लोक ११ के पूर्व का गद्यांश । २. वही, ४१ श्लोक ६ के पूर्व का गद्यभाग, श्लोक ६ प्रौर उसके बाद के गद्यभाग। ३. वही, ७। श्लोक १२ के बाद के गद्य भाग । ४. वही, ४। श्लोक है के बाद का गद्यभाग। ५. वही, ४श्लोक १० के बाद से २५ श्लोक तक । ६. वही, ५।११ के पूर्व के गद्यभाग। ७. वही, ७।२-४ श्लोक १२ के बांद के गद्य भाग । ८. वही, श्लोक २२ के पूर्व का गद्यभाग एवं २२-२६ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य- एक अध्ययन जीवन-काल में ही जब उसके घर एक ऋषि का समागम होता है, तब वह सपत्नीक उनका स्वागत करता है; और उनकी स्तुति में संगीतप्रियता दर्शाते हुए भजन गाता है : "जय-जय ऋषिराज पितु जय जय ऋषिराज ॥ भूराज्यादि समस्तमपि भवान् सहसा तत्याज ।। पोत इवोत तारणाय सदा भवतो भवभाजः ।। -दयोदयचम्पू, ७।श्लोक २६ के बाद का पीत । सोमदत्त में सहनशीलता, दानशीलता मोर सुख-दुःख के प्रति निलिप्तता इत्यादि गण भी देखने को मिलते हैं। विषा, राजकमारी और राज्य को वह जैसे स्वीकार कर लेता है, वैसे ही ऋषिराज के उपदेश से प्रभावित होकर इन सभी को छोड़ भी देता है। अपने इन सभी गुणों के कारण वह लोकप्रिय भी हो गया है। सन्तोष ही उनके जीवन का प्रादर्श है । अपने पूर्वजन्म के वृत्तान्त के फलस्वरूप, इस जन्म में बार-बार मत्यु पर विजय प्राप्त करके 'महिंसा परमो धर्म:' का सिदान्त भी अनायास हो पाठकों को समझा देता है; मोर पाठक के हृदय में धीरप्रशान्त नायक के रूप में प्रवेश कर लेता है। विषा-. ___यह उज्जयिनी के राजसेठ गुरणपाल मोर गरणधी की पुत्री है । यह काव्य के नायक सोमदत्त की पत्नी है । काव्य-शास्त्रीय दृष्टि से विषा भी स्वीया नायिका की श्रेणी में प्राती है। अद्भुत सौन्दर्य और व्यक्तित्व विषा अद्भुत सौन्दर्य और व्यक्तित्व की स्वामिनी है । उसका सौन्दयं मम्मी के समान है । यद्यपि उसका नाम विषा है, किन्तु अपने नाम के विपरीत यह है सषा। अपने गुणों मोर सौन्दर्य के कारण वह काग्य के नायक सोमदत्त के संबंधा मनुकूल है । अपने नाम (विषा) के कारण वह सोमदत्त के लिए सौभाग्योदय का कारण बन जाती है । मुषा और सरला सोमदत्त के अद्भुत व्यक्तित्व को देखते ही विषा उसकी पोर पारुष्ट हो जाती है । किन्तु वह अपने मनोभावों को प्रकट नहीं करती है। वह स्वभाव से अत्यन्त सरल है । गुणपाल के किसी षड्यन्त्र का उसको मान नहीं है । बब गणपाल उससे भोजन देने को कहता है तो वह सोमदत्त के लिए माता द्वारा बनाए हुए १. दयोदयचम्पू, श्लोक ३७ के बाद के गद्यभाग। २ वही, ४१२ के बाद का गद्यभाग । ३. वही, ४श्लोक १४ के पूर्व का गवभाग, १४.१६ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर की पात्रयोजना विषयुक्त लड्ड अनजाने में ही उसे देती है. गुणपाल की मृतप्राय दशा देखकर यह किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाती है । माता-पितृ-भ्रातृ-भक्ति विषा अपने माता-पिता को प्राज्ञा का सदैव पालन करती है। अपने भाई से भी वह प्रत्यधिक प्रेम करती है। अपने पिता, माता और भाई को प्राशा के अनुसार ही वह सोमदत्त से विवाह करती है। माता की प्राज्ञा से भोजन बनाने में सहयोग देती है। 3 भाई महावल की मृत्यु पर अत्यन्त शोकाकुल हो जाती है। इतना ही नहीं कि वह केवल पारिवारिक जनों की ही माशा मानती हो, वरन् अपने पिता की मृत्यु के पश्चात् वह राजा वृषभदत्त को भी पिता के समान मानती है और उनकी हर प्राज्ञा को सहर्ष स्वीकार करती है । ईर्ष्या से रहित मधुर व्यवहार वाली जब सोमदत्त राजा की प्राशा से गुणमाला से विवाह कर लेता है, तब भी विषा को कोई मापत्ति नहीं है। यहां तक कि इस विवाह की उसको कोई पूर्वसूचना भी नहीं हैं । सोमदत्त भोर गुणमाला के विवाह के अवसर पर वह अचानक ही राजभवन पहुँच जाती है और हर्षित होकर इस विवाह का अनुमोदन करती है। - राजा विवा से कहते हैं कि वह राजकुमारी को अपनी छोटी बहिन माने । तब विषा कहती है कि राजकुमारी के साथ तो एक पोर एक ग्यारह की कहावत चरितार्थ होगी। इससे मुझे बड़ी मदद मिलेगी। इसलिए इसको पाकर एकादशी तिषि के समान पुण्य-सम्पादनी बन जाऊंगी पोर द्वितीया तिथि के ही समान भद्र माचरण करने वाली हो जाऊंगी। अपने इस कथन के कारण विषा अत्यन्त मादरणीय हो गई है । विषा ने राजकुमारी के साथ अत्यन्त मधुर व्यवहार किया है। काव्य के अनुशीलन से ज्ञात हो जाता है कि उसने कभी अपने सिद्धान्तों को सोमदत्त या राजकुमारी पर नहीं लादा है। उसके मधुर व्यवहार से प्रभावित होकर ही महानल १. दयोदयषम्पू, ६।श्लोक ६ के पूर्व के गद्यभाग। २. वही, ४।२०-२१ ३. वही, ६श्लोक ५ के बाद का गवभाग। ४. वही, श्लोक ३६ के पूर्व के गद्यभाग । ५. 'भो तात, भवतामतीव कृपाऽसावस्ति यतोऽहमधुनकाकिनी सेवानया किलका. दशीव पुग्यसम्पादिनी भविष्यामि, द्वितीयेव च भद्राचरणपरायणा ।' वही, श्लोक १५ के बाद ५वा गद्य भाग । Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य- एक अध्ययन उसका विवाह सोमदत्त से करना चाहता है।' अतिथि-वत्सला अपने पति के समान ही विषा प्रतिथि-वासला है। जब सोमदत्त उसे द्वार पर एक ऋषिराज के प्रागमन की सूचना देता है तो वह हर्षित होकर अपने सौभाग्य की सराहना करती है। अपने पति के साथ ऋषिराज का आदर-सत्कार करती है। उनकी प्रदक्षिणा करती है और शीघ्र ही भोजन बनाकर उन्हें समर्पित करती है । अपने इस माचरण से वह राजकुमारी को मोर भी आकृष्ट कर लेती है । पतिव्रता और पतिमार्गानुयायिनी विषा प्रोर सोमदत्त का विवाह हुमा, विषा का मनोरथ पूर्ण हुा । पूर्वजन्म के प्रभाव से ही वह पुनः इस जन्म में भी सोमदत्त की पत्नी बनती है। अपने पति द्वारा किये गए दूसरे विवाह का भी अनुमोदन करती है। बस, वह तो पति की सेवा करना ही अपना धर्म समझती है। पति की इच्छानुसार ऋषियों की सेवा करती है । ऋषिराज का उपदेश सुनकर जैसे ही सोमदत्त दिगम्बर मुनि बन जाता है, वैसे ही विषा भी तप करने का निश्चय कर लेती है। और प्रायिका व्रत अपना लेती है । अपने तप के ही अनुसार स्वर्ग की प्राप्ति करती है। स्पष्ट है कि विषा सोमदत्त और राजकुमारी के साथ-साथ पाठक को प्रभावित करने में पूर्ण समर्थ है और प्रार्यललनाभूषण के पद को सुशोभित करती है। गुरगपाल यह उज्जयिनी का राजसेठ है । इसकी पत्नी का नाम गुणश्री है। पौर पुत्र तथा पुत्री का नाम क्रमश: महाबल और विषा है । गुणपाल अत्यधिक धनी पोर दृढनिश्चयी है । काव्यशास्त्रीय दृष्टि से उसे 'दयोदय' काव्य का प्रतिनायक कहा जा सकता है । वह गुणी और नगर में प्रसिद्ध भी है। किन्तु ऋषि को मुंह से बात निकलते ही वह सोमवत्त को मारने का ऐसा हठ पकड़ता है कि अपनी कुचेष्टामों से वह पाठकों की रष्टि में पतित हो जाता है और सोमदत्त को मारने की चेष्टा में स्वयं पञ्चत्व को प्राप्त कर लेता है। १. 'वनश्रिया वसन्तस्य सम्प्रयोग इवोत्तमः । विषया फुल्लवक्त्रस्य सम्पल्लवसमेतया ॥' -दयोदयधम्पू, ४,२० २. वही, ७ श्लोक १८-२६ . ३. दयोदयचम्पू, ७ ३८ के पूर्व का गद्य भाग पोर ३८ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर की पात्रयोजना ऋषि-वचनों को सार्थक समझते हुए भी कुकार्य हेतु प्रयत्नशील वह जानता था कि ऋऋषियों का वचन मिथ्या नहीं होता, किन्तु एक प्रनाथ बालक उसकी पुत्री का पति बनेगा -इस बात को उसका मन स्वीकार नहीं कर सका। अतः ऋषियों के वचनों को मिथ्या करने के लिए वह सोमदत्त का वध करने को तुल गया ।' प्रभिमानी - गुगपाल को प्रपने पद प्रौर सामाजिक स्थिति पर बहुत प्रभिमान है । सम्भवतः वह ऊंचे-ऊंचे स्वप्न देखता है कि उसकी पुत्री भरे-पूरे धनी, कुलीन घर में जायगी । इसीलिए मुनि की घोषणा पर वह सोचता है कि मेरी पुत्री विषा का स्वामी प्रज्ञातकुलशील यह निर्धन बालक कैसे हो सकता है ? वह सोमदत्त और अपनी पुत्री के साथ को वैसा ही समझता है, जैसे यह साथ बकरी के बच्चे प्रोर शेर को बच्ची का हो रहा हो । २ धूर्त और निर्दय - घूर्तता प्रौर निर्दयता, ये दोनों दुर्गुण गुणपाल के रोम-रोम में विद्यमान हैं। ऋषियों के वचनों को मिथ्या करने के लिए अनेक वार सोमदत्त के वध का प्रयत्न करता है । वह सोमदत्त का नाम मिटा देना चाहता है । सर्वप्रथम वह एक चाण्डाल को लालच देकर सोमदत्त के वध हेतु राजी कर लेता है । किन्तु चाण्डाल उसकी प्राशा के विपरीत निर्जन स्थान पर मारे विना उसे छोड़ देता है । भाग्यवश सोमदत्त गोविन्द ग्वाले के पास पहुँच जाता है । 3 एक दिन गुणपाल गोविन्द ग्वाले की वस्ती में पहुँचता है, तो पुनः उसके हृदय में उसे मारने की इच्छा प्रबल हो उठती है । नवनीतलेपन में भी गुणपाल चतुर है । वह अपनी मीठी बातों से गोविन्द को तो प्रभावित करता ही है, भोले-भाले सोनदत्त को भी वश में कर लेता है । उसकी हत्या हेतु एक पत्र वह सोमदत्त के द्वारा अपने घर भिजवाता है । सोमदत्त के प्रबल भाग्यवश मार्ग में पत्र की विषयवस्तु बदल दी जाती है और विष के स्थान पर गुणपाल को कन्या विषा उसका वरण करती है । गुगपाल यह वृत्तान्त सुनते ही मन के भाव छिपाते हुए गोबिन्द को इस वृत्तान्त से खुश करता है, मोर घर लौट आता है। एक दिन नागपंचमी तिथि को गुरणपाल मन्दिर के १. दयोदयचम्पू, ३ श्लोक ४ के पूर्व का गद्य भाग । २. किन्नु खलु वगलोऽपि पञ्चाननतनयाया भर्ता भवितुमर्हतीति । १८६ - वही, ३|प्रथम गद्यभाग का अन्तिम वाक्यांश ३. वही, ३।४-१० ४. वही, ५। श्लोक । के पूर्व के गद्यभाग भौर श्लोक १ से ३ के बाद के गद्यभागों तक । Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य-एक अध्ययन मार्ग में एक वधिक को लोभ देकर नियुक्त कर देता है । घर आकर वह सोमदत्त को मन्दिर पूजा की सामग्री सहित भेजता है। मार्ग में महाबल कन्दुक-क्रीड़ा में सोमदत्त को लगाकर स्वयं पूजा-सामग्री लेकर मन्दिर को चल देता है । सोमदत्त मोर महाबल से अनभिज्ञ वधिक महाबल का ही वध कर देता है। गुणपाल यह बुरा समाचार सुनकर अपना सिर पीट लेता है ।' किन्तु फिर भी सोमदत्त के वध को इच्छा उसके मन से नहीं निकलती। उसे वह अपने मार्ग से निकालना ही चाहता है । यहां तक कि वह यह भी गम्भीरता से नहीं सोचता कि सोमदत्त को हत्या से उसकी पुत्री विधवा हो जाएगी। पव परेशान होकर वह अपनी इच्छा अपनी पत्नी को भी बता देता है। उसके दुःख-निवारण हेतु गणश्री विषयुक्त लड्डू तैयार करती है । गुणपाल के भोजन मांगने पर विषा अनजाने में उन विषयुक्त लहनों को ही उसे दे देती है । फलस्वरूप सोमदत्त को मारने के प्रयत्न में वह खुद हो बलि का बकरा बन जाता है ।२ वह कितना निर्दयी है कि न सोमदत्त की निराश्रितता की उसे चिन्ता है, न उसके रूप-गुण, शुभ लक्षणों के प्रति उसकी रुचि है, न उसे गोविन्द ग्वाले के वात्सल्य की चिन्ता है, यहां तक कि वह अपनी पुत्री के वैषध्य का विचार भी नहीं कर पाता । अपनी एक दुर्भावना के कारण धन का लालच देकर वह दो व्यक्तियों को प्रेरित करता है। गोविन्द और सोमदत्त से बार-बार झूठ बोलता है। अपने पत्र मौर,पत्नी की हत्या के कारण उपस्थित करता है और स्वयं अपनी दुर्भावना को प्राग में भस्म हो जाता है। प्रतः गुणपाल वात्सल्य रस से हीन, निर्दयी, मोहान्ध और सोमदत्त का प्रबलतम धूर्त शत्रु है। गुरगषो यह 'दयोदयचम्पू' के खलनायक गुणपाल की पत्नी और विषा की माता है। यह सौन्दर्यवती, चतुर और पुत्रवत्सल है। अपने पुत्र महाबल से प्रेम होने के कारण ही उसकी सम्मति से अपनी पुत्री का विवाह सोमदत्त से करने को तैयार हो जाती है । पुत्र की असामयिक मत्यु पर अत्यन्त दु:खित हो जाती है। वह पति के हर अच्छे-बुरे काम में सहयोग देने को तैयार रहती है। पति की दुश्चिन्ता को दूर करने के लिए प्रोर अपने वैधव्य का विचार करके विषयुक्त लड्डू तैयार करती है । भाग्यवश इन लड्डुषों को खाकर उसका पति मृत्यु के मुंह में पहुँच १. दयोदयचम्पू, ५।श्लोक ९ के बाद के गद्यभाग से श्लोक १४ के बाद के गद्यभाग तक। २. वही, प्रारम्भ से श्लोक ६ के पूर्व तक। ३. वही, ४ श्लोक १७ के पूर्व का गद्यभाग एवं ११-२२ ४. वही, ५ अन्तिम गद्यभाग में एक । ५. वही, ६.प्रारम्भ के गद्यभाग से श्लोक ६ के बाद के गद्यभाग तक । Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर को पात्रयोजना १६१ जाता है, तब अपने पति के दुष्कर्मों पर पश्चात्ताप करती है; और बचे हुए विषयुक्त लड्डू खाकर पति के मार्ग का ही अनुसरण करती है।' गोबिन्न ग्वाला यह ग्वालों को वस्ती में रहने वाला ग्वालों का प्रमुख व्यक्ति है। इसकी पत्नी का नाम धनधी है। सन्तानवत्सल गोविन्द-ग्याला पोर इसकी पत्नी सन्तति सुख से वंचित है। भाग्यवश गुणपाल के षड्यन्त्र का शिकार बालक सोमदत्त इसे मिल जाता है; वह उसके प्रति वात्सल्य से भर उठता है; वह उसे पुत्रवत उठा लेता है; और घर जाकर अपनी पत्नी को देता है। गोविन्द एवं धनश्री यत्न से उसका पालन-पोषण करते हैं । गोविन्द वस्ती में उपलब्ध शिशा भी सोमदत्त को दिलवाता है । फलस्वरूप सोमदत्त इससे वास्तविक पिता का व्यवहार करने लगता है ।। सरल हृदय एवं प्रतिथि प्रेमी गोविन्द बड़ा सरल हृदय पुरुष है। साथ ही प्रतिवत्सल भी है । दुष्ट गुणपाल चव इसके घर पहुंचता है तो यह उसका खूब प्रातिथ्य सत्कार करता है; और सोमदत्त को भी उसकी सेवा करने का मादेश देता है। गुणपाल के किसी षड्यन्त्र को यह नहीं जानता। भाग्यवश जब सोमदत्त, गोविन्द के जाने विना ही गणपाल का जामाता वन जाता है तो भी गोविन्द ग्वाला हर्षित होकर सोमदत्त को गुणपाल को ही सौप देता है जबकि सोमदत्त की अनुपस्थिति में उसका हृदय बारबार सोमदत्त की ही मोर लगा रहता है। यह मतिथि के आगमन पर सुख का मोर जाने पर दु:ख का अनुभव करता है। निम्नमध्यवर्गीय पात्र होते हुए भी यह अपने इन मानवोचित गुणों से स्तुत्य है । बसन्तसेना यह उज्जयिनी नगरी को वेश्या है । वेश्या होते हुए भी दया, ममता, प्रेम पोर त्याग मादि गुण इसमें दृष्टिगोचर होते हैं। काव्य में इसका किंचित्काल के लिए ही उपस्थितिकरण कथानक को नया मोड़ दे देता है। हृदय की उदारताव यह एक निर्दोष व्यक्ति को मत्यु के मुंह में जाने से बचा लेती है।५ गुणपाल मोर १. दयोदयचम्पू, ६। श्लोक ६ के बाद का गवभाग । २. वही, ३ श्लोक १० के पूर्व का गद्यभाग, १०-१४ ३. वही, ५॥१-३ ४. वही, ५॥ श्लोक ३ के बाद का दूसरा भाग। ५. वही, श्लोक ११ के पूर्व का गवभाग, ११-१३ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ उसके परिवार से इसका अच्छा परिचय है । विषा इसकी सखी भी है ।" में जिस समय यह भोमदत्त के वैराग्य के बारे में सुनती है, उस समय संसार सुख के प्रभाव का अनुभव करती है। अतः सोमदत्त के साथ ही यह भी श्रात्मोद्धार में प्रयत्नशील हो जाती है। यह विषा के साथ ही प्रायिकाव्रत की धारणा कर लेती है प्रोर अपनी तपस्या के अनुरूप स्वर्ग को प्राप्त करती है। महाकवि ज्ञानसागर के काव्य - एक म्रध्ययन प्रत्यपात्र -- इनके अतिरिक्त कुछ अन्य पात्र भी हैं, जिनका महत्व उपर्युक्त पात्रों के समान तो नहीं है, किन्तु फिर भी उनका उल्लेख करना प्रसंगत न होगा । सर्वप्रथम जयोदय' महाकाव्य के पात्र प्रस्तुत हैं : अनवद्यमति राजकुमार प्रर्ककीर्ति का मंत्री है। वह जयकुमार की योग्यता से परिचित है, इसलिए राजा को समझाता है कि सुलोचना प्रौर जयकुमार एक दूसरे के योग्य हैं। राजा को उनसे शत्रुता नहीं करनी चाहिए। किन्तु प्रकीति का एक सेवक बहुत धूर्त है, वह अकंकीर्ति को जयकुमार से युद्ध के लिए उकसाता है। काशीनरेश प्रकम्पन का दूत सार्थक वारणी में बोलता है । वह राजा प्रकम्पन, राजकुमारी सुलोचना की प्रशंसा करता है । प्रक्षमाला सुलोचना की छोटी बहिन है। काशीनरेश इसका विवाह अकीति से करते हैं। भरतचक्रवर्ती सार्वभौम सम्राट् हैं । जयकुमार इन्हीं के सेनापति हैं । प्रत्येक राजा अपने राज्य की सम्पूर्ण गतिविधियां इनको बताता है। ७ ऋषभदेव तो आदि तीर्थङ्कर हैं । यह सम्राट् भरत के पिता हैं । यह जयकुमार को उपदेश देते हैं । इन्हीं से दीक्षा प्राप्त करके जयकुमार तपस्या करने में संलग्न हो जाते हैं। वीरोदय महाकाव्य के एक पात्र हैं-- देवराट् इन्द्र । यह उत्सवप्रिय हैं । भगवान् महावीर के भक्त हैं : भगवान् के जन्म के अवसर पर इन्द्र उनके अभिनन्दन १. जयोदय, ४ | श्लोक १२ के बाद का गद्य भाग । २. वही, ७ श्लोक ३८ के पूर्व के गद्यभाग और बाद का गद्यभाग । ३. वही, ७१३२-४३ ४. बही, ७।१-१७ ५. समना मनुजो यस्यां महिला स। रसालया । श्रीधरोsधीश्वरो यस्याः सा काशी रुचिरा पुरी ॥ वही, ६३, १६ ७. वही, ६।६, २०१० ८. वही, २७द सगं । - वही, ३1३० Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर की पात्रयोजना १६३ के लिए कुण्डनपुर पहुंचते हैं; भोर अन्य देवगणों के साथ भगवान् का अभिषेक करते हैं।' भगवान् महावीर के प्रमुख गणधर हैं-गौतम इन्द्रभूति । भगवान् की महिमा से प्रभावित होकर यह पोर इनके अन्य भाई भी भगवान् के भक्त हो जाते हैं। प्राचार्य श्रीज्ञानसागर के काव्यों में स्थान-स्थान पर ऋषियों का भी उल्लेख है। ऋषि प्राय: जनता को प्रबद्ध करने में ही लगे रहते हैं। उनकी कठिन समस्याओं को सुलझाते हैं। मुक्ति हेतु साधक का मार्ग प्रशस्त करते हैं। इन्होंने स्वयं सांसारिक वस्तुनों को सर्वथा त्याग दिया है । 'सुदर्शनोदय' और 'दयोदयचम्पू' में उल्लिखित मुनि तो कथानक को भी प्रभावित करते हैं।' कपिल 'सुदर्शनोदय' में उल्लिखित सदर्शन के मित्रों में से एक है। मोर मर्म को जानता है। इसी काग्य में वणित द्वारपाल बड़े भीरु स्वभाव का है, वह पण्डिता दासी से मात खा जाता है ।५ राजा का वषिक प्राज्ञाकारी सेवक है। सुदर्शन के प्रवल भाग्यवश वह राजा की प्राशा पूर्ण करने में असमर्थ है। श्रीसमुद्रदत्तचरित्र में उल्लिखित सिंहसेन सिंहपूर का राजा है । सत्यघोष के अपदस्थ हो जाने पर पम्मिल्ल नामक व्यक्ति इसका मन्त्री बनता है। अपने बन्दर के जन्म में यह सत्यघोष के जीव को नष्ट कर देता है । " सुदत्त दोनों अपने एकमात्र पुत्र से प्रत्यधिक प्रेम करते हैं । सुमित्रा में धन का लोभ भी पा जाता है। इसी कारण व्याघ्री के जन्म में वह अपने पुत्र को खाने में नहीं हिचकती। - सुन्दरी, राजा अपराजित की पत्नी है। राजा अपराजित चक्रपुर का श्रेष्ठ शासक है। वह परमधार्मिक मोर त्यागी है। उसकी रानी सुन्दरी प्रत्यधिक सौन्दर्यशालिनी है । सुन्दरी मौर राजा अपराजित से भद्रामित्र चक्रायुध के रूप में जन्म लेता है ।१० चित्रमाला चक्रायुध की नवयुवती सुन्दरी पत्नी है। इसी से १. वीरोदय, ७वा सर्ग। २. वही, १३।३२ और १४१२ ३. (क) सुदर्शनोदय, चतुर्थ सर्ग । (ख) दयोदय, ११८ श्लोक से द्वितीय लम्ब तक । ४. सुदर्शनोदय ३-३८-४१ ५. वही, ७-१-७ ६. वही, ८५,६ ७. श्रीसमुद्रदत्तचरित्र, ३११८, ४१४, ३७ ८. वही, १२६-३० १. वही, ४१७.६. १०. वही, ६।९-१५ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य-- एक अध्ययन चक्रायुध के पुत्र वज्रायुध का जन्म हुआ।' महारल 'दयोवाचम्प' की नायिका विषा का प्रिय भाई है। वह गुणज्ञ, माज्ञाकारी है।' अपनी बहिन से उसे प्रेम है; उसका हित करने के लिए वह शीघ्र ही सोमदत्त को प्रोग्याझ कर, सोमदत्त के साथ उसका विवाह कर देता है । सोमदत्त के प्रति उयका अत्यधिक प्रादर पोर प्रेम है । वह सदेव मोमदत्त के सिर कार्यभार को हल्का करने में चेट रहता है। इसी चेष्टा में सोम दत्त के स्थान पर हत्या का पालन कर कथानक को कु: और ही रूप प्रदान कर देता है। इसी काव्य में वधिकलो रूप हैं। इन दोनों ही वधिकों को धन का लालच देकर गुणपाल ने सोमना की हत्या करने के लिए तैयार किया था। पहला वधिक तो सोमदत्त के कर दया करते और प्राप्त हुए पन को प्रपना प्राप्य समझकर सोमदत को नहीं मारता। दूसरा यधिक मारता तो है, किन्तु सोमदत्त को नहीं महाबल को। वह सोमदत्त पोर महाबल में भेव नहीं कर पाता। राजा वामदत्त उज्जयिनी का स्वामी है । उसकी पत्नी का नाम वृषभदत्ता हैं । राजा प्रजावत्सल है । वह गुणपाल का पादर करता है। गुणपाल को मत्यु होने पर उसे गुगणपाल की वास्तविकता का ज्ञान होता है. तब शीघ्र ही पपने दूत से सोमदत्त को बलमा लेता है । जो सर्वथा योग्य समझकर अपनी पुत्री गुणमाला का विवाह उसमे कर देता है। अत: राजा को भी सद्गुणों की अच्छी पहचान है। राजा का दुत बोलने में बड़ा चतुर है। उसकी वाक्चतुरता सोमदत्त और उसके वार्तालाप से बात होती है। राजा का मंत्री मत्यधिक योग्यता मे कर्तव्यपालन करता है। नगर में एक-एक गतिविधि का उसे ज्ञान है। इसलिए यह गुण पाल की मत्यु के विषय में राजा को बताता है। उपर्यवत विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि श्रीज्ञारमागर ने समाज . प्राप्त होने वाले सभी व्यक्तियों के स्वभाव के अनुसार हो भिन्न-भिन्न १. समुद्रदत्तचरित्र ६।१८-२४ २. दयोदयचा, ४ श्लोक १७ के पूर्व के गद्य भाग, १७-२२, श्लोक १२ के बाद के गहाभाग से १४ तक। ३. वही, ३ श्लोक ६ के बाद के गद्यभाग से श्लोक ५ तक । ४. वही, ५॥ श्लोक के गद्य भाग, श्लोक १२ के पूर्व के गद्यभाग, श्लोक १२ से लोक १४ के बाद का गद्य भाग। ५. दयोदयचम्पू, १.१२.१३ ६. वही, ७.१.२३ ७ वही, ७॥२-५ ८. वही, ७ श्लोक १ के बाद के गबभाग । Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर को पात्रयोजना १६५ स्वभाव वाले अपने पात्रों को अपने काव्यों में लिया है। उन्होंने लगभग ७६ पात्रों का नियोजन अपने काव्यों में किया है । ये सभी पात्र काव्य में पात्रों की संख्या बढ़ाने के लिए प्रयुक्त नहीं किये गये हैं अपितु इनके द्वारा समाज को कुछ न कुछ देने के लिये ही इनका प्रयोग किया गया है। कवि के काव्यों के परिशीलन से स्पष्ट है कि कवि के सभी काव्य शिक्षाप्रद हैं। यह शिक्षा हमें पात्रों के माध्यम से मिलती है। 'जयोदय' काव्य के नायक जयकुमार पराक्रम, निश्छल प्रेम, कर्तव्यपरायणता न्यायप्रियता और नम्रता की शिक्षा देते हैं 'वीरोदय' महाकाव्य के नायक भगवान् महावीर हमें ब्रह्मचर्य, त्याग, तपस्या पौर सहिष्णुता की शिक्षा देते हैं । 'सुदर्शनोदय के नायक सुदर्शन समाज को एकपत्नीव्रत, भगवान के प्रति आस्था, दृढ़ता मोर त्याग को शिक्षा देते हैं। 'श्रीसमुद्रदत्त चरित्र' के नायक भद्रमित्र हमें सत्य, मस्लेय, पौर धर्म की शिक्षा देते हैं । 'दयोदयचम्पू' के नायक सोमदत्त विनम्रता, माशाकारिता, अहिंसा, करलहृदयता और अतिथि-वत्सला की शिक्षा देते हैं। ... सुलोचना, मनोरमा, विपा ('जयोदय', 'सुदर्शनोदय' मोर 'दयोवयचम्पू की नायिकाएं) भारतीय स्त्रियों के लिए आदर्श है। ये सभी स्त्रियां हमें एक मोर एकनिष्ठ प्रेम को शिक्षा देती हैं, तो दूसरी पोर पातिव्रत्य, पतिमार्गानुसरण, स्याग पौर जिनेन्द्रभक्ति को भी शिक्षा देती है । हमारे समाज में कुछ जनसुधारक लोग होते हैं। उनका जीवन त्याग, तपस्या, नम्रता और जनहित इत्याटि श्रेष्ठ भावनाकों से परिपूर्ण होता है। ऐसे ही लोकनायकों के कार में कवि ने ऋषि-मुनियों का उल्लेख किया है। ये तपस्वी महापुरुष प्रतिक्षण हमें संसार को क्षणभंगुरता का ज्ञान कराते रहते हैं; मौर मानव का वास्तविक गन्तव्य क्या है ? ---- इसकी शिक्षा देते हैं । प्रर्ककोति, मभयमती, सत्यघोष और गुणपाल इत्यादि के चरित्र हमें दुराई का स्वरूप बताते हुए उससे बचने की प्रेरणा देते हैं । पाठक इनके विषय में पढ़ते हुए ऐसे दुष्ट व्यक्तियों से दूर रहने को सचेष्ट हो जाता है। पण्डिता बासी; चाण्डाल इत्यादि हमें प्राज्ञाकारिता और स्वामी के हितचिन्तन की मोर प्रेरित करते हैं । इन पात्रों के अनुसार अपने स्वामी की हर इच्छा पूर्ण करना उसके सेवक का कर्तव्य है। प्रतएव कवि के काव्यों के सभी पात्र सामाजिक रष्टि से उपयोगी है। किसी भी पात्र को कवि ने पात्रों की संख्या बढ़ाने के लिए प्रयुक्त नहीं किया है। उनके काग्य का राजा यदि समाज को कुछ दे सकता है तो सेवक वर्ग भी इसमें पीछे नहीं है। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि हमारे मालोच्य महाकवि ज्ञानसागर Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य-एक अध्ययन व्यक्ति-मनोविज्ञान के अच्छे जानकार हैं । व्यक्तियों की च और स्वभाव भिन्नभिन्न होते हैं, इसका भी पूरा-पूरा ध्यान उनको है। एक अनाथ बालक को देखकर एक पुरुष तो उसका भविष्य अपनी पुत्री से जुड़ना हुया जानकर उसमे द्वेष करने लगता है। इसके विपरीत दूसरे परुष के हृदय में वात्सल्य का स्रोत उमड़ पड़ता है। एक स्त्री पति पर अत्यधिक भक्ति रखती है; दूसरी स्त्री मन्य परुपों पर कुष्टि रखती है । एक सेवक राजा को उचित मन्त्रणा देता है, तो दूसरा कुटिल पुरुष उसे युद्ध के लिए प्रेरित करता है । मद्यपान के पश्चात् व्यक्ति का मरिक कैसा निकृत हो जाता है, इसका चित्रण भी कवि ने बड़ी सूझ-बूझ के साथ किया है। एक राजा पराक्रमी, अात्मविश्वासी और प्रजावत्सल है, तो दूसग राजा भीर प्रकृति का है । वह प्रजा की बात नहीं सुनता, अपितु अपनी स्त्री के झूठे प्रपञ्च पर विश्वास कर लेता है । कवि ने हर वर्ग के पात्रों को अपने काव्यों में स्थान दिया है । राजमहलों में रहने वाले राजा-रानी अपने वैभव से प्राकर्षित करते हैं, तो सामान्य वस्ती में रहने वाले ग्वाल इत्यादि का सरल जीवन, भी स्पहरणीय है। राजकर्मचारियों में उच्चस्तर के मंत्री भी हैं और निम्नस्तर के सेवक भी। राजकुमारियों की सखियाँ भो हैं और रानियों की दासियां भी। जिनमति जैसी कुलवधू हैं तो वसन्त सेना जैसी वारांगना भी। ___ सब कुछ मिलाकर कवि की पात्रयोजना प्रशंसनीय है। काव्यों में चित्रित पात्रों की मनोदशा उनकी सूक्ष्म निरीक्षण-शक्ति का परिचायक है । काव्य में कोई भी व्यक्ति अपने पूर्व जन्म से कितना प्रभावित रहता है, इसका चित्रण करने में भी कवि ने अपनी सूझ-बूझ का परिचय दिया है । Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर का वर्णन कौशल कवि अपने काव्यों में कुछ पदार्थों का साङ्गोपाङ्ग वर्णन करता है। यह वर्णन काव्य का प्रत्यन्त अनिवार्य अङ्ग है। यहाँ कुछ प्रश्न उठते हैं कि पदार्थों के इतने वर्णन की प्रावश्यकता क्या है ? क्या पदार्थों का उल्लेख मात्र होने से काम नहीं चल सकता? क्या इस वर्णन के कारण हम प्रसंग से दूर नहीं हो जाते ? इन प्रश्नों का उत्तर है कि यदि केवल कथा-प्रवाह को ही ध्यान में रखकर पदार्थ का नाममात्र के लिये उल्लेख कर दिया जाय, तो इतिहास और काव्य में क्या अन्तर होगा, पौर यदि इन पदार्थों का साङ्गोपाङ्ग वर्णन रोचक न हो तो ऐसे पदार्थ-वर्णन को काव्य के स्थान पर भूगोल की संज्ञा देनी होगी। कवि का काव्य इतिहास पौर भूगोल से सर्वथा भिन्न, पाठक के हृदय में शीघ्र प्रानन्दोत्पत्ति के लिए होता है । प्रतः यह प्रावश्यक है कि कवि जिस पदार्थ का भी वर्णन करे, वह उस पदार्थ की प्रायः सभी विशेषताओं से युक्त भी है और रोचक भी। ___ उदाहरणस्वरूप यदि काव्य में इतना लिख दिया जाय कि अमुक राजकुमार अमुक नदी-तीर या अमुक नगर में गया, मोर इन नदी-तीर या नगर इत्यादि की विशेषतामों का उल्लेख न हो तो सहृदय सामाजिक सोचेगा कि राजकुमार उन-उन स्थलों पर क्यों गया ? उसके हृदय में पाए हुए इस प्रश्न का उत्तर है कि राजकुमार नदी-तीर की जनशून्यता, गोपनीयता, प्राकृतिक सुन्दरता, शीतलता और पतिव्रता से प्राकृष्ट होकर उस नदी-तीर पर गया होगा। प्रथवा अपने दुःखी मन को शान्त करने के लिए नदी-तीर पर भ्रमण करने की उसकी इच्छा होगी। इसी प्रकार राजकुमार किसी नगर में इसलिए गया क्योंकि उसके हृदय में अत्यन्त वैभवपूर्ण नगर को देखने की चाह थी, वह नगर युद्धस्थल होने की दृष्टि से महत्वपूर्ण हो सकता है, एक धार्मिक-स्थल भी हो सकता है, उस नगर और अपने नगर के बीच में व्यापारिक या राजनैतिक सम्बन्ध भी लाभदायक हो सकते हैं। उस नगर के वकृतिक-स्थल इतने प्राकर्षक हैं कि फिर-फिर उन्हें देखने की इच्छा होती है। इसलिए कवि इन पदार्थों का विस्तृत एवं रोचक वर्णन करता है तो सहृदय सामाजिक के हृदय में उठे हुए प्रश्नों का उत्तर भी मिल जाता है। इन वर्णनों के Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य--एक अध्ययन द्वारा कवि अपने विस्तृत भौगोलिक ज्ञान का भी परिचय दे देता है । इन पदार्थों के रोचक-वर्णन से वह पाठक को प्राकर्षित कर पाने में भी सफलता प्राप्त करता है। इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि काव्य में वर्णन कौशल कवि को समर्थता को प्रकट करने के लिए अत्यन्त प्रावश्यक है। कवि प्रपने काव्यों में पदार्थों का जो वर्णन करता है. उसे दो भागों में विभक्त किया जा सकता है--एक तो प्राकृतिक पदार्थों का वर्णन और दूसरा वकृतिक पदार्थों का वर्णन । अब सर्वप्रथम प्राप में सामने प्राकृतिक पदार्थों का वर्णन प्रस्तुत किया जा रहा है प्रकृति शब्द प्र उपसर्ग पूर्वक कु घात के योग से निप्पन्न हुमा हैं। प्र= उत्तम, कृति रचना, इस प्रकार प्रकृति शब्द का तात्पर्य है, सर्वोत्कृष्ट रचना । हम प्रकृति की परिभाषा इस प्रकार दे सकते हैं :"प्रकृति ईश्वर की वह सर्वोत्कृष्ट रचना है। जिसके निर्माण में मानव का कोई योगदान नहीं होता।" प्रकृति और मानव का ऐसा सम्बन्ध है कि कोई भी मानव उसकी क्रीमोंडा से प्रभावित नहीं रह सकता । गम्भीर से गम्भीर व्यक्ति भी प्रकृति की गोद में सरसता की अनुभूति करता ही है। जब साधारण मानव-समाज ही प्रकृति-नटी के क्रिया-कलापों से इतना प्रभावित होता है तो फिर सहृदय-सामाजिक को तो बात ही क्या है ? उसके हृदय की सुकुमार भावनाएं ही प्रकृति के कार्य-कलापों को देखकर प्रस्फुटित होती हैं । इसीलिए प्रत्येक कवि मानव द्वारा निर्मित पदार्थों की अपेक्षा प्रकृति-वर्णन में अपने हृदय के भावों को उड़ेल कर रख देता है। उसके काव्य का उषागमन किसी निराश हृदय में प्राशा का सञ्चरण है; हिमालय की ऊंची और दृढ चोटियां किसी की ऊंची कल्पना मोर हृदय की दृढ़ता की प्रतीक हैं, सरोवर में खिले हुए कमल किसी के सुकुमार चरणों का स्मरण दिलाते हैं; पूर्णचन्द्र किसी के मुख की प्राभा को लेकर उदित होता है, पक्षियों का मधुर कलरव किसी की वीणा का निदान है - इस प्रकार कवि प्रकृति-नटी के सौन्दर्य का वर्णन करने के साथ ही उसका उपयोग उपमान इत्यादि के रूप में भी कर लेता है। प्रायः सहृदय-सामाजिक होने के कारण कवि प्रकृति-वर्णन करता ही है, यह बात उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाती है । फिर किसी भी काव्य में प्रति वर्णन एक अनिवार्य सत्त्व है । प्रकृति-वर्णन काव्य में पाई हुई घटनामों के उपस्थितीकरण के लिए प्रावश्यक देश-काल और वातावरण का निर्माण करने में सहयोग देता है। कवि अपने काव्य के पात्रों के लिए सुखपूर्ण वातावरण को उपस्थित करते समय प्रकृति की सुकमारता का वर्णन करता है पोर पात्रों की दुःखमयी अवस्था में उसी प्रकृति का भीषण रूप भी पाठकों के सामने उपस्थित कर देता है। संयोगावस्था में Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर का वर्णन-कौशल १६६ जो चन्द्रोदय किसी नायक वा नायिका के लिए सुखकारी होता है, वियोगावस्था में वही नायक या नापिका की पीड़ा को बढ़ा देता है। इस प्रकार कवि-कृत प्रकृतिवर्णन काव्य में निष्पन्न होने वाले रस की निष्पत्ति में भी विशेष रूप से सहायक होता है । साथ ही उसके हृदय की सुकुमारता, प्रकृति-प्रेम और वर्णन कौशल का भी वास्तविक ज्ञान पाठक को हो जाता है । अतएव हम कही कते हैं कि काव्य में वर्ण्यमान छन्द, मलङ्कारों के समान ही प्रकृति-वर्णन भी महत्वपूर्ण है । प्रकृति वर्णन से मोर भी अधिक मनोहारिणी बनी हुई कृतियां साहित्यक प्रकृति वर्णन के महत्त्व को सिद्ध कर देती हैं। संस्कृत-साहित्य का विकास जितना अधिक प्रकृति-नटी के अंक में हमा, उतना राज्याश्रय में नहीं । यही कारण है कि संस्कृत-साहित्य का प्रकृति-वैभव अन्य किसी भी माहित्य के प्रति-वंभव से कही बढ़ा-चढ़ा है। कालिदास का 'मभिज्ञानशाकुन्तल' प्रौर बाणभट्ट की 'कादम्बरी' इसके ज्वलन्त उदाहरण हैं। अपनी चिरसहचरी प्रकृति के सौन्दर्य का वर्णन करते समय, कवि कभी-कभी तो अपना वर्ण्य-विषय को भी भूल जाता है; और काव्य के पूरे सर्ग में प्रकृति-नटी के ही वैभव का वर्णन करता चला जाता है। यह वात पद्य-कवियों में गद्य कवियों की प्रपेक्षा अधिक देखी जाती है। क्योंकि मय-कवियों का प्रकृति-वर्णन कथा-प्रवाह के अधीन होता है। - हमारे पालोच्य महाकवि श्रीज्ञानसागर भी अपने काव्यों में स्थान स्थान पर प्रकृति-नटी के इस रूप-वैभव से प्रभावित होते हैं। उन्होंने यथासम्भव अपने काम्यों में प्रकृति-नटी की रूप-सम्पदा का वर्णन किया है । महाकवि का यह कृतिकवर्णन कृत्रिमता और कल्पना की उड़ान से दूर स्वाभाविकता से प्रोत-प्रोत है। इनके काव्यों में वरिणत रात्रि जहां पाठक के हृदय में भांति को उत्पन्न करता है। वहाँ प्रभात-वर्णन एक नवीन-पाशा को लिए हुये उपस्थित होता है । एक मोर पाठक ग्रीष्म की भयानकता से कम्पित हो उठता है तो दूसरी ओर वसन्त का सौन्दर्य उसे प्राकर्षित कर लेता है। अपने काव्यों में श्रीज्ञानसागर ने पर्वत, नव, नदी, सरोवर, समुद्र, द्वीप, ऋतु, प्रभात, सन्ध्या, रात्रि इत्यादि प्राकृतिक पदार्थों का वर्णन करते हुए, प्रकृति के प्रति अपने असीम प्रेम को प्रस्तुत किया है। प्रब आपके समक्ष इन सभी प्राकृतिक पदार्थों का वर्णन प्रस्तुत किया जायगा। पर्वत-वर्णन:-- पर्वतीय स्थलों के प्रवलोकन से प्रत्येक व्यक्ति को यह अनुभव होता है कि प्रकति का जो सौन्दर्य हमें गगनचुम्बी पर्वतों पर देखने को मिलता है, वह भन्यत्र दृष्टिगोचर नहीं होता। इसीलिए सहृदय कवि अपने काव्यों में प्रकृति के इस Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०. महाकवि ज्ञानसागर के काव्य-एक अध्ययन मनोहारी अङ्गका वर्णन अवश्य ही करता है । कुछ नहीं तो सूर्योदय या चन्द्रोदय के बहाने ही वह पर्वत-सुषमा का चित्रण कर देता है ; या उसे कोई तीर्थस्थान घोषित करके अपने काव्य के पात्रों को वहां पहुंचा देता है। हमारे पालोच्य महाकवि श्रीज्ञानसागर ने अपने काव्यों में क्रमशः सुमेरु, हिमालय-विजयाई, कांचन और श्रीपुरु इन पांच पर्वतों का यथास्थान वर्णन किया है । सर्वप्रथम देवगिरि सुमेरु का वर्णन आपके समक्ष प्रस्तुत है :सुभर-पर्वत इस पर्वत का उल्लेख कवि ने अपने काव्यों में तीन बार किया है, दो बार बोरोदय में प्रोर एक बार जयोदय में । वीरोदय में सर्वप्रथम जम्बूदीप की स्थिति को बताते समय सुमेरु पर्वत का वर्णन मिलता है। जिसके अनुसार उसे एक लास योजन ऊंचा बताया गया है । सुमेरु पर्वत को स्वर्ण-निर्मित माना गया है, इसलिए कवि का यह कथन है कि सुमेरु पर्वत, पृथिवी को धारण करने वाले शेषनागरूप दण्ड के ऊपर स्थित सुवर्ण-कलश के समान है।' इसके पश्चात् कवि ने सुमेरु-पर्वत का वर्णन भगवान् महावीर के जन्माभिषेक के समय किया है। भगवान महावीर के जन्म के बाद देवगण अभिषेक के उद्देश्य से बालक महावीर को सुमेरु पर्वत पर ले गये। वह सुमेरु पर्वत चारों मोर वनों से घिरा हुमा था; और उसमें जन-समुदाय को छाया देने वाले फलदार वृक्ष थे, इस प्रकार यह पर्वत पुरुषार्थ-चतुष्टय-समन्वित, जनसुखकारी पुरुष के समान शोभायमान था। उस सुर पर्वत पर सोलह जिन-मन्दिर प्रवस्थित थे, जिस प्रकार नीति-चतुष्टय से समन्वित पुरुष जनता पर शासन करता है, उसी प्रकार वह सुमेरु पर्वत अपने चार वनों से सभी पर्वतों के राजा के रूप में विद्यमान था। देवगणों ने जब भगवान् को सुमेरु पर्वत के उच्च शृङ्ग पर मवस्थित किया, तब ऐसा लगता था, मानो किसी के सम्मुख न झुकने वाला सुमेरु पर्वत भगवान् की गरिमा से प्रभावित होकर झुक गया है । १. 'संविद्धि सिद्धि प्रगुणामितस्तु पाथेयमाप्तं यदि वृत्तवस्तु । इतीव यो वक्ति सुराद्रिदम्भोदस्तस्वहस्तांगुलिरङ्गिनम्भोः ।। मधस्थविस्फारिफणीन्द्रदण्डश्छत्रायते वृत्ततयाऽप्यखण्डः । सुदर्शनेऽत्युत्तमशैलदम्भं स्वयं समाप्नोति सुवर्णकुम्भम् ।। . -वीरोदय, २।२-३ २. सुरदन्तिशिरःस्थितोऽभवद् घनसारे स च केशरस्तवः । शारदभ्रसमुच्चयोपरि परिणिष्ठस्तमसां स चाप्यरिः ।। वनराजचतुष्टयेन यः पुरुषार्थस्य समधिना जयन् ।। प्रतिभाति गिरीश्वरः स च सफलच्छायविधि सदाचरन् । Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर का वर्णन-कौशल . २०१ 'जयोदय' में सुमेरु-पर्वत-वर्णन से सम्बन्धित वर्णन यहाँ है, जहाँ जयकुमार सुलोचना के साथ तीर्थयात्रा के लिए जाते हैं । सूर्य और चन्द्र को साथ-साथ धारण करता हुप्रा वह पर्वत जयकुमार को ऐसा लगता है, जैसे वह पीताम्बर को धारण करने से देह का लुप्त हो गई वास्तविक छवि वाले और दोनों हाथों में चक्र पोर शङ्ख धारण करने वाले भगवान् विष्णु का रूप हो । बादलों के विस्तार के संयोग से सन्दर, ताजे चन्दन से युक्त तलहटी वाला वह पर्वत, अपने प्राधे शरीर में पार्वती को स्थित करने वाले भगवान् शङ्कर के समान सुशोभित था।' हिमालय-पर्वत श्रीज्ञानसागर के काव्यों में हिमालय पर्वत का वर्णन दो बार मिलता है। एक बार वीरोदय में, प्रौर एक बार जयोदर में । वीरोदय के स्थल पर भारतवर्ष जिनसद्मसमन्वयच्छ नाद् धृतमूर्तीनि बिभर्ति यो बलात् । अपि तीर्थकरत्व कारणान्युपयुक्तानि गतोऽत्र धारणाम् ॥ निजनीति चतुष्टयान्वयं गहनव्याजवशेन धारयन् । निखिलेप्वपि पर्वतेष्वयं प्रभुरूपेण विराजते स्वयम् ।। गुरुमभ्युपगम्य गोरवे शिरसा मेरुरुवाह संस्तवे ।। प्रभुरेष गभीरतावि: स च तन्वा परिवारितोऽनिधेः ।, -वीरोदय: ७१८-२२ १. विहाय सासो विहरन्महाशयः शयद्वयं सकलयंश्च सावलः । बलप्रभुश्चैत्यनिकेतनं प्रति प्रतिष्ठितो मेरुगिरी विभाविहा । परीतपीताम्बरलुप्तदेहरुक् करद्वयी प्रापितचक्रकम्बुकः । विराजते विद्यारिवाजतेजसा गिरी रवीन्दू द्वयत: स उद्वहन् । पयोधराभोगस योगमंजुला तटीं समन्ताद् हरिचन्दनाञ्चिताम् । गिरीश्वर: सेवत एव सतरां निजार्द्धदेहानुमितां च पार्वती । अथापि जम्बूपपदेऽन्तरीके स एव सम्यक खलु कणिकायते । विदेहदेवोत्तरदेशपत्रकैः पयोधिमध्ये श्रिय पासनायते ॥ चतुर्गुणी कृत्य जिनालयानसो सदातनान्दिक्ष महाजनाञ्चितान् । जिनश्रियः षोडशकारणानि वै विभर्ति भव्यानि च तानि सर्वदा ॥ यदन्तिके दो दिरदौ विमुच्यतो जलोरुधारामपि नोलनप्रधी। रवीन्दुविम्बे द्वयतोऽन्यदर्पणे वहन्नसो तल्लभते रमाकृतिम् ॥ तथैव सब्येतरनीलनैषधः सटायमानोऽपरम्परः परम् । गिरीः सनीलाम्बरपीतवाससो विरञ्चिपुत्रस्य विभति सच्छबिम् ॥ भियेव भव्यो भवभावितच्छलस्स्वयं महोद्यानचतुष्टयपछलात् । सुवृत्त एताः परिवर्तिताकृती विभति धर्मार्थ निकामनिव॑तीः ।। -जयोदय, २४॥४.११ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य-एक अध्ययन की भौगोलिक स्थिति बनाते हुए कवि ने हिमालय का प्रतिसंक्षिप्त किन्तु प्रालंकारिक वर्णन किया है, उभे कषि के हो शब्दों में देखिए ___ 'हिमालयोल्लासिगुणः स एष द्वीपाक्षिपस्येव धनुर्विशेषः' ।' (मर्थात् भारतवर्ष के उत्तरपूर्व में हिमालय की स्थिति है, जो भारतवर्ष रूप धनुष की डोरी के समान है)। सम्भवत: कवि को अन्य स्थल पर इस पर्वत वर्णन को विस्तार देने को अभिलाषा रही होगी, इसीलिए उसने इस प्रथम स्थल में हिमालय का वर्णन केवल उसकी. भौगोलिक स्थिति बताने के लिए ही किया है । हिमालय-वर्णन हमें दूसरे स्थल पर, वहाँ देखने को मिलता है, जहां जयकुमार और सुलोचना सुमेरु, कुलाद्रि, श्रीपुरु इत्यादि पर्वतों में भ्रमण करने के बाद इस पर्वत पर पहुँचते हैं। तब वह इस पर्वत के नैसगिक-सौन्दर्य से अपनी पत्नी को परिचित कराते हुए कहते हैं :-हे प्रिये ! बादलों का स्पर्श करने वाला, ऊंची चट्टानों वाला, सूर्य की गति को अवरुद्ध करता हुप्रा यह पर्वत प्रभ्युदय को प्राप्त कर रहा है। इस पर्वत में सालवृक्ष का वन है । अपनी बर्फ के बहाने ही मानो यह पर्वत शुभ्र-यश को धारण कर रहा है। यहाँ पर जल से परिपूर्ण शुभ्रबादलों की पंक्ति हष्टिगोचर हो रही है । देवगण इस पर्वत पर देवाङ्गनामों के साथ विहार कर रहे हैं । अपने अन्दर मरिणयों को धारण करने वाला शिलातलों को प्रकट करने वाला, गुफापों वाला यह पर्वत ऊंची चोटियों से सुशोभित है। किसी राजा के यहाँ फहराते हुए ध्वजा के वस्त्रों के समान, झरनों से यह पर्वतराज, मानों स्वामित्व पाने का इच्छक हो रहा है । इस पर्वत की गृफार्य ऐसी लगती हैं, .मानों पहले इन्द्र के वज्र द्वारा किए गए घाव हो। x x x x । शब्दालंकार से अलंकृत इसी पर्वत का वर्णन देखिए--- "विपल्लवानामिह सम्भवोऽपि न विपल्लवानामुत शाखिनामपि । सदा रमन्तेऽस्य विहाय नन्दनं सदा रमन्ते रुचिनस्ततः सुराः ॥" -जयोदय, २४१५५ पर्थात् इस पर्वत पर विपत्ति के लेशमात्र को भी सम्भावना नहीं है, यहां के वृक्षों में पत्तों का प्रभाव नहीं है। इस पर्वत पर देवगण देवांगनाओं के साथ नन्दन वन को छोड़कर सदैव रमण करते रहते हैं)। अपनी पत्नी के समक्ष उस पर्वत का वर्णन करके जयकुमार ने देवमन्दिर देखा। १. वीरोदय, २. जयोदय, २४॥३७-५७ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०३ महाकवि ज्ञानसागर का वर्णन-कौशल विजयाद्ध-पर्वत इस पर्वत का कवि ने दो बार उल्लेख किया है, एक बार वीरोदय में मोर एक बार भद्रोदय में। प्रथम बार तो मात्र इसकी भौगोलिक स्थिति ही बता दी गई है। पर दुसरी बार अवश्य ही कवि ने इस पर्वत का कुछ विस्तार से वर्णन किया है . विजयाई पर्वत भारतवर्ष के मध्य में स्थित है । अत: यह भारतवर्ष को दो बराबर भागों में विभक्त करता है । इसकी कान्ति कपुर की राशि को और माकृति शेषनाग को पराजित करने वाली है । कपूर की राशि से भी अधिक श्वेतिमा को धारण करता हुआ यह पर्वत, पृथ्वी रूपी वृद्धा स्त्री की चोटी के समान सुशोभित हो रहा है । इस पर्वत के अपने विस्तार से भाकाश, पृथ्वी, पाताल तीनों लोकों को घेर रखा है । इस पर्वत को जो श्रेणियां हैं--- उत्तर श्रेणी मोर दक्षिण घेणी । इन दोनों श्रेणियों में विद्यारों की नगरियाँ अवस्थित हैं । इस पर्वत में वहां के राजामों को विजय दिलाने वाली वो सरंगे विद्यमान हैं। इसके सुखद वातावरण में विहार करने के लिए विद्याधर-कुमारियां पाती ही रहती हैं, और यहां प्राकर गीत गाया करती है । सदर स्त्री की शोभा को धारण करने वाली इस पर्वत की तलहटी में केले के खम्भे, लीची के पेड़ एवं काश-पुष्प विद्यमान है। इस पर्वत के उत्तर में मलकापुरी की स्थिति है। १. वीरोदय, २१८ २. भरतेऽत्र गिरिमहा रुविजया? धरणीभृतां गुरुः । य उदक समुपस्थितोऽमुतः स्थलतः सम्वलतः प्रवर्तिनः । स्वयमर्द जयाय मध्यमो भरतस्यास्ति च चक्रवर्तिनः ।। स्वरुचा धनसारभारजित प्रजरत्या अवनेः स भूधरः । ननु शेषमशेषयन्नहिं पृथुवेणीप्रतिमोऽतिसुन्दरः ॥ शिखररभिगम्य योऽम्बरं स्वहद्भिः सकलं भुवस्तलम् । त्रिजगत्सु पुनारसातलमयमाकामति मूलतोऽचलः ॥ तटिनीद्वयतो महीभृति परिणामेन महीयसी सती। नगरीष्विति राजते वहन्निह विद्याधरलोक संग्रहः ॥ प्रविति सुरंगयुग्मकं सहजं येन नरेश्वरोऽनकम् । इत उत्तरसम्भवस्थल विजयायैति अपैति चोद्वलः ।। इह पर्यटनार्यमागतां खगकन्यास सुरीं समाहृताम् । अनिमेषरशेव पश्यति न परं भेदमुतामरोऽस्यति ।। विपिनेऽस्य कुतोऽपि कोतकान्मिलितागीतवतीस तास का। प्रतिमार्दवतो नभश्चरी स्ववभातीव गुणेन किन्नरी ।। Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ श्रीपुरु पर्वत - इस पर्वत का वर्णन केवल एक स्थल पर मिलता है । जयोदय महाकाव्य में सुमेरु पर्वत को देखने के बाद जयकुमार की इच्छा श्रीपुरुपर्वत देखने की हुई। जब गजराज अपने शरीर की कान्ति को धारण करने वाले उस पर्वत की शिलानों को अपना प्रतिद्वन्द्वी गज समझकर उन पर अपने दांतों का प्रहार करता है तो वे टूट जाती हैं । उस पर्वत पर विचरते हुए हाथी ऐसे लगते हैं, मानों पृथ्वीपति इस पर्वत की सेवा के लिए उतरे हों । महाकवि ज्ञानसागर के काव्य - एक अध्ययन X X X अनेक मणियों के समूह की कांति से इन्द्रधनुष की मनोहारिणी शोभा को वह पर्वतराज बादलों तक फैला रहा है । कहीं-कहीं पर नीलमणियों की कान्ति से उत्पन्न बादलों की भ्रान्ति के कारण समय में ही मयूर नृत्य करने लगते हैं। XX X इधर-उधर घूमते हुए चमरी मृगों के बहाने सुन्दर श्रोसकरणों से चमकता हुआ वह पर्वत उत्तम यश को नित्य धारण करता है। इसके स्वच्छ तट पर कहीं-कहीं गुंजाफल गिरते रहते हैं । XX X गुलाब के फूलों से युक्त यह पर्वत श्यामल, सुवर्ण, लोहित और घवल कांति को धारण कर रहा है। गंगा के शुभ्र जल रूप यश से मानो वह पुरु पर्वत श्वेत बनाया गया हो । समीपस्थ गंगा नदी वाले उस पर्वत को देखकर मनस्वियों के हृदय में श्रमृततुल्य उस गंगाजल को पीने की इच्छा हो जाती है XX । एक स्थल पर कवि ने कंचनगिरि का भी उल्लेख किया है । २ वास्तव में पर्वत स्वाभिमान के प्रतीक हैं और ये प्रकृति के प्रावश्यक अंग हैं। कोई भी कवि जन प्रकृति-वर्णन में लीन होता है तो उसका पर्वतीय प्रकृतिवर्णन प्रन्यस्थलीय प्रकृति-वर्णन से कहीं अच्छा बन पड़ता है । श्रीज्ञानसागर ने कथाप्रसंग के अनुसार अपने काव्यों में पर्वतों का उल्लेखमात्र भी किया है पोर प्रावश्यकता होने पर उनका विस्तृत वर्णन भी किया है। उनका पर्वतीय वर्णन जहाँ उनके भौगोलिक ज्ञान का परिचय देता है, वहाँ प्रालङ्कारिक होने के कारण उनके काव्य-शास्त्रीय ज्ञान का भी परिचय देता है । रुचिमल्लकुचाञ्चिता तटीह पवित्रोद्भविकाश संकटी । युवतेः सःशी महीभृति मृदुरम्भोरुतया मता सती ॥ मलकानगरी गरीयसीह गिरावुत्तरतो नहीदृशी । + + १. जयोदय, २४।१६-३४ २. भद्रोदय, ५।३१ +11 - श्री समुद्रदत्तचरित्र, २१-१० Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर का वर्णन-कोशल २०५ वन वर्णन प्रकृति-वर्णन करते समय पर्वत-वर्णन के बाद वन-वर्णन का क्रम है । क्योंकि प्रायः वन पर्वतीय स्थलों में ही होते हैं। वनों में ऋषि-मुनियों के प्राश्रम एवं कुटो तथा भिन्न-भिन्न प्रकार के पत्र-पुष्प मन को प्रसन्न करते हैं, साथ ही हिंसक जीवधारियों की उपस्थिति मन में भय भी उत्पन्न करती है। श्रीज्ञानसागर की रचनाओं में नौ बार वनों का उल्लेख मिलता है--भद्रोदय में एक बार, वीरोदय में चार वार, जयोदय में भी चार बार। इनमें से भद्रोदय में प्रासनाभिधान वन का,' वीरोदय में सावणं, ग्राम्र. अशोक और चम्पक से युक्त वन का,२ कल्पवृक्ष वन का, केवल नाम-मात्र के लिए उल्लेख मिलता है तथा वीरोदय में ही एक मन्य स्थल पर वन-सामान्य का एक श्लोक में कुछ मालङ्कारिक वर्णन भी मिलता है। इसी प्रकार जयोदय में हिमालय वर्णन के प्रसङ्ग में सालवान का भी एक श्लोक में उल्लेख मात्र मिलता है। वीरोदय में वसन्त-ऋतु वर्णन के प्रसङ्ग में कवि ने यत्र-तत्र वन की शोभा का उल्लेख किया है : . वसन्त-ऋतु में सारा वन-प्रदेश, पुष्पों के पराग से युक्त हो रहा है। कोयल रूप पुरोहित, कामाग्नि रूप यज्ञाग्नि, भ्रमर-गुंजार रूप वाद्य-ध्वनि वन देवता मोर ऋतुराज वसन्त के शुभ-पाणिग्रहण का मनोहारी दृश्य उपस्थित कर रहे हैं। X x x वसन्त ऋतु में वन में गुलाब और कमल के पुष्प विकसित हो रहे हैं। कमलिनी का पराग वायु के वेग से कमल को जीतने वाले हाथों को धारण करने वाली स्त्रियों को पांखों में पड़ रहा है । जयोदय में एक स्थल पर काव्य-नायक जयकुमार का शरीर वन-शोभा से रोमांचित हो गया है । वन शोभा से प्राकृष्ट होकर वह धीरे-धीरे दिशामों में दृष्टि डाल रहे थे । वहां उन्होंने साधुजनों से युक्त, सुन्दर-सुन्दर बगीचों को देखा है पौर हर्ष का अनुभव किया है। मुलोचना से विवाह के पश्चात् जयकुमार गङ्गा-नदी के तट पर पहुँचे। इस स्थल पर वन-क्रीड़ा के प्रसंग में वन-शोभा का वर्णन मिलता है। गंगा-नदी के १. भद्रोदय, ४१६ २. वीरोदय, १३।११ ३. वही, १३।१३ ४. वही, १०।२१ ५. जयोदय, २४।३८ ६. वोरोदय, ६।१३-१४, ३४-३७ ७. जयोदय, १८८-६० Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य - एक अध्ययन सुन्दर तट पर जयकुमार की इच्छा उत्सव मनाने की हुई । वहाँ उन्होंने एक सुन्दर वन देखा । वह वन उस समय कल्पवृक्षों से प्रतिमनोहारी लग रहा था । सुन्दरसुन्दर पुष्पों से युक्त वह वन, नन्दन वन के समान पुण्यात्मा ऋषियों के द्वारा सेव्य था । उस वन में ऊंची-ऊंची शाखाओंों वाले वृक्ष थे। वह इन फलों की शोभा से समृद्ध था । उसमें सुन्दर-सुन्दर बिल्वफल थे । XX X प्रपने मुख से स्पर्द्धा के फल को देने के लिए, खिले हुए पुष्पों को लेने के लिए उत्सुक महिला, भ्रमर के द्वारा पीड़ित होकर सीत्कार कर रही थी। ऐसे वन में जयकुमार और सुलोचना सुशोभित हो रहे थे । ' जब जयकुमार सुलोचना के साथ विवाह करके लोट र थे, तब मागं में एक सुन्दर बन देखा । तब उन्होंने पत्नी सुलोचना से कहा--' यह वन मनुष्य को रोमांचित करने वाला है। हे प्रिये ! इस वन की पवित्र वायु, हमारे मार्ग जनित श्रम का हरण करने वाली है। इस वन में प्रजन वनों से मार्ग को पृथ्वी कुलवनों के समान सुशोभित हो रही है । यहाँ के मोरों की कान्ति तुम्हारे केशों जैसी है । हे मन्दगामिनि ! तुमसे ही चलने की शिक्षा यहां के हाथी प्राप्त कर रहे हैं मोर देखने की कला में अपने को तुमसे पराजित पाकर यह मृग भाग रहा है । " इस प्रकार श्रीज्ञानसागर के काव्यों में प्राप्त होने वाले वन वर्णन को देखने से पता चलता है कि कवि ने वन-वर्णन बहुत विस्तृत नहीं किया है, जहाँ किया भी है वहाँ कथा प्रसंग के अनुसार किया है। श्री ज्ञानसागर के वन-वन का एक वैशिष्ट्य घर है, वह यह कि उनका बन वर्णन सुकुमारता से प्रोत-प्रोत है । कहीं भी कवि ने हिंसक पशुयों से होने वाली वन की भयानकता का उल्लेख नहीं किया है । मेरे विचार से यदि कवि वनों की निर्जनता, भयानकता, दुर्गमता मोर हिंसक पशुओं की उपस्थिति का चित्र खींचकर एक बार पाठक के हृदय को कम्पित कर देता तो उसका वन-वर्णन पूर्णता को प्राप्त हो जाना । I नदी-वर्णन - नदी - वन भी कविकृत प्रकृति-वर्णन का एक महत्वपूर्ण अङ्ग हैं । प्रकृतिप्रेमी प्रत्येक सुकवि जहाँ पर्वतों और वनों का प्रालङ्कारिक-वर्णन करने में कुशल होता है, वहाँ वसुन्धरा के वक्षस्स्थल पर हार के समान सुशोभित नदियों का स्वभावोक्तिपूर्ण वर्णन करने में भी उसको कुशलता प्रकट हो जाती है। महाकवि श्रीज्ञानसागर की रचनाओं में नदियों का उल्लेख प्राठ बार माया १. जयोदय, १४।१-१४ २. वही, २१।४१०४ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर का वर्णन कौशल है । दो स्थलों पर भारतवर्ष और अंगदेश को स्थिति को बताते समय ' कवि ने नदियों का केवल नाम मात्र के लिए ही उल्लेख किया है । इसके प्रतिरिक्त एक स्थल पर विदेह देश की नदियों का एक स्थल पर अवन्ती- प्रदेश में बहने वाली शिप्रा नदी का, और चार स्थलों पर देवनदी गङ्गा का वर्णन किया है । , विदेह देश की नदियों का वर्णन करते हुए कविवर लिखते हैं कि 'विदेह देश की नदियाँ स्वच्छ जल वाली थीं, और निरन्तर जल से भरी हुई होकर प्रवाहित होती थीं। उनमें विकसित नीलकमलों के बहाने अपने नेत्रों को खोलकर पृथ्वी मानों उस देश की समृद्धि का अवलोकन करती है । समीपस्थ वृक्षों को छोड़कर नीचे समुद्र की प्रोर जाती हुई नदियों का यह कार्य वैसा ही है जैसे कोई प्रमदा प्रपने समीपस्थ तरुण को छोड़कर किसी वृद्ध पुरुष से मिलन के लिए जाय । २ भवन्ती प्रदेश में बहने वाली शिप्रा नदी का भी कवि ने बड़ा ही प्रालङ्कारिक वर्णन किया है : २०७ 1 अवन्ती प्रदेश में शिप्रा नाम की नदी है, जिसके सम्पर्क से शीतल होकर वायु पथिक जनों का पसीना सुखाने में समर्थ होता है । इस नदी में मछलियाँ प्रसन्नतापूर्वक क्रीडा करती हैं । प्रत्यधिक लहरों से युक्त होने के कारण यह नदी बहुत से सिहों वाली प्रटवी की समता करती है । अमृततुल्य जल से परिपूर्ण होने के कारण स्वर्गीपम हो रही है, गम्भीरता को धारण करती हुई ब्रह्मविद्या के समान हो रही है, अपने जल से दोनों किनारों को ऐसे तोड़ रही है, जिस प्रकार एक व्यभिचारिणी स्त्री अपने दोनों कुलों- पितृकुल और पतिकुल को कलंकित करती है । 3 यह पहले ही कहा जा चुका है कि देवनदी गङ्गा का वर्णन कवि ने चार स्थलों पर किया है। सर्वप्रथम माकाशगङ्गा का प्रसङ्ग प्राता है । भगवान् महावीर के जन्माभिषेक हेतु इन्द्र देवगणों सहित कुण्डनपुर के लिए प्रस्थान करते हैं । मागं मैं daver प्राकाशगङ्गा के दर्शन करते हैं, उन्हें वह गङ्गा शुभ्रसलिला होने के कारण ऐसी लगती है, जैसे वह अत्यन्त वृद्ध देवलक्ष्मी की वेणी हो, या स्फटिक मणियों से विरचित स्वर्गलोक के मुख्य द्वार की देहली हो । ४ गङ्गा नदी के वर्णन से सम्बन्धित दूसरा स्थल वहाँ पर है, जहाँ जयकुमार सुलोचना के साथ काशीनगरी से निकलकर गङ्गा नदी के तट पर ठहरते हैं। गंगा १. (क) वीरोदय, २८ (स) सुदर्शनोदय, २।१५ २. दयोदय, २०१५-१७ ३. दयोदय, १ श्लोक २१ के बाद का चतुर्थ गद्यभाग । ४. वीरोदय, ३।७-६ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य - एक अध्ययन नदी पृथ्वी पर विस्तीर्ण, मनोहर मोर जयकुमार को प्रसन्न करने वाली थी । इस नदी के बहते हुए जल को देखकर जयकुमार को ऐसा लगता है मानों उनके तेज से पिचलती हुई बर्फ हो । XXX इस नदी के किनारे राजहंसों की पंक्ति सुशोभित थी। इसमें अनेक कमल थे। इस प्रकार लहरों से युक्त, जिनवाणी के समान यह नदी संताप को दूर करने वाली थी । कुशावास से युक्त यह नदी अपने सौन्दर्य से सीता की समता धारण करती थी । नदी के किनारे वृक्षों में स्थित तोते पथिकों के मन को आकर्षित करते थे । कमलिनियों से युक्त, पक्षियों से शब्दायमान कीर्ति की साक्षात्स्वरूप, यह नदी जगत्त्रय को जीतने की इच्छा करने वाले कानदेव की सेना के समान थी । कामदेव के द्वारा प्रज्वलित अग्नि से प्रस्फुटित होती हुई चिनगारियों के समान, इस नदी के कमलों के पराग के करण मानों कामदेव की प्राज्ञा से मनस्वियों के मन को सन्तप्त कर रहे थे । इस नदी के तट पर तिरछी गर्दन वाला बगुला प्राते हुए मनस्वियों के मन में श्वेत कमल को भ्रान्ति उत्पन्न कर रहा था। इस नदी के तट पर बने हुये शिविर दूर होने के कारण कलहंसों की उपमा को धारण कर रहे X X X जल पीने का इच्छुक घोड़ा, इस नदी के जल में पड़ते हुए अपने प्रतिबिम्ब को देखकर, पिपासा को भूलकर अपनी प्रिया को याद कर रहा था। इस नदी के कमलों से सुवासित जनों से हाथियों का झुंड स्नान कर रहा था। + + + इस नदी के निर्मल जल में पड़ती हुई अपनी छाया को देखकर एक हाथी उसे अपना प्रतिद्वन्द्वी गज समझकर उसे मारने के लिए जैसे ही से दौड़ा, वैसे ही वह नदी के जल में डूबकर मृत्यु को प्राप्त हो गया। हाथी उस नदी के जल में अपने शरीर के सन्ताप को शान्त कर रहे थे। कोई हाथी इस नदी के जल से कमलनाल ले रहा था। कोई हाथी अपने सिंर पर श्रादर सहित धूलि धारण कर रहा था। हाथियों का झुण्ड इस नदी के जल में क्रीड़ा करके उसे व्याकुल कर रहा था । ऐसी पवित्र जलवाली इस नदी के समीप में राजा जयकुमार अपनी सेनासहित ठहरा । " १. जयोदय, १३।५३-११६ २. वही, १४।४२- ४६ ३. बही, २०१४५-७५ गङ्गानदी के वर्णन से सम्बन्धित तृतीय स्थल वह है, जहाँ जयकुमार की वनकोड़ा का वर्णन है । इसके अतिरिक्त कवि ने गङ्गा नदी का विस्तृत भौर सुन्दर air aहाँ पर किया है, जहाँ सुलोचना डूबते हुये जयकुमार की रक्षा करने के लिये मन्त्रों का जाप करती हुई गङ्गा नदी के जल में प्रविष्ट होती है । उपर्युक्त नबीवन से ही कवि के कौशल का परिचय सुधी पाठकों को हो जाएगा, इसलिए इन Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर का वर्णन - कौशल २०८ दो स्थलों से सम्बन्धित नदी-वर्णन को विस्तार न देकर मैंने इनका परिचय मात्र कराना ही उचित समझा है । सरोवर-वर्णन कविवर ज्ञानसागर की कृतियों के परिशीलन से ऐसा लगता है कि सरोवरवर्णन की सम्भवतः उन्होंने उपेक्षा कर दी है । कवि ने सरोवर प्रथवा उसके तीर का वर्णन पाँच बार किया है, पर वह है अत्यन्त संक्षिप्त | विदेह, मालव और अंग देशों की भौगोलिक स्थिति का परिचय कराते समय कवि ने वहाँ स्थित सरोवरों का उन्हीं देशों की समृद्धि को बताने के लिए उल्लेखमात्र ही किया है ।" यदि हम एक स्थल पर उल्लिखित उनके प्रत्यल्प सरोवर-वर्णन को देखें, तो हम यह कल्पना अवश्य कर सकते हैं कि यदि कवि ऋतु इत्यादि के समान सरोवरों के सौन्दर्य का वर्णन करता, तो उसे सफलता अवश्य ही मिलती। वह लघु उद्धरण द्रष्टव्य है :" सुप्रसिद्ध मालवना मदेशः - - ललिताप्सरः । परिवेषतया च किला परस्वर्गप्रदेश इव समवभासते ।" - ( दयोदय, १ श्लोक 8 के बाद का गद्यभाग 1 ) मनोहारिणी प्रप्सरानों से (प्रर्थात् - सुन्दर जलाशयों से युक्त वह मालव देश युक्त स्वर्ग के समान सुशोभित होता है । ) ग्रीष्म ऋतु वर्णन-प्रसङ्ग में कवि ज्ञानसागर ने सरोवर मीर उसके तीर का भी प्रतिसंक्षिप्त किन्तु स्वाभाविक चित्रण किया है -: जिस प्रकार श्रेष्ठ राजा के शासन करने पर राज्य में मूर्खों का प्रभाव होने लगता है, उसी प्रकार सहस्ररश्मि भगवान् सूर्य का प्रताप प्रचण्ड होने पर सरोवर का जल भी सूखने लगता है । सरोवर का जल प्रस्यन्त तप जाता है, इसीलिए भ्रमर कमलों का प्राश्रय छोड़कर समीपस्थ वृक्षों की लताओं का प्राश्रय ले लेते हैं। सरोवर के तौर पर राजहंस कमल युक्त मृणालखण्ड को मुंह में रखकर शोभित होते हैं । १. (क) बीरोदय, २०१६ समुद्र-वर्ष - नदी मौर सरोवर तो जलसम्पदा के छोटे-छोटे रूप हैं, पर जलसम्पदा का वास्तविक सौम्यं तो हमें रत्नाकर में हो देखने को मिलता है । श्रीज्ञानसागर ने भी अपनी रचनाओं में सात बार समुद्र का और दो बार उसके तट का वर्णन किया है । (ख) सुदर्शनोवय १।१e , (ग) दयोदय, १ | श्लोक & के बाद का गद्यभाग । वीरोदय, १२-८-२० Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० महाकवि ज्ञानसागर के काव्य --एक अध्ययन जम्बूदीप' और भारतवर्ष की स्थिति बताते हुए२ कवि ने उपमान रूप में समुद्र का केवल उल्लेखमात्र ही किया है । वर्षा ऋतु-वर्णन के प्रसंग में समुद्र का संक्षिप्त वर्णन किया गया है : वर्षा ऋतु में प्रत्यधिक अल वाली नदियों के जल को पाकर समुद्र के जल में वृद्धि हो रही है । अत्यधिक जल-ग्रहण करने से उस समुद्र के ऊपरी भाग में फेनसमूह वैसे ही दृष्टिगोचर हो रहा है, जैसे मद्यपान से उन्मत्त पुरुष के मुंह से झाग निकलने लगते हैं । भगवान महावीर के जन्माभिषेक के समय कवि ने समुद्र का विस्तत वर्णन किया है । नवजात शिशु भगवान् वीर का अभिषेक करने के लिए देवगण उन्हें सुमेरु पर्वत पर ले गए । क्षीर सागर के जल से उनका अभिषेक किया गय! । मानों वह समुद्र वृद्धावस्था के कारण ऊपर नहीं जा पा रहा था, इसलिए देवगण ही उसे भगवान् के समीप ले जाकर उस पर बड़ी कृपा कर रहे थे। उसकी तट सम्पदा युवती स्त्री की शोभा को धारण कर रही थी, जिसमें लीनी, अखरोट, बहेड़ तथा तिलक जाति के वक्ष थे, देवगण इस तट-सम्पदा का निरीक्षण कर रहे थे। जिस प्रकार एक वृद्ध पुरुष का शरीर झुरियों वाला होता है वैसे ही समुद्र में तरंगें थी। कोमल पत्तों और माम्रवृक्षों को विकसित करने वाली शरजाति की घास से युक्त समुद्र की वेला देवतामों के लिए सुखदायिनी हुई जब देवगण भगवान के अभिषेक-हेतु क्षीरसागर से जल ले जा रहे थे, तब ऐया लगता था मानों वह कोई पूज्य वृद्ध व्यक्ति हो। समुद्र के जल को पवित्र करने के लिए ही मानों इन्द्र ने उससे भगवान् का अभिषेक किया। भगवान् के शरीर के लिए उस समुद्र की जलधारा अजलि के समान प्रत्यल्प हो गई। उसका जल चारों ओर फैलकर, दिशायों की प्रसन्नता को प्रकट सा करने लगा। ऐसा लगता था, मानों भगवान् की देह से उपकृत एवं प्रसन्न समुद इन्द्रपुरी पहुंच रहा हो। महाकवि ज्ञानसागर ने समुद्र एवं समुद्र-तट का जो यह स्वाभाविक चित्र पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया हैं, यह प्रसंगवग ही है। इसीलिए उनके अन्य प्राकृतिक पदार्थों के वर्णन के समान यह विस्तार नहीं पा सका है। फिर भी उपमा मोर उत्प्रेक्षा अलंकारों से युक्त होने के कारण यह समुद्र-वर्णन प्रतीव मनोहर है। १. वीरोदय, २०४ २. वीरोदय, २१७, ८७-८ ३. वीरोदय, ४।२३-२४ ४. वोरोदय, ७।२२.२८, ३३ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २११ महाकवि ज्ञानसागर का वर्णन-कौशल यदि कवि इसे और भी विस्तार देता, तो इसकी मनोहारिता में प्रोर भी वृद्धि होती। द्वीप-वर्णन महाकवि ज्ञानसागर ने अपनी रचनामों में द्वीप-वर्णन चार स्थलों पर किया है । इन चार स्थलों में से दो स्यलों में वर्णन तो क्या किया है, केवल नाम-मात्र के लिए द्वीपों का उल्लेख कर दिया है - एक तो मालव देश की स्थिति बताते समय जम्बूद्वीप का उल्लेख किया है दयोदय चम्पू, १ श्लोक के बाद का गद्यभाग; मोर दूसरा जब भद्रभित्र धनार्जन हेतु घर से प्रस्थान करता है, तब रत्नद्वीप का उल्लेख किया है श्री समुददत्तचरित्र ३.१७. पर वीरोदय में भारतवर्ष की स्थिति बताते हुए कवि ने जम्बूद्वीप का कुछ भी दर्णन किया है, जो इस प्रकार है : ____ असंख्य द्वीपों वाली, समुद्र से घिरी हुई पृथ्वी के मध्य में 'जम्बू' नामक सर्वढीपशिरोमणि दीप प्रतिष्ठित है । इस जम्बूद्वीप के मध्य में एक लान योजन ऊंचा सुमेरु पर्वत है । जम्बूद्वीप के नीचे शेषनाग रूप दण्ड स्थित है; और ऊपर सुवर्ण-क्लंश के समान सुमेरु पर्वत है, इन दोनों के होने से जम्बूद्वीप छत्र की उपमा को धारण कर रहा है। इस गोलाकार दीप के चारों मोर समुद्र की स्थिति है। इसके सात-क्षेत्रों में दक्षिण दिशा में स्थित किसी क्षेत्र में भारतवर्ष की स्थिति है (वीरोदय, २॥१-५) ___ इसी प्रकार प्रङ्ग-देश की स्थिति को बताते समय भी कवि ने पुनः जम्बूद्वीप का वर्णन किया है : विद्वानों को प्रानन्दिन करने वाला, द्वोपाधिपति, पर्वतश्रेष्ठ सुमेरुपवंत को मुकुट के समान धारण करना हमा, पृथ्वी के मध्य में प्रसिद्ध जम्बूद्वीप स्थित है। यह जम्बूद्वीप एवार्थचतुष्टय का प्राश्रय स्थान है, अनादिसिद्ध है, विचारशील लोग इसकी चर्चा करते ही रहते हैं। इस प्रकार का यह श्रेष्ठद्वीप, पुण्यरूप सम्पदा मंगलदीप की समता को धारण करता है। इसके एक भाग में भरत नामक क्षेत्र की अवस्थिति है (सुदर्शनोदय, १।११-१२।) ऋतु-वर्णन प्रत्येक मानव के जीवन की कुछ विशिष्ट प्रवस्थाएं होती हैं, जिनका क्रम है-शैशवावस्था, बाल्यावस्था, किशोरावस्था, युवावस्था, प्रौढावस्था पौर वृद्धावस्था । इसी प्रकार प्रकृति देवी भी कुछ विशिष्ट अवस्थामों में होकर गुजरती है-ये प्रवस्थाएं हैं-शरद, हेमन्त, शिशिर, वसन्त, ग्रीष्म पोर प्रावट । प्रकृति अपनी इन अंवस्थानों से स्वयं तो प्रभावित होती ही है, साथ ही अपने सम्पर्क में आने वाले प्रत्येक प्राणी को भी प्रभावित कर देती है। फिर सुकुमार हृदय कवि तो उससे कुछ ज्यादा ही प्रभावित होता है । अपने पालोच्य महाकवि शानसागर की Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य-एक अध्ययन रचनामों के परिशीलन से ज्ञात होता है कि प्राकृतिक पदार्थों में यदि किसी पदार्थ ने उन्हें अधिक प्रभावित किया है, तो वह है ऋतु । उन्होंने प्रायः प्रत्येक ऋतु का सर्ग-पर्यन्त वर्णन करने का सफल प्रयत्न किया है । उन्होंने अपने काव्यों में बसन्त, शरद, हेमन्त, ग्रीष्म और वर्षा का वर्णन किया है । तो लीजिए, सर्वप्रथम ऋतुराज वसम्त का ही अभिनन्दन कीजिए बसन्त-वर्णन ___ कवि की रचनायों में वसन्तवर्णन दो स्थलों पर मिलता है । ऋतुराज बसन्तवर्णन का प्रथम स्थल तो वह है, जब सिद्धार्थ की रानी प्रियकारिणी गर्भवती होतो हैं । उस समय ऋतुराज वसन्त के प्रागमन पर कामदेव के बल में वृद्धि हो गई, सूर्य उत्तरायण पर अवस्थित हो गया, पृथ्वी के चारों भोर फूलों का पराग विखर गया, वायु इस पराग को वनस्थली में बिखरा रहा है, पुंस्कोकिल का मधुर-स्वररूप मंत्रोच्चारण, कामदेवरूप अग्नि, भ्रमरों का गंजन, वन-लक्ष्मी पौर ऋतुराज के विवाह का दृश्य उपस्थित कर रहे हैं। प्रशोक-वक्ष पीड़ित-पथिक को मूच्छित करके अपने नाम को निरर्थक कर रहा है । चन्दन-वक्षों की सुरभि से सुरभित मलय-पर्वत से माने वाली हवा उत्तरदिशा की ओर प्रवहमान हो रही है । एक ओर यह ऋतु स्त्रियों को वन विहार के लिए प्रेरित कर रहा है, दूसरी पोर विरही जनों को संताप दे रहा है । वसन्त ऋतु में विकसित होती हुई अाम्रमंजरी कोयल को सुख पहुँचा रही है। खिले हुए पुर विश्वविजिगीषु कामदेव के बारण हैं; और कोयल का स्वर प्रयाण-सूचक शंख निनाद है। भ्रमर कामो-पुरुष के समान ही ग्राम्रमंजरी को चुम्बन कर रहे हैं। भ्रमरों से शब्दायमान, पाम्र मंजरी से संयुक्त, सहकार के वृक्ष पथिक जनों की उनकी स्मति जगाकर पीड़ित कर रहे हैं। पुष्पोत्पत्ति, भ्रमरगुंजन मलयानिलप्रवहण, नारीचेष्टा, कोकिलस्वर-ये पांचों पुष्पधन्वा वामदेव के बारण है, इन्हीं से कामदेव संसार में विजय प्राप्त करता है, और दियोगी जनों को पीड़ित करता है। विकसित पुष्पों का पराग चारों पोर इस प्रकार फैल रहा है, मानों वसन्तश्री के मुख की शोभा को बढ़ाने वाला चूर्ण हो, या वियोगी जन के शरीर में लगाने वाली भस्म हो, या कामदेव की पताका का वस्त्र हो। भ्रमरों की पंक्ति पथिक-जनों को रोकने वाला अंकुश है, अथवा दनस्थली की सुन्दर वेणी है, या. कामरूपी गजराज को बांधने की श्रृंखला है। पलाश के लाल फूल पथिक को सहज ही में उसकी स्त्री का स्मरण करा देते हैं। सूर्य की मन्दगति को लक्ष्य में रखकर कवि उत्प्रेक्षा करता है कि सूर्य सम्भवतः विभिन्न प्राभूषणों से सुसज्जित मृगनयनी स्त्रियों के मुखकमलों का दर्शन करने के कारण ही गगन-मानं पर धीरेपोरे जाता है। भ्रमर और कोकिलों द्वारा मानों कामदेव लोगों को अपने वश में कर रहा है। लवंगंलता पल्लवित और पुष्पित हो रही है। दक्षिण दिशा से माने वाली Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर का वन-कौशल - २१३ वायु मानों सूर्य से वियुस्त दक्षिण दिशा का निःश्वास है। कमलिनियों का पराग स्त्रियों की प्रांखों में पड़ रहा है. ऐसा लगता है मानों कामदेव ने, स्त्रियों के हृदय रूपी धन को चुराने के लिए उन कमलिनियों को नियुक्त किया है । आम्रवृक्षों में संलग्न भ्रमर प्राज मानों वियोगो जनों को दुःख पहुँचाने का पाप करने वाले वसन्त को दुःखी कर रहे हैं। इस वसन्त ऋतु में वन-प्रदेश अत्यधिक शोभा से सम्पन्न हो रहे हैं । चारों प्रोर कामदेव का साम्राज्य फैल रहा है। रसराज शृङ्गार के प्रातिथ्य में जनसमुदाय जुट गया है और लोग प्रसन्नता का अनुभव कर रहे हैं।' दूसरे स्थल पर वन-विहार के पूर्व मानों कवि अपनी शब्दावली से वसन्त का स्वागत करता है :-- स वसन्त प्रागतो हे सन्तः, स वसन्तः ।। परपुष्टा विप्रवराः सन्तः सन्ति सपदि सूक्तमुदन्त: ।।१।। लताजातिरुपयाति प्रसरं कौतुकसान्मधुरवरं तत् ॥२॥ लसति सुमनसामेष समूहः किमुत न सखि विस्फुरदन्तः ।।३।। भूरानन्दमयीयं सकला प्रचरति शान्तेः प्रभवं तत् ।।४।। _ -- -- - स वसन्तः स्वीक्रियतां सन्तः स वसन्तः ।। सहजा स्फुरति यतः सुमनस्ता जडतायाश्च भवत्यन्तः ।।१।। वसनेभ्यश्च तिलालिमुक्त्वाऽऽह्वयति तु दंगम्भयन्तत् । सहकारतरोः सहसा गन्ध: प्रसरति किन्नाह जगदन्तः ।।३।। परमारामे पिकरवश्रिया भूरानन्दस्य भवन्तः ।।४॥२ (वसन्त ऋतु सब प्राणियों का मन लुभाती है। कोयल की मधुर वाणी के साथ ही साथ विप्रवरों के वेदमन्त्रों का स्वर भी सुनाई दे रहा है। चारों ओर विभिन्न प्रकार के पुष्प खिल रहे हैं । सारी पृथ्वी पर प्रानन्द का साम्राज्य हो रहा है । जाड़े की जड़ता को समाप्त करने वाली इस वसन्त ऋतु का स्वागत करो, जिसमें पूष्प विकसित होते हैं। मनुष्य अधिक वस्त्र पहिनना छोड़ देता है । मान-वृक्ष की सुरभि चारों ओर फैल रही है । कोयल की वाणी सुनाई दे रही है।) ग्रीष्म-वर्णन पूर्वभवों का स्मरण करने के अनन्तर भगवान् के मन में उठने वाले विचार वृद्धि को प्राप्त हुए । उस समय ग्रीष्मकाल का आगमन हुआ; और दिन वृद्धिगत होने लगे । सूर्य की प्रचण्डता पर कवि को उद्भावना देखिये : १. बीरोदय, ६।१२-३७ २. सुदर्शनोदय, ६।१-२ गीत। Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३.१४ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य - एक अध्यय न "स्वतो हि संजृम्भितजातवेदा निदाघके रुग्ण इवोष्णरश्मिः । चिरादथोत्थाय करंरशेषान् रसान्निगृह्णात्यनुवादि प्रस्मि ||" ( वीरोदय, १२२ ) ( अर्थात् ग्रीष्म ऋतु में बढ़ती हुई सूर्य की गर्मी को देखकर ऐसा लगता है, मानों वह कोई रुग्ण पुरुष हो । जैसे कोई रोगी पुरुष बहुत समय के वाद शय्या से उठता है और जठराग्नि बढ़ने से जो कुछ मिले, उसे ही खाने में शीघ्रता से प्रवृत्त हो जाता है, उसी प्रकार यह सूर्य भी पृथ्वी के सव रसों को मानों खा रहा है । इस समय वृक्ष अपनी छापा को उसी प्रकार नहीं छोड़ते हैं, जिस प्रकार पुरुष अपनी नवविवाहिता स्त्री को प्रपने समीप से नहीं हटाता । गर्म हवा विरहिणी स्त्रियों के उष्ण श्वास के समानं प्रवहमान है । पधिक जनों में जलाभिलाषा बढ़ रही है । ग्रीष्म के संताप से व्याकुल हाथी, समीन में सोते हुए सर्प को कमलनाल समझकर अपनी सूंढ़ से खींचने लगते हैं । वियोग से सन्तप्त स्त्री के समान ही पृथ्वी भी सूर्य के ताप से सन्तप्त है।+++ कुत्तों की लपलपाती जिह्वा को देखकर ऐसा लगता है, मानों उनके भीतर प्रज्वलित अग्नि की ज्वाला जिल्ह्ना के बहाने बाहर भा रही हो । जलाशयों का जल घटता जा रहा है। सरोवरों के तपते हुए जलों के कारण भ्रमर कमल को छोड़कर लतानों का आश्रय ले रहे हैं । सूर्य के प्रचण्ड ताप के कारण अपने मुख में कमलयुक्त मृणाल खण्ड को धारण करके सपरिवार सरोवर के तौर पर बैठा हुआ राजहंस श्रेष्ठ राजा के समान सुशोभित हो रहा है। सूर्य के प्रखर ताप से सन्तप्त होकर सर्प दीर्घश्वास छोड़कर अवरुद्ध गति बाला होकर, छाया प्राप्ति की इच्छा से मोर के पङ्खों के नीचे ही बैठ जाता है, उसे यह ध्यान ही नहीं रहता कि मोर से उसकी शत्रुता है । गर्मी के कारण पक्षीगण छज्जों के नीचे बने हुए घोंसलों में प्रश्रय ले लेते हैं; प्रोर मयूरगण भी किसी वृक्ष की घनी, सरस, भीगी हुई क्यारी में चुपचाप बैठ जाते हैं। गर्मी से संतप्त होकर भैंसा अपने अंग की छाया को सघन कीचड़ समझकर उसमें लोट-पोट होने लगता है। किन्तु वहाँ की गर्म - धूलि से और भी पीड़ा को प्राप्त करता है । कुछ धनिक लोग बस से युक्त कुटी में निवास करते हैं; कुछ भूमिगत तहखानों में रहते हैं, निद्रा भी मनुष्यों की दोनों प्रांखों के पलकों की शरण ले लेती है । वायु तालवृक्ष के डंठलों पर ही पहुँच जाता है, मोर जल भी सन्तप्त होकर पसीने के बहाने प्रमदानों के स्तनों की शरण लेता है। यहाँ तक कि कामदेव को भी चन्दन - चर्चित-नवविवाहित स्त्रियों के स्तनों का प्राश्रय लेने की प्रावश्यकता हो जाती है । पथिक की गति अवरुद्ध हो जाती है। सूर्य की किरणों से जले हुए भीतरी भाग वाले वृक्षों के कटोरों में पक्षियों के बच्चे प्यास से पीड़ित होकर ऐसे करुरण शब्द करते हैं मानों गर्मी से पीड़ित होकर वृक्षों के कोटर ही चिल्ला रहे हों। दिवसों की दीर्घता पर कवि भद्भावना करते हैं— मोरों की बात छोड़ दी जाय, हिम का शत्रु सूर्य Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर का वर्णन-कौशल भी मानों हिमालय की गुफा में विश्राम करके ही प्रागे जाता है, इसीलिए दिवस बड़े हो जाते हैं। सूर्यास्त के पश्चात् भी पृथ्वी बहुत देर तक गर्म रहती है। वसन्त काल में जो वाय कमलिनियों की सुगन्धि से सुरभित होकर जनसमुदाय को मानन्दिन करता है, प्राज वही वायु गलियों की धूलि को चारों मोर फेंकता हुआ पागल पुरुष के समान अधीर होकर भ्रमण कर रहा है । लू चल रही है । ग्रीष्म ऋतु उसी पुरुष को नहीं पताती है, जो कि स्त्रियों के सामीप्य से होने वाले सुखों का उपभोग करता है । प्रस्वेद से पूर्ण स्तनों मोर नाभिप्रदेश वाली स्त्रियां सरसियों के सूख जाने पर कामीजनों के लिए सरसो का सा पाचरण कर रही हैं।' वर्षा-वर्णन जब प्राषाढ़ मास में कुण्डनपुर के राजा सिद्धार्थ की पटरानी प्रियकारिणी गर्भवती हुई, उस समय ग्रीष्म-काल से उत्पन्न संताप को दूर करने वाली वर्षा-ऋतु का मागमन हुमा । इस ऋतु का आगमन होने पर पृथ्वी पौषधियों, धान्यों पोर शरकण्डों से युक्त हो गई है। चारों ओर नीलकमल विकसित होने लगे हैं, प्रत्यधिक जलवृष्टि के कारण लोगों का मावागमन कम हो गया है। सर्प-समुदाय में वृद्धि हो गई है । प्रनेक दिनों के बाद भी सूर्य के दर्शन नहीं हो रहे हैं। सारा संसार एक विशाल सरोवर सा प्रतीत होता है । मेढकों का स्वर सुनाई दे रहा है, कोयल की ध्वनि कहीं नहीं सुनाई पड़ती है। मेषगर्जना सुनकर मयूर सुन्दर नृत्य प्रस्तुत कर रहे हैं । बादलों के मध्य में बिजली चमक रही है। ग्रीष्मकाल में समुद्र से लिया गया जल उसी को लौटाया जा रहा है। कभी-कभी प्रोले भी गिर रहे हैं। कमलोत्पत्ति नहीं हो रही है। यह ऋतु विधवा युवतियों को सन्तप्त कर रही है। कुटज वृक्ष के पुष्पों पर गिरी हुई जल की बूंदें मोतियों के समान प्रतीत होती हैं। वायु अपने प्रचण्ड वेग से चातक के मुख में जाने वाली जलबिन्दु को रोककर उसके ऊपर अत्याचार कर रहा है। रात्रि होने पर जुगनूं चमक रहे हैं, ऐसा लगता है मानों प्राकाश का नक्षत्र-समूह मेषों से पीड़ित होकर पृथ्वी के पास मा गया है। स्त्रियां झूला झूल रही हैं । समुद्र के जल में वृद्धि हो रही है, इसलिए उसमें फेन उत्पन्न हो रहा है । मेघाच्छन्नता के कारण उत्पन्न अन्धकार, दिवस भोर रात्रि में एकरूपता उत्पन्न कर रहा है, ऐसे समय में चक्रवाकी ही दिवस पर रात्रि में भेद करती है । पृथ्वी में नवीन द्वार के अंकुर उत्पन्न हो गए हैं। शरद्-वर्णन सर्वज्ञ भगवान के दर्शनों के लिए ही मानों शरद् ऋतु का पृथ्वी पर पागमन १. बीरोदय, १२-१.३० २. बीरोदय, ४१२-२७ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य- एक अध्ययन हुमा । यह ऋतु वादलों से रहित, निर्मल प्राकाश में तारागणों को धारण करती हुई नवविवाहिता स्त्री के समान सुशोभित हो रही है। लोगों को प्रमुदित करने वाली स्त्री के समान हो इस ऋतु में कमल विकसित हो रहे हैं। शरद-ऋतु में नवविवाहिता से मिलने वाले प्रानन्द का मास्वाद कवि के शब्दों में लीजिए : "परिस्फुरत्तारकता ययाऽपि सिताम्बरा गुप्तपयोधरापि । जलाशयं सम्प्रति मोदयन्ती शरन्नवोदेयमथावजन्ती ।।" (वीरोदय, २१।२) इस ऋतु में साठी धान तैयार हो गया है । सूर्य उत्तरायण से दक्षिणायन की मोर जा रहा है । मेघों के सम्पर्क से प्राप्त होने वाला वर्षाकालीन जो जल लोगों के लिए कष्टकारक हो गया था, वही अमृतवर्षी चन्द्रमा की किरणों के सम्पर्क से प्रास्वाद्य हो गया है। योगियों की सभा में परमात्मरूप सम्वन्धी शब्द का उच्चारण होता है, तो शरद् ऋतु में हंसों का शब्द सुनाई देता है. । योगियों की सभा में भोगी-जन मौन धारण करते हैं तो शरद-ऋतु में सर्पभक्षो मयूर भी चुप हो जाते हैं। योगियों को सभा में सज्जनों का समह स्वर्गप्राप्ति के लिए प्रयत्नशील होता है तो शरद्-ऋतु में चमकते हुए तारागण माकाश में प्रागे बढ़ने का प्रयत्न करते हैं शरद-ऋतु में विकसित हुए कमलों में भ्रभर गुंजन कर रहे हैं। पृथ्वी में कीचड़ भी नहीं है। शरत्कालीन पृथ्वी के सौन्दयं को देखकर ऐसा लगता है मानों कमलमुखी पृथ्वी भ्रमररूपी नेत्रों से शरद् ऋतु के सौन्दर्य का अवलोकन कर इस ऋतु में आकाश और सरोवर की छवि तुल्य है। सरोवरों में श्वेत कमल विकसित हो रहे हैं; मोर पाकाश में तारागणों को कान्ति फैलर ही है। सरोवर बालहंस से सुशोभित हैं; माकाश में चन्द्रमा गतिमान है । आकाश रूपी गृह से मेघों के दोष को चन्द्रिका रूपी निर्मल जल से धो दिया गया है। रात्रि ने मानों वहां चन्द्रमा-रूपी दीपक रखकर तारागणों रूपी अक्षतों को बिखेर दिया है । बिखरे हुए तारागणों को देखकर ऐसा लगता है मानों शरद्-ऋतु के समीप में चन्द्रमा को बाता हुआ देखकर वर्षा-ऋतु क्रोध में प्राकर मुट्ठी में स्थित मणियों को पटक कर वहां से चली गई है। धान्य चरने के लिए पाया हुमा मुगसमूह, धान्य की रक्षा करने वाली सुन्दर बालिकामों के मधुर गीतों को सुनकर धान्य को चरना भूल जाता है। हंसों के सुन्दर शब्दों से पराजित होकर मोर मानों अपने पंखों को उखाड़कर फेंक रहे हैं। कृषक अपने तैयार धान्य को खलिहानों में एकत्र कर रहे हैं। कामदेव के कोष से भगवान सूर्य भी प्रप्रभावित नहीं है। अतः वह सिंह राशि को छोड़कर कन्याराशि पर पहुंच गए हैं। सप्तवणं वक्ष को सुगन्धि से सुगन्धित होकर शरत्कालीन वायु मथुन करने से शिथिल वधुनों की कामवासना को बढ़ा दी है। पुरुषों से करने Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर का वर्णन-कौशल २१७ वाले मधुसमूह से युक्त भूमण्डल पर चलता हुमा राहगीर जब देखता है कि भ्रमर कमलिनी का चुम्बन करता है, तो वह अत्यधिक विचलित हो जाता है। कमलसमूह पर बैठी हुई भ्रमरपंक्ति ऐसी लगती है मानों शरद् ऋतु द्वारा लिखित कामदेव का प्रशस्तिलेख हो । पुष्पित कांस रूप चंवर, सप्तपर्ण रूप छत्र और हंसस्वररूप चारणों की विरुदावली कामदेव को सम्राट् वना रहे हैं । इस ऋतु को रात्रि चन्द्रमा सहित प्रत्यधिक शोभाशालिनी होती है । प्रन्य ऋतु की रात्रि ऐसी शोभा धारण नहीं करती। ऐसी ही इस सौन्दर्यशालिनी ऋतु में भगवान महावीर मुमुक्षु हुए।' शीत (हेमन्त) वर्णन अपने पिता के सम्मुख विवाह के प्रस्ताव को ठकराकर जव भगवान् महावीर संसार की स्वार्थपरक मुर्खता को दूर करने का विचार कर हो रहे थे कि शीतकाल का प्रागमन हो गया । सूर्य कन्या राशि को छोड़कर धन राशि पर मा गया है । इन दिनों हिमपात होते समर जव कोई स्त्री कुएं से जल भर कर आती है, तो बर्फ से उसके वाल इस प्रकार श्वेत हो जाते है कि उसके बच्चे भी उसे नहीं पहिचानते । लोगों की कान्ति मलिन हो रही है, और वृक्ष नष्ट हो रहे हैं। शीतकालीन वाय स्त्रियों के केशों मोर वस्त्रों को प्रस्तव्यस्त कर रहा है। इस समय चारों भोर से बन्द मकान में शय्या में स्थित धनी पुरुषों को तो कोई कष्ट नहीं है, किन्तु वस्त्र भोर प्रावास के प्रभाव से ग्रस्त दरिद्र व्यक्ति एकमात्र भगवन्नामस्मरण का ही सहारा लेकर रात्रि व्यतीत करता है। ऊंट गालों को फुलाकर तरह-तरह के स्वर कर रहे हैं । वानरों की चंचलता समाप्त हो रही है । शीतकाल ने कामदेव की चेष्टानों को निष्फल कर दिया है । रात्रि दिन की अपेक्षा बड़ी हो गई है। चारों ओर शीत का साम्राज्य है, उष्णता केबल पृथ्वी के कुंओं में, वटवृक्षों में पोर सुन्दरी स्त्रियों के स्तनों में ही विद्यमान है । परिवार के सब सदस्य अंगीठी का सेवन कर रहे हैं। सम्भवतः सूर्य भी शीत से व्याकुल होकर x x x बल्दी सोकर देर में उठता है, इसलिए दिन छोटे हो जाते हैं। या यह हेमन्त ऋतु सूर्य से युद्ध करके उसकी उष्ण किरणों को स्त्रियों के स्तनों में पहुँचा रही है। वक्षों के पत्ते गिर रहे हैं, जल की धारा का उल्लेख भी हृदय को कम्पित कर रहा है। मनुष्य सदेव अग्नि के सामने ही बैठने का विचार करते हैं। पक्षियों का संचार रुक गया है । पुरुष अपनी स्त्री के प्रबर वार-वार चूमने की इच्छा करता है। शीतकाल के कारण नवविवाहिता स्त्री अपने पति से अर्द्धरात्रि के समय उपेक्षा नहीं रख पाती। यह शीतकाल तुषार के द्वारा सब को पीड़ित कर रहा है । शीत से रक्षा के लिए ही मानों जनों ने भी वर्फ रूप वस्त्र धारण कर लिया है। कन्द की श्वेत कलियां शीत से भयभीत तारागणों के समान प्रतीत होती हैं। शीतकाल के कारण १. बीरोदय, २१॥१.२० Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य २१८ मनुष्यों के दांत बज रहे हैं। लोग सामने प्रग्नि और पीठ में सूर्य का सेवन साथसाथ करने की इच्छा करते हैं । शीतकाल के कारण, हिरण हाथी, सिंह इत्यादि जीव भी अपनी चेष्टाम्रों में प्रवृत्त नहीं हो पा रहे हैं । " - एक प्रध्ययन कविवर ज्ञानसागर की कृतियों के ऋतुवर्णन के परिशीलन से हमें उनके प्रकृति प्रेमी - कवि होने का वास्तविक ज्ञान हो जाता है । शरद् ऋतु और वसन्त ऋतु के वन में जहाँ हम प्रकृति को सुकुमारता पाते हैं, वहाँ ग्रीष्म ऋतु में प्रकृति की भयंकरता का भी दर्शन होता है । वैसे तो शरत्कालीन आकाश की प्राभा ही ऐसी निराली होती है कि अनायास ही दर्शक को वह प्रपनी ओर खींच लेती है, किन्तु महाकवि श्रीज्ञानसागर जी ने नवविवाहिता स्त्री के रूपक द्वारा शरत्काल का जो उत्प्रेक्षापरक चित्र खींचा है, वह भी सहृदय पाठकों के लिए नयनाभिराम बन गया है । कवि का ग्रीष्म-वर्णन भी यायातथ्य से परिपूर्ण है। साथ ही उत्प्रेक्षात्रों से सुसज्जित होने के कारण, भयंकर होते हुए भी सुधी जनों को प्रानन्दित करके उसे सहस्ररश्मि सूर्य के प्रचण्ड प्रताप से अवगत कराने में भी समर्थ है । काल-वर्णन 1 यह संसार परिवर्तनशील है । यहाँ विद्यमान पदार्थों की एक सी दशा नहीं रहती । मनुष्य सुख, सुखातिशय, सुख-दुःख का सम्मिश्रण, दुःख इत्यादि को समयसमय पर प्राप्त करता है। इसी प्रकार प्रकृति का स्वरूप भी परिवर्तनशील है, कभी प्रकृति-नटी के नीलाम्बर में सूर्योदय होता है, कभी चन्द्रोदय । प्रतिदिन प्रकृति प्रभात, दिवस, सन्ध्या और रात्रि इन चार अवस्थाओं से होकर गुजरती है । प्रकृति प्रेमी श्रीज्ञानसागर ने अपने काव्यों में प्रकृति को इन चारों ही दशाओं का वर्णन कथा प्रसंग के अनुसार किया है । सर्वप्रथम प्राशा का संचरण करने वाले प्रभात का वर्णन प्रापके समक्ष प्रस्तुत है : प्रभात-वर्णन - श्रीज्ञानसागर ने अपनी दयोदय, सुदर्शनोदय मौर जयोदय नामक तीन कृतियों में प्रभातवर्णन किया है । क्योदय में यह प्रसङ्ग उस समय मिलता है, जब रात्रि में गुणपाल के कहने से एक चाण्डाल सोमदत्त को मारने के लिए एक नदी के तीर पर ले भाता है, पर दया उत्पन्न हो जाने के कारण उसे वहीं छोड़कर चला • जाता है । जब रात्रि बीत जाती है तो गुणपाल के इस नृशंस कार्य की सूचना सारे संसार को देने के लिए ही मानों मुर्गे शब्द करने लगते हैं। रात्रि की समाप्ति पर नक्षत्र विलीन हो गए हैं; कमलिनी विकसित हो गई है; मनुष्य लोग निरपराध छोटे-छोटे बालकों को मारने के व्यापार में प्रवृत्त है, इसीलिए भगवान् सूर्य मानों १. बीरोदय ६।१८-४५ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर का वर्णन - कौशल २१६ क्रोध से लाल होकर सहमा प्रकट हो गये हैं । मनुष्यों द्वारा किये जाते हुए इस प्रथम कार्य को देख पाने में प्रसमर्थ होकर ही मानों कुमुदवती ने अपने नेत्र वन्द कर लिये हैं । जिस प्रकार कांग्रेस का उदय होने पर भारतवर्ष से अंग्रेजी राज्य का अवसान हो गया, उसी प्रकार सूर्य के उदय होने पर पृथ्वी से प्रन्धकार भी विलीन हो गया है। प्रातःकालीन पक्षिगणों के कलरव के सम्बन्ध में कवि की यह सुन्दर उद्भावना द्रष्टव्य है : "तेजोभर्तुस्तमोहर्तुः प्रभावमभिकांक्षिणः । विरुदावलीमप्यूचुरचारणा इव पक्षिणः ।। " ( दयोदय, ३1८) अर्थात् जिस प्रकार शत्रुनों का नाश करने वाले राजा की स्तुति चारण इत्यादि गाते हैं, उसी प्रकार अन्धकार का विनाश करने वाले सूर्य रूप राजा की ये पक्षिगण स्तुति करने लगे । पुरुष लोग अपनी स्त्रियों के कोमल भुजबन्धन से निकलकर यथेच्छ रूप से इधर-उधर वैसे ही जाने लगे, जैसे कमलनाल से निकलकर भ्रमर इधर-उधर घूमने लगते हैं । सुदर्शनोदय में कवि ने प्रभात-वर्णन जिनेन्द्रदेव की प्रातःकालीन उपासना के समय गाए जाते हुए भजनों के माध्यम से किया है : अरे ! देखो यह प्रभातवेला उपस्थित हो गई है, जन्ममरणरूप सांसारिक कष्ट को दूर करने वाले जिनेन्द्रदेव रूपी भास्कर के उदय से पापपूर्ण रात्रि, शुभचेष्टावली इस भारतभूमि से न जाने किधर को चली गई है । शुभप्रकाश वाले चन्द्रमा के अस्त हो जाने पर प्रकाश में तारे नहीं दिखाई दे रहे हैं । प्रभात - समय में प्रकाश में पक्षिगण इधर-उधर घूम रहे है । ब्राह्मण लोग स्नानादिक दैनिक क्रियाओं से निवृत्त होकर देवपूजन के लिए कमलों को तोड़ रहे है । इस प्रभातकाल में गुलावादि पुष्पों के ऊपर मंडराते हुए भ्रमरों की मलिन कान्ति दृष्टिगोचर हो रही है । प्रत: इस बेला में, भूमण्डल में प्रजा की शान्ति के लिए भगवान् जिनदेव के चरणों की वन्दना करनी चाहिए। जयोदय में श्रीज्ञानसागर ने जव जयकुमार सुलोचना के साथ गङ्गा नदी तट पर ठहरते हैं, वहाँ के, प्रभात का बड़े विस्तार के साथ, सुन्दर भौर स्वाभाविक वर्णन किया है। प्रापके सामने स्थालीपुलाकन्याय से उस वर्णन से सम्बन्धित कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं :: १. दयोदय, ३ श्लोक ७ के बाद के गद्यभाग से श्लोक १० के बाद के गद्यभाग तक । २. सुदर्शवोदय, ५। प्रथम गीत । Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० महाकवि ज्ञानसागर के काव्य-एक अध्ययन (क) 'यात्येकतोऽपि तु कुतोपि विरज्य राज न्यात्माधिपे परदिशां प्रतियाति राजन् । सत्पुष्पतल्पमसको रजनी दलित्वा रोषारणा विकृतवाग्भरतश्छलित्वा ।। (जयोदय, १८३२) प्रभातकाल में एक प्रोर तो रागरहित चन्द्रमा प्रस्थान कर रहा है, पौर दूसरी मोर सूर्य भी पूर्वदिशा में पहुंच रहा है। इस समय रात्रि वंचिता होने के कारण पुष्पशय्या को बिदलित कर रही है और क्रोध से लाल हो रही है। (ब) "निस्नेहजीवनतयापि तु दीपकस्य संशोच्यतामुपगतास्मि दशा प्रशस्य । संघूय॑मानशिरसः पलितप्रभस्य यद्वन्मनुष्यवपुषी जरसान्वितस्य ।।' (जयोदय, १८॥३७) प्रातःकाल के समय, तेल से रहित होने से हिलती हुई शिखा वाला, मणिक कान्ति वाला, सुन्दर दीपक शोचनीय-दशा को प्राप्त हो गया है, जैसे प्रेम से रहित, जीवन के थोड़ा प्रवशिष्ट रहने से, हिलते हुए शिर वाला, श्वेत वालों वाला भोर वृद्धावस्था से पीड़ित मनुष्य शोक का विषय हो जाता है। (ग) 'नर्मल्यमेति किल धोतमिवाम्बरन्तु स्नाता इवात्र सकला हरितो भवन्तु । प्राग्भूभतास्तिलकवद्रविराविभाति चन्द्रस्तु चोरवदुदास इतः प्रयाति ॥' (जयोदय, १८१६३) इस समय धुले वस्त्र के समान माकाश स्वच्छ हो गया है। दिशाएं ऐसी लग रही हैं, मानों उन्होंने स्नान किया हो । पूर्वदिशारूपी राजा के तिलक के समान सूर्य सुशोभित है, और चन्द्रमा चोर के समान उदास होकर माकाश से प्रस्थान कर (जयादा दिवस-वर्णन दिवस-वर्णन केवल वीरोदय में मिलता है, वह भी अत्यन्त संक्षिप्त पौर केवल दो स्थलों पर। ग्रीष्म-वर्णन के प्रसङ्ग में कवि ने दिनों की दीर्घता पर उत्प्रेक्षा की है : "प्रयात्यरातिश्च रविहिमस्य दरीषु विषम्य हिमालयस्य । नो चेत्क्षणक्षीणविचारवन्ति विनानि दीर्षाणि कुतो भवन्ति।।" (वोरोक्य, १२।२०) Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर का वर्णन-कौशल २२१ प्रतीत होता है कि ग्रीष्म ऋतु में हिम का शत्रु होकर भी सूर्य हिमालय की गुफाओं में विश्राम करके मागे बढ़ता है, यदि ऐसा नहीं है तो ये दिन बड़े क्यों हो इसी प्रकार शीतकाल में दिनों के छोटे होने के सम्बन्ध में भी कवि की उदभावना है कि : "श्यामास्ति शीताकुलितेति मत्वा प्रोत्याम्वरं वासर एष दत्वा । किलाधिकं संकुचितः स्त्रयन्तु तस्य पुनस्तिष्ठति कोतितन्तु ॥" (वीरोदय-६।२९) ऐसा लगता है मानों इस शीतकाल में यह रात्रि शीत से व्याकुल है, ऐसा समझकर दिवस प्रेमपूर्वक उसे अधिक समय दे देता है। और स्वयं संकुचित होकर बैठ जाता है। सन्ध्या -वर्णन श्रीज्ञानसागर ने अपनी दयोदय एवं जयोदय नामक दो कृतियों में दो स्थलों पर सन्ध्या-सुन्दरी का वर्णन किया है । दयोदय-चम्पू में सन्ध्या का वर्णन कवि ने वहां पर किया है जहां घण्टा नामक धीवरी अपने पति मगसेन की प्रतीक्षा कर रही सन्ध्या-समय हो रहा है। भगवान् सूर्य सम्पूर्ण दिन विना रुके घूमने के कारण थक गए हैं, इसलिए प्रस्ताचल के उच्चशृङ्ग का सहारा लेकर विश्राम करना चाहते हैं । बहुत देर के बाद दिवस की समाप्ति पर समीप पाते हुए सूर्य को स्वीकार करने के लिए मानों प्रत्यधिक प्रसन्नता का अनुभव करती हुई, खिले हुए अरविन्दों के समूह से निकले हुए रङ्ग से रङ्गी हुई साड़ी को धारण करती हुई यह पश्चिम विशा अपने पोसलों को खोजने में तत्पर पक्षियों के द्वारा किए जाते हुए कलरव के बहाने सूर्य के स्वागत में गीत गाती हुई सी सुशोभित हो रही है। इस काल में उल्लू पक्षी अपने मन में चोर की तरह प्रसन्नता का अनुभव कर रहा है । चकवी चकवे से वियुक्त हो रही है। कमलिनी अपने अन्दर भ्रमर को बन्द करके कामी पुरुष को अपने प्राश्रय में शरण देने वाली वेश्या के समान पाचरण कर रही है। मूर्ख प्राणी के मन को जिस प्रकार पाप घेर लेता है, उसी प्रकार मत्यकार सारे संसार पर प्राक्रमण कर रहा है। गायें वन से लोटकर पशुशाला में मा चुकी है। जयोदय नामक महाकाव्य में गङ्गा-नदी के तट पर वन-विहार के प्रसङ्ग में कवि ने सन्ध्या का प्रत्यन्त विस्तृत वर्णन किया है, जिसका संक्षिप्त रूप इस प्रकार है : १ दयोदयचम्पू, २ श्लोक ६ और ७ एवं उनके पूर्व एवं बाद के गद्यभाग । Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य - एक अध्ययन प्रिय से मिलन की उत्सुक, स्त्रियों के कटाक्षरूपी बारणों से पीटा गया यह लाल सूर्य मानों कमलों के समीप पहुंच गया है । महान् लोग सुख और दुःख में एक सा भाव धारण करते हैं, इसी प्रकार सूर्य भी उदय होते समय और मस्त होते समय रक्तवर्ण वाला ही होता है । सूर्य के प्रस्त होने पर उसके साथ- साथ दिवस भी प्रवसान को प्राप्त हो रहा है, जो निर्मल स्वभाव वाले लोग होते हैं, वे ही कृतज्ञता को धारण करते हैं । इस समय पश्चिम दिशा की कान्ति मूंगे की शोभा को हरण करने वाली है भ्रमर कमलों के अन्दर ही बन्द हो गये हैं । सूर्य प्रस्ताचल को जा रहा है, चन्द्रमा का उदय हो रहा है, इन दोनों को देखकर ऐसा लगता है, मानों कामदेव अपने दोनों नेत्रों को लाल करके, पथिक जनों पर . रोष प्रकट कर रहा है । X X X दिन की समाप्ति पर सूर्य का प्रभाव ब्याकुल हो गया है औौर चन्द्रमा भी नहीं दिखाई दे रहा है, इसलिए मनुष्यों के नेत्र हो रहे हैं । पक्षिरण अपने- अपने घोसलों का आश्रय ले रहे हैं । । रक्तवर्ण सूर्य को देखकर ऐसा लगता है, मानों दिनभर मदिरा का पान करने से उसका शरीर लाल हो गया है, और किसी मद्यप की भाँति उन्मत्त होकर वह अब गिरना ही चाहता है । X X इस समय सूर्य पश्चिमी समुद्र में जा रहा है, उन्मत्त भ्रमर कमलों के उदरों में जा रहे हैं। पक्षी अपने घोसलों में जा रहे है, और कामदेव घोरे चलने वाली स्त्रियों की ओर जा रहा है । १ X २२२ रात्रि-वर्णन - कविवर ज्ञानसागर की रचनाओं में रात्रिवर्णन दो बार दयोदयचम्पू में, एक बार सुदर्शनोदय में श्रीर दो बार जयोदय में, इस प्रकार से पांच बार किया गया है । दयोदय - चम्पू में रात्रि वर्णन से सम्बन्धित सर्वप्रथम वह स्थल आपके समक्ष प्रस्तुत है जब घण्टा धीवरी ने अपने पति मृगसेन को क्रोध में श्राकर घर से बाहर निकाल दिया था : जिस प्रकार दुर्व्यसन करने वाले लोगों के मन में अन्धकार रहता है, उसी प्रकार यह रात्रि भी अन्धकार से परिपूर्ण है । चार्वाक दर्शन के पंचमहाभूतों के समान रात्रि में भूत-पिशाच क्रियाशील हैं । जिस प्रकार घने जंगल में जन-संचार नहीं होता उसी प्रकार रात्रि में भी जन-संचार रुक गया है। सांख्य दर्शन में मान्य सांस्याचार्य, उलूक तनय की ध्वनि के समान, उल्लू की ध्वनि सुनाई दे रही है । बौद्धमतावलम्बियों की प्रमारणवार्ता के समान, रात्रि में भी कररणीय प्रोर अकरणीय का विचार नहीं हो पाता । विनियोग-प्रथा के समान डाकुद्मों को उत्साहित करने वाली रात्रि का रूप भयंकर पिशाचिनी के समान है। जिस प्रकार पिशाचिनी प्रपने गले में हड्डियों की माला को धारण करती है, उसी प्रकार यह रात्रि तारों को १. जयोदय, १४।१-२४ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर का वर्णन - कौशल २२३ धारण कर रही है । पिशाचिनी के हाथ में खप्पर होता है, रात्रि में प्राकाश: . में चन्द्रमा है | भूखी पिशाचिनी जैसे भिक्षा मांगने जाती है, उसी प्रकार यह रात्रि सारे संसार में व्याप्त हो गई है । ' रात्रि वर्णन का दूसरा प्रसङ्ग तब मिलता है, जब गुरणपाल की प्राज्ञा से चाण्डाल सोमदत्त को मारने का प्राश्वासन देता है । पर इस स्थल पर कवि ने रात्रि का उल्लेख मात्र ही किया है । 2 सुदर्शनोदय में रात्रि वर्णन वहाँ मिलता है, जहाँ श्रभयमती रानी की पण्डितादासी रानी की आज्ञा से सुदर्शन को श्मशान में से ले आने के लिए जाती है कलिकालरूपिणी, अन्धकारप्रसारिणी रात्रि का भागमन हुआ, जिसमें ज्ञानी महर्षि रूपी सूर्य का अस्तित्व समाप्त हो गया । कमल मुरझा गए हैं और उन पर भौंरे भी नहीं मंडरा रहे हैं। पक्षिगण संचरण - विहरण बन्द करके वृक्षों में निष्क्रिय होकर बैठे हैं। चोरी, डकैती, भय इत्यादि में वृद्धि हो रही है। प्रन्धकार के कारण पथिक को मार्ग दृष्टिगोचर नहीं हो रहा है । अन्धकार के विनाशक चन्द्रमा का गगन - मण्डल में प्रादुर्भाव हो गया है । कृष्णपक्ष की ऐसी, कलियुग के समान भयंकर अन्धकार से परिपूर्ण उस रात्रि में वह पण्डिता दासी श्मशान भूमि में गई । जयोदय में जिस समय जयकुमार सुलोचना के साथ गङ्गा नदी के तट पर रुकते हैं, उस समय से सम्बन्धित रात्रि का वर्णन कवि ने प्रत्यधिक विस्तार से किया है । कवि के इस रात्रि-वन के कुछ मनोहारी उद्धरण प्रस्तुत हैं (अ) 'मित्रं समुद्रस्य च पूर्वशैलशृङ्ग तु सोमः कलशायतेऽलम् । सिहीसुतस्याप्यरदेव पन्तु सुधांशुबिम्बस्य पदानि सन्तु ।' (जयोदय, १५।१५) ( अर्थात् समुद्र का मित्र चन्द्रमा, उदयाचल की चोटी के ऊपर स्थित कलश के समान लग रहा है । उस चन्द्रमा का बिम्ब ऐसा लगता है, मानों राहु के दांतों का घाव हो ।) (ब) "रामोऽपि राजा हृतवानिदानीं तारावराजीवनकृद्विधानी । -निशाचरं सन्तमसं विशाल: सलक्ष्मणोऽसौ फरवालजालः ॥' (जयोदय, १५/७३) (इस समय तारा के पति बालि के जीवन का विधान करने वाले, लक्ष्मण हित राम रूपी, तारागणों का विधान करने वाले, कलंक से सुशोभित चन्द्रमा ने, १. दयोदय, २ श्लोक ३१ से पहले का गद्यभाग एवं श्लोक ३१ २. दयोदय, ३ श्लोक ७ के बाद दूसरा गद्यभाग । ३. सुदर्शनोदय, ७ गीत सं० ३ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ महाकदि ज्ञानसागर के काव्य-एक अध्ययन विशाल तलवार एवं बाणों के समूह रूपी किरणों के विशाल समूह से राक्षस रूप अन्धकार को नष्ट कर दिया ।) (स) “तमोमयं केशचयं निहत्य मरीचिभिश्चांगुलिभिस्तु सम्यक् । विमुद्रिताम्भोरुहने त्रविन्दुमुखं रजन्याः परिचुम्बतीन्दुः ।।' (जयोदय, १५७८). (अर्थात् अपनी किरणों रूपी अंगुलियों से, अन्धकार रूप केशसमूह को पकरकर, चन्द्रमा बन्द कमलों रूपो नेत्रों से निकले हुए जलविन्दु वाली रात्रि के मुख का मच्छी प्रकार से चुम्बन कर रहा है ।) (द) 'केचिच्छशं केचिदितः कलंक वदन्तु इन्दोरनिमित्तमङ्कम् । पिपीलिकानान्तु सुधाकशिम्ब किलावली चुम्बति चन्द्रबिम्बम् ॥' (अयोदय, १०८२) (मर्यात कुछ लोग विना किसी कारण चन्द्रमा के मध्य के धब्बे को खरगोश और कुछ लोग कलङ्क कहें, किन्तु मीठी फली जैसे सुधा (माधुर्य) के उत्पत्ति स्थान चन्द्रमा को चीटियां चूम (चाट) रही हैं।) जयोदय में एक अन्य स्थल पर भी रात्रि-वर्णन का उल्लेख मिलता है।' कवि-कृत, प्रकृति की इन चारों दिशाओं का वर्णन स्वभावोक्ति से परिपूर्ण है। कवि ने प्रभात-वर्णन, दिवम-वर्णन, सन्ध्या वर्णन और रात्रि-वर्णन-सभी में श्लिष्टोपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक प्रादि मनोरम अलंकारों का प्रयोग किया है। उसका प्रभात-वर्णन न केवल प्राकृतिक सुषमा का ही उन्मोलन करता है, वल्कि भारतवर्ष की दशा का भी बोध करा देता है, शुभकार्यों की पोर भी प्रेरित करता है। इसी प्रकार कवि का रात्रि-वर्णन यदि कहीं श्योत्पादक है, तो दूसरी जगह वह रमणीक भी है । क्योंकि ज्योत्स्ना से समलंकृत रात्रि कितनी प्राह्लादक हो जाती है, इसका भी कवि ने अत्यन्त सन्दर वर्णन किया है। इस प्रकार उपर्य क्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि हमारे पालोच्य महाकवि शानसागर ने प्रकृति-वैभव का चित्र खीचने में अद्भुत कुशलता का परिचय दिया है। प्रायः प्रकृति के प्रत्येक भाग का वर्णन उन्होंने अपनी कृतियों में कर दिया है, वो उनके वास्तविक प्रकृति-प्रेम का परिचायक है। प्राकृतिक-पदार्थों के बाद पाते हैं-वैकृतिक पदार्थ । जिन प्राकृतिक पदार्थों को मनुष्य बदल देता है, प्रथवा जिन पदार्थों के निर्माण में मनुष्य का सहयोग होता है, उन्हें वैकृतिक-पदार्थ कहा जाता है । उदाहरण-स्वरूप, बसाया गया नगर, बनाया गया उपवन, मन्दिर मादि-प्रादि । प्रत्येक गद्य-कवि या पद्यकवि अपने काव्य में एक कथानक को लेकर चलता है। वह कया किस समय की है, कैसे समय की है ? यह तो प्रकृति के अधीन है, १. अयोदय, १७४४,७ प्रादि । Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर का वर्णन-कौशल २२५ इसलिए रात्रि, ऋतु प्रादि का वर्णन प्रकृति-वर्णन के अन्तर्गत पाता है । अब दूसरा प्रश्न है कि वह विशिष्ट कथा, जिसे कोई कवि अपने काव्य का विषय बनाता है, कैसे स्थान पोर किस स्थान में घटित होती है? इसी के उत्तर में प्रस्तुत है वस्तुवर्णन-मनुष्य को हस्तकला के कौशल का परिचय । . किसी काम्य को हर पौर स्वाभाविक बनाने के लिए प्रकृति-वर्णन जितना मावश्यक तत्व है, उतना ही पावश्यक तत्त्व वस्तु-वर्णन भी है। वस्तु-वर्णन से ही पाठक को नायक इत्यादि पात्रों के जन्मस्थान, रहन-सहन सामाजिक-स्थिति, भाषिक-स्थिति प्रादि का ज्ञान होता है। साथ ही पाठक यह भी जान लेता है कि कवि का ऐतिहासिक एवं भौगोलिक ज्ञान सा है और उन स्थलों की सूक्ष्मातिसूक्ष्म विशेषतामों से परिचित कराने में कवि कुशल है अथवा नहीं? । वस्तु-वर्णन, संस्कृत साहित्य हो या अन्य कोई साहित्य हो-काव्य का एक परम्परागत तत्त्व है । उदाहरणस्वरूप-नषषकार श्रीहर्ष, नलचम्पूकार श्रोत्रिविक्रमभट्ट, कादम्बरीकार बाणभट्ट, तिलकमञ्जरीकार धनपाल इत्यादि मे नगरों भोर मन्दिरों का इतना सुन्दर वर्णन किया है कि पाठक उन-उन विशिष्ट-स्थलों के सौन्दर्य पर मोहित होकर, मुख्य कथा-प्रसङ्ग को भूलकर कवि की सूझबूझ पर वाह-वाह करने लगता है। यद्यपि प्राज के साहित्य में वस्तु-वर्णन का वह महत्त्व नहीं रह गया है, जो प्राचीन समय में बा, फिर भी संस्कृत-साहित्यकार पोड़ा . बहुत वस्तु-वर्णन अपने काव्यों में करता ही है। हमारे पालोज्य महाकवि ज्ञानसागर ने भी प्राचीन कवियों द्वारा चलाई हुई वस्तु-वर्णन की परम्परा को अपने काव्यों में अपनाया है। उन्होंने अपने काव्यों में कथा-प्रसङ्ग से सम्बन्धित स्थलों का वर्णन करने में अपनी कुशलता का परिचय दिया है । हम किसी महाकवि से उनकी तुलना करने में सोच नहीं करेंगे। भी ज्ञानसागर देशकाल से उत्पन्न विशिष्ट वातावरण के प्रति माष्ट पाठक की मनोवृत्ति को भी अच्छी तरह जानते हैं। पाठकों की इसी मनोवृत्ति का पावर करते हुये उन्होंने अपने काम्यों में नगर, मन्दिर, मण्डप, यात्रा पोर युद्ध का प्रतीब सजीव चित्र खींचा है। यदि उनका नगर-वर्णन हमें विभिन्न प्रकार के साधनों से परिपूर्ण वैभवपाली बड़े-बड़े नगरों की भोर मारुष्ट करता है तो उनका प्रामवर्णन भी प्रामवासियों के सरलता से परिपूर्ण रहन-सहन का परिचय कराता है। उनका मन्दिर पौर मण्डप-वर्णन पाठक को उनकी वास्तुकला-मर्मशता से परिचित कराता है। इसी प्रकार उनके द्वारा किया गया यात्रा मोर पुर का वर्णन भी उनकी सूक्ष्म-रष्टि का परिचायक है। कविकृत-वर्णन के अनुसार ही अब पापके सामने देश, नगर इत्यादि का वर्णन प्रस्तुत किया जाएगा। Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ महाकवि जामसागर के काम्ब-एक अध्ययन श-वर्णन महाकवि की रचनात्रों में चार स्थलों में देश-वर्णन विस्तार से है। सर्वप्रथम भारतवर्ष का वर्णन प्रस्तुत हैभारत-वर्णन जम्बूद्वीप में दक्षिण दिशा की ओर समद्धिशाली भारतवर्ष की स्थिति है। जिस प्रकार एक अच्छा खेत वर्षा के जल से सींचे जाने पर अनेक प्रकार के अनाज को उत्पन्न करता है, वैसे ही यह भारतवर्ष श्रेष्ठ तीर्थकर देवों के प्रागमन रूप बल से सिंचित होकर स्वर्ग और मोक्ष नामक पुण्यविशिष्ट धान्य को उत्पन्न करने बाला है। भारतवर्ष के उत्तरपूर्व में पर्वतराज हिमालय है और पृष्ठभाग में समुद्र की स्थिति है । अनेक तीर्थङ्करों ने भारतभूमि में जन्म लिया है। इसमें गङ्गा पोर सिन्धु जैसी नदियाँ हैं । मध्य में विजयाचं पर्वत स्थित है। इसमें मार्यावर्त प्रादि पः खण्ड हैं।' विदेह-देश वर्णन भारतवर्ष के पार्षखण्ड में प्रत्यन्त सुन्दर विदेह नाम वाला देश है, को स्वर्गोषम है। विदेह देश के नगर और सामों में गगनचुम्बी स्वगिक वैभव से युक्त प्रासाद है । विदेह देश के नगरों में कमलों से सुशोभित मोर जल से परिपूर्स सरोवर है । स्वर्ग में विद्यमान कल्पपक्षों के समान, इस देश में भी लोगों को उनके प्रभीष्ट फल देने वाले वृक्ष हैं। विदेश-देश की सुसज्जित-ग्राम-सम्पदा का वर्णन कवि के ही शब्दों में देखिये "प्रनल्पपीताम्बरधामरम्बा: पवित्रपद्माप्सरसोऽप्यदम्याः । अनेककल्पद्रुमसम्विधाना प्रामा लसन्ति त्रिदिवोपमानाः ॥" (वीरोदय, २०१०) - उस विदेह देश में ग्राम और नगरों के बाहर अपनी शिखाओं से प्राकाम को व्याप्त करने वाले नबीम भाग्य के कूट ऐसे शोभित होते हैं जैसे पूर्व पश्चिम दिशा को जाने वाले सूर्य के क्रीडा पर्वत हों। उस देश की पृथ्वा भ्रमरों से गुञ्जायमान गुलाब के फूलों से सुशोभित होकर उस सुन्दर नेत्रों वाली स्त्री के समान मम रही है, जो अपने सौभाग्य को अभिव्यका करती है। अनाज के खेतों की रक्षा करने वाली पालिकामों के द्वारा ऐसे मोत माये जाते हैं कि उन गीतों को सुनकर वहाँ धान्य चरने के लिये पाये हुए मृग इस प्रकार निश्चल हो जाते हैं कि पषिक उन्हें चित्रलिखिस समझ लेता है। जिस प्रकार परोपकारी पुरुष विनय को पारस करते हैं। और समीप में मावे हमे लोगों का हित करते हैं; साप झे सन्मार्ग की दिशा भी देते हैं, उसी प्रकार विदेह-देश के वृक्षों में पक्षियों का निवास हैलों के भार से वे वृक्ष भूक बये हैं। अपने हरे-भरे पत्तों जी सम्पदा से लोगों १. वीरोदय, २।५-८ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि शामसागर का वर्णन-कौशल २२७ को छाया देकर उनका हित-सम्पादन करते हुये सुशोभित हो रहे हैं । उस देश की नदियाँ स्वच्छ जल से परिपूर्ण हैं। उनमें स्थान-स्थान पर पृथ्वी के नेत्रों के समान नीलकमल शोभायमान हैं । X X X X उस देश के नगरों के बाजारों मैं, दुकानों के बाहर, रत्नों के बड़े-बड़े ढेर बिकने के लिए लगे रहते हैं। ऐसा लगता है, मानों वे धापत्ति की हँसी उड़ाने वाले लक्ष्मी के क्रीड़ा पर्वत हों। उस देश की गायें अमृतवर्षी चन्द्रमा की ज्योत्स्ना के समान दूध देने वाली, कीर्ति के समान निरन्तर वृद्धि को प्राप्त करने वाली पुण्यों को पंक्ति के समान ही अपने नैसर्गिक सौन्दर्य के कारण दर्शनीय हैं । " १ मालव-देश वर्णन प्रार्यावर्त खण्ड में पुरुषार्थ-चतुष्टय से सम्पन्न मालव नाम का सुविख्यात देश है जो कि पृथ्वी पर मलकार के समान सुस्थित है। यहाँ षड् ऋतुएँ यथा समय उपस्थित होती हैं। यह देश स्वर्गोपम है । इसमें कल्पवृक्षों के समान मनेक वृक्ष हैं । स्वर्गं मनोहर प्रप्सरानों से युक्त है; और यह देश स्वच्छ जल बोले सरोवरों से युक्त है । इस देश के ग्रामों में भेड़ों प्रोर बकरियों के झुण्ड गो-सम्पदा प्रत्यधिक है । वे उपवन और धान्य से युक्त है। ग्रामों में कृषक वर्ग ही निवास करता है । " - दिखाई पड़ते हैं । उनमें मुख्यतया इस देश के प्रङ्ग-देश बन जम्बूद्वीप में पृथ्वी का ललाटस्वरूप भरत नामका क्षेत्र है । इस क्षेत्र में प्रार्यावतं नाम का खण्ड है, जिसमें सिन्धु प्रोर गङ्गा नाम की नदियाँ हैं । इसी भरत क्षेत्र में बुद्धिमानों द्वारा प्रशंसा प्राप्त अत्यन्त सुन्दर भङ्ग नाम का देश है । उस देश में गन्ने को उत्पत्ति अधिक थी, इसलिए वहाँ के निवासियों को गुड़, खाण्ड, शक्कर इत्यादि मधुर पदार्थ प्रासानी से प्राप्त हो जाते थे । उस देश में लम्बीलम्बी शाखाम्रों वाले, पक्षियों के मधुर कलरव से मुक्त फलदार वृक्ष थे, ऐसा लगता था, मानों अपनी लम्बी-लम्बी शाखा रूप भुजानों के द्वारा, पक्षियों के मधुरकलरव के बहाने से फलों को प्रदान करने के लिए पथिक जनों को बार-बार बुला कर कल्पवृक्षों को पराजित करते हैं। भङ्ग देश के इन सुन्दर वृक्षों का वर्णन कवि की ही शब्दावली में देखिये "समुच्छलच्छाखतयाऽथ वीनां कलध्वनीनां भृशमध्वनीनाम् । फलप्रदानाय समाह्वयुतः श्रीपादवाः कल्पतरु जयन्तः ॥ " १. दयोदय चम्पू, १ श्लोक १० के पूर्व के गद्यभाग । (सुदर्शनोदय, १/१७) Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य-एक अध्ययन उस देश की सदा जल से भरी नदियां समुद्र की मोर जा रही थीं। वहां स्वच्छ जल से भरे हुये अनेक सरोवर थे। माम, जामुन, नारङ्गी इत्यादि फल बमों से उपलब्ध हो जाते थे । प्रतएव उदार हृदय धनिकों को सदाव्रतशाला और पाक इत्यादि का प्रबन्ध करने की कोई प्रावश्यकता नहीं थी। उस देश के प्राम, जल-सम्पदा, वनस्पति-सम्पदा, शस्य-सम्पदा से, स्वर्ग के समान वैभव से परिपूर्ण थे। वहां के निवासियों का जीवन-स्तर सरल था। कृषि और पशुपालन उनको प्राजीविका के साधन थे। उस देश में दुर्भिक्ष इत्यादि की बाधायें उपस्थित नहीं होती थीं। सभी लोग अच्छी नीति का प्राचरण करते थे। सभी लोग कान्तियुक्त और भयरहित थे। सभी अपने धन का यथासमय दान करते रहते थे। सत्सङ्ग में सर्वाग्रणी थे। इस प्रकार वह अङ्गदेश सभी सुख के साधनों से सम्पन्न था।' ____ इन चार देशों के विस्तृत वर्णन के अतिरिक्त कवि ने उष्ट्रदेश, कलिङ्गदेश, मैसूरदेश, पल्लवदेश, निर्गनदेश, कर्णाटकदेश, मङ्गलावतीदेश, पुष्कलदेश, इत्यादि देशों का भी उल्लेख किया है। मगर वन. महाकवि ज्ञानसागर की रचनामों में हमें कुण्डनपुर, चमापुरी, उज्जयिनी, चक्रपुर, स्तबकगुच्छ, हस्तिनापुर और काशी का वर्णन मिलता है । सर्वप्रथम बीरोग्य के चरितनायक महावीर की जन्मभूमि कुण्डनपुर का वर्णन प्रस्तुत हैकुन्छनपुर कवि की रचनामों में हमें कुण्डनपुर का चित्र दो वार देखने को मिलता है । प्रथम चित्र में कुण्डनपुर के मनोरम वैभव की झांकी इस प्रकार है पृथ्वी के ललाट-स्वरूप विदेह-देश में भगवान महावीर की जन्मभूमि कुणानपुर है । कुण्डनपुर स्वर्गतुल्य है। स्वर्ग के ही समान वहां किसी प्रकार का १. सुदर्शनोदय, १।१३-१४ २. वीरोदय, १३२९ १. वही, १५३२ ४. वही, १५॥३४ ५. वही, १५३५ १. वही, १६३५ ७. वही, २२।३ ८. वही, १२२६ ९. वही, ११॥३५ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर का वर्णन-कौशल २२९ कष्ट नहीं होता । वहां के मनुष्य दिव्य-लक्षणों से युक्त हैं। स्त्रियाँ देवाङ्गनामों समान सुन्दर चे ग्रामों वाली हैं। राजा प्रपने तेज से सूर्य और इन्द्र की बराबरी करता है । कुलीन लोगों के निवास से युक्त, उच्चकुलीन कन्यामों से युक्त, उत्तम कोटि के विशाल भवनों वाला यह नगर नागपुरी के समान है। उस नगर के चारों मोर शेषनाग के समान एक विशाल परकोटा है। परकोटे के बाहर शेषनाग के द्वारा छोड़ी गई कंचुली के बहाने से ही मानों समुद्र के समान गहरी खाई है। उस नगर के बाजार अनुगम सम्पदा वाले, बड़ी-बड़ी सड़कों वाले, विक्रय के योग्य पदार्थों और बहुमूल्य वस्त्रों वाले हैं। रात्रि में परकोटे के शिखरों पर अविचल रूप से चमकते हुए नक्षत्रगण लोगों के हृदय में दीपावली का भ्रम उत्पन्न करके उन्हें आनन्दित करते हैं। उस नगर का प्रतिबिम्ब खाई के बल में पड़ रहा है, ऐसा लगता है मानों, वह नगर अपने सौन्दर्य की परछाई के बहाने नागलोक को जीतना चाहता है। उस नगर के परकोटे में नीलमणियाँ सुशोभित हैं । खाई के जल में गरजते हुये मेषों का प्रतिबिम्ब उम्मत्त हाथियों की शङ्का उत्पन्न करता है । वहाँ को खाई में विकसित कमलों के सम्बन्ध में कवि की उद्भावना देखिये "तत्रत्यनारीजनपूतपादस्तुला रतेनिलसत्प्रसादः । लुठन्ति तापादिव वारि यस्याः पद्मानि यस्मात्कठिना समस्या ॥" . (वीरोदय, २०३१) प्रर्थात् वहां की स्त्रियां रतिदेवी से भी अधिक सौन्दर्य-सौभाग्य को धारण करती हैं, उनके सुन्दर एवं पवित्र चरणों से तुलना न कर पाने के कारण हो मानों सन्तप्त कमल खाई के जल में लोट रहे हैं। चूने से लीपे हुये प्रासादों वाले इस नगर का परकोटा अपने शिखरों के अग्रभाग में स्थित रत्नों से निकलती हुई प्रभापंक्ति को धारण करता हुमा स्वर्ग के भी प्रासादों की हंसी उड़ा रहा है । उस नगर में सुवर्ण-कलशों से युक्त शिखर वाले अनेक जिनालय हैं जिनमें जिनमुद्रा से अंकित ध्वजायें फहरा रही हैं। उस नगर के मनुष्य देन्यभाव से रहित एवं गाम्भीर्य को धारण करने वाले हैं । वहाँ को स्त्रियाँ अत्यन्त सुन्दर और निर्मल चरित्र वाली हैं। वहाँ के लोगों का दाम्पत्य जीवन सुखपूर्वक व्यतीत होता है। उस समय कुण्डनपुर के निवासी धर्मसम्मत भोग में प्रवृत्त होते थे। उनका धर्म स्थायी-मित्रता को उत्पन्न करने वाला होता था। वहां के लोगों में निन्दा, मोह, छिद्रान्वेषण, पारस्परिक विरोध, रोग, दारिद्र्य, पाप इत्यादि दोषों का प्रभाव पा। उनमें देन्याभाव, स्नेह इत्यादि श्रेष्ठ गुण थे। उस नगर के सौन्दर्य को देखकर देवतामों की प्राँखें खुली की खुनी ही रह गई। प्रासादों के शिखरों के पप्रभाग पर बैठी हुई उस नगरी की स्त्रियों के निष्कलङ्क मुखों को देखकर कलंकी Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१. महाकवि जानसागर काम्प-एक मध्ययन पनमा मानों लज्जा का अनुभव करता है। उस नगर में कविश्रेष्ठों की श्रेष्ठ पाणी के समान प्रपनी चेष्टानों से लोगों को लुभाने वाली वाराङ्गनाए थीं। भवनों में बड़ी हुई नीलमणियों की कान्ति से उत्पन्न रात्रि की कल्पना करने वाली बेचारी चकवी दिवस में भी पक के वियोग में सन्ताप का अनुभव करती है । स नमर के भवनों में लगी हुई चन्द्रकान्त मणियां चन्द्रोदय होने से जब द्रवित होती हैं, तो ऐसा लगता है. मानों वहाँ की स्त्रियों के मुख की शोभा को चुराने पाला चन्द्रमा प्रासाद में बड़े हुये रत्नों वासी दीवारों पर पड़ते हुये प्रतिबिम्ब के बहाने से मानों कारागार में बन्द होकर चन्द्रकान्तमणियों के द्रव के बहाने से रोता है । रात्रि में यह नगर, नगर-सम्राट् का रूप धारण कर लेता है । चन्द्रमा इसके मुकूट का रूप धारण करता है। पौर तारागणों के बहाने उस नगर-रूप राबा के ऊपर पुष्पवृष्टि होती है। मध्याह्न समय में उस नगर के गगनचुम्बी 'परकोटे के ऊपर तपता हुमा सूर्य, उस परकोटे के सुवणं-कलश की कान्ति को धारण करता है।' जिस समय राजा सिखाप भगवान् के जन्माभिषेक का प्रायोजन करते हैं, उस समय में कुण्डनपुर की शोभा कैसी थी ? इसका वर्णन भी कवि ने किया है उस समय अमृत, चित्राङ्गारि देवाङ्गनामों से प्रौर देवों से युक्त स्वर्ग के ही समान, चूने से पुतने के कारण उज्ज्वल, नाना प्रकार के चित्रों से प्रलंकत. एक पंक्ति में ही बने हुये प्रासादों से युक्त वह नगर सुशोभित हुमा। उस नगर उन्नत प्रासाद, श्रेष्ठ स्वाभिमानी राजामों की शोमा को धारण कर रहे थे। । मङ्गदेश में चम्पा नाम की नगरी थी। उस नपरी में श्रेष्ठ मोग निवास करते थे। उसके चारों पोर परकोटा था; और उसके चारों और प्रत्यन्त गहरी बाईपी। उस नगर के लोग स्वर्ग-सम्पत्ति के समान वैभव का उपभोग करते वहाँ की स्त्रियों का सौन्दर्य एवं स्वर दिव्याङ्गनामों के समान था। चूने से पते हुये उस नगरी के भवन स्वर्गिक भवनों के समान थे। उस नगरी में प्रायः दिव्य विभूतियों का जन्म होता था। मुक्ता, चन्द्रकान्तमणि इत्यादि रत्नों वाले रत्नाकर की समता करने वाली उस नगरी में पुरुष रोग से मुक्त, स्त्रियां सब कलामों में निपुण भोर राजा पात्रुनों पर बम-प्रहार करने वाला था। उस नगरी में शत्रुजय जामकराणा राज्य करताना मोगों के कार्य उत्तम-कोटि के होते थे।+++ 'सपनोग सामग्री के प्राणु से पानपरी स्वर्ग और पाताल का तिरस्कार करने १. बीरोदय, २२६-५० Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहाकवि ज्ञानसागर का वर्सन-कौशल वाली थी। उस नगरी के जिनमन्दिर विशाल एवं मेषसमूह को चूमने वाले थे। कवि को वह नगरी विश्वलोचन कोष जैसी.लगती है "वणिकपथः श्रीधरसन्निवेशः स विश्वतो लोचननाम देशः। यस्मिञ्जनः संस्क्रियतां च तूणं योऽभूदनेकार्थतया प्रपूर्णः ॥" (सुदर्शनोदय, १॥३२) अर्थात् संस्कृत भाषा का समुचित ज्ञान देने वाले, भनेकार्थ शब्दों वाले, अनेक अध्याय वाले, श्रीधर प्राचार्य रचित विश्वलोचन कोष के समान उस नगरी का बाजार, नगरी के वैभव को सूचित कर रहा था। लोग उस नमरी के बाजार की शोभा को एकटक देख रहे थे। वहाँ क्रेता को प्रत्येक इच्छित वस्तु सुसम पी। वह बाजार कई भागों में विभक्त था। उस नगरी के लोग मांसभक्षण, मद्यपान, निन्दा, परस्पर-विरोध, कटिलता, छिद्रान्वेषण; कठोरता, वञ्चकता इत्यादि दोषों से दूर थे। इस पुण्यशालिनी नगरी में बारहवें तीर्थङ्कर श्रीवासुपूज्य स्वामी ने शिवपद प्राप्त किया था। इसलिए इसका महत्त्व और भी अधिक हो गया था। इस नगरी की भतुलित उचान एवं भवनसम्पदा के कारण लोग अनायास ही इसकी पोर मारुष्ट हो जाते थे। उज्जयिनी वर्णन मालव देश में स्थित उज्जयिनी नपरी का पल्प, किन्तु प्रभावोत्पादक वर्णन कवि के ही शब्दों में देखिये "समस्त्युज्जयिनी नाम नबरीह गरीबसी। यातीव स्व: पुरी बेतुं स्वसोषगमनकर्षः ॥ नरा यत्र सुमनसः स्त्रियः सर्वास्तिलोत्तमाः । राजा स्वयं गुनासीर प्रतापी खलु कथ्यते ॥" (योदय चम्पू, १११०-११) अर्थात् मालव देश में उज्जयिनी नाम की विशाल नगरी है, जिसके चपनचुम्बी प्रासादों को देखकर ऐसा लगता है कि मानों वह नगरी स्वर्ग को जीतने वा रही हो। स्वर्ग में रहने वाले देवतानों के समान जहाँ के मनुष्य पच्छे मन वाले हैं । स्वर्ग में विद्यमान तिलोत्तमादि प्रप्सरामों के ही समान जहाँ की स्त्रियां उत्तम तिल से युक्त हैं । स्वर्ग में राज्य करने वाले इन्द्र मोर सूर्य इत्यादि के समान ही जहाँ के राजा अत्यधिक प्रतापी हैं। सबकगुच्छ वसन महाकग्छ नाम का राजा अपनी पुत्री प्रियंबुषी के विवाह के लिए प्रयत्न शील होता हुमा स्तबकगुच्छ नगर को देखकर उसके सौन्दर्य से प्रत्यधिक प्रभावित १. सुदर्शनोदय, १।२४-३७ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ महाकविमानसागर के काव्य-एक अध्ययन होता है । स्वर्ग से भी अधिक सुन्दर स्तबकगुच्छ नगर की स्थिति समुद्र के किनारे थी, उस नगर में एक हजार तोरणद्वार थे; पोर बीस लाख योदा हर समय सन्नद रहते थे, जिससे कोई भी अनपेक्षित व्यक्ति वहां प्रवेश नहीं पा सकता था।' चापुर वर्णन ___ जम्बूद्वीप में भरतक्षेत्र में स्वर्ग को तिरस्कृत करने वाले सुन्दर चक्रपुर की अवस्थिति है । उस नगर का प्रत्येक निवासी अपनी उदारता से देवतुल्य, बुद्धियुक्त होने से प्रत्येक स्त्री दिव्याङ्गनातुल्य, राजा प्रजावत्सल भोर इन्द्रतुल्य है। वहां के लोग धर्मसम्मत भोग करते हैं । धर्म के सफल प्रयोग, गुणों की संगति से होते हैं । वहाँ शिष्टाचार जानने वाली स्त्रियां निवास करती हैं । सन्तति माज्ञाकारिणी होती है। वहां कोई भी मद्यप, मांसभक्षी और ठग नहीं है। भिक्षावृत्ति, राजकीयकर्मचारियों द्वारा शोषण, वियोगजन्य दुःख, निष्फल प्रयत्न इत्यादि का उस नगर में प्रभाव है । वहां के स्त्री पुरुषों को रोग-शोक का अनुभव नहीं होता। भोगविलास में रत होने पर भी, वहाँ पर किसी का भाचरण निन्दनीय नहीं है । वहाँ के लोग मालस्य से रहित हैं; और अपनी प्राजीविका के लिए कुछ न कुछ कार्य अवश्य करते हैं। हस्तिनापुरवर्णन हस्तिनापुर जयोदय के चरित नायक जयकुमार को राजधानी है । जिस समय जयकुमार सुलोचना के साथ हस्तिनापुर में पहुँचते हैं, उस समय वह गले में लटकती हुई माला वाले हाथियों से युक्त उस नगरी को विरह के कारण खुले बालों वाली स्त्री के समान देखते हैं। वायु के वेग से हिलती हुई पताकामों वाली वह नगरी, प्रथम बार देखे गये के समान जयकुमार का स्वागत कर रही थी। वह नगरी अनेक रक्षकों से युक्त थी। वहां के घोड़े धूलि से धूसरित मोर पसीने से युक्त थे । पवन के वेग से उड़ी हुई धूलि से धूसरित हो जाने की शङ्का से सारथी अपने श्रेष्ठ रथ के चंदोवे को मार्ग में ही साफ कर रहा था। x x x स्त्रियां अपने हृदय में जलती हुई कामाग्नि को, अांचल से हवा करती हुई बढ़ा रही थीं। + + + जैसे ही राजा ने अपनी सेनासहित नगर में प्रवेश किया, वैसे ही लोग अपने अपने स्थानों में माकर राजा को प्रणाम करने लगे। दोनों पोर से एकत्र होते हुए नगर वासियों का समूह, चलती हुई सेना का अनुकरण कर रहा था । वणिग्जन बाजार में रखे हुये मणियों के ढेर को उपहार के रूप में दे रहे थे। जयकुमार की वधू सुलोचना के मुख-चन्द्र को देखने के लिए उत्सुक पुरवासिनी सुन्दर स्त्रियों से वह नगरी चन्द्रशाला के समान लग रही थी। सुलोचना १. श्रीसमुद्रवत्तचरित्र, २०१९-२० २. वही, ११-८ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर का वर्णन-कोमल २३३ के सुन्दर स्वरूप को देखकर स्त्रियां उसी प्रकार हर्षित हो गई, जैसे चन्द्रमा को देखकर समुद्र में ज्वार-भाटा माता है। स्त्रियां गीत गा रही थीं, तुरही बन रही थी । सम्पूर्ण नगर राजा के माङ्गन जैसा हर्ष से युक्त हो गया। समुद्र में सठती-बैठती लहरों के समान राज-द्वार में से लोगों की भीड़ प्रा-जा रही थी।+ + +।' काशीवर्णन अच्छे मनुष्यों से युक्त काशी नाम की सुन्दर नगरी में श्रीधर नाम का राजा राज्य करता था। सुलोचना के विवाह के समय उस नगरी में एक सुन्दर मण्डप बनाया गया। उसके शिखर भाग में वायु द्वारा हिलती हुई पताकायें लोगों को बुला रही थीं। उस नगर में दर्पण के समान स्वच्छ, मुक्तामों से युक्त, नवीन वृक्षों के कारण बगीचे के समान, सिले हुये कमलों से युक्त, राजहंसों से सेम्य एक सुन्दर सरोवर था। वह नगरी देवागमन के कारण अच्छी दृष्टि वालों के द्वारा सेव्य थी। किसी भी प्रकार के कलस से रहित विद्या के मानन्द से परिपूर्ण थी । पच्छेपच्छे घरों वाली वह काशी नगरी ऐसी थी, जैसे अमृत से पृथ्वी युक्त हो गई हो। स्वर्ग में विद्यमान प्रमत के समान, नदियों के पवित्र जल से युक्त, स्वर्ग में विद्यमान चित्रा इत्यादि देवाङ्गनामों के समान चित्रादि से प्रलंकृत, अमत के इच्छुक देवों के द्वारा, स्वर्ग के समान यह नगरी पूज्य थी। अनेक रङ्गों और चित्रों वाली वहां की दीवारें, वेश्याओं के समान लोगों के मन को प्रसन्न करने वाली थीं। वहाँ के घर उन्मत्त हाथियों से सुशोभित और बड़े-बड़े दरवाजों वाले थे। बड़े-बड़े वस्त्र वाली, बादलों को छूने वाली, वहां की ध्वजा की पंक्ति हवा के समान देहधारियों के श्रम का हरण करने वाली थी। उस नगर की गलियां बिखरे हुये पुष्पों से युक्त प्रौर सुगन्धित जल से सिनित थीं, ऐसा लगता था मानों वे हर्ष भोर उन्नति से, स्वेद से युक्त प्रौर रोमांचों से सुशोभित स्त्रियां हों। वह काशी नगरी प्रत्यन्त दर्शनीय मोर कल्याणकारिणी थी। जयकुमार और सुमोचना के विवाह के समय वह नगरी विद्वानों से युक्त और श्वेत वस्त्रों से अलंकृत थी। मणिजटित तोरण बारों से युक्त यह नगरी इन्द्रपुरी को जीतने के लिए प्रयत्नशील थी। + + + । १. अयोदय, २१॥६५-८६ २. वही, ३१३० ३. वही, ३१७२.६५ ४. वही, १०-१५ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि भानसागर के काव्य-एक अध्ययन इसके अतिरिक्त कवि की कृतियों में अयोध्या,' कौशाम्बिका,२ पलकापुरी, सिंहपुर, धरणीतिलक,५ श्रीपद्मखण्ड, पोदनपुर, भास्करपुर, मथुरा,' कनकपुर,१° पुण्डरीकिणी,११ छत्रपुरी,२ मिथिला, कोशलपुरी,१४ राजगृह,१५ पावानगर' इत्यादि नगरों का भी उल्लेख मिलता है। कवि ने अपने काव्यों में जम्बूद्वीप, भारतवर्ष, मालवदेश, इत्यादि भौगोलिक स्थानों का संक्षिप्त चित्रण किया है। फिर भी ऐसे स्थलों पर कवि अपने इन वर्णनों को अलङ्कारों से सजाना नहीं भूले हैं । भारतवर्ष का वर्णन, उसकी पार्मिकसंस्कृति का भी ज्ञान करा देता है । कवि ने विदेह और अङ्गदेश का विस्तृत वर्णन किया है । कवि के विदेह वर्णन से यह ज्ञात हो जाता है कि विदेह देश, जलसम्पदा, वनस्पति-सम्पदा, रत्नसम्पदा, शस्य-सम्पदा एवं सौन्दयं-सम्पदा से सम्पन्न पा। वहां के प्रासादों का वर्णन तत्कालीन वास्तुकला के प्रकर्ष को प्रकट करने में समर्थ है। श्लिष्टोपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा इत्यादि से सुसज्जित विदेह-देश का वर्णन एक समृद्ध देश की झांकी हमारे नेत्रों के सामने प्रस्तुत कर देता है। प्रदेश बर्मन, धनी-देशों में उपलब्ध सुख-सामग्री की झांकी उपस्थित कर देता है। इसी प्रकार कवि ने छोटे-बड़े नवरों का वर्णन चाहे पल्पकाय हो, पा वीर्षशाय-अत्यन्त प्रभावोत्पादक किया है। कुण्डनपुर और चम्पापुरी का वर्णन, मात्र के चकाचौष उत्पन्न करने वाले विल्ली और बम्बई जैसे नगरों की मोर पाठक - १. जयोदय, २०१२-५ २. दबोदयचम्पू, ६॥ श्लोक ५ के पूर्व का गद्यभाग। ३. श्रीसमुद्रदत्तचरित्र, २१. ४. वही, ३॥१८ ५. वही, ५१७ ६. वही, ११२६ ७. · वहो, ४।२७ ८. वही, ५२२२ १. बीरोदय, १९२१५ १०. वही, १०२६ ११. वही, १९१३२ १२. वही, ११॥३५ १३. बही, १४६ १४. वही, १४११० १५. वही, १४।१२ १६. वही, २१॥२॥ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हाविहानसायर का वर्णन कौशल २३५ को मनायास ही पाकष्ट कर लेता है। काशी नगरी वैसे ही भारत की पार्मिकरष्टि से मोर विद्या की दृष्टि से महत्वशालिनी नगरी है, फिर कवि ने उस नगरी का विवाह के समय का जो चित्र उपस्थित किया है, वह भी अत्यन्त मनोरम प्राम-वर्णन. किसी भी देश के ग्राम ही उस देश को वास्तविक समृद्धि के बोतक होते है। नगरों की चमक-दमक हमें वास्तविकता से दूर कर देती है। इसके विपरीत ग्रामों का उन्मुक्त जीवन हमें प्रकृति के सामीप्य में ले जाता है। श्रीज्ञानसागर ने तत्तद् देशों से सम्बन्धित ग्रामों का भी वर्णन किया है। सर्वप्रथम मालब देश के प्रामों का वर्णन प्रस्तुत है : ___ मालव देश के ग्रामों में भेड़-बकरी, गाय-भैंस इत्यादि पशु अधिक संख्या में मिलते हैं । वहां स्थान-स्थान पर उथान है। उन गांवों के खेत शस्य-सम्पदा से परिपूर्ण हैं। उन गांवों में मुख्य रूप से ब्राह्मण मोर क्षत्रिय ही रहते हैं।' अब देखिए अङ्ग-देश के ग्रामों का वर्णन : मन देश के ग्राम प्रपनी शोभा से स्वर्ग की बराबरी करते हैं। जिस प्रकार स्वर्ग में मनोरम अप्सराएं निवास करती हैं, उसी प्रकार इन ग्रामों में निर्मल जल से भरे हुए सरोवर हैं । स्वर्ग के कल्पवृक्षों के समान ही इन गांवों में भी नाना पाति के वृक्ष हैं। जिस प्रकार स्वगिक सम्पदा की सब लोग प्रशंसा करते हैं, उसी प्रकार इन गांवों में भी प्रशंसनीय शस्म-सम्पदा है। यहां के निवासियों का जीवन स्तर साधारण है । उनको प्राजीविका का प्रमुख साधन कृषि और पशुपालन है। यहाँ के निवासी बछड़े से अत्यधिक प्रेम करते हैं, क्योंकि वे ही उनकी कृषि के मूलाधार हैं। यहां के ग्वाले प्रत्यधिक परोपकारी हैं। उनके पास पशुधन की प्रचुर मात्रा है। अतः देश में दूष-दही उचित मात्रा में सुलभ है।' महाकवि ज्ञानसागर कृत यह ग्राम-वर्णन यबपि मत्यल्प है, और मलकवा से विशेष सम्बन्ध भी नहीं रखता, फिर भी श्लेष और उपमा का प्रबलम्ब लेकर कवि ने भारतवर्ष के ग्रामों की जो थोड़ी सी झलक दिखाई है, वह हृदयस्पर्षी है। मन्दिर-वर्णन श्री ज्ञानसागर की कृतियों में मन्दिर वर्णन तीन स्थलों पर मिलता है। उन्होंने पीरोदय में कुण्डनपुर के मन्दिरों का षो सुन्दर वर्णन प्रस्तुत किया है, पर इस प्रकार है : १. बयोवपचम्पू, १ श्लोक १.पूर्व का गव भाग । २. सुपर्शनोदय, ११२०-२२ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य- एक प्रध्ययन -कुण्डनपुर के जिन मन्दिरों में निरन्तर घण्टे भेरी इत्यादि का नाद होता रहता है उनमें उत्तम धूप के जलने से प्रचुर मात्रा में बादलों का रूप धारण करने वाला घूम्र-पटल उत्पन्न होता है । अतः मन्दिरों के शिखिरों के अग्रभाग में स्थित सुवर्ण कलशों की कांति ऐसी लगती थी, मानो घूम्रसमूह रूप बादलों के मध्य में बिजली चमक रही हो । रात्रि में चन्द्रमा की किरणें जब उन मन्दिरों के द्वारों के ऊपरी भाग पर पड़ती हैं, तब ऐसा लगता है मानों उन द्वारों के शिखरों पर जटिल चन्द्रकान्तमणियों के बहते हुए जल का पिपासु चन्द्रमा का मृग वहाँ माता है, किन्तु द्वारों में चित्रित मृगाधिपों के भय से वापिस लोट जाता है । उन मन्दिरों की ध्वजानों में जिनमुद्रा प्रति है । वायु के वेग से वे सभी ध्वजाएं फहराती रहती हैं । उन ध्वजानों में बजती हुई घण्टियाँ मानों पुण्यार्जन के लिए जन-समुदाय को सम्बोधित कर रही हैं ।' मन्दिर - सौन्दर्य वर्णन में कवि की एक उद्भावना उसी की शब्दावली में प्रस्तुत है :"जिनालयस्फटिक सोधदेशे तारावतारच्छल तोऽप्यशेषे । सुपमिः पुष्पगरणस्य तत्रोचितोपहारा इव भान्ति रात्री ॥” ( वीरोदय, २३६ ) (प्रर्थात् स्फटिक - मरिण निर्मित, श्वेत वर्ण वाली उन जिन मन्दिरों की छतों पर जब रात्रि में नक्षत्र प्रतिबिम्बित होते हैं तो ऐसा प्रतीत होता है, मानों देवगणों ने पुष्पवृष्टि रूप समुचित उपहार दिए हों । ) २३६ - अब चम्पापुरी के मन्दिरों का प्रत्यल्प, किन्तु स्वाभाविक वर्णन प्रस्तुत हैचम्पापुरी के जिन मन्दिर, पर्वतों के समान ही उंचे एवं विशाल थे । मृगाधिपों से प्रधिवासित पर्वतों के समान उस नगर के मन्दिरों के शिखरों पर चारों ओर सिहों की मूर्तियां बनी हुई थीं। प्रभ्रपटलचुम्बी पर्वत के समान, वे मन्दिर भी अपनी ऊंचाई से मेघसमूह का स्पर्श करते थे । इस प्रकार वे ऊंचे जिनालय पृथ्वी श्रीर प्राकाश को नापने वाले मानदण्ड से प्रतीत होते थे । २ जब जयोदय के नायक-नायिका जयकुमार मोर सुलोचना तीर्थयात्रा के लिए निकले, तब उन्होंने हिमालय पर्वत पर एक उत्तम देवालय देखा। उस मन्दिर में भगवान् की प्रभावशालिनी मूर्ति थी। वह मन्दिर भक्तों की मनोवांछा को पूरा करने वाला था । वह मन्दिर अत्यधिक प्रभाव से उसी प्रकार युक्त था, जिस प्रकार सूर्य की कान्ति से सुमेरु पर्वत । ऐसे उस महिमाशाली मन्दिर में नीतिश जय प्रविष्ट हुए 13 १. वीरोदय, २।३३-३५ २. सुदर्शनोदय, १।३१ ३. जयोदय, २४।५६-६० Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकषि ज्ञानसागर का वर्णन-कौशल २३७ इसके अतिरिक्त कविवर की रचनामों में नागमन्दिर', सिडकूट-जिनमन्दिर', पार्श्वनाथमन्दिर' एवं सुमेरु पर्वत के १६ जिनमन्दिरों का भी स्थानम्पान पर उल्लेख है। समवशरण मणप जिस सभामण्डप में जिनेन्द्रदेव वीरभगवान् ने जनता को "सन्देश दिया, उसका कवि ने बड़ा ही सजीव वर्णन किया है : उस समवशरण मण्डप का निर्माण इन्द्र की माशा से पनाधिप कुबेर ने किया था। गोलाकार वह सभामण्डप मध्य में एक योजन विस्तृत प्रौर ढाई कोश ऊँचा था। उस मण्डप में, चारों मोर खाई से घिरा हुमा धूलिशाल नामक परकोटा था। फिर उस मण्डप में तीन मेखलामों और चार बावड़ियों से युक्त चार मानस्तम्भ थे । मानस्तम्भों पोर खाई के समीप में मालती इत्यादि पुष्पों से परिपूर्ण एक पुष्पवाटिका थी। इसके बाद पञ्चरत्ननिर्मित एक अद्भुत परकोटा था। इस परकोटे के बाद, दूसरा परकोटा रजत-निर्मित था। इन परकोटों के पश्चात् हंसचक्रवाक इत्यादि से चिह्नित १०८ की संख्या में फहराती हुई ध्वजामों की पंक्ति थी। इसके पश्चात् पुष्पद्वीप में मानुषोत्तर पर्वत विद्यमान था। रजत-निर्मित परकोटे में प्रष्ट-मङ्गल-द्रव्य थे। यह चार गोपुरदारों से प्रकाशमान था । इसके पश्चात् विद्यमान नाट्यशालामों में दिव्याङ्गनायें भगवान् के यश की घोषणा करती हुई नृत्य कर रही थीं। इसके बाद सप्तकम, प्राम्र, प्रशोक और चम्पक जाति के वृक्षों से युक्त चारों दिशामों में चार वन थे। इसी कोट के प्रत्येक द्वार पर उपस्थित देवगण भगवान् की सेवा कर रहे थे। उसके पश्चात् कल्पवृक्षों से सुशोभित वन पा। यहीं पर चारों दिशामों में सिद्धार्थ नाम के वृक्ष थे। तीसरा परकोटा स्फटिकमणि-निर्मित था। इस परकोटे के मागे जिनेन्द्रदेव के चारों पोर बारह कोष्ठ थे, बिनमें विद्यमान देव इत्यादि भगवान् का उपदेश सुनते थे । इसी समवशरण मण्डप के मध्य में स्थित गन्धकुटी में सिंहासन के ऊपर वीर भगवान् शोभायमान थे। भगवान के पीछे एक अशोकवक्ष था। उस समय उस मण्डप में आकाश से पुष्पवृष्टि हो रही थी । वीर भगवान् के दोनों मोर यक्ष चंबर इला रहे थे। उस सभामण्डप में वीर भगवान् के मुख की कान्ति करोड़ों सूर्यों को तिरस्कृत कर रही थी। भगवान् के ऊपर जन्म-जरा-मृत्यु इत्यादि विपत्तियों से बचाने वाले तीन छत्र १. दयोदयचम्पू, ५ श्लोक ६ के सद का मद्यभाग। २. श्रीसमुद्रदत्तचरित्र, ५२२७ ३. दयोदयचम्पू, १ श्लोक २२ के पूर्व का गबभाग । ४. (क) बीरोदय, ७।२० (ख) जयोदय, २४.८ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ महाकवि शानसागर के काव्य-एक अध्ययन विद्यमान थे । उस मण्डप में देवगणों को गम्भीर एवं प्रानन्दोत्पादक ध्वनियां सुनाई दे रही थीं। ऐसे उस सुन्दर मण्डप में वीरभगवान् के मुख से कल्याणकारिणी पाणी निःसृत हो रही थी। पात्रा-वर्णन श्रीज्ञानसागर की रचनामो में तीन स्थलों पर यात्रा का वर्णन मिलता है, एक बार वीरोदय में भोर दो बार जयोदय में। सर्वप्रथम वीरोदय से भगवान् बोर के जन्माभिषेक के अवसर पर देवगणों की कुण्डनपुर की यात्रा का वर्णन प्रस्तुत है : भगवान् के जन्म का शुभ समाचार सुनकर देवराट् इन्द्र ने प्रयाण की सूचना देने वाली गड़गी पिटवाई, भौर सभी को एकत्र करके वह कुण्डनपुर की भोर चल पर। उन देववरणों के हाथों में पुष्पों के पात्र थे । मार्ग में उन्होंने पाकाशमला के दर्शन किए। भनेक प्रकार की चेष्टामों को करते हुए मोर प्राकृतिक हल्यों से मानन्दित होते हुए देवपण कुण्डनपुर पहुंचे। उन्होंने वीरप्रभु की जन्मभूमि की तीन बार प्रदक्षिण की। जयोदय में यात्रा-वर्णन का प्रथम प्रसङ्ग वहाँ पर माता है, वहां चरितनायक जयकुमार की सेना प्रकीति से युद्ध करने के लिए चल पड़ती है : ___जयकुमार की सेना में भुजबल पर अभिमान करने वाले, मोजस्वी राबा एकत्र हुए। वे सभी वीररस से सुशोभित हो रहे थे। वे सभी कोष की लालिमा से युक्त थे । राजा की इस सेना के नगारे की ध्वनि जब प्राकाश में पहुंची, तब पर्वत भी कांप उठे। चञ्चल सुन्दर चोड़ों से युक्त, शुभ्र वस्त्र बाली ध्वजामों से युक्त, उन्मत्त हाथियों के मद से युक्त जयकुमार की सेना, लहरों एवं फेन से युक्त नदी के समान चल पड़ी। उस समय शत्रुनों की स्त्रियों के स्तन कज्जल से युक्त मासुमों के जल को धारण कर रहे थे। जब दिशामों के समूह धूल से धूसरित हो गए, तब उसकी सेना के प्रागमन को शत्रुनों ने जान लिया। राजा जयकुमार की सेना से उठाई मई धूलि पल समूह के रूप में स्वर्ण दीपकों पर, कलर रूप से चन्द्रमा पर पड़ती हुई x x x सेना के मद को गा रही थी। xxx अपकुमार की सेना के घोड़ों के खुरों की चोट से मूच्छित होती हुई पृथ्वी के ऊपर मानों सेना में विद्यमान ध्वजामों के वस्त्रों से हवा की जा रही थी। X X X 13 १. बोरोदय, १३।१-२४ २. वही, ७।६-१२ ३. जयोदय, ७९५-११२ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर का वर्णन - कौशल २३२ ક जयोदय में यात्रा वर्णन का दूसरा स्थल वही है, जहाँ जयकुमारः विवाह के पश्चात् अपने नगर में प्राते हैं : प्रनेक घोड़ों, हाथियों प्रोर रथों से युक्त होकर जयकुमार, भरत चक्रवर्ती की प्राज्ञा से अपने नगर की प्रोर चल पड़ते हैं। उनके साथ चलने वाले सभी लोग अपनी नगरी में पहुँचने से लिए प्रत्यन्त व्याकुल हैं, अब नगर समीप हो रहा है; ऐसा अनुभव करके जयकुमार अपनी गर्दन को हिलाकर प्रसन्नता धारण करके चलते हैं। उनका रथ इस समय उनके मनोरथ के समान तीव्रगामी था । उसके साथ रथ में उनकी प्रिया सुलोचना भी थी। उनकी सेना में प्राकाश की धूलि से धूसरित करने वाले अनेक उत्तम घोड़े थे । उन घोड़ों की गति वायु के समान मार्ग का उल्लङ्घन कर रही थी। पैदल चलने वालों के समूह पृथ्वी पर सुशोभित हो रहे थे । x x x चन्द्रमा की कान्ति के समान निर्मल वायु मार्ग में चलती हुई मयूरों की पंक्ति के बहाने से उस राजा की कीर्ति को सुशोभित कर रही थी । हाथियों की पंक्ति मद जल बहा रही थी । सारी पृथ्वी धूलि से घूसरित हो रही XXX उपकारी राजा के मा जाने पर वृक्षों ने मानों फल मोर पले धारण कर लिए थे। उन वृक्षों को देखकर राजा को सुख प्राप्त हो रहा था। XXX मार्ग में स्त्रियों राजा के ऊपर कटावा फेंक रही थीं। उस समय वह मार्ग वायु के भङ्कोरों से धौर कोहरे से युक्त था । भ्राम्रवृक्ष से मुक्त वह मार्ग - सुरतक्रीड़ा के प्राश्रम के समान लग रहा था। उस मार्ग में कुशापाश थी। धौर एक सुन्दर तथा श्रेष्ठ सरोवर भी था। वह सरोवर किनारे के वृक्षों तथा सुन्दर जल से युक्त था, प्रतः कल्पवृक्ष और प्रप्सराम्रों से युक्त स्वर्ग के समान था। उस मार्ग में मन को अच्छा लगने वाला एक वन भी था जो मार्गजनित श्रम को दूर कर रहा था । श्रञ्जनवृक्षों से युक्त वन की पृथ्वी, कुलवधू के समान सुशोभित थी । वहाँ के मयूर सुलोचना के केशपाशों से समता करने वाले थे । शस्य सम्पदा से युक्त पृथ्वी राजा को प्रसन्न कर रही थी । गजमुक्तानों को वहाँ के भीलों का सरदार राजा की प्रसन्नता के लिए लेकर प्राया । बस्ती के लोग प्राश्चर्य से राजा को देख रहे थे । धनाज की खेती करने वाले उन कृषकों की उदारता को देखकर राजा को सङ्कोच का अनुभव हो रहा था। राजा ने वहाँ की गोपबालानों के मुख में, समुद्रमंथन से उत्पन्न चन्द्रमा की कान्ति के दर्शन किए। जब वे सब वस्ती के निवासी दूध, दही इत्यादि लेकर राजा के पास प्राए, तब कुशल वार्ता पूँछकर राजा ने उन्हें विदा कर दिया। इस प्रकार मार्ग में यात्रा करते हुए राजा अपने नगर पहुँचे । ' १. जयोक्य, २१।१:६४ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४. महाकवि ज्ञानसागर के काम्य-एक अध्ययन युद्ध-वर्णन अपने नायक को शूरवीर सिद्ध करने के लिए कवि अपने काव्य में युद्ध-वर्णन करता है । नायक की विजय और खलनायक को पराजय, यह नायकप्रधान काम्यों की मुख्य विशेषता है, इस विशेषता को अपनाने के लिए कवि अपने काव्य में स्थान स्थान पर वीररस पोर रोटरस की निष्पत्ति करता है । कविवर ज्ञानसागर की कृतियाँ प्रायः शान्तरस प्रधान हैं, फिर भी जयकुमार पौर सुलोचना के विवाह में बाधा के रूप में कवि ने, जयकुमार पोर मकंकीति के पुरको प्रस्तुत किया है, जो संक्षेप में इस प्रकार है : ___ मर्ककीर्ति पौर जयकुमार की सेनाएं गर्जना करती हुई परस्पर गंध गई। सेनापति की प्राशा को सुनकर नगाड़े बबा दिए गए । सैनिक अपनी भुजाएं फटकारने लगे और कोषपूर्वक इधर-उधर चलने लगे। जयकुमार की सेना में जयकुमार का जयघोष गूंजने लगा। प्राकाश सैनिकों के कठोर पोर भयङ्कर स्वरों से त्रस्त हो गया। भयकर शस्त्रों को धारण करने के कारण, भय उत्पन्न करने बाली राजा की सेना के द्वारा उठाई गई धुलि से सूर्य भी टक गया। युर में, हाथ में धारण की गई तलवारों की चमकती हुई पंक्ति को, धुलि से धूसरित प्राकाश में चमकती हुई विजली समझकर मोर नाचने लगे। वीर एक दूसरे पर वेग-पूर्वक प्राक्रमण कर रहे थे। हाथी में पड़ा हुमा सैनिक हाथी वाले सैनिक के साथ, पालपंदल के साथ, रथारोहो-रथारोही के साथ भोर मश्वारोही-प्रश्वारोही के साथ युद्ध कर रहा था। सैनिकों के शस्त्र परस्पर टकरा रहे थे। x + + एक में खड्ग से युद्ध करने की शक्ति पी, दूसरे त्रिशूलधारी और गदाधारी थे । हाषियों के गण्डस्थल मदबल बहा रहे थे। किसी पैदल सैनिक को जंगा पर माक्रमण करके हाथी के द्वारा उसको वैसे ही विदीर्ण कर दिया गया था जैसे कि एक मत्त हावी द्वारा लकड़ी तोड़ दी जाती है । एक हाथी दूसरे हाथी पर माक्रमण करता हुमा, पर्वत की चोटी पर प्राश्लिष्ट-मेष की शोभा को धारण कर रहा था । सैनिकों द्वारा फेंके गए बाणों को भ्रमरों के प्राक्रमण के समान समझकर रोमाञ्चित शरीर बाला हायो धन्य है। तड़पते हुए कवन्धों को उन घटामों से वह सेना साक्षात घनश्चर हो रही थी। हाथियों के गरजने से, घोड़ों के हिनहिनाने से, रथों की घरघराहट से पौर नगाड़ों की गड़गड़ाहट से सेनाएं मुखरित हो रही थीं। एक साहसी सैनिक ने एक सैनिक को बब पृथ्वी पर गिराया तो उसने भी उठकर दोनों परों के प्रहार से उसे दूर फेंक दिया । कोई संनिक मूर्धा को प्राप्त हो रहा था। कोई गर्जना कर रहा था। वायु से हिलती हुई पताकाएं माकाश में व्याप्त हो गई थी। सैनिक सामने जाते हुए सैनिक का सिर छेद रहे थे। बाणों की पंक्ति सेनानायकों के हृदय में प्रविष्ट हो कर उन्हें मोक्ष प्राप्त कर रही थी। बह योडामों के वक्षस्थलों में वेश्या के समान प्रविष्ट हो रही थी। योषानों के इधर-उधर लड़कते हुए शिरों को देखकर ऐसा लगता था. मानों चन्द्रमा के Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि मानसागर का वर्णन-कौशल विपरीत होने पर यह पृथ्वी अनेक राहों से युक्त हो गई हो। हाषियों के मस्तक से निकलती हुई गणमुक्तामों को देखकर ऐसा प्रतीत होता है, मानों शत्रु की लक्ष्मी इस समय मांसू बहा रही हो। चमकती हुई पञ्चल तलवारबीर के हत्य को उत्साहित करती हुई सौभाग्य-समूह को प्रकट कर रही थी। रणभूमि इस समय ब्रह्मा की शिल्पशाला सी लग रही थी। रणभूमि में एड के नष्ट हो जाने पर श्वेत पत्र गिर रहे थे । शवों का मांस खाने के इच्छक पक्षी यहाँ पर मंडरा रहे थे। मत पुरुष की स्त्रियों के नेत्रों से बहता हुमा पत्रप्रवाह मोर हाथियों के मनस्वस से बहता हुमा मदजल यमुना के स्वरूप को धारण कर रहा था। पुखस्थल रणशोभा का क्रीडा सरोबर हो रहा था, जिसमें सैनिकों के केशों से युक्त शिर, शेवास से युक्त कमलों के समान बिखर रहे थे। स्त्रियों के मस्तक से बहते हुए कंकुम-जल से युठभूमि भर गई थी। जयकुमार ने युद्ध के लिए धनुष धारण किया । पुट को देखकर विद्वानों के हृदय कांप रहे थे, मुकुट समूह में से मणियाँ गिर रही थीं। जयकुमार ने अपनी वीरता के कारण शत्रुषों को तिनके के समान बना दिया। x x x जयकुमार के हाथ की तलवार सर्प से भी भयंकर थी। यह मनुष्यों के अंक को सजा रही थी। परस्पर तलवारों के प्रहारों से चिनगारियों निकल रही थीं। रक्त से सिचित युवभूमि में टूटते हए, हाथियों के दांत विजेता के कीतिवम के समान लग रहे थे। शत्र उस समय निबंल हो रहा था और जयकुमार हर्षित होकर शोभा को प्राप्त कर रहे थे। अपनी सेना को विनष्ट होता हमा देखकर पर्ककोति न्य को प्राप्त कर रहा था। x + x पताका रूपी बगुले, हायी रूपी बादल, बाण रूपी मोर, तमवार रूपी विषली, डोम की ध्वनि स्पी, बावल की गड़गड़ाहट वाला यह यूर वर्षा का रूप धारण कर रहा था। जयकुमार ने अपने गज को पककोत्ति की पोर प्रेरित किया। सोने की रेखा से चिह्नित बाण को जयकुमार के छोड़ने पर शत्रुसमूह अपने प्राण छोड़ रहा था। इसके पश्चात् जयकुमार ने परिजय नाम के रथ को ग्रहण किया। अन्धकार को नष्ट करने वाले दीपक के समान जयकुमार ने शत्रु को समाप्त किया। इसके पश्चात जयकुमार और प्रकीति बिहपुत्रों के समान सड़ने लगे । जयकुमार के बाण चलाने पर देवगण जय-जयकार कर रहे थे। अपनी पराजय से प्रकीति चिन्तित हो रहा पा, मोर जयकुमार विजय से युक्त हो गए थे।' कविकृत मन्दिर-वर्णन और समवशरण मण्डप वर्णन हमें तत्कालीन वास्तुकला का ज्ञान कराते हैं । यात्रा-वर्णन से यह ज्ञात हो जाता है कि हमारे मालोच्य महाकवि यात्री-हदय के पारसी थे। मार्ग में यात्री श्यों को किस प्रकार मार पौर प्रसन्नता से निहारता है, मार्ग में रहने वाले लोग किस प्रकार एकटक नवरों १. बयोदय, ८।१४ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य-एक अध्ययन नजरों से किसी धनी यात्री को देखते हैं, इस सबका वर्णन कवि ने करने का प्रयल किया है। सबसे सजीव वर्णन तो कवि ने युद्ध का किया है। जयकुमार पौर मर्ककोत्ति का युद्ध महाकाव्य में वीररस की निष्पत्ति करने में पूर्ण सफल है। (घ) विविध-वर्णन प्राकृतिक और वैकृतिक पदानों के वर्णन के अतिरिक्त कवि ने अन्य विविध वर्णन भी प्रस्तुत किए हैं, जो कवि के विस्तत ज्ञान के परिचायक हैं। कवि ने भारत के कुछ त्योहारों में होने वाले कार्यों का भी उल्लेख प्रपने काग्यों में किया है, यथा-वर्षा-ऋतु के प्रसंग में स्त्रियों का झूला झूलना। इसी प्रकार ग्रीष्मऋतु वर्णन के प्रसङ्ग में कवि ने पतङ्ग-क्रीडा का उल्लेख किया है । पतङ्ग-उड़ाती हुई एक निःसंतान स्त्री का चित्र देखिए : "पतङ्गतन्त्रायितचित्तवृत्तिस्तदीयन्त्रभ्रमिसम्प्रवृत्तिः। .. श्यामापि नामात्मजलालनस्य समेति सोल्यं सुगुणादरस्व ॥" मर्थात् जब कोई स्त्री पतङ्ग उड़ाते समय बोरी की ची को घुमाती है, तो उसे पुत्र खिलाने जैसा प्रानन्द प्राप्त होता है। जयकुमार की राजसभा का ही वर्णन कवि ने बड़ा मार्मिक किया है। जिस प्रकार शरद् ऋतु राजहंसों से शोभित होती है, उसी प्रकार जयकुमार की सभा विद्वानों से सुशोभित थी। पत्तों, पुष्पों, फलों से युक्त लतावल्लरी के समान वह सभा मच्छी वाणी बोलने वाले, प्रच्छे अन्तःकरण वाले विद्वानों से युक्त यो। वह सभा जैन बाणी के समान पवित्र नदी के समान मलिनता को नष्ट करने वाली पी। जयकुमार के विवाह के समय में बारात का स्वागत किस प्रकार किया गया, इसका भी वर्णन कवि ने बड़ा रोचक किया है। एक उद्धरण देखिए, जो स्वभावोक्ति से परिपूर्ण है : "कि पश्यस्यपि संरिमेरपि न कि नो रोचकं व्यंजनं, तन्वीदं लवणाधिकं खलु तषाकारीति नो रंजनम् । तस्मात्सम्प्रति. सर्वतो मुखमहं याचे पिपासाकुल:, सात्राभूत्स्मितवारिभुक् पुनरितः स्वेदेन स. व्याकुलः ॥" (जयोदय, १२॥१४०) . सुलोचना को विदा कराकर जयकुमार गङ्गा-नदी के तट पर पहुंचते है, उनके सैनिक वहीं पर पड़ाव गल लेते हैं, मोर रात्रि में पानगोष्ठी का प्रायोजन १. बारोदय, ४१२१-२२ २. जयोदय, ३१८-१० Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि मानसागर का वर्णन-कौशल २४३ करते हैं। कवि ने इस गोष्ठी का प्रत्यधिक स्वाभाविक वर्णन किया है, उसका संक्षिप्तीकृत रूप प्रस्तुत है : रात्रि में स्त्री-पुरुषों ने मधुर वार्तालाप सहित मद्यपान किया। उन्मत्त. होकर सभी स्त्री-पुरुष काम-चेष्टायें करने लगे। मदिरा पीने के कारण उन्मत्त पति सपत्नियों का नाम लेने लगे; इस समस्या को दूर करने के लिए पत्नियां अपने पतियों को मोर भी मदिरा पिलाने लगीं। मद्य पीकर पुरुष अपनी स्त्रियों के मुखकमल को निरन्तर निहारने लगे। मद्य पीकर पुरुष खाली पात्रों को इधर-उधर छोड़ने लगे। मख का पात्र छोड़ने वाली स्त्रियों के अधरों का उनके चतुर पति पान करने लगे। मद के कारण स्त्री-पुरुषों के नेत्र कोकनद की शोभा धारण करने लगे। उन्मत्त पुरुष अपनी स्त्रियों से यथार्थ वचन कहने लगे। x x x मदिरा वश में होकर स्खलित वाणी में पोर अधिक मदिरा की याचना करने लगे। सभी स्त्री-पुरुष हास-परिहास में संलग्न होने लगे। एक स्त्री दूसरी स्त्री को नेत्र बोलकर उसके प्रिय का दर्शन करने का उपदेश देने लगी। कोई स्त्री अपनी सखी के रोष को दूर करने का प्रयत्न करने लगी। पति अपनी स्त्रियों से प्रणय-निवेदन करने लगे। विरहिणी स्त्रियां पीड़ा का अनुभव करने लगी। स्त्रियाँ पुनः पुनः मान का अभिनय करने लगीं। + + x इस प्रकार मद्यपान करके स्त्री-पुरुषों ने परमसुख एवं लालसा का अनुभव किया ।' (ङ) सारांश महाकवि ज्ञानसागर की रचनाओं में पाए हुए पदार्थों के वर्णन के परिशीलन से उनकी वर्णन-कला-कुशलता का ज्ञान पाठकों को भी हो जाएगा। कवि ने प्रायः दष्टिगोचर होने वाले सभी पदार्थों का वर्णन अपने काव्यों में किया है। उनके काव्यों में इन वर्णनों को दोहराया भी नहीं गया है। अतः एक ही स्थान पर होने के कारण उनका मानन्द लेने में पाठक ऊबता नहीं, यदि कहीं इन वर्णनों को एक से अधिक बार किया भी गया है, तो प्रावश्यकतानुसार। श्री ज्ञानसागर का प्रकृति-वर्णन प्राय: प्रतीकात्मक है। उन्होंने अपने काम्य में प्रकृति-वर्णन स्वयं को सुकुमार कवि सिद्ध करने के लिए नहीं किया है, अपितु प्रसङ्गवश किया है । जैसे उनका पर्वत-वर्णन पाठक को कहीं न कहीं ले ही जाता है-जिनदर्शन के लिए या, मुनिदर्शन के लिए i. इसी प्रकार उनका समुद्र-वर्णन वीर भगवान् की ही महिमा का उद्घोष करता है। कवि ने अपने काव्यों में ऋतु-वर्णन (छह-ऋतुमों का) एक एक बार किया है । सम्भवतः कवि ने ऋतु-वर्णन पुनः इसलिए नहीं किया क्योंकि प्रत्येक विशिष्टता का वर्णन वह अपने ऋतु-वर्णन में उसी ही स्थल पर कर गए हैं। उनका शरद्वर्णन मोर बसन्त-वर्णन वास्तव में पाठक को लुभाने वाला है। १. जयोदय, १६वा सर्ग, Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य-एक अध्ययन प्रकृति का प्रतीकात्मक वर्णन करते हुए भी कवि ने प्रकृति-वर्णन में पाठक को अपनी अद्भुत क्षमता का परिचय कराया है । इसीलिए पटल हिमालय, पावनसलिला गङ्गा, ऋषियों से सेव्य बन, गहन-समुद्र, अप्सरामों के समान सुन्दर सरोवर, ऋतुराज, वसन्त, शुभाकाशशरद, भयकुर शीत, मन को उल्मसित करने बाली वर्षा, तमोनाशक प्रभात, पिशाचिनी के समान भयङ्कर रात्रि मोर सन्ध्यासुन्दरी-इन सभी प्राकृतिक पदार्थो के वर्णन में कवि की सूक्ष्मदर्शनशक्ति स्पष्ट झलकती है, और पाठक को अनायास ही प्राकृष्ट करती है । __ इसी प्रकार वंकृतिक-पदार्थ-वर्णन में भी कवि कम निपुण नहीं है। उन्होंने उपने काव्य के कथाप्रसङ्गों से सम्बन्धित सभी वस्तुमों का वर्णन किया है। वा ग्राम-जीवन पौर नगर-जीवन अन्तर को भी अच्छी प्रकार समझते हैं, इसीलिए वस्तुस्थिति को ध्यान में रखते हुए उन्होंने नागरिक-जीवन को भोगविलास से युक्त बताया है, और ग्रामीण जीवन में सारल्य की प्रधानता बताई है। नगरों में रत्नसम्पदा है, तो ग्रामों में शस्य-सम्पदा। कवि ने महावीर के कैवल्य जान से युक्त होने के सम्बन्ध में समवशरण मण्डप का वर्णन किया है। स्थानस्थान पर जिनायतन और जैन-मन्दिरों का भी वर्णन है। कवि का भौगोलिकस्थान-वर्णन, हमें तत्कालीन वास्तुकला का ज्ञान कराता है। कवि को सभी रचनाएं धार्मिकता से युक्त हैं, इसलिए उन्होंने जो मन्दिर वर्णन किया है वह मल्प है। कवि ने देवतामों की कुण्डनपुर की यात्रा, जयकुमार की सेना को युद्धयात्रा पौर जयकुमार की रथयात्रा का भी अच्छा वर्णन किया है । यात्रा में कोई भी व्यक्ति किस प्रकार अपना मनोरञ्जन कर सकता है-यह कवि के इन यात्रा-वर्णनों से ज्ञात हो जाता है। युद्ध का वर्णन कवि ने केवल एक स्थल पर किया है। इसका कारण यह है कि कवि की सभी कृतियों में भक्तिभाव मोर शान्तरस को ही प्रधानता है । प्रता पुद्ध-वर्णन से निष्पन्न वीर रस प्रङ्ग रस के ही रूप में अभिव्यक्त हुमा है। इतना होते हुए भी कवि अपने एकस्थलीय युद्धवर्णन से पाठकों के हृदय को उल्लसित करने में मोर कंपाने में पूर्ण समय है । उनके युद्ध-वर्णन में मुढ़कते हुए शिर पोर कबन्ध, चमकती हुई प्रसिलता, टकराते हुए प्रस्त्र युद्ध की सजीव झांकी हमारे समक्ष प्रस्तुत कर देते हैं। • कवि के काव्यों में परिणत दोला-क्रीड़ा, पतङ्ग-क्रीड़ा, सुरतविहार, पानगोष्ठी, बरात स्वागत इत्यादि भी उनकी सूझ-बूझ के परिचायक हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि कवि ने अपने काव्यों के कथानकों के वातावरण में उपसम्म सभी पदार्थों का साङ्गोपाङ्ग वर्णन किया है । प्रतः हम उन्हें वर्णन-कौशल की दृष्टि से भी एक सफल महाकवि मान सकते हैं। Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम अध्याय महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-ग्रन्थों में भावपक्ष काव्य के दो पक्ष होते हैं-भावपक्ष मोर कलापक्ष । उपर्युक्त दोनों पक्षों में भावपक्ष मधिक महत्वपूर्ण होता है। कवि द्वारा काव्य में प्रयुक्त मर्मस्पर्शी-काव्यउपादानों का नाम ही भावपक्ष है । यह काव्य का प्राणतत्व है । समाज में सहृदयता से रहित व्यक्ति को हृदयहीन पषवा पाषाण-हृदय कहा जाता है। इसी प्रकार काव्य में भावपक्ष की उपेक्षा करने वाले को कठिन-काव्य का प्रेत कहा जाता है। भावपारहित काव्य सौरभहीन पुष्प के समान किसी को अच्छा नहीं लगता, बल्कि फल के साररहित छिलके के समान अग्राह्य लगता है। काव्य को सहृदयहृदयग्राह्य बनाने के लिए मावश्यक है कि उसमें भावपक्ष और कलापक्ष का सन्तुलन हो। पाकाश में वो स्थान सूर्य का है, काम्य में वही स्थान भावपक्ष का है। भावपक्ष ही काग्य को वास्तविक काव्य की संज्ञा प्रदान करता है। भावपक्ष ही हमारे समक्ष कवि के हृदय में स्थित भावनामों का प्रस्तुतीकरण करता है। यही वह तत्व है। जिसके द्वारा हम कवि और अपने मध्य एक तादात्म्य की अनुभूति करते हैं । भावपक्ष ही काव्य का वास्तविक भाव (मूल्य) है । काग्य में इस तत्त्व की विद्यमानता जितनी ज्यादा होती है-काव्यप्रेमी पाठक उतना ही मानन्द-सरोवर में डूब जाता है, यहां तक कि अपने-मापको भूल जाता है। फिर काव्य के प्रयोजनों में वो प्रमुख प्रयोजन-सद्यः परनिति एवं कान्तासम्मत उपदेश भी हैं।' देखा जाता है कि पुरुष पर अपने गुरुजनों की प्रपेक्षा अपनी पत्नी की बातों का ज्यादा प्रभाव पड़ता है। वह अपनी सरस चेष्ठामों से उसे कर्तव्याकर्तव्य का जान कराने में अधिक प्रभावशालिनी होती है। इसी प्रकार व्यक्ति नीतिशास्त्रों के माध्यम से पूर्ण उपदेश ग्रहण नहीं कर पाता। हाँ, यदि उसे काव्य के माध्यम से उपदेश दिया जाए, तो वह मनोरञ्जन के बहाने सहज ही में उसे धारण कर लेता है। काव्य के ये दोनों प्रयोजन उसमें विद्यमान भावपक्ष से ही सिद्ध हो सकते हैं। १. मम्मट, काव्यप्रकाश, ११२ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य- एक अध्ययन कलापक्ष-प्रधान काव्य पुरुष को बौद्धिक व्यायाम में उलझा देता है । किन्तु भावपक्षप्रधान काव्य पुरुष को क्लान्ति हरने में समर्थ होता है । भावपक्ष के ही कारण कवि का काव्य, कविता- कामिनी का मनोहर रूप धारण कर लेता है। भाभूषणों से सुसज्जित होने पर भी कान्ता प्रपने हाव-भाव से ही किसी को प्राकुष्ट करने में समर्थ होती है । इसी प्रकार शब्दालङ्कारों मोर प्रर्थालङ्कारों गुंथी रहने पर भी कविता- कामिनी, जव भावपक्ष से संयुक्त होती है तभी, सहृदय को प्रभावित कर पाती है । २४६ उपर्युक्त विवेचन से सुस्पष्ट हो जाता है कि भावपक्ष काव्य का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण तत्व है । प्रत: काव्य को हृदयग्राह्य बनाने के लिए प्रावश्यक है कि इस तत्त्व की कवि द्वारा उपेक्षा न की जाय । इस तत्त्व की उपेक्षा होते ही कवि मोर उसके काव्य का साहित्य समाज में गौण स्थान हो जाता है । (ख) भावपक्ष के भेद भारतीय काव्यशास्त्रियों ने भावपक्ष के क्रमशः प्राठ भेद बताए हैं - रस, भाव, रसाभास, भावाभास, भावशान्ति, भावोदय, भावसन्धि प्रोर भावशवलता ।' कवि इन्हीं तत्त्वों के द्वारा पाठक के हृदय को छूने में समर्थ होता है । भावपक्ष के इन तत्वों में सर्वश्रेष्ठ स्थान रस का है । प्रतएव प्रब सर्वप्रथम रस-स्वरूप प्रस्तुत है । (ग) रस-स्वरूप हमारे मन में अनेक सुषुप्त भावनाएं विद्यमान रहती हैं। किन्हीं विशेष कारण भीर परिस्थितियों के उपस्थित होने पर सुषुप्तावस्था को छोड़कर ये जावस्था में प्रा जाती हैं। हमारी चेष्टायें इन भावनाओंों को प्रकट करती हैं; और कुछ ऐसे सहायक तत्व होते हैं, जो इन भावनात्रों को पुष्ट करते हैं । इस प्रकार हृदय में विद्यमान सुषुप्त भावना ही क्रमशः जाग्रत, प्रकट मोर पुष्ट होकर रस का रूप धारण कर लेती है । जिस प्रकार चावल से भात बनता है; उसी प्रकार भावना से ही रससिद्ध होता है, चावल को भात में बदलने के लिए पात्र, अग्नि, जल मोर पाचनविधि का ज्ञान प्रपेक्षित है; इसी प्रकार भावना को रस रूप में परिणत करने के लिए - कारण, विशिष्ट - वातावरण, बेष्टायें और सहायक कारण अपेक्षित हैं । काव्य-शास्त्रीय दृष्टि से देखा जाय तो भावना हुई हृदय में. स्थित स्थायी भाव । कारण भीर परिस्थितियों का काव्यशास्त्रीय नाम क्रमशः .मालम्बन-विभाव और उद्दीपन विभाव है। चेष्टात्रों को मनुभव कहा जाता है । १. (क) मम्मट, काव्यप्रकाश, ४ । २६ (ख) विश्वनाथकत साहित्यदर्पण, ३२५६ का उत्तराधं । २६० का पूर्वार्द्ध । Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि शामसापर के संस्कृत-प्रन्यों में मापन सहायक कारणों को व्यभिचारिभाव कहा जाता है। काग्यप्रकाशकार प्राचार्य मम्मट ने रस-स्वरूप का कथन करने वाली निम्नलिखित शब्दावली प्रयुक्त की "कारणान्यय कार्याणि सहकारीणि यानि । रत्यादेः स्थायिनो लोके तानि चेन्नाघटकाव्ययोः ।। विभावा मनुभावास्तत् कथ्यन्ते व्यभिचारिणः । व्यक्तः स तैविभावाद्यः प्यायी भावो रसः स्मृतः ॥"" मतएव रस को इस प्रकार परिभाषित किया जा सकता है कारण रूप विभाव (मालम्बन और उद्दीपन से जाग्रत), कार्य रूप अनुभाष (कायिक वाचिक चेष्टानों से प्रकट), मोर सहकारी रूप व्यभिचारिभावों (निदेव इत्यादि से) से व्यक्त-माश्रय में स्थित स्थायी भाव को रस कहते हैं। उदाहरणस्वरूप-दुष्यन्त (पाश्रय) में स्थित रति नामक स्थायीभाव, शकुन्तला पोर मनोहर तपोवन (मालम्बन और उद्दीपन विभाव) को देखकर बाग उठता है । उसका यह भाव शकुन्तला का सौन्दयं-वर्णन, भ्रमर-बाधा से उसको स्वाना इत्यादि चेष्टानों (अनुभावों) से प्रकट हो जाता है । पता नहीं, यह किस कुल की कन्या है ? इसका विवाह मुझसे हो सकता है या नहीं ? इत्यादि शाति (यभिचारिभावों) से पुष्ट हो जाता है, और शृङ्गार रस का रूप धारण कर मेठा है : स्पष्ट है कि सुषुप्त स्थायीभाव को रस नहीं कहा जा सकता। विभावादि पारा रस-रूप में परिणत स्थायीभाव ही मानन्दानुभूति करा. पाता है। इसीलिए रस को सब प्रानन्द कहते है, मोर स्थायीभाव को मूलप्रवृत्ति । पर यही स्थायीभाव मास्वाय होने पर 'रस' को संज्ञा प्राप्त कर लेता है। (घ) रस-संख्या-निर्णय भारतीय काव्यशास्त्रियों के मत में ६ प्रकार के स्थायो-भाव हैं, पोर इन्हीं स्वायी भावों के अनुसार ६ रस भी हैं : स्थायी भाव १. रति शुङ्गार २. हास हास्य ३. शोक करुण ४. क्रोष रौद्र उत्साह बीर १. भय भयानक १. काव्यप्रकाश, ४।२७-२८ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान्त' महाकवि नामसागर के काम्य-एक अध्ययन ७. जुगुप्सा बीभत्स ८. विस्मय अद्भुत १. निर्वेद इसके अतिरिक्त कुछ लोगों ने वत्सस रस मोर भक्तिरस की भी परिकल्पना की है। जहाँ तक मानन्दानुभूति का प्रश्न है; वहाँ इन दोनों रसों की परिकल्पना उचित ही है । हम वत्सल को तो रस कह सकते हैं, किन्तु भक्ति को नहीं। रसों का यह वर्ग करण मनोवैज्ञानिक माधार पर किया गया है । व्यक्ति के मन में रहने वाली पुषेषणा' नामक मलप्रवृत्ति की उपेक्षा हम नहीं कर सकते । पुत्र के प्रति स्नेह' नामक स्थायी-माव इसी मूलप्रवृत्ति से सम्बद्ध है । फिर पुत्र के प्रति स्नेह, 'स्त्री-पुरुष के परस्पर प्रेम' से विल्कुल भिन्न है। स्त्री पुरुष का प्रेम समवयस्कता के माधार पर होता है । प्रतः हमें वत्सल रस अलग रस मान लेना चाहिए। प्रब जहाँ तक भक्ति को रस की प्रतिष्ठा प्राप्त कराने का प्रश्न है-उसका उत्तर है कि भक्ति या प्राबर नामक मूलप्रवृत्ति का किसी भी मनोवैज्ञानिक ने उल्लेख नहीं किया। प्रतः भक्ति को हम हृदय में स्थित स्थायी-भाव नहीं मान सकते । माता-पिता, गुरु मोर ईश्वर के प्रति श्रद्धायुक्त स्नेह को ही भक्ति कहा जाता है । हमारे मन में भक्ति का प्रादुर्भाव सामाजिक परिस्थितियों; पूज्य-जनों का समाज में विशिष्ट स्थान, मोक-परम्परा इत्यादि के अनुसार होता है । स्पष्ट है कि पुत्र-पुत्री के प्रति प्रेम में भी श्रद्धा का सम्मिश्रण नहीं होता, पौर रमणीरमणविषयक प्रेम में बराबरी का दावा होता है, इसलिए उसमें श्रद्धा की वह मात्रा नहीं होती, जो गुरु, माता-पिता और ईश्वर के प्रति प्रेम में मिली रहती है। 'शृङ्गार रस' में रति नामक स्थायी भाव और 'वत्सल.रस' में बालक के प्रति वात्सल्य १. (क) भरतमुनि, नाट्यशास्त्र, ६।१६, १८ तथा ३५०-३५३ पृ० का गयभाग। (ब) मम्मट, काव्यप्रकाश, ४१२९, ३० मोर ३५ का पूर्वार्द । (ग) पं. जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, प्रथम मानन, पृ. १३१-१३६ २. विश्वनाथ, साहित्यदर्पण, ३३२५१-२५४ का पूर्वार्ष । ३. 'ब्रह्मानन्दो भवेदेष चेत् परावंगुणीकृतः ।। १६ मेति भक्तिः सुखाम्भोः परमाणुतुलामपि । -रूप गोस्वामी, भक्तिरसामतसिन्धुः । पूर्वविमागे प्रषमा सामान्य भक्तिलहरी Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकविमानसागर के संस्कृत-पम्पों में भावपक्ष २४५ नामक स्थायीभाव ही बलशाली होते हैं, जबकि 'पूज्य-जनों के प्रति प्रेम' में मात्र स्नेह से काम नहीं चलता, उसमें स्नेह मोर पता की मात्रा लगभग समान ही होती है। प्रतः स्नेह मोर अदा के सम्मिश्रण रूप भक्ति को 'भक्तिरस' का स्थायीभाव नहीं माना जा सकता है । प्रतः मनोवैज्ञानिक माधार को ध्यान में रखते हुए हम रसों की संख्या दस से अधिक नहीं मान सकते। (ङ) कवि श्री ज्ञानसागर के संस्कृत काव्यों में अङ्गीरस . मानसागर जी के काव्यों के परिशीलन से ज्ञात होता है कि वह उपयुक्त रसों में से एक रस को ही प्रधान रस के रूप में प्रस्तुत करते हैं, अन्य रसों को वा उस प्रधान-रस के सहायक के रूप में ही उपस्थित करते हैं। किसी राज्य के संचालन में जो स्थिति सम्राट मोर सामन्तों की होती है, काव्यों में वही स्थिति प्रधान रस पोर सहायक रसों की होती है। प्रधान रस को ही मनीरस कहा जाता है, मन्य सहायक रसों का नाम काव्यशास्त्र में प्रङ्ग रस है । उत्तम कवि यह प्रयास करते हैं कि उनके काव्य को पढ़कर पाठक एक रस का अच्छी प्रकार मानन्द उठा सकें, इसलिए वह मङ्गरसों को इस प्रकार उपस्थित करते हैं कि उनसे मिलने वाला मामन्द, मनीरस से मिलने वाले मानन्द को कम न करे। जब हम अपने मालोच्य कवि श्रीज्ञानसागर के पांचों काव्यों-बयोदय, वीरोग्य, सुदर्शनोदय, श्रीसमुदवत्तचरित्र भोर दयोदयचम्पू का परिशीलन करते है तो ज्ञात होता है कि कवि ने इन पांचों काव्यों में 'शान्तरस' का ही मनीरस के रूप में वर्णन किया है। मान्तरस का स्वरूप भारतीय काव्यशास्त्रियों की शान्तरस के विषय में प्रवधारणा है कि सत्त्वगुणसम्पन्न पुरुष के हृदय में स्थित शम नामक स्थायी भाव ही प्रास्वादन योग्य होकर शान्त-रस को पदवी पाता है। इसका रङ्ग कुन्दपुष्प के समान श्वेत है, अपवा चन्द्रमा के समान है, जो सारिवकता का पोतक है । पुरुषों को मोक्ष रूप पुरुषार्ष की प्राप्ति कराने वाले श्रीभगवान् नारायण ही रस के देवता है। संसार को निःसारता, दुःसमयता और तत्त्वज्ञानादि इसके मालम्बन-विभाव है। महषियों के मामम, भगवान् के क्रीडाक्षेत्र, तीर्थस्थान, तपोवन, सत्सङ्ग मादि इसके उद्दीपनविभाव है। यम-नियम, यतिवेष का धारण करना, रोमाञ्च इत्यादि इसके अनुभाव हैं । निर्वेद, स्मृति, पूति, स्तम्भ, जीवदया, मति, हर्ष इत्यादि इसके व्यभिचारिभाष हैं। इस रस का प्रादुर्भाव होने पर व्यक्ति में ईर्ष्या, द्वेष, ममत्व इत्यादि भावों का सवा प्रभाव हो जाता है । वह सुख-दुःख से रहित एक विलक्षण ही मानन की प्राप्ति करता है । इसके अतिरिक्त शुजारावि सांसारिक-रस हैं, उनमें हमें धर्म, पर्व, काम-इन-तीन पुरुषार्थों की झलक देखने को मिलती है, किन्तु प्रक्षोकिन मानन्द की अनुभूति कराने वाले शान्त-रस में हम सर्वश्रेष्ठ पुरुषार्थ मोक्ष की झलक Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य-एक अध्ययन देखते हैं। शङ्गार को यदि 'रसराज' की पदवी दी गई है, तो इसे 'रसपिराव मानना चाहिए क्योंकि इसके प्रादुर्भाव के समय अन्य सभी रखों की सत्ता इसी में विलीन हो जाती है। (क) जयोदय में वर्णित शान्त रस__जयोदय महाकाव्य का माद्योपान्त अनुशीलन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि इस महाकाव्य का प्रन्तिम भाग शान्त रस से सराबोर है। कवि ने २५ से स्थ सर्ग तक शान्त रस के अतिरिक्त किसी अन्य रस का प्रवेश भी नहीं होने दिया है । अन्य स्थलों पर भी ऐसा लगता है कि शुङ्गारादि रस सब शान्त-रस की चाकरी कर रहे हों; मोर उनके माध्यम से सहृदय पाठक शान्तरस तक पहुँचा हो तथा उसकी शान्तरस से गुप्तमंत्रणा चल रही हो। .. काव्य के नायक जयकुमार इस रस के पाश्रय हैं। संसार की: निःसारता, परिवर्तनशीलता प्रादि पालम्बनविभाव हैं। प्रादि तीर्थकर भगवान ऋषभदेव का उपदेश उद्दीपनविभाव है। वनगमन, रोमाञ्च, यतिवेश धारण करमा, दंगम्बरी दीक्षा लेना इत्यादि अनुभाव हैं । हर्ष, स्मति, दैन्य, मति, तक इत्यादि व्यभिचारिभाव हैं। शान्त रस का बीज काव्य का वह स्थल है, जहां जयकुमार और सुलोचना को अपने पूर्वजन्मों का स्मरण हो जाता है। यह चीज उस समय अंकुर का रूप धारण कर लेता है, कब तीर्थयात्रा के अवसर पर रविप्रभदेव जयकुमार के सदाचरण की परीक्षा लेता है । इसके बाद तो जयकुमार के हृदय में विद्यमान 'सम' नामक शान्तरस का स्थायीभाव पूर्णरूपेण जाग उठता है। जयकुमार अपने पुत्र का राज्याभिषेक कर देते हैं, पोर तत्पश्चात् बन की मोर चल देते हैं। वह भगवान् ऋषभदेव की शरण में जाते हैं । भगवान् उन्हें उपदेश देते हैं। फलस्वरूप बह सम्पूर्ण सांसारिक पदार्थों को छोड़कर दिगम्वर मुनि बन जाते हैं। कठोर तपस्या के पश्चात् सिद्धि को प्राप्त कर लेते हैं। यहां पर शान्तरस वाचामगोचर बसा प्राप्त कर लेता है। शान्तरस की अभिव्यञ्जना कराने वाले कुछ उखरमा प्रस्तुत हैं: (क) विरक्त जयकुमार के मनोभावों का वर्णन देखिए : "बहसमस्यवरोधिविधेः क्षयप्रशमतः शमतः स्विदयं बनः। झगिति निविविदेऽप भवच्छिदे क्वचिदचित्तचिनिजसम्बिदे।" ३१... .(क) भरतमुनिकृत नाट्यशास्त्र, ६।८३वीं कारिका के बाद का पक्षमाय गोर ५४-८७ (ख) विश्वनाथ कृत साहित्यदर्पण, ३।२८५ का• उ.-२४६ के पूर्व तक। Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-प्रभ्थों में भावपक्ष अनुभवानिलजालसमीरिते हृदयसारगभीरंसरस्वति । जनिमवापमवापदीरणः स्फुटविचार तरङ्गततिः सती ॥ क्षरणरुचिः कमला प्रतिदिङ, मुखं सुरधनुश्चलमेन्द्रियकं सुखम् । बिभव एष सुषुप्तिविकल्पवग्रहह उदयमदोऽखिलमध्रुवम् ॥ युवतयो मृगमञ्जुललोचनाः कृतरवा द्विरदा मदरोचनाः । लहवित्तरलास्तुरगावचमू समुदये किमु क्भपनेऽप्यमूः ॥ १ (ख) ऋषभदेव से धर्मस्वरूप सुनकर जयकुमार तपस्वी हो जाते हैं, मोर अपने वस्त्र इत्यादि परिग्रह का परित्याग कर देते हैं । पुनः निवृत्ति के मार्ग पर प्रग्रसर हो जाते हैं : -: "सदाचारविहीनोऽपि सदाचारपरायणः । स राजापि तपस्वी सन् समझोप्यक्षरोधकः ॥ हैरयेवरयाव्याप्तं भोगिनामधिनायकः । महीनः सर्ववत्तावत्कञ्चुकं परिमुक्तवान् ॥ पंचमुष्टिस्फुरदुष्टि प्रवृत्तोऽखिलसंयमे । उच्चखान महाभागो वृजिनान्वृजिनोपमान् ॥ कृताभिसन्धिरम्यंगनी रागम हितोदय: । मुक्ताहारतया रेजे मुक्तिकान्ताकरग्रहे ॥ प्रायश्चित्तं चकारंष विनयेन समन्वितम् । स्वाध्यायसहितं धीरा परिणामानुयोगवान् ॥ मारवाराभ्यतीतस्सन्नथो नोदलतां श्रितः । मारवाराभ्यतीतस्सन्नयो नोदलतां श्रितः । निवृत्तिपयनिष्ठोऽतिवृत्ति संख्यानवानभूत् । "३ (ग) तपस्या को अङ्गीकार कर लेने पर जयकुमार में क्षमाशीलता, मृदुता, सरलता, पवित्रता, निर्भीकता, तेजस्विता, त्याग, वैराग्य, तत्वज्ञान के प्रति रुचि इत्यादि गुरण वृद्धि को प्राप्त हो जाते हैं : “क्षमाशीलोऽपि सन् कोपकरणे कपरायणः । बभूव मावोपेतोऽप्यतीव दृढधारणः ॥ प्याजश्रिया नित्यं समुत्सवक्रमङ्गतः । पाचनप्रक्रियोऽप्यासीत्तदा शोचपरायणः ।। श्यामतां नान्वगाचित् सत्यानुगतवृत्तिमान् । यमाभीत एवासीत्संयमप्रभयान्वितः ॥ १. जयोदय, २५१-४ २ वही, २८।५-१० Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ महाकवि मानसागर के काम्य-एक अन्वयन मसन्तप्तान्तरङ्गोऽपि तपसि प्रणिधि पतः। न त्यागमहितोऽप्यासीत्यक्ताशेषपरिग्रहः ॥ संगीतगुणसंस्थोऽपि सन्नकिंचनरागवान् । वर्णनातीतमाहात्म्यो वरिणतोचितसंस्थितिः॥ श्रीयुक्तदशधर्मोऽपि नवनीताधिकारवान् । तत्त्वस्थितिप्रकाशाय स्वात्मनकायितोऽप्यभूव ॥ (ख) बोरोदय में वरिणत शान्तरस बीरोदय महाकाव्य तो प्रायोपान्त शान्तरस प्रधान महाकाव्य है। इस काग्य के नायक भगवान महावीर के हृदय में स्थित शम नामक स्थायीभाव विशिष्ट वातावरण में प्रबुद्ध होकर शान्त रस का रूप धारण कर लेता है। मणमगुर संसार इस रस का मालम्बन-विभाव है। और लोगों की स्वार्थपरता, धर्मान्धता इत्यादि उद्दीपन विभाव हैं । त्याग की इच्छा, तपश्चरण की मोर उन्मुख होना इत्यादि अनुभाव हैं । निर्वेद, स्मृति, इत्यादि व्यभिचारिभाव हैं । वीरोदय महाकाव्य के शान्तरस के कुछ उद्धरण प्रापके सम्मुख प्रस्तुत हैं : (क) भगवान महावीर विवाह का विरोध करते हुए अपने पिता को समझाते हैं: "पुरापि श्रूयते पुत्री ब्राह्मी वा सुगरी पुरोः । मनूचानस्वमापन्ना स्त्रीषु शस्यतमा मता ॥ उपान्त्योऽपि जिनो बालब्रह्मचारी जगन्मतः । पाण्डवानां यथा भीष्मपितामह इति श्रुतः ।। अन्येऽपि बहवो जाताः कुमारश्रमणा नराः । सर्वेष्वपि जयेष्वग्रगतः काम नयो यतः ।। + + + राज्यमेतदनाय कोरवाणामभूदहो।। तथा भरतन्दोःशक्त्योः प्रपंचाय महात्मनोः ।। राज्यं भुवि स्थिरं वासोत्प्रजायाः मनसीत्यतः । शाश्वतं राज्यमध्येतुं प्रयते पूर्णरूपतः ॥"" उपर्युक्त श्लोकों में जगत को निस्सारता रूप मालम्बन का वर्णन हमा है, भीष्म पितामह, कोरव भरत-वाहुवली के वृत्तान्त उद्दीपन विभाव है। मति म यभिचारिभाव है। यहाँ शान्तरस की स्पष्ट अभिव्यञ्जना है। १. जयोदय, २८॥३५-४० २. वीरोदय, ३६.४५ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि भानसागर के संस्कृत-प्रमों में भावपन २५० (ख) बीरोदय में शान्तरस का दूसरा उदाहरण वहां देखने को मिलता है पर भगवान् महावीर विवाह के प्रस्ताव को अस्वीकार करके, संसार की दोनबशा का प्रबलोकन करते हैं : "स्वीयां पिपासां शमयेत परासजा क्षुषां परप्राणविपत्तिभिः प्रजा। स्वचक्षुषा स्वार्थपरायणां स्थिति निभालयामो जगतीशीमिति ॥ पजेन माता परितुष्यतीति तन्निगवते पूर्तजनः कथितम् । पिबेन्नु मातापि सुतस्य शोणितमहो निशायामपि प्रर्यमोदितः । पाया-सुतायं भुवि विस्फरन्मनाः कुर्यादजायाः सुतसंहति च । किमुच्यतामोडशि एवमार्यता स्ववान्छितार्थ स्विदनयंकायंता ॥ + + स्वरोटिको मोटयितं हि शिक्षते जनोऽखिलः सम्वलयेऽधुनाक्षितेः । नाचनाप्यन्यविचारतन्मना मलोकमेषा असते हि पूतना ॥ + महो पशूनां ध्रियते यतो बलिः श्मशानतामञ्चति देवतास्थली। यमस्थली वातुलरक्तरञ्जिता विभाति यस्यां सततं हि देहली ।। एक: सुरापानरतस्तपा वत पलङ्कषत्वात्कवरस्थलीकृतम् ॥ केनोवरं कोऽपि परस्य योषितं स्वस्वात्करोतीतरकोणनिष्ठितः ॥ कुतोऽपहारो द्रविणस्य दृश्यते तपोपहार: स्ववचः प्रपश्यते । परं कल हियते ऽन्यतो हटाद्विकीर्यते स्वोदरपूर्तये सटा ॥"" (माज लोग दूसरे के रक्त एवं मांस से अपनी पिपासा एवं शुषा को शान्त करना चाहते हैं । संसार में यही स्वार्थपरायणता दृष्टिगोचर हो रही है। पूर्त मोगों का कहना है कि बकरे की बलि से जगदम्बा प्रसन्न होती है। यदि माता अपने हो पुत्रों का खून पीने लगे तो यह वैसा ही होगा जैसे रात्रि में सूर्य का उदय होना । स्वार्थी मनुष्य अपनी स्त्री से पुत्र के लोभ में बकरी के पुत्र का हनन कर रहा है। x x x इस संसार में जिसे देखो वही अपना स्वार्थ सिद्ध करने में लगा हुमा है। x x x मन्दिरों से सुशोभित पवित्र भूमि पशुमों की बलि पारण करती हई श्मशान की ही श्रेणी में पहुंच रही है। उन मन्दिरों की देहली रक्त से रजित होकर यमलोक जैसी ही लग रही है । लोग मन-मांस-परस्त्री-सेवन, पोरी, बेईमानी और दुराचार में संलग्न हो रहे है।) उपर्युक्त श्लोकों में संसार का वैचित्य मालम्बन-विभाव है । लोगों की स्वापरायणता, प्रज्ञान, समाज में व्यभिचार की वृद्धि इत्यादि उद्दीपन विभाव है। १. बोरोक्य, ३१५ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि मानसागर के काव्य-एक मान संसार को दशा को देखकर दुःखी होना अनुभाव है। निर्वेद, जीवदया बादि व्यभिपारिभाव हैं। (ग) वीरोदय में शान्तरस का तीसरा और महत्त्वपूर्ण स्थल यह है, जहाँ भगवान महावीर के हृदय में स्थित 'शम' नामक स्थायी भाव पूर्णरूपेण जाग उठता है : "श्रीमतो वर्षमानस्य चित्ते चिन्तनमित्यभूत् । हिमाक्रान्ततया ष्ट्वा म्लानमम्भोरुहव्रजम् ॥ भुवने सम्धजनुषः कमलस्येव मारशः । क्षणादेव विपत्तिः स्यात्सम्पत्तिमधिगच्छतः । + + + किमन्यरहमप्यस्मि वञ्चितो माययाऽनया । धीवरोऽप्यम्बुपूरान्तःपाती यदिव झंझया। + + अस्मिन्नहन्तयाऽमुष्य पोषकं शोषकं पुनः । वांछामि संहरान्मेतदेवानर्यस्य कारणम् ॥ + + + वस्त्रेण वेष्टितः कस्माद् ब्रह्मचारी च सन्नहम् । दम्भो यन्न भवेरिक भो ब्रह्मवत्मनिवाषकः ।। + x . + विहाय मनसा वाचा कर्मणा सदनाश्रयम् । उपम्यहमपि प्रीत्या सदाऽऽनन्दनकं वनम् ॥ + + विजनं स विरक्तात्मा गत्वाऽप्यविजनाकुलम् । निष्कपटरवमुखतु पटानुज्झितवानपि ।। उच्चखान कचौघं स कल्मषोपममात्मनः । मौनमालब्धवानन्तरन्वेष्टुं दस्युसंग्रहम् ॥' (शीत के माक्रमण से मलिन कान्ति वाले कमलों के समूह को देखकर भगवान् वर्धमान विचार करने लगते हैं कि संसार में किसी के भी ऊपर.प्राने वाली विपत्ति का कोई निश्चित समय नहीं है। x x x जैसे जल के प्रवाह के बीच झंझावत है मांदोलित होकर मल्लाह इब जाता है, वैसे ही बुद्धि से युक्त होकर भी मैं इस संसार की माया से ठगा जा रहा हूँ। x x x महङ्कार, राग और + १. बीरोदय, ११-२६ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-ग्रन्थों में भावपक्ष -२५५ द्वेष को मैं समाप्त करना चाहता हूं। ये मेरे प्रनथं का कारण बन गए हैं। x x x यह तो मेरा दम्भ ही है जो ब्रह्मचारी होकर मैं बस्त्र धारण कर रहा हूँ। XXX अब मैं मन, बारणी भोर कर्म से भवनावेष्टित नगर को छोड़कर सज्जनों को श्रानन्द देने वाले बन को प्रेमपूर्वक जाता हूँ ! × × × इस प्रकार से विरक्त मन वाले भगवान् ने भेड़ इत्यादि पशुनों से भरे हुए जमरहित वन में जाकर दंगम्बरी दीक्षा ले ली। अपने केशों को उखाड़ दिया प्रीर मीन धारण कर लिया ।) इन श्लोकों के प्रनुशीलन से ज्ञात हो जाता है कि यहाँ संसार को परिवर्तनबोलता मालम्वनविभाव है। निर्जेब, गति माथि व्यभिचारिभाव हैं। नगर मोर वन में समबुद्धि रखना, वनगमन, वस्त्रपरिस्थान, केशों को उखाड़ना इत्यादि अनुभाव हैं यहाँ शान्तरस का प्रास्वादन करने में बहवय पाठक को कोई बाधा नहीं बीबी । (ग) सुदर्शनोदय में बरित शान्त रस इस काव्य का परिशीलन करने से ज्ञात होता है कि इसका अन्तिम भाग तो शान्त रस से युक्त है ही. साथ ही बीच-बीच में भी शान्त रस की झांकी देखने को मिल जाती है । प्रारम्भ से अन्त तक शान्त रस को अन्य रसों से संघर्ष करना पड़ा है, और इस संघर्ष में विजय शान्त रस की ही हुई है । 1 शान्तरस का बीज काव्य का वह स्थल है, जहाँ पर सेठ वृषभदास बैगम्बरी दीक्षा ग्रहण कर लेते हैं । कपिला की दुष्प्रवृत्ति पर विजय के समय वह बीज अंकुरित होने लगता है। रानी प्रभयमती के ऊपर विजय के समय यह अंकुर पौधे का रूप ले लेता है । मनोरमा की प्रेरणा रूपी जल से यह पौधा सिंचित हो जाता है । देवदत्ता घोर पण्डितादासी को प्रबुद्ध करने के पश्चात् यह पौधा एक विशाल बृक्ष का रूप धारण कर लेता है । इस समय शान्त रस निर्वाध रूप से प्रास्वाद्य हो बाता है । सुदर्शनोदय के परिशीलन से ज्ञात होता है कि इस काव्य में चार स्थलों पर शान्त रस का वर्णन किया गया है। एक स्थल पर सेठ वृषभवास शान्तरस के प्राय हैं, और प्रन्य स्थलों पर सुदर्शन इस रस का श्राश्रय है। मुनियों का उपदेश, उनका दर्शन, संसार में दुराचरण इत्यादि इस रस के उद्दीपन हैं। संसार की परिवर्तनशीलता घालम्वन-विभाव है। वनगमन, यतिवेशधारण करना इत्यादि अनुभाव हैं । निर्वेद, मति इत्यादि व्यभिचारिभाव है। सुदर्शनोदय में वर्णित शान्त उस के ३ उद्धरण प्रस्तुत हैं : -: बोदय ४।१३-१४ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य - एक अध्ययन (क) शान्तरस का प्रास्वादन सर्वप्रथम सहृदय पाठक वहाँ पर करता है, जहाँ सेठ वृषभदास मुनि से धर्मोपदेश सुनकर दिगम्बर- दीक्षा लेकर मुनि बन जाते हैं और समस्त बाह्य भाडम्बरों का परित्याग कर देते हैं : २५६ | 'वामेव कौमुदी साधु-सुधांशोरमृतलवा । तथा वृषभदासस्याभूम्मोह तिमिरक्षतिः ।। तमाश्विनं मेषहरं श्रितस्तदाधिपोऽपि दासो वृषभस्य सम्पदाम् । मरवम्मोनपदाय भन्दतां जगाम दृष्ट्वा जगतोऽप्यकन्दताम् ॥' (ब) शान्त रस की प्रभिव्यजना कराने वाला दूसरा स्थल वह है, जहाँ रानी के दुर्व्यबहार के पश्चात् अपनी तेजस्विता मोर शक्ति के कारण सुदर्शन राजा धात्री वाहन के शिकंजे से भी छूट जाता है, राजा के समक्ष विरक्ति से परिपूर्ण वचन कहता है, धीर उदासीन होकर निवृत्ति पथ पर चलने की इच्छा करता है । urat मनोबांचा वह अपनी पत्नी मनोरमा के सम्मुख व्यक्त करता है । मनोरमा से प्रेरणा पाकर जिनमन्दिर जाता है, वहाँ विमलवाहन नामक मुनिराज के दर्शनों पर वचनों से प्रभावित होकर दिगम्बर मुनि बन जाता है। इस बात में साध्वी मनोरमा भी पीछे नहीं रहती, वह भी बाह्य- माडम्बर त्याग कर प्रार्थिका व्रत को धारण कर लेती है : " माया महतीयं मोहिनी भवभाजो हो माया || भवति प्रकृतिः समीक्षरणीया. यहशगस्य सदाया । निष्फललतेव विचाररहिता स्वल्पपल्लवच्छाया ॥ दुरितसमारम्भप्राया | माया महतीयं ॥ समाशास्य यतीशानं न चाशाऽस्य यतः क्वचित् । पुनः स चेलालङ्कारं निश्चलाचारमभ्यगात् ॥ छायेव तं साऽप्यनुवर्तमाना तथैव सम्पादितसम्विधाना । तस्यैव साधोवंचसः प्रमारणाज्जनी जनुः सार्थमिति ब्रुवाणा ॥ शुक्लेकवस्त्रं प्रतिपद्यमाना परं समस्तोपषिमुज्झिहाना । मनोरमाभूदधुनेयमार्या न नग्नभावोऽयमवाचि नार्याः ॥" ( सांसारिक प्राणी को यह विमोहित करने वाली माया बहुत बड़ी सम्पति के समान लगती है । जो व्यक्ति इस माया के वश में हो जाते हैं, उनका व्यवहार शोचनीय हो जाता है। फलों से रहित, पक्षियों के संचार से रहित प्रोर थोड़े पत्तों के कारण थोड़ी सी छाया वाली लता के समान माया के वशीभूत व्यक्ति की चेष्टाएं निष्फल, विचार रहित, बोड़े से पुष्पों का सम्पादन करने वाली और पाप से पूर्ण होती हैं। XXX क्योंकि इस सुदर्शन के मन में सांसारिक वस्तुओंों के ' Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-ग्रन्थों में भावपक्ष प्रति जरा भी ममता नहीं रह गई थी । म्रतः उसने इस पृथ्वी के प्रमङ्कारस्वरूप - मुनीश्वर के पास जाकर देगम्बरी दीक्षा ग्रहण कर ली। मनोरमा ने भी छाया के समान उसका अनुकरण किया, और सुदर्शन के समान ही समस्त विधानों का सम्पादन किया। उन्हीं मुनिराज के वचनों को प्रमाण मानकर उसने अपने नारी जन्म को सार्थक किया । समस्त परिग्रह को छोड़कर उसने केवल एक श्वेत वस्त्र धारण करते हुए प्रायिका व्रत को धारण किया क्योंकि स्त्रियों के दिगम्बरत्व का निषेध है । यहाँ पर संसार की निःसारता श्रालम्बन-विभाव है । राजा-रानी का व्यवहार, मनोरमा की प्रेरणा, विमलवाहन मुनि के दर्शन भोर उनके उपदेश उद्दीपन विभाव हैं। सांसारिकता के त्याग का निश्चय, यतिवेश धारण करना, दिगम्बर बन जाना, श्वेतवस्त्र वार करना, प्रार्थिका व्रत धारण करना इत्यादि अनुभाव हैं। निर्वेद, मति धृति इत्यादि व्यभिचारिभाव हैं । (ग) शान्तरस की अभिव्यञ्जना कराने वाला स्थल वह है जहाँ रानी अभयपती जो कि व्यन्तरी बन चुकी है - पुदर्शन से बदला लेने पाती है । - व्यन्तरी के दुर्व्यवहार का सुदर्शन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। सुदर्शन का देह सम्बन्धी ममत्व पूर्णरूपेण समाप्त हो जाता है और केवल्यज्ञान की प्राप्ति हो जाती है : "प्रात्मन्ये वाऽऽत्मनाऽऽत्मानं चिन्तयतोऽस्य धीमतः । न जातुचिदभूल्लक्ष्यस्तत्कृतोपद्रवे पुनः ॥ त्यक्त्वा देहगत स्नेहमात्मन्ये कान्ततो रतः । बभूवास्य ततो नाशमगू रागादयः क्रमात् ॥ निःशेषतो मले नष्टे नंमत्यमधिगच्छति । प्रादर्श इव तस्यात्मन्यखिलं बिम्बितं जगत् ।। नदीपो गुणरत्नानां जगतामेकदीपकः । स्तुतान्यनतयाऽधीतः स निरञ्जनतामषात् ||"" २५७ ( प्रात्मा में ही अपनी बात्मा द्वारा परमात्मतत्त्व का चिन्तन करते हुए बुद्धिमान सुदर्शन का ध्यान व्यन्तरी के उपद्रवों पर जरा भी नहीं गया । शरीर सम्बन्धी स्नेह को छोड़कर प्रन्त में वह प्रात्मा में ही लोग हो गए । उनके रागादि क्रमशः नष्ट हो गए । बिस प्रकार मलिनता के नष्ट हो जाने पर दर्पण में स्पष्ट प्रतिबिम्ब दिखाई देता है, उसी प्रकार उनकी कर्मरूपी मल से रहित मात्मा में यह जगत् प्रतिबिम्बित हो रहा था। गुणरूप रत्नों के सागर तीनों जगत् के एकमात्र प्रकाशक, सर्वबन्ध वह सुदर्शन केवल ज्ञानी हो गए ।) १. सुदर्शनोदय, ११८३-८६ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य - एक अध्ययन यहाँ पर तन्त्रज्ञान ग्रालम्वन-विभाव है। सम्पूर्ण ममत्व की समाप्ति, प्रन्तःकरण का निर्मल हो जाना अनुभाव हैं । (घ) श्रीसमुद्रदत्तचरित्र में वरित शान्तरस -- श्रीसमुद्रदनचरित्र का प्रायोपान्त परिशीलन करने से पता चलता है कि इसमें शान्तरस का ही एकच्छत्र साम्राज्य है । चौये सगं से नवें सगं तक हमें शान्तरस की ही छटा सर्वत्र दृष्टिगोचर होती है। मुख्य रूप से शान्तरस का प्रारम्भ वहाँ से होता है, जहाँ पर राजा अपराजित सर्वारिग्रह का त्याग करके दिगम्बर हो जाते हैं। राजा चकान के सर्वपरिग्रह त्याग करने पर इस रस का पूर्ण परिपाक हो जाता है । २५८ इस काव्य में सात स्थानों पर शान्तरस की अनुभूति होती है। इनमें से एक स्थल वह है जहाँ रानी रामदत्ता प्रार्थिका व्रत धारण कर लेनी है। एक स्थल पर भद्रमित्र, एक स्थल पर मिचन्द्र, एक स्थल पर राजा अपराजित भोर तीन स्थलों पर राजा चक्रायुध इस रस के ग्राश्रय | जन्म-मरण का चक्र प्रादि श्रालम्बन विभाव हैं। प्रियजन का नाश, मुनियों का सदुपदेश, विश्वसनीयों द्वारा प्रतिकूल आचरण, पूज्य जनों का यतिवेश धारण करना आदि उद्दीपन विभाव हैं। श्रार्थिका व्रत धारण करना, सम्पत्ति का दान कर देना, राज्य छोड़कर वन जाना, दिगम्बर- वेश धारगा करना, रागादि से रहित होना आदि अनुभाव हैं । शान्तरस के ३ महत्वपूर्ण स्थल इस प्रकार हैं :-- (क) इस काव्य में शान्तरस की सुन्दरं प्रभिव्यञ्जना उस स्थल पर हुई है, जहाँ राजा अपराजित मुनि के उपदेश सर्वपरिग्रह का परित्याग कर देते हैं : "कानमलं भूत्र तपस्विना श्रीपिहिताश्रवेण । ऋतुतमेव धराततेऽस्य वसन्तनाम्ना सुमनोहरेण ॥ X X X वेरिवेरुदार: भूतेऽनुभूते म मुदोऽधिकारः । उद्यानपालक कुक्कुटे नराजित नोक इवागमे ॥ समेत्य पश्चादभिवन्द्य पाजानः । परिश्रवः स्वस्परमं तं श्रुत्वा विदेस्त्रिदन्तः ॥ ततोऽत्र भोगाच्च भवादुदासीभवन्महात्मा कृतकराशिः । विहाय देहादखिलं यदन्यद् दधो यथाजातपदं स धन्यः ॥ १ 15 ( काव्य के नायक चक्रायुध के उद्यान में पिहिताश्रव नामक एक प्रभावशाली मुनि का आगमन हुग्रा । उद्यान के माली के मुंह से मुनि का ग्रागमन सुनकर चक्रायुध के पिता प्रसन्न होकर मुनि के पास पहुँचे। जब राजा म्रपराजित ने अपने १. श्रीसमुद्रदत्तचरित्र, ६॥३१-३६ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-प्रन्थों में भावपक्ष २५६ जीवन-मरण के विषय में मुनि से सुना, तो उनका हृदय विरक्ति से भर उठा। उन्होंने सभी सांसारिक पदार्थों का परित्याग कर दिया, और हिंगम्बर मुनि बन गए ।) यहाँ जन्म-मरण का चक्र पालम्बन विभाव है। मुनि के दर्शन मोर उनके वचन उद्दीपन-विभाव । सर्वपरिग्रह त्याग कर मुनिवेश धारण करना अनुभाव है। हर्ष, निर्वेद, मति इत्यादि व्यभिचारिभाव हैं। (ख) काव्य का नायक चक्रायुध एक दिन दर्पण में मुख देखते समय अपने शिर पर एक सफेद बाल देख लेता है। फलस्वरूप वह संसार और इस सांसारिक जीवन की निःसारता के विषय में सोचने लगता है और अपना राज्य अपने पुत्र को देकर वन प्रस्थान करता है : "रुचिकरे मुकुरे मुख मुद्धरन्नय कदापि स चक्रपुरेश्वरः । कमपि देशमुदीक्ष्य तदासितं समवदद्यमदूतमिवोदितम् ।। ननु जरा पृतना यमभूपतेमंम समीपमुपञ्चितुमीहते । बगदाधिकृतह तदग्रतः शुचिनिशानमुदेति प्रदोबत ॥ तरुणिमोपवनं सुमनोहरं दहति यच्छमनाग्निरतः परम । भवति भस्मकलेव किलासको पलितनामतया समुदासको । परमभावसञ्चितसम्पदा परमभाववशं कलयन् हृदा। पयुजेऽत्यजन्निजवैभवं प्रतिविधातुमुदीय सर्वभवम् ॥ परिणगिवाजयितुं स नवं धनं गज इब प्रभवेश्च न बन्धनः । सदनतः प्रचचाल वनं प्रति भवितुमत्र तु पूर्णतया यतिः ॥"' उपर्यक्त स्थल पर संसार की परिवर्तनशीलता पालम्बन-विभाव है। शिर पर श्वेत केश दिखाई देना उद्दीपन विभाव है। राज्य छोड़कर वन को बस देना अनुमान है। निर्वेद मति इत्यादि व्यभिचारिभाव हैं। () वन जाने के पश्चात् चकायुध ने अपराजित मुनि के दर्शन किए। उनके पवनों को सुनकर उसने समस्त बाह्य वस्तुओं का परित्याग कर दिया। उसका मन्तःकरण भी धीरे-धीरे निर्मल हो गया। शरीर से विरक्त उसने संयम की शुद्धि के लिए मयूरपिच्छी की पौर शौच के लिए कमण्डलु को निर्विकार भाव से ग्रहण कर लिया । त्याग और बैराग्य से उसने सभी कर्मों को अपने से दूर कर दिया। अन्त में उसे कैवल्य की प्राप्ति हो गई। "इति गुरोरिव गारुडिनोऽप्यहिवंचनमभ्युपगम्य नपो बहिः। झगितिकंचुकमुख्यमपाकरोद्गरमिवान्तरमप्यांना स हि ॥ १. बीसमुद्ररत्तचरित्र, ७॥१-२३ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० महाकवि ज्ञानसागर के काव्य यथाजातपदं लेभे परित्यज्याखिलं बहिः । शरीराच्च विरक्तः सन्नन्तरात्मतया स हि ॥ पिच्छां संयमशुद्ध्यर्थं शौचार्थ च कमण्डलुम् । निर्विण्णास्तस्तया दधे नान्यत्किञ्चिन्महाशयः ॥ पटेन परिहरणोऽपि बहुनिष्कपटोऽभवत् । प्रभूषणत्वमव्याप्तो भुवो भूषरणतां गतः ॥ एक अध्ययन नामनुद्भवां चक्रे पुरापुतिन्तु शोधयन् । शस्त्रवेद्य इवातोऽभूत्सद्य एवावृतेः क्षयः ॥ चक्रीव चक्रेण सुदर्शनेन य श्रात्मशञ्जितवान् शुभेन । चक्रायुधः केवलिराट् स तेन पायादपायाद् धरणीतले नः ॥ १ यहां पर वस्तुतत्त्व का ज्ञान प्रालम्बन-विभाव है । गुरु के वचन उद्दीपनविभाव हैं। सम्पूर्ण परिग्रह का परित्याग मनुभाव है। निर्वेद, मति, जीवदया इत्यादि व्यभिचारिभाव हैं । (ङ) दयोदय- चम्पू में वर्णित शान्तरस इस काव्य का अन्तिम भाग शान्तरस से युक्त है । समस्त रसों को परिणति शान्त रस में उसी प्रकार हुई है. जिस प्रकार समस्त नदियों की परिणति समुद्र में होती है । अतः शान्त रस के उदाहरण के रूप में काव्य का यही प्रतिम भाग प्रस्तुत है अपने प्रभावशाली व्यक्तित्व के कारण सोमदत्त ने सेठ की पुत्री विषा राजकुमारी गुणमाला और प्राधा राज्य प्राप्त कर लिया। एक दिन राजकार्य के पश्चात् जब वह घर प्राया तो उसने और विषा ने एक मुनिराज को देखा। दोनों ने उनको यथोचित सम्मान दिया। मुनि के विरक्तिपूर्ण वचनों से प्रभावित होकर, सोमदत्त ने सांसारिक मोहमाया का परित्याग कर दिया। समस्त बाह्यवस्तुओं का परित्याग करके वह दिगम्बर मुनि बन गया। बिषा ने भी पति का अनुकरण किया। उसने प्रौर वसन्तसेना वैश्या ने भी विरक्त होकर प्रायिका व्रत धारण कर लिया : "यावच्च समाजगाम राजकार्थ कृत्वा तावदेव सुकेतु नामा मुनिश्वर्या पर्यायपरिणतो पिथमगात् । यतिः प्रवसरमुपेत्य वचोगुप्तिमतीत्य भाषासमितिमवलम्बितवान्"ग्रहो संसारकान्तारे चतुष्पथसमन्विते । मार्गत्रयन्तु संरुद्धमतीव दुरतिक्रम: :: १. श्री समुद्रदत्तचरित्र, ८५०, ६१-३० ---- Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-प्रन्थों में भावपक्ष २१ न भवो नाम पन्थ कोऽन्त्य भी प्रस्थानदायकः ।. तस्भिश्चेन्द्रिय संज्ञानां लुण्टकानामुपक्रमः ॥" (यह संसार एक भयानक जङ्गल के समान है, इसमें प्रवेश करने के लिए चार मार्ग हैं । इनमें से तो मार्ग को प्रने क उपद्रवों से अबरुद्ध हैं। मनुष्य जन्म नामक वो चौथा मार्ग है, वह प्रभी स्थान पर बना सकता है : किन्तु उसमें भी चोरों के समान इन्द्रियविषयों का उपद्रव होता ही रहता है।) इति साधुसुधांशोवंचनामृतं पोत्वा स्वास्थ्यमुपलभमानो विषोपयोगसजातमोहतो रहितः सन्नखिलानुपाधिप्रकारानतीत्य यथाजातरूपतामनुजग्राह सोमदत्तः । सोमदत्तशत्यानुभावमतीत्य तपोधनप्रसङ्गेण विकासमाश्रितवती कमलिनीव तपसि चित्तं चकार । ....... विषा- वसन्तसेने एकमेव शाट मात्रविशेषमार्याव्रतम ङ्गीचक्रतुः ।"' यहां पर सोमदत्त, विपा और वसन्नसेना शान्तरसः के प्राश्रय हैं । वस्तुतत्व का ज्ञान पालम्बनविभाव है। ऋषिराज के वचन, उनको वेशभूषा उद्दीपन विभाव है। सांसारिक पदार्थों को छोड़कर मुनि बनना अनुभाव है । निर्वेद, हर्ष पोर मति इत्यादि व्यभिचारिभाव हैं। (च) श्री ज्ञानसागर के संस्कृत काव्यों में अङ्गरस कविवर श्रीज्ञानसागर ने अपने काव्यो में पात रस के अङ्गरसों के रूप में अन्य रसों का भी वर्णन किया है। अब पाप उनके काव्यों में वरिणत होने वाले रसों का अवलोकन कीजिए :बयोदय महाकाव्य में वरिणत अङ्गरस-- ___ जयोदय में शान्त की पुष्टि हेतु जिन अन्य रसों का वर्णन है, वे इस प्रकार हैं :-शङ्गार, वीर, रोद्र. हास्य, बीभत्स और वत्सल रस । प्रब क्रमशः सोदाहरण ये रस प्रस्तुत हैं :शङ्गार रस जयोदय महाकाव्य में इस रस को अभिव्यक्ति ६ स्थलों पर है। प्रायः कवि ने संयोग शङ्गार की ही अभिव्यक्ति कराई है। काव्य के नायक जयकुमार मोर नायिका सुलोचना इस रस के परस्पर मालम्बन मोर माश्रय हैं। स्वयंवर-मप, जयकुमार और सुलोचना का अन्य लोगों की अपेक्षा अधिक गुणों से सम्पन्न होना, एकान्त, चन्द्रोदय इत्यादि उद्दीपन १. योग्यचम्पू, ७ श्लोक १७ के बाद से मोक ३८ के पूर्व तक। Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ महाकवि मानसागर के काव्य-एक अध्ययन विभाव है। स्तम्भित होना, रोमाञ्चित होना प्रादि अनुभाव है। लज्जा, बर्ष, पावेग इत्यादि व्यभिचारिभाव हैं। अब इसके कुछ उद्धरण भी प्रस्तुत है : (क) स्वयंवर-मण्डप में स्थित काव्य की नायिका सलोचना के हण्य में स्थित रतिभाव कैसे शङ्गार-रस का रूप धारण कर लेता है, कवि के शब्दों में देखिए : "हृदगतमस्या दयितं न तु प्रयातुं शशाक तत्राभि । सम्यक कृतस्तदानीं तयाक्षिण लज्जेति जनसाक्षी ।। भूयो विरराम कर: प्रियोन्मुखस्सन् स्रगन्वितस्तस्याः । प्रत्याययो गन्तोऽप्यर्धपथाच्चपलतालस्यात् ।। मभ्ययो भवति पुमानित्येव विशेषशिनीमनु माम् । स्वीकृतवती स्थलेऽत्राप्युत्पल विजिगीषु मदुनेत्रा ॥ मोदकमिति तु जयमुखं सख्यास्यं सूपकल्पितं ताहक । रसितवती सामि पुनः क्षुधिते वसुलोचना यादृक् ।। इत्यत्र कुमुद्वत्याः कर इन्दीवरसमालतया स्फीतः । ननु संध्ययेव सख्या जयस्य मुखचन्द्रमनुनीतः ।। तस्योरसि कम्प्रकरा मालां बाला लिलेख नतवदना । मात्माङ्गीकरणाक्षरमालामिव निश्चलामधुना ।। सम्पुलकितांगयष्टेरुद्गीर्वाणीव रेजिरे तानि । रोमाणि बालभावाद वरश्रियं द्रष्ट मुत्कानि ।' स्वयंवर-मण्डप में जयकुमार को देखकर सुलोचना अपनी दृष्टि को लौटा पाने में समर्थ नहीं होती। वह जी भरकर जयकुमार को देखती है। प्रिय की मोर उन्मुख जयमाला से सुसज्जित उसका हाथ रुक जाता है। धीरे-धीरे वह अपना हाथ जयकुमार को प्रोर बढ़ाती है, लज्जा के भार से झुककर माला को जयकुमार के वक्ष पर डाल देती है। उसका शरीर रोमाञ्चित हो जाता है। (ख) जयोदय महाकाव्य में शुङ्गार रस की अभिव्यञ्जना कराने वाला दूसरा स्पल वह है, जहाँ पर जयकुमार मौर सुलोचना को विवाह-मण्डप में विठाया जाता है : "मभवदपि परस्परप्रसादः पुनरुभयोरिह तोषपोषवादः । उपसि दिगनुरागिणोति पूर्वा रविरपि हृष्टबपुविदो विदुर्वा । नन्दीश्वरं सम्प्रति देवतेब पिकाङ्गना चूतकसूतमेव । बस्वोकसारामिवान साक्षीकृत्याशु सन्तं मुमुदे मृगाक्षी॥ १. बयोदया ४१२०-१२६ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-ग्रन्थों में भावपक्ष २६३ प्रध्यात्मविद्यामिव भव्यवन्दः सरोजराजि मधुरा मिलिन्दः । . प्रीत्या पो सोऽपि त का सगोरगात्री यथा चन्द्रकलां चकोरः ॥"" जयकुमार प्रौर सुलोचना एक दूसरे को देखकर परम सन्तुष्ट हैं । सुलोचना जयकुमार को देख कर वैसे ही सन्तुष्ट हुई, जसे शिव जी को देखकर पार्वती, प्राम के बोर (प्राम्रपुर) को देखकर कोयल गोर मूर्य को देखकर कमलिनी प्रसन्न होती है। जैसे सज्जन यात्मविद्या को, भ्रमर सुन्दर कमलों की पंक्ति को पौर चकोर पक्षी चन्द्रकला को देखते हैं, उसी प्रकार जयकमार ने भी प्रेमपूर्वक गौरवणं वाली सुलोचना को देखा। यहां पर जयकुमार प्रौर सुलोचना शङ्गार-रस के पालम्वन और पाश्रय हैं. विवाह-माडा, दोनों का सौन्दयं एवं गुण और एकान्न उद्दीपन विभाव है। कटाक्ष इत्यादि अनुभाव हैं, हर्ष, उत्कण्ठा इत्यादि व्यभिचारिभाव हैं। जयोदय महाकाव्य में शङ्गार रस के अन्य भी उद्धरण देखने को मिलते हैं। किन्तु विस्तारमय से इसके वे सभी उदाहरण नहीं दिए जा रहे हैं। शुङ्गार शान्त का प्रङ्ग-- जयोदय महाकाव्य में वरिणत शङ्गार रस सामन्त की भांति शान्त रस रूप सम्राट का सहायक सिद्ध होता है । जिस प्रकार नदी प्रपना क्षेत्र समाप्त होने पर समुद्र में विलीन हो जाती है, उसी प्रकार शृङ्गार-रस भी अपना कार्यक्षेत्र पार करके शान्त रस में ही अन्तर्भूत हो जाता है। यह पहल ही कहा जा चुका है कि पप्रधान एवं सहायक रसों को साहित्यशास्त्र में प्रङ्गरस कहा जाता है। प्रतः इस काव्य में शङ्गार रस भी शान्तरस का अङ्ग है। पीररस ____जयोदय महाकाव्य में वीरग्स की अभिव्यक्ति दो स्थलों पर होती है । दोनों ही स्थलों पर वीररस का प्राश्रय युद्धवीर जय कुमार है। इस रस का पालम्बन है -प्रतीति । पर्व कीति की अधिकार चे, उसका दम्भ, युद्ध के लिए हठ इत्यादि उद्दीपन विभाव हैं। युद्ध के लिए सेना साना इत्यादि मनुभाव हैं । पति, मति, गवं, तर्क रोमाञ्च इत्यादि व्यभिचारिभाव है। युद्धवीररस का प्रथम स्थल वहाँ है, जहाँ पर प्रकीति युद्ध करने की ठान लेता है, पर उसका क्रोध किसी प्रकार कम नहीं होता। ऐसे समय में जयकुमार प्रकम्पन को धयं बंधाकर युद्ध करने के लिए तत्पर हो जाते हैं, उनको देखा-देखी राजा प्रकम्पन भी अपने एक हजार पुत्रों के साथ युद्ध हेतु उत्साहसम्पन्न होकर १. जयोदय, १०।११८-१२० Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ चल देते हैं। प्रत्य राजा भी जयकुमार की मदद के लिए श्रा जाते हैं । अस्त्रशस्त्रों से सुसज्जित होकर जयकुमार की सेना युद्ध के लिए प्रस्थान करती है : (क) सोमसूनुरुचिनां धनुर्लतां यः पुनः प्रवर इष्यते सताम् । श्रीकरे च करबारणभूषितां शुद्धवंशजनितां गुणान्विताम् || - महाकवि ज्ञानसागर के काव्य- - एक अध्ययन - तत्र हेमसहिताङ्गदादिभिः स्वः सहस्रतनयैः सुराडभीः । निर्जगाम सुतरामकम्पनस्तत्सहाय मरिवर्ग कम्पनः ।। श्रीराम हृत्सुकेतुका देवकीर्तिजयवर्म कावकात् । दूरगानयर योत्यसम्म दास्सद्वलेन जयमन्वयुत्तदा ।। - स्वी बाहुबलगविता भुजास्फोटनेन परिवर्तितस्रजाः । सम्बभूवुरधिपाः सदोजसः बद्धसन्नहनकाः किलंकशः ॥ निर्गमेऽस्य पटहस्य निःस्वनः व्यानशे नभसि सत्वरं घनः । येन भूभृदुभयस्य भीमयः कम्पमाप खलु सत्त्वसंचयः ।। सत्तरङ्गमतुरङ्गमञ्जुला निर्मलध्वज निफेनवचुलाः । मत्तवारणमदप्रवाहिनी निर्ययौ जयनृपस्य बाहिनी ॥१ (ख) वीररस का दूसरा स्थल वहाँ है, जहाँ जयकुमार मोर प्रकंकीति का परस्पर युद्ध होता है :-- "बमूसमूहाबथ मूर्तिमन्तो परापराधो हि पुरः स्फुरन्ती । निलेतुमेकत्र समीहमानो संजग्मतुर्गर्जनया प्रधानो || साध्ये किलालस्यकलां निहन्तुं निशम्य मेनापतिशासनन्तु । प्रताडयत्तत्पटहं विपश्चित्कृतागसश्चित्तमिवाशु कश्चित् ॥ - १. जयोदय ७।८५- १०० सवेगमाक्रान्ततमाश्च वीरैनिषेधिकामाहुरिवाथ षीरैः । प्रतिध्वानविधानजन्यां रजस्वलाः सम्प्रति दक्षकन्याः ॥ समुदययो सगजगं गजस्थः पत्तिः पदाति रथिनं रथस्थः । भवस्थितोऽश्वाधिगतं समिद्धं तुल्यप्रतिद्वन्द्वि बभूव युद्धम् । 1 मतङ्गजानां गुरुगा जितेन जातं प्रहृष्यद् हयह षितेन । प्रयो रवानामपि चीस्कृतेन छन्नः प्ररणादः पटहस्य केन ॥ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकविमानसागर के संस्कृत-प्रन्यों में भावपक्ष २६१ वीरश्रियं तावदितो वरीतुं भर्तु व्यं पायावयवा तरोतुम् । भटाग्रणी प्रागपि चन्द्रहासयष्टि गलालकृतिमारतवान् सः ॥ निपातयामास भटं धराया मेक: पुन: साहसितामथायात् । स तं गृहीत्वा पदयोश्च जोषं प्रोक्षिप्तवान्वायुपथे सरोषम् ।। जयेच्छुरादूषितवान्विपक्षं पक्षं प्रमाणः प्रवर्णः सदक्षः । हेतावुपात्तप्रतिपत्तिरत्र शस्दैश्च शास्त्ररपि सोमपुत्रः ॥ यदाशुगस्थानमितः स धीरः प्राणप्रणेता जयदेववीरः। मरातिवर्गस्तुणतां बभार तदाय काष्ठाधिगतप्रकारः ॥ उरीचकारावकलङ्कलोऽपि परिजयं नाम रथं जयोऽपि । खरोऽध्वना गच्छति येन सूर्यस्तेनैव सोमोऽपि सुधौषधुर्यः ।। रपसादयसारसाक्षिरन्धपतिना सम्प्रति नागपाशबढः । । शुशुभेऽप्यशुभेन चक्रितुक्तत्तमसासन्तमसारिरेव भुक्तः ॥ प्रस्तुदर्कचिच्चिन्तो जयश्च विजयान्वितः । जनोऽभिजनसम्प्राप्तो वर्तमानाभिधानतः ॥"" प्रस्तुत पद्य पंक्तियों में जयकुमार के हृदय में विद्यमान उत्साह नामक स्थापित भाव, युद्धभूमि, प्रकीति को युद्धविषयक चेष्टामों से उद्दीप्त होकर पर विभिन्न रीतिरूप अनुभाव से प्रकट होकर, पति, मति, गवं इत्यादि वितरित भावों से परिपुष्ट होकर वीररस को सन्दर अभिव्यञ्जना करा रहा है। वीर शान्त का अंग वीररस भी जयोदय काव्य में शान्त रस को अपेक्षा प्रधान है। बाद रस के समक्ष इसकी वह स्थिति है जो समुद्र के समक्ष एक सरोवर की होती है। अतः यह रस शान्त का मङ्ग रस है । रोत रस जयोदय महाकाव्य में रौद्र-रस की अभिव्यंजना एक स्पन पर है। काम्य का प्रतिनायक मकोति इस रस का माषय है। जयकुमार इसके बालपण विभाव हैं । जयकुमार के गले में सुलोचना द्वारा जयमाला डालना, संसल, मनववमति का समझाना इत्यादि उद्दीपन-विभाव है। नेत्रों का सानो पाला अपनी वीरता की प्रशंसा करना, जयकुमार के विरुद्ध युद्ध की तैयारी करताबावेक, १. बयोदय, ८१-८५ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य - एक अध्ययन मद, प्राक्षेप, क्रूरदृष्टि इत्यादि अनुभाव हैं। मोह. उग्रता, श्रमर्ष इत्यादि म्यभिचारिभाव हैं सुलोचना ने स्वयंबर-मण्डप में बैठे हुए अन्य राजाओं को छोड़कर जयकुमार के गले में जयमाला डाल दी। प्रकीति के सेवक दुर्मर्षरण को जयकुमार की प्रतिष्ठा सहन नहीं होता । वह पीने की उनकी पद-प्रतिष्ठा का स्मरण कराता है । उसे भाँति-भाँति के वचन कहकर उत्तेजित करता है। जयकुमार धौर प्रकम्पन महाराज की निन्दा करता है। फेनम्वरूप प्रर्ककीति क्रुद्ध हो जाता है, मोर जयकुमार और ग्रकम्पन से कर ठान लेता है । वह जयकुमार और प्रकम्पन के विरुद्ध युद्ध की तैयारी कर लेता है । ग्रनवद्यमति नाम के मंत्री के समझाने का भी उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। उसकी इच्छा को जानकर राजा प्रकम्पन अपना दूत उसके पास भेजते हैं, लेकिन वह टस से मस नहीं होता : “कल्यां समाकलय्यग्रामेनां भरतनन्दनः । रक्तनेत्रो जनादेव वभूव क्षीवतां गतः ॥ दहनस्य प्रयोगेण तस्येत्यं दारुणेङ्गितः । दग्धश्चक्रिसुतो व्यक्ता श्रङ्गारा हि ततो गिरः || --- राज्ञामाज्ञामवशे वश्यं वश्योऽयं भो पुनः स्वयम् । नाशं काशीप्रभोः कृत्वा कन्यां धन्यामिहानयेत् ॥ 'नानुमेने मनागेव तत्थ्यमित्थं शुचेर्वचः । क्रूरश्चक्रिसुतो यद्वत् पयः पित्तज्वरातुरः ॥ साघारणधराधीशान् जित्वापि स जयः कृतः । द्विपेन्द्रो न मृगेन्द्रस्यसु तेन तुलनामियात् ॥ मोसुलोचनयानोऽर्थो व्यर्थमेव न पौरुषम् । इथं भावविरोधार्थ कर्मशर्मवतां मतः ॥ यत्यय सदपत्यते जसा सार्पिता कमलमालिकाऽञ्जसा । मूच्छिनास्तु न जाननेदुना तावतार्ककरतः किला मुना ॥ साम्प्रतं सुखलताप्रयोजनात् पश्य यस्य तनुजा सुरोचना । वाशां वरदरङ्गतः प्रभु दूत रे वृषभ इत्यसावभूत् ।।"" १. जयोदय ७।१७-६५ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि भानसागर सतनावमा २६७ रोजगात कापा बयोदय महाकाय में रौद्र रस एक गौण स यह शान्त रस का पड़ा है। म में विस मान है, प्रतः हास्य-रस जयोग्य महाकाल में एक स्वम पर हास्य रस की भी झलक दिखाई पड़ती है, और वह स्थल है-जयकुमार के विवाह में पाए हुए बरातियों का स्वागत । उदाहरण रूप में कुछ हास-परिहास प्रस्तुत हैं : "प कश्चन नायनामवंशसमयस्यापि समीयतेऽवतंसः । परिहासबोभिरेव पन्यान्निजबासीभिरभोजमा सजन्यान् ॥ प्रयि चेतसि जेमनोतिवारः सकलण्यम्जनमोदनाषिकारम् । सुचिपात्रमिदं कयेत्पमुक्ताः सहसा अग्धि विधी तु ते मियुक्ताः ।। स्फटिकोचितभाजने जनेन फलिताया युबते: समादरेण । उरसि प्रणिधाय मोदकोक्ताहतियं नियमदितं करेण । तव सन्मुखमस्म्यहं पिपासुः सुरतीत्यं गदितापि मुग्धिकाच ॥ कलशी समुपाहरतु यावस्मितपुष्परियमपितापि तावत् ॥ मम मण्डकमेहि तावदालेऽस्ति कलाकन्दमपि प्रवेहि नाले । बटकं घटकल्पसस्तनौत: कटकं सटकद्दधामि पीतः ।। मसुरोचितमाह्वयामि बाले सरसं म्यम्बनमत्र भुक्तिकामे । मधुरं रसतात् पयोधरामधुना हारमिमं न कि कलाकम् ॥ उपपीडनतोऽस्मि तम्बि भावानुभूष्णुस्तककाम्रकाम्रता वा। बत वीमत चूषणेन भानिन्निति सा प्राह व चूतदाशुभाङ्गो॥ कि पश्वस्वयि संरसेरपि न कि नो रोचकं व्यञ्चनं तम्बी मवणाधिकं सनु तपाकारीति नो रजनम् । तस्मात्सम्मति सर्वतो मुखमहं याचे पिपासाकुसः । मामाभूस्मितवारिमुक पुनरितः स्वेदेन स व्याकुलः ।।' यहाँ बारात में पाए हुए बारातियों पोर कन्यापक्ष की महिलामों के बीच भोजन के समय होने वाले हास-परिहास से कवि ने हास्य रस की अभिव्यञ्चना कराई है। १. बयोग्य, १२॥१२२-१४. Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ महाकविज्ञानसागर के काम्प-एक अध्ययन हास्य शान्त का प्रङ्ग __जयोदय महाकाव्य में वर्णित हास्य रस, इसमें गणित शङ्गार रस का मङ्ग है, और शङ्गार रस शान्त का। प्रतः हम हास्य को शाम्त का मज रस उसी प्रकार मान सकते हैं जैसे शरीर का एक प्रङ्ग हाथ है, और उंगलियाँ हाप का मङ्ग । इस प्रकार हास्यरस इस काव्य में वर्णित शुमार को पूरा करता है, मज़ार शान्त का पोषक है, हास्स भी शृङ्गार के साथ हो शान्त का पोषक होने के कारण उसका मन है। बीमत्स रस जयोदय महाकाव्य में बीभत्स रस की अभिव्यञ्जना कराने वाला केवल एक स्थल है, वह भी बहुत छोटा है। जयकुमार मोर प्रकीति के बीच में होने वाले युद्ध में, जहां गिद्ध शवों का मांस निकालकर खा रहे हैं, वीभत्स रस की प्रभिपञ्जना हो रही है : "चराश्च फूत्कारपराः शवानां प्राणा इवाभूः परितः प्रतानाः । पित्सन्सपक्षाः पिशिताशनायायान्तस्तदानीं समरोवरायाम् ॥" बयोदय महाकाव्य में वत्सल रस का वर्णन चार स्थलों पर मिलता है। इनमें से तीन स्थल प्रस्तुत हैं : (क) वत्सल रस की झलक हमें सर्वप्रथम वहाँ पर देखने को मिलती है, वहाँ जयकुमार विजयी होकर लौटते हैं। तब महाराज प्रकम्पन ने अपनी पुषी सुलोचना को वात्सल्यपूर्ण दृष्टि से व्रत की पारणा करने का मादेश दिया : "ईशं संगरसंचिताबहतये सम्यक्समावराव, पुत्रीं प्रेक्षितवान् पुनम दुरशा काशीविशामीश्वरः । पाहारेण विना विनायकपरप्रान्तस्थितो भक्तितो जल्पन्तीमपराजितं हृदि मुदा मन्त्र मुषान्तापंतः। वीराणां वरदेव एव वरदे नेता विजेतानवद श्री पहच्चरणारविन्दापयामीन वातं तव। - मौनं मुन मनीषिमानिनि मुषा सामारममत्तमान तामित्थं समुदी धाम मतवान् सातवासम्पनः ।" यहाँ पर सुलोचना वत्सल रस का मालम्बन है। बुनोचना बारा किए गए व्रत, पूजा इत्यादि का उद्दीपन विभाव। सस्नेह सात इत्यादिबनुभाव है। हर्ष, गवं इत्यादि भिवारिमाव है। १. जयोग्य, ८४. २. वही, ८1८७-६० Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के सह-प २६९ बस्सल-एस का द्वितीय स्थल वह है, जहां सुलोचना की विदा हो रही "म बम्नपि काशिकापतिर्वसतुर्मुखमो महामतिः । शिरसि स्फुटममताम्बरी दुपकुर्वन्नयनोदर्कः पक्षी ॥ नगरी व गरीब विनिर्गममेरीविश्वस्य वम्मतः । rent tent fruits: सुमेव तदाशु बुभुभे ।। པ་ समये नम एतचातुरं न नियगविसर्जने परम् । ललना मन एrence तब निर्योग विसर्जने परम् । meet naatfor freeसी व्यवहारी व्यबहार एवं भोः ॥ वि याहि च पूज्यपूजया स्वयमस्थानपि च प्रकाशय । जनमतलाते हम वो जितान् ॥ "" यहाँ सुलोचना के माता पिता, बस्लम एस के प्राश्रय है। सुलोचना मालम्बन विभाग है। उसका पतिगृहनगर उद्दीपनविभाव है । सस्नेह रष्टिपात, रोमा, पाना, स्वरभङ्ग इत्यादि अनुभाव है। हर्ष, विवाद, भावेन, मोह इत्यादि व्यभिचारिभाव है । (ग) जयोश्य महाकाव्य में पस्लल दस का तुसीय उदाहरण वह स्थल है, जहाँ पर जयकुमार सम्राट् भरत से मिलने जाते है : "कल्पबहिलदलयोः श्रितं तयोः सद्योजानफनोपलम्भयोः । पाणियुग्ममनि पहिलो जयसमुनिरोऽभ्युपानयत् ।। उपलम्भितमित्ययोपकतु हृदयेनाभ्युदयेन नाम भर्तुः । उपपदिवोदय भूभूतस्तटे तच्छशिविभ्वं जयदेववक्रमेतत् ॥ हस्तावलम्बनबलेन किलोपलभ्य प्रागालिलिङ्ग गलतः प्रणतं ससभ्यः । सर्वस्वमूपमिति तुल्यतया निजस्य कुच्छ्रितं लघुमपीह जनः प्रशस्थः ॥ हृषितेऽवनियतावभावाद्वाम्पवागमनतोऽत्र तथा वा । धामनोपकरणव्यपदेश दुल्लवास सहसावनिरेषा | तदासमं तत्र तथा समम्वाश्रितं श्रितस्फीतिजयस्य तम्या । शापि संस्पर्द्धन संस्पृणापि श्रीपादपीठं महनीयमापि ॥ मरीविनिवृत्येतरतः जयमुखकमले तिष्ठत्क्रमत: । रसितुमतिथिसत्करण फलम्यावपक्षिणी च नृपतेरविलम्बात् ॥ नयनतारक मेsयुपकारक सुहृद प्राग्रज वैरिनिवारक । " स्वजन सज्जनयो. परिचारक चिरात् प्राव्रजसि क्व शयानकः ।।' १. जयोदय, १३।२-३, ६-१० २. बही, २०१३-१६ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महानगर के एक अन यहाँ पर उम्रा भरत वन रस के बाद है। जयकुमार बालपन है। उनकी शूरवीरता, ग्यायप्रियता, प्रभावशाली व्यक्तिस्य इत्यादि उद्दीपन विभाव है। जयकुमार का ग्रालिङ्गन, प्रेमपूर्वक उन्हें देखना, रोमान्य इत्यादि अनुभाव है। हवं प्रावेग, गर्म इत्यादि व्यभिचारिभाव है । वीरोदय महाकाव्य में बलि २७० वीरोदय महाकाव्य में केवल सीम रस, अद्भुत रस धीर बरसन रस। ये हीमी हो र है। नरम-रस की परिक्षति सान्तर में हुई है। अङ्ग-रस के रूप में उपस्थित हुए है। रखी का वर्णन मिलता है-हास्य सामा-रस की अपेक्षा प्रप्रधान इसलिए तीनों ही सात रस के बीमी रखी का श्रीवाहच्या वर्णन प्रस्तुत हास्य रस बीरीबन महाकाव्य में हास्य रस मिलता है। देवन भगवान महावीर के पुरमा रहे थे, मार्ग में इादेव के ऐरावत हाथी ने पूर्व की कम सूंड से उठा लिया, पर उसकी उसे छोड़ भी दिया। उस पेट:-- "रविधि पुनरावदम् । तश्ततवासमुरवजन्ममय सुखम् ||१ वहाँ पर देशभर के भाव है। ऐरावत हाथी वालम्बन विभाव उसकी जम्पूर्ण चेष्टा नदीपनविभाव है का एक पर प्रत्यय वर्णन मानव हेतुमण्ड कर अपनी का अनुभव करके सूड को हिलाकर बीरबन महाकाव्य में अद्भुत रस का दर्शन ती तीनों स्थलों पर है, लेकिन तीनों ही स्थलों पर उनकी मात्रा प्रयत्न है। दो स्थल उदाहरण रूप में प्रस्तुत १. वीरोदय, ७ १० २. बही, ५०१ (क) भगवान महावीर के गर्भावतरण के near more में सूर्य को पराभूत करने वाला एक ऐसा प्रकाश दिखाई दिया, जिसे लोगों मे प्रश्नभरी दृष्टि से देखा : "werभवद योनि महाप्रकाशः सूर्यातितानी सहसा तथा सः किमेतदित्वं हृवि कामाब: कुर्वन् जनामा प्रचलत्प्रभाव: ॥ ३ यहाँ पर अद्भुत रस का प्राश्रय है— कुण्डलपुर का जनसमूह । प्राकाश में efuntचर होने वाला प्रकाश-पुञ्ज] प्रालम्बनविभाव है। उसकी मनायास उपस्थिति Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य-एक अध्ययन २७१ उद्दीपन विभाव है। कुतूहलपूर्वक देखना अनुभाव है। वितर्क और भावेग व्यभिचारिभाव हैं। (ख) अद्भुत रस की अभिव्यञ्जना कराने वाला एक स्थल वह है, जहाँ समवशरण मण्डप में भगवान् की दिव्यविभूति देखकर गौतम इन्द्रभूति के मन में तर्क-वितर्क होता है :-- "इत्येवमेतस्य सती विभूति स वेदवेदाङ्गविदिन्द्रभूतिः । जनैनिशम्यास्वनिते निजीये प्रपूरयामास विचारहूतिम् ॥ वेदाम्बुधेः पारमिताय मह्यं न सम्भवोऽद्यावधि जातु येषाम् । तदुज्झितस्याग्रपदं त एवं भावा भवेयुः स्मयसूतिरेषा । चचाल द्रष्टुं तदतिप्रसङ्गमित्येवमाश्चर्यपरान्तरङ्गः । स प्राप देवस्य विमानभूमि स्मयस्य चासीन्मतिमानभूमिः ।। रेभे पुनश्चिन्तयितुं स एष शब्देषु वेदस्य कुतः प्रवेशः । शानात्मनश्चात्मगतो विशेषः संलभ्यतामात्मनि संस्तुते सः ।। मयाऽम्बुधेमध्यमतीत्य वीर एवाद्य यावत्कलितः समीरः । कुतोऽस्तु मुक्ताफलभावरीतेरुतावकाशो मम सम्प्रतीतेः ।। मुहस्त्वया सम्पठितः किनाऽऽत्मन् वेदेऽपि सर्वजपरिस्त (?)वस्तु । माराममापर्यटतो बहिस्तः, किं सौपनस्याधिगतिः समस्तु ॥"" (इस प्रकार की भगवान् को दिव्यभूति के विषय में लोगों से सुनकर वेदबाङ्ग का ज्ञाता इन्द्रभूति ब्राह्मण अपने मन में इस प्रकार सोचने लगा। वेदशास्त्र का ज्ञाता हुए भी मुझे ग्राज तक इस प्रकार की दिव्यभूति नहीं मिली, इसके विपरीत वेदज्ञान से रहित वीर के सामने यह सम्पूर्ण विभूति विद्यमान है, यह पाश्चर्यजनक बात है। अधिक सोच-विचार करने से क्या लाभ ? यह सोचकर प्रत्यधिक प्राश्चर्यान्वित हृदय वाला इन्द्रभूति भगवान् के वैभव को देखने के लिए पल पड़ा । भगवान् के दिव्य समवशरण मण्डप को देखकर उसका अभिमान नष्ट हो या मोर उसको प्रत्यधिक प्राश्चयं हुअा। वह पुनः सोचने लगा--इन शब्दों में का प्रवेश कैसे संभव है ? ज्ञान की प्राप्ति तो प्रात्मा की विशेषता है और उसकी प्राप्ति मात्मा की स्तुति करके ही हो सकती है। मैंने समुद्र के बीच में जाकर भी उसके तीरवी वायु का ही सेवन किया है । ज्ञानरूपी समुद्र में गोता लगाए बिना मेरी बुद्धि को मुक्ता रूपी जीवन की सफलता कैसे मिल सकती है । हे मन ! तुमने बहुत बार वेद में भी सर्वज्ञ की स्तुति को पढ़ा। लेकिन तुम ज्ञान रूप उचान . बाहर ही घूमते रहे । उद्यान के बाहर घूमने से क्या उसके अन्दर विधमान पुष्पों की प्राप्ति संभव है ? प्रतः तुमने अभी तक पथार्थ ज्ञान प्राप्त नहीं किया।) १. वीरोदय, १३३२५-३० Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य- एक अध्ययन यहाँ पर गौतम इन्द्रभूति प्रद्भुत रस का प्राश्रय हैं। भगवान् महावीर बालम्बन-विभाव हैं। उनकी दिव्यभूति उद्दीपन विभाव है । भगवान् की विभूति का कारण जानने की जिज्ञासा अनुभाव है । वितर्क, भावेग इत्यादि व्यभिचारिभाव है। २७२ -E बीरोदय महाकाव्य में वत्सल रस का वर्णन दो स्थलों पर मिलता है। दोनों स्थल उदाहरण के रूप में प्रस्तुत हैं : -- (क) बरसल रस की अभिव्यञ्जना कवि द्वारा सर्वप्रथम वहाँ होती है, जहाँ जिवकारली रात्रि में देखे गए सोलह-स्वप्नों के विषय में राजा को बताती है । राजा सिद्धार्थ प्रसन्न होकर उसे बताता है कि ऐसे स्वप्न पुत्रोत्पत्ति के पूर्व देखे जाते है, अतः वह एक लोकविश्रुत पुत्र को जन्म देगी। स्वप्नों का अर्थ जानकर eft fकारिणी भी प्रत्यधिक प्रसन्न होती है : -- "पृथ्वीनाथ : पृथु कथनां फुल्लपायोजनेत्रो प्रोक्त प्रतिसुपृथुप्रोथया तीथंरूपाम् । श्रुत्वा तथ्यामविकलfगिरा हर्षण मन्थराङ्ग इत्थं तावत्प्रथयतितरां स्वाथ मन्मङ्गलार्थाम् ॥ त्वं तावदीक्षितवती शयनेऽप्यनन्यां स्वप्नावलि त्वनुवरि प्रतिभासि धन्या । भो भो प्रसन्नवदने फलितं तथा स्याः कहानीह शृणु मञ्जुनमं ममाऽऽस्यात् ॥ प्रकलङ्कालङ्कारा सुभगे देबागमार्थमनवद्यम् । गमयन्ती सन्नयतः किलाऽऽप्तमीमांसिताख्या वा ॥ लोकत्रये कतिलको बालक उत्फुल्लनलिननयनेऽद्य । उबरे तवावतरितो होङ्गितमिति सन्तनोतीदम् ।। X X X ! पुत्र इति भूत्रयाधिपो निश्चयेन तव तीर्थनायकः । गर्भ इष्ट इह व सतां क्वचिन्स्वप्नवन्दमफलं न जायते ॥! वाणीमित्य मनोषमङ्गलमयी माकण्यं सा स्वामिनो वामश्च महीपतेर्मतिमतो मिष्टामय श्रीमुखात् । प्राप्यसुते कण्टकिततनुसम्बाहिनी जाता यत्सुतमात्र एव सुखवस्तीर्थेश्वरे किम्पुनः ।' १. बीरोदय, ४।३७-६२ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-ग्रन्यों में भावपक्ष २७३ इस स्थल पर राजा सिद्धार्थ और प्रियकारिणी वत्सल रस. के प्राश्रय है। उत्पत्स्यमान पुत्र प्रालम्बन विभाव है । सोलह स्वप्न उद्दीपन विभाव हैं । रोमाञ्चित होना, मानन्दाथ प्रवाहित करना इत्यादि अनुभाव हैं । हर्ष, गर्व, भावेग इत्यादि व्यभिचारिभाव हैं। (ख) इस काव्य में वत्सल रस की अभिव्यञ्जना कराने वाला दूसरा स्थल बह है जहाँ बालक वर्धमान अपनी बाल क्रीडानों से सबको प्रसन्न करते हैं : "इङ्गितेन निजस्याथ वर्धयन्मोदवारिधिम् । जगदालादको बालचन्द्रमाः समवर्धत ।। रराण मातुरुत्सङ्गे महोवारविचेष्टितः । क्षीरसागरवेलाया इवाङ के कौस्तुभो मणिः ।। प्रगादपि पितः पार उदयाद्रेरिवांशुमान् । सर्वस्य भूतलस्यायं चिताम्भोज विकासयन् । देवतानां कराने तु गतोऽयं समभावयत् । वल्लीनां पल्लवप्रान्ते विकासि कुसमायितम् ॥ कदाचिच्चेवो भालमलञ्चके तदा स्मितम् । तदध्रिनखरश्मीनां व्याजेनाप्याततान सा ।। यदा समवयस्केषु बानोऽयं समवर्तत । अस्य स्फूतिविभिन्नेव काचेषु मणिवत्तदा ।। समानायुष्कदेवोध-मध्येऽथो बालदेवराट् । कालक्षेां चकारासो रममाणो निजेच्छया ।। दण्डमापद्यते मोही गर्त मेत्य मूहुर्मुहुः ।। महात्माऽनुषभूवेदं वाल्यक्रीडासु तत्परः ।। परप्रयोगतो दृष्टेराच्छादनमुपेयुषः । शिरस्यापात एवं स्यादिगान्ध्यमिति गच्छतः ॥ नवालकप्रसिदस्य बालतामधिगच्छतः । मुक्तामयतयाऽप्यासीत्कबलत्वं न चास्य तु ॥' (तत्पश्चात् अपनी बालसुलभ नाना प्रकार की चेष्टामों रूप क्रियाकलाप से जगत् को पालादित करने वाले वे बालबन्द्रमा रूपी भगवान् हर्षरूपी समुद्र की पति करते हुए स्वयं बढ़ने लगे। महान् उबार चेष्टानों को करने वाले वह माता की गोद में इस प्रकार सुशोभित होते थे जैसे क्षीरसागर की वेला के मध्य भाग में कौस्तुभ मणि सुशोभित होती है । सभी भूतलवासियों के हृदय-कमल को विकसित १. वीरोदय, ८-१६ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य-एक अध्ययन करते हुए वह उदयाचल पर जाने वाले सूर्य के समान पिता के पास जाते थे। देवतामों के हाथों के अग्रभाग पर स्थित वह ऐसे सुशोभित होते थे, जैसे कि लतामों के पल्लवों के अन्त में विकसित पुष्प शोभा पाते हैं । पृथ्वी पर खेलते हुए वह भगवान् उसके मस्तक को इस प्रकार प्रलङकत करते थे, मानों उनके चरणों के नसों की किरणों के बहाने से पृथ्वी अपनी मुस्कराहट फैला रही हो। जब बालक वर्धमाष अपने साथ के बच्चों के साथ रहते थे तब इनको कान्ति वैसी ही लगती थी जैसे काचों के मध्य में विद्यमान मणि की शोभा होती है। इस प्रकार समान प्रायु वाले देवकुमारों के बीच में अपनी इच्छा से नाना प्रकार की क्रीड़ा करते हुए देवों के स्वामी बालक भगवान् समय व्यतीत करते थे। बालक्रीड़ानों में तत्पर यह महात्मा वीरभगवान् गिल्ली-डंडा खेलते समय ऐसा अनुभव करते थे कि दण्ड को प्राप्त गिल्ली के समान, मोही पुरुष बार बार संसार रूपी गड्ढे में गिरकर दुःख से दण्डित किये गाते हैं । प्रांख-मिचौनी का खेल खेलते समय भगवान् ऐसा अनुभव करते थे कि मोहकर्म से पाच्छादित सम्यग्दृष्टि वाला जीव दिग्भ्रमित होकर शिर का भाषात ही पाता है । भगवान् प्रतिदिन बढ़ने वाले केशों से युक्त थे। वह रोग-रहित ये भोर मतुल बलशाली थे। यहाँ पर कवि ने बालक वर्धमान की सुन्दर-सुन्दर चेष्टानों से वत्सलरस को सुन्दर अभिव्यक्ति दी है। सुदर्शनोबय महाकाव्य में वरिणत प्रङ्गरस सुदर्शनोदय में शान्तरस के अतिरिक्त चार अङ्गरसों का वर्णन मिलता है-शृङ्गार रस, रौद्र रस, अद्भुत रस और वत्सल रस । इस काव्य में शङ्गार, रौद्र, और अद्भुत ये तीन रस शान्त रस के पोषक हैं, पोर वत्सल रस अप्रधान है । प्रतः ये रस शान्त रस के मज हैं। अब चारों रसों का सोदाहरण वर्णन प्रस्तुत है :शुङ्गार रस __ काव्य में शङ्गार-रस का वर्णन केवल एक स्थल पर है, मोर वह स्थल है, सुदर्शन और मनोरमा के विवाह के पूर्व का। सुदर्शन और सागरदत्त नामक वैश्य की पुत्री मनोरमा जिन मन्दिर में एक दूसरे को देखकर प्रासक्ति एवं अनुरक्ति का अनुभव करने लगते हैं : "अप सागरदत्तसं शिन: वणिगीशस्य सुतामताङ्गिनः । समुदीक्ष्य मुदीरितोऽन्यदा पतमासीत्तदपाङ्गसम्पदा । . रतिराहित्यमबासीत् कामरूपे सुदर्शने। . ततो मनोरमाऽन्यासील्लतेव तरुणोज्झिता ॥ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-ग्रन्थों में भावपक्ष कुतः कारणतो जाता भवतामुन्मनस्कता वयस्येरिति पुष्टोऽपि तानाह सं महामनाः ।। यद वालापि जिनाचंनायामपूर्वरूपेण मयेत्यपायात् । मनोरमायाति ममाकुलत्वं तदेव गत्वा सुहृदाश्रयत्वम् ||"" ( सागरदत्त नामक वणिक्ाति की सुन्दरी पुत्री को देखकर उसके कटाक्षविशेष रूप सम्पदा से सुदर्शन उस पर मोहित हो गया । कामदेव के समान सुदर्शन में रति का प्रभाव खटकने लगा और मनोरमा भी वृक्ष से विमुक्त हुई लता के समान हो गई । श्राज तुम्हारी अन्यमनस्कता का क्या कारण है ? मित्रों के ऐसा पूछने पर उस सुदर्शन ने श्लेष के माध्यम से कहा - प्राज भगवान् जिनदेव की पूजा के अवसर पर प्रपूर्व रूप से मैंने गाया इसलिए मेरा मन प्रत्यधिक क्लान्ति का अनुभव कर रहा है । (श्लोक का दूसरा मर्थ ) प्राज जिनपूजा के अवसर पर जब से मेरे द्वारा सुन्दर वाला को देखा गया है, उसी समय से उसके प्रपूर्व रूप से मेरा मन व्याकुल हो रहा है ।) यहाँ पर सुदर्शन प्रोर मनोरमा शृङ्गार रस के परस्पर श्राश्रय मोर बालम्बन हैं। उनका रूा-नोन्दर्य उद्दीपन विभाव है। कटाक्ष इत्यादि अनुभाव है । प्रावेग, मद, जड़ता, उपता, अवहित्था, प्रोत्सुक्य चिन्ता प्रादि व्यभिचारिभाव हैं । रौद्र रस २७५ सुदर्शनोदय महाकाव्य में रौद्र रस के दो उदाहरण हैं (क) रौद्र रस का प्रथम उदाहरण वह स्थल है, जहां रानी अभयमती के 'त्रियाचरित्र' को सुनकर बहुत से सेवक मां जाते हैं, मौर सुदर्शन के प्रति अपशब्द कहते हुए उन्हें राजा के पास ले जाते हैं। सुदर्शन के ऊपर क्रुद्ध होकर राजा उनका करने हेतु चाण्डाल के पास ले जाने की प्राज्ञा दे देता है : -- " राज्ञ्या इदं पूत्करणं निशम्य भटेरिहाऽऽगत्य घृतो द्रुतं यः । राज्ञोऽग्रतः प्रापित एवमेतेः किलाऽऽलपदभिर्बहुशः समेतैः ॥ हो धूर्तस्य धौत्यं निभालयताम् ॥ हस्ते जयमाला हृदि हाला स्वार्थकृतोऽसौ वञ्चकता । प्रन्तो भोगभुगुपरि तु योगो वक्रवृत्ति तिनो नियता ॥ दर्पवतः सर्पस्येवास्य तु वक्रगतिः सहसाऽवगता ॥ प्रभू राष्ट्रकण्टकोऽयं खलु विपदे स्थितिरस्याभिमता ॥ १. सुदर्शनोदय, ३।३४-३७ Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य-एक अध्ययन । राजा जगाद न हि दर्शनमस्य मे रया देताशीह परिणामवतोऽस्ति लेश्या । चाण्डाल एव स इमं लभतामिदानीं राज्ये ममेगापि घिग्दुरित घानी ॥"" (रानो की इस करुण पुकार को सुनकर सेवक लोग दौड़कर पाये और उन्होंने सुदर्शन को पकड़कर बहुत से प्रपशब्द कहते हुए राजा के समक्ष पहुंचा दिया। अरे ! इस धूर्त की धूर्त । देखो। यह हाथ में जपमाला और हृदय में विष धारण करता है । प्रानी स्वार्थ पूर्ति के लिए इमने इस वञ्चक वेश को धारण किया है । इसके मन में भोगों के उपभोग की इच्छा है, और ऊपर से बगुले के समान योगी व्रती का रूप धारण कर रहा है। दर्पयुक्त सर्प के समान इसकी कुटिल गति पाम हमारी समझ में आ गई है। यह पापी राष्ट्र का कोटा है। इसकी विद्यमानता संसार को विपत्ति के लिए हो है । यह सुनकर राजा ने कहामुझे इसका दर्शन करने की इच्छा नहीं है । इस प्रकार के इस व्यक्ति के ऐसे खोटे विचार ? फौरन इसको चाण्डाल के समीप ले जानो। मैं नहीं जानता था कि मरे राज्य में ऐसे भी व्यक्ति रहते हैं ? इसको धिक्कार है ) . .. यहाँ राजा और राजसेवक रौद्र रस के प्राश्रय हैं। सुदर्शन मालम्बनविभाव है । रानी को दुश्चे गायें उद्दीपन विभाव हैं । क्रूरदृष्टि, कटुवचन इत्यादि अनुभाव हैं । मोह, ममर्ष, गर्व इत्यादि व्यभिचारिभाव हैं। (ख) रौद्र रस का दूसरा उदाहरण वह स्थल है, जहाँ चाण्डाल द्वारा किए गए तलवार के प्रहार सुदर्शन के गले में रहकर हार का रूप धारण कर लेते हैं। अपने एक सेवक से यह समाचार सुनकर राजा स्वयं उसका वध करने को तैयार हो जाता है : "एवं समागत्य निवेदितोऽभूदेकेन भूपः सुतरां रुषोभूः । पाषण्डिनस्तस्य विलोकयामि तन्वायतत्वं विलयं नयामि ।।"२ यहाँ राजा प्राश्रय है। सुदर्शन पालम्बन है । उसका अद्भुत व्यक्तित्व उद्दीपन-विभाव है। उग्रता, मावेग इत्यादि अनुभाव हैं। अमर्ष और गर्व इत्यादि व्यभिचारिभाव हैं। प्रभुत रस - सुदर्शनोदय में एक स्थल पर अद्भुत रस की झलक देखने को मिलती है। राजा की प्राज्ञा से चाण्डाल सुदर्शन को मारने के लिए उसके गले में तलवार का प्रहार करता है । किन्तु सुदर्शन के गले में ये प्रहार माला का रूप धारण कर लेते हैं. और उसे कोई कष्ट नहीं होता :१. सुदर्शनोदय, ७।३५.३६ २. वही, ८७ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७७ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-ग्रन्थों में भावपक्ष कृतान् प्रहारान् समुदीक्ष्य हारायितप्रकारांस्तु विचारधारा। चाण्डालचेतस्युदिता किलेतः सविस्मये दर्शकसञ्चयेऽतः ॥ अहो ममासिः प्रतिपक्षनाशी किलाहिराशीविष माः किमासीत् । ___ मृणाल कल्प: सुतरामना-तूलोक्ततल्पं प्रति कोऽत्र कल्पः ॥"" यहां अद्भुत रस का आश्रय है-चाण्डाल और जनसमूह । पालम्बनविभाव है-सुदर्शन । उसके गले में तलवार के प्रहार का प्रभाव न होना उद्दीपन विभाव है। रोमाञ्च इत्यादि मनुभाव हैं । जड़ता, वितकं, पावेग इत्यादि व्यभिचारिभाव हैं। पत्सल रस सुदर्शनोदय में वत्सल रस का वर्णन तीन स्थलों पर हुमा है :-- (क) वत्सल रस की अभिव्यक्ति कराने वाला प्रथम स्थल वह है जहाँ मुनिराज वृषभदास को बताते हैं कि वह एक श्रेष्ठ पुत्र की प्राप्ति करेगा। निराज के मुंह से यह बात सुनकर सेठ वृषभदास और उनकी पत्नी दोनों बहुत प्रसन्न होते "पयोमु वो गर्जनयेव नीतो मयूरजाताविव जम्पती तो। उदनाङ्गेरुहमम्प्रतीतो पुनेगिरा मोदमही पुनीतो॥"२ यहाँ पर सेठ और उसकी पत्नी वत्सल रस का प्राश्रय हैं। उत्पत्स्यमान पुत्र पालम्बन विभाव है। मुनि की वाणी वात्सल्य भाव को उद्दीप्त करने के कारण उद्दीपन विभाव है । रोमाञ्चित होना इत्यादि अनुभाव हैं। हर्ष, पावेग इत्यादि व्यभिचारिभाव है। (ख) वत्सल रस की अभिव्यञ्जना कराने वाला दूसरा स्थल वह है जहाँ सुदर्शन के जन्म का समाचार सुनकर सेठ के हृदय का वात्सल्य भाव उमड़ने लगता "सुतजन्म निशम्य भृत्यतः मुमुदे जानुजसत्तमस्ततः । प्ररिपालितताम्रचूडवाग रविणा कोकजन: प्रगे स वा ।। प्रमदाश्रुभिराप्लुतोऽभित: जिनपञ्चाभिषिचे च भक्तितः । प्रभुभक्तिरुताङ्गिनां भवेत्फलदा कल्पलतेव यद्भवे ॥ X X X अवलोकयितुं तदा धनी निजमादर्श इवाङ्गजन्मनि । श्रितवानपि सूतिकास्थलं किम बोजव्यभिचारि अङ्कुरः ॥ परिपातुमपारयंश्च सोऽङ्गजरूपामृतमद्भुतं दृशोः । 1. सुदर्शनोदय, ८।५-६ २. बही, २१४१ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य- एक अध्ययन स्तुतवानुत निनिमेषतां द्रुतमेवायुतनेत्रिणा घृताम् ॥ सुरवमयदिन्दुमम्वुधेः शिशुमासाद्य कल त्रसन्निधेः । निचयः स्मितसत्विषामयमभवदामवतां गुणाश्रयः ।। x स्नपितः स जटालवालवान् विदधत्काञ्चनसच्छवि नवाम् । मपि नन्दनपादपस्तदेह सुपर्वाधिभुवोऽभवन्मुदे ।' (सेवक के मुख से पुत्र-जन्म के विषय में सुनकर बह परिणकोष्ठ उसी प्रकार प्रत्यधिक प्रसन्न हुप्रा, जिस प्रकार प्रातःकाल मुर्गे की बांग सुनकर सूर्य के उदय को जानकर चातक प्रसन्न होता है। हर्ष के प्रांसुमों से प्राप्लावित सेठ ने भक्तिपूर्वक भगवान् जिनदेव का अभिषेक किया। इस संसार में प्रभु की भक्ति ही कल्पलता से समान प्राणियों को मनोवांछित फल देने वाली है ।xxxतत्पश्चात बह सेठ पुत्र को देखने के लिए प्रसूतिकक्ष में पहुँचा, तब उसने दर्पण में प्रतिबिम्ब के समान अपने पुत्र में अपनी ही छवि को देखा। क्या मजकुर बीज से भिन्न प्रकार का होता है ? अपने नेत्रों से प्राने पुत्र के मपूर्व सौन्दर्य रूप प्रमृत का पान करते समय उस सेठ को तृप्ति नहीं हुई, तब वह सहस्रनेत्रधारक इन्द्र की निनिमेष दृष्टि की प्रशंसा करने लगा। जैसे समुद्र से चन्द्रमा को प्राप्त कर नक्षत्रों का प्राधारभूत माकाश उसकी ज्योत्स्ना से भालोकित हो जाता है, उसी प्रकार गहस्यों के गुणों का माधय बह सेठ प्रिया से प्राप्त उस बालचन्द्र के समान पुत्र को पाकर सस्मित हो गया ।) उपर्युक्त इलोकों में बालक के पिता वत्सल रस का प्राश्रय हैं। सुदर्शन मालम्बन विभाव है। सेवक की सूचना, पुत्र का रूप मादि उद्दीपन-विभाव हैं। रोमाञ्चित होना, प्रानन्दाच प्रवाहित करना, वेग से मन्दिर एवं सूतिकागृह पहुंचना मादि मनुभाव हैं । हर्ष, आवेग इत्यादि व्यभिचारिभाव हैं । (ग) वत्सल रस की अभिव्यञ्जना कराने वाला तीसरा स्थल वह है, जहाँ बालक सुदर्शन प्रपनी बालक्रीड़ामों से सभी को हर्षित करता है : "गुरुमाप्य स वै क्षमाषरं सुविशो मातुरचोदयन्नरम् । भुवि पूज्यतया रविर्यमा नडगम्भोजमुदेशजत्तथा ।, जननीजननीयतामितः श्रवणाके मदुतालुताभितः । करपल्लवयोः प्रसूनता-समषारीह सता वपुष्मता ॥ तुगहो गुणसंग्रहोचिते मृदुपल्यवाहतोदिते । शुचिबोषवदायतेऽन्वितः शयनीयोऽसि किलेति शायितः ॥ x १. सुदर्शनोदय, २।४.१४ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-ग्रन्थों में भावपक्ष २७६ समवर्धत वर्धबन्नयं सितपक्षोचितचन्द्रवत्स्वयम् । निजबन्धुजनस्य सम्पदाम्बुनिधि स्वप्रतिपत्तितस्तदा ।। ' जैसे सूर्य पूर्व दिशा रूप माता की गोद से उठकर उदयाचल रूप पिता के पास जाता है, तो सरोवरों के कमल विकसित हो जाते हैं मोर वह संसार में पूजा जाता है, वैसे ही वह बालक प्रच्छी चेष्टाम्रों वाली माता की गोद से उठकर क्षमा को धारण करने वाले पिता के पास जाता था, तब वह लोगों के नयन-कमलों को विकसित करता हुआ सभी के प्रादर भाव को प्राप्त करता था । माता के समान ही पायों के हाथों में खिलाया जाता हुआ कोमल प्रोर सुन्दर शरीर वाला वह बालक ऐसा लगता था, मानों लता के कोमल पल्लवों के बीच में खिला हुमा सुन्दर फूल हो । जिनदेव के वचनों के समान गुणों से युक्त सम्यग्ज्ञान के समान विशाल इस कोमल पलंग पर तुम्हें सोना चाहिए, ऐसा कहकर घायें उसको सुलाती थीं । XXX इस प्रकार अपनी सुन्दर चेष्टात्रों से अपने बन्धुजनों के प्रानन्दरूप समुद्र को बढ़ाता हुआ यह बालक शुक्ल पक्ष के चन्द्रमा की भांति स्वयं ही बढ़ने लगा ।) उपर्युक्त श्लोकों में माता-पिता और परिजन वत्सल रस के प्राश्रय हैं । सुदर्शन प्रालम्बनन-विभाव है। सुदर्शन की बालक्रीड़ाएं उद्दीपन विभाव हैं। बालक के प्रति प्रेम प्रदर्शित करना, उसे खिलाना इत्यादि अनुभाव हैं। हर्ष, भावेग इत्यादि व्यभिचारिभाव हैं । श्रीसमुद्रदत्त चरित्र में वर्णित प्रङ्गरस श्रीसमुद्रदत्तचरित्र में शान्तरस के प्रतिरिक्त अन्य चार रसों का भी थोड़ाबहुत उल्लेख मिलता है। ये चार रस हैं :- वीर, करुण, रौद्र, भीर बत्सल । इस काव्य में वीररस काव्य के नायक के हृदय में निष्पन्न शान्त रस का प्रङ्ग है । करुण रस रामवत्ता के हृदय में निष्पन्न होने वाले शान्त रस का पोषक है । रोड रस प्रन्तः कथा से सम्बद्ध है, भोर वत्सल रस प्रप्रधान है । प्रतः ये चारों रस शान्त रस में प्रङ्गरस हैं। चारों रस सोदाहरण प्रस्तुत हैं : वीर रस - इस काव्य में वीर रस का वर्णन एक स्थल पर मिलता है, पर वह है अत्यल्प । वीर रस का यह उदाहरण दानवीर का है "प्रयासनाख्यानवने कृतस्थिति निषेध्य भद्रो वरघमंक यतिम् । तदीयवाचा मनसाभवन् शुचिः स वानधर्मे कृतवान् पुनारुचिम् ॥ निरीक्ष्य माताऽस्य च दानशालितां निषेषयामास दुरीहिताञ्चिता । तथापि यस्याभिरुचिर्यतो भवेन्निवार्यते कि बलु सा जगंजवे ॥' 112 १. सुदर्शनोदय, ३।२० -२७ २. श्री समुद्रवत्तचरित्र, ४।६-७ -: Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० महाकवि ज्ञानसागर के काव्य- एक अध्ययन (तत्पश्चात् मासनाभिधान वन में स्थित वरधर्म नामक मुनि के दर्शन करके मोर उनकी वाणी से भद्रमित्र के मन में मोर अधिक पवित्रता मा गई। तब दान धर्म में उसने पहले से भी अधिक रुचि दिखाई । उनकी दानशीलता देखकर उसको लोभी माता ने उसे रोका। फिर भी इस संसार में जिसकी अभिरुचि जिधर होती है, क्या उसको रोका जा सकता है ? अर्थात् भद्रमित्र को दानशीलता को उसकी माता न रोक सकी।) यहां पर भद्रमित्र दानवीर रस का माश्रय है। पालम्बन-विभाव मुनिराज हैं, उनका उपदेश उपदीपन विभाव है । सन्तोष में वद्धि होना, दानशीलता में बाधक तत्त्वों की चिन्ता न करना इत्यादि मनुभाव हैं। निर्वेद, मति इत्यादि व्यभिचारिभाव है। करुण रस करुण रस की अभिव्यञ्जना श्रीसमुद्रदत्तचरित्र में एक स्थल पर प्रत्यल्प मात्रा में हुई है। किन्तु है यह बहुत मर्मस्पशिनी। सत्यघोष अपनी वञ्चकता के कारण राजा सिंहसेन द्वारा अपदस्थ कर दिया गया । फलस्वरूप मरकर वह राजा के भण्डार में ही सर्प के रूप में पहुँचा। एक दिन भण्डारगृह में पहुंचे हुए सिंहसेन को उसने काट लिया, फलस्वरूप राजा की मृत्यु हो गई। रानी रामदत्ता उसके शोक में व्याकुल हो गई : "कदापि राजा निजकोषसद्मतः परीक्ष्य रत्नादि विनिव्रजन्नतः । निवद्धवरेण च तेन भोगिनां वरेण दष्ट: सहसव कोपिना ।। महीमहेन्द्रोऽशनिघोषसद्विपः बभूव यच्छोक वशादिहाक्षिपत् । , उरः स्वकीयं मुहुरातुरा तदाऽपि रामदत्तात्मदशा वशंवदा ॥"' यहाँ पर अपने पति की मत्यु से रानी रामदत्ता के हृदय में शोक नामक स्थायिभाव का उदय हुमा है, इसलिए वह करण रस का माश्रय है। मृत राणा सिंहसेन पालम्बन-विभाव है । उसकी मृत्यु और रानी का वैधव्य उद्दीपन विभाष हैं। रोमाञ्च, वक्षस्तल पर प्रहार पोर अश्रुपात इत्यादि अनुभाव हैं। प्रावेग, मोह स्मृति, विषाद, ग्लानि, चिन्ता इत्यादि व्यभिचारिभाव हैं। रौद्र रस इस काव्य में पाठक को एक स्थल पर रौद्र रसानुभूति भी होती है। स्तबकगुच्छ नगर के नागरिक वज्रसेन पर क्रोध करके उसे लाठियों से पीटना शुरू कर देते हैं । तत्पश्चात् व्रजसेन ने भीकुद्ध बायें कन्धे से निकले हुए तेजःसमूह से १. श्रीसमुद्रदत्तचरित्र, ४॥११ भोर १५ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि मानसागर के संस्कृत-प्रन्थों में मावपक्ष सारे नगर को भस्म कर दिया; और स्वयं भी भस्म होकर नरक को पहुँच गया। वत्सल रस श्रीसमुद्रदत्तचरित्र काव्य में ऐसे दो स्थल हैं जिनमें हमें वत्सल रस को मनुभूति होती है। दोनों ही स्थलों का सोदाहरण वर्णन प्रस्तुत है : (क) इस काव्य में वत्सल रस की अनुभूति सर्वप्रथम हमें वहाँ होती है, जहां भद्रमित्र का धनार्जन के लिए विदेश जाने का उल्लेख है। भद्रमित्र के मातापिता दोनों ही एकमात्र पुत्र होने से उसे अत्यधिक चाहते हैं। इसलिए उनका विदेश जाना दु:खकारी होता है : "तस्मै पिता प्रत्यवदत् सुतेति महद्धनं मे सुतरामुदेति । कार्याऽस्ति कुल्या मरवे यथा किञ्जगत्सु पायोनिधये तथा किम् ॥ एकाकि एवाङ्गज ! मे कुलाय: स्वयं त्वमानन्ददृशेऽनपाय: । दुःखायते मह्यमिदं वचस्ते किन्नाम यानं गुणसंप्रशस्ते ॥ ___ Xxx एवं निशम्योदितमत्र पित्रा भवन्ति वाचः सुत ते पवित्राः।' मापो यथा गांगझरस्य यत्त्वं पुनीतमातुः समितोऽसि सत्त्वम् । कठोरभावान्निवसान्यहन्तूदयाद्रिवत्ते जननीह किन्तु। रविना काशततिर्यथा स्यात्तमोधरा त्वहिता व्युदास्या ॥ कृत्वाऽत्र मामम्बुजसम्बिहीनां सरोवरीमङ्गज ! किन्नु दीनाम् । किलोचितं यातुमिति त्वमेव विचारयेदं घिषणाधिदेव ॥"२ (उसके पिता ने उत्तर दिया कि हे पुत्र मेरे पास तो वैसे ही बहुत धन है। क्या मरुस्थल के लिए बनाई गई नहर को जल से परिपूर्ण समुद्र के लिये भी बनाने को प्रावश्यकता होती है ? (अर्थाद तुम्हें धनार्जन को प्रावश्यकता नहीं है।) हे पुत्र तुम मेरे कल के एकमात्र प्राधार हो। तुमको देखने से ही मुझे आनन्द की प्राप्ति होती है। गुणों से परिपूर्ण तुम्हारे जाने की बात तो मेरे लिए प्रत्यन्त दुःखदायिनी है। x x x उसके वचन सुनकर उसके पिता ने कहा कि पुत्र ! पवित्र माता से उत्पन्न तुम्हारे वचन गङ्गा के निर्भर से पाये हुए जल के समान पवित्र हैं। उदयाचल के समान कठोर दिल वाला मैं तो तुम्हारे विना रह भी नहीं सकता है। किन्तु तुम्हारी माता तुम्हारे विना मलिन मुख की कान्ति बाली हो १. श्रीसमुद्रदत्तचरित्र, २।३१-३२ २. वही, ३॥५-१३ .... . .. Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ महाकवि भानसागर के काव्य-एक अध्ययन बायगी, जैसे सूर्य के विना पाकाश की सत्ता अन्धकार से परिपूर्ण हो जाती है। माता ने कहा, हे बुद्धिमान पुत्र | मझे कमल से रहित सरसी के समान दीन बनाकर यह तुमारे जाने का विचार क्या उचित है ?) . (स) श्रीसमुद्रदत्तचरित्र में वत्सल रस का दूसरा उदाहरण वह स्थल है, यहां पर पक्रायुध का जन्म पोर बालक्रीड़ायें वर्णित हैं।' योग्यचम्पू में वरित प्रङ्ग रस त्योदय में शृङ्गार, करुण पोर वत्सल रसों को प्रङ्गरस के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इनमें से शृङ्गार पोर करुण शान्त रस के पोषक होने के कारण उसके मङ्ग हैं मोर वत्सल रस मप्रधान होने के कारण शान्त के प्रति अङ्गता को धारण करता है। तीनों रस सोदाहरण प्रस्तुत हैं :शुङ्गार रस दयोदयचम्पू में शृङ्गार रस का वर्णन तीन स्थानों पर हुमा है। यहां पर इसके दो उदाहरण प्रस्तुत हैं : (क) सोमदत्त गुणपाल सेठ का पत्र लेकर उसके घर पहुँचता है, उस समय उसके माकर्षक व्यक्तित्व से प्रभावित होकर गुणपाल की पुत्री विषा के हृदय में रतिभाव का उदय होता है : "यदीक्षणमात्रेणेव विषा विषावप्रतियोगिनं भावमङ्गीकुर्वाणा किलेस्पं विचचार स्वमनसि, x x x कोऽसो श्रीमान् यः खलु पूर्वपरिचित इव मम चेतःस्थानमनुगाति । अनङ्गसमवायोऽपि सदङ्गसमवायवान् । निर्दोषतामुपेतोऽपि दोषाकरसमद्युतिः ।। बहुलोहोचितस्थानोऽपि सुवर्णपरिस्थितिः । सञ्चरत्नपि मच्चित्ते स्थितिमेति महाशयः ॥ नाश्विनेयो द्वितीयत्वान्नेन्द्रोऽवरश्रवस्त्वतः । यरूपतया कामोऽपि कथं भवतादयम् ॥२ ___ यहां पर शुङ्गार रस का माश्रय विषा है। सोमदत्त मालम्बन विभाव है। उसका सुन्दर व्यक्तित्व उद्दीपन विभाव हैं। सस्नेह दृष्टिपात इत्यादि अनुभाव है। हर्ष, प्रोत्सुक्य, मति, तर्क इत्यादि व्यभिचारिभाव हैं। (ब) शृङ्गार रस का वर्णन वहां भी देखने को मिलता है, जहाँ राजा सोमबत से अपनी पुत्री का पाणिग्रहण करने का निवेदन करते हैं। सोमबत्त मौर राषकुमारी गुणमाला दोनों ही एक दूसरे के प्रति माकर्षित हो जाते हैं :१. श्रीसमुद्रदत्तपरित्र, ६१४१६ २. पयोदयबम्पू, ४ श्लोक १४ से पूर्व का गब माग एवं १४-१६ श्लोक । Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-ग्रन्थों में भावपक्ष "राजकुमारी प्रसाधारणसौन्दर्य शालिनं तं दृष्ट्वाकामोऽस्त्यसौ किमुत मे हृदयं विवेश सम्मोहनाय किमिहागत एष शेषः । पासणलोऽयमयवा मदुसन्निवेशश्चन्द्रो हवातरदहो मम सम्मुदे सः ॥ इति संजातसंकल्पा निजीयलोचनावलोकनसन्ततिविशाला सुलमितकुसुममाला भद्रं दिशतु भगवानिति मृदुलालापाधिकालो मोचयामास सोमदत्तगलकन्दले । सोमदत्तोऽपि तामविकलसकलावयवतया सद्गुणसम्पन्नजीवनदुकूलतया च समस्तनारी निकरोत्तमाङ्गमण्डनरूपामसाधारणरूपप्रशस्तिस्तूपामुवीक्ष्य विचारयतिकिम्भोगिनीयमनुयाति शंव मोहं कि किन्नरी खलु ययास्मि वशीकृतोऽहम् । किंवा रतिः परिकरोति किलानुरागं श्रोरेव भूषयति या मम वामभागम् ॥ X . X इत्येवं मत्वा x x x सम्फुल्लाननतामाप ।' इस स्थल पर राजकुमारी और सोमदत्त शङ्गार रस के परस्पर मालम्बन पौर मामय हैं। उनका रूप-सौन्दर्थ, विवाह-प्रबन्ध इत्यादि उद्दीपन है। सस्नेह वीक्षण; गले में जयमाला गलना, रोमाञ्च तथा कर्तव्याकर्तव्य का ज्ञान न हो पाना इत्यादि मनुभाव हैं । हर्ष, प्रोत्सुक्य, गर्व इत्यादि व्यभिचारिभाव हैं । कारण रस क्योदयचम्पू में करुण रस का वर्णन तीन स्थलों पर मिलता है, जिनमें से बोस्पन उदाहरण के रूप में प्रस्तुत हैं । (क) करुण रस की एक झलक हमें गुणपाल के पुत्र महाबल की अकाल मुत्यु के समय देखने को मिलती है : "मन्विष्यतामपि तु गत्वेति यावज्जगाव तावदेवानुसन्धानकररागत्य निवेदितं यस्किल धेष्ठिकमारो महाबल एव स समस्ति, इत्येवं श्रुत्वाऽतीव. विषम्वदना जाता। विषा-कृतोऽस्त्यहो मम सहोदरो आता कथमस्तु तेन बिनाऽभुना .. योदय चम्पू ७.श्लोक २३ के पूर्व के गबभाग से लोक २५ के बवमान Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य-एक अध्ययन साता।"" यहां पर मत महाबल करुण रस का पालम्बन है। उसकी माता मोर बहिन पाश्रय है। उसकी मत्यु का समाचार उद्दीपन विभाव है। रोमाञ्च, विवणंता, किकृतंव्यविमूढता आदि मनुभाव हैं। जड़ता, विषाद, ग्लानि मादि व्यभिचारिभाव हैं। (ख) गुणपाल अनजाने में ही विष के लड्डू खाकर मत्यु को प्राप्त हो जाता है। पिता को मृत्यु के मुंह में पहुँचा हुमा देखकर विषा शोक से व्याकुल हो जाती "गुणपालः तदेतत् खादितवान् यावत्तावदेवाङ्गोपाङ्गानि तानयित्वा मुखं खलु व्यापाद्य स्फालयित्वा च चक्षषी भूमौ निपपात । विषा सहसव तदिदमवस्थान्तरं पितुष्ट्वा हे भगवन् । किमिदं जातम् ? अहो कथमिव कर्तुमारब्धवांस्तात आगम्यतां शोघ्रमेव लोकैरिहातः इत्येवं पूच्चकार । xx Xगुणभी:-बहिर्वेशतः समागताऽतकितोपस्थितमिदमात्मनो भौतिकमवसरमवेत्य सविषादं जगाद । x x x इत्यतो मया सम्पादित विषान्नमधुना मंयापि भोक्तव्यमेव. किमनेन निःसारेण कलङ्कमलीमसेन जीवितव्येनेति ॥"२ इस उद्धरण में बिषा मोर गुणश्री करुण रस का प्राश्रय है। गुणपाल मालम्बन है । उसकी अनायास मृत्यु उद्दीपन विभाव है। भगवान् को सम्बोधित करना, क्रन्दन, लोगों को पुकारना, प्रलाप करना, विवर्णता, अनुमरण इत्यादि मनुभाव हैं । निर्वद, मोह, अपस्मार, ग्लानि, विषाद, जड़ता, उन्माद इत्यादि व्यभिपारिभाव हैं। बरसल रस- वैसे तो दयोदयचम्पू में वत्सल रस की झांकी हमें तीन स्थलों पर देखने को मिलती है। किन्तु इनमें से एक ही स्थल उदाहरण के रूप में उल्लेखनीय है । गुणपाल सेठ के कहने पर चाण्डाल सोमदत्त को मारता नहीं है अपितु नदी के • किनारे स्थित पेड़ के नीचे छोड़ जाता है। समीपस्थ वस्ती में रहने वाला गोविन्द नाम का ग्वामा, अपनी गायों को लेकर उसी मार्ग से निकला। बालक को देखकर निःसन्तान ग्वाले के हृदय में पुत्र-प्रेम का सोता फूट पड़ा, उसकी पत्नी भी सोमदत्त को पाकर हर्षित हई । कवि के ही शब्दों में वत्सल रस का प्रास्वादन कीजिए : १. दयोदय चम्पू, ५ अन्तिम गद्यभाग। . २. वही, ६ श्लोक ६ के पहले के गद्यभाग से श्लोक तक । . . के बाव के गद्यभाग Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत ग्रन्थों में भावपक्ष २८५ " सहसंवास्य दृष्टिश्चकोरीव चन्द्रमसं के किनीव वलाहककलमलिकुटुम्बिनीव कमलवनं पिकीव रसालकोरकं तं शिशुमुदीक्ष्यातीव सन्तोषमासादितवती । X × × नरपि तेन मौक्तिकेन शुक्तिरिवादरणीयतां कामधेनुरिव वत्सेन क्षीरभरितस्तनतामुद्यानमालेव वसन्तेन प्रफुल्लभावं समुद्रवेलेव शशधरेणाती वोल्लाससद्भावमुदाजहार हारल सितवक्ष:स्थला । महो किनौरसादपि रसाधिकोऽङ्कप्राप्तः पुत्रः प्रभवति यत्र न योवनहानिनं प्रसव पीड़ा, न चापुत्रवतीति नाम व्रीड़ा, समुक्लभ्यते च सहजमेव बाललालनक्रीड़ा जगतीत्येवं विचारितवती धनभीस्तमात्मजमिवातीव स्नेहेन पालयामास सरस्वतीव लम्बोदरम्।" 1 यहाँ पर गोविन्द ग्वाला और घनश्री बत्सल - रस के माश्रय हैं। सोमदत्त मालम्बन है । गोविन्द का निःसन्तान होना, सोमदत्त की प्राप्ति, उसकी सरल मुस्कान इत्यादि उददीपन विभाव हैं । स्नेहपूर्वक देखना, रोमाञ्च इत्यादि धनुभाव हैं । हर्ष, गर्व, तर्क इत्यादि व्यभिचारिभाव हैं । रसाभास का स्वरूप काव्य में जिन-जिन स्थलों पर रस- सामग्री का उचित रूप से प्रस्तुतीकरण न किया गया हो, जहाँ रसाभिव्यञ्जना में बाधा हो रही हो, रस की अभिव्यञ्जना पूर्णरूपेण न हो रही हो, वहाँ पर रसाभास होता है। प्रतएव रस का अनुचित रूप से प्रस्तुतीकरण रसाभास है | २ ( ज ) कवि श्रीज्ञानसागर के संस्कृत ग्रन्थों में रसाभास कवि की संस्कृत काव्यकृतियों के परिशीलन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि कवि ने रसाभास ( नामक ध्वनि-काव्य - उपभेद ) का भी चित्ररण किया है । जयोदय महाकाव्य में शुङ्गार रसाभास और भयानक रसाभास का चित्रण मिलता है। सुदर्शनोदय काव्य में शान्त रसाभास, शृङ्गार रसाभास भोर रौद्ररसाभास का चित्रण किया गया है । श्रीसमुद्रदत्तचरित्र में शान्त रसाभास का उल्लेख प्राया है। दयोदयचम्पू में शान्त रसाभास का वर्णन है। हां, वीरोदय महाकाव्य में रसाभास बिल्कुल भी नहीं है । मब सर्वप्रथम जयोदय के रसाभास सोदाहरण प्रस्तुत हैं : १. वयोदयचम्पू, ३ | श्लोक १० के पूर्व के भौर बाद के गद्यभाग । २. (क) 'तदाभासा अनौचित्यप्रवर्तिताः ' - काव्यप्रकाश, ४।३६वीं कारिका के पूर्वार्ध का प्रर्था । Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ महाकवि ज्ञानसागर के काग्य-एक अध्ययन (क) जयोदय में रसामासशङ्गार रसामास-- जयोदय महाकाव्य का वह स्थल शङ्गाररसाभास का उदाहरण है, जहाँ रविप्रभ नामक देव अपनी काञ्चना नाम की पत्नी को जयकमार के पास भेजता है । काञ्चना अपनी काल्पनिक जीवन-कहानी सुनाकर पोर तरह-तरह की पेरामों से जयकुमार को प्राकर्षित करना चाहती है, किन्तु उसका प्रयास निष्फल हो जाता है। भयानक रसाभास जयोदय महाकाव्य में भगनक रसाभास का उदाहरण वह है, जहां पर मगर के द्वारा हाथी के ऊपर प्राक्रमण होने से जयकुमार घबरा जाते हैं। काम्य के धीरोदात्त एवं युखवीर नायक के मन में मगर को देखकर भय नामक स्थाषिभाव का प्रादुर्भाव होकर उसका पुष्ट होना अनुचित है। (ब) सुदर्शनोदय में रसामासशान्त रसामास सुदर्शनोदय में शान्त रसाभास के दो उदाहरण मिलते हैं : (क) शान्त रसाभास का प्रथम उदाहरण वह स्थल है, जिसमें एक रजको के क्षुल्लिका हो जाने का वर्णन है ।' (क) शान्त रसाभास का दूसरा उदाहरण वह स्थल है, जिसमें सुबर्शन के उपदेश से देवदत्ता वेश्या पोर पण्डिता दासी प्रायिका-व्रत धारण कर लेती "इत्येवं वचनेन मार्दवतामोहोऽस्तभावं गतः, यद्गारुडिनः समन्त्रवशतः सर्पस्य दो हतः, मास्विं सममेति पण्यललना दासीसमेतान्वितः स्वर्णत्वं रसयोगतोऽत्र लभते लोहस्य लेखा यतः ।।"४ उपर्य क्त दोनों उदाहरणों में घोविन, वेश्या मोर दासी को शान्त रस का प्राय बना दिया है, जो अनुचित है, क्योंकि नीचपात्रगत निर को दणकार ने अनुचित बताया है । प्रतः यहाँ शान्त रसाभास है । (ब) 'अनौचित्यप्रवृत्तत्व प्राभासो रसभावयोः ।' -साहित्यदर्पण, ३१२६२ का उत्तरार्ष । १. योदय, २४।१०५-१३९ २. वही, २०१५१-५२ ३. सुदर्शनोदय, ४।२८-३६ ४. वही, ६७४ १. साहित्यदर्पण, ०२६५ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-प्रन्यों में भावपक्ष २८७ बजार रसामास-- सुदर्शनोदय में शङ्गार रसाभास के पांच उदाहरण हैं। कपिला ब्राह्मणी का सदर्शन पर बाकर्षण प्रथम उदाहरण है, क्योंकि उसका प्रेम एकाङ्गी है।' इसी प्रकार रानी पभयमती का सुदर्शन के प्रति प्रेम दूसरा मोर उनके द्वारा की गई कामुक चेष्टाएं शृङ्गार रसाभास का तृतीय उदाहरण है। शृङ्गाररसाभास का चतुर्ष उदाहरण है-देवदत्ता वेश्या सुदर्शना के प्रति कहे गए कामुक वचन' पोर सदर्शन के वचनों का कोई प्रभाव न पड़ना तथा देवदत्ता का पुनः कामचेष्टाएं करना शुङ्गाराभास का पांचवा उदाहरण है। रोज रसामास सुदर्शनोदय में रौद्र रसाभास का भी एक उदाहरण मिलता है। रानी अभयमती मरकर व्यन्तरी हो गई है । सुदर्शन को देखकर उसका क्रोध भएक उठता है, और वह सुदर्शन से कटु वचन कहती है : "रे दुष्टाऽभयमत्यास्यां विद्धि मां नृपयोषितम् । यस्याः साधारणीवाञ्छा पूरिता न त्वया स्मयात् ॥ पश्य मां देवताभूयरूपान्तूपासिकाधिप । त्वमिमां शोचनीयास्थामाप्तो नष्ठ्यंयोगतः ।। कस्यापि प्रार्थनां कश्चिरित्येवमबहेलयेत् । मनुष्यतामवाप्तश्चेषा त्वं जगतीतले ॥ हेतान्त्रिक तदा तु त्वं कृतवान् भूपमात्मसात् । तदाब का दशा ते स्यान्मदीयकरयोगतः ॥"" यहां सुदर्शन मुनि के प्रति किया गया क्रोध अनुचित है, क्योंकि सज्जन के प्रति कोष में अनौचित्य नहीं तो और क्या ? इसलिए यह स्थल भी रसाभास की श्रेणी में पा जाता है। (ग) बीसमुद्ररत्तचरित्र में रसामास इस काव्य में एक स्थल पर शृङ्गार रसाभास की और एक स्पन पर मान्त रसाभास को हल्की झलक मिलती है। महाकन्छ अपनी पुत्री प्रियजनी का १. सबनोदय, ५-१-५ मोर १४-१७ २. वही, ६।१७-१९ 1. वही, १७-२१ ४. बही, ९।१४.१९ ५. वही, ६२७-२८ 1. बही, ९७८-२१ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य-एक अध्ययन विवाह ऐरावण से करने के लिए उसके साथ पा रहा था । मार्ग में बज सेन नामक व्यक्ति ने उसका पीछा किया। उसकी यह चेष्टा अनुचित है, अत: शङ्गार रसाभास का उदाहरण मानी जा सकती है।' वनसेन का ऊपरी मन से जिनदीक्षा ग्रहण करके तप करना शान्त रसाभास का उदाहरण है। (घ) योदयचम्पू में रसामास ___दयोदयचम्पू में केवल शान्तरसाभास का ही वर्णन मिलता है मोर वह भी एक ही स्थल पर। वसन्तसेना वेश्या सोमदत्त के प्रावरण से प्रभावित होकर मार्यिकाव्रत धारण कर लेती है : "वसन्तसेना वेश्यापि-तत्र वसन्तमपि x x x x साधुशिरोमरिण दृष्ट्वा कौतुकविहीनत्वमात्मनेऽनुमन्यमाना च तत्कवित्वमधिकुर्वाणेव सुवृत्तभावं सम्पादयितुमुद्यताऽभूत् । + + + विषा-वसन्तसेने-एकमेव शाटकमात्र विशेषमायवतमङ्गीचक्रतुः ।।"3 एक वेश्या के हृदय में शम भाव का जागरित होकर पुष्ट होना शान्तरसाभास का उदाहरण माना जा सकता है "शान्ते च होननिष्ठे", साहित्यदर्पण, ३।२६५) । (झ) भाव का स्वरूप भारतीय साहित्यशास्त्रियों के अनुसार प्रधान रूप से व्यजित व्यभिचारि. भाव, देव, गुरु प्रौर राजा के प्रति रतिभाव और अपरिपुष्ट स्थायिभाव 'भाव' नाम से जाने जाते हैं। जहां इस प्रकार के भावों का वर्णन होता है, उसे भावकाव्य कहा जाता है । अब देखना यह है कि हमारे मालोज्य महाकवि ने भावकाव्य का कंसा वर्णन किया है। (ब) कवि श्री ज्ञानसागर के संस्कृत-काव्यों में भाव (क) अयोदय महाकाव्य में भाव जयोदय महाकाव्य में सबसे अधिक अभिव्यञ्जना देवविषयक भक्तिभाव १. श्रीसमुद्रदत्तचरित्र, २।२८ । २. वही, २०३० ३. बयोदयचम्पू, ७।१४८-१४६ ४. (क) रतिर्देवादिविषया व्यभिचारी तथाऽञ्जितः । भावः प्रोक्तः ।' -काम्यप्रकाश, ४१३५ मोर ३६ का एक भाग । (ख) सञ्चारिणः प्रधानानि देवादिविषया रतिः । ___ उबुखमात्रः स्थायी च भाव इत्यभिधीयते ॥ -साहित्यदर्पण, ३२६० का उत्तरार्ध पौर २६१ का पर्षि । Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत ग्रन्थों में मावपक्ष २८६ की हुई है । इसमें गुरु-विषयक भकिन पोर नपविषयक भक्ति के भी उदाहरण मिलते हैं । प्रधान रूप से अभिव्यजित व्यभिचारिभाव और अपरिपुष्ट स्थायिभाव के उदाहरण भी यत्र-तत्र हैं। क्रमशः भावकाव्य के इन पांच प्रकारों के उदाहरण प्रस्तुत हैं :भगवद् विषयक भक्तिभाव ___जयोदय महाकाव्य में ६ स्थलों पर भगवद् विषयक भक्ति-भाव की प्रभिव्यजना मिलती है । विस्तार के भय मे केवल दो ही उदाहरण प्रस्तुत किए जा (4) जयकुमार और प्रकंकीति के यद्ध के पश्चात् जयकुमार अपने मन को धैर्य बंधाने के लिए जिन भगवान का पूजन करते हैं : "सकल: सकलज्ञमाप्तवानपि सम्पार्थयितुं जनं स वा। भगवान्भगवानभिष्टत: विपदामप्युत सम्पदामुत ।। सपदि विभातो जातो भ्रातो भवभयहरणविभामूतः । शिवसदनं मृदुवदनं स्पष्टं विश्वपितृर्जिनसवितुस्ते ।। गता निशाथ दिशा उद्घटिता भान्ति निपूतनयन भृते । कोऽस्तु कोशिकादिह विद्वषी परो नरो विशदीभूते ।। मङ्गनमण्डनमस्तु समस्तं जिनदेवे स्वयमनुभूते । हीराधा हि कतः प्रतिपाद्याश्चिन्तारत्ने सति पूते ।। कलिते सति जिनदर्शने पुनश्चिन्ता कान्यकार्यपूर्तभो न भवन्ति तणानि किमात्मजगति झगिति हि कर्णस्फूर्तः ।। निःसाधनस्य चाहंति गोप्तरि सत्यं नियंसना भूस्ते । तमसि च कि दीपेरुदयश्चेच्छान्तिकरस्य सुधास्यूतेः ।। प्रहन्तमागोहरमगादघुना समर्थयितुंतरां कश्मलादाजिभवाज्जयोदरमावहस्मरसन्निभम् ।' (प्रा) तीर्थयात्रा करते हुए जयकुमार हिमालय पर एक देवालय को देखकर वहो जाते हैं, और जिनभगवान् की पूजा एवं स्तुति करते हैं : "पुनश्च विघ्नप्रतिरोधि निः सहीति मन्त्रसूर्ण रुचित: समुच्चरन् । निधान गम्नो हि जिनालयस्य स कवाटमुद्घाटयति स्म धीरराट । निपूतपादाभिगमाभिलाषको निपूतपाद: स्वयमप्यथासको। जयेति वाचा कथित: श्रिया युतं जयेति वाचा गहमाविशत्तराम् ॥ . १. पयोदय, ८८ और उसके बाद का गीत । Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य- एक प्रध्ययन समुन्ननामातिलघु प्रभोः पुरो द्वयं मिलित्वा करयोश्च साम्प्रतम् । लुठन्भुवोह प्ररणनाम दण्ड वज्जिनं यथासो शरणागतः स्मरः । तदङ्घ्रियुग्मे कुमुमानि साम्प्रतं निजीयशस्त्राणि समयं सादरः ।। + + + जिनेशरूपं सुतराम दुष्टमापीय पीयूषमिवाभिपुष्टः । पुनश्च निर्गन्तुमशक्नुवानतस्ततो वभूवोचितसम्विधानः ॥ सूक्ष्मवतो लुप्तमवेत्य चेतः श्रीपादयोनिज ब्रजताथवेतः । प्रवापि तत्रत्यरजस्तु तेन संशोधनात्रीनगुणस्तु तेन ।। "" गुरुविषयक भक्तिभाव गुरुविषयक भक्तिभावजयोदय में तीन स्थलों पर देखने को मिलता है । दो स्थल उदाहरण के रूप में प्रस्तुत हैं : (घ) प्रपने उपवन में पाए हुए मुनिराज के प्रति उदित भावों को भक्तिभाब के उदाहरण के रूप में देखिए : " पति यतीनां सुमित प्रतीक्ष्य तदा तदातिथ्यविधानदक्षम् । मुदोगन कामशरप्रतानमङ्गीचकारोपवनप्रधानः ॥ फुल्लत्यस ङ्गाधिपति मुनीनमवेक्षमाणो वकुलः कुलीनः । त्रिनेत्र हानाकुरलान् वधूनां व्रताश्रितं वागतवानदूनाम् ।। + + + easy रघुमानन्दवारिधिस्तस्य तावता । ' इत्थमाह्लादकारियो गावः स्म प्रसरन्ति ताः ॥ कलशोत्पत्तितादात्म्यमितोहं तव दर्शनात् । प्रागस्त्यक्तोऽस्मि संसारसागरश्चुलुकायते ।। ममात्मगेहमेतत्ते पवित्रः पादपांशुभिः । मनोरमत्वमायाति जगत्पूतानिलिम्पितम् || हे सज्जनपतेश्चन्द्रवत्प्रसादनिघेंऽखिलः । पादसम्पर्कतो यस्य लोकोऽयं निर्मलायते ।। २६० ... .... जन्म श्री गुण साधनं स्वयमवन् सन्दुःखदन्याद्बहिनेनेष विषुप्रसिद्धयशसे पापापकृत्वस्वपः । मञ्जुपासकसङ्गतं नियमनं शास्ति स्म पृथ्वीभूते तेजःपुञ्जमयो यथागममथाहिसाधिपः श्रीमते ।।"२ १. जयोदय, २४।६८-१०२ २. वही, ११५०-११३ Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-प्रन्थों में भावपक्ष २६१ (घा) मुनि के वचनों को सुनकर जयकुमार का हृदय श्रद्धा से भर उठता है, और सिर झुक जाता है "इत्यत्राप्यापरिशेषमेकतो गात्रमङ कु करितमस्य भूभृतः । नम्रतामुपजगाम सच्छिरस्तावता फलभरेण वोद्धरम् ॥ सन्निपीय वचनामृतं गुरोः सन्निधाय हृदि पूततत्पदो । प्राप्य शासनमगादगारिडात्मदौस्थ्यमय मोरयंस्तदा ।। " १ नृपविषयक भक्तिभाव - जयोदय महाकाव्य में नृपविषयक भक्तिभाव के दो उदाहरण देखने को मिलते हैं। प्रथम उदाहरण में कविनिष्ठ नृपविषयक भक्तिभाव की प्रभिव्यञ्जना देखने को मिलती है । २ नृपविषयक भक्तिभाव का दूसरा उदाहरण वहाँ पर है, वहाँ जयकुमार सम्राट् भरत के पास जाते हैं प्रोर भरत के प्रति प्रादरभाव प्रकट करते हैं : " सदनुमानिते तरलितो हिते परिषदास्पदे भरतमाददे । यदिव खञ्जनः परमा जनमच नभः स्थले शशिनमुज्ज्वले ॥ समग्रहीतनपि किन्न हि सा च तमोभिस्त्वमृदुरश्मिः । मुदस्थिति वर्द्धयन्निति सम्बभावतोद्धा परिस्थितिः ॥ भालं जयस्य नमदादिजचक्रपाणेः पादाग्रतस्त समभारिह तत्प्रमाणे । नित्यं विभावमय दोषविशोधनाय पङ्केरुहस्य पुरतः शशिनोऽभ्युपातः ॥ शतशः स्फुरस्किररणभुन्नखाग्रवत् करसंयुगं भरत चक्रिणोऽभवत् । विविम्बशोभि सहसोभिमातरः शशिशोभनं जयमुखं समृद्धरत् ॥ विबभूव भूः परिकृतेरपीति यत् प्रतिपत्कलोदयकरी कवेरियम् । समभूतमां मुरुचिभागिहोत्तमा सदसः प्रहर्षणगरणश्रिया समा ।। "3 व्यग्य व्यभिचारिभाव व्यङ्ग्य व्यभिचारिभावों के अनेक उदाहरण जयोदय महाकाव्य में दृष्टिगोचर होते हैं, यहाँ उन सबको प्रस्तुत करना सम्भव नहीं है, इसलिए उदाहरण रूप में केवल दो स्थलों का वर्णन प्रस्तुत है : • (घ) भरत के पास गए हुए जयकुमार की प्रतीक्षा करती हुई सुलोचना का प्रोत्सुक्य भाव देखिये : म १. जयोदय, २।१४०-१४१ २. पही, १1१-७७ ३. वही, २०१८-१२ Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य- एक प्रध्ययन "प्रतीक्षयामास जयं किशोरी यथोदयन्तं शशिनं चकोरी । सूपः सकष्टं तमसोपसृष्ट-रयेण नीरोरुचयेन दृष्टः ॥ רי (प्रा) हस्तिनापुर में प्रवेश करते हुये जयकुमार की चेष्टा में इषं नामक भाव की झलक देखिये : याव्रजत्यतिजवेन पत्तनं माविचारमिह यातु किचन । प्रीत्रया तुलितेन मुदं वहन् निर्ययावपि महांगसंग्रहः ॥ निरगामिता सन्नियोगविषये नियो रसात् । तयस्य च मनोरथस्य चानन्यवेगिन इहाविराय सा ॥ २ परिपुष्ट स्थायिभाव--- जो स्थायिभाव पुष्ट होकर रम का रूप ग्रहण नहीं कर पाते, उन्हें भी 'भाव' माना जाता है । इसका एक उदाहरण प्रस्तुत है. -- भातीतं कृत्वा मनोविशदभाविपथि वं पद्मा सोमसुतो सत्यारम्भम् । तिष्ठत भावना सद्भावावाराद्दरकृतिताविभो भव्यो वा ।। " ७ यहाँ पर नामक अपरिपु स्थायिभाव को श्रभिव्यञ्जना हो रही है । (ख) वीरोदय महाकाव्य में भाव १. जयोदय, २०१५४ २. वही, २१।५-६ ३. वही, २३ ९७ जयोदय के समान ही वीरोदय में भी देवविषयक भक्तिभाव की प्रभिव्यञ्जना सर्वाधिक हुई है। इसके प्रतिरिक्त इसमें गुरुविषयक भक्ति प्रौर नृप - विषयक भक्ति का भी एक-एक स्थल देखने को मिलता है । व्यभिचारिभाव एवं परिपुष्ट स्थायिभाव के भी कुछ उदाहरण मिलते हैं । क्रमशः उदाहरण प्रस्तुत हैं- भ्र देवविषयक भक्तिभाव -- देवfare भक्तिभाव के वीरोदय में सात उदाहरण मिलते हैं, जिनमें से दो उदाहरण प्रस्तुत हैं १. ग्रन्थारम्भ में मङ्गलाचरण में कवि ने जैन तीर्थङ्करों की स्तुति की है"श्रिये जिनः सोऽस्तु यदीयसेवा समस्तसंश्रोतृजनस्य मेवा । द्राक्षेव मृदुवी रसने हृदोऽपि प्रसादिनी नोऽस्तु मनाक् श्रमोऽपि ।। कामारिता कामितसिद्धये नः समर्थिता येन महोदयेन । संवाभिजातोऽपि च नाभिजातः समाजमान्यो वृषभोऽभिघातः ॥ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . m महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-ग्रन्थो में भावपक्ष चन्द्रप्रभं नौमि यदङ्गसारस्तं कौमुदस्तोममुरीचकार । सुखञ्जनः संलभते प्रणश्यत्तमस्तयाऽऽत्मीयपदं समस्य ।। ___x x x x x वीर त्वमानन्दभुवाभवीर: मीरो गुणानां जगताममीरः । एकोऽपि सम्पातितमामनेक लोकाननेकान्त मतेन नेक ॥"१ २ देवविषयक भक्ति भाव का एक उदाहरण वह स्थल है, जहाँ भगवान् के गर्भावतरण के पश्चात् देवगण ने माता प्रियकारिणी की पूजा की है "तदिह सुर-सुरेशाः प्राप्य सद्धर्मलेशा वरपटह-रणाद्यः किञ्चन श्रेष्ठपाद्यैः । नव-नवमपि कृत्वा ते मुहस्तां च नुत्वा सदुदयकलिताङ्गी जग्मुरिष्टं वराङ्गीम् ।।"२ नपविषयक भक्तिमाव - नपविषयक भक्तिभाव का उदाहरण वह है, जहाँ कवि ने राजा सिद्धार्थ का वर्णन किया है "निःशेषन म्रावनिपालमौलि-मालारजःपिञ्जरिताध्रिमौलिः । सिद्धार्थनामाऽस्य बभूव शास्ता कीर्तीः श्रियो यस्य वदामि तास्ताः ।। सौवर्ण्य मुदीक्ष्य च धैर्यमस्य दूरं गतो मेरुरहो न पस्य । मुक्तामयत्वाच्च गम्भीरभावादेतस्य वाधिग्लपितः सदा वा ॥ + + + + + एकाऽस्य विद्या श्रवसोश्च तत्त्वं सम्प्राप्य लेभेऽथ चतुर्दशत्वम् । शक्तिस्तथा नीति चतुष्कसारमुपागताऽसौ नवता बभार ।।"3 गुरुविषयक भक्तिमाव __ मङ्गलाचरण में ही कवि ने अपने गुरुजनों के प्रति भक्तिभाव प्रदर्शित किया है "ज्ञानेन चानन्दमुपाश्रयन्तश्चरन्ति ये ब्रह्मपथे सजन्तः । तेषां गुरूणां सदनुग्रहोऽपि कवित्वशक्ती मम विघ्नलोपी। एवं "शक्तोऽयवाऽहं भविताऽस्म्युपायाद्भवन्तु मे श्रीगुरवः सहायाः । पितुर्विलब्धाङ्ग.लिमूलतातिर्यदिष्टदेशं शिशुकोऽपि याति ॥" १. वोरोदय, १।१-५ २. वही, ४१६३ ३. वही, ३११-४ ४. वही, १७, ८ Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य व्यङ्ग्य व्यभिचारिमाव -- वीरोदय में रानी प्रियकारिणी से स्वप्न सुनकर राजा की जो दशा हो जाती है, उसे हम हर्ष प्रौर प्रावेग नामक व्यभिचारिभावों की व्यंग्यता कह सकते हैं ।' प्रपने पिता के सम्मुख विवाह प्रस्ताव अस्वीकार करते समय महावीर स्वामी का निवेद नामक व्यभिचारिभाव भी पूर्णरूपेण श्रभिव्यञ्जित हुआ है। परिपुष्ट स्थायिभाव रूप से अभिव्यञ्जित हो रहा है । - रानी अपने द्वारा देखे गये सोलह स्वप्न राजा को सुनाने प्राती है"नयनाम्बुज सम्प्रसादिनों दिनपस्येव रुचि तमोऽर्दनीम् । समुदीक्ष्य निजासनार्ध के स्म स तां वेशयतीत्यथान के ।। 3 एक अध्ययन deferre भक्तिभाव - - इस स्थल पर राजा सिद्धार्थ का रानी प्रियकारिणी के प्रति रतिभाव प्रपूर्ण १. वीरोदय, ४ । ३७ २. वही, ८।२३ ३. वही, ४।३० ४. सुदर्शनोदय, १1१-२ - (ग) सुदर्शनोदय में भाव - सुदर्शनोदय में भी भावकाव्य के पाँचों प्रकार दृष्टिगोचर होते हैं। पांचों प्रकार सोदाहरण प्रस्तुत हैं- सुदर्शनोदय में देवविषयक भक्तिभाव की अभिव्यञ्जना चार स्थलों पर हुई है । दो स्थल उदाहरण के रूप में प्रस्तुत हैं (म ) मङ्गलाचरण में कवि ने जिनेन्द्रदेव की स्तुति की है— "वीरप्रभुः स्वीयसुबुद्धिनावा भवाब्धितीरं गमितप्रजावान् । सुराराध्यगुणान्वया वाग्यस्यास्ति नः शास्ति कवित्वगावा ॥ बागुलमा कर्मकल जे तु रन्त दुःखाम्बुनिधो तु सेतुः । ममास्त्वमुष्मिस्तररणाय हेतुरदृष्टपारे कविताभरे तु ।।”४ (मा) श्रीज्ञानसागर ने भर्हन्तदेव की पूजा में अनेक भजन सुदर्शन द्वारा प्रस्तुत कराये हैं, उनमें से एक प्रस्तुत है "जिन परियामो मोदं तव मुखभासा || खिन्ना यदिव सहबकुद्विधिना, निःस्वजनी निषिना सा ॥ सुरसनमशनं लब्ध्वा रुचिरं सुचिरक्षुधितजनाशा ॥ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-अन्यों में मावपक्ष २६५ केकिकलं तु लपत्यतिमधुरं जलदस्तनितसकाशात् ॥ किन्न चकोरडशोः शान्तिमयी प्रभवति चन्द्रकला सा॥' गुरुविषयक मक्तिमाव सुदर्शनोदय में गुरुविषयक भक्तिभाव को अभिव्यञ्जना सात स्थलों पर हुई है। दो स्थल उदाहरण के रूप में प्रस्तुत हैं (घ) सुदर्शनोदय में मङ्गलाचरण में कवि ने गुरुवन्दना की है "भवान्धुसम्पातिजनकबन्धुरुश्चिदानन्दसमाधिसिन्धुः । गतिममैतत्स्मरणकहस्तावलम्बिनः काव्यपथे प्रशस्ता ॥"२ (प्रा) सेठ वृषभदास भोर जिनयति स्वप्नों का तात्पर्य जानने हेतु एक मुनिराज के पास जाते हैं । दोनों उनका दर्शन करके उन्हें प्रणाम करते हैं "केशान्धकारोह शिरस्तिरोऽभूद् दृष्ट्वा मुनीन्, कमलाश्रियो भूः। करदतं कडमलतामयासीत्तयोर्जजम्भे मुदपां सुराशिः ।। कृतापराधाविव बद्धहस्ती जगद्वितेच्छो तमग्रतस्तो। मितोऽथ तत्प्रेमसमिच्छुकेषु सङ्कलेशकृत्वादतिकोतुकेषु । दृष्ट्वेति निर्गत्य पलायिता वाङ्नमोऽस्त्वितीडङ् मधुला मियावा ।।' नविषयक मक्तिमाव . राजा धात्रीवाहन के वर्णन में कवि का नृपविषयक भक्तिभाव पमिव्यजित होता है "धात्रीवाहननामा राजाभूदिह नास्य समोऽवनि भानाम् । तेजस्वीरक यांऽशुमाली निजप्रजायाः यः प्रतिपाली ।। यतिरिवासको समरसङ्गतः सुधारसहितः स्वर्गिवन्मतः । पृथुदानवारिरिन्द्रसमान एवं नानामहिम विधानः ॥"४ व्यग्य व्यभिचारिमाव जिनमति के वचनों में हर्ष नामक व्यभिचारिभाव को,५ वषमदास. विचारों में चिन्ता नामक व्यभिचारिमाव की भोर ग्याले के लड़के के मनोभावों १. सुदर्शनोदय, शगीत सं ७ २. वही, १३ ३. बही, २०२५-२७ ४. वही, ११३८-३९ ५. वही, २०३६ १. वही, ३४२ Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य-एक अध्ययन में दया नामक व्यभिचारिभाव को' परिपुर अभिव्यञ्जना स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है । जड़ता नामक व्यभिचारिमाव की अभिव्यञ्जना प्रस्तुत है "इत्येवं वचसा जातस्तमसेवावृतो विधुः । वैवयेनान्विततनुः किञ्चित्कालं सुदर्शनः ।।"२ वैसे तो व्यजित व्यभिचारिभाव के और भी उदाहरण हैं, किन्तु विस्तार के भय से उन्हें प्रस्तुत करना अनुचित समझती हूँ। अपरिपुष्ट स्थायिमाव भावकाव्य के इस प्रकार के भी दो उदाहरण प्रस्तुत हैं(म) ,परिवद्धिमितोदरां हि तां सुलसद्धामपयोधराञ्चिताम् । मुमुदे स मुदीक्ष्य तत्पतिर्भुवि वर्षामिव चातकः सतीम् ॥"3 (पृथ्वी में सुन्दर जल-धारा वाले बादलों से युक्त वृद्धि को प्राप्त वर्षा को देखकर जैसे चातक प्रसन्न होता है, वैसे ही स्तनों पर सुशोभित हार वाली मोर बढ़ते हुए उदर वाली अपनी पत्नी को देखकर वह सेठ प्रत्यधिक प्रसन्न हुमा ।) यहाँ पर सेठ वृषभदास का वात्सल्यभाव अभिव्यञ्जित तो हुमा है, पर मपूर्ण रह गया है। (पा) "अन्तःपुरं द्वा:स्थनिरन्तरायि सुदर्शनः प्रोषधसम्बिधायी। विजैरवाचीत्यवदः प्रयोगः स्यादत्र कश्चित्त्वपरो हि रोगः ॥ ___ यहाँ पर विस्मय नामक स्थायिभाव की अभिव्यञ्जना पूर्ण नहीं हो सकी है। (घ) बीसमुद्रदत्तचरित्र में भाव ___ इस काव्य में नृपविषयक भक्तिभाव के अतिरिक्त अन्य चार भावों का थोड़ा बहुत वर्णन मिल जाता है । क्रमशः वारों भाव सोदाहरण प्रस्तुत हैंदेवविषयक भक्तिभाव इसका केवल एक उदाहरण है, वह भी ग्रन्थ के प्रारम्भ में "नमाम्यहं तं पुरुषं पुराणमभूयगादो स्वयमेव शाणः, धियोऽसिपुत्या दुरितच्छिदर्थमुत्तेजनायातितरां समर्थः ।। १. सुदर्शनोक्य, ४।२४ २. वही, २१८ ३. वही, २०५० ४. वही, ८१ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-ग्रन्थों में भावपक्ष २६७ श्रीवर्द्धमानं भूवनत्रये तु विपत्पयोधेस्त रणाय सेतुम् । नमामि तं निजितमीन केतुं नमामितो हन्तु यतोऽघहेतः ।।" यहां पर कवि का ऋषभदेव के प्रति और वर्द्धमान भगवान् के प्रति भक्तिभाव अभिव्यजित हो रहा है। गुरुविषयक भक्तिमाव गुरुविषयक भक्तिभाव चार स्थलों पर वणित है। दो उदाहरण प्रस्तुत (क) ग्रन्थ के प्रारम्भ में कवि की गुरुभक्ति वणित है "समस्ति काव्योद्धरणाय मे तु गुरोमहानुग्रह एव हेतुः । पयोनिधेः सन्तरणाय सेतुर्वर्माथवा शस्त्रहति विजेतुम् ॥ (ख) राजा चक्रायुध यतिवेश धारण करके बन को चल देता है । वह अपने पिता मुनि अपराजित को देखकर अत्यन्त प्रसन्नता का अनुभव करता है। उनके प्रभावशाली व्यक्तित्व के सम्मुख नतमस्तक हो जाता है। विनयपूर्ण शन्दों में उनकी वन्दना करता है, और संसार-सागर से पार उतरने का उपाय पूंछता है । ज्यङ्ग्य व्यभिचारिभाव __ कवि ने स्थान-स्थान पर मति, अमर्ष इत्यादि व्यभिचारिभावों को बरे ही अच्छे ढङ्ग से अभिव्यजित किया है। अपरिपुष्ट स्थायिमाव ___ विस्मय, क्रोष इत्यादि स्थायिभावों की प्रपूर्ण अभिव्यञ्जना भी श्रीसमुद्रदत्तचरित्र में दृष्टिगोचर होती है । (5) बयोदयचम्पू में माव __ श्रीसमुद्रदत्तचरित्र के समान इसमें भी नृपविषयक भक्तिभाव को छोड़कर अन्य चार प्रकार के भाव वणित हैं । चारों सोदाहरण प्रस्तुत हैं १. श्रीसमुद्रदत्तचरित्र, ११-२ २. वही, ११६ ३. वही, ७।२४.३३ ४. वही, ३१ ५. वही, ५॥३२ ६. वही, २।२४ ७. वही, ४११ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य -एक अध्ययन देविषयक भक्तिभाव-- देवविषयक भक्तिभाव की अभिव्यञ्जना केवल ग्रन्थ के प्रारम्भ में "श्रीपतिभंगवान् जीयाद् बहुधान्यहितापिनाम् । भक्तानामुद्गतत्वेन यद्भक्तिः सूपकारिणी ॥ कर्तु कुवलयानन्दं सम्बद्धं च सुखं जनः । चन्द्रप्रभः प्रभुः स्यान्नस्तमस्तोमप्रहाणये ॥ श्रीमते वर्द्धमानाय नमोऽस्तु विश्वश्वने । यज्जानान्तर्गतं भूत्वा त्रैलोक्यं गोष्पदायते ॥ नतस्तस्य सरस्वत्य विमलज्ञानमूर्तये । पत्कृपाङ्करमास्वाद्य गावो जीवन्ति नः स्फुटम् ॥"" गुरुविषयक भक्तिमाव गुरुविषयक भक्तिभाव की अभिव्यञ्जना ग्रन्थ में चार स्थानों पर मिलती है । उनमें से दो प्रस्तुत हैं(अ) प्रथम में कवि का गुरुविषयक भक्तिभाव अभिव्यजित होता है "यः शास्त्राम्बुनिधेः पारं समुत्तमहात्मभिः । पोतायितमितस्तेभ्यः श्रीगुरुभ्यो नमो नमः ॥२ (मा) द्वितीय उदाहरण में सोमदत्त का माता-पिताविषयक भक्तिभाव अभिव्यञ्जित है "स च तां मदुलतमहृदयलेशां स्वसवित्रीनिविशेषां गोपवर ञ्चानितरां पितरमिव मन्वानः सुखेन समययापनं तन्वानः समवर्तत ।' भ्यग्य व्यभिचारिमाव मृगसेन के व्यवहार में जड़ता, घण्टा धीवरी की चेष्टा में हर्ष, मृगसेन के ढ़सङ्कल्प में निर्वेद और मति' गणपाल को गोविन्द से बातचीत में प्रवाहित्या' १. दयोदय चम्पू, १।१-४ २. वही ११५ !. वही, शश्लोक १. के बाद का गद्यमाग । ४. वही, शश्मोक २ के बाद का गयभाव । ५. वही, शश्लोक ७ के बाद दूसरा गवमाग । ६. बही, २०२८ __७. वही, लोक ३ पोर उसके पहले का गवमान । Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि मानसागर के संस्कृत-प्रज्यों में मावपक्ष २६९ सोमदत्त भोर विषा का समाचार जामकर मुणपाल की चिन्ता,' गुणश्री को व्याकुलता में शङ्का, महाबल की मृत्यु के पश्चात् सोमदत्त का निर्वेद और मुरणपाल के व्यवहार में (जब सोमपत्त के जामाता होने पर भी वह उसको मारना चाहता है) अमर्ष सम्यक् रीति से अभिव्यजित हुआ है। अपरिपुष्ट स्थायिमाव सोमदत्त के गले में बंधे पत्र को पढ़कर वसन्तसेना के मन में जो भाव जागरित होता है, वह पौत्सुक्य है। सोमदत्त की मधुर माकृति से उसके मन में जो स्नेह जागरित होता है, वह रति है। किन्तु ये सभी स्थायिभाव उन स्थलों पर पूर्णरूपेण परिपुष्ट नहीं हो सके हैं । प्रतः इन स्थलों पर रसकाव्य न होकर भावकाम्य ही रह गया है। (ट) भावाभास का स्वरूपं जब भावों की एकपक्षीय अथवा भनौचित्यपूर्ण अभिव्यक्ति होती है तो वह भावाभास कहलाती है। कुछ भावों को सम्भावना नियत प्राश्रयों में होती है किन्तु जब ये भाव अनियत पाश्रयों में दृष्टिगोचर होते हैं तो भावाभास के रूप में बदल जाते हैं। (8) कवि श्रीज्ञानसागर के संस्कृत-काव्यों में भावाभास कविवर ज्ञानसागर के काव्यों में भावाभास के केवल तीन उदाहरण मिलते है । पहना उदाहरण सुदर्शनोदय का है "इत्येवं पदयोर्दयोदयवतो ननं पतित्वाऽथ सा ___ सम्प्राहाऽऽदरिणी गुणेषु शमिनस्त्वात्मीयनिन्दादशा। १. दयोदय चम्भू, । प्रारम्भिक गयभाग। २. वही, ५॥ श्लोक १४ के बाद के संवाद में । ३. वही, शन्तिम गवभाग। ४. वही, ६॥ श्लोक २ के पहले का गबभाग। ५. वही, ४१२ ६. वही, ४॥ श्लोक ११ के पहले के गवमाग से (श्लोक १३ के पहले के गर भान तक। ७. वही, शश्लोक १४ के बाद तीसरा गवभाग । ८. (३) काव्यप्रकाश, ११३६वीं कारिका के पूर्वार्ष का अर्थाश । (ख) साहित्यदर्पण, ३१२६२ का उत्तरार्ष। Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य-एक अध्ययन स्वामिस्त्वय्यपराद्धमेवमिह यन्मोढयान्मया साम्प्रतं मन्तव्यं तदहो पुनीत भवता देयं च सूक्तामतम् ॥"' (सुदर्शन को पढ़ता से प्रभावित होकर देवदत्ता ने उनकी स्तुति की। तत्पश्चात् दयालु और शान्त सुदर्शन के चरणों पर गिरकर, उनके गुणों के प्रति प्रादरभाव धारण करने वाली, अपने दुष्कृत्यों की निन्दा करते हुए देवदत्ता ने कहा-हे स्वामिन् ! प्रज्ञानवश जो मैंने प्रापके प्रति अपराध किया है, उसे क्षमा कर दीजिये । हे पवित्र आत्मा वाले ! मुझे उपदेशरूप वचनामत दीजिए ।) इस श्लोक में एक वेश्या में अपने स्वभाव के विरुद्ध ग्लानि, वियोष, मति, विषाद, शम (निर्वेद) प्रादि भाव दिखाई दे रहे हैं, प्रतएव उन्हें भावाभास कहा जा सकता है। दूसर. उदाहरण श्रीसमुद्र दत्तचरित्र से है । इस स्थल पर रामदत्ता अपने ही पुत्र सिंहचन्द्र की वन्दना करती है, जो उचित भाव नहीं है। प्रतः इसे भक्तिभावाभास हो कहा जा सकता है। तीसरा उदाहरण दयोदयचम्पू से है । मगसेन धीवर अपनी प्राखेट की प्रवृत्ति को छोड़कर मोक्षमार्ग की ओर उन्मुख होने लगता है । उसको यह चेष्टा भी भावाभास के अन्तर्गत प्राएगी। (ङ) भावशक्ति का स्वरूप हमारे हृदय में अनेक भाव सुषुप्तावस्था में रहते हैं। कुछ विशेष स्थितियों में ये जागरित होते हैं मोर कुछ विशेष कारणों से ये पुन: शान्त हो जाते हैं । हृदय में उठते हुए इन भावों के तिरोहित हो जाने को भावशान्ति कहते हैं ।४ (द) कवि श्रीज्ञानसागर के संस्कृत-काव्यों में भावशान्ति महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-काव्यों में एक दो उदाहरण भावशान्ति के भी दृष्टिगोचर होते हैं १. सुदर्शनोदय, ६।३१ २. श्रीसमुद्रदत्तचरित्र, ४।१६-२१ ३. दयोदयचम्पू, २॥ श्लोक ८ से श्लोक १३ के पहले के गद्य भाग तक । ४. (क) काव्यप्रकाश, ४।३६ का उत्तराध । (ख) साहित्यदर्पण, ३२६७ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-प्रन्थों में भावपक्ष ३० (क) एवं सुमन्त्रवचसा भुवि भोगवत्या दोऽसपणमगात्स्विदनन्यगत्या । हस्तं व्य मुञ्चति मन्दतयाऽपि मत्या यदोदयादहुसुदर्शनपुण्यतत्याः ॥"" (पुनर्जन ने कपिला से कहा कि वह नपुंसक होने के कारण उसको आशा पालन करने में असमर्थ है। उसके ऐसे वचन सुनकर संसार में भोगविलास करने वाली, कूटिल गतिवाली कपिला का दर्प समाप्त हो गया। निरुपाय होकर उसने सुदर्शन का हाथ छोड़ दिया। प्रथवा सुदर्शन के पुण्यों के कारण उसने उसका हाथ छोड़ा ।) __इस श्लोक में सुदर्शन के दर्शन के कारण प्रबुद्ध रतिनाम स्थायिभाव उसके वचनों के परिणाम स्वरूप शान्ति को प्राप्त हो रहा है। प्रतएव यहाँ भावशान्ति है। (ख) "इत्येवं वचनेन मार्दववता मोहोऽस्तभावं गतः । यद्वद्गारुडिनः समन्त्रवशतः सर्पस्य दो हतः ।।"२ - (देवदत्ता वेश्या की प्रार्थना पर सदर्शन ने उसको जैनधर्म का उपदेश दिया। सुदर्शन के सकोमल उपदेश वचनों से वश्या का मोह वैसा हो तिरोहित हो गया, जैसे कि गारुडि के समन्त्र वश सर्प का दर्प नष्ट हो जाता है।) प्रस्तुत श्लोक में मोह नामक व्यभिचारिभाव को शान्ति की स्पष्ट अभिव्यञ्जना के कारण भावशान्ति है। (ण) भावोदय का स्वरूप गम्भीर जलाशय में यदि पत्थर फेंका जाय तो उसके जल में अनेक लहरें उठने लगती हैं। इमो प्रकार विशिष्ट वातावरण से प्रभावित होकर हमारे हृदय के सोये हुए भाव जागरित हो जाते हैं। विशेष परिस्थितियों में हृदय में भावों का इस प्रकार जागरित हो जाना हो भावोदय है । (त) कवि श्रीज्ञानसागर के संस्कृत-काव्यों में भावोदय श्री ज्ञानसागर के सभी संस्कृत-काव्यों में भावोदा के उदाहरण देखने को मिलते हैं । क्रमशः उदाहरण प्रस्तुत हैं - १. सुदर्शनोदय, ५।२० २ वही, ६७४ ३. (क) काव्यप्रकाश, ४३६ शा उत्तरार्ष। (ख) साहित्यदर्पण, ३१२६७ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ (क) जयोदय में भावोदय - सेवक के वचनों को सुनकर प्रकंकीति में क्रोधनामक स्थाविभाव एवं उग्रतानामक व्यभिचारिभाव का उदय हुआ है। इसी प्रकार मगर द्वारा प्राक्रान्त होने पर जयकुमार में दन्य नामक भाव की अभिव्यक्ति हुई है। 2 (ख) वीरोदय में भावोदय - वीरोदय में भावोदय के दो उदाहरण हैं । भगवान् महावीर जब पूर्वजन्मों का ज्ञान प्राप्त करते हैं, तो स्मृति नामक भाव का उदय माना जा सकता है । 3 गौतम इन्द्रभूति के मन में भगवान् को दिव्यविभूति को देखकर विस्मय भाव का उदय होता है । ४ ( सुदर्शनोदय में माबोदय महाकवि शामसागर के काव्य - एक अध्ययन ५ सुदर्शनोदय में स्वप्नों को सुनकर सेठ के मन में हर्ष एवं विस्मय की भिव्यक्ति, पुत्रोत्पत्ति पर हषं की अभिव्यक्ति, मनोरमा सुदर्शन के परस्पर दृष्टि व्यवहार में प्रोत्सुक्य की अभिव्यक्ति, पिता के संन्यास से सुदर्शन के मन में निर्वेद की अभिव्यक्ति निष्फल प्रभयमती में जड़ता की अभिव्यक्ति, ७ О रानी बोर राजा के व्यवहार के पश्चात् सुदर्शन में निर्वेद की अभिव्यक्ति एवं सुदर्शन के वचनों से देवदत्ता में भक्तिभाव की प्रभिव्यक्ति भावोदय के उत्कृष्ट उदाहरण हैं । (घ) श्रीसमुद्रदत्तचरित्र में भावोदय - इस काव्य में उस स्थल पर विस्मय नामक भाव उदित हुआ है, जहाँ महाकच्छ राजा ऐरावण के वैभवपूर्ण नगर को देखना है । १२ १. जयोदय, ७।१७ २. बही, २०५१ ३. बीरोदय, १० ३८ ४. वही, १३।२५-२७ ५. वही, २।२१ ६. वही, ३१४ ७. वही, २।३४-३५ ८. बही, ४११५ ९. वही, ७।३०-३१ १०. बही, ८२०-२१ ११. वही, ६।३० १२. श्रीसमुद्रदत्तचरित्र, २।१६ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत प्रत्थों में मावपक्ष (ङ) दयोदयचम्पू में भावोदयदयोदयचम्पू में मृगसेन कौतुक में प्रोत्सुक्यभाव का, ७ घण्टा के व्यवहार में क्रोध नामक स्थायिभाव का गुणपाल के चिन्तन में विस्मय नामक स्थायिभाव का, विषा के मनोभावों में हर्ष नामक संचारिभाव का एवं नागरिकों के मनोभावों में विस्मय नामक स्थायिभाव का उदय हुआ है । ० (थ) भावसन्धि का स्वरूप जहाँ दो भाव परस्पर मित्र के समान काव्य में भाते हैं, वहीं भावसन्धि होती है । १२ (द) कवि श्रीज्ञानसागर के काव्यों में भावसन्धि कवि श्री ज्ञानसागर के पांचों काव्यों में मिलने वाले भावसन्धि के उदाहरण प्रस्तुत हैं (क) जयोदय में भावसन्धि सुलोचना जब जयकुमार के गले में जयमाला डालती है, वहीं हर्ष एवं लज्जा नामक दो भावों की सन्धि है । 13 जयकुमार मोर सुलोचना का विवाह निश्चित होने पर अन्य राजाभों के मन में चिन्ता प्रोर वैवर्ण्य भाव साथ-साथ उठते हैं । ' ۱۷ ३०३ (ख) वीरोदय में भावसन्धि संसार की दशा पर चिन्तन होते हुए महावीर को अपने पूर्वजन्मों का स्मरण हो जाता है; मोर वह निर्विण्ण हो जाते हैं। प्रतः यहाँ पर स्मृति और निवेद नामक दो भावों की सन्धि है । इसके पश्चात् भी उनके मन में स्मृति धोर तर्क, दोनों भाव, साथ-साथ उठते हैं। (ग) सुवशं गोदय में भावसन्धि सुदर्शन जब अपने पिता को संन्यास लेते देखता है, तो उसके मन में १. दबोदयचम्पू, १२२ २. बही, २। श्लोक २२ के बाद का गद्यभाग । ३. बही, ३। प्रथम भाग । ४. बही, ४। श्लोक १४ के पूर्व के मद्यभाग | बही, ६| इलोक १० के पूर्व के नाभाग । (क) काव्यकाश, ४१३६ का उत्तरार्धं । ७. बीरोदय, २०१३८ ब. वही, ११।१ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य --एक अध्ययन निर्वेद और मोह नामक भाव साथ-साथ आ जाते हैं ।' मुनि को दयनीय दशा देखकर ग्वाले के पुत्र में विना और विषाद नामक भाव साथ-साथ देखने को मिलते हैं।' रानी अभयमती के ऊपर दासी के वचनों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता, इस समय रानी के मोह और उग्रता नामक संचारी भाव एक साथ अभिव्यजित होते हैं । (घ) श्रीसमुद्रदत्तचरित्र में भावसन्धि-- प्रियङगुश्री को पाने में असमर्थ वज्रसेन के हृदय में निर्वेद और रोष नामक माव साथ ही उत्पन्न होते हैं । (ङ) दयोदयचम्पू में भावसन्धि साधु के चरणों में प्रतिज्ञा करते हुए मगसेन के मति और धति नामक भावों को साथ ही अभिव्य जना होती है । ५ मगसेन की प्रतीक्षा में रत धीवरी जब मगसेन को प्राता हुप्रा देखती है तो उसके हर्ष प्रौर प्रोत्सुक्य नामक भाव साथसाथ अभिव्यजित होते हैं । ' सोमदत्त को मारने में सतत प्रयत्नशील गणपाल के तकं मोर अमर्ष नामक भाव अभिव्यजित होते हैं।" (ध) भावशबलता का स्वरूप जहाँ एक ही स्थल पर कई भाव साथ-साथ पा जाते हैं, वहां भावशबनता होती है । (न) कवि श्रीज्ञानसागर के संस्कृत काव्यों में भावशबलता कविवर ज्ञानसागर के पांचों काव्यों में से भावशबलता के उदाहरण प्रस्तुत हैं(क) जयोदय में भावशबलता. : जयकुमार के विजयी होने पर भी महाराज मकम्पन प्रसन्न नहीं होते । उनके १. सुदर्शनोदय, ४।१५ २. वही, ४१३५ ३. वही, ६।२५ ४. श्रीसमुद्रदत्तचरित्र, २।३० ५. दयोदयचम्पू, उलोक के बाद का कपन । ६. वही, पृ० सं० २३ ७. वही, पु० सं०६६ ८. (क) काव्यप्रकाश, ४१३६ का उत्तरार्ष, (ब) साहित्यदर्पण, ३१२६७ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०५ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-ग्रन्थों में मावपक्ष मन में चिन्ता, जड़ता, मति, बुति, विषाद इत्यादि भाव एक साथ ही उचित हो जाते हैं ।' (स) वीरोदय में भावशबलता - जब भगवान् महावीर को अपने पूर्वजन्मों की याद भाती है, तब उनका मन स्मृति, निर्वेद, चिन्ता, विषाद, मति, घृति इत्यादि भावों से भर उठता है ।" भगवान् की दिव्यविभूति से प्रभावित गौतम इन्द्रभूति में तर्क, शङ्का, मति, पति, भक्ति इत्यादि भावों की प्रभिव्यञ्जना एक साथ दृष्टिगोचर होती है । 3 (ग) सुदर्शनोदय में भावशबलता - सुदर्शन को देखकर कपिला ब्राह्मणी, मोह, व्यग्रता, प्रोत्सुक्य, चञ्चलता इत्यादि कई भावों की शिकार हो जाती है। कपिला के वचनों से प्रभावित रानी मयमती के मन में व्यग्रता, प्रोत्सुक्य, प्रमषं, चिन्ता, चपलता, स्मृति इत्यादि भाव उदित हो जाते हैं। रानी प्रभयमती के दुराचरण से सुदर्शन के मन में निर्वेद, ग्लानि, मति, तर्क इत्यादि भाव उदित हो जाते हैं। (च) बीसमुद्रदत्तचरित्र में भावशबलता राजा चक्रायुध जब दर्पण में मुंह देखते समय अपने शिर में एक सफेद बाल देखता है, तब उसके मन में निर्वेद, तर्क, मति, घृति, चिन्ता भादि भावों का उदय हो जाता है । (5) बयोदयचम्पू में भावशबलता मुनि के वचनों को सुनकर मृगसेन के मन में तर्क, निर्वेद, मति इत्यादि भावों का उदय एक साथ हुआ है ।" मृबसेन की प्रतीक्षा करते हुए धीवरी के मन मैं चिन्ता, तर्क, शङ्का, चम्चलता इत्यादि भावों का प्रावागमन होने लगता है ।" घण्टा धीवरी के द्वारा घर से बाहर निकाल दिये जाने पर मृगसेन के मन में निर्वेद १. जयोदय, ११-८ २. बीरोदय, ११।३७-४४ ३. वही, १३।२५-३१ ४. सुदर्शनोदय, ५।१-१५ ५. वही, ६।१७-१ε ६. वही, ७।२२-२९ ७. श्रीसमुद्रदत्तचरित्र, ७।२-२१ 5. eater म्पू: १। श्लोक १४ के बाद का गद्यभाग | 6. वही, १। श्लोक ६ के पूर्व के गद्यभाग से श्लोक ७ के बाद के गद्यभाग तक । Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य - एक प्रध्ययन तर्क, मति, घृति इत्यादि भावों की उत्पत्ति एक साथ हुई है ।' पति के चले जाने पर धीवरी के मन में भी मति, निर्वेद, शङ्का, चिन्ता इत्यादि भावों का उदय एक साथ हुआ है। पति की मृत्यु से व्याकुल धीवरी के मन में चिन्ता, व्यग्रता, जड़ता, मोह, निर्वेद, मति इत्यादि भाव माने जाने लगते हैं । 3 सोमदत्त के गले में बँधे हुये पत्र में उसकी मृत्यु का समाचार जानकर वसन्तसेना के मन में शङ्का, बितर्क, धृति, मति इत्यादि भावों की उत्पत्ति हुई है । ४ यद्यपि भावशान्ति इत्यादि के मौर भी स्थल मुनिश्री के काव्यों में मिलते हैं, किन्तु विस्तार के भय से उनका प्रस्तुतीकरण नहीं किया है । ( प ) ध्वनि का स्वरूप जिस काव्य में वाच्यार्थ की प्रपेक्षा व्यङ्ग्यार्थ में अधिक चमत्कार दृष्टिगोचर होता है, उसे ध्वनि-काव्य कहा जाता है । काव्य के दो अर्थ होते हैं- एक तो वह जिसे कवि कहता है, दूसरा वह जिसे वास्तव में कवि कहना चाहता है । जब कवि के काव्य में दूसरा प्रथं सुन्दर बन पड़ता है, तब उसको उत्तम काव्य या ध्वनिकाव्य कहा जाता है । " (फ) कवि श्रीज्ञानसागर के संस्कृत काव्यों में ध्वनि महाकवि श्रीज्ञानसागर के काव्यों में ध्वनि काव्यत्व का प्राचुर्य है । किन्तु दृष्टान्त रूप में प्रत्येक काव्य में से एक-एक उदाहरण देना ही पर्याप्त होगा(क) जयोदय महाकाव्य - सुलोचना स्वयम्वर के प्रसङ्ग में अलङ्कार से वस्तु व्यङ्ग्य ध्वनि का उदाहरण देखिये "काञ्चीपतिरयमायें काञ्चीमपहर्तुमर्हतु तवेति । काचीफलवदिदानीं द्विवरतां विभ्रमादेति ॥ ६ (हे पायें ! काञ्ची नगरी का वह शासक तुम्हारी करधनी को खोलने १. दयोदयचम्पू, २।२३-२८ २. बही, २। श्लोक ३० के पूर्व के मद्यभाग से श्लोक ३१ तक । ३. बही, २० श्लोक ३२ के पूर्व के गद्यभाग से इलोक ३४ तक । ४. बही, ४। श्लोक १० के बाद से श्लोक १२ के बाद के गद्यभाग तक । (क) काव्यप्रकाश, १1४ का उत्तरार्धं । (स) साहित्यदर्पण, ४०१ का उत्तरार्ध । ६. जयोदय ६।३६ Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि शानसागर के संस्कृत-प्रन्थों में मावपक्ष . ३०७ योग्य हो, जो कि इस समय कचनार के फल के समान दो रंगों का विभ्रम उत्पन्न कर रहा है।) यहां पर सुलोचना की परिचारिका काञ्चीनगरी के राजा का परिचय देतो है। यहां पर उपमा अलवार मोर द्वयर्थक विवरणंता' पद से यह ध्वनित होता है कि यह दोहरी नोति चलने वाला है, अतः इसका वरण करना उचित नहीं होगा। (ख) वीरोदय महाकाव्य-- दिव्या ङ्गनामों द्वारा माता की सेवा के प्रसङ्ग में ध्वनि का एक उदाहरण प्रस्तुत है : "शिरो गुरुत्वान्नतिमाप भक्तितुलास्थितं चेत्युचितव युक्तिः । करद्वयी कुडमलकोमला सा समुच्चचालापि तदेव तासाम् ॥"" (उसी समय उन देवियों के भक्तिरूपी तुला के एक पल पर स्थित सिर तो भारी होने के कारण नीचे झुक गये और दूसरे पलड़े पर स्थित कमल के समान कोमल दोनों हाथ ऊपर उठ गए, यह बात उचित प्रतीत होती है)। इस श्लोक में रूपक मलङ्कार से यह वस्तु ध्वनित होती है कि देवियों ने बडा सहित मस्तक झुका कर मोर दोनों हाथ जोड़कर माता प्रियकारिणी को प्रणाम किया। (ग) सुदर्शनोदय देवदत्ता के सुदर्शन के साथ बातचीत करने में निकलती हुई ध्वनि का उदाहरण प्रस्तुत है : "मन्तः समासाद्य पुनर्जगाद कामानुरूपोक्तिविचक्षणाऽदः । किमर्थमाचार इयान् विचार्य बाल्येऽपि लब्धस्त्वकया बदाऽयं ।"२ (सुदर्शन को अपने घर ले जाकर कामचेष्टा के अनुरूप वचन बोलने में चतुर उस वैश्या ने कहा-हे मार्य ! इस बाल्यावस्था में क्या सोचकर तुमने इतने कठिन व्रत को अङ्गीकृत किया है ?) यहाँ देवदता के कपन में यह ध्वनि निकलती है कि यह समय तो भोगविलास करने का है। साधु-वेश धारण करने का नहीं, मतः माप मेरे साप भोगबिलास कीजिए । यह स्वतः सम्भवी वस्तु से वस्तुबंजय ध्वनि का उदाहरण है। (१) बीसमुद्रदत्तचरित्र____ भद्रमित्र अपने पिता से धनार्जन हेतु विदेश जाने की अनुमति मांगता है; मोर काता है : १. वीरोग्य, १२५ २. सुदर्शनोदय, ९।१४ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर काव्य-एक अध्ययन "प्रादित्य उर्ध्या रसभुक समस्ति ततो हि सन्तापकरप्रशस्तिः । ' विधुः कलाभिः परिवर्द्धक: सन् पितुः प्रसत्य जगतोऽप्यलं सः।" (सूर्य पृथ्वी के एकत्रित जल को ग्रहण करता है, इसीलिए उसकी प्रसिरि सन्ताप देने वाले रूप में होती है। किन्तु चन्द्रमा अपनी कलानों से अपने पिता समुद्र की वृद्धि करता हुप्रा संसार के सभी लोगों को अच्छा लगता है।) भद्रमित्र के कहने का तात्पर्य है कि पुत्र दो प्रकार के होते हैं-प्रथम तो बे होते हैं जो पिता द्वारा अजित धन को विना सोचे समझे नष्ट करने पर तुले रहते हैं, और पिता को कष्ट देते हैं । दूसरे वे होते हैं जो पिता द्वारा प्रजित धन को अपने कौशल से बढ़ाते हैं, ऐसे पुत्रों को पिता तो प्यार करते ही हैं. अन्य लोग भी उनके गुणों की सराहना किए विना नहीं रहते । अतः स्वयं धनार्जन करके मैं भी स्पृहणीय पुत्र बनना चाहता हूं, सन्तापकारी पुत्र नहीं। यहां प्रस्तुतप्रशंसा प्रलंकार से उक्त वस्तु ध्वनित होती है। (5) बयोदयचम्पू ___ गुणपाल को मृत्यु के पश्चात् शोकाकुल गुणत्री के कपन में दृष्टान्त मलकार से वस्तुव्यङग्य ध्वनि देखिए : "उद्धूलिता धूलिरहस्करायाप्यपेत्य सा मूनि नुरस्त्विमायाः। इमां सदुक्ति वलये प्रसिद्धामुपैति मे संघटितां सुविता ॥"२ यहां गुणश्री यह कहना चाहती है कि स्वयं किये दुष्कर्मो का फल स्वयं को भोगना पड़ता है; मेरे पति भी सोमदत्त को मारने में सतत प्रयत्नशील थे, इसलिए स्वयं ही मृत्यु-मुख में पहुंच गये। (ब) गुणीभूतव्यंग्य का स्वरूप जिस काग्य में व्यंग्य गुणीभूत हो जाता है-अर्थात् अव वाच्यार्थ प्रधान हो और व्यंग्यार्थ प्रप्रधान,-उस काव्य को गुणीभूतव्यंग्य काव्य कहते हैं। (भ) कवि ज्ञानसागर के संस्कृत-काव्यों में गुणीभूत-व्यङ्ग्य - ध्वनि-काव्य के समान ही गुणीभूत-व्यङग्य काव्य के भी अनेक उदाहरण श्रीमानसागर के काव्यों में रष्टिगोचर होते हैं, किन्तु शोष-प्रबन्ध को और विस्तार देने की अनिच्छा से प्रत्येक काव्य का एक-एक ही उदाहरण प्रस्तुत करना ठीक रहेगा। १. श्रीसमुद्रदत्तचरित्र, ३१३.. . . २. क्योदयचम्पू: ६७ ३. (क) काव्यप्रकाश, ११५ का पूर्वाध । (ब) साहित्यदर्पण, ३।१३ का पूर्वाषं । Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि शानसागर के संस्कृत-ग्रन्थों में मावपक्ष (क) जयोग्य महाकाव्य युद्ध की तैयारी के प्रसंग में अपराग गुणीभूतव्यंग्य का उदाहरण प्रस्तुत "अश्रुनीरमधुना सकज्जलमाक्षे रिपुवधूपयोधरः। दिक्कुलं खलु रजोऽन्वितं तदुत्पातमस्य गमनेऽरयो विदुः ।।" यहां पर प्रथम-पंक्ति में करुण रस की स्पष्ट अभिव्यञ्जना हो रही है किन्तु यह अभिग्यजना वीर रस की अभिव्यञ्जना में सहायक है, इसलिए यहां पर अपराग (गुणीभूत) व्यङ्ग्य काम्य है । (ब) वोरोदय महाकाव्य भगवान् महावीर के प्रसङ्ग में प्रगूढ-गुणीभूत व्यंग्य का उदाहरण देखिए : "प्रतिवृद्धतयेव सन्निधिं समुपागन्तुमशक्यमम्बुषिम् । । अमराः करुणापरायणाः समुपानिन्युरपात्र निघणाः ॥२ यहां यह अभिव्यञ्जना निकलती है कि देवगण समुद्र के जल को सुमेरु पर्वत तक पहुंचा रहे हैं, यह अभिव्यञ्जना इतनी स्पष्ट है कि यहां ध्वनि काम्य बंसा मानन्द नहीं माता, इसलिये गुणीभूत व्यङ्ग्य काव्य है। (ग) सुदर्शनोदय भंग-देश-वर्णन के प्रसङ्ग में प्रसुन्दर गुणीभूत व्यङ्ग्य का उदाहरण प्रस्तुत "परमागमपारगामिना विविता स्यां न कदाचनाऽमुना । स्म दधाति सुपुस्तकं सदा सविशेषाध्ययनाय शारदा ॥3 ... (कहीं परमागम के पारगामी इस सुदर्शन से मैं पराजित न हो जाऊं, यह सोचकर सरस्वती विशेष प्रध्ययन के लिये हाथ में सदैव पुस्तक धारण करती है।) यहाँ पर ध्वनि निकलती है कि सुदर्शन प्रत्यन्त विद्वान् था, उसकी ग्राह्य पंक्ति प्रद्भुत थी। किन्तु यह व्यंग्यार्थ वाच्यार्थ की अपेक्षा सुन्दर नहीं है, अतः यहाँ पर प्रसुन्दरं गुरणीभूतव्यङग्य कान्य है। १. जयोदय, ७१०१ २. वीरोदय, ७२३ ३. सुदर्शनोदय; ३३१ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० महाकवि ज्ञानसागर के काव्य-एक अध्ययन (घ) श्रीसमुद्रदत्तचरित्र ग्रन्पारम्भ में अगूढगुणीभूतम्यङग्य का उदाहरण देखिए : "नाहं कविमत्थंभवो नु पस्मि सरस्वतीसंग्रहणाय तस्मिन् । ममाप्यतः काव्यपथेऽधिकार: समस्तु पित्रीननुवालचारः ॥"" (मैं कवि नहीं हूँ, मैं तो मनुष्य जन्म को धारण करने वाला साधारण प्राणी हूँ। अतः विद्याप्राप्ति के लिए मेरा भी काव्यरूपी मार्ग में अधिकार है। बालक पिता इत्यादि पूज्य व्यक्तियों का हो अनुसरण करता है ।) यहां पर यह ध्वनि स्पष्ट निकलती है कि मुझसे पूर्व अनेक कवि हो गए हैं। काव्य-रचना में मझे उन्हीं का अनुसरण करना है। इस ध्वनि की प्रत्यधिक स्पष्टता के कारण यहाँ गुरणीभूत व्यंग्य काव्य है। (5) दयोदयचम्पू - महाबल को मृत्यु के पश्चात् गुणपाल के कथन में प्रगूढ (गुणीभूत) व्यंग्य की झलक देखिए : "महो किलतदप्यस्माकं शिरस्येव वधमापतितमाभातीति । मनसि निधाय जगादस पुनरागतो न वेति ।"२ यहाँ गुणपाल के कथन से-कहीं महाबल हो तो मृत्यु को प्राप्त नहीं हो मया--यह अर्थ स्पष्टरूपेण अभिव्यञ्जित होता है । म. सारांश इस विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि श्रीज्ञानसागर ने भावपक्ष के समक्ष भेदों को अपने काव्य में प्रस्तुत किया है । उनके काव्यों के परिशीलन से ज्ञात होता है कि उनकी कविता 'नवरसरुचिरा' ही नहीं वरन् 'दशरसरुचिरा' भी है। उनके काव्यों में वर्णित अन्य नो रस शान्त रस की पुष्टि हेत ही प्रस्तुत किए गए हैं। भावों की अभिव्यञ्जना में तो कवि ने अपना अद्भुत ही कौशल दिखाया है। भक्तिभाव की अभिव्यञ्जना भी शान्त रस की अभिव्यञ्जना में सहायक है। कवि की भावाभिव्यञ्जना को देखने से स्पष्ट हो जाता है कि कवि मानव मन का सूक्ष्मता से अध्ययन कर चुके हैं। एक और निर्वद इत्यादि के द्वारा सोमवत्त के सारल्य को प्रस्तुत करते हैं, वहीं दूसरी पोर ममर्ष के द्वारा गुणपाल के हठी स्वभाव को भी प्रस्तुत करते हैं । उनकी भावाभिव्यजना ने समाज में प्राप्य सभी प्रकार के मानव-स्वभावों को हमारे सामने प्रस्तुत कर दिया है । जयोदय, वीरोदय, पोर दयोदयचम्पू को हम रसाभिव्यञ्जना एवं भावामिम्बञ्जना को रष्टि से सफल काय कह सकते हैं। किन्तु श्रीसमुद्रदत्तचरित्र में कथानकों के विशङ्खल होने के कारण रसाभिव्यञ्जना एवं भावाभिव्यञ्जमा उचित प्रकार से नहीं हो पाई है। सहव्य पाठक को यह कमी पटकती है। १. मोसमुद्रदत्तचरित्र, १११२ २. दयोदयचम्पू, पृ० सं० १०३ Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम अध्याय महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत ग्रन्थों में कलापच कला का स्वरूप और भेद प्रस्तुत शोष-प्रबन्ध के सप्तम अध्याय में बताया गया है कि काव्य के दो पक्ष होते है-भावपक्ष और कलापक्ष । भावपक्ष यदि काव्य का प्राणतत्व है तो कलापक्ष काव्य का शुङ्गार है । पब इस अध्याय में मुनि श्री के काम्यों में कलापमा पर विचार करना ही हमारा वर्ण्य-विषय है। 'कला' शब्द 'संवारना' अर्थवाली कल् पातु से कच् एवं टाप् प्रत्ययों' योग से निष्पन्न हुमा है ।' प्रतः 'कला' शब्द का शाब्दिक अर्थ है पदार्च को संवारने वाली। भनेक भारतीय एवं पावणात्य मनीषियों ने कला के विषय में अपने-अपने विचार प्रकट किए हैं। यहां उनके विचारों के साररूप में कला का स्वरूप कुछ इस प्रकार बताया जा सकता है :-किसी अमूर्त पदार्थ की सुरुचि के साथ सुन्दर एवं मूर्त रूप प्रदान करने वाली चेष्टा का नाम कला है। जब व्यक्ति इस जगत पव्यक्त सत्य की अपनी चेष्टामों से व्यक्त रूप प्रदान करता है तब वह कलाकार कहलाता है पोर उसकी चेष्टा कला । भारत के प्राचीन विद्वानों ने चौसठ कलाएं गिनायी हैं। पर पाश्चात्य विद्वानों ने कलामों को केवल दो वर्गों में विभक्त १. वामन शिवराम माप्टे, संस्कृत हिन्दी कोश, पृष्ठ संख्या २५६ २. गीतम, बाथम्, नृत्यम्, पालेश्यम्, विशेषकच्छे बम्, तण्डुलकुसुमवसिविकाराः, पुष्पास्तरणम्, दशनवसनाङ्गरागः, मणिभूमिकाकर्म, शयनरचनम्, उदकबावम्, उदकापात:, चित्राश्च योगाः, माल्यग्रबनविकल्पाः, सरकापीरयोजनम्, नेपथ्यप्रयोगाः, कर्णपत्रभङ्गा, गन्धयुक्तिः, भूषणयोजनम्, ऐनपामाः, कोचुमाराश्च योगाः, हस्तलापवम्, विचित्रशाक्यूषनयविकारक्रिया, पानकरसरानासवयोजनम्, सूचीवानकर्माणि, सूत्रक्रीम, वीणाडमकवाचानित प्रहेविका, प्रतिमासा, दुर्वाचकयोगाः, पुस्तब्वाचनम्, नाटकास्यापिका Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि मानसागर के काग्य-एक अध्ययन किया है-ललित कला पोर उपयोगी कला। ललित कलाएं हमारे जीवन को सरस बनाती हैं और उपयोगी कलाएं हमारी दैनिक प्रावश्यकताएं पूरी करती हैं। ललित कलामों में पांच प्रसिद्ध कलाएं हैं-काव्यकला, संगीतकला, चित्रकला, मूर्तिकला और वास्तुकला। इनमें काव्यकला सर्वश्रेष्ठ कला है । अपने मनोभावों को लेखनी पोर काव्यात्मक वाणी के माध्यम से सुन्दरतम अभिव्यक्ति प्रदान करना ही कामकसा है। (ख) काव्य कला के अङ्ग जिस प्रकार किसी वस्तु को सजाने-संवारने की प्रक्रिया के कई प्रङ्ग होते है, उसी प्रकार काव्य को सुन्दरतम रूप देने वाली काव्य-कला के भी कुछ मङ्ग, जो इस प्रकार हैं :-मलकार, छन्द, गुण, भाषा, शैली, वाग्वैषम्य इत्यादि। काम्य के कलाम में इन सबका ही विचार किया जाता है । काव्य में कला का अनुपात पब कोई पदार्थ दो वस्तुमों के संयोष से निर्मित होता है, तब उन वस्तुषों कासपदार्थ के निर्माण में परस्पर कितना अनुपात होना चाहिए ? यह प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण है। पुरुष जब अपने रूपरङ्ग, पद पोर प्रतिष्ठा के अनुसार हो अपना रहन-सहन बनाता है, तभी उसका व्यक्तित्व निखर पाता है और स्वास्थ्य भी ठीक रहता है। यदि व्यक्ति अपने रूपरङ्ग इत्यादि की उपेक्षा करके वेशविन्यास करता है, तब उसका व्यक्तित्व या तो व जाता है, या हास्यापर हो जाता है। बस, ऐसी ही स्थिति काम्य में कला के अनुपात को भी है । सच्ची कला वही है जो व्यक्ति के विचारों को यास्तविक अभिव्यक्ति दे सके। काम्य में भावपक्ष प्रधान होता है, इस बात को सभी साहित्यिक स्वीकार करते हैं । मतः काम्य में कला का दर्शनम्, काम्यसमस्यापूरणय, पट्टकावानवेत्रविकल्पाः, तक्षकर्माणि, तक्षणम .. वास्तुविधा, रूप्यपरीक्षा, पातुबाद: मणिरागाकरमानम्, वृक्षायुर्वेदयोगा:, मेषकुक्कुटलावकयुद्धविषिः, सुकसारिकाप्रलापनम्, उत्सादने संवाहने केशमदने पकौशलम्, प्रक्षरमुष्टिकाकपनम् । म्लेच्छितविकल्पाः, देशभाषाविज्ञानम्, पुष्पशकटिका, निमित्तमानम्, यन्त्रमातृका, धारणमातृका, सम्पाठयम्, मानसी काम्यक्रिया, अभिधानकोशः, छन्दोमानम्, क्रियाकल्पः, वैमयिकीनाम् बलितकयोगाः, वस्त्रगोपनानि, वृतविशेषः, पाकर्षक्रोग, बालक्रीडनकानि, बेजपिकोंनाम, व्यायामिकीनां च विवानां ज्ञानम्, इति चतुःषष्ठिरङ्गविवाः । -वात्स्वावन, कामसूत्रम्, ३३१५ । (चौखम्बा संसत संस्थान वाराणसी तृतीय संसरण १९८२) Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर संस्कृत-पन्नों में कलापमा उपयोग करते समय भावपक्ष की उपेक्षा नहीं की जा सकती। पब कसा जप भावों को अभिव्यक्त करने में सहायिका होती है, तब वह प्रशंसनीय होती है, पन्यथा भावपक्ष की उपेक्षा करके किया गया कला का प्रयोग सहयों द्वारा स्वीकरणीय नहीं हो सकता। काव्य का प्रमुख प्रयोजन है-शीघ्र मानन्द की प्राप्ति । भावपक्ष के प्राबल्य से प्राप्त इस मानन्द की अभिव्यक्ति करने में बता की जितनी मात्रा अपेक्षित है, कवि को उतनी ही मात्रा में इसका उपयोग करना चाहिए। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि कला भावपक्ष के बराबर या उससे ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है, उसका महत्व भावपक्ष से कम ही है । कलापक्ष के समी भेदों का प्रयोग किये बिना भी सहृदय को काव्य में प्रानन्द की प्राप्ति हो सकती है। प्रतः काव्यप्रणयन के समय कवि को यह ध्यान रखना चाहिए कि कला भावपक्ष की साषिका के रूप में ही पाये । वैसे कला का साधिका का यह रूप भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। (घ) महाकवि ज्ञानसागर के काव्यों में कलापक्ष काव्य कला का स्वरूप निर्धारित करने के पश्चात हमारा वर्ण्य विषय है कि कविवर धीज्ञानसागर ने अपने काव्यों में कला-निरूपण किस सीमा तक किया है एवं उसके किन-किन अंगों का प्रयोग किया है ? प्रतः प्रब प्रस्तुत है भीमानसागर द्वारा प्रयुक्त काम्य-कला के मङ्ग: (प) प्रलार अमवार शब्द 'प्रलम्' उपसर्ग पूर्वक कृ धातु से घन प्रत्यय के योग से निर्मित हमा है । इस शब्द का तात्पर्य है-सजाने का उपकरण । काव्यशास्त्रीय दृष्टि से मलकार की परिभाषा इस प्रकार दी जा सकती है-कविता-कामिनी को ससम्बित करने वाले अनुप्रास-उपमादि उपकरणों को पलङ्कार कहा जाता है। स्त्री-पुरुष पावश्यकतानुसार ही अपने सौन्दर्य की अभिवृद्धि के लिए अलंकारों का प्रयोग करते है। किसी-किसी को तो इनको धारण करने की आवश्यकता भी नही होती। यदि कोई अनावश्यक रूप से प्राभूषणों को धारण करता है तो वे भूषण के स्थान पर दूषण का रूप ले लेते हैं और उपहास का पात्र बना देते हैं । काम्य में भी प्रसहारों की स्थिति बहुत कुछ ऐसी ही हैं। जब तक ये अलङ्कार काम्य से प्राप्य भावना में पाषा नहीं पहुंचाते तब तक इनका प्रयोग उचित लगता है, किन्तु वहाँ सहाय को अलङ्कारों की भरमार के कारण काव्य के रसास्वाद में बाबा होने लगती है। वहीं ये अनाकार रुचिकर लगने के स्थान पर बोझ लगने लगते हैं। कहीं-कही Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि भानसागर के काम-एसपन काम्यों में इनकी उपस्थिति के प्रभाव में भी मानन्द प्राप्त हो जाता है, मनः ये काव्य के लिए बहुत महत्वपूर्ण न होकर कवि के कौशल के परिचायक ही है। भारतीय-काव्य-शास्त्रियों को भी अलङ्कारों के विषय में ऐसी धारणा है।' हमारे पामोच्य महाकवि भानसागर ने अपनी कविता-कामिनी को सबाने में अनेक अलङ्कारों का प्रयोग किया है। उनके काम्यों के प्रायः सभी. मोक अलंकत हैं। उनके काम्यों का परिशीलन करने से ज्ञात होता है कि उन्होंने अनुप्रास, यमक, श्लेष, उपमा, उपमेयोपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, प्रपह्नति, प्रतिसयोक्ति, तुल्ययोगिता, प्रतिवस्तूपमा, दृष्टान्त, निदर्शना, अर्थान्तरन्यास, समन्वय, परिसंख्या, व्यतिरेक, मतिदेश, उल्लेख, समासोक्ति, भन्योक्ति, तद्गुण, स्वभावोक्ति, प्रप्रस्तुतप्रशंसा, प्रसङ्गति, प्रतीप, ययासंख्य, दीपक, विभावना, एकावली, पुनरुक्तववाभास इत्यादि भनेक प्रमङ कारों का प्रयोग किया है। किन्तु अनुप्रास, यमक, उपमा, उत्प्रेक्षा और अपनुति-उनके विशेष रूप से प्रिय प्रलाकार हैं। अब उनके काव्यों में प्रयुक्त मुख्य-मुख्य अलङ्कारों के उदाहरण प्रस्तुत हैं। सर्वप्रथम प्रस्तुत है, बन्दालङ्कारों में अग्रगण्य अनुप्रास :-- मनुप्रास :-- 'मनुप्रासः शब्दसाम्यं वैषम्पेऽपि स्वरस्य यत् ।' (साहित्य-दर्पण, १०॥३) श्रीमानसागर ने अनुप्रास के छेकानुप्रास, वृत्त्यनुप्रास इत्यादि सभी भेदों का प्रयोग अपने काव्यों में किया है । अन्त्यानुप्रास अस्मदालोच्य कवि की सबसे बड़ी विशेषता है । काव्यों के कुछ अंशों को छोड़कर कवि ने अन्त्यानुप्रास का प्रयोग करने का स्तुत्य प्रयास किया है । निम्नलिखित श्लोक में वृत्त्यनुप्रास भोर अन्त्यानुप्रास की मिली-जुली छटा का अवलोकन कीजिए :-- . "सपदि विभातो जातो प्रातर्भवभयहरणविभामः। • शिवसदनं मृदुवदनं स्पष्टं विश्वपितुर्जिनसवितुस्ते ॥" ८.१० यहां पर क्रमश: 'तो' वर्ण की तीन वार 'भ' वर्ण की दो बार, दन' वर्णसमूह की दो बार मोर 'तू' वर्ण को दो वार मावृत्ति हुई है। साथ ही प्रथम पंक्ति का मन्त्यावर 'ते' दूसरी पंक्ति में भी पावृत्त हुमा है। मव देखिए लाटानुप्रास का उदाहरण "मनोरमाधिपत्वेन स्याताय तरुणायते। मनो रमाधिपत्वेन स्याताय तरुणायते ॥" -सुदर्शनोदय, ॥२॥ १. (क) काव्यप्रकाश, 10 (ब) साहित्यदर्पण, ११ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'महाकवि -ज्ञानसागर के संस्कृत-प्रन्थों में कलापक्ष १५ ( हे रानी ! मनोरमा के पति रूप में प्रसिद्ध उस युवक (सुदर्शन) को तुम्हारा मन लक्ष्मी के अधिपति के रूप में विख्यात करने के लिए युवावस्था धारण कर रहा है ।) प्रस्तुत श्लोक में प्रथम पंक्ति की प्रावृत्ति द्वितीय पंक्ति में हुई है। दोनों पंक्तियों में तात्पर्य का भेद होने के कारण लाटानुप्रास है । afa के प्रिय अलङ्कार अन्त्यानुप्रास की भी एक झलक देख लीजिए" हे नाथ मे नाथ मनाविकारः, चेतस्युतकान्ततया विचारः । शत्रुश्च मित्रं च न कोऽपि लोके, हृष्यज्जनोऽज्ञो निपतेच्च शोके ॥ लोके लोकः स्वार्थ भावेन मित्रम् नोचेच्छत्रुः सम्भवेन्नात्र चित्रम् । राशी माता मह्यमस्तूक्तकेतुः, रुष्टः श्रीमान् प्रातिकूल्यं हि हेतुः ॥" सुदर्शनोदय, ८।१५-१६ यहाँ प्रथम पङ्क्ति के अन्तिम प्रक्षर की प्रावृत्ति दूसरी पङ्क्ति के अन्त में ष्टिगोचर हो रही है, इसलिए अन्त्यानुप्रास है । यमक - श्रर्थे सत्यर्थं भिन्नानां वर्णानां सा पुनः श्रुतिः । यमकम्... 11 - ( काव्यप्रकाश, ६८३) श्रीज्ञानसागर के काव्यों के परिशीलन से यमक के अनेक प्रकार के भेदों तथा प्रभेदों का प्रयोग उदाहरण प्रस्तुत हैं धारा यमक ज्ञात होता है कि उन्होंने किया है, जिनके कतिपय "विपल्लवानामिह सम्भवोऽपि न विपल्लवानामुत शाखिनामपि । सदा रमन्तेऽस्य विहाय नम्बनं सवारमन्ते रुचितस्ततः सुराः ।। " -जयोदय २४|५५ प्रस्तुत पद्म में प्रथम पाद के प्रादिभाग की, द्वितीयपाद के प्रादिभाग में प्रोर तृतीय पाद के प्रादिभाग की चतुर्थपाद के प्रादिभाग में प्रावृत्ति होने के कारण एकदेशज प्राय यमक है ।" १. (क) “पादं द्विधा वा त्रिधा विभज्य तत्रैकदेशजं कुर्यात् । प्रावर्तयेत्तमंशं तत्राम्यत्राति वा भूयः ॥" - रुद्रटकृत काव्यालंकारः ३।२० Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि शानसागर के काम-एक अध्ययन "समाश्रिता मानवताऽस्तु तेन समाश्रिता मानवतास्तु तेन । पूज्येषथा मानवता बनेन समुत्थसामा नवताऽप्यनेन ॥" -वीरोदय, १७॥१२ इस श्लोक में प्रथम चरण की मात्ति द्वितीय चरण में की गई है। प्रतः :मुख-यमक' है।' इसी श्लोक के प्रथम चरण का मध्य भाग दूसरे चरणों के मध्य भानों में मावृत्त हुमा है, अतः यह एकवेशज मध्य-यमक भी है। पुग्म-यमक(क) "पुण्याहवाचनपरा समुदकसारा पुण्याहवाचनपरासमुदकंसारा। पाशासिता सुरमिता नवकोतुकेन बाशासितासुरभितानसकौतुकेन ।" _ -जयोदय, १८१६८ (ख) "सा काममुत्सङ्गातापि तेन सा काममुत्सङ्गकताऽपि तेन । बाञ्छामि वालेऽन्तलतामनोहं वाञ्छामि वालेन्तलतामवोत्रम् ॥" -जयोदय, १७१२५ उपर्युक्त दोनों इलोकों में प्रथम चरण की भावत्ति द्वितीय चरण में पोर तृतीय चरण की पावृत्ति चतुर्थ चरण में होने के कारण 'युग्म-यमक' है।' पुग्छ यमक "तमन्यचेतस्कमवेत्य तस्य सङ्कल्पतोऽनन्यमना बयस्पः । समाह सद्य: कपिलक्षणेन समाह सबः कपिलः क्षणेन ।। -सुदर्शनोदय, (ख) शिषा विभक्ते पादे प्रथमादिपादाविभागः पूर्ववत् द्वितीयादिपावादि भागेषु....... ... .. -काव्यप्रकाश, ६ कारिका ८३ के उत्तराध का द्वितीय व्याख्या मान । १. 'पर्यायेणान्येषामावृत्तानां सहादिपादेन। मुखसंबंशावृत्तयः क्रमेण यमकानि . जायन्ते ॥ --रुद्रटात काम्बाकार, २. वही, ३।२० ३. "परिवृत्तिर्नाम भवेवमकं गर्मावृत्तिप्रयोगेण । मुगपुच्छयोश्च योगाद युग्मकमिति पावजं नवमम् ॥" -रुद्रटकत काम्याबङ्कार, ३१ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि भानसागर के संस्कृत-प्रन्थों में कलापन प्रस्तुत श्लोक में तृतीय चरण चतुर्थ परण के रूप में पावृत्त हुमा है, इसलिए यह पुच्च-यमक है।' एकदेशन अन्त्य यमक "महो किमाश्लेषि मनोरमायां स्वयाऽनुरूपेण मनोरमायाम् । जहासि मत्तोऽपि न किन्नु मायां विदेति मेऽस्यर्थमकिन्नु मायाम् ॥" -सुदर्शनोदय, ११३८ स्पष्ट है कि प्रस्तुत श्लोक में प्रथम चरण के अन्त्य भाग की द्वितीय परण के अन्त्य भाग में पोर तुतीय चरण के अन्त्य भाग की चतुर्थ परण के अन्त्य भाष में पावृत्ति होने के कारण अन्त्य यमक है। श्लेषलिष्टः पदैरनेका भिषाने मेष इष्यते ।" (साहित्यदर्पण, १०१२) कविवर ज्ञानसागर ने श्लेष प्रसार का स्वतन्त्र रूप से भी प्रयोग किया हैं, और अन्य मलकारों के सहायक के रूप में भी। यहां कुछ ऐसे वर्णन प्रस्तुत है, जिनमें श्लेष की सत्ता स्वतन्त्र है। सर्वप्रथम शीतकाल-वर्णन में श्लेष की चटा देखिए (क) “शामिषु विपल्लवत्वमर्थतत् सङ्कुचितत्वं खलु मित्रेऽतः । शत्यमुपेत्य सदा चरणेषु कलहमिते हिषगणेऽत्र मे शुक् ॥" . -वीरोदय, en (इस श्लोक के दो प्रथं निकलते हैं-एक शीतकाल के पक्ष में मोर दसरा मापकाल में पक्ष में । श्लोक का प्रथम प्रथं इस प्रकार है-शीतकाल को प्राप्त करके वृक्षों का पत्तों से रहित हो जाना, दिन का छोटा होना, परों का ठिठुरना पौर संतों का किटकिटाना मेरे लिए शोक का कारण है ।लोक का द्वितीय मयं इस प्रकार है-कुटुम्बीजनों का विपत्तिग्रस्त होना, मित्र का संकुचित एवं उदासीनतामय व्यवहार, सदाचरण में षिल्य पोर ब्राह्मणों में कलह होना मेरे लिए शोचनीय है।) १. "अन्योन्यं पश्चिमयोरावृत्त्या पादयोभवेत्पुन्छः ।"... -वही, 10 का पूर्वार्द। २. "पा शिषा मा विषा विभज्य तत्रकोशणं कुर्याद । पावर्तयेत्तमंशं तत्रान्यत्रापि वा भूयः ॥" .. -वही, ३४२० Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक में प्रायः प्रत्येक पद पर्षक है । स्पष्ट है कि यहां श्लेषालङ्कार है। (ख) "पदध वाऽसापि जिनार्चनायामपूर्वस्पेण मयेत्यपापात् । मनोरमायाति ममाकुलत्वं तदेव गत्वा सहवाश्रयत्वम् ॥" -सुदर्शनोदय, ३।३७ (सुदर्शन अपनी उदासी का कारण मित्रों को बता रहा है । उसके कथन में प्रथम मयं इस प्रकार है :-हे मित्रो, माज जिनपूजा के समय मेरे द्वारा अपूर्व रूप से पालाप लिया गया। पालाप जन्य पकान के कारण ही मेरा मन व्याकुल होगा है। श्लोक का दूसरा अर्थ है-हे मित्रो ! माज जिनार्चना के समय मेरे द्वारा जिस बाला को देखा गया है, उस बाला के सुन्दर रूप के कारण ही भेरा मन व्याकुल है।) प्रस्तुत श्लोक में 'वाऽऽलापि' पोर 'पपूर्वरूपेण' ये दोनों पद स्पर्षक हैं । समा'उपमा पत्र सारयलक्ष्मीमल्लखति न्योः।' -कुवलयानन्द, ६ उपमा प्रलबारसम्राशी है। उसके सम्राज्ञी पद को मुनि श्रीज्ञानसागर ने प्रत्यषिक सम्मान दिया है । प्राकृतिक पदापों, नगरों और युद्ध के वर्णन के समय उन्होंने उपमानों का खूब प्रयोग किया है। यह अलङ्कार कवि को इतना अच्छा नपता है कि उसने ज्ञान, वैराग्य पौर दर्शन की चर्चा करते समय भी इसका प्रयोग किया है। हमारे कवि अपने काव्यों में कभी श्लिष्ट उपमानों का प्रयोग करते . है.मोर कभी मानोपमामों की झड़ी लगा देते हैं। लीजिए, प्रस्तुत हैं उनके काव्यों को उपमानों के कुछ उदाहरण "जयः प्रचकाम विनेश्वरालयं नयापानः सदशा समन्वितः । महाप्रभावग्छविरुन्नतावर्षि वा समेस्त्रभयान्वितो रविः ॥" -चयोदय, २४१६. (नीतिज्ञ जयकुमार ने सुलोचना के साथ अत्यन्त प्रभावपूर्ण पोर बेष्ठ शोमा पाले जिनमन्दिर की परिक्रमा की, जैसे कि कान्तियुक्त सूर्य प्रत्यन्त प्रभावशाली पौर उन्नत सुमेरु पर्वत की परिक्रमा करता है ।) प्रस्तुत श्लोक में जयकुमार और सुलोचना उपमेय हैं और सूर्य तथा सूर्य की प्रभा उपमान है । इसी प्रकार जिनेश्वरालय उपमेय भोर समेरु पर्वत उपमान हैं। महाप्रभावचबिरुग्नतावपिम्' यह साधारण धर्म है । 'या' शब्द उपमा का वाचक है। बतएव यहाँ पूर्णोपमा है। Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महामासागर के संस्कृत-मन्त्रों में कलापन संसार की परिवर्तनशीलता के सम्बन्ध में कविको रुपमा देखिए"किमु भवेहिपदामपि सम्पदा भुवि शुचापि रुचापि जगत्सदा । करतलाहतकन्दुकवत्पुनः पतनमुत्पतनं च समस्तु नः ॥" -जयोदय, २५॥१. (इस संसार में कभी विपत्ति पोर कभी सम्पत्ति का पावागमन होता रहता है। यह संसार शोक मोर प्रसन्नता से युक्त रहता है । जिस प्रकार हाथ से मापात करने पर गेंद उठती भोर गिरती है उसी प्रकार संसार में भी भाग्यवशाद पतन पोर उत्थान होता रहता है।) प्रस्तुत श्लोक में गेंद के गिरने उठने से संसार के पतन पोर उत्थान की सुन्दर उपमा दी गई है। गेंद उपमान है और भाग्य उपमेय । पतन-उत्थान साधारण पर्म हैं। 'बत्' शब्द उपमावाचक है । प्रब कषि को एक ग्लिष्ट उपमा प्रस्तुत है"सालद्वारा सुवर्णा च सरसा चानुगामिनी। कामिनीव कृतिलॊके कस्य नो कामसिद्धये ।।" -जयोदय, २६६२ (इस लोक में उपमादि मलङ्कारों से सुसज्जित, सुन्दर वर्ण-विन्यास वामी, शुङ्गारादि रसोपेत, छन्दोबद्ध कवि की कृति, कुण्डल हारादि मलङ्कारों से सुशोभित, पच्छे रङ्ग पाली, सरस चेष्टामों वाली, पति को अनुगामिनी के समान किसकी बांधा पूरी नहीं करतो?) प्रस्तत श्लोक में कविकृति उपमेय मोर कामिनी उपमान है। सासारा, सुवर्णा, सरसा पोर भनुगामिनी इत्यादि विशेषण कविकृति भोर कामिनी. दोनों के पक्ष में श्लेष के माध्यम से प्रयुक्त किये गए हैं। 'इव' उपमा वाचक क्षम है। रानी प्रियकारिणी के वर्णन में कवि को मालोपमा देखिये"त्येव धर्मस्य महानुभावा शान्तिस्तथाभूतपसः सदा वा। पुण्वस्य कल्याणपरम्परेवाऽसो तत्पदापीनसमर्थसेवा ॥" -वीरोदय, ३१६ (उतार मावों वाली वह रानी धर्म की दया के समान, तप की क्षमा समान, पुण्य की कल्याण परम्परा के समान राजा के चरणों में रहती हुई उसकी पूर्ण सामर्दी से सेवा करती थी।) . प्रस्तुत श्लोक में दवा क्षमा मोर कल्याणपरम्परा रानी के उपमान रूप में प्रस्तुत किये गये है, इसलिए यहाँ पर मालोपमा प्रसार है। Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० महाकवि ज्ञानसागर के काम-एक अध्ययन सुदर्शन की बाल्यकालीन चेष्टा में उपमा देखिये* "गुरुमाप्य स वै क्षमाषरं सुदिशो मातुरचोदयन्नरम् । भुवि पूज्यतया रवियंपा नष्णम्भोजमुदेऽब्रवत्तथा ।" -सुदर्शनोदय, २२० (जब सुदर्शन अपनी सुकृतकारिणी माता की गोद से उठकर पिता के पास पातापा, तब लोगों के नयनकमलों को खिलाता हुमा वह सबके पावर का पात्र बन पाता था। उस समय उसकी शोभा वैसी ही होती थी, बेटे सूर्य पूर्व दिशारूप माला को छोड़कर उदयाचलरूप पिता के समीप जाकर सरोवरों के कमलों को विकसित करता हुमा संसार में सबके लिए पूज्य हो जाता है।) प्रस्तुत श्लोक में सुदर्शन, उसकी माता, उसके पिता और नेत्र रूपी कमल उपमेय है। पौर सूर्य, पूर्वदिशा, उदयाचल सरोवर के कमल उपमान है। सबंबपता साधारण धर्म है । 'यया' पब रुपमा-बाधक है। चक्रायुष और उसकी रानियों के सम्बन्ध में कवि की उदभावना प्रष्टव्य है "युवाऽगहीद्वारिनिः समस्ता बभूवुरेताः सुरसाः समस्ताः ।. सा चित्रमाला बलु तास गङ्गापदुत्तमा स्फीतिपरी सदंगात ॥" -श्रीसमुद्रदत्तचरित्र, २० (समुद्र के समान युवक चकायुष ने उत्तम जल को धारण करने वाली नदियों के समान, उत्तम चेष्टामों को धारण करने वाली अनेक स्त्रियों के साथ विवाह किया। जिस प्रकार नदियों में गङ्गा सर्वश्रेष्ठ है, उसी प्रकार उन रानियों में चित्रमाला नामकी रानी अपूर्व सोनार्यशालिनी पोर श्रेष्ठ थी।) प्रस्तुत श्लोक में चक्रायुष, चित्रमाला एवं अन्य स्त्रियाँ उपमेय हैं एवं सनुन, मङ्गा और अन्य नदियां उपमान हैं। 'सुरसाः', 'उपमाः' और 'सदंगात्स्फीतिधरी' साधारण धर्म है । 'वत्' शब्द उपमावाचक है। मालवदेश वर्णन में कवि द्वारा प्रयुक्त श्लिष्टोपमा का एक उदाहरण प्रस्तुत है "............सुप्रसिखो मालवनाम देशः स पानेककल्पपावपसन्निवेशतया ममिवाप्सरःपरिवेषतया पकिसापरस्वर्गप्रदेश इव समवभासते ॥" -दयोत्यवम्यू, १॥ श्लोक के बाद का गवभाग । . (पनेक प्रकार के वृक्षों से युक्त और स्वच्छ जल वाले तालाबों से युक्त यह सुप्रसिद्ध मालव नाम का देश, अनेक कल्पक्षों से युक्त, सुन्दर अप्सरामों से परिवेष्टित स्वर्ग के समान प्रतीत होता है।) प्रस्तुत पवभाग में मालवदेश उपमेय पोर स्वर्ग उपमान है। 'मनेककल्प. पारपसन्निवेषतया' पोर मलिताप्सरःपरिवेषतया' श्मे माध्यम से साधारण वर्म ।'' उपमावाचक शब्द है।। Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि मालसागर के संस्कृत ग्रन्थों में कलापक्ष ३२१ वैसे तो कवि ने अपनी कृतियों में पोर भी अनेक सुन्दर-सुन्दर उपमाएं प्रयुक्त को हैं, किन्तु उन सबको उक्त करना और उनका स्पष्टीकरण करना सोपप्रबन्ध की वृद्धि के भय से यहां पर संभव नहीं, फिर उपमा के उपर्युक्त उदाहरण कवि की उपमाप्रियता के द्योतक हैं हो। प्रतः अब अन्य अलङ्कारों के उदाहरण प्रस्तुत किये जायेंगे। उत्प्रेक्षा'सम्भावना स्यादुत्प्रेक्षा ।' -कुवलयानन्द, ३२ कवि द्वारा प्रयुक्त प्रर्यालङ्कारों में उत्प्रेक्षा मलद्वार का द्वितीय स्थान है । कवि के काम्यों के परिशीलन से लगता है कि उसके काम्यों में मात्रा को दृष्टि से भले ही उपमा का स्थान हो, किन्तु चमत्कार को रष्टि से उत्प्रेक्षा ही अलकारों में सर्वोपरि है । प्रस्तुत हैं, उत्प्रेक्षा के कुछ उदाहरण- सुलोचना के सुन्दर हाव के सम्बन्ध में कवि की उद्भावना देखिये "समुत्कीर्य करावस्या विधिना विधिवेदिना। तच्छेषांक्षः कृतान्येवं परजानीति सिध्यति ।" -जयोदय, २४५ (सुलोचना के हाथों को देखकर यह सिद्ध हो जाता है कि विधाता मे सुलोचना के हावों का निर्माण करने से बची हुई सामग्री से ही कमलों की रचना की है।) उत्प्रेक्षा के माध्यम से सायंकाल की शोभा का अवलोकन कीजिए-- 'वेरको बिम्बमितोऽस्तगामि उदेष्यवेतन्यशिनोऽपि नामि।। समस्ति पाग्येषु रुषाः निषिक्तं रतीश्वरस्याक्षियुगं हि रक्तम् ॥" -जयोदय, १५३१० (सब सूर्य का बिम्ब अस्ताचलगामी हो रहा था और चनमा उसब होने पा रहा पा । पस्त होता हुपा सूर्य और उदित होता हुमा पनामा-ये दोनों ऐसे लगते मानों पविक बनों पर रोष के कारण लालिमा को प्राप्त कामदेव के नेत्र ही हों।) मस्त होते हुये सूर्य को सालिमा और उदित होते हुये चनामा को नानिमा को ध्यान में रखकर कवि ने उक्त हेतप्रेमा की है। कामदेव के नेत्रों को सपना के उपमानस्स में प्रस्तुत कर दिया है। राजा सिद्धार्थ की समृद्धिमालिता और यशस्विता के सम्बन्ध में कवि की उस्प्रेक्षा देखिये Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य --- एक अध्ययन "हे तात जानूचितलम्बबाहोर्नाङ्ग विमुञ्चेत्तनुजा तवाहो । सभास्वपीत्थं गदित नपस्य कीर्तिः समृद्रान्तमवाप तस्य ।।" -बीरोदय, ३।११ (समुद्र को सम्बोधित करते हुये कवि कहते हैं कि तुम्हारी पुत्री लक्ष्मी घुटनों तक लम्बी भुजाओं वाले राजा सिद्धार्थ के शरीर का प्रालिङ्गन करना सभामों में भी नहीं छोड़ती, उसके इसी व्यवहार को बताने के लिए ही मानों उस राजा की कीत्ति समुद्र तक पहुंच गई है।) ___ राजा सिद्धार्थ का यश समुद्रपर्यन्त फैल गया है, यह सूचित करने के लिए कवि ने उक्त उत्प्रेक्षा की है। बालक सुदर्शन को बालचेष्टा के सम्बन्ध में कवि की उत्प्रेक्षा प्रस्तुत है "मुहरुलिनापदेशतस्त्वतिपोतस्तनजन्मनोऽन्वतः ।। अभितोऽपि भुवस्तलं यशः पयसाऽलकृतवान्निजेन सः ।।" : -सुदर्शनोदय, ३॥१८ . (मावश्यकता से अधिक दूध पी लेने पर · जब सुदर्शन बार-बार उसको इधर-उधर उगलता था, तो ऐसा लगता था मानों वह पृथ्वी तल को अपने यशोरूप दूध से दोनों भोर अलङ्कृत कर रहा हो।) प्रस्तुत श्लोक में बालक को स्वाभाविक चेष्टा को यशः प्रसारण के रूप में क्या ही सन्दर सम्भावना की गई है। हेतूत्प्रेक्षा का एक और उदाहरण प्रस्तुत है "अहो प्रकटमगि तनयरत्नमपह्रियतेऽमुष्मिन्भूतले घूर्तजनेन । कथं पुनर्मये होडुरत्नानि विकीर्य स्थातुं पार्यतेति किल तान्युपसंहृत्य कुतोऽपिच्छन्नीभवितुं पलायाञ्चक्रे रजनी।" -दयोदयचम्पू, ३। श्लोक ७ के बाद का गद्यांश (बड़े आश्चर्य की बात है कि पृथ्वी तल पर धूर्तजनों के द्वारा प्रकट भी पुत्र रूप रत्न का अपहरण किया जा रहा है, फिर नक्षत्र रूप रत्नों को फैला कर मेरे द्वारा निश्चिन्तता से कैसे बैठा जाय, मानों यही सोचकर उन सवको एकत्रित करके रात्रि भी कहीं छिपने के लिए चली गई।) रात्रिकाल व्यतीत हो जाने पर नक्षत्र गण दृष्टिपथ में नहीं पाते, यह प्रकृति का शाश्वत नियम है। किन्तु यहाँ पर कवि ने उस नियम को रात्रिगमन पौर नक्षत्रलोप के रूप में हेतुपूर्वक सम्भावित करके पाठकों के हृदय को भलीभांति चमत्कृत कर दिया है। रूपक 'तएकमभेदो य उपमानोपमेययोः। । -काव्यप्रकाश, २०६३ Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-ग्रन्थों में कलापक्ष ३२३ सर्वप्रथम मापके समक्ष कवि द्वारा वरिणत साङ्गरूपक का एक उदाहरण प्रस्तुत है "बका: पताकाः करिणोऽम्बुवाहाः शरा मयूरास्तडितोऽसिका हा । ढक्कानिनादस्तनितानुवादः सुधीरणं वर्षणमुज्जगाद ॥" -जयोदय, ८१६३ ____ जयकुमार पौर अर्ककीति के युद्ध का वर्णन है। यहां पर कवि ने युद्ध पर पर्वाकाल का प्रारोप किया है। पताकारूपी बगुले हैं, गजरूपी बादल हैं, वाण रूपी मयूर हैं, तलवाररूपी बिजली है पोर नगाड़ों की ध्वनिरूपी बादलों की मड़गड़ाहट है, इस प्रकार से युद्धरूपी वर्षाकाल है। प्रस्तुत श्लोक में ध्वजों, हाथियों, बारणों, तलवारों पोर नगाड़ों की प्रावाज का क्रमशः बगुलों, बादलों, मोरों, बिजली और बादलों की गर्जना से प्रभेद स्थापित करने के कारण रूपक अलङ्कार है। प्रब देखिये वसन्तत वर्णन के प्रसङ्ग में रूपक का एक उदाहरण. "मुकलपाणिपुटेन रजोऽब्जिनी हशि ददाति रुचाऽम्बुजजिद्दृशाम् । स्पलपयोजवने स्मरघूत्तंराड्ढरति तब्दयद्रविणं रसाद ॥" -वीरोदय, ६।३४ (गुलाब और कमल के पुष्पों वाले उस वन में अपनी शोभा से कमल को जीतने वाली स्त्रियों के नेत्रों में अपने मुकलित हस्त के दोने से कमलिनी पुष्पपराग रूपी धूलि डाल रही है और कामदेव रूपी धूर्तराज अवसर पाते ही उनके हृदय रूपी धन को चुरा रहा है) प्रस्तुत श्लोक में मुकुलपुट, पराग, कामदेव और हृदय का क्रमशः हाथ के दोने, धूल, धूर्तराज और धन से अभेद स्थापित किया गया है, इसलिए रूपक प्रलहार है। रूपक का एक अन्य उदाहरण प्रस्तुत है-- "ननु जरा पृतना यमभूपतेर्मम समीपमुपाश्चितुमीहते । बहुगदाधिकृतह तदग्रतः शुचिनिशानमुदेति प्रदो वत ॥" -श्रीसमुद्रदत्तचरित्र, २ (अपने शिर पर सफेद बाल देखकर राबा चक्रायुध सोचता है कि अब पवश्य ही मेरे समीप यमरूपी राजा की वृद्धावस्थारूपी सेना, रोगरूपी गदामों को धारण करके प्राना चाहती है। इसलिए श्वेत केशरूपी उसका चिह्न पहले से उदित हो गया है।) प्रस्तुत श्लोक में वृद्धावस्था, यमराज, रोग और श्वेत केश का क्रमशः सेना, राजा, गदा और चिह्न से अभेद स्थापित करने के कारण साङ्गरूपक Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ प्रतुति - महाकवि ज्ञानसागर के काव्य- एक प्रध्ययन " प्रकृतं यन्निषिध्यान्यत्साध्यते सा त्वपह्नुतिः ॥ " - काव्यप्रकाश, १०१६६ कविवर ज्ञानसागर द्वारा अपहनुनियाँ भी कम चमत्कारिणी नहीं हैं । लीजिए, प्रस्तुत हैं उनकी कुछ सुन्दर प्रपह्नुतियाँ - सुलोचना के सौन्दर्य की प्रशंसा करते हुये जयकुमार कहते हैं " जातं जिवं मुखेन तव सुकेशि साम्प्रतमसुखेन । मूर्ध्नि मिलिन्दावलिच्छलेन कृपारणपुत्रीं क्षिपदिव तेन ।। " देखिये- —जयोदय, १४।४७ ( हे सुन्दर बालों वाली ! तुम्हारे मुख के द्वारा कीचड़ में उत्पन्न कमल जीत लिया गया है । इसीलिए दुःखी होकर वह इस समय तुम्हारे सिर पर धुंघराले की पङ्क्ति के बहाने से मानों तलवार का प्रयोग कर रहा है ।) प्रस्तुत श्लोक में सुलोचना के सिर पर विद्यमान घुंघराले बालों का निषेध करके वहाँ पर तलवार का स्थापन किया गया है, इसलिए प्रपह्नुति अलङ्कार है । अब शरत्कालीन प्राकाश-वर्णन में प्रपनुति का सुन्दर प्रयोग देखिये"तारापदेशान्मणिमुष्टिवारात्प्रतारयन्ती विगताधिकारा । सोमं शरत्तम्मुखमीक्षमाणा रुषेयं वर्षा तु कृतप्रयाणा ॥ " -- वीरोदय, २२।१ ( चन्द्रमा को शरद ऋतु के सम्मुख देखती हुई अपने अधिकार से वंचित वर्षा ऋतु मानों रुष्ट होकर तारों के बहाने से मुट्ठी में भरी हुई मणियों को फेंक कर प्रतारणा करती हुई चली गई ।) 1 वर्षाकाल में प्राकाश मेघाच्छन्न रहता है, उस समय चन्द्रमा या तारे कोई भी वस्तु नहीं दिखाई देती । शरत्काल में प्राकाश स्वच्छ हो जाता है, प्रत: तब प्रकाश में चन्द्रमा श्रोर तारे दिखाई देते हैं । कवि ने इस प्रस्तुत वात का निषेध करके अब तक चन्द्रमा वर्षा के अधिकार में था और तारे उसकी मुट्ठी में थे, किन्तु शरत्काल के आने से चन्द्रमा वर्षा के अधिकार में न रहा, तब क्रोध में प्राकर तारों के बहाने से मुट्ठी में भरी मणियों को भी उसने फेंक दिया- इस प्रप्रस्तुत का विधान किया है। तारों के स्थान पर मणियों का स्थापन होने के कारण अपह्नुति अलङ्कार है । राजा अपराजित द्वारा ऋषि की पूजा में बरिणत प्रपहनुति का चमत्कार Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-प्रन्थों में कलापक्ष ३२३ "समुद्गमद्भगभरावदेशापात्तपापोन्वयसम्विलोपी। यस्म किलारामबरेण हर्षवारेण पुष्पाञ्जनिरपितोऽपि ॥" -श्रीसमुद्रदत्तचरित्र, ६.३२ (जब उन ऋषिराज के लिए उस श्रेष्ठ उद्यान द्वारा हर्षित होकर पुष्पाअलि अर्पित की गई, तब मँडराते हुये भ्रमरसमूह के बहाने उस बगीचे पूर्वोपाजित पाप के अंश भी विलीन होने लगे।) प्रस्तुत श्लोक में पुष्पों के साथ ही रहने वाले भ्रमर उद्यान में इधरउपर मंडरा रहे थे, इस प्रकृत वस्तु का निषेध करके-कवि ने--पापसमूह विलीन हो रहा पा-इस मप्रस्तुत वस्तु का स्थापन किया है, इसलिए यहाँ पर अपनुति प्रसङ्कार है। अर्थान्तरन्यास "सामान्यं वा विशेषो वा तदन्येन समयते । यत्तु सोऽर्थान्तरन्यासः साधम्र्येणेतरेण वा ॥" --काव्यप्रकाश, १०1१०६ श्रीज्ञानसागर को जब भी कुछ तथ्य प्रस्तुत करना होता है, तब वह इसी अलङ्कार का अवलम्बन ले लेते हैं। किसी व्यक्ति की निन्दा करने में, स्तुति करने में, उपदेश देने में मोर विनम्र निवेदन करने में इस अलङ्कार के सुन्दर-सुन्दर प्रयोग कवि के काव्यों में दृष्टिगोचर होते हैं। सम्राट् भरत की प्रशंसा में प्रर्थान्तरन्यास का उदाहरण देखिये "शुचिरिहास्मदधीद्धरणीधर ! सति पुनस्त्वयि कोऽयमुपद्रवः । तपति भूमितले तपने तमः परिहती किमु दीपपरिश्रमः ।।" -दयोदय; ७३ (सुमुख नामक दूत सम्राट् भरत से कहता है-हे सम्राट् जब पापका शासन है, तब (मर्ककीति की दुश्चेष्टा रूप) यह उपद्रव कैसा ? अन्धकार को नष्ट करने वाले सूर्य के इस परातल पर तपते समय दीपक का परिश्रम व्यर्थ है।) यहाँ प्रथम-पंक्ति में वरिणत विशेष का द्वितीय पंक्ति में वणित सामान्य द्वारा समर्थन किया गया है । अतएव अर्थान्तरन्यास प्रलङ्कार है। सामान्य से विशेष के समर्थन का दूसरा उदाहरण देखिये "कवितायाः कविः कर्ता रसिकः कोविदः पुनः । रमणीरमणीयत्वं पतिर्जानाति नो पिता ॥" -जयोदय, २८३ (कवि कविता का प्रणेता होता है, किन्तु सहृदय उसका अर्थ जानने वाला होता है । सुन्दर स्त्री के सौन्दर्य को पति जानता है, उसका पिता नहीं।) ___ यहाँ पर द्वितीय पंक्ति में सामान्य बात कही गई है जो कि प्रथम पंक्ति में प्रस्तुत बात की सपिका है । प्रतएव अर्थान्तरन्यास मलकार है। Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य - एक प्रध्ययम देवियों के प्रति प्रियकारिणी के कथन में अर्थान्तरन्यास को छटा देखिये"न चातकीनां प्रहरेत् पिपासां पयोदमाला किमु जन्मना सा । युष्माकमाशंकित मुद्धरेयं तकंरुचि किन्न समुद्धरेयम् 11 - वीरोदय, ५।२२ ( यदि मेघमाला प्यास से व्याकुल चातकियों की प्यास नहीं बुझाती है, तो उसके जन्म से क्या लाभ ? तुम सबकी प्राशङ्काम्रों को मैं क्यों न समाप्त करूं भोर. तर्क में रुचि क्यों न धारण करूँ ? ) ३२६ प्रस्तुत श्लोक की समर्थन द्वितीय पंक्ति के प्रकार है । प्रथम पंक्ति में सामान्य बात कही गई हैं । उसका विशेष कथन से किया गया है । प्रत: प्रर्थान्तरन्यास गुणपाल का प्रर्थान्तरन्यास से अलङ्कृत कथन प्रस्तुत है"उत्थापयेमुच्चैर्ना यस्य वाञ्छन्निपातनम् । मूर्ध्ना न वाह्यते भूमी दहनीयं किमिन्धनम् ॥ " - दयोदय, ४।७ ( जिस व्यक्ति के विनाश की इच्छा की जाय, उसे पहिले खुब ऊँचा उठा देना चाहिए | क्या जलाने योग्य इन्धन शिर से नहीं ढोया जाता ? ) गुरपाल सोमदत्त को मारना चाहता है । अतः उसे अपने वश में करने की इच्छा से उसे पुरस्कृत करता है। मधुर वचनों से प्रपनी घोर प्राकुष्ट करने का प्रयत्न करता है । इसी प्रसङ्ग में वह उपरिलिखित कथन कहता है । प्रथम पंक्ति में वरिणत विशेष बात का समर्थन द्वितीय पंक्ति में वरिणत सामान्य बात से होने के कारण प्रर्थान्तरन्यास अलङ्कार है । परिसङ्ख्या " कचित्पृष्टमपृष्टं वा कथितं यत्प्रकल्पयते । ताडगन्यव्यपोहाय परिसंख्या तु सा स्मृता ।।" - काव्य - प्रकाश, १०।११६ ज्ञानसागर ने कुण्डनपुर, चम्पापुर और चक्रपुर नगरों की समृद्धि का वर्णन करते समय इस प्रलङ्कार का प्रयोग किया है। लीजिए प्रस्तुत है - कुण्डनपुर के वर्णन में परिसंख्या का उदाहरण : -- "काठिन्यं कुचमण्डलेऽच सुमुखे दोषाकरत्वं परं वक्रत्वं मृदुकुन्तलेषु कुशता बालावलग्नेष्वरम् । उर्वोरेव विलोमताऽप्यधरता दन्तच्छदे केवलं शंखत्वं निगले eateचपलता नान्यत्र तेषां दलम् ॥ वामानां सुवलित्रये विषमता विल्यम प्रावृताद्धत्यं सुशां नितम्बवलये नाभ्यण्डके नीचता । Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-ग्रन्थों में कलापक्ष ३२७ शब्देष्वेव निपातनाम यमिनामक्षेषु वा निग्रहश्चिन्ता योगिक षु पौण्डनिचये सम्पीडनं चाह ह ॥" -वीरोदय, २।४८४६ (उस नगर में) कठिन ना केवल स्त्रियों के स्तनमण्डल में ही दृष्टिगोचर होती है, दोषाकरता (चन्द्रतुल्यत्व) स्त्रियों के सुन्दर मुख में ही दृष्टिगोचर होती है, वक्रता उनके सुन्दर बालों में ही है, कृशता स्त्रियों के कटि प्रदेश में ही है, रोमराहित्य स्त्रियों की जवानों में ही है, प्रधरता केवल उनके प्रोष्ठों में ही है, शंखपना कण्ठ में ही है और चपलता दृष्टि में ही है । इस प्रकार कठोरता, दोषसमह, कुटिलता, क्षीणता, प्रतिकूमता, नीचता, चपलता प्रादि अवगुण कहीं और टिगोचर नहीं होते। विषमता स्त्रियों को त्रिवली में ही है, (अन्यत्र कहीं भी नहीं)। शिथिलता स्त्रियों के चरणों में ही है, (अन्यत्र कहीं भी नहीं)। उद्धतग्न केवल स्त्रियों के नितम्बमण्डल में ही है (अन्यत्र नहीं)। महराई नाभिमण्डल में ही है, (अन्यत्र नीचता नहीं है)। निपात शब्दों में ही होता है (अन्यत्र किसी के द्वारा किसी पर माक्रमण नहीं किया जाता)। संयमी व्यक्ति ही इन्द्रियनिग्रह करते हैं (कोई किसी को पकड़ता नहीं है)। योगिसमूह ही चिन्तन करता है, अन्य व्यक्ति चिन्ता से रहित हैं)। सम्पीडन पोण्ड समूह में ही है, व्यक्ति एक दूसरे को पोड़ा नहीं पहुंचाते)। यहाँ कठोरता, चन्द्रतुल्यता, वक्रता प्रादि प्रतिपादित वस्तु अन्यत्र निषेष में -- पर्यवसित होती हैं, इसलिए परिसंख्या प्रलंकार है। परिकरांकुर''साभिप्राये विशेष्ये तु भवेत् परिकरांकुरः ।' -कुवलयानन्द, ६३ श्रीज्ञानसागर के काव्यों में इस प्रलंकार के उदाहरणों की प्रत्यल्प मात्रा उपलब्ध होती है। इतना होने पर भी यह अलंकार जितनी मात्रा में प्रयुक्त किया गया है, कपि के कौशल का परिचायक होने में समर्थ है। प्रस्तुत है परिकरांकर प्रलंकार का एक उदाहरण : भरतेत्र गिरिमंहानुर्विजयाडौं धरणीभृतां गुरुः ॥ य उदक समुपस्थितोऽमुतः स्वलतः सम्बलतः प्रवर्तिनः । स्वयमद्धजयाय मध्यमो भरतस्यास्ति च चक्रवर्तिनः ॥' -श्रीसमुद्रदत्तचरित्र, २।१-२ (इस भरत क्षेत्र में सभी पर्वतों का गुरु विजयाद्ध नामक महान् पर्वत विद्यमान है जो यहां से उत्तर की मोर इस भारतवर्ष के ठीक मध्य में स्थित है। सेनासहित दिग्विजय के लिए प्रस्थित चक्रवर्ती की प्राधी विजय को बताने बाबा है।) Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य- एक अध्ययन प्रस्तुत श्लोकों में विजयाधं श्राधी विजय को देने में समर्थ हैं, अतः पर्वत की 'विजयार्द्ध' यह संज्ञा (विशेष्य) साभिप्राय होने से परिकरांकुर लंकार है । ३२८ संसृष्टि प्रलङ्कार 'सेण्टा संसृष्टिरेतेषां भेदेन यदिह स्थितिः । - काव्यप्रकाश १०।१३६ श्रीज्ञानसागर के काव्यों में संसृष्टि अलंकार के अनेक उदाहरण उपलब्ध हो जाते हैं । इसका कारण यह है कि कवि की कविता प्राय: प्रनुप्रास बलंकार से प्रलंकृत है । धनुप्रास के साथ ही साथ अन्य प्रलंकार भी निरपेक्ष रूप से स्थित हैं । हम उनके काव्यों में शब्दालंकारों, प्रर्थालंकारों मोर शब्दार्थालंकारों की इस प्रकार से तीनों प्रकार की, संसृष्टि के उदाहरण प्राप्त करते हैं। यहाँ कवि की इस क्षमताको द्योतित करने के लिए दो उदाहरण प्रस्तुत किए जा रहे हैं "मृगीशश्चापलता स्वयं या, स्मरेण सा चापलताऽपि रम्या । मनो बहाराङ्गभूतः भणेन मनोजहाराऽय निजेक्षणेन ॥' -- — वीरोदय, ३।२५ प्रस्तुत श्लोक में अन्त्यानुप्रास और यमक की संसृष्टि स्पष्ट ही दृष्टिगोचर हो रही है । प्रतः यहाँ पर शब्दालंकारों की संसृष्टि है । दूसरा उदाहरण शब्दार्थालंकारसंसृष्टि का है 1"नमंल्यमेति किल धौतमिवाम्बरन्तु स्नाता इवात्र सकला हरितो भवन्तु । प्राग्भूभूतस्तिलकवद्रविराविभाति चन्द्रस्तु चोरवदुदास इतः प्रयाति ॥ " -जयोदय, १८/६३ ( प्रातःकाल का सुन्दर वर्णन है :- प्राकाश निर्मल होने के कारण घुला हुम्रा सा प्रतीत होता है । दिशाओंों को देखकर ऐसा लगता है मानों उन्होंने स्नान कर लिया हो, सूर्य प्राची दिशा के राजा के तिलक के समान प्रकट हो रहा है और चन्द्रमा चोर की भाँति उदास होकर प्राकाश से प्रस्थान कर रहा है ।) प्रस्तुत श्लोक की प्रथम दो पंक्तियों में उत्प्रेक्षा भोर द्वितीय दो पंक्तियों में उपमा अलंकार निरपेक्ष रूप से विद्यमान है, साथ ही अन्त्यानुप्रास की छटा भी स्पष्ट ही दृष्टिगोचर हो रही है । भ्रतः एक ही स्थल पर दो प्रर्थालंकार और एक userine की निरपेक्ष स्थिति होने के कारण संसृष्टि नामक अलंकार है । सङ्कर पलङ्कार "प्रङ्गाङ्गित्वेऽलक कृतीनां तद्वदेकाश्रयस्थिती । सन्दिग्धत्वे च भवति सङ करस्त्रिविधः पुनः ॥ - साहित्यदर्पण, १०६८ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-प्रन्थों में कलापक्ष ३२८ कविवर ज्ञानसागर के काव्यों में ऐसे भी अनेक स्थल हैं जिनमें अलंकारों का सापेक्ष प्रयोग किया गया है । उदाहरण रूप में दो स्थल प्रस्तुत हैं : (क) 'बणिक्पथस्तूपित रत्नजूटा हरि-प्रियाया इव के लिकूटाः । बहिष्कृतां सन्तितमां हसन्तस्तत्राऽऽपदं चाऽऽपदमुल्लसन्तः ॥” - बीरोदय, २१८ (विदेह देश के नगरों में बाजारों की दुकानों के बाहर थोड़ी-थोड़ी दूर पर रत्नों के स्तूपाकार ढेर लगाये गए थे, जो ऐसे प्रतीत होते थे मानों बहिष्कृत प्रापदाओं का उपहास सा करते हुए लक्ष्मी के क्रीड़ा पर्वत हैं ।) प्रस्तुत श्लोक में स्तूपाकार रत्न के ढेरों की उपमा लक्ष्मी के क्रीड़ा पर्वतों से दी गई है; और साथ ही क्रियोत्प्रेक्षा भी है । यह उत्प्रेक्षा उपमा की सहायिका है । अत: परस्पर प्रङ्गाङ्गिभाव होने के कारण यहाँ संकर अलंकार है । "यतः खलु सोऽस्माकं तारुण्यतेजः समुन्नयनाय तरणिरिवोत्तरायणः, सर्वदेवानुकूलाचरण करण-परायणः सुललित-मनोरथ- लता - पल्लवनिमित्तमम्बुधरायणः ।' - दयोदय- चम्पू, २०३१ का गद्यभागः । ( क्योंकि वह हमारे तारुण्य रूपी तेज को उन्नत करने के लिए उत्तरायण में स्थित सूर्य के समान है, सर्वदा अनुकूल प्राचरण करने वाला है, इसलिए हमारी सुन्दर मनोकामना रूपी लता- पल्लब को बढ़ाने वाले जलघर के समान है । प्रस्तुत गद्यभाग में तारुण्य पर तेज का श्रारोप होने के कारण रूपक अलंकार है मोर मृगसेन धीवर के उपमान रूप में सूर्य को प्रस्तुत करने के कारण उपमा अलंकार है । रूपक एवं उपमा परस्पर सापेक्ष अलंकार हैं, इसलिए संकर अलंकार है । चित्रालंकार - 'तच्चित्रं यत्र वर्णानां लड्गाद्या कृतिहेतुता ।' શા श्रीज्ञानसागर ने अपने काव्यों में न केवल शब्दालंकार मोर प्रर्थालंकार प्रयुक्त किए हैं, प्रपित चित्रालंकार भी प्रयुक्त किए हैं। उनके काव्यों के परिशीलन से ज्ञात होता है कि उन्होंने छः चित्रबन्धों में अपना कौशल प्रदर्शित किया है, जो इस प्रकार है - काव्यप्रकाश, (क) चक्रबन्ध, (ख) गोमूत्रिकाबन्ध, (ग) यानबन्ध, (घ) पद्मबन्ध, (ङ) तालवृन्तबन्ध और (च) कलशबन्ध । क्रमशः ये चित्र प्रस्तुत किये जा रहे हैं : Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि भानसागर के काव्य-एक अध्ययन कविवर ने चक्रबन्ध का प्रयोग केवल 'जयोदय' नामक महाकाव्य में किया है। प्रत्येक सर्ग के उपान्त्य श्लोक में उन्होंने चक्रबन्ध प्रयुक्त किये हैं। इसलिए इस काम्य में २८ चक्रवन्ध उपलब्ध होते हैं। इन चक्रबन्धों की यह अभिनव विशेषता है कि इनमें 'जयोदय' महाकाव्य में वरिणत २८ प्रमुख घटनामों का संकेत मिलता है । वे घटनाएं इस प्रकार हैं :- . (क) जयकुमार द्वारा मुनि की उपासना, (ख) रन्तिप्रभ नामक नागपति को जयकुमार से विनम्र प्रार्थना, (ग) दूत द्वारा सुलोचना के विवाह में जयकुमार प्रादि राजामों को मामन्त्रित करना, (घ) राजामों का स्वयंबर की इच्छा से काशी पहुंचना, (ङ) स्वयंवर की तैयारियां होना, (च) विद्या देवी द्वारा राजामों का परिचय एवं सुलोचना द्वारा जयकुमार को जयमाला पहिनाना, (ब) प्रकीति मौर जयकुमार के युद्ध की तैयारियां होना, (ज) पर्ककीर्ति का युद्ध में पराजित हो जाना (झ) काशीनरेश द्वारा सम्राट् भरत के पास क्षमायाचना के लिए दूत को भेवना, (ब) पाणिग्रहण संस्कार प्रारम्भ होना, (2) जयकुमार का सुलोचनारूप वर्णन करना, (8) विवाह सम्पन्न हो जाना, (ड) सुलोचना सहित जयकुमार का गङ्गा नदी के तट पर पहुंचना (ढ) जयकुमार का जलक्रीड़ा करना, (ण) सन्ध्या के पश्चात् रात्रि का प्रागमन, (त) सोमरस का पान करना, (घ) सुरत विहार करना, (द) प्रातःकालीन शोभा, (घ) जयकुमार द्वारा प्रातःकालीन सन्ध्या-वंदन करना, (न) जयकुमार की भरत पक्रवर्ती से भेंट, (प) जयकुमार का हस्तिनापुर पहुँचना, (फ) जयकुमार मोर सुलोचना द्वारा भोगविलास की अनुभूति करना, (ब) पूर्वजन्म का स्मरण एवं दिग्यविभूति की प्राप्ति होना, (भ) जयकुमार पोर सुलोचना द्वारा तीर्थयात्रा करना, (म) जयकुमार के मन में विरक्ति उत्पन्न होना, (य) पुत्र के राज्याभिषेक के बाद जयकुमार का बन को चले जाना, (ब) भगवान् ऋषभदेव द्वारा जयकुमार को उपदेश देना पोर (र) जयकुमार पोर सुलोचना द्वारा मोक्षप्राप्ति । चकबन्ध बनाने की विधि पक्रबन्ध बनाने के लिए श्लोक के चरणों के अक्षरों की संख्या के बराबर गोल पाकार वाले चक्रों को बनाकर उसमें छः परों को स्थापित किया जाता है। मध्य में धुरी होती है । इलोक के प्रथम तीन चरणों को चक्र के मरों में इस प्रकार रखा जाता है कि प्रथम चरण प्रथम परे से होता हुमा चतुर्थ परे में पहुंचता है, द्वितीय चरण द्वितीय प्ररे से पंचम भरे में पहुंचता है, तीनों परणों के मध्य में मार को धुरी में रखा जाता है। चतुर्थ चरण को षष्ठ परे में ही नेमि में शुमा दिया जाता है । इस चरण के सात प्रक्षर मरों में मानकर परों के मध्य में दो-दो पक्षर रखे जाते है। Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि मानसागर के संस्कृत-ग्रन्थों में कलापक्ष ३३१ प्रत्येक सर्ग का उपान्त्य-श्लोक और उससे बनने वाला पक्र-बन्ध-चित्र क्रमशः प्रस्तुत है : (क) जयमहीपतेः साधुसनुपास्तिचक्रवन्धः . "जन्मश्रीगुणसाधनं स्वयमवन् सन्दुःखदैन्याबहिः, यत्नेनैष विधुप्रसिद्धयशसे पापापकृत्सस्वपः । मञ्जूपासकसङ्गतं नियमनं शास्ति स्म पृथ्वीभते, तेजःपुञ्जमयो यथागममथाहिंसाधिपः श्रीमते ॥" -जयोक्य, १।११३ BEFERREEon ARREATEलावातावाद बाबाबाARS इस चक्रवन्ध के परों के प्रत्येक प्रथम पक्षर पोर छठे अक्षर को क्रमशः पढ़ने पर 'जयमहीपतेः साधुसनुपास्ति'-यह वाक्य बनता है। यह वाक्य इस तथ्य की पोर संकेत करता है कि जयकुमार के द्वारा साधु की उपासना की गई है। दो पूरे सर्ग का वयं-विषय है। Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के काम्य-~एक अध्ययन (ख) नागपत्तिलम्बचकबन्धः "नानवमित्यभिधाय रागः समभिगम्य महीपति, गजपत्तनस्य शशंस गहितभायंकः श्लाघापरः । परमार्थवृसेरथ च गद्गद्वाक्यतया भूत्वाशुभ:, भक्तोऽधुना समगच्छदुपसम्मति प्राप्य रतिप्रमः ॥" -बयोक्य, २२१६० H . AFTERESEEEEEE SH इस चक्रवन्ध के अरों के प्रथम प्रारों को क्रमशः पढ़ने पर 'नागपतिमम्म'यह वाक्यांश निकलता है, जो इस बात का द्योतक है कि इस सर्ग में-सर्प ने जयकुमार से वो विनम्र निवेदन किया' उसका वर्णन है । Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि मानसागर के संस्कृत-प्रन्थों में कलापक्ष (ग) स्वयंवरसोमपुत्रागमचक्रवन्ध "स्वप्रेष्ठं स्मरसोदरं जयनपं तत्रागतं सादरं, .. पत्नाद् गोपुरमण्डलात् स्वयमपोत्सर्गस्वभावाधिपः । वप्तानीय सुपुष्कराशयतनो मप्रभृत्युज्ज्वलं, भक्त्यादात्स्वपुरेऽयमान्तवरदोऽरं कृत्यपः श्रीधरः ॥" .. -जयोदय, 1 पE) SIREMENT ) 4बाबाना REAPSEa in त्या इस पक्रवन्ध के परों के प्रथम एवं छठे अक्षरों को क्रमश: पढ़ने पर'स्वयंवर', 'सोमपुत्रागम' ये दो शब्द निकलते हैं, जिनसे इस बात का संकेत मिलता है कि इस सर्ग में सुलोचना के स्वयंवर की सूचना राजापों को दी गई है। पार निमबर पाकर सोमपुत्र जयकुमार काफी नगरी पच गये हैं। Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ (घ) स्वयंवरमतिचक्रबन्ध स्थि 2 (2) "स्वर्गोदारमिदं क्षणं सुमनसामीशोपलब्धादरम् 'यत्रोद्दामसुधाकरोद्यमविधिः सत्त्वप्रतिष्ठाक्षमः । वर्त्ततापि पुनीतसारमधुरा पद्मालयानां ततिः, तिष्ठन्ती स्वयमापतानवनव। रम्भाप्य मन्दस्थितिः ॥ " #: प् 1514 [ F 3. महाकवि ज्ञानसागर के काव्य - एक प्रध्ययन $ C * ~ & 10 5 5 1 1 4 * ♚ * व * & MN. (8) दा मि स (R) पुत्र 5 L -जयोदय, ४६८ मा 14 अ य के छ क 上 ता न (५) इस चक्रबन्ध के घरों के प्रथम प्रक्षरों को क्रमशः पढ़ने से 'स्वयंवरमतिः' - यह शब्द बनता है । यह शब्द इस बात का संकेत देता है कि इस सर्ग में 'अनेक राजा सुलोचना स्वयंबर में पहुँचने की इच्छा रखते हुये काशी की ओर प्रस्थान करते हैं ।' Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-प्रन्यों में कलापन - ३३५ ३३५ (5) स्वयंवरारम्मचक्रबन्ध "स्वङ्गोयूनां कामिकमोदामृतधारा, यच्छन्ती यतिकलानां कमलाऽरम् । बग्धूकोष्ठी नामिकमापालय गर्भ, भव्यं स्वङ्ग यन्नवगोराजिरशोभम् ॥" . -अबोदय, ५१०६ - " 2A SREENA s इस चक्रवन्ध के मरों के प्रथम प्रक्षरों को क्रमशः पढ़ने से 'स्वयंवरारम्भ' यह शब्द बनता है। इस शब्द का यह तात्पर्य है कि इस सर्ग में 'स्वयंवर प्रारम्भ' होने का वर्णन है। Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ (च) नृपपरिचय, वरमालारोपचक्रबन्ध ९९) प 15. यसन् "नूवातोऽभिनवं मदं समचरत् भारान्तु बन्धावलिः पञ्चाश्चर्य परम्परा समभवत्स्वर्लोकतः सद्रुचा । पद्मावाप्तिसमासमुच्चमरिणभिः सम्पत्तिमर्थिष्वयं, यच्छन्सन्नृप प्राप वस्त्रपगृहं रिष्टोरुवर्चो जयः ॥ " LASE (2) . 12 च P MP F #ko महाकवि ज्ञानसागर के काव्य- एक अध्ययनः A * 1/8442 ち G35* * 4 4 4 B ब ए 140 点 मा 经 OFFER P ( -जयोदय ६।१३४ 2 G इस चक्रबन्ध के घरों में स्थित प्रथम मोर पष्ठ प्रक्षरों को क्रमशः पढ़ने से 'नृपपरिचय' घोर 'बरमालारोप' ये दो शब्द बनते हैं। इन दोनों शब्दों से यह तात्पर्य निकलता है कि इस सर्प में राजाधों का परिचय बरिणत है एवं मनोनीत वर को माला पहिनाने का भी संकेत मिलता है । Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-प्रभ्थों में कलापक्ष (घ) समरसंचयचक्रबन्ध "सम्म्राजस्तुक् खलु चक्राभं बलवासम्, मकराकारं रचयन् श्रीमद्माधीद् च । रणभूमावभ्रे च खगस्ताक्ष्यंप्रायम्, यत्नं संग्रामकरं स्मांसति च प्रायः ।। " 今 (2) म P6 \ F க | का 5 x PRAS க च 1454 45 د -जयोदय, ७।११५ 如 44.2 (3) र ण भू H በ स्मो वा स 11. ३-३७ (8) प्रस्तुत चक्रबन्ध के घरों में स्थित प्रथमाक्षरों को पढ़ने से क्रमश: 'समरसंचय' शब्द बनता है। इस शब्द से यह संकेत मिलता है कि इस सर्व में युद्ध के लिए सेना सजाने का वर्णन किया गया है । Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३९ महाकविज्ञानसागर के काव्य-एक अध्ययन (4) अपराभवचक्रवन्ध महन्तमागोहरममादधुना समर्थयितुंतराम्, कश्मलादाजिमवाज्जयोदरमावहन्स्मरसन्निभम् । पश्चात्तपन्नपकृत्यमादरतो जिनस्य कतावहम, वन्दना प्रकंश्चकर च परम्पराध्वशमवाश्रवम् ।।" -बयोदय, ८६५ 43आनाका AS TERMEROFE . प्रस्तुत चक्रवन्ध के मरों में स्थिति प्रथमाक्षरों को क्रमशः पढ़ने पर 'अकं. पराभव' शब्द बनता है। इस शब्द से यह संकेत मिलता है कि इस सर्ग में युद्ध में पीति के हारने का वर्णन है। Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकषि मानसागर के संस्कृत-प्रन्थों में कलापन (झ) मरतलम्बनवकवन्ध "भर्तुश्चित्तमवेत्य सुन्दरतमं काशीविशामीश्वरः, रजन्तुंगतरङ्गवारिरचिताम्भोराशितुल्यस्तवः । तत्रासोच्छशलाञ्छनस्य रसनात्प्रारब्धपूर्णात्मनः, नर्मारम्भविचारणे तत इतो लक्ष्यं वबन्धात्मनः ॥" -जयोदय, १९५ EBRar प्रस्तुत चक्रवम्ब के बहों परों के प्रथम प्रारों को मिलाने से 'भरतलम्पन' शम्य बनता है, जो इस बात की ओर संकेत करता है कि इस सगं में स्वयम्बर इत्यादि की सूचना सहित भरत-चक्रवर्ती से क्षमायाचना का वर्णन किया गया है। Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० महाकवि ज्ञानसागर के काग्य-एक अध्ययन (ज) करग्रहारम्भचक्रबन्ध :कमलामुखीमयमक्षिरश्मिभिः श्रीपरिफुल्लदेहाम्, रसति स्मेयमिमं खलु रमणीधामनिधि स्वाधारम् । ग्रहणग्रहणस्यादी परमो भविनोरभिविश्रम्भम्, भवतु कवीश्वरलोकाग्रहतो हावपरइचारम्भः ॥" -जयोदय, १०॥१२॥ FEEL FREEN FREEMजक प्रस्तुत चक्रबन्ध के छहों परों में विद्यमान प्रयमाक्षरों को पढ़ने से 'करमहारम्भ' शब्द बनता है । यह शब्द इस बात की सूचना देता है कि इस सर्ग में सुलोचना के पाणिग्रहण संस्कार प्रारम्भ होने का वर्णन है । Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि भानसागर के संस्कृत-ग्रन्थों में कलापक्ष ३४१ (ट) सुदृशः कथनं चक्रबन्ध "सुष्ठु श्रीसहयः स्वरूपकलनं क: रूपातुमीशोऽनकम्, दृष्टोऽनङ्गभवं सुचारुकरणेऽप्यङ्गस्फुरत्सङ्कथः । शस्तेनापि किमायुधेन कलितं व्योम्नः पुनः खण्डनम्, नर्मोक्तो सुगुग्णादतिर्वशमये कल्योऽरथत्वार्थनः ॥" -जयोदय, १११११५ to SORDERAR ल्योऽर प्रस्तुत चक्रबन्ध के छहों मरों में विद्यमान प्रथमाक्षरों को पढ़ने से 'सुस्थः कपनम्' वाक्य बनता है, जिसका अर्थ है कि इस सर्ग में जय कुमार द्वारा मुनोचना के रूप-सौन्दर्य का वर्णन किया गया है । Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ महाकवि भानसागर के काम्प-एक सम्पर्क (8) करोपलम्बनवाबग्ध "कत्तुं लगनास्तव च ताबदबारम्, लोकाः श्रोजिनदेवविभोस्ते स्पष्टाभम् । पवित्रेण वे भावना समास्यानेन, नन्दककलोक्तिपः सोऽरं सम्भवुनः ॥" -जयोदय, १२।१५७ क ट इस पक्रवन्ध के अरों में विद्यमान प्रथमाक्षरों को पढ़ने से रोपसम्मान' शम्द बनता है, जो इस बात की सूचना देता है कि इस सर्ग में विवाह कार्य पूर्णतया समाप्त हो जाने का वर्णन है। Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-ग्रन्थों में कलापक्ष (3) बयोवङ्गागत चक्रबन्ध ९९ भो "जयतादयतावशतो रसतोऽसो नरेन्द्रसंयोगाम्, य रह शारदासाधारणः पद्माभिरुचिः शुचिग: । गगननदीमद्याप सुललिता राजहंस प्राख्यातस्तत्राम्भोजनिकायगत मार्गाविरगतयातः ॥ " AMP ६ 柒 (2) FE F S AN AM MAS का ३ ५ ६ ०५. 9 2 F ४ ॐ 1:10 P ख) ब ल ख क्र 44 9 9 — दयोदम, १३ ११६ 144 Bic A (h) ← कर ३४३ * C प्रस्तुत चक्रबन्ध के घरों में विद्यमान प्रथमाक्षरों को पढ़ने से !जयोगङ्गागत' वाक्य निकलता है, जो इस सगं की उस घटना की ओर संकेत करता है जहाँ विवाह के पश्चात् जयकुमार गङ्गा नदी के तट पर पहुँचते हैं। Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि मानसागर के काम्य-एक अध्ययन (३) सरितवलम्बचकबन्ध "सकलमपि कलत्रमनुमानकम्, लिखितमनूक्तं ललितमतिबसम् । दधत्स्वपदवलमुचितार्थभवम्, बहु संचरितदमवमलं भुवः ॥" -जयोदय, १४ IFE बाबाम: इस चक्रवन्ध में मरों में विद्यमान प्रथम प्रक्षरों को क्रमशः पढ़ने से 'सरिद. बसम्ब' शब्द बनता है। इस सर्ग में कवि ने जयकुमार के नदी बिहार का वर्णन किया है, जो इस शम्ब द्वारा संकेतित होता है। Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४५ महाकवि भानसागर के संस्कृत-प्रन्थों में कलापक्ष (ख) निमासमागमवक्रवन्ध "निजनायकमवलोक्य तमागतमेका यावद्रामा, सातवतीहोस्थितासनत: परिधानमतिविरागम् । संहर्षवशात्पादयोनंतं अपनपीठमभिरामम्, मंक्षुषिनिह्नवशालि च समदान्माहात्म्यगतारामम् ॥" -जयोदय, १४।१०८ ORRIEबया SLEERUT प्रस्तुत चाबन्ध में विद्यमान अरों के प्रथम अक्षरों को पढ़ने से 'नियासमागम' शब्द निकलता है, जो इस बात की भोर संकेत करता है कि इस सर्ग में रापिकातीव शोभा का वर्णन किया गया है। Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ महाकवि मानसागर के कप- ए न (a) सोमरसपानचकवाय "सुन्दरीः सबः सुन्दरः कलयितुमनुष्णहचोऽनुसम्, मधुराकलानिरियोज्ज्वलप्रतिभावभावाप्तक्षपा । रतिषु पाटबमासवोऽलमलं विधातुमभूव पुना, न तनोः सुनानुमतेः परं लाससकरः पठावनः ।। . -अयोग्य, १४ बकाया SENERBER / प्रस्तुत चक्रवन्ध के प्रत्येक परे के प्रथम पक्षरों को पढ़ने से 'सोयरसमा. शाम निकलता है, वो इस वर्ग में वर्णित मद्यपान का घोतक है। Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि बालसागर के संस्कृत-मन्त्रों में कमापन () सुरतवासनापाबन्ध "सुप्त्वा कामकलाधमाकुलवधू पूर्व प्रबुद्धापि वा, रन्तः श्रीसुबनिद्रितस्य लखितं दोः पाशसम्पदसम् । तस्थौ निश्चलसत्तनुर्विमसतः सच्छेत्तुमेषाधुना नागच्छत्सुविचारचेष्टितमना वाञ्छकसम्भावनाम् ॥" -जयोदय, १७१४२ नाम SEDDESEEFe सावध के प्रत्येक परे के प्रथम पक्षरों को पढ़ने से 'सुरतवासना' पन्न निकलता है, जो इस सम में वर्णित स्त्री-पुरुषों के सुरत-बिहार का संकेत देता Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के काग्य-एक अध्ययन (१) विकृतमातमभश्चक्रबन्ध "विधुबन्धुरं मुखमात्मनस्त्वमृतः समुक्ष्यार्काङ्कितम्, कृत्वा करं मृदुनाशुकेन किलालकच्छविलाञ्चनम् । भासुरकपोलतलं पुन: प्रोञ्छन्त्यगुरुपत्रांकमा, भावेन विस्मितकृत्स्वतोऽभादपि तदा नितरां शुभा ॥" --जयोदय, १८।१०० . बाबा NAIN-911 RAJAPUR प्रस्तुत चक्रवन्ध के मरों में विद्यमान प्रथम अक्षरों के पढ़ने से 'विकृतमानमः' शब्द बनता है। यह शब्द इस सर्ग में वर्णित परिवर्तित एवं चमकते हुये प्राकाश से युक्त प्रभात का द्योतक है। Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-ग्रन्थों में कलापक्ष (घ) शान्तिसिन्धुस्तव चक्रबन्ध (६) स्त (3) " "शास्त रितस्त्वं जगतां मोदान्धेविधु: तिमिरहान्तरङ्गस्य श्रेष्ठो भास्वतः । सिद्धेस्तु शुभाङ्ग भक्तलोके तव वक्राशावति शासितोऽघुनातः स्तवः ॥ " it क्ता नई कद 5 क ने घ) य क अ | * | */ 上 स्त्य " 1384 ע - जयोदय, १९।१२० 4.4 (A) हा 422 ) 5. M 31 Su (७) ति IM S चूण सि (३. ૪૨ प्रस्तुत चक्रबन्ध के घरों में विद्यमान प्रथम प्रक्षरों को पढ़ने से 'शान्तिसिन्धुस्तव:' शब्द बनता है । यह शब्द इस सगं में वर्णित जयकुमार के प्रातः कालीन सन्ध्यावन्दन भादि की सूचना दे रहा है । Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकविज्ञानसागर काम्बल (ब) भरतबन्दनचकबन्ध "भक्तानामनुकूलसापनकरम्बीक्ष्याहंता संस्तवं, रङ्गतुङ्गतरामधनवने पोतोपमं प्रीतिबम् । तस्मिंस्तिग्मकरोदये । न इहास्त्वन्तस्तमोनाशनम्, नर्मारम्भकसारमद्भुतगुणं वन्दे सदर पुनः ॥" -अबोदयः २०१७ CL कामक TERREE इस पक्रवन्ध के परों में विद्यमान प्रथम प्रक्षरों को पढ़ने से :भरतबननम्' शब्द बनता है । इस शब्द से यह तात्पर्य निकलता है कि कपि ने इस सर्ग में जयकुमार द्वारा भरतचक्रवर्ती की बन्दना कराई है। Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "महाकविमानसागर के संस्कृत-अन्यों में कलापक्ष (५) पुरमापजयावन्ध "पुत्रीन्तु सुत्रितसद्गुणं विदुषीं सकाशीराडुडुपरम्याननां परिणाप्य सद्विधिनाघुना निपुणात्मजः । मानवशिरोमणिरात्मविन्निवबन्धशर्मण्याशयम, यशसां पुनस्तरसां समागमपण्डितो जगति यः ।।". -अबोदय, २११७ कामियाजाला DERDEREDEOकाबाबबाह REFEAREL प्रस्तुत पक्रवन्ध के घरों में विद्यमान प्रथम प्रक्षरों को मिलाने से 'पुरमापर पब्दि बनता है। इस शब्द का तात्पर्य निकलता है कवि ने इस वर्ग में . जयकुमार से अपनी नगरी हस्तिनापुर पहुंचने का वर्णन किया है। Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ महाकविज्ञानसागर के काम्य-एक म्यान (क) मियः प्रवर्तनस चकबन्ध "मिथुनमिति भवत्प्रणयमुत्सवस्पले घृतसितापरवगतहितम्। प्रतिपय विभवममुकस्य पुनः ॥" नयामि कपने प्रणबमुत नः॥" -जयोदय, २२९१ 1430 PPPE A) PRE ( या प्रस्तुत पक्रवन्ध के छहों परों में विद्यमान प्रथमाक्षरों को मिलाने से 'मिषः प्रवर्तनम्'-यह शब्द बनता है। इस शब्द से हमें यह संकेत मिलता है कि कवि ने इस सर्ग में सुलोचना मोर जयकुमार के मैयुनव्यापारों (भोग-विलास) का वर्णन किया है। Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि नामसागर के संस्कृत-प्रन्थों में कलापक्ष (ब) रम्पतिविमवाचकबन्ध "दम्भातीतं कृत्वा मनोविशदभावि . पषि व पासोमसुतो सत्यारम्भम् । .. • तिष्ठतः स्म सद्धर्मभावना सभावा वारादपिकृतिताविभो भन्यो वा।" -जयोदय, २३॥६७ PEPE प्रस्तुत पाप के छहों परों में विद्यमान प्रथमाक्षरों को एक साथ मिला पर पढ़ने से 'बम्पतिविमवा' शन्द बनता है। इस पद से यह तात्पर्य निकलता है किकवि ने इस सर्ग में सुलोचना भोर जयकुमार के पूर्वजन्मों का और उनके द्वारा प्राप्त विम्य विभूतियों का वर्णन किया है। Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकविज्ञानसागर के काव्य-एक अध्ययन () गजपुरनेतुस्तीर्यविहरणम चक्रबन्ध "गच्छन्वं सह तीर्थदेशमनयासी हंसगत्याऽखिलम्, जन्मानर्षमय वजन्नमलहृत्प्रालम्पबोषोऽवने । पुण्यात्प्रापितविश्व एवमनिशं प्राणप्रिय: पूजितुं, तुष्टया प्रागमयज्जयः सुपुरुषो रक्त्याह्वनेहोऽपि तु ॥" -जयोदय, २४।१४८ ABEERED EFERREDNEHARMA 120 प्रस्तुत चकबन्ध के अरों के प्रथमाक्षरों और षष्ठामरों को क्रम से पढ़ने पर गजपुरनेतुस्तीर्थविहरणम्' शब्दसमूह बनता है । यह शब्द समूह इस बात का . घोतक है कि कवि ने इस सर्ग में जयकुमार के तीर्थविहार का वर्णन किया है। Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-प्रन्थों में कलापक्ष (म) वयंसद्भावनाचक्रवन्ध ८९० S 22 " जन्मात जरादितः समयभुच्चिन्तामथागाच्छुभाम्, यस्नोद्वाह्यमिदन्तु राज्यभरकं स्थाने समाने ध्रुवम् । सद्भूयामहमत्र कुत्र भवतो निक्षिप्य सम्यङ्मनाः, नानिष्टं जनताऽऽयति प्रसरताद् भातुत्सवश्चात्मनाम् ॥” -जयोदय, २५/८० (2) ass * ड क र F F f & NET ति EST * 1 1 1 4 3 2 H प्र प्रस्तुत चक्रबन्ध के घरों के बनता है, जो इस बात का द्योतक है उठती हुई बेराग्यभावना का वर्णन किया है । इ म य म ARMB | 1 1574 4 ब क ड C ताद त्स ३५५ तू प्रथमाक्षरों को पढ़ने से 'बयसद्भावना' शब्द कि कवि ने इस सर्ग में जयकुमार के मन में Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ (घ) निर्गमनविधिचक्रबन्ध + 媽 ו 2200 "निर्विण्णस्य जयस्य संसृतिपथः सिद्धि समिच्छो पुनः, गम्भीरां समवाप्य सम्मतिमतः पृच्छांस साक्षात्कविः । मर्मस्पर्शितया प्रबन्धति सतां यं कञ्चिदीशो विधिम्, विष्ण्योत्तानितसङ्गतैः स महितो नमण्यविघ्नो निधिः ॥ " - जयोदय, २६।१०७ सङ GE 5 F F F OFFF (a) महाकवि ज्ञानसागर के काव्य- एक प्रध्ययन स तैः 3. 902 8 अब ब A 5 हैं 15 प्र प्र . 4. 24 P स्प A च श्र थ ल ख क ष ष्ट PR S (३) CR) () प्रस्तुत चक्रबन्ध के घरों के प्रथमाक्षरों को पढ़ने से 'निर्गमनविधि' शब्द बनता है । इस शब्द का तात्पर्य यह निकलता है कि इस सगं में जयकुमार के परिग्रह-स्याग कर नगर से निकलने का वर्णन दिया गया है । Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५७ महाकवि मानसागर के संस्कृत-प्रन्थों में कलापस () जयकुपतये सरपर्मदेशनाचक्रवन्ध "जग्मुनि तिसत्सुखं समषिकं निर्देशतातीतिपम, यस्मादुत्तमषमंतः सुमनसस्ते शश्वदुभाषितम् । कुज्ञानातिगमन्तिमं सुमनसा तेनाजितः सिद्धये, येनासो जनिरापति, सकुशला पञ्चाय तच्छित्तये ॥" -जयोदय, २७।६६ । मि EPLEMEERREHE) कारबककका प्रस्तुत चकबन्ध के परों में विद्यमान प्रपमाक्षरों और तत्पश्चात षष्ठामरों को मिनाकर पढ़ने से 'जयकुपतये सदधर्मदेशना'-ये दो शब बनते हैं। इनका तात्पर्य यह निकलता है कि कवि ने इस वर्ग में राजा जय के प्रति ऋपभदेव का उपदेश पणित किया है। Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ महाकवि मानसागर के काव्य-एक अध्ययन (२) तपापरिणाम चक्रबन्ध "तज्जन्मोत्थितमित्यमुन्मदसुखं लब्ध्वा यषापाकलि, पश्चात् सम्प्रति जम्पती पदमतामेवं हृदा पारुणा । पञ्चाक्षाणि निमानि निमंवतया तवृत्तमरयुत्तमम्, मंक्षुद् गीतमिहोपवीतपदकरित्युत्तणाडू मम ॥" -जयोदव, २८ करावा PSGEET44 REMIERE प्रस्तुत पक्रवन्ध के भरों में विद्यमान प्रथमाक्षरों को क्रमशः पढ़ने से 'तप:परिणाम' यह शब्द बनता है। इससे तात्पर्य निकलता है कि कवि ने इस पर्व में जयकुमार द्वारा मोक्षप्राप्ति का वर्णन किया है । उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि चित्रालङ्कारों को प्रयुक्त करते समय कवि के हरूप में दो इच्छायें रही होंगी, एक तो पाण्डित्य-प्रदर्शन को पीर Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि भानसागर के संस्कृत-ग्रन्थों में कलापक्ष दूसरी सर्ग का सारांश देने को । ये सभी चक्रबन्ध वास्तव में 'जयोदय' महासस के सार रूप में प्रस्तुत किये जा सकते हैं। महाकवि ने अपने 'वीरोदय' नामक महाकाम में गोमूत्रिकाबन्ध, यानबन्ध प्रपनन्ध और तालवन्तबन्ध नामक पार चित्रामङ्कारों का प्रयोग किया है यहां उन सभी के उदाहरण प्रस्तुत हैं पोभूत्रिकाबन्ध "रमयन् गमयंत्वेष वाङ्मये समयं मनः । न मनागनयं द्वेष पाम वा समयं जनः ॥" -वीरोदय; २२० लोक से गोमूत्रिकाबन्ध बनाने की विधि यह है कि इसमें श्लोक की प्रथम पंक्ति के पहले, तीसरे, पांचवे, सातवें, नवे इत्यादि विषम प्रारों को चित्र की प्रथम पंक्ति में रखा जाता है और इसी प्रकार श्लोक की द्वितीय पंक्ति के पहले, तीसरे, पांचवे, सातवें, नवें इत्यादि विषम प्रक्षरों को चित्र की तीसरी पंक्ति में रखा जाता है और दोनों पंक्तियों के बीच के दूसरे, चौथे, छठे, पाठवें इत्यादि बम प्रमरों को क्रमशः द्वितीय पंक्ति में रखा जाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि लोक का एक अक्षर लेकर, एक प्रक्षर छोड़ा जाता है। लिए हुए मक्षरों से प्रथम भौर तृतीय पंक्ति बन जाती है; मोर छोड़े गये प्रक्षरों से द्वितीय पंक्ति बन बाती है । इस बन्ध में लिखित श्लोक की विशेषता यह होती है कि दूसरे, चौथे पादि सम प्रक्षर दोनों पंक्तियों में एक ही होते हैं। प्रतः इस बन्ध में निबद्ध लोक को पढ़ते समय एक प्रक्षर तृतीय पंक्ति का और एक अक्षर द्वितीय पंक्ति का लेना होगा जैसा कि उपर्युक्त चित्र में है। Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० यानवन्ध "न मनोद्यमि देवेभ्योऽहंदुद्भ्यः संव्रजतां सदा । दासतां जनमात्रस्य भवेदप्यच नो मनः ॥" (P महाविज्ञानसागर के काव्य- एक अध्यय च दभ्यः 33 भ स्वभा - बीरोदय, २२|३८ ((३५ १) श्लोक को वितान पोर मण्डप में लिखने के पश्चात् स्तम्भों और मंच में लिखा जाता है । इस श्लोक के प्रथम दो चरण मण्डप धौर वितान में हैं, तत्पश्चात् तृतीय चरण दाहिने स्तम्भ से मंच की घोर मोर चतुर्थ चरण मंच से होता हुआ बायें स्तम्भ में लिखा गया है । Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि भानसागर के संस्कृत-प्रन्थों में कलापक्ष ३६१ पप्रबन्ध "विनयेन मानहीनं विनष्टनः पुनस्तु नः । मुनये नमनस्पानं मानध्यानधनं मनः॥" -बोरोक्य, २२॥३६ कमल में पंखुड़ियां पौर पराग ये दो वस्तुएँ विद्यमान होती हैं। प्रतः पप्रबन्ध की रचना में एक प्रभर बीच में पराम के रूप में और शेष प्रक्षर पंखुरियों के रूप में विद्यमान रहते हैं। उपर्युक्त श्लोक में 'न' अक्षर पराग-रूप में स्थित है। शेष प्रक्षर अनुलोम-प्रतिलोम विधि से पढ़े जाते हैं, अर्थात् पंखुड़ी से मध्य में भोर मध्य से पंखुड़ी में पढ़ा जाता है। Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि मानसागर के कार्य-एक अध्ययन नालवन्तबन्ध "सन्तः सदा समा भान्ति मधुमति नुतिप्रियाः । पयि त्वयि महावीर स्वीतां कुरु मजूं मयि ॥" -वीरोक्य, २२१४. F51 इस बन्ध में श्लोक को क्रमशः दण्ड में स्थित करते हुये, पण पोर मलबत्त जो सन्धि में ले जाते हैं, तत्पश्चात् तालवृन्त में घुमाया जाता है, जैसा कि पर्यन्त सुदर्शनोदय में कवि ने एक चित्रबन्ध प्रयुक्त किया है-कसशत्प। अब इसका पदाहरण प्रस्तुत है। Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकविज्ञानसागर के संस्कृत-प्रम्यों में कलापक्ष कलशबन्ध "परमागमलम्बेन नवेन सन्नयं लप । यन्न सम्नरमङ्गं मां नयेदिति न मे मतिः ।। " ये ति दि फ्रुफ h फ्री फ्र 5 र प २६३ - सुदर्शनोदय, ९॥७९ तिः इस बन्ध में इलोक का प्रारम्भ कलश की प्राधारशिला से होता है। तत्पश्चात् श्लोक को कलश के ठीक बीच में दायीं घोर पढ़ते हुये शीर्षस्थान तक ले जाया जाता है। पुनः ठीक बीच के बायीं प्रोर से पढ़कर पुनः प्राधारशिला पर पहुंचकर फिर बीच में मोर तत्पश्चात् कलश के बाहरी भाग में पढ़ा जाता है, जैसा कि उपर्युक्त श्लोक में है । Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ i૬૪ (प्रा) छन्द गतिरहित जीवन प्रसम्भव है। सांसारिक प्राणी को उसके चरण गतिशील बनाते हैं, और काव्य को गतिशील बनाते हैं उसमें प्रयुक्त किए गए छन्द । 'छन्द' शब्द 'छन्द धातु से 'प्रसुन्' प्रत्यय द्वारा निष्पन्न हुमा है। इस शब्द का तात्पर्य ऐसे श्लोक से है जो श्रोता को प्रसन्न कर सके । therefa ज्ञानसागर के काव्य - एक प्रध्ययन श्लोकों को जब चरणों, वण मोर मात्रामों के प्राकर्षक बन्धन में निबद्ध किया जाता है, तब उनमें प्रवाह, सौन्दयं भोर गेयता मा जाती है । फलस्वरूप पाठक या श्रोता जब ऐसे श्लोकों को पढ़ता या सुनता है, तब उसे मधुर सङ्गीत सुनने जैसा मानन्द मिलता है; मौर वह छन्दोबद्ध श्लोकों से युक्त काव्य को पढ़ने में या सुनने में ऐसा लीन हो जाता है कि अन्य सभी कार्यों को विस्मृत कर बेता है । काव्य की पद्यात्मक विधा की रचना तो पूर्णतया छन्दोबद्ध श्लोकों में ही की जाती है। प्रत: इस विधा में छन्दों का महत्व प्रत्यधिक है । गद्यात्मक विधा में छन्दों का इतना महत्व तो नहीं होता, किन्तु गद्यकवि भी अपने काव्यों में यत्र-तत्र gratea श्लोकों का प्रयोग करके छन्दों के महत्व का उद्घोष करते ही हैं। इतना ही नहीं बल्कि वे बीच-बीच में ऐसी शब्दावली का प्रयोग करते हैं, जहाँ किसी न किसी वृत्त विशेष की सिद्धि होने लगती है, ऐसे ही स्थलों को साहित्यदर्पणकार ने गद्यकाव्य का 'वृत्तगन्धि' नामक भेद माना है (साहित्यदर्पण, ६।३३० ) । नाटकों में भी जब कोई पात्र अपने कथन की पुष्टि करना चाहता है, या fear भावविशेष का अभिनय करता है, तब शीघ्र ही छन्दोबद्ध श्लोक का प्रयोग करता है । चम्पूकाव्यों में तो जितना महत्व गद्य का होता है, उतना ही पद्य का, इसलिए उनमें भी छन्दों की महिमा प्रक्षुण्ण है । कवि अपने काव्यों में दो प्रकार के छन्दों का प्रयोग करते हैं- मात्रिक प्रोर वाणिक | मात्रिक छन्दों में मात्रात्रों की भोर वाणिक छन्दों में बणं की व्यवस्था से श्लोकों को निबद्ध किया जाता है। साथ ही सुकवि यह भी ध्यान रखते हैं कि कौन से छन्द वीररस के बर्णन में, कौन से प्रकृति-वर्णन में भोर कौन से भक्तिभाव प्रकट करने में सहायक होंगे प्रादि-प्रादि । स्पष्ट है कि काव्य को प्राह्लादक एवं प्राणवान् बनाने में छन्दों का प्रयोग एक महत्वपूर्ण भूमिका प्रभिनीत करता है । प्रतः कोई भी काव्यशास्त्री मोर काव्यप्रणेता कलापक्ष के इस प्रङ्ग की उपेक्षा नहीं करता है । महारुवि ज्ञानसागर के काव्यों के अनुशीलन से ज्ञात होता है कि उन्होंने प्रचलित एवं प्रचलित दोनों प्रकार के छन्दों का अपने काव्यों में प्रयोग किया है । उनके काव्यों में प्रयुक्त छन्दों की कुल संख्या ४६ है । भागे प्रस्तुत किए गए Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-प्रन्यों में कलापमा EE + : +++ ++ + रेखाचित्र से ज्ञात हो जाएगा कि उन्होंने कितने प्रचलित मोर कितने प्रप्रचलित छन्दों का अपने काग्यों में कितने श्लोकों में प्रयोग किया है और कोन छन्द सर्वाधिक प्रयुक्त प्रा है : महाकवि ज्ञानसागर के कार्यो में प्रयुक्त वर्गीकरण छन्द.सारिणी क्रम प्रचलित अप्रचलित जयो- वीरो- सुदर्शनो- श्रीसमुद्र- दयो- मुनि- योग सं. छन्द छन्द दय दय दय दसचरित्र दय मनोरन्जन चम्पू शतक १. उपजाति(क) ७५८ ५०३ १३८ १३४ २६ + १५६२ २. मनुष्टप् ३०३ १७८ १४८ ४६ १०८ १०० ८५१ बियोगिनी २७५ ४२ ३५ २७ २ + ३८१ रथोडता २७३ १ १ + + + २७७ मात्रासमक २२६ १२ १७ ३ ४ + . २६२ ६. इतविलम्बित १६४ ६ ४ ३२ ४ + २४३ ७. वंशस्य १५३ २५ ४ ३६ ३ + २२१ ६.प्रार्या १९३ २६ १ + १ + २२१ ___ स्वागता १५२ + १ ३३ + + .. १८६ १०. वसन्ततिलका १२१ १५ २ ५ + ११. उपेनवजा १२ १६ १ + १२. मालभारिणी १४१ + + + + १३. शार्दूलविक्रीडित ६४ २० २ ___ + १४. इन्द्रवजा १५. भुजंगप्रयात ३ १३ १ + + + ११. उपजाति (स) ४ १७. सखी ११ + + १८. प्रौपच्छन्दसिक १०. + १९. मालिनी ७ २ + + + २०. गति ८ + + + + २१. रोला ५ + २२. दोहा ४ + + + इन्द्रवंशा २ १ १ २४. शिखरिणी ३ १ + २५. वैतालीय २ + १ + + २६. मन्दाक्रान्ता २ १ + + + + + x १५३- - ३५ .५ + ++ ++++++ ++++++ + " *+++++++++x++ . ++++++++++++++++++ ++ २३ ++ Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +++++++++++++ महाकवि भानसागर के काम-एक सम्मा स्रग्विणी ३ + + + + पृथ्वी ३ + मजुभाषिणी ३ . + ललित ३ + लावनी ३ + ३२. हरिगीतिका २ + ३३. पुष्पितामा २ + ३४. शाचिनी १ + उपचित्रा १ + तामरस १ + उद्गीति १ + उपगीति १ + पञ्चचामर १ + तोटक १ + + + दोधक १ + ४२. सम्परा १ + + + + + चन्द्रलेखा १ + + सनाई १ + + + + + १ प्रतिभा १ + + + + + प्ररल १ + + + + + कुलयोग १७ २९ ३०७६ ६८८ ४१२ ३४५ १६६ १.० ५०६० श्रीज्ञानसागर द्वारा अपने काग्यों में प्रयुक्त छन्दों की उपर्युक्त सारिणी को देखने से ज्ञात हो जाता है कि कवि ने ५०९० श्लोकों को ४६ छन्दों में निबद्ध किया है । इन छन्दों में १७ छन्द प्रचलित हैं और २६ छन्द मप्रचलित । सर्वाधिक प्रयुक्त होने वाले छन्दों के क्रम में उपजाति का स्थान सर्वप्रथम है। तत्पश्चात् मनुष्टुप, बियोगिनी रथोद्धता, मात्रासमक, द्रुतविलम्वित, वंशस्थ, आर्या, स्वागता, बसन्ततिलका, उपेन्द्रवज्रा, मालभारिणी, शार्दूलविक्रीडित एवं इन्द्रवज्रा इन १३ बन्दों का स्थान पाया जाता है। +++++++++++++++++++ ++++++++++++++++++ +++++++++++++++++++ ___ + +++++ मानसागर जी ने जयोदय के ३०७६ श्लोकों को ४६ छन्दों में, वीरोदय के ६८८ श्लोकों को १८ छन्दों में, सुदर्शनोदय के ४१२ श्लोकों को १६ छन्दों में, श्री. समुद्रदत्तचरित्र के ३४५ श्लोकों को १२ छन्दों में, दयोदयचम्पू के १६६ लोकों को ११ बन्दों में और मुनिमनोरजनशतक के १..लोकों को १ छन्द में निवट Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-प्रन्थों में कलापक्ष अब कुछ छन्दों के लक्षण एवं कवि द्वारा उनके प्रयोग का विवेचन प्रस्त उपजाति "मनन्तरोदीरितलक्ष्मभाजी पादो पदीयावुपजातयस्ताः । . इत्वं किलान्यास्वपि मिश्रितासु वदन्ति जातिष्विदमेव नाम ॥" -छन्दोमंजरी, २३ श्रीज्ञानसागर ने जयोदय महाकाव्य के ७५८, वीरोदय के ५०३, सुदर्शनोव के १३८, श्रीसमुदतवरित्र के १३४ प्रौर क्योदयम्भू के २६ श्लोकों में इस छन्द को निवट किया है। समीक्षकों के अनुसार इस छन्द का प्रयोग शङ्काररस के पालम्बनभूत उदात्तनायिकापों के रूपवर्णन, वसन्तत एवं उसके अंगों के वर्णन में करना चाहिए।' अपने पालोच्य कवि के काव्यों को देखकर यह ज्ञात होता है कि उपजाति के प्रयोग सम्बन्धी उपर्युक्त नियम को मोर उनका कोई ध्यान न था। क्योंकि उन्होंने अपने काव्यों में अधिकांशतः प्राय: प्रत्येक सर्म में इस छन्द का प्रयोग कर दिया है । उन्होंने इस छन्द का प्रयोग न केवल वसन्त वर्णन में ही अपित युद्धवर्णन में भी किया है । उन्होंने नगर-वर्णन में भी इस छन्द के प्रयोग में अपनी कुशलता का परिचय दिया है, उनकी यह कुशलता नायिका के रूप-वर्णन में भी रष्टिगोचर हो जाती है । पिंगलाचार्यों द्वारा बताए गए उपजाति के प्रायः सभी मेव उनके काव्यों में दृष्टिगोचर हो जाते हैं। स्पष्ट है कि कवि इस छन्द के कुछ निश्चित स्थलों के प्रतिरिक्त भी इसका प्रयोग करने में कुशल है। १. "शुगारालम्बनोदारनायिकारूपवर्णनम् । बसन्तादि तदङ्गञ्च सच्छायमुपजातिभिः ॥" -सुवृत्ततिलक: ३१७ २. वीरोक्य, ६।१-२, ४.१३ ३. अयोदय, ८।१-३, ५-६०, ६३, ६५७-७५ ४. वीरोदय, २।२, ५, ७, ६-१२, १४, १६-२२, ३५-४४ ५. जयोदय, ११।१-३८, ४०-४७, ४६-५१, ५३-५६, ६२-३८, ७०-७६ १. वही, ८।१ (जाया); (बुद्धि), ३ (शाला), ५ (हंसी), (रामा), . । (माला); सुदर्शनोदय, ११४ (प्रेमा), ५ (ऋद्धि)। Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ महाकवि ज्ञानसागर के काम्य-एक अध्ययन वियोगिनी 'विषमे ससजा गुरुः समे सभैरा लोऽथ गुरुवियोगिनी ।' छन्दों में मात्रा की दृष्टि से, श्रीज्ञानसागर के काव्यों में इस छन्द का तृतीय स्थान है। कुछ पिङ्गलाचार्यों ने इस छन्द का नाम सुन्दरी भी दिया कवि ने इस छन्द का प्रयोग जयोदय के २७५, वीरोदय के ४२, सुदर्शनोदय के ३५, श्रीसमुद्रदत्तचरित्र के २७ और दयोदयचम्पू के २ श्लोकों में किया है। इस प्रकार बियोगिनी छन्द में निबट श्लोकों की संख्या ३८१ है। इस छन्द का प्रयोग कवि ने विवाह-वर्णन' कन्या की विदा एवं नदी वर्णन' पोर देवगणों द्वारा भगवस्मन्माभिषेक वर्णन में किया है। . रपोडता 'रान्तराविह रपोरता लगो।' -वृत्तरत्नाकर ॥३० रपोदता छन्द के प्रयोग के विषय में विद्वानों का मत है कि इसका प्रयोग चन्द्र, पनवनादि उद्दीपन विभावों के वर्णन में पन्छा होता है। किन्तु हमारे पालोच्य महाकवि श्रीज्ञानसागर ने इस बन्द का प्रयोग मुनि-उपदेशवर्णन,' दूतपाता, मुढसजा एवं नगरागमनवर्णन में किया है। यह छन्द पयोदय के २७५ १. 'मयुजोर्यदि सो जगी युजोः समरा ल्गी पनि सुन्दरी तदा।' -पन्दोमम्मरी, २९ २. बयोक्य, १०१.८१ १. वही, ११-८२ ४. पीरोक्य, १.१६ ५. पोता विभावेषु मण्या पन्द्रोदवादिषु।' -सुवृत्ततिलक, ॥१८ का पूर्वार्ष । ६. जयोदय, २॥१.११०, ११३, ११९-१२०, १२२, १२४.१२६ सपा १३६ ७. वही, पा५५-१०४ ८. वही, २१११.६६, ८६-t. Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि शानसागर के संस्कृत-ग्रन्थों में कलापक्ष ३६६ श्लोकों में, वीरोग्य पोर सुदर्शनोदय के एक-एक श्लोक में (इस प्रकार कुल मिलाकर २७७ श्लोकों में) उपलब्ध होता है। कवि द्वारा प्रयुक्त छन्दों में मात्रा की दृष्टि से इसका स्थान चतुर्थ है। मात्रासमक__ "मात्रासमकं नवमो ल्गान्तम् ।" -वृत्तरत्नाकर, २१३२ सोलह मात्रामों वाले इस छन्द का प्रयोग कवि ने जयोदय के २६६, बोरोदय के १२. सुदर्शनोदय के १७, श्रीसमुद्रदत्तचरित्र के ३ दयोदयचम्पू के ४ (इस प्रकार कुल २६२) श्लोकों में किया है। मात्रा को ष्टि से इस छन्द का स्थान कवि द्वारा प्रयुक्त छन्दों में पंचम है । पिंगलाचार्यों ने इस छन्द के वानवासिका, चित्रा, उपचित्रा, विश्लोक एवं पादाकुलकवृत्त नामक भेद किये हैं। किन्तु कवि ने सर्वत्र ही इस छन्द के पादाकुलक नामक भेद का प्रयोग किया है, जिसमें ह्रस्व अथवा लघु का बन्धन नहीं होता। इस छन्द का प्रयोग कवि ने सर्ग-समाप्ति, वन-क्रीड़ा वर्णन और नायक-नायिका-प्रेम-वर्णन' में किया है। द्रुतविलम्बित "अभिव्यक्तं नभभररक्षरदिशाक्षरम् । वदन्ति वृतजातिज्ञा वृत्तं द्रुतविलम्बितम्॥" -सुवृत्ततिलक, ।१।२७ कवि ने इस छन्द में जयोदय के १६४, वीरोदय के ६, सुदर्शनोदय के ४; श्रीसमुद्रदत्तचरित्र के ३२ और दयोदयचम्पू के ४ (इस प्रकार से कुल २४३) श्लोक निबद्ध किए हैं । मात्रा की दृष्टि से कवि के काव्यों में प्रयुक्त छन्दों में इस छन्द का स्थान छठा है। कवि ने अपने काव्यों में इस छन्द का प्रयोग चिन्ता, मति प्रालि भाव-वर्णन' पोर वैराग्य-वर्णन में किया है । १. छन्दःशास्त्रम्, ४।४२-४७ २. 'यदतीतकृतविविधलक्ष्मयुतर्मात्रासमादिपादः कलितम् ।। अनियतवृत्तपरिणामयुक्तं प्रपितं जगत्सु पादाकुलकम् ॥' -वृत्तरत्नाकर, २१३७ ३. वीरोदय, ११३६ ४. वही, १४।१-८२, ८७, ६३-६४, ६९ ५. जयोदय, २२।१-८२, ८८, ९१ ६. वही, ६१-८६ ७. (क) वही, २५॥१-८६ (ग) श्रीसमुद्रदत्तचरित्र, ७।१-३० Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० प्रार्था 76 महाकवि ज्ञानसागर के काव्य- एक अध्ययन 'यस्याः पादे प्रथमे द्वादश मात्रास्तथा तृतीयेऽपि । भ्रष्टादश द्वितीये चतुर्थ के पञ्चदश सार्यां ।। " . मात्रा की दृष्टि से कवि के काव्यों में प्रयुक्त इस छन्द का स्थान प्राठवां है। इस छन्द में जयोदय के १६३, बीरोदय के २६, सुदर्शनोदय और दयोदयचम्पू का एक-एक (इस प्रकार से कुल २२१) श्लोक निबद्ध हैं । कवि ने इस छन्द के समस्त भेदों का प्रयोग किया है। इस छन्द का प्रयोग कवि ने स्वयंवरवर्णन ' प्रर स्वप्न-वर्णन में किया है । वसन्ततिलका 'रभी जो गो वसन्ततिलका ।' - श्रुतबोध, ४ - छन्दोऽनुशासनम् २।३१ कवि द्वारा प्रयुक्त छन्दों में मात्रा की दृष्टि से वसन्ततिलका छन्द का स्वाम दस है । यह छन्द जयोदय के १२१, वोरोदय के ४०, सुदर्शनोदय के १५, श्रीसमुद्रदत्तचरित्र के २ प्रौर दयोदय चम्पू के ५- - इस प्रकार से कुल १८३ श्लोकों में निबद्ध किया गया है । इस छन्द का प्रयोग कवि ने काव्य के उपसंहार में धोर प्रभातवर्णन में किया है । काल भारिरंगी विषमे सजसा यदा गुरु चेद्, सभरा येन तु कालभारणीयम् ।' - छन्दोमञ्जरी, ३।१२ कवि द्वारा प्रयुक्त छन्दों में मात्रा की दृष्टि से इस छन्द का बारहवाँ स्थान है। यह छन्द के वल जयोदय के १४१ श्लोकों में निबद्ध है। इस छन्द का प्रयोग कवि ने पाणिग्रहण वर्णन एवं बारात वर्णन में किया है। बालविक्रीडित "मसर्जः सततैर्गेन युक्त मे कोनविशवत् । शार्दूलकीर्ति प्राहुछिन्नं द्वादशसप्तभिः ॥ 1 - सुबुततिलक, १३६ कवि द्वारा प्रयुक्त छन्दों में इस छन्द का स्थान मात्रा की दृष्टि से १३वीं है । यह छन्द जयोदय के ६४, बोरोदय के ३८, सुदर्शनोदय के २०, इलोकों में प्रयुक्त १. जयोदर, ६।१, ३-१३१ २. वीरोदय, ४।३४-३६, ३६-५६ ३. वही, २२1१-२७ ४. जयोदय, १८ १ ८६ ५. वही, १२।१ - ८१, ८३-११८, १२१-१३६ Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत ग्रन्थों में कलापक्ष ३७१ किया गया है। इन छन्द के प्रयोग के विषय में विद्वानों का मत है कि इस चन्द्र का प्रयोग राजानों की वीरता की प्रशंसा में श्रेष्ठ होता है । ' परन्तु श्रीज्ञानसागर ने इस छन्द का प्रयोग सगं के अन्त में छन्द-परिवर्तन के लिए भोर सर्ग का नामोल्लेख करने के लिए किया है । दोहा 'यस्याः प्रथमतृतीययोः पादयोः प्रथमं षट्कलो गणः) ततश्चतुष्कलः ततस्त्रिकल इत्येवं त्रयोदश मात्रा:, द्वितीयचतुर्थयोः षट्कलचतुष्कली समानो त्रिकलस्थाने एको लरेवेत्येकादश मात्रास्तदिदमष्टा चत्वारिंशन्मात्राभिर्दोहाच्छन्दः । - वृत्तरत्नाकर, चौखम्बा संस्कृत सीरीज वाराणसी चतुर्थ संस्करण, पञ्चमोऽध्यायः, पृ० सं० १४७१४८ यह छन्द जयोदय के ४ एवं सुदर्शनोदय के १ श्लोक ( इस प्रकार केवल ५ श्लोकों में प्रयुक्त किया गया है। पुष्पिताना 'प्रयुजि नयुग रेफतो यकारो युजि च नजो जरगाश्च पुष्पिताग्रा ।।' - वृत्तरत्नाकर, ४।१० यह छन्द जयोदय के केवल २ ही श्लोकों में प्रयुक्त हुआ है । 3 पञ्चचामर 'जरो जरो वदन्ति पञ्चचामरम्' । - वृत्तरत्नाकर, ३।१५२ यह छन्द जयोदय के केवल एक ही श्लोक में प्रयुक्त हुआ है । ४ उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि श्रीज्ञानसागर जहाँ उपजाति जैसे प्रति प्रचलित छन्द का प्रयोग करने में कुशल हैं, वहाँ रथोद्धता एवं कालभारिणी जैसे प्रचलित छन्दों का प्रयोग भी उन्होंने अपने काव्यों में यथास्थान किया है। कवि का छन्दोविधान महाकाव्य में छन्दसम्बन्धी नियमों की शृंखला से मुक्त है। उनके १. 'शौर्यस्तवे नृपादीनां शार्दूलक्रीडितं मतम् । - सुवृत्ततिलक, ३।२२ (क) जयोदय, २०६०, २२८६, २३८२-८३ (ख) सुदर्शनोदय ६।२३ जयोदय, १०।१११, ११८ बही, २०/२५ Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ महाकवि ज्ञानसागर के काम्य-एक अध्ययन काग्यों में प्राय: छन्दों का मिश्रित प्रयोग मिलता है। किन्तु यह प्रयोग रसचणा में बाधक नहीं बना है। (5) गीत राग-रागिणी-- ताल एवं रागनिबद्ध कविता गाई जाने पर गीत की संज्ञा धारण कर लेती है। लयबद्धता को सुन्दर कविता और संगीत का गुण माना गया है । साहित्य और संगीत का बड़ा भारो सम्बन्ध है । इन दोनों को एक ही स्थान पर उपस्थिति सहृदय को प्राह्लाद प्राप्त कराने में सहायक है। अत: यदि कोई कवि अपने काव्य में संगीत को भी शामिल कर लेता है तो उसका काव्य प्रधिक मनोरम हो जाता है। महाकवि ज्ञानसागर के काव्यों में गीत - श्रीज्ञानसागर ने अपने संस्कृत-काव्यों में स्थान स्थान पर अपनी संगीतप्रियता का परिचय दिया है। कभी बसन्त की शोभा से प्राकृष्ट होकर तो, कभी रात्रि के भयानक अन्धकार से डरकर, कभी प्रभातकालीन सौन्दर्य से प्रभावित होकर, तो कभी भक्तिवश उन्होंने गीतों के रूप में भी अपने हृदय के उद्गार प्रकट किये हैं। उनके कान्य में गाए गए गीत क्रमशः प्रभाती, काफीहोलिकाराग, सारंगराग, श्यामकल्याणराग और सौराष्ट्रीय रागों में निबद्ध हैं। कुछ गीत 'कबाली' शैली में भी पाए जाते हैं। कवि के काव्यों में प्राप्त गीतों की संख्या ३७ है। इनमें से चार गीत जयोदय महाकाव्य के २३वे सगं में हैं; १ गीत २५ सर्ग में है, १ गीत दयोदयचम्पू के सप्तम लम्ब में है, ८ गीत सुदर्शनोदय के पंचम सर्ग में हैं, ६ गीत षष्ठ सर्ग में हैं, ८ गीत वें सर्ग में है और ३ गीत नवें सर्ग में हैं। __ 'जयोदय' एवं दयोदयचम्पू' में गीत किन रागों में गाए गए हैं, ऐसा उल्लेख नहीं मिलता। उन्हें गायक एवं संगीतकार को इच्छा पर छोड़ दिया गया है। सुदर्शनोदय काव्य में २ गोत प्रभात राग भैरव में, दो गोत काफो होलिकाराग में, ६ गीत सारंगराग में, २ गीत श्यामकल्याण राग में, ११ गीत दंशिक सौराष्ट्रीय राग में, ६ गीत कब्बाली शैली में, १ गीत छदचाल नामक शैली में प्रौर १ गीत रसिकराग में निबद्ध हैं। प्रभाती, काफीहोलिका, सारंग; श्यामकल्याण- ये चार राग तो संगीत के बहुचर्चित राग हैं । दैशिक सौराष्ट्रीय क्षेत्रधिशेष का राग है। कन्वाली शेली माज के उर्दूप्रिय सहृदयसमाज की प्रतिप्रसिद्ध गायन शैली है । रसिक राग ब्रजप्रवेश में प्रसिद्धिप्राप्त रसिया नामक राग का ही नामान्तर प्रतीत होता है । किन्तु छन्दचाल नामक गायन-शैली का संगीतशास्त्र में कोई पारिभाषिक Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-ग्रन्थों में कलापक्ष शब्द नहीं मिलता । प्रब कुछ गीतों के राग सहित उदाहरण प्रस्तुत हैं :-- प्रभाती राग-भैरव :-- इस राग का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है राग भैरव संवादी - ऋषभ : स्वर - रे, ध कोमल, अन्य शुद्ध पा-भैरव जाति-सम्पूर्ण बादी-धवत महाकवि श्रीज्ञानसागर द्वारा इस राग में निवद्ध एक गीत इस प्रकार काफी होलिकाराग गायन समय - प्रातः काल तथा गेयवस्तु - भक्ति के गीत' "ग्रहो प्रभातो जातो भ्रातो भवभयहरण जिन भास्करतः ॥ स्थायी ॥ पापप्राया निशा पलायामास शुभायाद्भ तलतः । नक्षत्रता दृष्टिपथमपि नाञ्चति सितद्युतेनिर्गमनमतः ॥ | स्थायी || स्वगभावस्य च पुनः प्रचारो भवति दृष्टिपथमेष गतः । क्रियते विप्रवरेरिहादरो जड जातस्य समुत्सवतः ॥ स्थायी || सामेरिका विकस्य तु मलिना रुचिः सुमनसामस्ति यतः । भूराजी शान्तये वन्दितुं पादो लगतु विरागभृतः ॥ स्थायी ॥ " ३७३ इस राग का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है :राग —काफी, संवादी स - थाट —काफी, जाति - सम्पूर्ण वादी - प स्वर - ग, नि कोमल, अन्य शुद्ध, गायन समय - मध्य रात्रि गेय वस्तु — होली, भजन इत्यादि । 3 ज्ञानसागर जी द्वारा इस राग में निबद्ध एक गोत उदाहरण के रूप में प्रस्तुत १. विनायकराव पटवर्धन विरचित, 'रागविज्ञान', तृतीयभाग, सप्तम संस्करण, पृ० सं० १०६ २. सुदर्शनोदय, ५ प्रथम गीत । (क) वसन्त, संगीत विशारद, (प्रकाशक - संगीत कार्यालय हाथरस) पृ० १८१ (ख) विनायकराव पटवर्धन 'राग-विज्ञान' तृतीयभाग, पृ० सं० १८४ Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ कदा समय: समायादिह जिनपूजायाः ।कञ्चनकलशे निर्मलजलमधिकृत्य मञ्जु गङ्गायाः । वारांधाराविसर्जनेन तु पदयोजिन मुद्रायाः । लयोsस्तु कलङ्कक्लायाः ॥ स्थायी ॥ मलयगिरेश्चन्दनमथ नन्दनमपि लात्वा. रम्भायाः । केशरेण सार्धं विसृजेयं पदयोजिन मुद्रायाः, न सन्तु कुतश्चापायाः ॥ स्थायी ॥ मुक्तोपमसन्दलदल मुज्ज्वलमादाय श्रद्धायाः । सद्भावेन च पुञ्जं दत्वाऽप्यग्रे जिनमुद्रायाः पतिः स्यां स्वर्गरमायाः ॥ स्थायी ॥ कमलानि च कुन्दस्य च जातेः पुष्पाणि च चम्पायाः । प्रयामि नितयाऽहं परयोजिन मुद्रायाः, यतः सौभाग्यं भयात् ॥ स्थायी || ' श्यामकल्याण राग महाकवि ज्ञानसागर के काव्य- एक प्रध्ययन श्यामकल्याण राग का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है : राग - श्यामकल्याण जाति वाडव सम्पूर्ण बाट- काफी वादी - पंचम गायन समय - रात्रि का प्रथम प्रहर । 2 संवादी - षड्ज स्वर - कोमल नि, तीव्र म इस राग में निबद्ध कवि का एक गीत उदाहरण के रूप में प्रस्तुत है : "जिन परियामो मोदं तव मुखभासा ।। लिन्ना यदिव सहजकद्विषिना, निः स्वजनीनिधिना सा ॥ सुरसनमशनं लब्ध्वा रुचिरं सुचिरक्षुधितजनाशा ॥ hfoकुलं तु लपत्यधिमधुरं जलवस्तनितसकाशात् ॥ • किन्न चकोर शो: शान्तिमयी प्रभवति चन्द्रकला सा ॥3 सारक राग सारङ्गराग का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है :राग - शुद्ध सारंग पृ० सं० ५८ ३. सुदर्शनोदय, ५ छठा गीत । ४. संगीत विशारद, पू० ० १८२ स्वर दोनों म, दोनों नि गायन समय दिन का दूसरा प्रहर १. सुदर्शनोदय, ५ चतुथं गीत के प्रथम चार भाग । २. नारायण लक्ष्मण गुरणे, संगीतप्रवीरणदर्शिका ( प्र० भा० ), द्वितीय संस्करण Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि शामसागर के संस्कृत-प्रन्यों में कलाप जाति-पाडव बादी-रे ". संवादीमहाकवि द्वारा इस राग में निबट एक पोत उदाहरण के रूप में प्रस्तुत "स वसन्त प्रागतो हे सन्तः, स वसन्तः ।। परपुरा विप्रवराः सन्तः सन्ति सपदि सूक्तमुदन्तः ।। लताजातिरुपयाति प्रसरं कौतुकसान्मधुरवरं तत् ।। लसति सुमनसामेष समूहः किमुत न समि विस्फुरवन्तः ।। भूरानन्दमयीय सकला प्रचरति शान्तः प्रभवं तत् ॥' सौराष्ट्रीय राग इस राग का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है :राग-सौराष्ट्रीय, संवादी-पज .. थाट-भैरव, स्वर-दोनोंध, वादी-मध्यम, गायन समय-प्रातःकाल' उदाहरण "न हि परतल्पमेति स ना तु स्थायी किन्तु भूरागस्य भूयाद् दुषो विषदे बात, ... . मणिकनमणि निबयशोमणिसुलभं च जहातु ।.... . न हि परतल्पमेति स ना तु ॥१॥ भोजने भक्तोज्झिते भवि वो बनेश्वरि, भात. स्वकरोऽपि स कक्करो न हि परोशमपि यात। न हि परतल्पमेति स ना तु ॥ " न्याली सङ्गीत में दो गायन शैलियां हैं-बड़ा ख्याल एवं छोटा स्याल । कबाली छोटा स्यान नामक मायिकी का भेद है। इसका पाविष्कार सबसे प्रथम चौदहवीं शताब्दी में अलाउद्दीन खिलजी के बरवार के सुप्रसिव संगीतज्ञ, कवि तथा राममंत्री हजरत ममीर खुसरू ने किया था। इस गीत की कविता छोटो होती है। गीतों में १. सुदर्शनोदय, ६ प्रथम गीत । २. सौराष्ट्रोयं भैरवस्यावमेले मांशः पूर्णो अवतद्वन्दयोगी। मारोहे स्यात्तीपोऽन्योवरोहे प्रातर्गयो दुर्बलोऽस्मिन्मिषायः॥" ...... -रामकललामा विष्णुनारायण भातसडे, हिन्दुस्तानी संगीतपति, प.सं०४१ ३. सुदर्शनोदय, ६७ गीत के प्रथम दो भान . .१० ११६ Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य-एक अध्ययन । शृङ्गार एवं करुण रस प्रधान होता है । फारसी एवं उर्दू भाषा का प्रयोग होता है । मुसलिम समाज के अतिरिक्त हिन्दुनों में भी शैली का प्रचार पाया जाता है। इसको गाने वाले 'कव्वाल' कहलाते हैं। कवाली के साथ ढोलक एवं तालियां वजाई जाती हैं । इसे द्रुत लय में गाया जाता है । इसमें एकताल, त्रिताल, झपताल रूपक एवं पश्तो इत्यादि तालों का विशेष प्रयोग होता है।' "समस्ति यताऽश्मनो ननं कोऽपि महिमून्यहो महिमा स्थायी।। न स विलापी न मुद्वापी दृश्यवस्तुनि किल कदापि । समन्तात्तत्र विधिशापिन्यदृश्ये स्वात्मनीव हिया ।समस्ति. ॥ नरोत्तमनवीनता यस्मान्न भोगाधीनता स्वस्मात् । सुभगतमपक्षिणस्तस्मात् किं करोत्येव साप्यहिमा । समस्ति. २ ॥ न एक खलु दोषमायाता सदानन्दा समा याता। क्वापि बाधा समायाता द्रुमालीवेष्यते सहिमा । सगस्ति. ३ ॥ इयं भराधितास्त्यभित: कण्टकर्यत्पदो रुदितः । स चमसमाश्रयो यदितः कुतः स्यात्तस्य वा महिमा ॥ समस्ति. ४ ॥ संगीत-शास्त्रियों ने जिस राग गायन का जो समय बताया है, श्री ज्ञानसागर ने अपने गीतों का भी वही समय रखा है। काफोहोलिकाराग मोर श्यामकल्याण राग का गायन समय रात्रि का प्रथम प्रहर है। सुदर्शन ने अपने सन्ध्याकालीन पूजन में ही इन गीतों को गाया है। सारंग राग गायन का समय दिन का दूसरा प्रहर है। कवि ने इस राग में निबद्ध गीत की विषय-वस्तु के रूप में वसन्तबेलावर्णन का चयन किया है । चम्पापुर के सभी नगरवासियों ने दोपहर में वसन्तोत्सव और वन-विहार किया है। . संगीत भावपक्ष को प्रबल बनाने का मधुरतम साधन है। अपने काम्यों में जहां-जहां कवि ने इन गीतों को निवड किया है, वहां-वहाँ कवि की संगीतप्रियता का परिचय तो मिलता हो है, साथ ही उस-उस स्थल का काम्य-सौन्दर्य भी बढ़ १. (क) विक्रमादित्य सिंह निगम, संगोत कोमुदी, पृ० सं० ११३-११४ (ब) शान्तिनोवधन, संगीतशास्त्रदपण, पृ० सं० ६६-६७ (ग) बसन्त, संगीत-विशारद, पृ० सं० १५४ २. सुदर्शनोदय, ८ पहला गीत । Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-प्रन्थों में कलापन ३७७ (ई) गुण 'गुण' शब्द का तात्पर्य है बढ़ाने वाला। लौकिक जगत् में गुणवान् व्यक्ति में शोम्यं, पोदाय्यं. सारल्य, धर्य प्रादि गुणों के समान साहित्य-जगत में माधुर्य, मोज पोर प्रसाद ये तीन गुण सगुण काव्य में देखे जाते हैं। हम देखते हैं कि समाज में जिस व्यक्ति के पास जितने अधिक गुण होते हैं, उसमें उतनी अधिक मानवता होती है। ऐसे व्यक्ति की प्रतिष्ठा भी खूब होती है । इसी प्रकार साहित्यजगत में जिस काव्य में माधुर्यादि गुण जितनी अधिक मात्रा में प्रयुक्त किये जाते हैं, उस कान्य में रसाभिव्यञ्चना भी उसी मात्रा में होती है। मोर ऐसा काव्य साहित्य जगत् में प्रतिष्ठा भी प्रषिक प्राप्त करता है। निर्गुण व्यक्ति के समान ही माधुर्यादि गुणों से रहित काव्य रसाभिव्यञ्जना में समर्थ न होने के कारण सहृदयग्राह्य नहीं होता। अत: यदि शोयं, प्रौदार्य प्रादि गुण मानवता के चोतक हैं, तो माधुर्यादि गुण रसाभिव्यञ्जना के घोतक हैं । स्पष्ट है. कि गुणों की सत्ता काम्य में जहां-जहाँ होगी, वहां-वहाँ रसाभिव्यञ्जना होगी। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि समाज में व्यक्ति की प्रतिष्ठा को बढ़ाने वाली शूरता, उदारता इत्यादि के समान ही काग्य की मात्मा रस की प्रतिष्ठा को बढ़ाने वाली मधुरता इत्यादि विशेषतामों को ही 'गुण' कहा जाता है।' काव्यशास्त्रियों में रस के उत्कर्षापायक इस तत्त्व के भेदों के विषय में विभिन्न मान्यताएं प्रचलित हैं । किन्तु मान्यता केवल तीन गुणों को ही प्राप्त हुई है। मोर के तीन गुण हैं-माधुर्य, मोज पोर प्रसाद ।। माधुर्य गुरण का स्वरूप एवं उसके प्रमिग्यञ्चक तत्व मन को द्रवीभूत करने वाला संयोग शङ्गार में विद्यमान प्राह्लादस्वरूप गुण ही माधुर्य गुण है । संयोग शङ्गार के अतिरिक्त इस गुण का चमत्कार करुण, विप्रलम्भ और शान्तरस में भी क्रमिक अतिशयता से देखा जाता है। माधुर्य गुण के अभिग्यञ्जक तत्त्व इस प्रकार हैं (क) वर्णो का संयोग प्रगने वर्ग के पंचम वणों से। (ब) टवर्ग को छोड़कर कवर्ग, चवर्ग, तवर्ग और पवर्ग को प्रयोग । १. "ये रसस्याङ्गिनो धर्माः शोर्यादय इवात्मनः । उत्कर्षहेतवस्ते स्युरचलस्थितयो गुणाः ॥" -काम्यप्रकाश (मम्मट), ८१६६ २. माधुयोजःप्रसादास्यास्त्रयस्ते न पुनर्दश ।" -वही, ८६८ का पूर्वार्ष। ३. "माहादकत्वं माधुयं शृङ्गारे द्रुतिकारणम् ।। करणे विप्रलम्भे तच्छान्ते चातिशयान्वितम् ।" -बही, ८१६८ का उत्तरार्ष, ६६ का पूर्वार्ष। Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ (ग) ह्रस्व रकार धीर कार का प्रयोग । (ब) समासरहित अथवा स्वल्पसमासवाली रचना । ' महाकवि ज्ञानसागर के काव्य महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत काव्यों में माधुर्य गुण महाकवि ज्ञानसागर के सभी काव्य शान्तरस प्रधान हैं। उनमें यत्र-तत्र संयोग शुङ्गार और करुण रस का भी प्रयोग मिलता है। ऐसी स्थिति में उनके ara में माधुर्य-गुण का प्राचुर्य होना स्वाभाविक है। इस तथ्य से सम्बन्धित कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं (क) 'बाहिरी भविता सविता पिता तदुदयेन हसिष्यति पङ्कजम् । लिनि चिन्तयतीति विवस्थिते द्रुतमिहोद्भजतेऽम्बुजिमों गजः ॥ २ (क) 'कलकतामिति कतनपुरं करितीकङ्कतकङ्कणम् । मृगeaf मुखपद्मविक्षया रथमिनः कृतवान् किल मम्परम् ॥ ३ (ग) “सते व मृद्धी मृदुपल्लवा वा कादम्बिनी पीनपयोधरा बा । समेखलाभ्युन्नतिमनितम्बा तटी स्मरोत्तानगिरेरियं वा । कापीव बापी सरसा सुवृत्तमुद्देव शाटीव गुरणंकसत्ता । विधोः कला वा तिथिसस्कृतीद्वाऽलङ्कारपूर्णा कवितेव सिद्धा ।।' ११४ (घ) "नरो न यो यत्र न भाति भोगी भोगो न सोऽस्मिन्न वषोपयोगी । quोपयोगोऽपि न सोऽथ न स्याद्यथोत्तरं संगुणसम्प्रयोगी ॥ शीलाम्बिता सम्प्रति यत्र नारी शीलं सुसन्तानकुलानुसारि । पित्रोरनुज्ञामनुवर्तमाना समीक्ष्यते सन्ततिरङ्गजानाम् ॥ ४ (ङ) "कामोsस्यसी किमुत मे हृदयं विवेश सम्मोहनाय किमिहागत एष शेषः । : प्राखण्ड लोऽयमथवा मृदुसन्निवेशश्चन्द्रो ह्यवातरहो मम सम्मुदे सः ।। " उपर्युक्त उदाहरणों में प्रथम उदाहरण में शान्त रस, द्वितीय में वसन्त, तृतीय में जिनमति का सौन्दर्य, चतुर्थ में नगर-बांन और पंचम उदाहरण में शुङ्गार १. " मूनि वर्गात्यगाः स्पर्शा प्रटवर्गा रणी लघू प्रवृत्तिमंध्यवृत्तिर्वा माधुर्ये घटना तथा ॥" २. नवोदय, २५/३८ ३. वीरोदय ६।२६ ४. ५. क. प्रध्ययन सुदर्शनोदय, २।५-६ श्रीसमुद्रदत्तचरित्र, ६।३-४ चम्पू, ७।२३ - काव्यप्रकाश (मम्मट), ८७४ Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकपि ज्ञानसागर के संस्कृत-ग्रन्थों में कलापक्ष ३७१ रस की शोभा स्पष्ट ही प्रतीत हो रही है। इन उदाहरणों में प्रसमस्तपदावली भी दृष्टिगोचर हो रही है मोर दूसरे उदाहरण में वर्ग अपने वर्ग के पंचम अक्षर से संयुक्त हैं । प्रतएव यहाँ पर माधुर्यं गुण है। माधुर्य गुण के कारण ही यहाँ पर शान्त इत्यादि रस अपेक्षाकृत अधिक माह्लादक हो गए हैं। प्रोजोगुण का स्वरूप एवं उसके अभिव्यञ्जक तत्व वीररस, वीभत्स रस घोर रौद्ररस में क्रमशः प्रतिशयता से रहने वाली, बस के विस्तार की काररणभूत दीप्ति को ही भोज कहते हैं ।" मोजो गुण प्रभिव्यञ्जक तत्व इस प्रकार हैं के (क) वर्ग के प्रथम प्रौर तृतीय प्रक्षरों का द्वितीय प्रोर चतुर्थ से योग । (ख) रेफ का वर्ग के किसी भी प्रक्षर से किसी प्रकार का योग । (ग) एक से अक्षरों का साथ-साथ प्रयोग । (घ) टवर्ग का बहुल प्रयोग । (ङ) बीघं समास से युक्त पदावली का प्रयोग । (च) उद्धत रचना । 2 महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-काव्यों में प्रोजोगुण श्रीज्ञानसागर के काव्यों में प्रोजो गुण भी कुछ स्थलों पर दृष्टिगोचर होता जिसके कतिपय उदाहरण प्रस्तुत हैं २. (क) 'य एकचक्रस्म सुतोऽत्र वक्रः स्याम्नश्चतुश्चक्रतयेव शक्रः । जयो जयस्येति समुन्नताङ्गाश्चच्चकुरित्यत्र जबाच्छताङ्काः ॥ नभोऽत्र भो त्रस्तमुदीरणाभिर्भवदभयनामतिदारुणाभिः । सुभैरवः संन्यरवेः करालवाचाल वक्त्रेरिव पूञ्चकाल ।। (ख) 'उत्फुल्लोत्पलचक्षुषां मुहरथाकृष्टाऽऽनन श्रीसा 13 काराबद्धतनुस्ततोऽयमिह यद्विम्बावता रच्खलात् । नानानिर्मलरत्नराजिजटिल प्रासादभिताविति तच्चन्द्राश्मपतत्पयोभरमिषाच्चन्द्रग्रहों रोदिति ॥४ १. 'दीप्यात्म विस्तृतेर्हेतुरोजो वीररस स्थितिः ॥ बीभत्स रसयोस्तस्याधिक्यं क्रमेण च । - काव्यप्रकाश (मम्मट) ८।६२ का उत्तर, ७० का पूर्वाधं । 'योग प्रायतीवाभ्यामन्त्ययो रेण तुल्ययोः । टादि: शषो वृत्तिर्दध्यं गुम्फ उद्धत प्रोजसि ।।' -बही (मम्मट): :८1७१ ३. पयोदय ५, ६ ४. वीरोदय; २१४६ Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के काम्य-एक अध्ययन (ग) 'उत्खाताघ्रिपति निष्फलमितः सजायते चुम्बितं पिष्टोपात्तशरीरवच्च लुलितोऽप्येवं न याति स्मितम् । संभृष्टामरवतिसर्जनमतः स्याद्दासि प्रस्योचितं - भिन्न जातु न मे हगन्तशरकश्चेतोऽस्य सम्बमितम् ॥" (घ) 'गतो नृपद्वापिनिष्फलत्वमेवान्वभूत्केवलमात्मसत्त्वः । पुनः प्रतिप्रातरिदं ब्रवाणः बभूव भद्रः करुणकशाणः ॥२ उपर्युक्त उदाहरणों में पहला उदाहरण युद्ध-वर्णन का है। इस उद्धरण में एक से प्रक्षर, रेफ का संयुक्त प्रयोग एवं समस्त पदावली दृष्टिगोचर हो रही है। इन विशेषतामों के कारण प्रोजो गुण वीर रस को दीपित कर रहा है । दूसरे, तीसरे उदाहरण में दीर्घ समास मोजो गण का व्यञ्जक है। इसी प्रकार चौथे उदाहरण में भी समस्त पदावली प्रयुका की गई है। प्रसादगरण का स्वरूप एवं उसके अभिव्यञ्जक तस्व सब रसों में स्थिर रहने वाले गुण को प्रसाद गुण कहा जाता है । जिस रचना को पढ़ते ही उसका अर्थ स्पष्ट हो जाय तो समझना चाहिए कि वहां प्रसाद गुण भी है। महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-काग्यों में प्रसाद गुण निस्सन्देह कविवर के काव्य प्रसादगणोपेत हैं। कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं(क) "धर्मस्वरूपमिति संष निशम्य सम्य ग्नर्मप्रसाषनकरं करणं नियम्य । कर्मप्रणाशनकशासनकद्धरीणं । शर्मकसाधनतयार्थितवान् प्रवीणः ।।"५ (ख) "रराज मातुरुत्सङ्ग महोदारविचेष्टितः । क्षीरसागरवेलाया इवाले कौस्तुभो मणिः ॥ मगादपि पितुः पावें उदयारियांशुमान् । सर्वस्य भूतलस्यायं चित्ताम्भोजं विकासमन् ॥"" १. सुदर्शनोदय, ७३१ . २. श्रीसमुद्रदत्तचरित्र, ३३३ ३. "शुष्कन्धनाग्निवत् स्वच्छजलवत्सहसव यः ॥ म्याप्नोत्यन्यत् प्रसादोऽसो सर्वत्र विहितस्थितिः ।" -काव्यप्रकाश(मम्मट), ८1७० का उत्तरार्ष भोर ७१ का पूर्वार्ध । ४. 'तिमात्रेण शब्दात्त येनार्थप्रत्ययो भवेत् । साधारणः समग्राणां स प्रसादो गुणो मतः ॥ -वही, ८७६ ५. पयोदय, २०६५ 1. वीरोदय, ८८९ Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-ग्रन्थों में कलापक्ष (ग) “हे नाथ मे नाथ मनोऽविकारि सुराङ्गनाभिश्च तदेव वारि । मनोरमायां तु कथं सरस्यां सुदर्शनस्येत्थमभूत्समस्या ॥ मुनिराह निशम्येवं शृणु तावत्सुदर्शन । प्रायः प्राग्भवभाविन्यो प्रीत्यप्रीती च देहिनाम् ॥"" (घ) 'रे रे कियज्जल्पसि कोऽसि नाहं जानाम्यपि त्वां कुत श्रागतोऽसि । दूरं व्रजोन्मत्त ! मुषोक्तिकोऽसि संज्ञायते भूतपिशाचदोषी ॥। २ (ङ) "पत्नी तदेकनामाऽभूतस्यच्छन्दोऽनुगामिनी । स्मरस्य रतिवत्कान्तिरिवेन्दोर्भेव भास्वतः || गुणपालाभिधो राजश्रेष्ठः सकलसम्मतः । कुबेर इव यो वृद्धश्रवसो द्रविणाधिपः || ”3 ३८१ (उ) भाषा हमारे विचारों की अभिव्यक्ति का सर्वश्रेष्ठ साधन भाषा है । व्यक्ति ग्रन्थ बातों में प्रशक्त होने पर भी सशक्त भाषाभाषी होने के कारण जीवन के कई क्षेत्रों में प्रायः विजय पा जाता है। साहित्यकार के लिए तो भाषा का महत्त्व अन्य व्यक्तियों की अपेक्षा और भी अधिक है । योद्धा के हाथ में तलवार का जो महत्त्व होता है, काव्यकार के काव्य में वही महत्त्व भाषा का है । साहित्यकार अपनी भाषा के माध्यम से ही अन्य व्यक्तियों के समीप घ्रा पाता है । स्पष्ट है कि भाषा कलापक्ष का एक महत्त्वपूर्ण भङ्ग है । अब प्रश्न यह उठता है कि एक कवि को किस प्रकार की भाषा का प्रयोग करना चाहिए ? प्रत्येक काव्यप्रणेता का, सामाजिक प्राणी होने के नाते, यह कर्तव्य हो जाता है कि वह अपने काव्य में ऐसी भाषा का प्रयोग करे जो उसके हृदय की प्रावाज जनता तक पहुँचा सके । यदि वह पाण्डित्य-प्रदर्शन के साथ ही जनता तक कुछ सन्देश भी पहुँचाना चाहे तो ऐसी स्थिति में उसे अधिक सावधानी बरतनी - चाहिए । १. सुदर्शनोदय, ४।१५-१६ २. श्रीसमुद्रदत्तचरित्र, ३२६ ३. दयोदयचम्पू, २०१३, १४ Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य-एक अध्ययन कवि श्रीज्ञानसागर के संस्कृत काव्य-ग्रन्थों की भाषा श्रीज्ञानसागर ने अपने कामों में लौकिक संस्कृत भाषा का प्रयोग किया है। परन्तु उनके काव्यों में कुछ स्थलों पर समाज में समाई हुई उर्दू भाषा के भी कुछ पाम्ब मा गये हैं। जैसे 'मेवा', 'अमीर'२, 'नेक', 'शतरंज', 'बाजी', 'कुरान", फिरङ्गो', 'बादशाह', 'खरीदी' इत्यादि । देश में प्राजकल प्राय: उर्दू मिश्रित हिन्दी बोली जाती है। प्रतः अनायास ही ये शब्द कवि के काव्यों में मा गये हैं । कवि के काव्यों में 'जयोदय' महाकाम्प की भाषा में प्रौढता, मधुरता, प्रासादिकता, पालङ्कारिकता इत्यादि गण साथ ही देखने को मिलते हैं । अन्य काव्यों की भाषा 'जयोदय' की प्रपेक्षा सरल है। कवि ने अपनी भाषा को प्रभावपूर्ण बनाने के लिए लोकोक्तियों पोर मुहावरों का भी प्रयोग किया है ।।'' उन्होंने समस्त पदों का प्रयोग भी प्रत्यल्प मात्रा में किया है, जिससे भाषा में सरलता का भी गुण पा गया है । उनको भाषा विषय-वर्णनानुरूप भी है । कवि के 'जयोदय', 'वीरोदय', 'सुदर्शनोदय' एवं 'योदयचम्पू' की भाषा को सक्षक्तता के विषय में तो कोई विवाद मेरे मन में नहीं है। परन्तु 'श्रीसमुद्रदत्तचरित्र' की भाषा में यत्र-तत्र शैथिल्य के दर्शन हो जाते हैं। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि कवि ने अपने काव्यों में देशकाल एवं विषयवस्तु के अनुरूप ही भाषा का प्रयोग किया है। १. वीरोदय, १११ २. वही, १३५ .. . . ३. बही. ४. वही, १७।१४ ५. वही, १७।१४. . ....... । ...६. वही, १९१० . . ... .. .. .. ७. वही, १७२८ . 5. जयोत्य, १६।२० : :. . ... वही, २७।३७ १०. वही, १६१०२, ११. (क) 'नाम्बुषो मकरतोऽरिता हिता' (जल में रहकर मगर से वैर ?) --जयोदय, २७० (ख) वंशे नष्टे कुतो वंश-वाद्यस्यास्तु समुद्भवः' (न रहे बांस न बजे बांसुरी)। .. -दयोदयचम्पू, ३।४ Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि मानसागर के संस्कृत-ग्रन्थों में लापन ३८६ (8) अली शेली भावपक्ष और कलापक्ष को जोड़ने का एक साधन है। यही वह तत्त्व है, जिसके द्वारा हम किसी कवि की मौलिकता की परीक्षा कर पाते हैं। 'शेली' शन्द का तात्पर्य है ढंग । प्रतः साहित्य के क्षेत्र में अपने विचारों को प्रकट करने का जो ढंग कवि या लेखक अपना लेते हैं, उसी को शैली कहते हैं। प्रत्येक कवि या लेखक की अपनी-अपनी शैसी होती है। किसी की शैली भावपक्ष को अभिव्यञ्जना कराने में समय होती है तो किसी की शैली उसके पाण्डित्यप्रदर्शन का साधन होती है । कवि के कहने के इस ढंग को काव्यशास्त्रीय राष्टि से तीन प्रकार का कहा गया है- ":. . . (क) वैदर्भी शैली- इस शैली में कवि ऐसे शब्दों का प्रयोग करता है, जो माधर्य गण के अभिव्यजक होते हैं। इस शैली में समासों का प्रायः प्रभाव होता है या कहींकहीं स्वल्प समासों की छठा दृष्टिगोचर होती है। इस स्थिति में यह शैली सरल मोर मधुर होने के कारण काव्य को पालादक बना देती है। इसको यह विशेषता है कि इसमें कलापक्ष को भावपक्ष के अनुरूप ही प्रस्तुत किया जाता है।' (ख) गोडी शैली. इस शैली में ऐसे वर्णों का प्रयोग किया जाता है, जो प्रोजो गुण के अभिव्यजक होते हैं। दीर्घसमासों का इसमें बहुतायत से उपयोग किया जाता है। यह शैली प्राडम्बरपूर्ण होती है । कवि को इस शैली में अपने पाण्डित्यप्रदर्शन का भी प्रवसर मिल जाता है । प्रतः इस शैली में रचित काव्य पाठक से बौद्धिक व्यायाम करवाता है । (ग) पाञ्चाली शैली-- इस शैली में प्रसाद गुग्ग के अभिध्यञ्जक वणों का प्रयोग किया जाता है। इसमें पांच-पांच पोर छ:-छ: तक पदों के समास भी मिलते हैं। साथ-साथ मधुरवरणों का भी प्रयोग मिलता है। वास्तव में यह शैली वैदर्भी पौर गोडी शैली का मिश्रित रूप है । इस शैली में रचित काव्य को पढ़ने पर वर्ण्य-विषय प्रासानी से समझा जा सकता है। महाकवि मानसागर की शैली जब हम उपर्युक्त तीनों शैलियों की विशेषतानों को पालोच्य महाकवि श्रीज्ञानसागर की रचनाओं में घटाते हैं तो ज्ञात हो जाता है कि उनके काव्यों को प्रस्तुत करने की शैली वैदर्भी है। गोडी मोर पांचाली शैली के उदाहरण उनके काव्यों में प्रत्यल्प हैं । सर्वप्रथम वैदर्भी शैली के कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं :१. साहित्यदर्पण, ६२ का उत्तरार्ष, ३ का पूर्वार्ध । २. वही, ६।३ का उत्तरापं, ४ के पूर्वाध का प्रर्षभाग। ३. बही, ६।४ Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ (क) "अखिलानुल्लङ्घ्य जनान् सुलोचना जयकुमारमुपयाता । माकन्दक्षारमिव पिकापि का सा मधो ख्याता ॥ सा देवी राजसुता चेतो यत्तदनुकूलकं लेभे । मेघेश्वरगुणमाला वर्णयितुं विस्तराद्रे ॥ अवनी ये ये बीरा नीराजनमामनन्ति ते सर्वे । यस्मै विक्रान्तोऽयं समुपैति च नाम तदखवें ॥। समुत्पन्नो गुणाधिकारेण भूरिशो नम्रः । चाप इवाश्रितरक्षक एष च परतक्षकः काम्रः ॥ १ प्रस्तुत श्लोकों में सुलोचना स्वयंवर का वर्णन है । यहाँ पर स्वरूपसमासा मौर प्रसमासा शब्दावली का प्रयोग है। माधुर्य गुण भी स्पष्ट दिखाई दे रहा है। इन श्लोकों के पढ़ने से पाठक के मन में प्रागे माने वाले वष्यं विषय के प्रति श्रौत्सुक्यपूर्ण प्रह्लाद भी जागरित होता है । "सुतनुः समभाच्छ्रियाश्रिता मृदुना प्रोच्छनकेन मार्जिता । कनकप्रतिमेव साऽशिताप्यनुशारणोत्कशन प्रकाशिता । मुहुराप्तजलाभिषेचना प्रथमं प्राव डभूत्सुलोचना | तदनन्तरमृज्ज्वलाम्बरा समवापापि शरच्छ्रियं तराम् ॥३ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य - एक अध्ययन इन श्लोकों में विवाह के पूर्व किये गए सुलोचना के स्नान एवं प्रलंकरण का वर्णन है। मधुर शब्दावली के प्रयोग के कारण वर्णन रोचक हो गया है । "नत्र प्रसङ्ग परिचेता नवां वधूटीमिव कामि एताम् । महुर्मुहुश्चुम्बति चञ्चरीको माकन्दजातामथ मञ्जरीं कोः ॥ प्राम्रस्य गुञ्जत्कनिकान्तरालेर्नालीकमेतत्सहकार नाम । esari कर्मक्षरण एव पान्याङ्गिने परासुत्वभूतो वदामः ।। " 3 प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने वसन्त ऋतु का सुन्दर वर्णन किया है। यहाँ पर पाठक के मन में प्रह्लाद उत्पन्न करने में मधुर शब्दावली से युक्त प्रवाहपूर्ण वैदर्भी शैली पूर्णतया सफल हुई है । (थ) "रराज मातुरुत्सङ्ग महोदारविचेष्टितः । क्षीरसागरवेलाया इवा कौस्तुभो मरिणः ।। गादपि पितुः पार्श्वे उदयाद्रे रिवांशुमान् । सर्वस्य भूतलस्यायं चित्ताम्भोजं विकासयन् । (14) १. जयोदय, १०२-१०५ २. बही, १० २८- २६ ३. वीरोदय ६।२०- २१ ४. वही, ८८-६ Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि भानसागर के संस्कृत-प्रन्थों में मावपक्ष ३९५ यहाँ वैदर्भी शैली में प्रस्तुत भगवान् महावीर की बाल्यावस्था को सुन्दर चेष्टामों का यह सन्दर वर्णन किस सहृदय को आकर्षित नहीं करेगा? (ङ) “सुमानसस्याथ विशांवरस्य मुद्रा विभिन्नार सरोरुहस्य । मुनीशभानोरभवत्समीपे लोकान्तरायततमः प्रतोपे । निशीक्षमाणा नगवंस्तदीयपादाम्बुजाल: महचारिणीयम् । मेरु सुरदं जलधि विमानं निर्धू मह्नि च न तदिदानः ।। कि दुष्फला व! मुफ रा फला वा स्वप्नावलीयं भवतोऽनुभावाद । भवानहो दिव्यगस्ति तेन संश्रोतुमिच्छा हृदि वर्तते नः ।।"' उपर्युक्त श्लोकों में स्वप्नावली के तात्पर्य के प्रति सेठ सुषमदास को जिज्ञासा वरिणत है। "कदा समय: स समायादिह जिनपूजाया: ॥ कञ्चनकलशे निर्मलजलमधिकृत्य मजुगङ्गायाः । वारा धाराविसर्जनेन तु पदयोजिनमुद्रायाः । लयोऽस्तु कलङ्ककलायाः ।। स्थायी ॥ मलयगिरेश्चन्दनमय नन्दनमपि लात्वा रम्भायाः । केशरेण साधं विसजेयं पदयोजिनमुद्रायाः, . न सन्तु कुतश्चापायाः ॥स्थायी २ ॥२ इस उदाहरण में स्वाभाविक प्रलङ्कृतता, सङ्गीतमयता, मधुरता, सरलता पादि गुणों से परिपूर्ण वैदर्भी शेलो है। (च) मा सुन्दरो नाम बभूव रामा वामासु सस्विधिकाभिरामा । राजाधिराजस्य रतीश्वरस्य रतिर्यया प्रीतिकरीह तस्य । वश्येव पञ्चेषरसप्रवीणा दासीव सत्कर्मविधी धुरीणा। भत्र सभाया भुवि वाचि वीणा साचिम्य इन्द्रस्य शचीव लीना ॥ राज्ञः सदा मोहकरोव युक्तियां मौक्तिकोत्पत्तिकरीव शुक्तिः । पनङ्गसन्तानमयोव मुक्ति-स्थलीह लावण्यवतीव मुक्तिः ॥3 इन पंक्तियों में चक्रपुर के राजा अपराजित की रानी का गुणसमूह एवं सौन्दर्य वरिणत है । शब्दावली में सरलता, माधुर्य, प्रवाह इत्यादि विशेषताएं बंदी शैली की हो पोषिका हैं। रुचिकरे मुकुरे मुखमुद्धरन्नय कदापि स चक्रपुरेश्वरः । कमपि केशमुनोक्ष्य तदा सितं समयदर यमदूतमिवोदितम् ॥ १ सुदर्शनोदय, ३१३३,३५ २. बहो, ५ बतुर्थ मोत के प्रथम दो भाग । ३. श्रीसमुद्रदत्तचरित्र, ६।११-१३ Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकविनामसागर के काव्य-एक अध्ययन ननु जरा पृतना यमभूपतेर्मम समीपमुपाञ्चितुमीहते । बहुगवाधिकृतह तदग्रतः शुचिनिशानमुदेति प्रदोबत ।। तरुणिमोपवनं सुमनोहरं दहति यच्छमनाग्निरतः परम् । भवति भस्मकलेव किलासको पलितनामतया समुदासको । नववधू किस सक कुचितान्मतिरपसरेन्मुखवारिविषादतिः । विवमताच्च कटी कुलटेब सा स्वलतु पिच्छलगेव पुना रसा ॥"" प्रस्तुत पंक्तियों में चक्रायुध की वृद्धावस्था के विषय में विचार वरिणत है। इन विचारों में स्वाभाविकता पौर रोचकता स्पष्ट ही दृष्टिगोचर हो रही है । (2) "धनश्रीरपि तेन मौक्तिकेन शुक्तिरिवादरणीयतां कामधेनुरिव बरसेन भोरमरितस्तमतामुद्यानमालेव वसन्तेन प्रफुल्लभावं समुद्रवेलेब शशधरे णातीवोल्लासंसद्भावमुदाबहार हारलसितवक्षःस्थला"२ प्रस्तुत गोश में सोमदत्त को पुत्र रूप में प्राप्त करने वाली धनश्री की प्रसन्नता का सन्दर एवं स्वाभाविक वर्णन है। (ब) यदीक्षमात्रेणेव विषा विषादप्रतियोगिनं भावमङ्गीकर्वाणा किलेत्थं विच चार स्वमनसि, मनसिजमनोजो मृदुलमांसलसकलावयवतया समवाप्ता. रोग्यो दृशामनिमेषतयोपभोग्यो मदीयहृदोषाङ्गीकरणयोग्योऽस्ति कोऽसो श्रीमान् यः खलु पूर्वपरिचित इव मम चितः स्थानमनुगृह्णाति ।' प्रस्तुत गवभाग में सोमदत्त के दर्शन से विषा के हृदय में उठते हुए रतिभाव काम्बर वर्णन किया गया है। इस प्रकार हम देखते हैं कि उपयुक्त सभी उदाहरण ऐसी वैदर्भी शंली के है, जिसमें माधुर्य गुण की प्रधानता है, समास प्रत्यल्प हैं, अलङ्कार स्वभावत: पाये है, फलस्वरूप सरलता एवं प्रवाह स्पष्टतया दृष्टिगोचर हो रहा है। प्रथम भोर द्वितीय उदाहरण तो अत्यधिक हृदयावर्जक हैं। प्रब एक दो उदाहरण पाञ्चाली शैली के भी प्रस्तुत हैं। स्वयंवरमण्डप में उपयुक्त पर की खोज में घूमती हुई राजकुमारी सुलोचना का एक शब्द-चित्र इस वैद्योपामसहितान्तत्र न भोगाषिभुव इमान्सहिता। तत्यान सपदि दूराम्मधुराधरपिण्डखजूरा ॥ चालितवता यत्रामुकगुणगतवाचि तु सनेत्रा। कौतुतिमेव वलयं साङगुष्ठानमिकोपयोगमयम् ॥ १. श्रीसमुद्रदत्तचरित्र, ७१-४ २. योदयचम्पू, ३।१० के वाद का गलाश। १. वही, ४ श्लोक १४ के पूर्व का गवमान । Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि मानसागर के संस्कृत-प्रन्यों में भावपक्ष ३५७ यानजना मनयान्ताम्बरचारिभ्यो घराघरकुलं ताम् । कमलेभ्यः कमशिवं शशिकिरणहासभासमिव ॥"" प्रस्तुत पंक्तियों में समस्त किन्तु मधुर शब्दावली का ऐसा प्रयोग किया। गया है, जो प्रर्थ के अनुरूप है। पब भगवान् महावीर के जन्माभिषेक हेतु प्रस्थित देवगणों की झांकी प्रस्तुत "अरविन्दधिया दधवि पुनररावण उष्णसच्यविम् । धुतहस्ततयात्तमुत्त्यजन्ननयदास्यमहो सुरव्रजम् ।। झषककंटनक्रनिर्णये वियदब्धावुत तारकाचये । कवलयकारान्वये विषं विबुधाः कौस्तुभमित्यमभ्यधुः ।। पुनरेत्य च कण्डिनं पुराधिपुरं त्रिक्रमणेन ते सुराः। . उपतस्पुरमुष्य गोपुराप्रभुवीत्यं जिनप्तिसत्तराः ॥२ प्रस्तुत श्लोकों में प्रवाहपूर्ण शैली है। शैली के इस वैशिष्ट्य से हास और उत्साहभाव और भी अधिक पालादक हो गए हैं ।। गोडी शैली के उदाहरण मुनिश्री के काव्यों में नहीं के ही बराबर हैं। कारण यह है कि कवि का शब्दाडम्बर पर विश्वास नहीं है। उनकी रचनाओं में जहाँ दोघं समास दिखाई देते हैं, उनमें सुगमता और प्रवाहपूर्णता पाई जाती है। मत: ऐसे स्थलों की शैली को 'गोडी शैली' नहीं कहा जा सकता। उपर्यवत विवेचन से स्पष्ट है कि श्रीज्ञानसागर ने अपने काव्यों में प्रधानतया वैदर्भी शैली का ही प्रयोग किया है। यह शैली उनके काव्यों की विषयवस्तु के अनुरूप भी है। भक्तिभाव, शान्तरस एवं शङ्गाररस वर्णन में पारम्बर की कोई प्रपेक्षा नहीं होती। प्रत: गोडी शैली कवि के अनुकूल भी नहीं होती। कहीं-कहीं वैदर्भी के साथ ही माधुर्यमिश्रित जो पांचाली शैली है, वह भी कथाप्रवाह को बल देती है। (३) वाग्वदग्ध्य 'वाग्वदग्ध्य' का तात्पर्य है-वाणी की शालीनता, बात को कहने का विद्वत्ता से युक्त सुन्दरतम ढङ्ग। जब भी हमारा सम्पर्क किसी वाग्विदग्ध व्यक्ति से होता है, तब उसकी अनुपस्थिति में भी हमें उसकी याद माती रहती है। महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत काव्यों में वाग्वदग्ध्य । कविवर के भी कुछ पात्र वाग्विदग्ध हैं । उनके काव्यों में वरिणत वादग्ध्य के कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं:१. जयोदय, ६।११।१३ २, वीरोदय, ७.१.१२ Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ महाकवि भानसागर के काव्य - एक अध्ययन पापपता ह. (क) काशी नरेश प्रकम्पन का दूत अत्यधिक वाग्विदग्ध है। वह जब स्वयंवर में प्रामन्त्रित करने हेतु जयकुमार के पास जाता है, उस समय वह सुलोचना के गुणों का वर्णन करने में अपने वाग्वदग्ध्य का परिचय देता है : "विचक्षणेक्षणाक्षण्णं वृत्तमेतद्गतं मतम् । क्षणदं क्षणमाध्यानाकर्णालङ्करणं कुरु ॥"' (बह जय कुमार से कहता है कि सावधान होकर, सुख देने वाले इस प्रसाधारण वृत्तान्त को थोड़ी देर के लिए अपने कान का प्राभूषण बना लो) 'मेरी बात सुनो' के स्थान पर उक्त कथन कहकर दूत न केवल जयकुमार को अपितु पाठक को भी प्रभावित करता है। पौर भी "यात्रा तवावास्तु तदीयगात्रावलोकनलंधफला विषाता। वामेन कामेन कृतेऽनुकूले तस्मिन् पुन: श्री: सुघटा न दूरे ॥"२ (विधाता आपकी यात्रा को उस सुलोचना के दर्शन से प्राप्तफल वाला बनाये । उस प्रतिकूल गति वाले कामदेव के अनुकूल होने पर लक्ष्मो की प्राप्ति नहीं होती।) । यहाँ पर दूत ने जयकुमार को सुलोचना के उपयुक्त वर के रूप में पाकर उन्हें उक्त प्राशीर्वाद दिया है। साथ ही उसके कथन का यह भी तात्पर्य है कि जयकुमार को सुलोचना अवश्य प्रच्छी लगेगी। दूत की वाक्चातुरी से जयकुमार प्रत्यधिक प्रभावित होते जाते हैं । (ख) मुनोचना को परिचारिका विद्यादेवी भी बाक्चतुरा है स्वयंवर मगप में राजापों का परिचय कराते समय वह अपने वाककौशल से पाठक का मन मोह लेती है । प्रस्तुत हैं उसको वाणी से निकले हुए वाग्वदग्ध्य के दो उदाहरण :(म) "काञ्चोरतिरयमार्य काञ्चीमपहर्त महतुं तवेति ।। काचीफनदिदानी द्विवर्णतां विभ्रमादेति ॥" (हे मायें ! यह कांची देश का स्वामी तुम्हारी करधनी को उतारने के योग्य हो। जो कि इस समय कचनार के फल के समान दो रङ्गों के विभ्रम को उत्पन्न कर रहा है।) यहाँ 'द्विवर्णता' शम से परिचारिका ने सुलोचना को सावधान कर दिया १. जगोदय, ३१३८ २. वही, ३६२ ३. वही, ६६३६ Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-प्रन्थों में भावपक्ष है कि दोहरी रीति को अपनाने वाला काञ्चीपति तुम्हारे द्वारा वरण करने योग्य नहीं है। (ब) वह सुलोचना के मन की बात एकदम जान लेती है। जैसे ही वह सुलोचना को जयकुमार के अनुकूल देखती है, वैसे ही विस्तारपूर्वक जयकुमार के गुणों का विस्तृत वर्णन करने लगती है और अन्त में कह भी देती है कि यदि तुम्हारी इच्छा जयकुमार का वरण करने की है तो इसी समय उसके गले में जयमाला डाल दो "यदि चेज्जयैषिणी त्वं दृक्शरविद्धं तत: शिथिलमेनम् । प्रयि बालेऽस्मिन् काले सजाय बन्धाविमम्बेन ।।"' (ग) प्रककोनि का अनवद्यमति नामक मन्त्री भी वाग्विदग्ध है। प्रकीति को अति विनयपूर्वक जयकुमार और महाराज प्रकम्पन को क्षमा करने के लिए समझाता है । उसका कहना है कि सेवक की उन्नति उसके स्वामी के उत्कर्ष में बाधक नहीं बनती क्योंकि वृक्षों की पुष्प-समृद्धि ही वसन्त का माहात्म्य बढ़ाती है। फिर इसी जयकुमार ने तो भरत को दिग्विजय दिलवायी, प्रतः यह उनका स्नेह पात्र है । पिता के समान पूज्य राजा प्रकम्पन के प्रति देष भाव रखना तो गुरुद्रोह ही होगा। (घ) 'जयोदय' काम्य का नायक जयकुमार भी वाग्विदग्ध है । वह युट में भी प्रककोति से जीत जाता है पोर वाग्वदग्ध्य में भी। वह प्रकंकीति से कहता है कि जिस प्रकार जल बिन्दु समुद्र के जल-समूह में विलीन हो जाती है, उसी प्रकार मेरा मन भी प्रापसे सन्धि करने को उत्सुक है। + + + मैं और आप अलग-अलग हैं, ऐसी भेदबुद्धि समाप्त हो। मिलन तो प्रत्यधिक सम्पत्ति देने बाला होता है जबकि विरह कम्पन उत्पन्न करता है। प्रतः हम लोगों में विषटन नहीं, संघटन होना ही उचित है । (ड) 'सुदर्शनोदय' का नायक सेठ सुदर्शन स्थान-स्थान पर अपनी वाक्चातुरी का परिचय देता है । जब उसके मित्र उसके अनमनेपन का कारण पूछते हैं तो वह बड़ी चतुराई से मनोरमा दर्शन से उत्पन्न सन्ताप की बात को टाल देता है और कहता है कि जिनदेव के मन्दिर में उच्च स्वर से भजन गाने से मुझे सान्ति का अनुभव हो रहा है। १. जयोक्य, ६।११८ २. वही, ७।३५-४३ ३. वही, ११-४६ ४. सुदर्शनोदय, ३२३७ Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३t. महाकवि नामसागर के काम्य-एक अध्ययन (ब) 'श्रीसमुद्रदत्तचरित्र' का नायक भदचित्र एवं उसके माता-पिता तोगी ही वाग्वंदम्य से युक्त हैं । भद्रमित्र को रत्नद्वीप यात्रा के समय हमें तीनों वाग्वदग्ध्य का ज्ञान हो जाता है।' इसके अतिरिक्त 'दयोदयधम्म' के पात्र सोमदत्त, राजा का दूत' पोर राणा का द्वारपाल' भी वाग्वदग्ध्य का परिचय देते हैं । उपर्युक्त उदाहरणों के अतिरिक्त भी कवि के काव्यों में वाग्वदग्ध्य के अनेक उदाहरण मिलते हैं, किन्तु वे अधिक माकर्षक एवं उदरणीय नहीं हैं। संवाद कवि जब काम्य-प्रणयन करता है तो वह कुछ बातें अपने पाप कहता है पोर कुछ बातें काव्य के पात्रों के माध्यम से कहलाता है। काम्य में पाए पात्रों के पारस्परिक पालाप-संताप को ही संबार कहा जाता है। काव्य की नाटक नाम विषा में तो पात्रों के इन कथोपकपनों का ही महत्व होता है, क्योंकि पात्र अपने इन संवादों के माध्यम से ही दर्शक को अपना परिचय देता है भोर कथा को गति देता है । काम्य की गणात्मक विषा में भी कहीं-कहीं कवि पात्र को सामने प्रस्तुत करने के लिए,-मानों स्वयं उसके बारे में कहते-कहते थक गया हो,-उससे संवाद करवाता है। किन्तु पथकाव्य वर्णनात्मक होते हैं, प्रतः इनमें संवादात्मकता का गुण कम ही देखने को मिलता है । महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-काव्यों में संवाद श्रीज्ञानसागर के काव्यों में अनेक संवाद हैं। उदाहरणार्थ-दूत-जयकुमारसंवाद, प्रककोति-प्रनवरामति-संवाद, सिद्धार्थ-प्रियकारिणी-संवाद, प्रियकारिणी-देवी. संवाद, वर्षमान-सिद्धार्य-संवाद, सेठ वृषभदास-जिनमति-संवाद, सुदर्शन-कपिलासंवाद, सुदर्शन-मनोरमा-संवाद, सुदर्शन देवदता-संवाद, भद्रमित्र-माता-पिता का संवाद, श्रीभूति भवमित्र-संवार, मगसेन-घण्टा-संवाद, गुणपाल-गोविन्द-संवाद, गुणपाल-गुणश्री-संवाद, दूत-सोमदत्त-संवाद, मंत्री-वृषभदत्त-संवाद, राजा-विषासंवाद प्रादि-प्रादि । यहाँ प्रापके समक्ष कुछ महत्त्वपूर्ण संवादों के उदाहरण प्रस्तुत किये जा रहे हैं (क) वन-विहार के समय कपिला मोर रानी प्रभयमती का वार्तालाप देखिये- . १. श्रीसमुद्रदत्तचरित्र, ३१३-१४ २. योग्यचम्पू, ७॥३-४, ६,६ ३. वही, ७२, ५ ४. वही, ८ Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-ग्रन्थों में भावप "कान्तारसविहारेऽस्मिन् समुदोक्य मनोरमाम् । स्तनन्धयान्वितामत्र कपिलाऽऽहावनीश्वरीम् ॥ केयं केनान्विताऽनेन मौक्तिकेनेव शुक्तिका । जगद्विभूषणेनास्ति स्वरूपात्पूततां गता ।। प्रस्ति सुदर्शनतरुणाऽभ्युदेयं सुखलताऽयमथ च पुनः । कौतुकभूमिर मुख्या नयनानन्दाय विलसतु नः ।। प्रत्युक्तया शनैरास्यं सनैराश्य मुदीरितम् । नपुंसकस्वभावस्य स्वभाऽवश्यमियं नु किम् ।। निशमयेत्यगदद्राशी सगदेव हि भाषसे । समुन्मते किमेतावत् समुन्मान्ते शीहिन ।। श्रुतमभूतपूर्वमिदं तु कुतः कपिले त्वया स वं क्लेभ्ययुतः । पुरुषोत्तमस्य हि मानवता केनानुनीयतां मानवता ॥ इत्यतः + + + + + + 1 + + + + + + + हे पवनीश्वर सम्वच्मि न नेति सः । सम्प्रापितः स्वयं प्राह मयेकाकी किलंकदा || राशी प्राह किलाभागिन्यसि त्वं तु नगेष्वसो । पुन्नाग एव भो मुग्धे दुग्धेषु भुवि गव्यवत् ॥ "1 + + + + + + + + + + असा हसेन तत्रापि साहसेन विप्राणी प्राणितावाप्त्या को न प्रास्तां महिषये देवि श्रीमतीति भवत्यपि । सुदर्शन भुजाश्लिष्टा यया किल घरातले ॥”” ++1 ++11 तदाऽवदत् । मुह्यति भूतले ।। रानी प्रभयमती और कपिला के इस वार्तालाप में उत्तर- प्रत्युत्तर, रोचकता, उपयुक्तता इत्यादि सभी गुरण मिलते हैं। कपिला की घूर्तता का परिचय भी इन संवादों के माध्यम से अच्छी प्रकार हो जाता है । १९१ अब प्रस्तुत है रत्नद्वीप जाने के लिए उत्सुक भद्रमित्र का अपने मातापिता के साथ वार्तालाप - "ब्रतो नमस्कृत्य पितुः पुरस्तान्निवेदयामास विदामतस्ताम् । प्रादेश एवास्ति यतो गुरूणां फलप्रदोऽस्मभ्यमहः पुरूणाम् ।। १. सुदर्शनोदय ६।३-१४ Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ महाकवि भानसागर के काव्य -- एक अध्ययन मादित्य उा रसभुक समस्ति ततो हि सन्तापकर प्रस्ति । विधुः कलाभिः परिवर्टक: सन् पितुः प्रसक्त्यं जगतोऽप्यलं सः ।। ++ ++ ++ ++ ++ : ++ ++ ++ ++ ++ ॥ तस्मै पिता प्रत्यवदत सुतेति महद्धनं मे सुतरामुदेति । कार्याऽस्ति कुल्या मरवे यथा किजगत्सुपायोनिधये तथा किम् ।। एकाकि एवाङ्गज ! मे कुलायः स्वयं त्वमानन्दरशेऽनपायः । दुःखायते मह्यमिदं वचस्ते किन्नाम यानं गुणसंप्रशस्ते ।। निशम्य पुत्र: पुनरित्युवाच सत्यान्विता भी भवतां तु वाचः । तथापि कर्तव्यपथाधिरोह-वशंवदः साम्प्रतमागतोऽहम ॥ हे तात शाततिरेष जात- मात्रस्थिति रिनिधेः प्रयातः । सुखेन खे नर्मनिधेविधातिशयप्रदः मन्त्रिहराविभाति ।। देहेन यास्यामि मनोऽलिरस्तु तथापि ते पादपयोजवस्तु । साफल्यदातास्तु च ते शुभाशिर्वादो यतो मामिह रक्षितासि ।। एवं निशम्योक्तिमत्र पित्रा भवन्ति वाचः सुत ! ते पवित्राः । मापो यथा गांगझरस्य यत्त्वं पुनीतमातः समितोऽसि सत्त्वम् ।। कठोरभावान्निवसान्यहन्तूदयाद्रिवत्ते जननोह किन्त । रवेविना काशततियथा स्यात्तमोधरावाहिता म्युदास्या । इतीरितोऽभ्येत्य स जन्मदात्रीं नत्वा जगादोत्तमपुण्यपात्रोम् । मातवंयस्यः सह यामि देशान्तरं शुभाशीर्भवतात ते सा । कृत्वाऽत्र मामम्बुजसंविहीनां सरोवरीमङ्गज ! किन्नु दीनाम् । । किलोचितं यातु मिति त्वमेव विचारयेदं धिषणाधिदेव ।। इत्येतदुक्तेः प्रतिवादमाह बालोऽत्र नाहं भवतीं त्यजामि । नेष्यामि यास्यामि सहात्मनात्म-चित्ते निधायत्युत संवदामि ।।"१ उपर्युक्त कपोपकथन में वाक्य कुछ लम्बे हो गये हैं। पर इसका कारण यह है कि तीनों पात्र धर्यवान् मोर सहिष्णु हैं। फिर भी वाक्य सरस और उपयुक्त है। (ग) कवि श्रीज्ञानसागर के काव्यों का तीसरा महत्वपूर्ण संबाद वह है, जहाँ घण्टा धीवरी मोर मृगसेन पीवरी का वार्तालाप होता है। घण्टा धीवरी पर कुटुम्ब पामन का भार है। जब उसका पति खामी हाप लौटता है और ज्ञान की बात करने लगता है, उस समय उसका क्रोध भड़क उठता है । मगसेन धीवर का १. बीसमुहदत्तचरित्र, ३१२-१४ Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकविज्ञानसावर के संस्कृत-प्रन्थों में मवपक्ष ३६३ मन पूर्णतः विरक्त हो चुका था । अतः वह अपनी पापमयी वृत्ति को छोड़ देता है मोर प्रपना मन्तव्य घण्टा के सामने रखता है। इस स्थल पर निर्वेद प्रोर क्रोध भांवों का ऐसा द्वन्द्व होता है जो कि तूफानी हवाओंों के पर्वतों पर प्रहार की भाँति प्रतीत होता है " घण्टा - प्रस्ति चेदस्तु किन्तेन । स साघुर्वयन्तु गृहस्था:, कि तस्य कथयास्माकं सिद्धिः । तस्य मार्गो योगस्त्यागश्चास्माकन्तु संयोगो भोगोऽपि चेति महदन्तरम् । ग्रात्मकर्तव्यविस्मृत्या परकार्यकरो नरः । सद्यो विनाशमायाति कोलोत्पाटीव बानरः ।। + + मुगसेन: प्रत्याह - हे भामिनि, किम्मया किला करणीयमेव कृतम्, किन्तावदहंसाघर्मो मनुष्यमात्रस्यापि कर्त्तव्यभावं नासादयति ? + + + + घण्टा (जिरो घुनित्वा) जगाद - हे भगवन् सदबुद्धि देहीदशेम्यो धर्मधर्मेतिरटनकारकेभ्यः । इदमपि न जानन्ति धर्मान्धाः यत्किल धर्मपालनं शरीरस्थितिपूर्वकम्, शरीरस्थितिश्च वृत्त्यधीना । वदन्तु गृहस्थाः साधवोऽपि तनुस्थित्यायहारमन्वेषयन्तः प्रतिभान्ति, तदलाभे तेऽपि कति न पथभ्रष्टा जातः । श्रीमती भगवतस्तस्यर्षभदेवस्यापि काले तेन सार्द्धं दीक्षिता राजानो भुक्त्यलाभादेवोत्पथमवाप्ता इति भूयते + + + + + मृगसेनः प्रतिजगाद यदि कान्ते, स्विदियान्ते विचारस्तहि शृणु - किमियं वृत्तिर्याऽस्माभिरेकान्तेन परसत्त्वसंहारेर्णव सम्पाद्यते । + X + मृगसेनः प्रतिवदति स्म - कर्षणेऽपि हिंसा भवति चेद् भवतु किन्तु न कृषीवलः करोति वयन्तु कुमं इत्येतदत्यन्तमन्तरमस्ति । घण्टा -- तदा पुनर्भवत: साघोश्च विचारेणास्माभिर्बुभुक्षितंरेब मर्तव्यमिति नायं वर्मोऽस्मादशामनुकूलतया प्रतिभाति । सङ्गच्छत् साधुसन्निधिमेव भवान् किमधुनास्माभिः प्रयोजनमिति सम्प्रतयं मृगसेनं बहिष्कृत्य द्वारस्यारसङ्गठनपूर्वकमगंलप्रदानमपि चकार ।' יין (घ) रोचकता एवं उपयुक्तता की दृष्टि से दूत, सोमदत्त, राजा एवं मंत्री का संवाद भी द्रष्टव्य है । इस स्थल पर अपने संवादों द्वारा दूत अपने बाक्चातुर्य का मौर मंत्री अपनी मन्त्ररणा शक्ति का परिचय देते हैं। सभी कथन समया नुकूल हैं । उपर्युक्त संवादों के अतिरिक्त पूर्वोक्त गिनाए गये संवादों में प्रायः नीरसता है । जब एक पात्र बोलना शुरू करता है तो दूसरा पात्र काफी देर में बोलने का गद्यभाग से २२ के बाद के गद्य भाग १. दयोदयचम्पू, २। इलोक १३ के पूर्व के तक । २. बही, ७११-१२ Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ LE महाकवि ज्ञानसागर के काव्य- एक अध्ययन अवसर पाता है - जैसे प्रकीति मनयद्यमति-संवाद ।' यदि यहाँ पर प्रर्ककीर्ति और मनवचमति एक दूसरे की बात को काटते, उत्तर- प्रत्युत्तर को अधिक प्रवसर मिलता तो संवादों में प्रवश्य रोचकता प्रा जाती । चूंकि श्रीज्ञानसागर के काव्य पद्यकाव्य हैं, जो प्राय: वर्णनात्मक होते हैं । ऐसी स्थिति में पात्रों के कथोपकथन नहीं के बराबर होते हैं, यदि होते हैं तो उनमें भी वर्णनात्मकता एवं उपदेशात्मकता मा जाती है। फिर भी संवादों की दृष्टि से हम अपने प्रालोच्य कवि को प्रसफल नहीं कह सकते। क्योंकि सोदाहरण संवादों ने यह बात सिद्ध कर दी है कि यदि कवि नाटक लिखते तो उनके संवाद प्रवषय ही अधिक रोचक, सशक्त मोर प्रवसरानुकूल होते । किन्तु खेद की बात है कि हमारे कवि ने काव्य की रचना नहीं की । देशकाल - यह वह तस्व है जो पाठक धीर पात्रों में सम्बन्ध बनाने के लिए एक विशिष्ट वातावरण बना देता है । प्रत्येक काव्य की कथा किसी विशेष देश और काल की होती है । भले ही वह काल्पनिक हो, किन्तु देशकाल के उचित बन से सत्य हो प्रतीत होती है । 'देश श्रीर काल के उचित वर्णन से हमारा तात्पर्य है कि काव्य का पात्र जिस स्थान पर रहकर अपनी लीलायें करता है, उस देश का भौगोलिक, सामाजिक, भाषिक प्रौर राजनैतिक दृष्टि से ऐसा वर्णन करना चाहिए कि पात्र की गतिविधियों का देश की परिस्थितियों से तादात्म्य स्थापित हो सके। इसी प्रकार पात्र की चेष्टाएं भी काल के अनुसार होनी चाहिएं। afa को चाहिए कि वह अपनी कथावस्तु से सम्बद्ध देश में यातायात के साधन के रूप में केवल बेलगाड़ी उपलब्ध है, तो पात्रों द्वारा पुष्पक विमान से यात्रा न कराए । भूलोकनिवासी पात्र को सहसा प्रकट या अन्तर्हित न कराए। प्राधुनिक युग के व्यक्तियों को रथ और वैदिककाल के पात्रों को कार साइकिल पर न घुमाए । प्राजकल के सामाजिक को कन्यमूल और प्रादिम युग के प्राणी को पूरीसब्जी, पुलाब इत्यादि खाता हुआ न चित्रित करे, क्योंकि ये सभी बातें देव और काल के विरुद्ध हैं अतः कवि को अपने काव्य वास्तविकता, मनोरंजकता मोर उपहासराहित्य के लिए इस तत्व का ध्यान रखना चाहिए । प्रन्यथा पाठक को काव्य पढ़ने में कोई मानन्द नहीं प्रायेगा। वह पग-पग पर काव्य की हँसी उड़ाकर उसे कोरी गप्प की संज्ञा देगा। काव्यों के पात्रों की सजीवता की दृष्टि से, कथावस्तु के प्रवाह की दृष्टि से यह तत्व महत्त्वपूर्ण है, ऐसा मानकर कवि को देशकाल का उचित वर्णन करना चाहिए । १. बयोदय, ७।३३-५४ Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि मामसागर के संस्कृत-मन्त्रों में भाव ३६५ महाकवि मानसागर के काम्यों में देशकाल - महाकवि के काम्यों में पात्रों, भौगोलिक स्थानों एवं घटनामों का वर्णन देशकाल के अनुरूप ही किया गया है। उन्होंने अपने काव्य के पात्रों को उनके स्वभाव एवं परिस्थितियों के अनुसार प्रस्तुत किया है । देववर्ग के पात्र मानववर्ग के पात्रों के उत्कर्ष में सहायक है।' मानव वर्ग के पात्रों में नागरिक भोगविलास युक्त जीवन अतीत करते हैं। पोर प्रामीण जनों का जीवन-स्तर साबनी एवं सरलता से युक्त है । म्यन्तरवर्ग के प्राणी मायाचार करने में रत रहते हैं। पात्रों की लीलाभूमियों के रूप में काशी,५ हस्तिनापुर,' कुण्डनपुर, चम्पापुर, चक्रपुर और उज्जयिनी'• का ऐसा वर्णन किया है, जिससे उनकी समृद्धि की झलक भी मिल जाती है और पाठक काय के पात्रों के पूर्व उनकी जन्मभूमि एवं कर्मभूमि का परिचय भी पा लेता है। पावापुर भगवान महावीर की मोक्षभूमि है," यह तो ऐतिहासिक सत्य ही है। विवाह के समय नगरी को सजाना,१२ बहुपत्नीप्रपा' पोर वित्तीय अधिकारियों के स्थान पर नगर श्रेष्ठियों की नियुक्तियों मादि भी तत्समया. नुसार ही हैं। (ङ) सारांश कविवर मानसागर ने कला के प्रायः सभी भेदों का प्रयोग अपने काव्यों में १. बोरोदय, पांचा समं । २. वही, २।३८, ४४ ३. सुदर्शनोदय, १२२१-२२ ४. वही, ६७६-८३ ५. जयोदय, ३।७३-८५ ६. वही, १११६६-६६ ७. वीरोदय, २०२१-५. ८. सुदर्शनोदय, १।११.३७ १. श्रीसमुद्रदतचरित्र, ६१-८ १०. दयोदयचम्पू, १॥ श्लोक १. के पूर्व का गबभाग एवं १०.११ ११. बीरोदय, २०२१ १२. जयोदय, ३१७३-८५ १३. श्रीसमुद्रदत्तचरित्र, ६१८-१९ १४. योदयचम्मू, २०१४ Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि जानसागर के काव्य-एक अध्ययन किया है । उनका यह कला-प्रयोग काव्य में किसी भी प्रकार का असन्तुलन नहीं लाता, अपितु भावपक्ष को सबल बनाता है। कवि के पांचों काव्य पूर्णतः अलङ्कत हैं, किन्तु उनकी यह पलङ्कारप्रियता कहीं भी रसरङ्ग का कारण नहीं है । उनके अनुप्रास, इलेष, यमक इत्यादि अलङ्कार बण्यं विषय के अनुरूप हैं; और चित्रालङ्कार न केवल कवि के मलङ्कारशास्त्रीयज्ञान के परिचायक हैं, मपितु कषा के सार रूप में भी प्रस्तुत हुये हैं। उनके गीत उनको सङ्गीत-प्रियता के द्योतक हैं, साथ ही भक्तिभाववर्णन समय इन गीतों के प्रयोग से कवि के हृदयोद्गारों को भी प्रकट होने में सहायता मिलती है । गुण, भाषा, शैली, वाग्वेदाध्य, देशकाल इत्यादि सभी के प्रयोग में कवि को स्पहणीय सफलता मिली है । इस प्रकार हम देखते हैं कि हमारे कवि का कलापम भावपक्ष के सर्वथा अनुरूप है। वह कहीं भी पाण्डित्य प्रदर्शन का साधन मात्र होकर नहीं पाया है। प्राः यदि हम कहें कि कवि श्री ज्ञानसागर ने भावपक्ष प्रौर क नाम के माणकाञ्चन संयोग को प्रस्तुत करने का सफल प्रयास किया है, तो कोई प्रत्युक्ति नहीं हापो। Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम अध्याय महाकवि ज्ञानसागर का जीवन-दर्शन बोवन-दर्शन : एक संक्षिप्त परिचय संसार में जितने भी प्राणी जोवन धारण करते हैं, वे पूर्णतया प्रात्मनिर्भर नहीं होते । समाज, राजनीति, अर्थव्यवस्था, संस्कृति, धर्म और दर्शन -संसार में उपलब्ध इन तत्त्वों से उनका जीवन प्रवश्य ही प्रभावित होता है। फलस्वरूप इन्हीं के नियन्त्रण में रहकर वे अपना क्रियाकलाप करते हैं। प्राणियों को समाज, राजनीति प्रादि की कुछ बातें अनुकूल हैं और कुछ प्रतिकूल । अपना जीवन सफल बनाने के लिए लोग प्रतिकून बातों में परिवर्तन करके उनको अनुकूल बनाना चाहते हैं। वे एक रिशिष्ट प्रकार का समाज राजनीति, अर्थव्यवस्था, संस्कृति एवं धर्म चाहते हैं। जीवन को प्रभावित करने वाले समाज, राजनीति प्रादि इन तत्वों के विषय में व्यक्ति की ऐसी धारणा को ही 'जीवन-दर्शन' कहा जाता है। कोई व्यक्ति कसा जोवन चाहता है, यही उसका जीवन दर्शन है। कवि का जीवन के प्रति दृष्टिकोण क्या होता है ? यह उसके काम्यों का परिशीलन करने से अच्छी प्रकार ज्ञात हो सकता है। यहां अपने पालोच्य महाकवि ज्ञानसागर का जीवन के प्रति दृष्टिकोण उनके काव्यों के प्राधार पर प्रस्तुत किया जा रहा है। कवि को सामाजिक विचारधारा .. श्री ज्ञानसागर के काव्यों के परिशीलन से ज्ञात होता है कि उन्हें ऐसा समाष प्रिय है, जिसके लोगों को धर्म एवं मानवता के प्रति प्रास्था हो तथा भारतीय संस्कृति के मूलतत्त्व अधिकाधिक मात्रा में हों। मुनियों का कर्तव्य लोगों में धर्म के प्रति चेतना लाना हो, शासक प्रजारंजन करते हुए राज्य करे, बरिणग्जन प्रपं. व्यवस्था को संभाले, सेवक उपर्यक्त तीनों श्रेणियों के लोगों की सेवा करें। स्पष्ट है किबी मानसागर भारत में प्रचलित वर्णव्यवस्था को मानते है । परन्तु यह वर्ण १. दोश्येडशीमङ्गमतामवस्थां तेषां महात्मा कृतवान् व्यवस्थाम् । विभज्य तान् भत्रिय-वैश्य-शूद्र-भेदेन मेषा-सरितां समुद्रः ।। यस्यानुकम्पा हदि तूदियाय स शिल्पकल्पं वृषलोत्सवाय । निगव विम्यः कृषिकर्म चायमिहाशास्त्रं नपसंस्तवाय ॥ -बोरोग्य, १८।१३-१४ Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९८ महाकवि शानसागर के काव्य-एक अध्ययन व्यवस्था को जन्म के अनुसार नहीं, बरन् कर्मों के अनुसार मानते हैं। इसीलिए उन्होंने ब्राह्मणों के कुछ मावश्यक ममण बताए हैं, जो इस प्रकार है : ब्राह्मण को सत्य, अहिंसा, अस्तेय, बार्य पोर अपरिग्रह का पालन करना चाहिए, तपश्चरण, इनियसंयम, शोकराहित्य में उसकी प्रवृत्ति होनी चाहिए, उसे छल प्रपंच से सबंधा दूर रहना चाहिए; उसमें शांति, संयम और शुद्धता की विकता होनी चाहिए, प्राणिमात्र के प्रति क्या होनी चाहिए; उसे पात्म-चिन्तन करना चाहिए, भौर परनिन्दा से दूर रहना चाहिए । निस्पृह मन, वचन पोर काय से शुरु-पर्वतभाव की प्राप्ति, रात्रिभोजन का परित्याग करने वाला, एक समय साने वाला, निर्जन्तुक जल को पीने वामा पुरुष ही ब्राह्मण कहलाता है । समाज में जिन्हें ब्राह्मण कहा जाता है वे ब्राह्मण नहीं है, वास्तविक ब्राह्मण तो उपर्युक्त गुणों सम्पन्न रहने वाला व्यक्ति ही होता है।' कवि का दृष्टिकोण है कि लोग साधुषों की बात का विश्वास करें, उनका पावर करें। यही कारण है कि उन्होंने अपने काम्य में स्वप्नों का फल बताने के लिए सम्भ्रान्त सेठ वषभदास को जिनमन्दिर के मुनि के पास भेजा।२ समाज के लोगों से उन्हें अपेक्षा है कि अपने पूज्य जनों के प्रति प्रादर-भाव रखें और उनकी कही बात को विनम्र होकर सुनें । सेठ वृषभवास का पुत्र सुदर्शन इस भाव का उदाहरण है। वह चम्पापुरी के राजा के उच्चपद का विचार करता हुमा उसके द्वारा अपने प्रति किये गए दुव्यवहार पर ध्यान नहीं देता। सेठ वृषभदास के दीक्षा लेने पर स्वयं भी दीक्षा लेने का विचार करने लगता है। इसी प्रकार वीरोदय महाकाव्य के नायक भगवान महावीर भी पिता द्वारा प्रस्तुत अपने विवाह के प्रस्ताव को जिस विनम्रता से प्रस्वीकत करते हैं, वह देखने योग्य है।" महाकवि के मन में शिक्षित समाज को झाडी है । देश से निरक्षरता को हटाने की प्रबल इच्छा है। उसकी धारणा है कि प्रत्येक अभिभावक का कर्तव्य है कि वह अपने बच्चों को शिक्षित करे। यही कारण है कि उसके दयोदयचम्पू काव्य में ग्राम के निवासी गोविन्द ग्बाले द्वारा अपने पालित पुत्र सोमदत्त को यथाशक्ति शिक्षा दिलवाने का वर्णन है ।। १. वीरोदय, १४१३५-४३ २. सुदर्शनोदय, २।२२:२४ . ३. वही, २०२२-२४ ४. वही, ४१५ ५. वीरोदय, १२३, २८-४५ ६. क्योदयचम्मू, नम्ब ४, श्लोक के पूर्व एवं बायका गबभाग । Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर का जीवन-दर्शन ३६६ १ श्रीज्ञानसागर की नागरिक समाज की अपेक्षा ग्रामीण समाज में सरलता एवं सौहार्द के अधिक दर्शन होते हैं। जिस अनाथ बालक के विषय में सुनकर सेठ गुरणपाल उसको भारने के लिए तत्पर हो जाता है, उसी बालक को देखकर वस्ती में रहने वाले गोबिन्द-ग्वाले के मन में दया एवं वात्सल्य का स्रोत उमड़ने लगता है । श्रीज्ञानसागर ने वर्णव्यवस्था के आधार पर ही विवाह-संस्कार को. मान्यता दी है। राजकुमारी सुलोचना मोर जयकुमार का विवाह घोर सेठ सागरदत्त की पुत्री मनोरमा के साथ सेठ वृषभदास के पुत्र सुदर्शन का विवाह इस तथ्य के उदाहरण हैं । सम्भवतः कविवर ज्ञानसागर पुत्र को पुत्री से अधिक महत्त्व देते हैं, इसलिए उनके काव्यों में पुत्र जन्मोत्सव का वर्णन तो मिलता है, किन्तु पुत्री के जन्मोत्सव का उल्लेख तक कहीं नहीं मिलता। किन्तु उन्होंने विवाह में पुत्र की इच्छा की भाँति ही पुत्री की भी इच्छा को महत्व दिया है। सुलोचना स्वयंवर' मोर सुदर्शन मनोरमा विवाह इस तथ्य के उदाहरण हैं । पति-पत्नी का दाम्पत्य जीवन सुखमय हो, इसके लिए कवि का विश्वास है कि पुरुष को एकपत्नीव्रत होना चाहिए। हो, यदि राजनीति की दृष्टि से अनेक विवाह करने पड़े, तो कोई बात नहीं। इसी प्रकार पत्नी को भी चाहिए कि वह पति में एकनिष्ठ होकर रहे, प्रन्वथा उसकी दशा रानी प्रभवमती के समान होगी । afa का यह भी विश्वास है कि स्त्रियों को बहुत अधिक स्वतन्त्रता देना ठीक नहीं, पति का पत्नी पर नियन्त्रण होना चाहिए; अन्यथा वह अपनी स्वतन्त्रता का दुरुपयोग कर सकती है। साथ ही कवि ने स्त्री के सहचरी रूप को दासीरूप से १. वही, लम्ब ३, श्लोक ३ के बाद का गद्यभाग । २. वही, लम्ब ३, श्लोक ३ के बाद का गद्यभाग तथा श्लोक १० ३. (क) जयोदय, १२वीं सगं । (ख) सुदर्शनोदय, ३।४८ ४. (क) वीरोदय, ८१-६ (ख) सुदर्शनोदय, ३।४-१४ ५. जयोदय ६।११६-१२१ ६. सुदर्शनोदय, ३।४२-४८ ७. वही, ६ श्लोक २६ के पहले का गीत । ८. दयोदयचम्पू, लम्ब ७, श्लोक १२ के बाद के गद्यांश । ९. सुदर्शनोदय, ८।३५ Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य --एक अध्ययन अधिक महत्ता प्रदान की है।' यदि पति द्वारा ग्रहण किया गया मार्ग समुचित हो, तो स्त्रियों को चाहिए कि स्वयं भी उसी प्रोर बढने का प्रयत्न करें। . महाकवि की मान्यता है कि पुत्र-पुत्री को अपने माता-पिता की प्राज्ञा माननी ही चाहिए, किन्तु माता-पिता को भी अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए ऐसा कोई भी कार्य नहीं करना चाहिए जो उनको सन्तान के हित में बाधक हो, जैसा कि गुणाल एवं गुणमतो ने किया। कवि को दटि में सन्तान को माता-पिता की अनुचित प्राज्ञा का उल्लङ्घन कर देना चाहिए । श्रीज्ञानसागर को नारी का वेश्या रूप अच्छा नहीं लगता है । यही कारण है कि उनके काव्य की एक वेश्या तो सोमदत्त को उद्यान में सोता हुमा देखकर उसके प्रति वात्सल्य से विभोर हो जाती है। प्रोर दूसरी वेश्या सुदर्शन के तपस्वी एवं एढ़-व्यक्तित्व के पागे झुक जाती है। इससे स्पष्ट है कि कवि ने नारी के स्वाभा. विक गुणों को वेश्यामों के अस्वाभाविक दुर्गुणों पर विजय कराई है, जो भाज के वैश्यावृत्त्युन्मूलन का ही प्रतीक है। उपर्युक्त विवेचन से स्पy है कि श्री ज्ञानसागर ऐसा समाज चाहते हैं, जिसमें सब प्रकार से स्वस्थ, निंध्यपरायण, सदाचारी एवं धर्मात्मा व्यक्ति हों। कषि को राजनैतिक विचारधारा -- . किसी राज्य के संचालन की रीति को ही राजनीति कहते हैं। राजनीति प्रत्येक शासक की अलग-अलग होती है । किसो राजा की नीति सफल होती है और किसी की प्रसफल । सफल राजनीति वह है जिसके अनुसार राजा प्रजा पर नियन्त्रण भी कर सके और उसे वात्सल्य भी दे सके। इस प्रकार की नीति में विद्रोह की सम्भावना भी नहीं हो सकती। श्री ज्ञानसागर के काव्यों के परिशोलन से ज्ञात होता है कि कवि को इस बात का पूरा-पूरा ज्ञान है कि राजा के प्रजा के प्रति और प्रजा के राजा के प्रति क्या-क्या कर्तव्य होने चाहिएं ? एक मुनि द्वारा राजकुमार जयकुमार को दिए गए उपदेश में कवि की इस राजनैतिक विचारधारा का ज्ञान हो जाता है उसके अनुसार राजा को अपने सेवकों से उचित व्यवहार करना चाहिए। दान, सम्मान इत्यादि से शत्रुनों को भी प्रपने वश में कर लेना चाहिए। जो राजा प्रजा के हित का ध्यान रखता है, योग्य व्यक्ति को ही कार्य सौंपता है और सोच-विचार कर हो १. (क) जयोदय, २८१६६ . (स) सुदर्शनोदय, ८।२७, ३३, ३४ २. दयोदयचम्पू, षष्ठ सम्म । १. श्रीसमुद्रदत्तचरित्र, ४७, ८ ५. दयोदयचम्पू, लम्ब ४, श्लोक ११ पोर १२ के बाद के मदमाग । ५. खुदर्शनोदय, ६ लोक ३१ तथा इसके पूर्व का गीत। ६. जयोदय, २१७०-७२ Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर का जीवन-दर्शन ४०१ कार्य करता है, उसके ही राज्य में प्रजा सुखी होती है एवं उसके हो प्रति प्रजा में भक्तिभावना भी उदित होती है । राजा सिद्धार्थ', चक्रवर्ती सम्राट भरत, एवं वषमदत्त ऐसे ही प्रजावत्सल शासक हैं । सम्राट भरत तो राजनीति में अत्यधिक निपुण हैं । अधीनस्थ राजामों से उनके ऐसे पारिवारिक सम्बन्ध है कि वे सभी उनके विरुद्ध विद्रोह करना तो दूर रहा, सोच भी नहीं सकते । राजा को प्रजावत्सल एवं राजनिपुण होने के साथ ही साथ, दूरदर्शी भी होना चाहिए। उसे न केवल बाह्य लोगों की अपितु पन्त:पुर के वृत्तान्तों की भी पूर्ण जानकारी होनी चाहिए। राजा को व्यक्ति की पूरी परख होनी चाहिए, अन्यथा अन्तःपुर में होने वाले भ्रष्टाचारों के लिए सुदर्शन जैसे निरपराध प्रजाजन दोषी ठहराये जाते हैं। राजामों को यह भी चाहिए कि वह वास्तविक अपराधी को खोजकर ही न्यायपूर्वक दण की व्यवस्था करे। राज्य-संचालन का सर्वप्रमुख अधिकारी राजा होता है। कवि ने न्यायापोश के रूप में भी राजा को हो स्वीकार किया है। राज्य की सलाह देने के लिए एक मंत्रिमण्डल भी होना चाहिए। राजा को प्रर्थव्यवस्था चलाने के लिए एक राजसेठ का पद भी कवि को मान्य है। राज्य की सुरक्षा हेतु कवि को सेनापति पद भी स्वीकार्य है। राजानों के संदेशों को इधर-उधर भेजने के लिए दूतों को भी अच्छी व्यवस्था होनी चाहिए।' प्रजा को राजा के नियन्त्रण में रहना चाहिए । राजा की मोर से प्रसारित माज्ञा का प्रत्येक प्रजाजन को पालन करना चाहिए । कवि ने प्राज्ञाकारी प्रजाजन के रूप में सोमदत्त को प्रस्तुत किया है, जो राजा की प्राज्ञा प्राप्त होने पर राजकुमारी से विवाह की विनम्र स्वीकृति देता है।" युद्ध के सम्बन्ध में भी कवि को एक निश्चित धारणा है कि जब प्रतिपक्षी १. वीरोदय, ३३३ २. जयोक्य, ७३३ ३. दयोग्यचम्पू, ११९२ ४. सुदर्शनोदय, ७॥३५-३६ ५. बही, ८।१० ६. श्रीसमुद्रदत्तचरित्र, ४१४ ७. जयोदय, ३८ ८. दयोदयचम्प, १३१४ ९. जयोदय, ६।१४ १०. वही, २०५८ ११. स्योदयचम्प, ७ श्लोक १२ पोर १३ के बीच का गद्य भाष । Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ महाकवि मानसागर के काव्य-एक अध्ययन राजा युद्ध करने पर उतारू हो जाए तो पीठ दिखाने की अपेक्षा युद्ध हो करना चाहिए।' योद्धामों को परस्पर समान शस्त्र एवं वाहन का प्रयोग करना चाहिए। युद्ध की समाप्ति पर मत व्यक्तियों का अन्तिम संस्कार एवं घायलों का उपचार करना चाहिए। ___ स्पष्ट है कि कवि ऐसी राजनैतिक व्यवस्था चाहता है जिसमें प्रजा की खुशहाली एवं अधीनस्थ राजाभों पर मधुर-नियन्त्रण रह सके। कवि की प्राधिक विचारधारा .. कवि की हार्दिक इच्छा है कि प्रत्येक व्यक्ति मायिक दृष्टि से स्वावलम्बी हो। अपनी इस इच्छा को उन्होंने वणिक्पुत्र भद्रमित्र के चरित के रूप में अभिव्यक्त किया है। व्यक्ति को अपनी वर्णव्यवस्था के अनुसार ही भाजीविका का उपार्जन करना चाहिये। समाज में अर्थोपार्जन का कार्य वरिणग्जनों को ही शोभा देता है। तथा वध मादि निन्द्य कर्म चाणालों का पैतृक व्यवसाय है। - कवि ने अपने काव्यों में समुद्रीय व्यापार, पशुपालन, कृषि, मिट्टी के बर्तन बनाने मादि ज्यवसायों का उल्लेख किया है । प्राखेटवत्ति को उन्होंने निन्ध कर्म मानकर जनसामान्य को उसे छोड़ने की प्रेरणा दी है।११ जयकुमार को उपदेश देते समय भी मुनि ने अपनी योग्यता के अनुसार व्यक्ति को अर्थोपार्जन करने की सलाह दी है । स्पष्ट है कि कवि की दृष्टि में प्रत्येक गृहस्थ पुरुष को अपनी आवश्यकता की पूर्ति के लिए धनोपार्जन अवश्य ही करना चाहिए। १. जयोदय, ७८२-८५ २. वही, ८।६४-६५ ३. वही, ८८५ ४. श्रीसमुद्रदत्तचरित्र, ३१-१६ ५. सुदर्शनोदय, २।१-३ ६. बही, ७।३६ ७. श्रीसमुद्रदत्तचरित्र, ३१७ ८. दयोदयचम्प, ३ श्लोक | के बाद का गद्यभाग। ९. सुदर्शनोदय, ११२१ १०. वही, ७१ ११. दयोदयचम्पू, प्रथम एवं द्वितीय लम्ब । १२. जयोदय, २॥१११-११६ Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर का जीवन-दर्शन कवि की सांस्कृतिक विचारधारा महाकवि श्री ज्ञानसागर की प्राचीन भारतीय संस्कृति के प्रति गहन प्रास्था है । वह वेद-वेदाङ्गों को शिक्षा पर विश्वास करते हैं।' परन्तु उन्होंने कर्मकाण्ड में की जाने वाली हिंसा की कठोर निन्दा की है और 'अजेर्यष्टव्यम्' इत्यादि वेदवाक्यों का सुसंस्कृत एवं हिसापरक भावार्थ समझाने का प्रयत्न किया है । उनको दृष्टि में 'प्रजेर्यष्टव्यम्' इस वेदवाक्य का तात्पर्य - 'बकरों से यज्ञ-क्रिया का सम्पादन करना चाहिये - ऐसा नहीं है, अपितु इस वाक्य का तात्पर्य है— न उनने योग्य पुराने धान्य से यज्ञ करना चाहिए । २ कवि का पुनर्जन्म एवं कर्मफल में सुदृढ़ विश्वास है । उनके अनुसार अपने पूर्वजन्म में जो जैसा करता है, दूसरे जन्म में उसको उसी के अनुसार फल भोगने पड़ते हैं। सोमदन ने पूर्वजन्म में एक मछली को जीवन दान दिया था, प्रतः वर्तमान जन्म में वह बारंबार मृत्यु के मुख से बचता रहा। श्रीभूत पुरोहित ने पुत्र का धन हड़पने का प्रयत्न किया था, इसलिए वह बार-बार कुयोनियों में जन्म ले लेकर भटकता रहा । ४ श्री ज्ञानमागर की जिनेन्द्रदेव के प्रति दृढ़-भक्ति है । उनके संस्कृत भाषा में लिखे गए प्रत्येक ग्रन्थ का शुभारम्भ श्री जिनदेव की ही स्थिति से हुम्रा है ।" उनके काव्यों के नायक श्री भगवान् जिनेन्द्रदेव के हो इसके प्रतिरिक्त पात्रों द्वारा किया गया जिनदेव का पूजन भी कवि की जिनेन्द्र में प्रास्था को अभिव्यक्त करता है । भक्त हैं। भगवान् भगवान् जिनेन्द्रदेव को मूर्तियों एवं जिनालयों पर कवि की प्रास्था नितान्त १. सुदर्शनोदय, ३।३०-३१ २. वीरोदय, २८।५०-५१ ३. दयोदयचम्पू, १ श्लोक १२ के बाद तीसरा गद्यभाग, ३ श्लोक ७ के बाद दूसरा गद्यभाग, ४५११, ५ श्लोक १४ के पूर्व का गद्यभाग, ६।१२ ४. श्रीसमुद्रदत्तचरित्र, ३।२८-३२, ४५, ३५, ५०३२, ३४ ५. ( क ) जयोदय, १1१ ૪૦૨ (ख) वीरोदय, ११ (ग) सुदर्शनोदय, १|१ (घ) श्रीसमुद्रदत्तचरित्र, ११ (ङ) दयोदयचम्पू, १1१ (च) सम्यक्त्वसारशतक, १1१ ६. (क) जयोदय, २४॥५८-६० (ख) सुदर्शनोदय, ५ प्रारम्भ के ८ गीत Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य-- एक अध्ययन स्पष्ट है । प्रायः सनातनधर्मावलम्बी हिन्दुधों की बालिकाएं अपने विवाह के अवसर पर सर्वप्रथम गौरी पूजन के लिए जाती हैं, परन्तु कवि ने ऐसे अवसर पर जिनपूजन की ही प्रेरणा दी है । 'जयोदय' की नायिका सुलोचना अपने विवाह के अवसर पर श्रीजिनदेव के ही पूजन हेतु जाती है । मंत्र शक्ति पर भी कवि का विश्वास है । 'गमो परिहंताणं' इस मंत्र के बल से ही एक ग्वाले ने सेठ के पुत्र के रूप में जन्म लिया और जिनभक्ति के फलस्वरूप मोक्ष भी प्राप्त किया। गारुडिक ने अपनी मंत्र शक्ति से ही राजा सिहसेन को काटने वाले दुष्ट सर्प की पहिचान की। कवि ने इन्द्राणी, श्री, ही प्रादि देवियों एवं इन्द्र, कुबेर इत्यादि देवगणों की भी सत्ता स्वीकार की है। जिस प्रकार सनातन धर्म वाले इन देव-देवियों को ब्रह्मा, विष्णु और महेश के शासन में स्वीकार करते हैं, उसी प्रकार कवि ने अपनी परम्परानुसार इन देव-देवियों को जिनेन्द्रदेव का सेवक बताया है । ' ४०४ कवि ने मानव जाति के प्रतिरिक्त एक मोर जाति बताई है - व्यन्तर एवं व्यन्तरी । कवि के अनुसार जब कोई व्यक्ति प्रतिशोध की भावना से प्रात्मघात करता है, तब उसका इसी योनि में जन्म होता है। इस योनि का स्वभाव प्रतिपक्षी के साथ दुर्व्यवहार करने का ही होता है । " श्री ज्ञानसागर का ज्योतिर्वित् एवं ज्योतिष, दोनों पर ही विश्वास है । उनके अनुसार प्रत्येक शुभकार्य के लिए देवज्ञों से अथवा स्वयं मुहूतं जान लेना चाहिए । ७ हिन्दू संस्कृति के सोलह संस्कारों पर उनकी प्रास्था है। उनके अनुसार नामकरण, विद्यारम्भ, विवाह इत्यादि संस्कार उचित समय पर हो होने चाहिएँ। 5 लयकुमार और सुलोचना के विवाह के अवसर पर वर को विवाहमण्डप में बुलाना, मन्त्रोच्चारणपूर्वक पाणिग्रहण कराना, बारात का सहर्ष स्वागत करना मोर हर्षमय विधान सहित वर-वधू को विदा करना प्रादि बातों का वर्णन यह बताता है कि १. वीरोदय, २।३३-३६ २. जयोदय, ५।६१ ३. सुदर्शनोदय, ४।२६-२७ ४. श्रीसमुद्रदत्तचरित्र, ४।१२-१४ ५. वोरोदय, पंचम एवं सप्तम सगं । ६. (क) जयोदय, २०१४२-१४३ (ख) सुदर्शनोदय, ८३५, १०७६-६३ ७. दयोदयचम्पू, ४ श्लोक १७ के पूर्व का गद्यांश । ६. (क) वीरोदय, ८।२२ (ख) सुदर्शनोदय, ३।१५ तथा २९ Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर का जीवन-दर्शन कवि को प्राचीनकाल से चली पा रही इन परम्परामों पर पूरा विश्वास है।' ___ स्वप्न-दर्शन पर भी अपनी पूर्व-परम्परा के अनुसार उन्हें अत्यधिक विश्वास है। तीर्थङ्कर की माता पूर्व-जन्म से पूर्व सोलह स्वप्न देखती है । पोर मन्तः केवली की माता पुत्रजन्म से पूर्व पांच स्वप्न देखती है।' महाकवि की प्रास्था है कि ये स्वप्न में उत्पन्न होने वाले पुत्र की विशेषतामों का स्पष्ट संकेत श्री ज्ञानसागर ने व्यक्ति के पूर्वजन्मों को भी माना है। उनके प्रत्येक काम्य में पात्रों के पूर्वजन्मों से सम्बन्धित कथाएं इस तथ्य को पुष्टि करती हैं। ज्ञानसागर जी राजा एवं मुनिजनों को राष्ट्र का सम्माननीय व्यक्ति मानते हैं । राजा जिस मार्ग से भी निकले, प्रजा को उसका स्वागत करना चाहिए।' त्याग की साक्षात् प्रतिमा मुनि तो न केवल जनसामान्य के ही, अपितु राजा के भी पुज्य होते हैं। __वह त्यागोन्मुख भोग पर ही विश्वास करते हैं । हिन्दू-संस्कृति के अनुसार वह भी यह मानते हैं कि पुत्र के राज्याभिषेक के पश्चात् पुरुष को तपस्या हेतु तपोवन में चला जाना चाहिए। १. जयोदय, १०।६, एकादश सगं, द्वादश सर्ग; १३॥१-२१ २. वीरोदय, ४।२७ ३. सुदर्शनोदय, २।१४-१८ ४. (क) वीरोदय, ४१४०-६१ (ख) सुदर्शनोदय, २।३६.४० ५. (क) जयोदय, २३।१०-९७ (ख) वीरोदय, ११।१-३७ (ग) सुदर्शनोदय, ४।१७-३७ (घ) श्रीसमुद्रदत्तचरित्र, ४॥२२-३७ (ङ) दयोदय चम्पू, लम्ब १, श्लोक २१ के बाद चौथे गवांश से दूसरे लम्ब तक। ६. जयोदय, २११५१-५२ ७. श्रीसमुद्रदत्तचरित्र, ६१३४ ८. वही, ४१६ १. (क) अयोग्य, २११६७ (स) वही, २६।३८ (ग) सुदर्शनोदय, ४।१४ (घ) श्रीसमुद्रदत्तचरित्र, ६।३३ Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૬ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य - एक अध्ययन वह प्रतिथि-वत्सल भी हैं। सोमदत्त का पालित पिता गोविन्द ग्वाला गुसापाल के विषय में बिना जाने हो उसका प्रतिशय सत्कार करता है और सोमदत्त को भी उसकी सेवा में नियुक्त कर देता है ।" २ कवि ने जलक्रीड़ा, पतङ्गक्रीड़ा एवं शतरंज क्रीड़ा के सन्दर्भ में भी अपने ज्ञान का परिचय दिया है, जो उसकी मनोरंजनप्रियता का परिचायक है । कवि के अनुसार विवाह के समय कन्या को सुन्दर वस्त्राभूषणों से सजाना चाहिए, विवाहादि के शुभ अवसरों पर मङ्गलगीतों का प्रबन्ध होना चाहिये * एवं इन अवसरों पर दान भी देना चाहिए । 3 भारतीय त्योहारों पर भी श्रीज्ञानसागर की प्रास्था है । इसलिए उन्होंने अपने काव्यों में झूला झूलने प्रोर वसन्तोत्सव में वनविहार करने का उल्लेख किया है। हमारे कवि सङ्गीतप्रिय भी हैं। भारतीय परम्परानुसार उनका विश्वास है कि राग एवं ताल में निबद्ध भजनों के गायन से देवता अवश्य ही भक्त की पुकार सुन लेते हैं । प्रत: जहाँ कहीं भी उनके मन में भक्तिभाव जागरित हुमा है, वही उन्होंने सङ्गीतमय भजन अपने इष्ट देव को सुनाये हैं। उनके मतानुसार सङ्गीत हमारे मनोभावों एवं प्रन्तर्द्वन्द्व के प्रस्तुतीकरण में पर्याप्त सहायक होता है। इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि श्री ज्ञानसागर प्राचीन भारतीय संस्कृति को प्रदर की दृष्टि से देखते थे 1 afa की धार्मिक विचारधारा महाकवि श्री ज्ञानसागर जैनधर्म को मानने वाले हैं। यह जंनधर्म दो प्रकार १. दयोदयचम्पू, चतुर्थं लम्ब । २. (क) जयोदय, चतुर्दश सगं । (ख) वीरोदय, १२।२४-२६ (ग) श्रीसमुद्रदत्त चरित्र, ३।४१-४२ ३. जयोदय, १०।२८-४० ४. बही, १०।१५ - २२ ५. वही, ३।६ ६. वीरोदय, ४।७१-२३ ७. सुदर्शनोदय, ६ प्रारम्भ के ४ गीत एवं १-३ श्लोष । ८. (क) जयोदय, १९व सगं । (ख) सुदर्शनोदय, ५ प्रारम्भ के ८ गीत । ६. वही, ६ श्लोक २४ के बाद का गीत । Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर का जीवन-दर्शन का हैं - श्वेताम्बर जैनधर्म भोर दिगम्बर जैनधर्मं । कविवर के काव्यों के परिशी न से ज्ञात होता है कि उन्हें दिगम्बर जैनधर्म पर ही विश्वास है । उन्होंने जैनधर्म किं वा जैन दर्शन की अपने काव्यों में यत्र-तत्र प्रसङ्गानुकूल जो मीमांसा प्रस्तुत की है, उसका संक्षिप्त सार इस प्रकार है : व्रतों का पोषक अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचयं एवं प्रपरिग्रह - इन पाँच पदार्थों का माहात्म्य सभी धर्मों में मान्य है । महाकवि श्रीज्ञानसागर की भी इन पांचों महाव्रतों में गहन प्रास्था है। इन महाव्रतों के माहात्म्य प्रस्तुतीकरण हेतु ही उन्होंने अपने काव्यों की रचना की है, जिनमें 'दयोदयचम्पू' की रचना महिसाव्रत की पोषिका है; क्योंकि इस काव्य में एक मुनि के उपदेश से प्रभावित होकर मृगसेन नामक घीवर के द्वारा महाव्रत के धारण करने का एवं उसके फलस्वरूप होने वाले फलों का वर्णन किया गया है। 'श्रीसमुद्रदत्त चरित्रकाव्य' सत्य प्रोर अस्तेय है । इस काव्य का नायक सत्य बोलकर उत्कर्ष की भोर भग्रसर होता है मोर श्रीभूति नामक पुरोहित चोरी के अपराध में दण्ड पाता है। 'वीरोदय' महाकाव्य ब्रह्मचयं की महिमा का उद्घोष करता है। इस काव्य के नायक भगवान् प्राजीवन ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हैं; और अपना समय लोककल्याण के मार्ग में लगा देते हैं । 'जयोदय' महाकाव्य प्रपरिग्रहव्रत के माहात्म्य के प्रस्तुतीकरण के लिये लिखा गया है । इस काव्य का नायक राजा होकर भी अपने वैभव को छोड़कर वन का आश्रय लेता है । 'सुदर्शनोदय' महाकाव्य इन पाँचों धर्मों के अतिरिक्त चित्त की डढ़ता रूप आवश्यक धर्म के प्रस्तुतीकरण के लिए लिखा गया है। इतना ही नहीं उन्होंने इन व्रतों को धर्म रूप वृक्ष का प्रावश्यक भङ्ग भी माना है ।" भोजन के विषय में भी महाकवि की जैनधर्मानुसार कुछ निश्चित मान्यताएँ हैं, जैसे कि प्रत्येक व्यक्ति को पके हुए फल खाने चाहिएँ । क्योंकि कच्चे फलों में जीब होते हैं । प्रत्येक गृहस्थ को निरामिष भोजन करना चाहिये भोर मदिरा, भङ्ग इत्यादि पदार्थो का सेवन नहीं करना चाहिये । प्रचार, मुरब्बा, मक्खन, बड़, पोपल, गूलर, अबीर, पिलखन प्रादि को नहीं खाना चाहिये । चमड़े में रखे हुये तेख, घृत प्रादि पदार्थ नहीं खाने चाहिएं। चना, मूंग, छांछ इत्यादि द्विदल धन्न के साथ कच्चा दूध, दही, छाँछ इत्यादि का उपयोग करना चाहिये । ४ १. सुदर्शनोदय ६।७० २. वीरोदय, १२।३३ ३. (क) जयोदय, २।१०९ (ख) सुदर्शनोदय, ४।४३-४४ فال ४. (क) बही, २०५६-५८ सागरधर्मामृत, २।११-१३ Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य- एक अध्ययन जैनधर्मावलम्वी गृहस्थों के विषय में विशेष व्यवहार की कुछ अनुकरणीय बातें भी कवि ने बताई है। तदनुसार गृहस्थ पुरुष को जीविकोपार्जन के लिये कुछ न कुछ अवश्य करना चाहिये ।' शैशवावस्था में विद्याग्रहण करके युवावस्था में धर्म का पालन करना चाहिये। उसका मन करुणा एवं निर्मल बुद्धि से युक्त होना चाहिये । परस्त्री में सद्बुद्धि रखनी चाहिये । दूसरे की सम्पत्ति में प्रासक्ति नहीं करनी चाहिये । वृद्ध जनों की बातों को सुनना चाहिये । प्रपना प्राचरण दूसरों के अनुकूल बनाना चाहिये । गृहस्थ पुरुष को भी जल छानकर ही पीना चाहिए। पर्व के दिनों में गृहस्थों को उपवास करना चाहिये । इस प्रकार रहित होकर गृहस्थ जीवन सुखपूर्वक व्यतीत करके अन्त में चाहिये ।" 8.4 जैन धर्मानुसार श्रावक को ग्यारह प्रतिमाएं धारण करनी पड़ती हैं, जो इस प्रकार हैं: दर्शन प्रतिमा, व्रत प्रतिमा, सामयिक प्रतिमा, प्रोषध प्रतिमा, सचितत्याग प्रतिमा, रात्रि भोजन त्याग प्रतिमा, ब्रह्मचयं प्रतिमा, प्रारम्भ त्याग प्रतिमा, परिग्रह त्याग प्रतिमा, अनुमति त्याग प्रतिमा प्रोर उच्छिष्ट त्याग प्रतिमा । श्रीज्ञानसागर ने त्यागोन्मुख गृहस्थ श्रावक के लिये जिन ग्यारह नियमों के पालन का प्रादेश दिया है, वे जंनधमं सम्मत उपर्युक्त ग्यारह प्रतिमायें ही हैं, उनका सरल एवं व्यावहारिक प्राशय इस प्रकार हैं (क) उत्तेजक पदार्थों का सेवन नहीं करना चाहिये ( दर्शन प्रतिमा ) । अतिथि को भोजन कराने के बाद भोजन करना चाहिये ( व्रत प्रतिमा ) । (ग) “चमंस्थिते धृते तेले तोये चाऽपि विशेषतः । रसोत्पन्नाः सदा जीवाः सम्भवेयुर्मतं बुधः ॥” - धर्मोपदेश पीयूषवं - अवकाचार, ३०२७ छल प्रपञ्च से संन्यास ले लेना १. बीरोदय, १६।१६ २. बही, १८।२३ - ३९ (क) वोरोदय, १९।२९ (ख) " बस्त्रेणातिसुपोतेन क्षालितं तत्पिवेज्जलम् । महिसाव्रतरभार्य मांसदोषापनोदने ।" - धर्मसंग्रहश्रावकाचार, ३।३४ ४. (क) जयोदय, २३८ (ख) सुदर्शनोदय, ७८(ग) जैनधर्मामृत, ४६३-९४ ५. वीरोदय, १८।४० ६. बेनधर्मामृत, ४१२९-१३६ Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर का जीवन-दर्शन ४.६ (ग) तीनों सन्धामों में भगवान् का स्मरण करना चाहिए (सामयिक प्रकार)। (घ) महमी भोर चतुर्दशी के दिन उपवास करके मन को निश्चल रखना चाहिये - (प्रोषष प्रतिमा) (ङ) भग्नि-पक्व वस्तुमों का सेवन करना चाहिये (सचित्तत्याग प्रतिमा) (च) दो वार से ज्यादा कदापि नहीं खाना चाहिये । प्रच्छा तो यह है कि एक ही बार खाने का अभ्यास करना चाहिये (रात्रि भोजन त्याग प्रतिमा)। (छ) कामसेवन का त्याग करके मन को मात्मचिन्तन में लगाना चाहिये (ब्रह्मचर्य प्रतिमा)। (ज) ब्रह्मचर्य द्वारा इन्द्रिय-संयम करना चाहिए (प्रारम्भत्याग प्रतिमा)। (झ) पूर्वोपार्जित धन के प्रति पासक्ति नहीं रखनी चाहिए (परिग्रह त्याग प्रतिमा)। (ब) दूसरे पुरुषों का भी सांसारिकता से मन हटाते हुए स्वयं सारा समय परमात्मा में लगाना चाहिए (अनुमतित्याग प्रतिमा)। (ट) अपने लिए बनाए गए भोजन की प्रावश्यकता पड़ने पर दूसरों के लिए सहर्ष दान कर देना चाहिए (उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा) ।' जंनी महात्मानों के क्रमिक विकास के सोपानपुरुष वर्गीय जैनी महात्मा जैन-धर्म-ग्रन्थों के परिशोलन से ज्ञात होता है कि जैन-धर्म में गृहस्थ व्यक्ति विरक्त होकर ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हैं। जैनधर्ममतावलम्बी गृहस्थ उपर्युक्त ग्यारह प्रतिमानों में से प्रथम छः का पालन करते हैं; और ब्रह्मचारी सातवी, . पाठवौं पोर नवीं प्रतिमामों का पालन करते हैं । २ तत्पश्चात् व्यक्ति के वानप्रस्थ माश्रम में जाने का विधान है। इस आश्रम में पहुंचे हुए व्यक्ति को ही क्षुल्लक कि वा भिक्षुक कहा जाता है। भिक्ष की उपाधि प्राप्त करके पुरुष दसवीं एवं ग्यारहवी प्रतिमानों का भी पालन करते हैं।' १. सुदर्शनोदय, ६५६-६६ २. 'पडत्र गहिणो ज्ञेयास्त्रयः स्युब्रह्मचारिणः ।' -श्रावकाचारसंग्रह (भाग-१) यशस्तिलकचम्पू, उपासकाध्वयन, ८२४ का पूर्वार्द। ३. 'उत्कृष्टः भावको यः प्रक्षुल्लकोऽव सूचितः।। स चाऽपवादलिङ्गी च वामप्रस्थोऽपि नामतः ॥' -श्रावकाचारसंग्रह (भाग-२) धर्मसंग्रह धावकाचार, ६।२७६ ४. 'भिक्षुको दो तु निर्विष्टी ततः स्यात्सर्वतो यतिः ॥' -श्रावकाचारसंग्रह (भाग-१) पस्तिनकचम्पू, उपासकाध्ययन, ८२४ का उत्तरा। Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि शामसागर के काव्य- एक अध्ययन क्षुल्लकावस्था के कुछ लक्षण एवं नियम भी जैन-ग्रन्थों में मिलते हैं, जो संक्षेप में इस प्रकार हैं: मल्लकावस्था में मुनि के समीप खण्डवस्त्र धारण करके दीक्षा ग्रहण करता है और तदनन्तर सदा मुनि के समीप ही रहता है। भिक्षा केही भन्न से अपनी क्षुधा शान्त करता है। दीक्षा ग्रहण करने के तीन या चार महीने गद इसके केशखंचन का विधान है। इसके लिए कोमल शय्या के निषेष का मादेश है। इसको पापरहित कमण्डसु धारण करना चाहिये, अन्यप्ररत्त अल्पमूल्य वाला कोपीन एवं खण्डवस्त्र रखना चाहिए, भिक्षा के लिये एक छोटा सा पात्र रखना चाहिए, भिक्षावृत्ति के लिये सामान्य गति से चलना चाहिये, भिक्षा श्रेष्ठ घर से ही लेनी चाहिए, परन्तु उसके लिये अनुरोध नहीं करना चाहिये । क्षुल्लक को कच्चे पदार्थ नहीं खाने पाहिए। भोजन के स्वाद पर भी विचार नहीं करना चाहिए। छांछ, दही, मांस, रक्त, चर्म, हड्डो, मद्य इत्यादि पदार्थों का सेवन नहीं करना चाहिये । क्षुल्लक को भन्न खराब नहीं करना चाहिये । भोजन के बाद कुल्ला करना चाहिये, और अपना पात्र घोकर गुरु के समीप चला जाना चाहिये तथा उनको प्रणाम करके उनसे शिक्षा ग्रहण करनी चाहिये ।' . इन भिक्षमों के क्रमशः चार उत्कृष्ट रूप हैं-(क) साधु, (ब) यति, (ग) मुनि पोर (घ) ऋषि । इनमें से साधु सामान्य रूप है, जिसका मास्मा तत्त्व में लीन है, मन मात्मा में लोन है, इन्द्रियों मन में लीन हैं, जो अपणक श्रेणी में प्रारूड है, ऐसे भिक्षु को यति या योगी कहते हैं। मात्मविद्या में मान्य, प्रवपिज्ञानी, मनः १. श्रावकाचारसंग्रह (भाग-२), प्रश्नोत्तरश्रावकाचार, २४१२२-६८ २. भिक्षको जिनरूपधारिणस्ते बहुषा भवन्ति-अनागारा पतयो मुनय ऋषयश्चेति । -श्रावकाचारसंग्रह (भाग-१) चरित्रसागरभावकाचार, श्लोक २२ के पूर्व गव। १. (क) 'तत्त्वे पुमान्मनः पुंसि मनस्यमकदम्बकम् । यस्य तूक्तं स बोगी स्वान्न योगीमादुरीहितः ॥' -श्रावकाचारसंग्रह (भाग-१) यस्तिलकचम्पूगत उपासकाध्ययन, १३८ (a) 'यतयः उपशमक्षपणकण्यास्ता भण्यन्ते।' -श्रावकाचारसंग्रह (भाग-1) परिप्रसार पावकाचार, इलोक २०२ के पूर्वका गव। Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि भानसागर का जीवन-दर्शन पर्यय ज्ञानी एवं केवलज्ञानी पुरुष मुनि कहलाते हैं तथा ऋद्धि प्राप्त क्लेश सम्ह को रोकने वाले पुरुष ऋषि कहलाते हैं।' इस स्थिति के बाद पुरुप में वीतरागता परमसीमा तक बढ़ने लगती है। फलस्वरूप उसे परमेष्ठी कहा जाता है । श्रेष्ठता के क्रम में इनके भी पांच भेद होते हैं :-महन्त परमेष्ठी, सिद्धपरमेष्ठी, प्राचार्य परमेष्ठी, उपाध्याय परमेष्ठी बोर साधु परमेष्ठी। इनमें महन्त परमेष्ठी की संज्ञा उसे मिलती है, जो शारीरिक विकारों से रहित, जातिकर्मों को नष्ट करने वाला, अनन्त ज्ञान, वर्शन, सुख मोर बोयं से युक्त हो। जिस पुरुष के ज्ञानावरणादि पाठ कर्म नष्ट हो गये हों, जिसके मन्दर सम्यक्त्वादि पाठ गुण हों, जो लोकाकाश के ऊपर स्थित, मानन्दयुक्त, कर्ममल से रहित हो उसे सिद्ध परमेष्ठी कहते हैं। दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चरित्राचार भोर तपस्याचार इन पांच प्राचारों का स्वयं पालन करने वाला एवं शिष्य वर्ग के १. (क) 'मान्यत्वादात्मविद्यानां महद्भिः कीर्त्यते मुनिः ॥' -श्रावकाचारसंग्रह (भाग-१), यशस्तिलकचम्पू उपासनाध्ययन, ५२६ का उत्तरार्ध । (ख) 'मुनयोऽवधिमानः पर्ययभवज्ञानिनश्च कथ्यन्ते ।' -श्रावकाचारसंग्रह (भाग-१), चरित्रसार भावकाचार, नोक २२ के पूर्व का गद्य । २. (क) 'रेषणाक्नेशराशीनामृषिमाहुमनीषिणः ।' -श्रावकारसंग्रह (भाग-१) यशस्तिलकचम्पू श्रावकाचार, श्लोक २२ के पूर्व का गद्य । ३. 'परमेऽत्युत्तमे स्थाने तिष्ठन्ति परमेष्ठिनः । ते चाहंसिख प्राचार्यः पाठक: साधुरास्पया। -श्रावकाचारसंग्रह (भाग-२) धर्मसंग्रह प्रावकाचार, ७।११४ ४. (क) 'स्वभावशानजामयविहिताऽतिशयान्वितः । प्रातिहार्यरनन्तादिचतुम्कन युतो जिनः। -भावकाचारसंग्रह (भाग-१) धर्मसंग्रह श्रावकाचार, ७१७ (ख) जनधर्मामृत, २०७३.७६ (ग) नेमिचन्द्र मुनि, दम्यसंग्रह, ३५. ५. (क) श्रावकाचारसंग्रह (भाग-२) धर्मसंग्रह भावकाचार, ७११६ (ब) जनधर्मामृत, २७७-७९ (ग) नेमिचन्द्र मुनि, व्यसंग्रह, २०५१ Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि मानसागर के काव्य-एक अध्ययन भी करवाने वाला, छत्तीस गुणों का धारक पुरुष प्राचार्य परमेष्ठी कहा जाता है।' सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र सहित धर्मोपदेश करने में तत्पर शास्त्राभ्यास करने वाले पुरुष को उपाध्याय परमेष्ठी की संज्ञा प्राप्त होती है। मोर सम्यक्त्व का साधन करने वाले, शान्त प्रवृत्तियों वाले पुरुषों को साधु परमेष्ठी कहा जाता है। जैन धर्मग्रन्थों में परमेष्ठी को संज्ञा प्राप्त करने के पूर्व मुनि की दंगम्बरी दीक्षा का विधान मिलता है । दिगम्बर मनि x x x को वस्त्रों का परित्याग कर देना चाहिए, शिर के केशों का लंचन कर देना चाहिए, आभरणों को छोड़कर केवल पिच्ची धारण करनी चाहिए, वन में निवास करना चाहिए और अधिक बोलने तपा सोने का भी परित्याग कर देना चाहिए।४ . ज्ञानसागर के काज्यों में प्राप्त होने वाली जन महात्मानों को श्रेणियां. जैन-धर्म-प्रन्यों में उपर्यक्त विवेचन के प्राधार पर जब हम अपने पालोच्यमहाकवि ज्ञानसागर की रचनामों को देखते हैं तो ज्ञात होता है कि उन्होंने भी अपने काव्यों में अनेक प्रकार के रूपों का उल्लेख किया है। यहां हम प्रतिसंक्षिप्त रूप में उन्हें प्रस्तुत कर रहे हैं :दिगम्बर मुनि पुरुष की जन-धर्म-सम्मत स्थिति का कवि ने अपने काव्यों में पर उल्लेख किया है, जयोदय मोर वीरोदय में एक-एक बार, सुदर्शनोदय और श्रीसमुद्र१. (क) 'प्राचाराचा गुणा अष्टो तपो द्वादशधा दश । स्थितिकल्पः षावश्यमाचार्योऽमीभिरन्वितः ॥' -श्रावकाचारसंग्रह (भाग-२), धर्मसंग्रह श्रावकाचार, ७।११७ (ख) जनधर्मामृत, २२८६-८७ (ग) नेमिचन्द्र मुनि, २५२ २. (क) एकादशाङ्ग सत्पूर्वचतुर्दशश्रुतं पठन् । व्याकुर्वन्पाठयन्नन्यानुपाध्यायो गुणाग्रणीः ।।' -श्रावकाचारसंग्रह (भाग-२), धर्मसंग्रह श्रावकाचार, ७।११० (ब) जनधर्मामृत, २२८६-६५ (ग) नेमिचन्द्रमुनि, ३१५३ ३. (क) 'दर्शनशानचारित्रत्रिकं भेदेतरात्मकम् । पथावत्सापयन्साधुरकान्तपदमाधितः ।। - -श्रावकाचारसंग्रह (भाग-२) धर्मसंग्रह श्रावकाचार, ११९ (स) बनधर्मामृत, २०६६-१०३ (1) नेमिचन्द्रमुनि, ३३५४ ४. भावकाचारसंग्रह (भाग-२) धर्मसंग्रह भावकाचार, ६।२८०-२८२ Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर का जीवन-दर्शन दत्तचरित्र में दो-दो बार दयोदय-चम्पू में तीन बार ।' दिगम्बर मुनि बनने के लिए कवि ने भी वस्त्रपरित्याग, केशलुंचन, मौनधारण, सहिष्णुता, एकाकिविहरण, मयूरपिच्छ-कमण्डलु धारण इत्यादि नियमों के विषय में प्रेरित किया है। .. मुनि ___ साधु की इस प्रास्था का कवि ने अपने काव्यों में ७ बार उल्लेख मात्र किया है-जयोदय और सुदर्शनोदय में एक-एक बार तथा श्रीसमुद्रदत्तचरित्र में पांच बार । ऋषि साधु को इस अवस्था का वर्णन केवल सुदर्शनोदय में, और वह भी एक बार, माया है । सुदर्शनोदय में वर्णित एक ऋषिराज ने ही सेठ वृषभदास को दीक्षा देकर उपकृत किया है। योगी श्री ज्ञानसागर ने योगी पुरुष की विशेषतामों को जनधर्म सम्मत ही बताया है। उनके अनुसार सुख की प्राप्ति हेतु इच्छामों का निरोष करने वाले, चतुनिकाय के देवगणों से सुपूजित, चञ्चल मन का नियन्त्रण करने वाले, इन्द्रिय निग्रह में तत्पर भोर बाह्य प्राडम्बर से रहित पुरुष को योगी कहा जाता है। महाकवि ज्ञानसागर ने अर्हन्त परमेष्ठी के वे गुण बताए हैं, वो जैन-दर्शना १. (क) जयोदय, २८।६६ (ख) वीरोदय, १०।२४-२६ (ग) सुदर्शनोदय, ४।१४, ८।३२ (ङ) दयोदयचम्पू, १॥ श्लोक २२ के पूर्व का गद्यभाग, श्लोक १७ के बाद का गयभाग, ७ श्लोक ३८ के पूर्व का गद्यभाग । २. (क) वीरोदय, १०॥२४॥३७ (ख) दयोदयचम्पू, श्लोक ३८ के पूर्व का गद्य भाग। ३. (5) जयोदय, ११७७ (स) सुदर्शनोदय, २०२४-२५ (ग) श्रीसमुद्रदत्तचरित्र, २०२७, ४१६, १७, १८, ५॥३० ४. सुदर्शनोदय, ४११-१४ ५. 'इच्छानिरोधमेवातः कुर्वन्ति यतिनायकाः। पादो येषां प्रणमन्ति देवाश्चतुरिणकायकाः ॥ मारयित्वा मनो नित्यं निगलन्तीन्द्रियाणि च । बाह्याटम्बरतोऽतीतास्ते नरा योगिनो मताः ॥' -बही, ६।४२-४३ Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૪ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य - एक प्रध्ययन चाय को मान्य हैं । मुनिराज सुदर्शन ने मोक्ष प्राप्ति के पूर्व प्रर्हन्त परमेष्ठी - पद प्राप्त किया है । उस समय देह में उनको जरा भी ममत्त्व न रहा, उनके रागादि जातिया कर्म क्रमशः नष्ट हो गए । तत्पश्चात् वह पूर्ण निर्मल श्रात्मा वाले हो गये । उनकी म्रात्मा में सारा जगत् प्रतिबिम्बित होने लगा । गुणों से विभूषित वह सुदर्शन मुनि सर्ववदेय हो गए।' स्त्री वर्गीय जेनी महात्मा - प्रायिका जैन दर्शन एवं धर्म-ग्रन्थों के परिशीलन से ज्ञात होता है कि जन-धर्म में स्त्री को संन्यास - दशा का यह एक ही प्रकार मिलता है। आर्यिका स्त्री को दीक्षा लेते समय एक ही साड़ी धारण करनी आवश्यक होती है, अत्यल्प परिग्रह धारण करने बाली प्रायिका को भी केशलंचन, कमण्डलु एवं पिच्छीधारण एवं श्रामरण त्याग करना पड़ता है । श्री ज्ञानसागर जी भी स्त्रियों के उत्कर्ष के पक्षपाती हैं। उन्होंने दो बार सुदर्शनोदय में, एक-एक बार श्रीसमुद्रदत्तचरित्र और दयोदय चम्पू में प्रायिका व्रत की दीक्षा का उल्लेख किया है । कवि के अनुसार स्त्री के लिए सर्वथा वस्त्र त्याग का विधान नहीं है । पर प्रार्थिका बनते समय स्त्री को साड़ी के अतिरिक्त प्रौर १. त्यक्त्वा देहगतस्नेहमात्मन्येकान्ततो रतः । बभूवास्य ततो नाशमगू रागादयः क्रमात् ॥ निःशेषतो मले नष्टे नेमल्यमधिगच्छति । प्रादर्श एव तस्यात्मन्यखिलं बिम्बितं जगत् ॥ न दीपो गुणरत्नानां जगतामेकदीपकः । स्तुतो जनतयाधीतः स निरञ्जनतामधात् ॥' वही, ६८४-८६ २. "कोपोनेऽपि समूच्छंत्वान्नार्हत्यार्यो महाव्रतम् । अपि भाक्तसमूच्र्छत्वात् साटकेऽप्यायिकाऽर्हति ॥ X X X यदीत्सर्गिकमन्यद्वा लिङ्गमुक्तं जिनैः स्त्रियाः । पुंवत्तदिष्यते मृत्युकाले स्वल्पीकृतोषधेः ॥' - श्रावकाचारसंग्रह सागरधर्मामृत, ८३६, ३८ ३. (क) सुदर्शनोदय, ८।३३-३४, ६ ७४ (स) श्रीसमुद्रदत्तचरित्र, ४।१६ (ग) वयोदयचम्पू, ७ श्लोक ३७ के पूर्व का गद्यभाग । Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर का जीवन-दर्शन सभी परिग्रहों को छोड़ देना चाहिये ।' झुल्लिका माथिका के प्रतिरिक्त कवि ने क्षुल्लिका का भी वर्णन किया है। यह वर्णन जैनधर्म ग्रन्थों में नहीं मिलता। किन्तु क्षुल्लिकावस्था के विषय में कवि का कथन है : क्षुल्लिकावस्था में स्त्री को केवल एक श्वेत साड़ी पोर एक श्वेत उत्तरीयये दोनों वस्त्र धारण करने चाहिएं, कमण्डलु मोर पाली इन दो पात्रों से अपना निर्वाह करना चाहिये । क्षुल्लिका स्त्री दया, भमा, सन्तोष सत्य इत्यादि गुणों को धारण करती है। प्रष्टमी पोर चतुर्दशी को उपवास करती है। झुल्लिका स्त्री तीनों सन्ध्यामों में पूजन करती है. अग्निपक्व दाल, भात, शाक, रोटी इत्यादि को भिक्षा के रूप में गृहस्थों से ग्रहण करती है। दिन में केवल एक बार साना सातो भोर पानी पीती है । जिनदेव का स्मरण करते हुए प्राणिमात्र से मैत्रीभाव रखती है। जैन धर्माचार्यों ने श्रावकों के जो बारह व्रत बताये हैं, वे निम्नलिखित रेखाचित्र में प्रस्तुत हैं : जैनधर्म के बारह व्रत - - गुणवत शिक्षाव्रत प्रणुव्रत | दिग्बत गुणवतः शिक्षाव्रत देशवत अनर्थध्यानदण्डवत । अहिंसावत सत्यव्रत प्रस्तेय व्रत ब्रह्मचर्यव्रत अपरिग्रहव्रत सामयिक व्रत प्रोषधोपवास व्रत भोगोपभोगपरिणाम अतिथि-सं व्रत বিমান इनमें से अणुव्रतों के विषय में तो कवि के विचार इसी अध्याय में प्रस्तुत १. (क) सुदर्शनोदय, ८।३३-३४ (ख) दयोदय चम्पू, श्लोक ३८ के पूर्व का गबभाग। २. सदर्शनोदय, ४।३१-३६ ३. जैनधर्मामत, ४१५-१.७ Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि मानसागर के काव्य -एक अध्ययन किये गये हैं, शेष सात व्रतों में से दो गुणवतों (दिग्वत और देशवत) को छोड़कर पांच व्रतों का कवि ने अपनी कृतियों में जो उल्लेख किया है उसका वर्णन तत्तद् व्रतों के परिचय के साथ अब यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। (क) अनर्थदण्डवत प्रकारण किये जाने वाले पापजनक कार्यों को अनर्थदण्ड कहा जाता है, जैसे पाखेट-गमन, युद्ध, परस्त्रीगमन, चोरी का विचार करना, विचा-व्यापार. लेखनकला-खेती-सेवा पोर कारीगरी से भरण-पोषण करने वालों को पापोपदेश देना, भकारण ही पृथ्वी खोदना, वृक्ष उखाड़ना, हरी दुर्वा पर चलना, पानी नष्ट करना, तथा फल-फूलों का संग्रह करना, छुरी इत्यादि हिंसा के उपकरण बनाना पौर बेचना, दुरी बातों को सुनना मोर सुनाना, दूसरों को प्रज्ञानभरी बातों को शिक्षा देना, बत-क्रोड़ा, सट्टेबाजी प्रादि-प्रादि । इन सब मनर्थदण्डों का परित्याग ही जैनधर्म में 'पनदण्डवत' कहलाता है। इस व्रत को धारण करने वाला पुरुष पहिसाव्रत का सच्चा धारक होता है ।२।। श्री ज्ञानसागर को जैनधर्म-सम्मत इस व्रत पर पूरी-पूरी आस्था है। इसीलिए तो उन्होंने 'जयोदय' महाकाव्य के नायक जयकुमार को गृहस्थ धर्म एवं राजनीति की शिक्षा देने वाले मुनि के द्वारा अनर्थदण्डों का परित्याग करने के लिए उपदेश दिलवाया है। इसी प्रकार दयोदयचम्पू' के नायक मगसेन धोबर के हृदय में पाखेट-गमन के प्रति विरक्ति जागरित कराकर उन्होंने उक्त व्रत के प्रति न केवल अपनी प्रास्था ही प्रकट की हैं, अपितु समाज के अन्य सभी व्यक्तियों को उक्त व्रत पालन की प्रेरणा भी दी है। (ख) सामयिक शिक्षा-व्रत - राग पोर द्वेष का त्याग करके समस्त द्रव्यों में साम्यभाव का आलम्बन करके रहस्य प्राप्ति के मूल कारण भगवद् गुणों का स्मरण करना ही सामयिक शिक्षा व्रत है । इसे रात्रि पौर दिन के अन्त में अवश्य ही करना चाहिए। इसके अतिरिक्त समय में भी करने में और भी अधिक प्रच्छाई संभव है। श्रीज्ञानसागर भी जैनियों के इस वत के पक्षपाती हैं। उन्होंने इस व्रत को तीनों सन्ध्यामों में करने का उपदेश दिया है : १. कवि को धार्मिक विचारधारा, पृ० सं० ४६९-४७० २. जैनधर्मामृत, ४१६६-६२ ३. योदय, २०१२-१३७ ४. दयोदयबम्प, शश्लोक २२ से सम्ब पर्यन्त एवं द्वियीय लम्ब। ५. जैनधर्मामृत, ४१६३-६४ Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर का जीवन-दर्शन "मध्ये दिन प्रातरिवाथ सायं यावच्छरीरं तनुमानमायाम् । स्मरेदिवानी परमात्मनस्तु सदैव यन्मङ्गलकारिवस्तु ॥"" . (म) प्रोषधोपास व्रत जैव-धर्माचार्यों ने इस व्रत को सामयिक-शिक्षावत के स्थायित्व के लिए प्रावश्यक माना है। उनका कहना है कि प्रत्येक काल के दोनों पक्षों के पद्धभाग में प्रोषधोपवास अवश्य करना चाहिए। प्रोषधोपवास करने के दिन से पहले के दिन दोपहर से ही उपवास कर लेना चाहिए। इस समय पुरुष को राग-द्वेष से रहित होकर एकान्त सेवन करना चाहिए। वहां धर्म का चिन्तन करते हुए दिन बिताना चाहिये। तत्पश्चात् सन्ध्याकालीन क्रियामों को करके पवित्र विस्तर पर स्वाध्याय करते हुए निद्रा रहित हो रात्रि को बिताना चाहिये। श्रीशानबागर के अनुसार महीने की अष्टमी मोर चतुर्दशी तिथि को सोलह प्रहर का उपवास प्रारम्भ गरु के समीप करना चाहिए मोर समाप्ति पर अतिथि को भोजन कराकर ही स्वयं भोजन करना चाहिये । (ग) मोगोपनोग परिणाम शिक्षा व्रत सम और मासक्ति को हटाने के लिए इन्द्रिय के विषयों को मतीव परिमित संख्या में जमा हो भोगोपभोगपरिणाम' नामक शिक्षाव्रत है । शरीर को बहुत माग . व पहचाने गले तथा मावर जीवों को हिंसा के हेतुभूत जिमीकन्द, मूली, भदरक, मक्खन इत्यादि अनुपसेव्य पार्यों का परित्याग कर देना चाहिए। हम देखते है कि श्री ज्ञानसागर जी ने पुरुष को भोगोपभोष के पानी प्रति त्याग का उपदेश किया है : "भोगोपभोगतो वांछा भवेत् प्रत्युत दारुणा । वह्निः किं शान्तिमायाति मिप्यमाणेन दारुणा? ॥ ततः हुँर्यान्महाभाग इच्छाया विनिवत्तये । सदाऽऽनन्दोपसम्पत्त्य त्यागस्येवावलम्बनम् ॥५ (ङ) प्रतिवि-संबिमामशिक्षात वैदिक साहित्य में मानव मात्र को प्रतिषि-वत्सलता की शिक्षा देते हुए 'प्रतिषिदेवो भव' जैसे वाक्य प्रस्तुत किये गए हैं। जैन धर्माचार्यों ने भी प्रतिषि को सेवा को 'व्रत' का नाम दिया है। उनके अनुसार दाता श्रावक जब दिगम्बरवंशधारक साधु को नवषाभक्तिसहित माहारादि द्रव्य-विशेष का दान करता १. सुदर्शनोदय, ६१ २. जैनधर्मामृत, ४१६६-१.२ ३. सुदर्शनोदय, ९ एवं मागे का गीत । ४. जैनधर्मामृत, ४११०३-१.५ . ५. सुदर्शनोदय, १।४०.४१ Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ महाकवि शानसागर के काव्य-एक अध्ययन है, तब उसको इस क्रिया को 'प्रतिषि-संविभाग' नामक शिक्षाव्रत कहा जाता हैं।' . श्रीज्ञानसागर भी इस 'अतिथिसंविभाग व्रत' को महत्त्व देते हैं। उनकी कृति 'दयोदयचम्पू' के पात्र सोमदत्त एवं विषा घर आये हुए दिगम्बर साधु को अभिवादनपूर्वक बुलाते हैं । उनको प्रदक्षिणा करके उन्हें उच्चासन पर बिठाते हैं, उनके चरण धोकर उनकी पूजा करते हैं पोर हर्षित होकर उन्हें निर्दोष भोजन समर्पित करते हैं। महाकवि ज्ञानसागर को दृष्टि में जन-धर्म का ज्ञानपंचक --- . जैन धर्म में सम्यग्ज्ञान के पांच भेद माने गये हैं- मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्यायज्ञान एवं केवल ज्ञान । कवि ने अपने काव्यों में प्रारम्भिक दो ज्ञानों (मति ज्ञान एवं श्रुतज्ञान) को छोड़कर शेष तीनों (अवधिज्ञान, मनःपर्यायज्ञान एवं केवलज्ञान) की चर्चा की है। यहाँ प्रतिसंक्षेप में उन तीनो ही ज्ञानों का परिचय एवं मुनिश्री के काव्यों में प्राप्त उनको चर्चा का क्रमिक उल्लेख : प्रस्तुत है। प्रवधिज्ञान-- जन-धर्म-ग्रन्थों के अनुसार वाह्य कारणों के प्रति निरपेक्ष, सम्यक-दर्शन पादि गुणों से उत्पन्न भय एवं उपशम का कारण तथा भौतिक विषयों को मर्यादित करने वाला ज्ञान ही प्रवधिज्ञान कहलाता है। ___ इस ज्ञान का उल्लेख कवि ने अपने एक काव्य वीरोदय में एक स्थान पर १. जैनधर्मामृत, ४।१०७ २. दयोदयचम्पू, श्लोक १७ और श्लोक २१ के बीच का गद्य भाग।। ३. (क) 'तज्ज्ञानं पञ्चविषं मतिश्रुतावधिमनःपर्याय केवलभेदेन ।' -माधवाचार्य, सर्वदर्शनसंग्रह, माहंतदर्शन, कारिका १६ के बाद का गद्यभाग । . .. .. . (ख) मतिश्रुतावधिज्ञानं मनःपर्यायकेवलम् । . .. , .. तदित्यं सान्वयः पञ्चधेति प्रकल्पितम् ।। -जैनधर्मामत, ३।३ ।। ४. (क) 'सम्यग्दर्शनादिगुणनितमयोपशमनिमित्तमवच्छिन्नविषयं मानमवषिः ।' -माषवाचार्य, सर्वदर्शनसंग्रह, पाहंतदर्शन, कारिका १६ के बाद का গন্যমান। (स) देवनारकयो यस्त्ववधिमंक्सम्भवः । षट्विकल्पश्च शेषाणां क्षयोपशमलक्षणः ॥ -धर्मामृत, ३॥६ Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर का जीवन-दर्शन ४१६ किया है, जहाँ इस ज्ञान की सहायता से हो भगवान् महावीर ने अपने पूर्वजन्मों के वृत्तान्तों को जाना था।' मनःपर्यायज्ञान . इस ज्ञान के विषय में जैन धर्माचार्यों का कहना है कि जब व्यक्ति के मन से ईर्ष्या, ज्ञानावरण इत्यादि हट जाते हैं और उसका मन निर्मल हो जाता है, तब व्यक्ति दूसरे के मन की बात को प्रासानी से जान जाता है। व्यक्ति की इसी स्थिति का नाम मन: पर्याय ज्ञान है। किन्तु श्रीज्ञानसागर के अनुसार दंगमरी दीक्षा लेने के बाद महापुरुषों के मन में मनःपर्याय शान का प्रादुर्भाव होता है । कवि ने इस ज्ञान को मानसिक अन्धकार का संहारक कहां है। जयकुमार एवं भगवान् महावीर के मन में दंगम्बरी दीक्षा लेने के बाद इसी मान का प्रादुर्भाव हुप्रा था। केवल ज्ञान ___ कर्मरूपी मल के नष्ट हो जाने पर महापुरुषों को केवल मान होता है । समस्त द्रव्यों के पास पर्यायों को जानने वाला, सम्पूर्ण विश्व का अवलोकन करने के लिए नेत्र के समान, अनन्त, एक मोर प्रतीन्द्रिय ज्ञान केवल ज्ञान कहा जाता है। कविवर ज्ञानसागर ने केवल ज्ञानी के स्वरूप का वर्णन इस प्रकार किया है :-केवल ज्ञान प्राप्त करने वाले की दृष्टि निनिमेष हो जाती है, उसके चार मुख राष्टिगोचर होने लगते हैं, शरीर की छाया नहीं पड़ती, उसके प्रभाव से पृथ्वी हरीभरी हो जाती है, उसका शरीर पृथ्वीतल का स्पर्श नहीं करता, नस पोर केश नहीं १. वीरोदय, १११ २. (क) ईनितरायज्ञानावरणक्षयोपशमे सति परमनोगतस्यार्चस्व स्फट परिच्छेदकं ज्ञानं मनःपर्यायः ।' -सर्वदर्शनसंग्रह, पार्हत दर्शन, कारिका के बाद के गणमान से । (ख) 'ऋविपुल इत्येवं स्याम्मन:पर्यायो विषा । विशुदधातिपाताभ्यां तविशेषोऽवगम्यताम् ॥ -नयमित, २७ ३. (क) अयोदय, २८।१२ (ब) वीरोदय, १२७ ४. (क) 'तरक्रियाविशेषाम्ययं सेवन्ते तपस्विनः तज्ञानमबहानावृष्टं - -सर्वदर्शनसंग्रह, माईतदर्शन, कारिका १६ के बाद के गवमानसे। (ख) अशेषापर्वावविषवं विश्वलोचनम् । अनन्तकमत्व वसनीति पुषः ॥' -जनवर्मामृत, श६ . Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० महाकवि ज्ञानसागर के काम-- एक अध्ययन बढ़ते, भोजन का सर्वथा त्याग हो जाता है, सर्वज्ञता पा जाती है और उसके प्रभाव से समस्त वातावरण प्रानन्दमय हो जाता है।' कवि ज्ञानसागर की दृष्टि में ईश्वर - सनातन धर्मावलम्बी नैयायिक लोग ईश्वर को पुरुष का भाग्यविधाता मानते हैं। किन्तु जैन धर्मावलम्बी जन ईश्वर के विषय में कुछ दूसरी हो मान्यता रखते हैं । वे ईश्वर का कर्ता होना स्वीकार नहीं करते, कोंकि यदि ईश्वर को कर्ता माना जाय, तो मनुष्य के लिए कोई कार्य शेष ही नहीं रहेमा । . श्रीज्ञानसागर भी ईश्वर को पता नहीं मानते। उनका मत है कि संसार में . होने वाले परिवर्तन काल नामक द्रव्य की सहायता की अपेक्षा रखते हैं, ईश्वरकृत नियमन की नहीं। इसी प्रकार कोई भी वस्तु न तो उत्पन्न होती है और न न होती है, उसमें केवल परिवर्तन होता है। चूंकि प्रत्येक वस्तु में वस्तुन्व न!मका एक धर्म होता है प्रतः वह अपना कार्य करती है। बीज से वक्ष की ओर वृक्ष से वीज़ की उत्पत्ति स्वत: होती है । प्रतः वस्तु के उत्पन्न होने या ना होने में श्री ईश्वर को कारण मानना व्यर्थ है ! यदि ईश्वर का इन पदार्यों के परिणमन में प्रभाव पड़ता तो वस्तु के स्वाभाविक धर्म व्यर्थ हो जाते । अतः स्पष्ट है कि ईश्वर संसार का नियन्ता नहीं है। श्रीमानसागर की दृष्टि में कर्मकाण्ड-.. श्रादतर्पण इत्यादि कर्मकाण्डीय क्रियायों का जैनधर्म में कोई स्थान नहीं है । १. वीरोदय, १२।४०-५१ २. (क) तदुक्तं वीतरागस्तुती 'कर्तास्ति कश्चिच्जगत: स चकः, स. सवंगः, स स्ववशः स नित्यः । इमाः कुहेवाकविडम्बनाः स्युस्तेषां न येषामनुशासकस्त्वम् ॥ (वी० स्तु. ६) इति । अन्यत्रापि'कर्ता न तावदिह कोऽपि यथेच्छवा वा दृष्टोऽन्य था कटकृतावपि तत्प्रसङ्गः । कार्य किमत्र भवतापि च तक्षकाबराहत्य च त्रिभुवनं पुरुष: करोति ।। इति । –श्रीमन्माधवाचार्य, सर्वदर्शनसंग्रह, पाहतवन, पृ. सं० १३३-१३४ (ख) श्रावकाचारसंग्रह (भाग-१) अमितगतिकृत, श्रावकाचार, ४१७७-१०० 'न कोऽपि लोके बलवान् विभाति समास्ति का समयस्य जातिः । ... यतः सहायाद्भवतादभूतः परो न कश्चिद्भुवि कार्यदूतः ॥' -वीरोदय, १८।२ ४. वीरोदय, १६।३८.४४ Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि -ज्ञानसागर का जीवन-दर्शन ४२१ मुनि श्रीज्ञानसागर इन विधियों का न तो घमं, प्रथं एवं काम की प्राप्ति में उपयोग मानते हैं और न मोक्ष की प्राप्ति में। व्यक्ति की इनमें प्रवृत्ति होना तो बिल्कुल मूर्खता है ।" श्रीज्ञानसागर की दृष्टि में जंन धर्म की उपयोगिता जैनधर्म पर रुचि नहीं प्रास्था है । दिखाई है । कहना न होगा कि कवि श्रीज्ञानसागर की केवल उन्होंने कहीं भी सनातन धर्म या बौद्ध धर्म के प्रति प्रपनी इसका एक कारण तो यह है कि यह प्रास्था उन्हें संस्कार में मिली थी, किन्तु इसका दूसरा विशेष कारण यह भी है कि वास्तव में यह धर्म ग्रन्य धर्मों की अपेक्षा मानवमात्र के लिए उपयोगी है। इसकी उपयोगिता के प्रनेक प्रमाण कवि ने अपने काव्यों में प्रस्तुत किए हैं। यह सिन्दिग्ध है कि इस धर्म की सबसे बड़ी विशेषता सत्य, हिंसा, ब्रह्मचर्य, प्रस्तेय और अपरिग्रह नामक पंच महाव्रत हैं । वैसे तो इन पांचों व्रतों की महिमा सभी धर्मों में मान्य है, किन्तु जैन धर्म में इनका कठोरता से पालन करना आवश्यक है । इस धर्म के अनुसार सत्य महाव्रत का पालन इसलिए प्रावश्यक है कि पुरुष वाणी से पवित्र हो । असत्य वचन बोलकर दूसरों को ठगने वाला व्यक्ति भेद खुलने पर सत्यघोष ब्राह्मण की तरह अवश्य ही दुःखद परिणाम भोगने को बाध्य हो जाता है । हिंसा महाव्रत का पालन हमें प्राणिमात्र के प्रति दया की शिक्षा देता है । क्योंकि प्रत्येक प्राणिमात्र को चोट लगने पर कष्ट की अनुभूति होती है। हिसा करने वाले को यह सोचना चाहिए कि मैं जिनकी हिंसा कर रहा हूँ, उन्हें जो कष्ट हो रहा है, कदाचित् कोई मुझे मारे तो मुझे भी वैसा ही कष्ट सहन करना पड़ेगा । ब्रह्मचर्य महाव्रत का पालन हमें कामुकता से हटने की शिक्षा देता है । इस महाव्रत का पालन करने से निस्सन्देह हो पुरुष का जोवन मर्यादित हो जाता है | फलस्वरूप वह अपना जीवन लोककल्याण में लगा सकता है । प्रस्तेय महाव्रत का पालन हमें कर्मठता सिखाता है। चोरी करने वाला व्यक्ति निष्क्रिय होकर चोरी से लाये पदार्थों पर निर्भर हो जाता है, जबकि प्रस्तेय महाव्रत का पालन करने वाला व्यक्ति श्राजीविकोपार्जन के लिये कुछ न कुछ कार्य प्रवश्य करता है । परिग्रह महाव्रत का पालन पुरुष में निर्भीकता का गुण उत्पन्न कर देता है । इस महाव्रत का पालन हमें सिखाता है कि संसार में कोई भी पदार्थ प्रपना नहीं है, यहाँ तक कि शरीर भी नहीं, अतः किसी वस्तु पर ममता नहीं रखनी चाहिए । १. (क) जयोदय, २८८ (ख) वीरोदय, १५।६१ २. श्रीसमुद्रदत्तचरित्र, ४/५ Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ .. . महाकवि ज्ञानसागर के काव्य- एक अध्ययन उपर्यस्त महा तों का पालन करने के फलस्वरूप ही व्यक्ति में सत्यवादिता, दया, सदाचार, कर्मठता और निर्लोभता जैसे स्पृहणीय गुण प्रा जाते हैं। जन-धर्म में ब्रह्मचर्य त को विशेष महत्त्व दिया गया है। भगवान् महावीर एवं सेठ सुदर्शन में यह गुण प्रचुर रूप से दृष्टिगोचर होता है।' इतना ही नहीं कवि श्रीज्ञानसागर ने इन दोनों महापुरुषों के माध्यम से परोपकारपरायणता और सहिष्णुता जैसे अद्भुत गुणों की भी शिक्षा दी है। जन-धर्म केवल वानप्रस्थियों के लिए ही नहीं, अपितु गृहस्थों के लिए भी उपयोगी है । गृहस्थों को सदाचरण, प्राहार-विहार, अतिथिपूजन, देवपूजन, प्रात्मकल्याण मादि अपेक्षित गुणों की शिक्षा देने में यह धर्म पूर्णतया समर्थ है । यह धर्म व्यक्ति को अन्धविश्वास से भी दूर रहने की शिक्षा देता है।' ___इस प्रकार अपने काव्य के पात्रों के माध्यम से कवि ने इस धर्म की उपयोगिता को सिद्ध करने में विलक्षण सफलता प्राप्त की है। प्रकारान्तर से इस तथ्य का वर्णन इस शोध-प्रबन्ध में भी मन्यत्र हो चुका है, अतः पुनरावृत्ति के भय से यहाँ इसका विस्तृत वर्णन नहीं किया गया है। कवि को दार्शनिक विचारधारा जैन धर्म के समान ही कवि को जन-दर्शन पर भी पूरी-पूरी मास्था है। उन्होंने अपने काव्यों में साहित्य की गङ्गा के साथ दर्शन की यमुना का भी अद्भुत समन्वय किया है। यहां उनके द्वारा प्रस्तुत जैन-दर्शन से सम्बन्धित तत्त्वों का विवेचन प्रस्तुत हैस्यादवाव सिद्धान्त यह जैन-दर्शन का वस्तु के यथार्थस्वरूप को जानने में सहायक परम प्रसिद्ध सिद्धान्त है । सभी जैन-दार्शनिकों ने इसका विस्तृत वर्णन किया है ।। श्री ज्ञानसागर की भी इस सिद्धान्त के प्रति रुचि है । उनके अनुसार प्रत्येक वस्तु में प्रक्रियाकारिता होतो है । प्रतः निरर्थक वस्तु का प्रभाव मानना चाहिए। १. (क) वीरोदय, ८।२३.४३ (ख) सुदर्शनोदय, ५२१६, ७।२६, ६।२६ २. (क) वीरोक्य, १८।३३-३६ (स) सुदर्शनोदय, ४१४०-४५ (ग) दयोदयचम्पू, ७१८ ३. (क) अयोदय, २७;६५-६६ (ख) वीरोदय, १५वा सर्ग। (ग) सुदर्शनोदय, ४११४, ४७ (घ) श्रीसमुद्रदत्तचरित्र, मष्टम सर्ग । (ङ) दयोदयसम्पू, लम्ब १२२२-२४; लम्ब ७वलोक ३७ पोर ३८ के बीच का गद्यभाग। ४. श्रीमन्माषवाचार्य, सर्वदर्शनसंग्रह, माहत-दर्शन, पृ० सं० १६६-१७६ Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर का जीवन-दर्शन ४१३ प्रत्येक वस्तु पूर्वरूप को छोड़ती हुई नवीन रूप को धारण करती है, किन्तु वह अपने मूलस्वरूप को नहीं छोड़ती। अतः प्रत्येक वस्तु उत्पाद व्यय-धौम्य - इन तीन रूपों को धारण करती है ।" " एक ही वस्तु किसी के लिए प्रपेक्षित मोर किसी के लिए अनपेक्षित होती है । अतः वस्तु में सत् और असत् दोनों गुण पाये जाते हैं । इन दो गुणों की विवक्षा एक ही व्यक्ति नहीं कर सकता। इसलिए प्रस्ति नास्ति के प्रतिक्ति वस्तु में प्रवक्तव्य नामक तीसरा गुण भी पाया जाता है। इस प्रकार (क) प्रस्ति, (ख) नास्ति, (ग) अवक्तव्य, (घ) प्रस्ति नास्ति, (ङ) प्रस्ति - प्रवक्तव्य, (च) नास्तितथ्य के भेद से वस्तु के एक संयोगी, द्विसंयोगी, और त्रिसंयोगी कथन करने से सात धर्म सिद्ध हो जाते हैं। जैन दर्शन में इनको हो सप्तभङ्ग कहा जाता है । प्रत्येक भङ्ग के पूर्व में 'स्यात्' पद जोड़ा जाता है, जब व्यक्ति 'स्यादस्ति' कहता है तब अन्य छः धर्मो का स्थान गोरा हो जाता है और जब व्यक्ति 'स्याद्नास्ति' कहता है, तब 'स्यादस्ति' आदि अन्य छः धर्मो की प्रप्रधानता हो जाती है । अत: विवक्षापूर्वक वस्तु के धर्मों का कथन ही स्याद्वाद ( अनेकान्तवाद मोर अपेक्षावाद) कहलाता है । इसकी सहायता से हम वस्तु के यथार्थ स्वरूप को जान सकते हैं ।" 1 द्रव्य स्वरूप एवं भेद जन-दर्शनानुसार श्री ज्ञानसागर का कहना है कि वस्तु में स्थित ध्रुव नामक विशेषता को गुरण कहा जाता है, और उत्पाद तथा व्यय नामक विशेषतानों को पर्याय कहा जाता है। गुरण एवं पर्याय से युक्त वस्तु का नाम ही द्रव्य है । 3 जैनदर्शन ग्रन्थों और ज्ञानसागर के काव्यों के परिशीलन से ज्ञात होता हैं कि कवि ने द्रव्य के भेद इन ग्रन्थों के आधार पर ही किए हैं। उनके अनुसार द्रष्यों के दो प्रकार हैं - सचेतन और प्रचेतन । चेतन द्रव्य ही स्वयं भोक्ता, स्वतन्त्र एवं महत्त्वपूर्ण पदार्थ हैं । चेतन द्रव्य या जीव के चार प्रकार हैं- देव, नारकी, मनुष्य मोर तियंञ्च । इनमें से देव, नारकी और मनुष्य इन तीन जीवों को चर या त्रस जीव कहा जाता है । तिर्यञ्च जीवों की चर एवं प्रचर (स्थावर ) के भेद से दो aff हैं। चर जीव उन्हें कहते हैं, जिनकी एक से अधिक ज्ञानेन्द्रियाँ होती हैं १. वीरोदय, १६।१-३ २. (क) वीरोदय, बुε|४- १७ ३. ( क ) 'समुत्पादव्ययघ्रोव्यलक्षणं क्षीरणकल्मषाः । गुणद्रव्यं वदन्ति जिनपुङ्गवाः ।। - जैन धर्मामृत, ८१४ (ख) 'ध्रुवांशमाख्यान्ति गुणेन नाम्ना पर्येति योऽन्यदुद्वितयोक्त धामा । द्रव्यं तदेतद् गुणपर्ययाभ्यां यद्वाऽत्र सामान्यविशेषताभ्याम् ॥' - बीरोदय, १६।१८ Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ . महाकवि ज्ञानसागर के काव्य - एक अध्ययन पोर प्रचर जीव उन्हें कहते हैं, जिनकी एक से अधिक ज्ञानेन्द्रियां होती हैं, जिनकी केवल स्पर्श न्द्रिय होती हैं । इस प्रकार से तियंञ्च जीवों के भेद चार चर और पांच अचर के भेद से नौ प्रकार होते हैं, जो इस प्रकार हैं-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिनिय मोर पंचेन्द्रिय-ये चार चर हैं, पथ्वीकायिक जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक मोर वनस्पतिकायिक ये पांच एकेन्द्रिय मोर मचर (स्थावर) हैं। अचेतन द्रव्य के भी पांच प्रकार हैं :-पुद्गल, धर्म, अधर्म, माकाश और बाल । पुदगल व्य मूर्त होता है, शेष चार प्रमूतं हैं। जीव और पुद्गल द्रव्यों के गमन का कारण धर्म द्रव्य है । पोर पुद्गल को ठहरने में सहायक कारण अधर्म-द्रव्य है। समस्त द्रव्यों को अपने भीतर अवकावा देने वाला द्रव्य प्राकाश द्रव्य है । द्रव्यों के परिवर्तन में निमित्त कारण को कालदम्य कहते हैं।' द्रव्यों के भेद प्रभेद से सम्बन्धित रेखाचित्र प्रस्तुत है :-- द्रव्य प्रचेतन ___ प्रचर पुद्गल धर्म अधर्म प्राकाश काल (केवल तिर्यञ्च में) । एकेन्द्रिय (स्पर्शेन्द्रिय) . देव नारकी मनुष्य तिर्यञ्च दीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय पञ्चेन्द्रिय (स्पर्श,र०) (+प्राण), (चक्षु), (+कर्ण) (कंचुमा) (न) (मक्षिका) (गाय, बैल) पथ्योकायिक | अग्निका. । वनस्पति यिक | कायिक जलकायिक वायुकायिक १. (क) श्रावकाचारसङ्ग्रह (भाग-१), यशस्तिलकबम्पू उपासकाध्ययन, १०८-११० (ब) श्रावकाचारसग्रह (भाग-१), अमितगति श्रावकाचार, ३१-३३ (ग) बावकाचारसङ्ग्रह (भाग-२), प्रश्नोत्तर श्रावकाचार, २।१६-३० Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर का जीवन-दर्शन ४२५ ध्यान-- जैन दर्शनाचार्यों ने ध्यान को माभ्यन्तर तप का एक प्रकार बताते हुए उसके चार भेद किये हैं :- मात, रोद्र, धम्यं एवं शुक्ल ।' हमारे कवि का यही मत है। उनके अनुसार प्रात्मा के उपभोग में एकाग्रता का पाना ही ध्यान कहलाता है । ध्यान के मात, रोद्र, धयं पौर शुक्ल ये चार भेट हैं । किङ्कर्तव्यविमढ़ता रूप शोकातुस्ता का नाम मार्त-ध्यान है । हिंसक कार्यों के प्रति प्रवत्ति को रोद्र ध्यान कहते हैं। शरीर मोर मात्मा को भिन्न-भिन्न समझते हुए धार्मिक कार्यों में प्रवृत्ति को ही धर्म्य ध्यान कहते हैं, प्रब जब इसी ध्यान में ध्याता, ध्यान और ध्येय का भेद समाप्त हो जाता है, तो इस (धम्यं ध्यान) को ही शुक्ल ध्यान कहा जाता है। __ जैन-धर्म में ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, प्रायु, नाम, गोत्र एवं अन्तराय-ये पाठ कर्म बताये गए हैं। . . श्रीज्ञानसागर ने भी इन पाठकों को मानते हुए बताया है किशानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय और मोहनीय-ये चार 'पातिया' कर्म हैं । प्रात्मा को शान दर्शन एवं शक्ति का उपयोग करने में बाधक पौर भुलावे में डालने वाले कर्मों को जन-दर्शन में 'पातिया' कर्म कहते हैं। 'मघातिया' कर्म सीधे-सीधे प्रात्मा के गुणों को हानि नहीं पहुँचाते। ये क्रमशः प्रात्मा में ऊँच-नीच का भेद, मच्छी-पूरी चीजों से सम्पर्क, शरीर और उसके मङ्गोपाङ्गादि बनाने में सहायक मोर पात्मा को शरीर में रोकने इत्यादि का कार्य करते हैं। प्रतः घातिया कर्म प्रात्मा के मनुजीवि गुणों का पोर अधातिया कर्म प्रतिजीवि गुणों का क्षय करते हैं।' (घ) जैन-धर्मामृत, ८।१-२४ (ङ) नेमिचन्द्र मुनि, द्रव्य-संग्रह, १११२, २०१५, १७-१६, २१ (च) वीरोदय, १६।२४-३८ _ 'स्वाध्यायः शोषनं चैव वयावृत्त्यं तव च । व्युत्सर्गो विनयश्चैव ध्यानमाभ्यन्तरं तपः ॥xxx पातं रौद्रं च धर्म च शुक्लं चेति चतुर्विधम् । ध्यानमुक्तं परं तत्र तपोऽङ्गमुभयं भवेत् ॥' .. -जनधर्मामृत, १२।१४, २२ २. श्रीस मुदत्तचरित्र, ८।३४.४० ३. 'ज्ञान-दर्शनयो रोपी वेद्यं मोहायुषी तया। नामगोत्रान्तरायो च मूलप्रकृतया स्मृताः ॥' -जनधर्मामृत, ११२ ४. श्रीसमुद्रदत्तचरित्र, का.. Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य - एक प्रध्ययन इन्हीं कर्मों के फलस्वरूप जीव का संसार में बन्धन हो जाता है । वह प्रपमे शरीर को ही प्रात्मा मान लेता है । इन कर्मों का परिपाक भी उदय, उदीरणा, उदयाभावक्षय तथा प्रयत्न के भेद से चार प्रकार का है। इनमें समयानुसार कर्म - फल का मिलना उदय है, बलपूर्वक कर्मफल पाना उदीरणा है, कर्मोदय के अनुसार उसका फल भोगना उदभाभावक्षय है, मोर तटस्थ रहते हुए धीरे-धीरे कषायों से रहित होना प्रयत्न है ।" ४२६ जब व्यक्ति क्षपणक श्रेणी में चढ़ता है तो उसके प्रथम चारों घातिया कर्म मष्ट हो जाते हैं, और केवल ज्ञान प्राप्त करने पर तो व्यक्ति के शेष चारों कर्म भी नष्ट हो जाते हैं। गुणस्थान नदर्शनानुसार प्रारमा के गुणों की क्रमिक विकास की स्थिति को गुरणस्थान कहते हैं । ये मिथ्यादृष्टि, इत्यादि नामों से चौदह प्रकार के होते हैं । 3 कवि ने बताया है कि क्षपणक श्रेणी में चढ़ते समय प्राठवाँ गुणस्थान होता हैं । * जैनधर्म के अनुसार पाठवे गुणस्थान को 'प्रपूर्वक रणसंयत' की संज्ञा दी गई है । विभिन्न क्षरणवर्ती जीवों के परिणाम का प्रपूर्व होना, एक समयवतों जीवों के परिणाम सदा धीर विश होना प्रपूर्वकरण है । ये प्रपूर्वकरण परिणाम किसी कर्म का उपशमन तो नहीं करते, किन्तु घातिया कर्म को नष्ट करने की भूमिका बांध देते हैं। प्रतः विशुद्धि वृद्धिङ्गत होने लगती है ।" प्रारमा श्री ज्ञानसागर ने बताया कि प्रात्मा के तीन भेद होते हूँ, बहिरात्मा, प्रन्तरात्मा प्रोर परमात्मा । शरीर को ही अपनो आत्मा समझने वाला व्यक्ति 'बहिरात्मा' है, चैतन्य को मात्मा मानने वाला व्यक्ति 'अन्तरात्मा' है, और देह से पृथक होकर निष्कलङ्क तथा सच्चिदानन्द स्वरूप परमात्म तत्व में लीन रहने वाला १. वही, ११-१८ २. 'सुदर्शनोदय ६।८४-८६ ३. 'मिथ्याक सासनो मिश्रोऽसंयतो देशसंयतः । प्रमत्त इतरोऽपूर्वानिवृत्तिकरणों तथा ॥ सूक्ष्मोपशान्तसंक्षीणकषाया योग्ययोगिनो । गुणस्थानविकल्पाः स्युरिति सर्वे चतुर्दश ।।' - जैनधर्मामृत, ६ । १-२ एवं इनके पूर्व की प्रस्तावना । ४. वीरोदय, १२३८ ५. 'अपूर्व: करणो येषां भिन्नं क्षरणमुपेयुषाम् । प्रभिन्नं सोऽन्यो वा तेऽपूर्वकरणाः स्मृताः । क्षपयन्ति न ते कर्म शमयन्ति न किञ्चन । केवल मोहनीयस्य शमन-क्षपणे रताः ॥ - जैन धर्मामृत, ११।३ Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि भानसागर का जीवन-वर्शन व्यक्ति 'परमात्मा' ही है। गुप्ति प्राय: साधु मन, वचन और काय की रक्षा करते हैं। यहाँ रक्षा शब्द का प्राशय संयम लेना चाहिए । साधुषों की इस अवस्था को जैनधर्मावलम्बियों ने मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति माना है। हमारे कवि ने भी इसी बात को स्वीकार किया है । उनके अनुसार प्रत्यधिक प्रावश्यकता होने पर ही मन, बचन मोर काय का प्रयोग किया जाता है। समिति जन-दर्शन में दिगम्बर जैमी साधुनों के लिए पञ्च समितियों का विधान किया गया है-ईर्या समिति, भाषा समिति, एषणा समिति, मादाननिक्षेपण समिति मोर उत्सर्ग समिति । कवि ने भी इन समितियों पर अपनी भास्था प्रकट की है। उनके अनुसार सावधानीपूर्वक चेष्टा का नाम ही समिति है। कवि ने इनका वर्णन भी जैन-धर्मानुसार ही किया है। दिन में प्रासुक् मार्ग में चार हाथ की भूमि को शुद्ध करते हुए कार्यवश गमन ही ईर्या समिति रूप गति है। भेद, चुगली, कठोरता, परिहास प्रादि से रहित, हित से युक्त असन्दिग्ध भाषा, भाषा समिति कहलाती है। प्राहार सम्बन्धी छियालीस दोषों से रहित अन्नादि का स्वाध्याय पोर ध्यानसिद्धि के लिए ग्रहण करना एषणा समिति है। ज्ञान के १. सुदशनादय, ६।७२ २. (क) 'योगानां निग्रहः सम्यग्गुप्तिरित्यभिधीयते । मनोगुप्तिवंचोगुप्तिः कायगुप्तिश्च सा त्रिधा ।' -जैनधर्मामृत, ११३ (ख) 'मनोवचःकायविनिग्रहो हि स्यात्सर्वतोऽमुष्य यतोऽस्त्यमोही। तेषां प्रयोगस्तु परोपकारे स चापवादो मदमत्सरारेः ।।' -बीरोदय, १८।२७ (ग) असमानगुणोऽन्येषां समितिष्वपि तत्परः। गुप्तिमेपोऽनुजग्राहागुप्तरूपधरोऽपि सन् ॥ -श्रीसमुद्रदत्तचरित्र, २१ (घ) 'भवसरमुपेत्य बचोगुप्तिमतीत्प भाषासमितिमवलम्वितवान् ।' -योदयचम्पू, लम्ब ७ श्लोक २८ के पूर्व का गद्यांश । ३. (क) 'ईर्याभाषेषणादाननिक्षेपोत्सर्गभेदतः। तन्निमित्तास्रवभावात्सद्यो भवति बरः ॥' -जैनधर्मामृत, ११॥५ । 'प्रसमानगुणोऽन्येषां समितिष्वपि तत्परः।' -श्री समुद्रदत्तचरित्र, ६।११ का पूर्वाध। .. बोरोग्य, १८२७ Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૨૬ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य- एक अध्ययन उपकरण पोई संयम के उपकरणों का यत्नपूर्वक उठाना मोर रखना प्रादाननिक्षेपण समिति है । दूरवर्ती, गूढ, विशाल, बाधारहित, शुद्ध पृथ्वीतल पर मलसूत्र का विसर्जन ही उत्सर्ग समिति है। इन समितियों का उपयोग करने से पुरुष अहिंसा, ब्रह्मचर्यादि व्रतों की रक्षा करने में समर्थ हो जाता है ।' उपयोग जैन धर्मानुसार कवि ने 'उपयोग' के चार प्रकार बताये हैं। शरीर को ही सब कुछ समझ लेना प्रशुभोपयोग है । शरीर से प्रात्मा को भिन्न मानकर विवेकपूर्ण विचार करना शुभोपयोग है। शरीर को प्रात्मा से भिन्न करने में चेष्टा करने के विचार को शुद्धोपयोग कहते हैं। एक साथ सब पदार्थों का प्रत्यक्षीकरण करमा ही परमोपयोग है । परमोपयोग की स्थिति तक प्राते प्राते व्यक्ति 'परमात्मा' की संज्ञा को प्राप्त कर लेता है | 3 योग मन, वचन और काय की प्रात्मा के प्रति चेष्टा का नाम योग है। जैन धर्म के अनुसार कवि ने इसको दो प्रकार का माना है-शुभ योग मोर प्रशुभ योग । अपने शरीर मोर इन्द्रियों को पुष्ट बनाने के लिए की जाने वाली चेष्टा का नाम शुभयोग है। प्रपने साथ मौरों के कल्याण के लिए सचेष्ट होना शुभयोग है । प्रतः हिंसा, निर्दयता, दुष्टता से पूर्ण कार्य 'प्रशुभयोग' प्रोर अहिंसा, दया प्रौर परोपकार से पूर्ण कार्य 'शुभयोग' की श्रेणी में प्राते हैं । धर्म-प्रथमं एवं पुरुष का कर्तव्य - श्रीज्ञानसागर के अनुसार जीव का तामसभाव प्रधर्म है; प्रौर परम्परा को बढ़ाने वाला है । जीब का तात्त्विक भाव ही धर्म है और मोक्ष का कारण है। arra व्यक्ति को चाहिए कि वह राग-द्वेष से विमुख होकर सन्तोष को धारण करे । मदमात्सर्य के कारण पुरुष शेय पदार्थ को जानने में असमर्थ हो जाता | जब प्रात्मा क्षोभरहित हो जाता है, तब ज्ञानी व्यक्ति त्रैकालिक पदार्थों को निर्वाध रूप से जान लेता है ।" यह संसार क्षणभंगुर है, इसलिए सुख-दुःख में समभाव रखना चाहिए । १. (क) जैनधर्मामृत, ५८-१३. वीरोदय, १८।२५-२८ २. श्रीसमुद्रदत्तचरित्र ८२१-२४ ३. वही, ८।२५-२६ ४. सुदर्शनोदय, ४।१२ ५. वीरोदय, २०१२-५ ६. दयोदयचम्पू, ७ ३५-३७ Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर का जीवन-दर्शन प्रभारण ४२४ जैन- दार्शनिकों ने दो प्रमाण माने हैं - प्रत्यक्ष और अनुमान । किन्तु कवि ने इन दो के अतिरिक्त स्मृति को भी प्रमाण मान लिया है 13 सारांश उपर्युक्त विवेचन से यह निष्कर्ष निकलता है कि कवि ने धर्म एवं दर्शन के विषय में जितने विचार प्रकट किये हैं, उतने समाज इत्यादि के विषय में नहीं । इसका कारण यह है कि महाकवि ज्ञानसागर ग्राजीवन ब्रह्मचारी रहे; और उन्होंने अपना अधिकाधिक समय धर्मचिन्तन में लगाया। सनातन धर्म की विकृतियों को दूर करने का प्रयत्न किया । धर्म के प्रति उनकी इतना आस्था से स्पष्ट है कि उन्हें धर्मप्रधान समाज, धर्मप्रधान राज्य, धर्मानुकूल प्रर्थव्यवस्था घोर धर्मानुकूल संस्कृति प्रिय है । फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि समाज इत्यादि के प्रति अपनी मान्यता को पूर्णरूपेण प्रकट करने में वह असमर्थ रहे । प्रस्तुत अध्ययन में समाज इत्यादि के प्रति उनकी विचार धारा इस बात की पुष्टि करती है । उन्होंने न केवल साधु-संन्यासियों अपितु गृहस्थों के प्राचार-व्यवहार की बहुत सी बातें बताई हैं, जिनका पालन करने से व्यक्ति प्रात्मकल्याण के साथ-साथ लोककल्याण भी कर सकता है । १. माधवाचार्य, सर्वदर्शनसङ्ग्रह, पूर्वपीठिका, पृ० सं० २० २. वीरोदय, २०१३६-२१ Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम अध्याय उपसंहार ज्ञानसागर का संस्कृत-काव्यों में स्थान प्राचार्य मुनि ज्ञानसागर जी २०वीं शताब्दी के कवि हैं। इनके द्वारा रचित काव्य-ग्रन्थों की समालोचना पहले के प्रध्यायों में की जा चुकी है। अब हमारा कर्तव्य हो जाता है कि सरस्वती की समाराधना तत्पर मुनि श्री ज्ञानसागर का संस्कृत कवियों में स्थान निर्धारित करें। जब-जब महाकवियों के विषय में चर्चा होती है, तब-तब प्राय: लोग कालिदास, भारबि, माघ, श्रीहर्ष, बाणभट्ट, त्रिविक्रमभट्ट, धनपाल इत्यादि कवियों की गणना शीघ्रता से करने लग जाते हैं। यह ठीक है कि इन कवियों की श्रेष्ठता में सन्देह का कोई स्थान नहीं है, तथापि भाज के समालोचकों को चाहिए कि वह प्राचीन कवियों की महत्ता को ध्यान में रखते हुए भी भर्वाचीन कवियों को न भुलाएँ क्योंकि ग्राज भी कालिदास कौर बाणभट्ट की भाँति ही न जाने कितने कवि संस्कृत साहित्य-सम्पदा को वृद्धि कर रहे हैं। रूढ़िवादिता एवं पूर्वाग्रह को छोड़कर जब हम अपने मालोच्य कवि ज्ञानसागर को परखते हैं तो हमें उनमें भी महान् कवि और महान: जैन- दार्शनिक के दर्शन होते हैं। उन्होंने जयोदय, वीरोदय, सुदर्शनोदय, श्रीसमुद्रदत्तचरित्र और दयोदयचम्पू - पांच संस्कृत-काम्य-ग्रन्थरूप पुष्प सरस्वती को समर्पित किये हैं । कवि ने अपने इन काव्यों के माध्यम से जन-धर्म तथा सत्य, ग्रहिसा, ब्रह्मचर्य, अस्तेय और अपरिग्रह - इन पाँच महाव्रतों की शिक्षा समाज को दी है। अपने इस प्रयास से एक प्रोर वह कालिदास जैसे कवियों की श्रेणी में बाते हैं; दूसरी पोर बह बौद्धदर्शन के महान् कवि अश्वघोष की समता पाने के भी योग्य सिद्ध होते हैं । कवि ने काव्यशास्त्र सम्मत काव्य के स्वरूप के विषय में प्रपनी निश्चित धारणा प्रकट की है "सालद्वारा सुवर्णा च सरसा चानुगामिनी । कामिनीय कृतिर्लोके कस्य नो' कामसिद्धये ॥ " -- वयोदय २८/६२ कविवर का उक्त कथन काव्य में भावपक्ष और कलापक्ष के समन्वय हेतु कवि को साकार करता हुआ सा प्रतीत होता है । काव्य के भाय-या और बला Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानसागर का संस्कृत-कवियों में स्थान ४३१ पक्ष दोनों को कवि ने उचित महत्त्व दिया है। उन्होंने यदि एक मोर काव्य में अच्छी कयामों और छन्दों की उपादेयता स्वीकृत की है, तो दूसरी पोर रस को भी काग्य का प्रावश्यक तत्त्व माना है। कवि के निम्नलिखित वचन उनके उपयुक्त मन्तव्य की पुष्टि करते हैं "सवृत्तकुसुममाला सुरभिकथाधारिणी महत्येषा। पुरुषोत्तमैः सुरागात्सततं कण्ठीकता भातु ॥ यदालोकनतः सयः सरलं तरलं तराम् । रसिकस्य मनो भूयात्कविता वनितेब सा ।।" -जयोदय, २८1८४-८५ महाकवि के काव्यों को देखने से ज्ञात होता है कि उन्होंने उक्त तथ्यों को यथाशक्ति अपनी रचनामों में समाविष्ट किया है। उनका काव्य-कारों के लिए सन्देश है कि उपमा एवं प्रपद्घति इन दो श्रेष्ठ अलकारों का कवि अपने काम्यों में पतिशयता से प्रयोग करें "यातु वृद्धिसमयारिकलोरमापतिप्रतिकं च बुद्धिमान् । भूरिशो ह्यभिनयानुरोधिनी वागलकरणनेऽभिबोधिनी ॥" -जयोदय, २०५४ श्री ज्ञानसागर ने अपने कान्यों में लोकोक्तियों का यथास्थान प्रयोग किया है। इनके माध्यम से वह कवियों को सन्देश देते हुए प्रतीत होते हैं कि सूक्तिमुक्तामय हारावली से शोभित कविता-कामिनी शीघ्र ही सामाजिकों द्वारा प्राह्य होती है। महाकवि ज्ञानसागर के काव्यों में प्रत्यानुप्रास-शैलो एक ऐसी अभिनव वस्तु है, जिससे कवि की मौलिकता में कोई सन्देह नहीं रह जाता । यह कवि द्वारा साहित्य समाज को अनूठी देन है। यह शैली हमें कालिदास, अश्वघोष, माघ, भारवि, श्रीहर्ष इत्यादि में नहीं मिलती है। इस शैली के माध्यम से कवि-विरचित काम्यों में एक रमणीय प्रवाह दृष्टिगोचर होता है और दार्शनिक-सिद्धान्त-जन्य रुक्षता भी नहीं चुभती है। कवि की यह शैली भी उसका संस्कृत-साहित्य समाज . में एक विशिष्ट स्थान निर्धारित करने में समर्थ है। वास्तव में संस्कृत-भाषा में रचित महाकाम्यों में तुलसीदासात रामचरितमानस को चौपाई-शलों के समान शंलो अपनाना अपने पाप में ही एक संस्तुत्य कार्य है। कविवर ने भारवि भोर माप को परम्परा में चित्रकाव्य की भी रचना की है । लेकिन अनुलोम, प्रतिमोम, यमक, एकाक्षर, चार इत्यादि दुर्वोष चित्रामहारों से अपने काम्यों को बचाने का सफल प्रयास किया है। फलस्वरूप वह कठिन-काम के प्रेत की संज्ञा से भोपवये मोर मसानी से कानिराखी परम्परा पदि भी मानने योग्य हो गये। Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२. महाकवि ज्ञानसापर के काव्य-एक अध्ययन नषष काव्य की परम्परा में हम उनके काव्यों में प्रत्येक सगं के अन्त में कषि-परिचय का एक श्लोक देखते हैं... (क) 'श्रीमान् श्रेण्ठिचतुर्भुजः स सुषुपे भूरामलोपाह्वयं - वाणी भूषणवमिनं प्रतवती देवो वयं धीचयम् । , तस्योक्तिः प्रतिपर्व सद्रसमयीयं चेक्षयष्टिर्यपाs. ' ऽमुं सम्ध्येति मनोहरं च दशमं सर्गोत्तमं संकथा ॥' -जयोदय, १०। सगं का भन्तिम श्लोक । (ख) 'श्रीमान श्रेष्ठिचतुर्मुजः स सुषुवे भूरामलेत्याह्वयं पाणी भूषणवणिनं धृतवती देवी च यं धीचयम् । तेनास्मिन् रचिते सतीन्दुसमिते सर्ग समावणितं सर्वज्ञेन दयावता भगवता यत्साम्यमावेशितम् ॥" __ -वीरोदय १७॥ सर्गान्त का श्लोक । (ग) 'श्रीमान् श्रेष्ठिचतुर्भवस सुपुषे भूसम्लेत्याइयं वाणी भूषणवमिनं धृतवती देवी च यं धीचयम् । तेन प्रोक्तसुदर्शनस्य चरितेऽसी श्रीमतां सम्मतः राज्ञोचेतसि मन्मयप्रकंधक: षष्ठोऽमि सों गतः ।।' -सुदर्शनोदय, । सन्ति का सोक । (घ) 'श्रीमान् श्रेष्ठिचतुर्भुजः स मुषुवे भूरामलोपाह्वयं वाणी भूषरगणिनं घृतवती देवी च यं घोचपम् । प्रोक्ते तेन शुभे दयोदयपदे सम्बोऽत्र वेदोपमः यस्मिन् सोमसमर्षितस्य विषयास्यातो विवाहक्रमः ॥” । . -दयोदयचम्पू, ४। लम्ब का अन्तिम श्लोक । इसके अतिरिक्त बह ऐसी कविता करने में भी कुशल हैं, जिसमें पद्य के प्रत्येक चरण का प्रथम प्रक्षर मिलाने से एक सापक वाक्य को संरचना हो जाती है। उदाहरण प्रस्तुत है 'भूपो भवेन्नोतिसमुद्रसेतुः । राष्ट्र तु निष्कष्टकभावमेतु। मनाङ् न हि स्याभव विस्मयादि लोकस्य चित्तं प्रभवेत् प्रसादि ॥१॥ दिशेदेतादशी दृष्टि श्रीमान् वीरजिनप्रभुः । . तन्त्रमेतत् पठेन्नमं शर्म धर्म मभेत भूः ॥२॥ -दयोदयचम्पू, मन्तिम मङ्गलकामना १-२ उपर्युक्त पत्रों में प्रथम पद के प्रत्येक चरण के प्रथम अक्षरों को तथा द्वितीय पद्य के प्रथम तथा तृतीय चरणों के प्रथम अक्षरों का मिलाने से 'भराम Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानसागर का संस्कृत-कवियों में स्थान 'लोदितम्' वाक्य बनता है । स्मरण रहे कि महाकवि का पारिवारिक नाम भूरामल ही था । ४३३ इस प्रकार साहित्य प्रोर दर्शन, भावपक्ष मोर कलापक्ष मौर प्राचीन शैली पौर आधुनिक शैली का प्रभुत समन्वय करने वाले श्री ज्ञानसागर निश्चित हो संस्कृत-साहित्य के श्रेष्ठ कवियों में स्थान पाने के अधिकारी हैं। साहित्यकार किसी धर्म या जाति विशेष का प्रतिनिधित्व करने मात्र से साहित्य समाज में उचित स्थान पाने के प्रयोग्य नहीं हो जाता। यदि सभी साहित्यिकों को सदृष्टि से देखा जाय धर्मनिरपेक्ष एवं जातिनिरपेक्ष होकर उनकी समालोचना की जाय तो सनातन धर्मियों द्वारा उपेक्षित जैन एवं बौद्ध कवि प्रथवा जैनधर्मावलम्बियों प्रोर बौद्धधर्मावलम्बियों द्वारा उपेक्षित सनातनधर्मावजम्बी कवि भी साहित्यसमाज में योग्य स्थान पाने के अधिकारी हो सकते हैं । इस दृष्टि से ग्रस्मदालोच्य महाकवि ज्ञानसागर कालिदास, प्रश्वघोष, भारवि, माघ, हर्ष इत्यादि विख्यात महाकवियों की शृङ्खला के कवि हैं, मोर प्राधुनिक संस्कृत कवियों में तो उनका उच्च स्थान होना ही चाहिए । (ख) कवि श्रीज्ञानसागर के संस्कृत काव्यग्रन्थों का संस्कृत-साहित्य में स्थान स्पष्ट है कि जो कवि संस्कृत-साहित्य में श्रेष्ठ कवियों में स्थान पाने का प्रधिकारी है, उसकी काव्यकृतियाँ भी संस्कृत-साहित्य में उच्च स्थान पाने की fontfront श्रवश्य होंगी। कवि ज्ञानसागर ने जयोदय, सुदर्शनोदय, श्रीसमुद्र दत्तचरित्र- ये चार महाकाव्य श्रोर दयोदय नामक एक चम्पू काव्य की रचना की है । उनके इन पांचों काव्यग्रन्थों का संस्कृत-साहित्य में जो स्थान हो सकता है, वह इस प्रकार है (क) जयोदय -- यह श्री ज्ञानसागर विरचित २८ सर्गों का महाकाव्य है । इसका माबोपात परिशीलन करने से ज्ञात होता है कि वह बृहत्त्रयी की परम्परा में भाने के योग्य है। इस काव्य में शृङ्गार रस रूपिणी यमुना और वीररसरूपिणी सरस्वती का शान्तरखरूपिणी गङ्गा के साथ प्रदद्भुत सङ्गम किया गया है। बृहत्त्रयी की परम्परा में प्रौढ़-संस्कृत भाषा में इस काव्य की रचना हुई है । प्रचलित-प्रप्रचलित विविध छन्दों का प्रतिशय प्रयोग भी इसे बृहत्त्रयी की परम्परा में ले जाता है। इस काव्य में जयकुमार के परिचय, स्वयंवर में दासी द्वारा सुलोचना के समक्ष राजाधों का परिचय देने मिस्सन्देह " नेषधीयचरित" के समकक्ष कर देता है । अनवद्यमति राजानों के एकत्र होने, प्रादि का वर्णन इसे मन्त्री का प्रकीति Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य-एक अध्ययन को समझाना भारवि के प्रथंगौरव को झांकी प्रस्तुत करता है। पर्वत-वर्णन, वनबिहार-वर्णन, सन्ध्या-वर्णन और प्रभातवर्णन इसे माघ के 'शिशुपालवष' की तुलना में ले जाते हुए लगते हैं। किन्तु एक बात यह द्रष्टव्य है कि उक्त सनातनधर्मावलम्बी कवियों ने अपने काग्यों के माध्यम से धर्म-दर्शन एवं मुनियों को जीवन-चर्चा उस प्रकार से नहीं की है, जिस प्रकार से प्रस्मदालोच्य महाकवि श्री ज्ञानसागर ने की है। कालिदास काव्यों में हमें वन्य-जोवन एवं मुनियों के माचार-व्यवहार की झांकी यत्र-तत्र मिल जाती है, किन्तु उसका प्रस्तुतीकरण श्रीज्ञानसागर के काव्यों में वरिणत मुनियों के प्राचार-व्यवहार के समान नहीं है। जयोदय के जयकुमार को गृहस्थाश्रम के सम्बन्ध में उपदेश देने वाले मुनि एवं मोक्ष मार्ग में दीक्षित करने वाले तीर्थङ्कर भगवान् ऋषभदेव के वर्णन कालिदास के काव्यों में वरिणत गुरु वसिष्ठ और महर्षि कण्व के वर्णन से कम महत्त्वपूर्ण नहीं हैं। बल्कि कहीं-कहीं तो इन जैन मुनियों ने अपने प्राचार-व्यवहार के कारण वसिष्ठ और कण्व से भी ऊंचा स्थान प्राप्त कर लिया है। साहित्य के माध्यम से दर्शन को प्रस्तुत करने को कला का अंशमात्र भी हमें सनातनधर्मावलम्बी कवियों में देखने को नहीं मिलता जबकि श्रीज्ञानसागर इस कला में सिद्धहस्त हैं । 'जयोक्य' में उद्देश्य है-अपरिग्रह व्रत की शिक्षा देना। पाठक को रुक्षता का अनुभव न हो, इसलिए कवि ने जयकुमार एवं सुलोचना के कथानक के माध्यम से अपना उद्देश्य पूरा कर लिया है। कहना न होगा कि जयोदय काव्यशास्त्रीय, सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक पौर दार्शनिक दृष्टियों से कालिदासोत्तर काव्यों के मध्य में रखने के पूर्णतः योग्य है। भले ही सुकुमारता को दृष्टि से यह काध्य कालिदास के काव्यों को बराबरी न कर पाए, पर समालोचक यदि निष्पक्ष होकर इसकी समीक्षा करेंगे तो इसको भारवि, माघ पौर श्रीहर्ष के काग्यों के समाम तो अवश्य पाएंगे, ऐसा मेरा विश्वास है। (ख) वीरोदय यह भगवान महावीर के त्याग एवं तपस्यापूर्ण जीवन पर आधारित २२ सों का महाकाव्य है । इस काम्बवारा कवि ने ब्रह्मचर्य एवं चारित्रिक दृढ़ता की शिक्षा दी है । इसके परिशीलन से ज्ञात हुआ है कि यह काव्य एक मोर तो शैली की ष्टि से कालिदास के काव्यों की श्रेणी में प्रा जाता है; और दूसरी पोर दर्शनपरक होने के कारण बौद्ध-बार्शनिक महाकवि अश्वघोष के काव्यों के समकक्ष मा जाता है। जब हम इस काव्य को काव्यशास्त्रीय दृष्टि से देखते हैं तो यह उत्कृष्ट कोटि के महाकाव्य की श्रेणी में भा जाता है। जब इसकी घटनामों को देखते हैं तो यह Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानसागर का संस्कृत-कवियों में स्थान इतिहास प्रन्थ एवं पुराण-ग्रन्थ प्रतीत होता है । इसमें धर्म का स्वरूप जिस कौशल से प्रस्तुत किया गया है, उसको देखते हुए यह धर्मशास्त्र ग्रन्थ की भी श्रेणी में मा जाता है । काव्य के साथ ही इसमें जैन-दर्शन की भी व्याख्या मिलती है, फलस्वरूप इसमें दर्शनग्रन्थ को भी विशेषताएं देखने को मिल जाती हैं। इस कान्य में ब्रह्मचर्य-व्रत के अतिरिक्त पहिंसा एवं अपरिग्रह-इन दो वो को भी शिक्षा बड़े कौशल के साथ दी गई है। इस काव्य का ऋतुवर्णन माघ के ऋतु-वरणंन के समान ही प्रभावशाली है । वर्षा ऋतु का भगवान् के गर्भावतरण के साथ, वसन्त ऋतु का भगवान् के जन्म के साथ, शीत-ऋतु का भगवान् के चिन्तन के साथ, ग्रीष्म ऋतु का भगवान् के उपतपश्चरण के साथ और शरद्-ऋतु का भगवान् महावीर के निर्वाण के साथ वर्णन करके कवि ने ऋतु-वर्णन को नई दिशा दी है। श्री ज्ञानसागर के पूर्व के काम्यों में ऋतुमों का ऐसा प्रासङ्गिक वर्णन देखने को नहीं मिलता। वास्तव में प्रकृति मानव को चिरसहचरी और उसके विचारों का समर्थन करने वाली है, यह बात महाकवि ज्ञानसागर के इस काव्य के पढ़ने से स्पष्ट हो जाती है। उपजाति छन्द, उपमा, अपहलुति अलङ्कार, सुकुमार भाषा-शैली, शान्तरस इन सभी काव्यशास्त्रीय तस्वों का काव्य में बड़ा सन्तुलित प्रयोग देखने को मिलता है। 'जयोदय' महाकाय जहाँ काव्यमर्मज्ञों के बोटिक-विलास का साधन है, वहाँ वीरोदय महाकाम्य सहृदयहृदयग्राह्य है। इस काव्य का पुनर्जन्मवाद और कर्मवाव मानव-मात्र को मच्छे-अच्छे कार्य करने की प्रेरणा देता है। प्रस्तुत काव्य में देवियों द्वारा वर्षमान को माता प्रियकारिणी की सेवा सोधर्मेन्द्र द्वारा भगवान् का जन्माभिषेक, कुबेर एवं इन्द्र द्वारा समवसरण मण्डप का निर्माण प्रादि घटनाएं देवों पोर मानवों को एक सूत्र में बांधने का प्रत्यन्त प्रशंसनीय प्रयास प्रस्तुत करती हैं। साथ ही ये घटनाएं यह भी बताती हैं कि महापुरुष अपनी विशेषतामों से मानव रूप में उत्पन्न होकर भी देवबन्ध हो जाते हैं। . इस काव्य का उद्देश्य पाठक को अहिंसा, ब्रह्मचर्य एवं जैन-दर्शन के महत्त्व का ज्ञान कराना है । यदि दर्शन के सिद्धान्तों को सीधे-सीधे प्रस्तुत कर दिया जाता तो सहृदय सामाजिक इनको पढ़ने में नीरसता का अनुभव करते। प्रतः सामाजिक के लिए इन सिद्धान्त रूपी पोषधियों को कवि ने काव्यानन्वरूपी चाशनी से पाग कर प्रस्तुत किया है। कवि अपने इस प्रस्तुतीकरण के प्रयास से दार्शनिकों पोर कवियों-दोनों की रुचियों को सन्तुष्ट करने में समर्थ हो सका है। अतः कवि का यह काव्य भी संस्कृत-साहित्य की महान् काव्यकृतियों में स्थान पाने योग्य है। Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य-एक अध्ययन (ग) सुदर्शनोदय ____यह नी सों का एक छोटा सा महाकाव्य है। इस काव्य के द्वारा कषि ने पञ्चनमस्कार मन्त्र के महत्त्व से पाठक को अवगत कराना चाहा है। साथ ही पातिव्रत्य, एकपत्नीव्रत, सदाचार, गम्यक्चरित्र इत्यादि गुणों की भी शिक्षा दी है। 'जयोदय' और 'वीरोदय' की अपेक्षा इस काव्य में पाठक अधिक अच्छी रसचर्वणा कर सकता है। इसमें शङ्गार रसाभास पर शान्तरस की अद्भुत विजय दिखाई गई है। कपिला ब्राह्मणी को कामुकता, प्रभयमती का घात-प्रतिघात, देवदत्ता बेश्या की कुचेष्ट्राएं मोर काव्य के नायक सुदर्शन को इन सब पर विजय काव्य के मार्मिक स्थल हैं । ये सभी स्थल पाठक को सच्चरित्र की शिक्षा देते हैं । इस काव्य की सबसे बड़ी विशेषता है- इसके गीत । साहित्य, सङ्गीत एवं दर्शन का प्रदर्भूत सम्मिश्रण काव्य को उत्कृष्ट बनाने में सहायक हैं। मन्तदन्द, प्रसन्नता, भक्ति, प्रेम इत्यादि मनोभावों को प्रकट करने में सहायक विभिन्न रागरागिनियों को शंलियों में बद्ध इन गीतों का प्रयोग कवि का अद्भुत प्रयास है। कवि के इस काव्य को यह विशेषता हम कालिदास के काव्यों में भी नहीं पाते, फिर अन्य कवियों के विषय में क्या कहा जाए ? यद्यपि जयदेव के 'गीत-गोबिन्द' में गीत भी संस्कृत-साहित्य में ख्याति प्राप्त कर चुके हैं, किन्तु ये गीत संवादों या घटनामों के बीच-बीच में न होकर क्रमशः हैं। जबकि हमारे प्रालोच्य कवि ने विशिष्ट भावों को प्रकट करने के लिए घटनामों और संवादों के बीच में इन गीतों को प्रयुक्त किया है। सेठ-सुदर्शन के जीवन-वृत्तान्त द्वारा इस काव्य में कवि ने सहिष्णुता की शिक्षा दी है । तीन-तीन बार विपत्ति मा जाने पर प्रोर प्राणों की बाजी लग जाने पर भी सेठ सुदर्शन न तो कर्तव्य-पथ से डिगे और न उन्होने अपने प्रति दुव्यवहार करने वालों के प्रति कटवचन कहे। यह सहिष्णुता तो सुदर्शन जैसे महापुरुषों का हो पलङ करण हो सकती है। सामान्य मनुष्य तो किञ्चित् विपत्ति से ही घबरा जाते हैं, घोर उपसों को सहने की क्षमता उनमें कहाँ ? । कवि ने स्थान-स्थान पर मुनियों के प्राचार, प्राहार-व्यवहार मादि की शिक्षा भवसरानुकूल दी है। कथा के माध्यम से प्रस्तुत किए जाने के कारण यह शिक्षा कोरा उपदेश न रहकर पाठक के हृदय पर छा जाने को भी क्षमता रखती है। काव्य के उपजाति, अनुष्टप, शार्दूलविक्रीडित आदि छन्द, उपमा, विरोधाभास प्रादि अलङ कार, अन्त्यानुप्रास की तुकबन्दी सुन्दर पदों वाली भाषा और सुकुमार शैली से समुद्ध कलापक्ष का भावपक्ष के साथ अद्भुत समन्वय इस काव्य की एक अन्यतम विशेषता है। Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानसागर का संस्कृत-कवियों में स्थान इस काव्य के पढ़ने से शासक-वर्ग यह जान सकता है कि बिना बिचारे कोई कार्य नहीं करना चाहिए । अपराधों को समाप्त करने के लिए सर्वप्रथम उनको दूर करने के उपाय अपने ही पारिवारिक जनों पर करने चाहिएँ और वास्तविक अपराधी को हो दण्ड मिलना चाहिए। निरपराध व्यक्ति दण्डित किया जाय, यह बात राजा के हित में नहीं है । ___स्पष्ट है कि काव्य, काव्यशास्त्रियों, सामाजिकों, शासकों, दार्शनिकों और धार्मिकों को शिक्षा देने में एवं उनको सन्तुष्ट करने में समर्थ है । मतः यह काम्य भी संस्कृत-साहित्य में उच्च स्थान पाने का अधिकारी है । (१) बीसमुद्रदत्तचरित्र इस काग्य में 'सुदर्शनोदय' के समान ही ६ सगं हैं। इसमें भवमित्र नामक काव्य-नायक के जन्म-जन्मान्तरों का वर्णन है। इसके माध्यम से कवि ने अस्तेय नामक महाव्रत की शिक्षा दा है और चोरी एवं प्रसत्य-भाषण के दुष्प्रभाव . से बचने के लिए पाठक को सावधान किया है। इस काव्य में पुनर्जन्मवाद और कर्मफलवाद का वर्णन इस प्रकार किया गया है कि पाठक पूर्वजन्म और वर्तमान जन्म का तालमेल बिठाते समय वास्तविक कथा भूल जाता है। वैसे भी इस काव्य को रचने का उद्देश्य किसी रोचक घटना विशेष को प्रस्तुत करना नहीं है। कथा तो काव्य के उद्देश्य (अस्तेय की शिक्षा) को सहायिका के रूप में प्राई है । सम्पूर्ण काव्य पढने पर एक ही निष्कर्ष निकलता है-'सत्यमेव जयते नानतम् ।' इसके अतिरिक्त इस काव्य की रचना का दूसरा उद्देश्य है-काव्य के माध्यम से जैन-दर्शन के सिद्धान्तों को प्रस्तुत करना।। ___ दर्शन-प्रधान एवं धर्मोपदेशप्रधान होते हुए भी इस काव्य के कुछ स्थल प्रष्टव्य हैं । यथा-धनार्जन हेतु विदेश जाते हुए भदमित्र का अपने माता-पिता से संवाद, रानी द्वारा द्यूत-क्रीड़ा से राज्य के पुरोहित की कलई खुलना, राजा की मृत्यु के बाद रामदत्ता का मार्यिका बन जाना मादि । इन सभी घटनामों में कवि के भावपक्ष का सामर्थ्य स्पष्ट प्रतीत होता है। श्रीमानसागर के पूर्व ऐसे काम्य नहीं के बराबर रचे गये, जिनमें महाकाव्य पौर चरितकाव्य को विशेषताएँ साथ-साथ दष्टिगोचर होती हैं। श्रीसमुद्रदत्तचरित्र ऐसा ही काव्य है। परिसंख्या, विरोधाभास मादि से अलंकृत, सरल माषा से सुसज्जित कुमार शेनी में प्रस्तुत, उपजाति, द्रुतविलम्बित प्रादि छन्दोबद्ध इस काव्य का सापक्ष एवं जन्मवृत्तान्तों का प्राधिक्य शाम्तरस की पर्वणा में बाधक नहीं अतः यह काव्य पाबालवड, सभी के लिए हितोपदेशात्मक है। दार्शनिकों Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४te महाकवि ज्ञानसागर के काथ्य - एक प्रध्य एवं काव्यशास्त्रियों को एक साथ सन्तुष्ट करने वाला यह काव्य वास्तव में संस्कृत साहित्य की अमूल्य निधि है । (ङ) वयोदयचम्पू कवि मे 'जयोदय', 'वीरोदय' जैसे महाकाव्यों को रचने के साथ 'वयोदय' नामक चम्पू- काव्य की भी रचना की है। संस्कृत-साहित्य के इतिहास पर दृष्टि डालने से ज्ञात होता है कि चम्पू-काव्य की परम्परा मुख्य रूप से त्रिविक्रमभट्ट विरचित 'नलचम्पू' से प्रारम्भ हुई है, तत्पश्चात् तो चम्पूरामायण, चम्पूभारत, यशस्तिलकाचम्पू जैसे अनेक चम्पू काव्यों की रचना हुई। जब हम दयोदयचम्पू को उक्त चम्पूकाव्यों की दृष्टि से देखते हैं, तो हमें अपने मालोक्य कवि श्री ज्ञानसागर का प्रयास सर्वथा नवीन प्रतीत होता है। उपर्युक्त चम्पू काव्य बृहत्काय है, पर दयोदयचम्पू लघुकाय | उक्त काव्यों में श्लेष एवं परिसंख्या के कठिन प्रयोन हैं, जबकि हमारे कवि इस प्रकार के प्रयोगों से सर्वथा बचे हैं। इसका कारण यह है कि त्रिविक्रमभट्ट मादि कवियों के मन में इन काव्यों की रचना के समय पाण्डित्य प्रदर्शन की भी इच्छा रही होगी, जबकि हमारे कवि का उद्देश्य मात्रप्रदर्शन नहीं रहा है। ज्ञानसागर जी का यह चम्पूकाव्य भी एक शिक्षाप्रद काव्य है । इस काव्य माध्यम से कवि ने अहिंसा नामक व्रत की शिक्षा दी है, जो सभी मनुष्यों के पासने योग्य है । पुरुष को चाहिए कि वह यथासम्भव इस व्रत का पालन करे । साथ ही परोपकार, प्रतिथिवत्सलता, योग्य व्यक्ति के सम्मान प्रादि गुरणों की भी शिक्षा दी गई है। समाज में हिंसा व्रत का सब पालन करें, इसलिए इस चम्पूकाव्य में एक बीवर, जिसकी जीविका ही हिंसा से चलती है, के द्वारा महिसाव्रत का पाचन करवाया गया है। यह इसी व्रत का प्रभाव है कि दूसरे जन्म में वह बार-बार सम्भावित मृत्यु के मुंह से बच जाता है ।" काव्य में गद्य-पद्य का सुम्बर सन्तुलन है । सरल मुहावरेदार भाषा, सुकुमारशेली, स्वाभाविक प्रकार प्रबसरानुकूल छम्ब भ्रन्तर्द्वन्द्व और संवाद प्रादि से समृद्ध कलापक्ष इस काव्य में भावपक्ष को पूर्णरूपेण अभिव्यक्त करता है । यदि पाठक नलचम्पू इत्यादि प्राचीन चम्पूकाम्यों की तुलना में इस चम्पू को पढ़ें, तो अवश्य ही उन्हें इसके पढ़ने में अपेक्षाकृत अधिक प्रानन्द की प्राप्ति होगी । क्योंकि उक्त काव्यों में प्रलङ्कारों के प्रयोग के मोह के कारण कवि कथा को प्रवाह देने में अपनी सामयं तो बैठे हैं, जबकि 'दयोदयचम्पू' के मलङ्कार भवसरानुकूल हैं । इसमें वाक्य भी बहुत लम्बे-लम्बे नहीं है । इसीलिए इस काष्ण की कथा के प्रवाह में कोई रुकावट नहीं प्राई । पाठक शब्द-जालों में उलझे बिना कथा का प्रानन्द ले सकता है । Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भानसागर का संस्कृत-कवियों में स्थान प्रतएव जहाँ 'नलचम्पू' जैसे चम्पूकाव्य केवल बौद्धिक विमासियों और प्रौढ़-संस्कृत-भाषा के शातामों के ही परिशीलन का विषय है, वहाँ 'योदय-पम्पू संस्कृत भाषा के साधारण जानकार के भी पढ़ने योग्य है। ___उपर्युक्त विवेचन से यह निष्कर्ष निकलता है कि कविवर का चम्मू-काम्य परम्परा में यह इलाध्य प्रयास है । उन्होंने जहां चम्पू-काव्य विधा की समृद्धि की है, वहाँ सहृदय सामाजिकों की इच्छा का भी पूरा ध्यान रखा है। मतः इस काम्य को भी संस्कृत साहित्य की एक प्रेरक निषि मानना चाहिए। सारांश स्पष्ट है कि श्री ज्ञानसागर के ये पांचों संस्कृत-काव्य-ग्रन्थ संस्कृत साहित्य में अपना-अपना विशिष्ट स्थान पाने के योग्य हैं। काव्य के माध्यम से दर्शन की शिक्षा देने में जैन-धर्म की वकालत करने में कविवर को स्पृहणीय सफलता मिली है। व्यक्ति या तो कवि ही होता है या दार्शनिक हो। किन्तु हमारे कवि दार्शनिक भी है। इसलिए उनको संस्कृत-साहित्य में माधुनिक प्रश्वघोष की संज्ञा दी जानी पाहिए। अनुप्रास की व्यापक एवं नवीन परम्परा को चलाने पोर निभाने के कारण 'उपमा कालिदासस्य' के समान ही 'अनुप्रासो ज्ञानसागरस्य' की उक्ति भी प्रसङ्गत नहीं होगी। प्रायः शन्दालङ्कारों का प्रयोग करने के कारण कवियों के काव्य दुरूह हो जाते हैं, जबकि हमारे कवि के काव्य मन्त्यानुप्रास के सुष्ठु प्रयोग से भोर भी अधिक प्रवाहमय हो गए हैं। प्रतः पाठकों से निवेदन है कि जातीयता मोर साम्प्रदायिकता को भुलाकर श्रीज्ञानसागर का संस्कृत कवियों में भोर उनके काव्यों का संस्कृत-काव्यों में उच्च स्थान स्वीकृत करें। Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम परिशिष्ट महाकवि ज्ञानसागर की संस्कृत-भाषा में लिखित __ दार्शनिक कृतियाँ श्रीज्ञानसागर ने संस्कृत-भाषा में काम्यग्रन्थों के अतिरिक्त दो दार्शनिक कृतियां भी लिखी हैं। इनमें से एक तो कवि की मौलिक कृति है मोर दूसरी अनुवादकति । वैसे तो इन दोनों कतियों का परिचय हमें उनके संस्कृत काम्प-ग्रन्यों के साथ ही देना चाहिए पा, किन्तु अपने शोधप्रबन्ध के शीर्षक के अनुसार उनके संस्कृत काव्यग्रन्यों की समीक्षा ही हमारा वयं विषय है । अतः उनको इन दार्शनिक कृतियों की समीक्षा वहां न करके यहाँ परिशिष्ट में ही संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है :मौलिक कृति सम्यक्त्वसारशतक श्रीज्ञानसागर ने इस ग्रन्थ में जैनधर्मानुसार बताया है कि प्रात्मा को शुद्धता एवं सर्वज्ञता की अवस्था को सम्यक्त्व कहते हैं। सम्यक्त्व के तीन प्रकार हैं :-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, साम्यबारित्र । प्रात्मा की इसके विपरीत अवस्था का नाम मिथ्यात्व है । वस्तु के दो रूप है-चेतन पोर प्रचेतन । चेतन प्रात्मा है। प्रचेतन वस्तु धर्म, प्राकाश, काम और पुद्गल के भेद से पांच प्रकार की है। इनमें से प्रथम चार प्रमत्तं हैं और पुद्गल मूर्त है । जीव और पुद्गल की गति में सहायक को धर्म कहते हैं जो इन दोनों की स्थिति में सहायक नहीं है उसे अधर्म कहते हैं। सब वस्तुओं का माश्रय स्थान प्राकाश है । वस्तुत्रों में परिवर्तन करने की शक्ति का नाम काल है। अपने कर्तव्य के विषय में सोचना कर्मचेतना या लब्धि कहलाता है । यह लन्धि देशना, विशुद्धि, प्रयोगिका भोर काल-चार प्रकार की है। इन नषियों से व्यक्ति सुविधा पूर्वक सम्यक्त्व लाभ कर सकता है। इसके प्रतिरिक्त एक सन्धि पोर है-करणसन्धि। इनके तीन रूप हैं :-प्रधः करण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण। जब उपर्युक्त लधियों की सहायता से व्यक्ति कर्मों का उपशमन कर लेता है, तब उसे सम्यक्त्रय की प्राप्ति होती है। ऐसा पुरुष, देव, विद्याधर का जन्म एवं मोक्ष की प्राप्ति करता है। सम्यग्दष्टि पुरुष के गुण हैं :-वात्सल्य, धर्म-प्रभावना, त्याग तथा सन्तोष । इनों गणों की सुपरी हई दवा सम्यक्त्व है, पौर बिगड़ी हुई दशा मिथ्यात्व । Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि मानसागर की संस्कृत भाषा में लिहित दार्शनिक कृतियाँ ४१ श्रीज्ञानसागर ने उपर्युक्त विषयवस्तु संस्कृत के १०० श्लोकों में लिखकर उसकी सरल एवं विस्तृत व्याख्या भी की है। उपलब्ध पुस्तकों में ९१ ही श्लोक एवं उनकी व्याख्या मिलती है। यह पुस्तक जन-दर्शन के जिज्ञासुषों के लिए अत्यन्त उपयोगी है। अनुवाद कृतिप्रवचनसार प्रस्तुत ग्रन्थ मौलिक रूप में श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्य जी ने ही लिखा है। इसकी भाषा प्राकृत है । इनमें क्रमशः तीन अधिकार है-ज्ञानप्ररूपक अधिकार, श्रेयाधिकार और चरित्राधिकार । प्रथम अधिकार में ९४, द्वितीय में १०८ पोर तृतीय में ६५ गाथाएं हैं। श्रीज्ञानसागर जी ने प्राकृत भाषा में रचित उक्त गाथानों का संस्कृत भाषा में अनुष्टुप् श्लोकों में पूर्णरूपेण छायानुवाद किया है। साथ ही उनका हिन्दी पवानुवाद एवं सारांश भी लिख दिया है। अतः इस प्रन्य को कविवर की मात्र हिन्दो रचना न कहकर संसत एवं हिन्दी की मिश्रित रचना मानना चाहिए। . जैन-दर्शन के जानने का इच्छुक इस अन्य के प्रध्ययन से द्रव्य, गुण, पर्याय, शुभोपयोग, पशुभोपयोग, शुद्धोपयोग, मोह, स्यादवाद, द्रव्य-भेद, जीव एवं पुद्गल का स्वरूप, भात्मतत्त्व, ध्यान एवं उसके प्रकार, उत्तम पाचरण, मुनियों के भेद, पाप-भेद, स्त्रीमुक्ति इत्यादि विषयों को प्रासानी से समझ सकता है।' १. यह ग्रन्थ श्री दिगम्बर जैन समाज, हिसार से सन १९५६ ई. में प्रकाशित हमा है। २. यह ग्रन्थ श्री महावीर साझाका, पाटनी, किशनगढ़ रेनवान ने सन् १९७२ ई. में प्रकाशित करवाया है। Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय परिशिष्ट महाकवि ज्ञानसागर की हिन्दी रचनाएं श्रीज्ञानसागर ने हिन्दी भाषा में चौदह रचनाएँ लिखी हैं। इन रचनामों में उनको अधिकांश रचनाएं मौलिक हैं और कुछ टीका कतियां भी हैं। एक दो को छोड़कर उनकी इन रचनामों का प्रकाशन भी हो चुका है। यहां प्रति संक्षेप में उनका समीक्षोन्मुख परिचय प्रस्तुत किया जा रहा है जिससे माशा है कि संस्कृतसाहित्य समीक्षाजगत् भी अपने इस उत्कृष्ट साहित्यकार की सम्पूर्ण साहित्यसम्पमा से परिचित हो सकेगा। मौलिक कृतियांমালা - श्रीमानसागर जी ने महापुराण में वरिणत प्रादि ऋषभदेव तोयंकर भगवान् के कथानक के आधार पर अपना यह हिन्दी काव्य लिखा है। इसमें ऋषभदेव के ८ पूर्वजन्मों मोर बत्तंमान जन्म का विस्तृत वर्णन है। काग्य के मन्त में ऋषभदेव के यहां भरत एवं बाहुबली के जन्म लेने का और ऋषभदेव द्वारा तीर्थङ्कर-पद-प्राप्ति का वर्णन है। इस काम्य में सत्रामध्याय हैं । काम्य की कुल पद्य-संख्या ८१५ है। ये पर रोला, हरिगीतिका इत्यादि हिन्दी के प्रसिद्ध छन्दों में निबर हैं। प्रत्येक अध्याय की समाप्ति पर कवि ने दोहा मथवा कुण्डलिया नामक छन्द प्रयुक्त किये हैं। काव्य में शुङ्गार, शान्त, वीर, करुण, अद्भुत, वत्सल मादि रसों का यथास्थान सम्यक् परिपाक हुमा है। काव्य की समाप्ति भक्तिभाव की अभियजमा के साथ हुई है। कवि के इस काम्य में स्थान-स्थान पर उपमा, रूपक', उत्प्रेक्षा' १. महापुराण (पादिपुराण भाग-१) २. ऋषभावतार, ११५४, ६७, ६५, १०२ ३. वही, २।३१, ४१४४,१११२६ ४. वही, २३४, २११६, २०१३ Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि भानसागर की हिम्बी रचनाएँ । ४३ व्यतिरेक', विरोध, परिसंस्था' और अपह्नुति अलङ्कारों का सुन्दर प्रयोग दृष्टिगोचर होता है। काव्य की भाषा सरल, सुबोष मोर खड़ी बोली है। भाषा अनावश्यक मलङ्कारों के बोझ से दबी हुई नहीं है। इस कान्य में कवि ने सुकुमार शैली का प्रयोग किया है। __इस काव्य में कवि का प्रतिवर्णन एवं वस्तु-वर्णन भी उल्लेखनीय है। उदाहरण के रूप में विवया पर्वत,५ उमिमालिनी नदी, मलकापुरी, पुण्डरीकिणी, सुसीमा एवं प्रयोध्या' के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। कवि ने काव्य के माध्यम से जन-पर्म एवं दर्शन के सिद्धान्तों को पाठक तक पहुँचाने का अद्भुत प्रयास किया है, जिनमें प्रोषषोपवास,' ध्यान-भेद, २ दैगम्बरीदीक्षा'3, पञ्चसमिति", एकादशवत'५ मुनिस्वरूप एवं न्यस्वरूप'" उल्लेखनीय हैं । यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि कर्मकाण्ड का कवि ने विरोध किया है। क्योंकि इस काम्य में प्राचार्य-सम्मत महाकाव्य के अधिकांश लक्षण ष्टिगोचर हो जाते हैं, अतः हमें इस काम्य को महाकाव्य की संज्ञा देने में सङ्कोच नहीं करना चाहिये ।। १. वही, २०५३ २. वही, ॥३८, ६४४ ३. वही, ६२७-३० ४. ऋषभावतार, १०३८-२६ वही, ११६ वही, १०५ ७. वही, ११६ वही, २२ ६. वही, ६१ १०. वही, ६१-७ १.१. वही, १७ १२. वही, १०८, ३९, ४२, २०१६, १६, १३३३८, १६१६ १३. वही, ११५५, २०४८ १४. वही, ३१ १५. बही, १२ १६. पही, ६।१४.२३ १७. वही, १७२-७ १८. वही, ४१२१ १९. यह अन्य भी दिगम्बर जैन समाव, मदनगंब से सन् १९५७ ई. में प्रकाशित हमा है। Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ धन्यकुमार का चरित ( भाग्योदय ) इस काव्य में धन्यकुमार का जीवन-वृत्तान्त बड़े रोचक ढङ्ग से प्रस्तुत किया गया है | धन्यकुमार के विस्तृत वर्तमान जन्म-वर्णन के साथ ही उसके दो पूर्वजन्मों का भी वर्णन इस काव्य में किया गया है । इस काव्य का नायक ( धन्यकुमार) प्रद्भुत व्यक्तित्व का स्वामी है। उसके गुणों को देखकर जहाँ उसके प्रग्रज प्रन्त-प्रन्त तक ईर्ष्या के प्रग्नि में सुलगते रहते हैं, वहीं कुसुमश्री, सोमश्री, सुभद्रा, मञ्जरी, गीतकला, सरस्वती, लक्ष्मीवती प्रोर गुणवती — ये माठ राजकुमारियाँ एवं श्रेष्ठिपुत्रियाँ उसके व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उसकी पत्नियाँ बन जाती हैं । काव्य में शृङ्गार, वीर, प्रद्भुत करुण इत्यादि रसों की सुन्दर प्रभिव्यञ्जना हुई है । किन्तु ये सभी रस इस काव्य के प्रधान रस शान्त रस के प्रङ्ग ही हैं । धन्यकुमार के पिता घनसार के दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् काव्य में शान्तरस प्रबाध रूप से अभिव्यञ्जित हुआ है; भोर उपर्युक्त सभी रसों की परिणति भी उसी में हुई है। महाकवि ज्ञानसागर के काव्य- एक अध्ययन कवि ने काव्य का प्रणयन-कथारम्भ, दुबारा भाग्यपरीक्षा, नगरसेठपदप्राप्ति, गृहत्याग, गृह कलह, विवाह-प्रक्रम, कटुम्ब समागम, धन्य कौशाम्बी में धन्ना का समन्वेषण, न्यायप्रियता, कौशाम्बी से प्रस्थान, प्रायश्चित्त और धन्यकुमार का वैराग्य - इन तेरह शीर्षकों में किया है। काव्य में प्रयुक्त समस्त पद्यों की संख्या ८५८ है । ये पद्य कुण्डलिया, हरगीतिका, डिल्ल, गीतिका, दोहा, कुसुमलता, चप्पय, गजल, रेखता प्रादि हिन्दी के छन्दों में निबद्ध हैं । कहीं-कहीं पर कव्वाली नामक गायन शैली भी प्रयुक्त की गई है। काव्य में दृष्टान्त', उत्प्रेक्षा, प्रर्थान्तरन्यास ३, रूपक; ४ उपमा, परिसंख्या, और विरोधाभास ® प्रलङ्कारों की भी छटा यत्र-तत्र दिखाई दे जाती है । काव्य की भाषा शैली सरल है। कवि ने भावश्यकतानुसार मुहावरे एवं उर्दू के शब्दों का भी प्रयोग किया है । १. २. वही, २११, १६, ३१२८ ३. वही, ३।५२ धन्यकुमार का चरित, २११, ८११७ ४. धन्यकुमार का चरित, ४२, ३४ ५. वही, ५।११, ६।७५, ७७ ६. वही, ८।२८ - २६ ७. वही, १२।१-२ Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर को हिन्दी रचनाएँ ४५ इस काव्य में नर्मदा नदी,' गङ्गा नदोर सोरठ देश भोर वाराणसी नगरी के वर्णन विशेष उल्लेखनीय हैं। एक स्थल पर जैन धर्म एवं दर्शन के सिद्धान्त भी प्रस्तुत किये गये हैं । एक स्थल पर लक्ष्मी के दोषों का भी प्राकर्षक वर्णन मिलता है।' कहना न होगा कि इस काव्य के माध्यम से कवि ने मानव को मास्तिकता कर्मठता, सत्यवादिता, सहिष्णुता, त्यागप्रियता प्रौर परोपकार-परायणता की शिक्षा देने के प्रयास में अद्भुत सफलता प्राप्त की है। ऋषभावतार के समान ही यह काग्य भी महाकाव्य की संज्ञा पाने के योग्य है। इस काम्य की समाप्ति सन् १९५३ ६० (वि० सं० २०१३) में हुई थी। पवित्र मानव-जीवन प्रस्तुत पुस्तक की रचना सरल हिन्दी भाषा में पद्यों में की गई है। पूरी पुस्तक में १९३ पद्य हैं। इस पुस्तक के द्वारा बोज्ञातसागर ने व्यक्तियों की समाज-सुधार, परोपकार, प्रावश्यकतापूत्ति, कृषि एवं पशुपालन, भोजन के नियम, स्त्री.का कर्तव्य एवं उसका समाज में स्थान, बालकों के प्रति अभिभावकों के कर्तव्य, प्राधुनिक दोषपूर्ण शिक्षा पद्धति, उपवास, गहस्थ और त्यागी में अन्तर इत्यादि जानने योग्य विषयों का रोवक प्रतिपादन किया है। सरल जंन विवाह विधि हिन्दी भाषा में रचित गहस्थियों के लिये उपयोगी इस पुस्तक में जैनविवाह-विधि वरिणत है । इसमें विवाह के लिये शुभमुहूर्त, तीर्थङ्करों एवं देवगणों का पूजन तथा पति पत्नी के परस्पर कर्तव्य क्रमशः पद्यों के माध्यम से प्रस्तुत किये गये हैं। इसमें दोहा, मोरठा, त्रोटक, बसन्ततिलका, स्रग्धरा, मन्दाक्रान्ता, पार्या मादि छन्दों का प्रयोग मिलता है । मन्त्रोच्चारण संस्कृत-भाषा में है, परन्तु १. वही, ४१३८.४० २. वही, ५॥१८-२० ३. वही, ११४ ४. वही, ५०१७-१६ ५. बही, १२४६-५२ ६. वही, २०५७-५८ ७. (क) वही, १३१७५-७६ (ख) यह ग्रन्थ श्री जैनसमाज, हाँसी से सन् १९५७ ई० में प्रकाशित हुमा है। ८. यह ग्रन्थ दिगम्बर जैन महिला समाज, पंजाब से सन् १९५६ ई. में प्रकाशित हुपा है। Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૪૬ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य - एक प्रध्ययन सामान्य नागरिकों की सुविधा के लिये मन्त्रों का अनुवाद हिन्दी में कर दिया गया है । ' कर्तव्यपथ प्रदर्शन - इस पुस्तक में ८२ शीर्षकों द्वारा पाठकों को सामान्य व्यवहार को शिक्षा दी गई है। शिक्षा को रोचक बनाने के लिये प्रनेक कथाओंों को भी प्रयुक्त किया गया है । इस पुस्तक में उल्लिखित नियमों को यदि व्यक्ति प्रात्मसात् कर ले तो वह कलह से दूर हो सकता है, और सच्चा मानव बन सकता है। सचितविवेचन प्रस्तुत पुस्तक में सचित (जीवन्मुक्त) घोर प्रचित्त (जीवरहित) पदार्थों का अन्तर समझाया गया है, जिससे मनुष्य को किन-किन बाद्य एवं पेय पदार्थों का सेवन करना चाहिये ? प्रोर किन-किन का परित्याग करना चाहिये - यह बात पाठक की समझ में मासानी से प्रा जाती है। बीच-बीच में कुन्दकुन्दाचार्य के तत्वार्थसूत्र' प्राशावर के जैनधर्मामृत' इत्यादि ग्रन्थों के उद्धरण भी विषय की पुष्टि के लिये ग्रहण किये गये हैं । ग्रन्थ की भाषा-शैली सरल एवं सुबोध है । सामान्य ज्ञान रखने वाला व्यक्ति भी इस पुस्तक को पढ़कर लाभ प्राप्त कर सकता है । 3 स्वामी 'कुन्दकुन्द और सनातन जैन धर्म इस पुस्तक में श्रीज्ञानसागर ने स्वामी कुन्दकुन्द का जनधर्माचायों में मूर्धन्य स्थान निर्धारित किया हैं, साथ ही उनका जीवन परिचय और देशकाल भी बताया है। स्त्री मुक्ति, केवल- ज्ञान आदि का भी इस पुस्तक में विवेचन किया गया है । टीका कृतियाँ तत्वार्थ सूत्र टीका यह जैन धार्मिकों का सर्वमान्य शास्त्र ग्रन्थ है । कविवर श्रीज्ञानसागर ने इसकी टीका दश अध्यायों में लिखी है। इस ग्रन्थ के प्रथम अध्याय में सम्यक्त्व, जीब, प्रजीव, द्रव्य, ज्ञान, निर्मल मात्मा आदि का स्वरूप क्रमश: वरिणत हैं । दूसरे अध्याय में कर्मों के उपशमन, उपयोग स्वरूप, मन का स्वरूप एवं भेद, स्थावर १. यह ग्रन्थ दिगम्बरजंन समाज, हिसार से सन् १९४७ ई० में प्रकाशित हुधा है | यह ग्रन्थ टिगम्बर जैन पञ्चायत, किशनगढ़, रेनवाल से सन् १९५९ ई० में प्रकाशित हुआ है । ३. यह ग्रन्थ श्री जैन समाज, हांसी से सन् १९४६ ई० में प्रकाशित हुधा है । ४. इस ग्रन्थ को सजानसिंह विमलप्रसाद जैन, मुजफ्फर नगर ने सन् १९४२ ई० में प्रकाशित कराया है । Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४७ महाकवि ज्ञानसागर की हिन्दी रचनाएं पदार्थ, जीवों के भेद, लब्धि स्वरूप, इन्द्रियों के स्वरूप, प्राणी की विभिन्न प्रवस्थान, शरीरभेद प्रावि का वर्णन है । तीसरे अध्याय में भूमि, नरक, समुद्र, द्वीप, देश, खण्ड, पर्वत, सरोवर, नदियों, १२ प्रकार के कालों, पक्षों, मनुष्य, प्रायं, जीवों की भायु प्रादि का परिचय है । चतुषं प्रध्याय में देवों के प्रकार, स्वर्गी के प्रकार, देवगणों का शासन, देवगरणों का प्राचार-व्यवहार, व्यन्तर एवं उनके प्रकार, स्वर्गी में रहने वाले देवगरणों की श्रायु भादि वरिगत हैं । पाँचवें प्रध्याय में जीव भोर प्रजीव का भेद, द्रव्य के भेद, प्ररणु, स्कन्ध एवं द्रव्य की परिवर्तनशीलता का वर्णन है । छठे अध्याय में योग, उसके भेद, पांच भव्रत एवं कर्मों के आठ प्रकार वर्णित हैं । सप्तम अध्याय में व्रत स्वरूप, पञ्चसमिति, पञ्चमहाव्रत, व्रती पुरुष के भेद, घरगुव्रतों के प्रकार, सल्लेखना, व्रतों से दोषों को दूर करना, सचित और प्रचित्त पदार्थ का श्रन्तर, ११ प्रतिमाएँ, स्यागोन्मुख श्रावक का प्राचार-व्यवहार प्रादि वरिंगत हैं । प्राठवें अध्याय में बन्धेन के कारण एवं उसके भेद बरिंगत हैं । इसी अध्याय में ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, वायु, नाम, गोत्र प्रौर प्रन्तराय - ये प्राठ कर्म घातिया और प्रघातिया - दो भागों में विभक्त होकर प्रात्मा के गुरणों का किस प्रकार हनन करते हैं, बरिंगत है । इसी अध्याय में यह भी स्पष्ट किया गया है कि कर्मों के निष्फल होने की स्थिति को निर्जरा कहते हैं । नवम अध्याय में संवर, गुप्ति, समिति, तप, क्षमा, मार्दव, प्राजंजशौच, सत्य, संयम, त्याग और ब्रह्मचयं धनुप्रेक्षा, २२ प्रकार के परोषहों, विनय, उपाधि, ध्यान एवं उसके भेदों का परिचय कराया है। प्रन्स में दशम अध्याय में का स्वरूप एवं उसकी प्रक्रिया के विषय में विचार किया गया है । सन् १९५३ ई० ( वि० सं २०१०) को पूर्ण होने वाले इस ग्रन्थ में श्री ज्ञानसागर जी ने जैनधर्म एवं दर्शन के मूलभूत सिद्धान्तों से पाठक को परिचित कराने का प्रशंसनीय प्रयास किया है। बीच-बीच में रोचक उद्धरणों से ग्रन्थ की दर्शन अन्य रुक्षता कम की गई है । २ विबेकोदय जैन- दार्शनिक कुन्दकुन्दाचार्य जी की एक प्रति प्रसिद्ध रचना है-समयसार । विवेकोदय' इसो 'समयसार' का हिन्दी पद्यानुवाद है । इसमें १० 'अधिकार' हैं, जिनमें क्रमश: जीब का स्वरूप, जीव के दुःख का कारण, अपने को कर्ता समझने का मिथ्याभिमान, शुभ-कर्म, प्रशुभ-कर्म, राग इत्यादि का बन्धन, सम्यग्ज्ञान, कर्मों को नष्ट करना, बन्धन का कारण, मोक्ष का स्वरूप एवं स्यादवाद सिद्धान्त का वर्णन है । इस ग्रन्थ में प्रयुक्त पद्यों की संख्या २२६ है, ये सभी पद्य प्रत्यन्त सरल भाषा में रचे गये हैं । पद्यों के प्रतिरिक्त इस कृति में जन-धर्म के १. श्रीतत्त्वार्थसूत्र महाशास्त्र को टीका, पृ० सं० १८१ २. यह ग्रन्थ दिगम्बर जैन समाज, हिसार से सन् १०५८ ई० में प्रकाशित हुमा है । Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य-एक अध्ययन सिद्धान्तों को हिन्दी में ही सरल एवं विस्तृत व्याख्या भी श्रीज्ञानसागर जी ने कर दी है।' समयसार । प्रस्तुत अन्य मौलिक रूप में तो कन्द-कन्दाचार्य द्वारा प्राकृत भाषा में लिखा गया है । इसमें दश प्रधिकार हैं, जिनके नाम क्रमशः जीवाजीवाधिकार, अजीवाधिकार, कर्तृकर्माधिकार, पुण्यपापाधिकार, मानव अधिकार, संवराधिकार, निर्जराषि. कार, बन्धाधिकार, मोक्षाधिकार, मोर सर्वविशुदज्ञानाधिकार है। इस ग्रन्थ में कुल ४३७ गाथाएं हैं और इस ग्रन्थ पर जयसेनाचार्य ने संस्कृत भाषा में तात्पर्य नाम की टीका लिखी है । परहमारे महाकवि प्राचार्य श्रीज्ञानसागर ने उक्त ग्रन्थ को इसी तात्पर्या वत्ति पर अपनी हिन्दी टीका लिखी है। संस्कृत एवं प्राकृत को न मानने वाले सामाजिकों के लिये इस ग्रन्थ की यह हिन्दी टीका प्रतीव उपयोगी है ।२ - उपर्यक्त ग्रन्थों के अतिरिक्त ज्ञानसागर की हिन्दी भाषा में रचित चार रचनाएं भोर हैं, जो अभी प्रकाशित नहीं हो पाई हैं। यहां प्रतिसंक्षेप में उनका उपलब्ध परिचय प्रस्तुत है :गुणसुन्दर वृत्तान्त यहाँ कविवर का एक रूपक काव्य है। इसमें राजा श्रेणिक के समय में युवावस्था में दीक्षित एक वेष्ठिपुत्र के गुणों का सुन्दर वर्णन किया गया है। देवागमस्तोत्र का हिन्दी पद्यानुवाद । यह क्रमशः जैन गजट में प्रकाशित हुआ है।५ किन्तु पाज यह मनुपलब्ध है। नियमसार का पद्यानुवाद यह भी क्रमश: जैन गजट में प्रकाशित हुमा है, किन्तु प्राज यह अनुपलब्ध है। प्रष्टपार का पद्यानुवाद यह क्रमशः 'श्रेयोमार्ग' में प्रकाशित हुमा है, किन्तु प्राज यह भी अनुपलब्ध है। ... श्रीज्ञानसागर की उपर्युक्त सभी रचनामों को देखने से स्पष्ट हो जाता है कि उनमें संस्कृत भाषा में साहित्य रचने की जितनी क्षमता है, सरल हिन्दी भाषा में भी रचना करने में यह उतनी ही क्षमता रखते हैं। उन्होंने अपने अषक परिश्रम से जैन-दर्शन एवं साहित्य में प्रपूर्व पति की है। १. इस अन्य को बाबू विश्वम्भरदास जैन, हिसार ने, सन् १९४७ में प्रकाशित कराया है। २. यह ग्रन्थ दिगम्बर जैन समाज, मजमेर से सन् १९६६ ई. में प्रकाशित हमा है। ३. पं० होरालाल सिदान्तशास्त्री, बाहुबली सन्देश, पृ० सं० १३-१४ दयोदयचम्पू, प्रस्तावना, पृ० सं० प । ५. वही, - वही, वही, पृ० सं०६। वही, वही, वही। ७. वही. बही, वही, वही । 4S ** वही, Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय परिशिष्ट महाकवि ज्ञानसागर की सूक्तियाँ अपनी बात को प्रभावपूर्ण बनाने के लिए वाग्विदग्ध व्यक्ति बीच-बीच में कुछ ऐसे वाक्य कह देता है, जिनका श्रोता पर विशेष प्रभाव पड़ता है, वह इनसे बहार को शिक्षा ग्रहण करता है मोर इन्हें याद रखता है। काव्य के 'कान्तासम्मितोपदेश' रूप प्रयोजन के लिए भी इन सूक्तियों का विशिष्ट महत्त्व है। प्रत कवि भी यथास्थान अपने काव्यों में इनका प्रयोग करता है । प्रस्मदालोच्य महाकवि बीज्ञानसावर ने भी अपने सभी संस्कृत काव्य ग्रन्थों में इनका प्रयोग स्थानस्थान पर किया है । इनके भाव-कौशल का परिचय देने वाली सूक्तियाँ निम्नलिखित हैं : : क्र०सं० सूक्ति १. प्रगदेनंब निरेति रोग: २. अनेक शक्त्यात्मकवस्तु तत्त्वम् । ३. प्रन्यस्य दोषे स्विदवाग्विसर्गः । ४. प्रक्रियाकारितयास्तु वस्तु । ५. प्रसुहताविव दीपशिखास्वरं शलभ प्रानिपतत्यप सम्वरम् ६. ग्रहो जगत्यां सुकृतं कखन्त ते रभीष्टसिद्धिः स्वयमेव जायते । ग्रन्थनाम वोरोदम वीरोदय बोरोदय वीरोदय जयोदय जयोदय जयोदय सुदर्शनोदय बीरोदय ७. ग्रहो दुरन्ता भवसम्भवाऽवनिः । ८. ग्रहो दुराराध्य इयान् परो जनः । C. ग्रहो मरीमति किलाकलत्रः । १०. महो मायाविनां माया मा यात् सुखतः स्फुटम् । जयोदय ११. अहो सज्जन समायोगो हि जनतामापदुदर्ता | जयोदय १२. प्राचार एवाभ्युदयप्रदेश: । वीरोदय १३. प्रात्मा यथा स्वस्थ तथा परस्य । वीरोदय १४. इन्द्रियाणि विजित्यंव जगज्जेत्त्वमाप्नुयात् । वीरोदय बोरोदम १५. इन्द्रियाणां तु यो दासः स दासो जगतां भवेत् । १६. उच्चासितोऽर्काय रजः समूहः पतेच्छिरस्येव... । वीरोदय लोकसंख्या ५।३१ १६८ १८३८ १.६८ २५/२५ २३०३६ २३।१६ ११४२ ६।३५ ७४ २३४४ ७२४ ७/६ ८।३७ ६।३७ १६/५ Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७. उन्मार्गगामी निपतेदनच्छे । १८. उपद्रुतोऽप्येष तरू रसालं फलं श्रपत्यङ्गभुते त्रिकालम् । १६. उररीक्रियते न कि विकाय कलिकाम्रस्य शुचिस्तु सम्प्रदायः ? २०. ऋते तमः स्यात्वव रवेः प्रभाव: ? २१. ऋद्धि वा रजनीव गच्छति वनी । २२. कदा हरेत्प्रार्थयतः पिपासां स चातकस्याम्बुद इत्थमाशा । २३. करोत्यनूढा. स्मयकौतुकं नः । २४. कर्त्तव्यमञ्चेत् सततं प्रसन्नः । २५. कर्पूरखण्डादिषु सत्सु सोऽरमश्नात्महो वह्निकरणांश्चकोर: । २६. कर्त्रे स्वयं कर्म फलेदिहातः समस्ति गर्ते खनकस्य पातः । २७. कलिनु वर्षावसरोऽयमस्तु । २८. कस्मं भवेत्कः सुखदुःखकर्ता स्वकमंतोऽङ्गीपरिपाकभर्ता । २६. का गतिनिशि हि दीपकं विना ? ३०. कि कर्दतन्मया बोधि कोडशो मयि वीरता ? ३१. कि मल्लिमाला बघते कुशेण ? ३२. किन्तु सम्भालनीयानां सम्भालनन्तु कर्त्तव्य मस्ति । ३३. किन्नाम मूल्यं बलविक्रमस्य ? ३४. किन्नु खलु शगालोऽपि पञ्चाननतनयाया भर्त्ता भवितुमर्हतीति ? ३५. किन्तु काकगतमप्युपाश्रमत्यत्र हंसवत् कुचिताशयः ? ३६. किमु बीजव्यभिचारि म कुर: ? ३७. किमु सम्भवतान्मोदो मोदके परभक्षिते ?. ३८. किलापत्काले मर्यादा नास्तीति । ३९. कूपके च रसकोऽप्युपेक्ष्यते ? ४०. कृतज्ञतां ते खलु निर्वहन्तितमाम सम्योप्यमलास्तु सन्ति । वीरोदय वीरोदय जयोदय वीरोदय वीरोदय जयोदय सुदर्शनोदय वीरोदय जयोदय दयोदय वीरोदय वोरोदय जयोदय वीरोदय जयोदय दयोदय वीरोदय दयोदय जयोदय सुदर्शनोदय वीरोदय दयोदय जयोदय. जयोदय १८४२ १।१२ १२/२६ १११८ ६।३७ १९३८ २।२१ ३७/१० १६।३६ 218 ४/६ १६।१० २१६२ १०/२८ २०/३५ २० सं० १६. १८।४ ३० सं० ५२ २६ ३५ ८१ २० ० सं० १९ २०१६ १५/३ Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि मानसावर को सूक्तियां ४१. कृतिना स्वेष्टसम्पत्तये समुपायः कर्तव्य एव । दयोदय प० सं०५५ ४२. को नाम बाञ्छन्च निशाचरत्वम् ? बोरोदय . १३६ ४३. कोषकवाम्बामनुसन्दधाना वेश्यापि भाषेव कवीश्वराणाम् । वीरोदय २१४४ ४. स्व निलयोऽनिलयोग्यविहारिणः किमयं नाम समविचारिणः ?। जयोदय ४५. समितोत्तमाङ्ग एव करकोपनिपातः सम्भाव्यते । दयोदय शप० सं० १०३ ४६. बलु दोषगणोऽपि गुणो हि भवेनिरतायसमष्टि . बनस्य भवे। जयोदय . २३॥३२ ४७. गतं न शोच्यं विदुषा समस्तु गन्तव्यमेवाअयणीयवस्तु । बोरोदय १४१३४ ४८. गायक एव जानाति रागोऽत्रायं भवेदिति ।। वीरोदय १२॥२ ४६. गावस्तणमिवारण्येमिसरन्ति नवं नवम् । जयोदय २।१४६ ५०. गुणभूमिहं भवेदिनीतता। बोरोदय ७५ ५१. गुणं बनस्वानुभवन्ति सन्तः । वीरोदय १।१४ ५२. गुणिसम्प्रयोगतः गुणी भवेदेव जनोऽवनावितः । श्रीसमुद्रदत्त ८।१० r २४॥९८ ६।१२ १४१४. Tr. . ५३. गृहच्छिदं परीक्ष्यताम् । मशनोदय ५४. चिन्तामरिण प्राप्य नरः कृतार्थः किमेष न स्याद्विदिताखिला:? जयोदय ५५. चिन्तारत्नं समुत्क्षिप्तं काकोड्डायनहेतवे। दयोदय ५६. बलेजिनीपत्रवदा भिन्न: सर्वत्र स ब्राह्मणसम्पदङ्गः। वीरोदय ५७. जित्वाऽक्षाणि समावसेदिह जगज्जेता स मात्मप्रियः। . . वीरोदय ५८. मझानिलोऽपि कि तावत् कम्पयेन्मेरुपर्वतम् ? वीरोदय : ५६. तथापि यस्याभिरुचियंतो भवेन्निवार्यते कि खलु .. सा जवंजवे? श्रीसमुद्रदत्तचरित ६९. तपति भूमितले तपने तमः परिहती किमु दोप- , .. परिषमः ? ११. तावदूषरटके किलाफले का प्रसक्तिरुदिता निरखते। जयोदय १२. विन्स वापारपरः सदाऽयंः। . . सुदर्शनोदय . ११. तुल्यावस्थान सर्वपाम् । वीरोदय १६।२७ १॥३६ ४७ _जयोदय . २५ २५ ६. १७४३. Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ ६४. देवं निहत्य यो विजयते तस्यात्र संहारकः कः स्थात ? | महाकवि ज्ञानसागर के काव्य - एक प्रध्ययन ६५. दोषानुरक्तस्यः खलस्य चेश, काकारिलोकस्य च को विशेष: ? । ६६. दौजंग्यं यदन्येषां पथप्रस्थायिनामपि किलापकरणम् । ६७. धर्मानुकूला जगतोऽस्तु नीतिः । ६८. धर्माम्बुवाहाय न कः सपक्षी ? ६९. धान्यमस्ति न विना तृणोत्करम् । ७०. घीमतां... घिया किमसाध्यम् ? ७१. न काचिदन्या प्रतिभाति भिक्षा । ७२. न कोऽपि कस्यापि बभूव वश्यः । ७३. नानुवर्तिनि वो प्रतियाते दीपके मतिरुदेति विभाते । ७८. नित्यं विभावमयदोषविशोधनाय परुहस्य पुरतः शशिनोऽभ्युपायः । ७६. निम्बादयश्चन्दनतां लभन्ते श्रीचन्दनद्रोः प्रभवन्तु अन्ते । ८०. निर्गतेऽवसरे पश्चात् कुतश्च न भवेदतः ? ८१. निहन्यते यो हि परस्य हन्ता । ८२. नीतिरेव हि बलाबलीयसी । वीरोदय जयोदय ७४. नाम्बुधौ मकरतोऽरिता हिता । जयोदय ७५. नारों विना कब नरच्छाया निःशाखस्य तरोरिव । वीरोदय I ७६. नार्थस्य दासो यशसश्च भूयात् । वीरोदय ७७. नित्यं यः पुरुषायतामादरवान् वीरोऽसको सम्प्रति । वीरोदय ८३. नंब लोकविपरीतमञ्चितं शुद्धमप्यनुमतिहीशितुः । ८४. पतिव्रतानां खलु सम्पदापदं निषेवते याति तथापदाऽऽपदम् । ८५. परस्य शोषाय कृतप्रयत्नं काकप्रहाराय ययंव रत्नम् । ८६. परस्यापात एव स्याद्दिगान्ध्यमिति गच्छतः । वीरोदय दयोदय वीरोदय सुदर्शनोदय जयोदय जयोदय वीरोदय वीरोदय जयोदय वोरोदय दयोदय वीरोदय जयोदय जयोदय जयोदय वीरोदय वोरोदय १०२० १।२० ६ पृ० सं०१२१ २२०४२ ४|१७ २।३ ४|३३ ५।४ ११३८ ५।२३ २।७० ८।२४ १८३।७ २२/३३ २०।१० १४/४५ ४|१७ १६।७ ७/८० २।१५ २०/६५ १४५३३ ८।१५ Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर की सूक्तियाँ ८७. पराधिकारे त्वयनं यथाऽपन्निजाधिकाराच् च्यवनं च पापम् । ८८. प्रयोजनाधीनक वन्दतस्तु विलोकते क्वापि जनो न वस्तु । ८६. पातास्तु पूज्यो जगतां समस्तु । ६०. पापप्रवृत्तिः खलु गर्हणीया । ६. पापाद घृणा किन्तु न पापवर्गाद् । ६२. पापादपेतं विदधीत चित्तम् । ६३. पापं विमुच्यंव भवेत्पुनीतः स्वर्णं च किटि याति । ६७. पीडा ममान्यस्य तथेति । ६८. पीतं मूलेन पानीयं फले व्यक्ती भवत्यहो । ६६. पीयूषं नहि शेषं पिवन्नेव सुखायते । १०० फलतीष्ट सतां रुचिः । प्रतिपाति होतः । वीरोदय ४. प्रायः प्राग्भवभाविन्यो प्रीत्यप्रीती च देहिनाम् । सुदर्शनोदय ६५. प्रायोऽस्मिन् भूतले पुंसो बन्धनं स्त्रीनिबन्धनम् । वोरोदय ९६. विलिनिमूलतातिथेष्टदेशं शिशुकोऽपि १०१ बलीयसी संगतिरेव जाते । १०२. भवति दीपकतोऽञ्जनवत्कृतिनं नियमा खलु कार्यपद्धतिः । १०३. भाले विशाले दुरितान्तकाले भवन्ति भावा रमिणां रमासु । १०४. मतिविभिन्ना प्रतिदेहि जायते तथा गतिस्तस्य किलातां मते । १०५. मनस्वी मनसि स्वीये न सहायमपेक्षते १०६. मनुष्यता ह्यात्महितानुवृत्तिनं केवलं स्वस्य सुखे प्रवृत्तिः । १०७. महात्मनामप्यनुशिष्यते धृतिरहो नयावद्विनिरेति वीरोदय जयोदय बीरोदय संसृतिः । १०८. मितो हि भूयादमवोऽपि सेम्य: । १०६. मुञ्चे दहन्तां परतां समञ्चेत् । ११० मुहुरहो स्वदते ज्वलिताघरः स्विदभिलाषवरो मरिचीं नरः । वीरोदय वीरोदय वीरोदय वीरोदय दयोदय दयोदय सुदर्शनोदय वीरोदय जयोदय जयोदय श्रीसमुद्रदत्त चरित्र वीरोदय वीरोदय जयोदय वीरोदय वोरोदय जयोदय ४५३ ४१७ २७१५२ १६।७ १४।२२ १७८७ १७।२३ १७।७ ४।१६ ८।३० ४|५ १४/३७ ५।१४ १।२५ ३१४३ २११४ हा८१ २११८८ ४|५ १०/३७ १७/६ २३।३६ ાજ १८/३८ २५।२४ Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • महाकवि ज्ञानसागर के काव्य- एक अध्ययन १११. मूर्ध्ना न वाह्यते भूमी वहनीयं किमिन्धनम् ? दयोदय ११२. मूलं विना स्कन्ध उत च्छदावा भित्तिस्तदस्याश्च परिच्छदा था । ११३. मूलोच्छेदं विना वृक्षः पुनर्भवितुमर्हति । ११४. मूल्यं मरणेः सम्मणिमारणवो हि कुर्यात्कृतो दारु भरावरोही । ११५. मङ्गलकर्मणि दीर्थ सूत्रता... नोबिता...। ११६. यव पतितं मुशलं तत्रेव क्षेमं कुशलं च । ११७. यदङ्कुरोत्पादन कृद्घनागमः फलत्यहो तच्च शरत्समागमः । ११०. वह्निः कि शान्तिमायाति क्षिप्यमाणेन दारुणा ? सरोजलम् । १२२. विपत्सु सम्पत्स्विव तुल्यतेवमहो तटस्था महत देव । दयोदय जयोंदय सुदर्शनोदय ११. वामां गतिहि वामानां को नामावेषु तामित: ? जयोदय १२०. वाविन्दुरेति खलु शुक्तिषु मौक्तिकत्वम् । १२१. वार्षिकं जलमपीह निर्मलं कथ्यते किल जर्न: सुदर्शनोदय जयोदय १२३. विवेचनायाह न नीतिमानिति, ददाति वक्तु ं प्रतिवादिने स्थितिम् । १२४ बेलातिगानन्दपयोधिवृद्धिर्लोकस्य मो कस्य पुन: जयोदय वीरोदय समृद्धिः । १२५. रमणीरमरणीयत्वं पतिर्जानाति नो पिता । १२६ रसोदयाकाङ्क्षि मनो मनस्विनाम् । १२७. रसोऽगदः स्रगिव पारदेन । जयोदय १३०. लोहोपपाश्वं षदाऽञ्चति हेमसत्यम् । १३१. शक्यमेव सकलेविधोयते को नु नागमणिमा प्तुमुद्यतेत् ? १३२. शपति क्षुद्रजन्मानो व्यर्थमेव विरोधकान् । सत्याग्रहप्रभावेण महात्मा त्वनुकूलयेत् ॥ १३३. शिरसि सन्निहितांश्छगलो बलादपि घुतोऽस्ति मुदा यवतन्दुमान् । दयोदय जयोदय जयोदय जयोदय जयोदय बोरोदय १२८. वाच्छा वन्ध्या सतां नहि । वीरोदय १२६. विभेति मरणाद्दीनो न दोनोऽयामृत स्थितिः । बीरोदय सुदर्शनोदय जयोदय वीरोदय ३।७ जयोदय १६/३८ १३/३६ १९६४ ४|० सं० ८३ ४० सं० १९ २३।३८ ey २।१५२ ४ ३० श्रीसमुद्रदत्तचरित्र ४|१ २३३ १५/२ ११।६३ २८/८३ २४६८ १४।४४ चार १०।३१ ४|३० २।१६ १०।३४ २५।३६ Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर की सूक्तियाँ १३४. श्रोत्रवद्विरलो लोके बहिः छिद्रं प्रकाशयन् । शृणोति सुखतोऽन्येषामुचितानुचितं वचः || १३५. सत्सम्प्रयोगवशतोऽङ्गवतां महत्त्वम् । १३६. सञ्चरेदेव सर्वत्र विहायोच्चयमीरणः ॥ १३७. सत्यानुयायिना तस्मात्संग्राह्यस्त्याग एव हि । १३८. समस्तु पितृननुबालचारः । १३६. सम्पतति शिरस्येव सूर्यायोच्चालितं रजः । १४०. समुच्छ्रिताशेषपरिच्छदोऽपि प्रमुत्र सिद्ध्ये दुरितकलोपी । १४१. समन्ततोधिष्ण्य कुलाकुला वा ज्योतिष्मती रात्रिरुतेन्दुभावात् । १४२. सहेत विद्वानपदे कृतो रतः । बीरोदय सुदर्शनोदय सहेरन् । १५१. स्वातन्त्र्येण हि को रत्नं त्यक्त्वा काच समेष्यति ? १०1८ ४/३० १०।११ १३/३६ श्रीसमुद्रदत्तचरित्र १।१२ सुदर्शनोदय |३६ बोरोदय जयोदय जयोदय वीरोदय वीरोदय वीरोदय १४३. सुतमात्र एव सुखदस्तीर्थेश्वरे किम्पुनः ? १४४. सुगन्धयुक्तापि सुवर्णमूर्तिः । १४५. सूच्या न कार्यं खलु कर्तरीतः । १४६. सूर्योदये का खलु चोरभीतिः ? १४७. स्वप्नवृन्दमफलं न जायते । १४८. स्वस्थितं नाञ्जनं वेत्ति वीक्ष्यतेऽन्यस्य लाञ्छनम् चक्षुर्यथा तथा लोकः परदोषपरीक्षकः ॥ १४६. स्वार्थाच्च्युतिः स्वस्य विनाशनाय । १५०. स्वभावतो ये कठिनाः सहेरन् कुतः परस्याभ्युदयं सुदर्शनोदय वोरोदय जयोदय वीरोदय वोरोदय वोदय सुदर्शनोदय जयोदय १५२. स्खलत्यलं चेदुषघाततस्तु तदत्र किन्ते खलु दोषवस्तु । जयोदय १५३. स्वता कुतः स्यात्परतामुतर्ते गतस्य कर्त्ता. विपतेद्धि गर्ते । जयोदय १५४. हिंसा सदूषयति हिन्दूरियं निरुक्तिः । वोरोदय १५५. हृषीकारिण समस्तानि माद्यन्ति प्रमदाश्रयात् । वोरोदय ४५५ १८/४० १।३५ २१४२ ४६२ १।३५ १७।३ १६।११० ४/६१ १०/७ १७।११ २।४४ ७१५ २६।३२ १६७४ २२।१३ ८।३१ Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिशिष्ट महाकवि ज्ञानसागर की अन्यकृत प्रशस्तियाँ थे ज्ञानसागर गुरु, मम प्राण प्यारे थे पूज्य साधु गण से, बुध मुख्य न्यारे । शास्त्रानुसार चलते, मुझको चलाते वन्दू उन्हें बिनय से शिर को झुकाते ।। ___-'स्मारिका' (Souvenir) में प्राचार्य श्रीविद्यासागर । गुरो ! दल-दल में मैं था फंसा, मोह पाश से हुआ था कसा । बंध छुड़ाया दिया प्राधार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ॥१॥ पाप पंक से पूर्ण लिप्त था, मोह नींद में सुचिर सुप्त था। तुमने जगाया किया उपचार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ॥२॥ मापने किया महान् उपकार, पहनाया मुझे रतनत्रयहार । हुए साकार मम सब विचार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ॥३॥ मैंने कुछ न को तव सेवा, पर तुमसे मिला मिष्ट मेवा । यह गुरुवर की गरिमा अपार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ॥४॥ निज धाम मिला, विश्राम मिला, सब मिला उर समंकित पद्म खिला। परे ! गुरुवर का वर उपकार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ॥५॥ अंष था, बहिर पा, था मैं अज्ञ, दिए नयन व करण बनाया विज्ञ । समझाया मुझको समयसार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ॥६॥ मोह मल धुला, शिव द्वार खुला, पिलाया निजामृत घुला, घुला। कितना था गुरुवर उर उदार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ॥७॥ प्रवृत्ति का परिपाक संसार, नियति नित्य सुख का भंडार । कितना मौलिक प्रवचन तुम्हार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ॥८॥ रवि से बढ़कर है काम किया, जनगण को बोध प्रकाश दिया। चिर ऋणी रहेगा यह संसार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार || स्व पर हित तम लिखते ग्रन्थ, प्राचार्य उपाय थे निग्रंन्य। तुम सा मुझे बनाया पनवार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ॥१०॥ Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर की सूक्तियाँ ૪૦ इन्द्रिय दमन कर, कषाय शमरण, करत, निशदिन निज में ही रमरण । क्षमा था तब सुरम्य शृङ्गार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ॥११॥ बहु कष्ट सहे, समन्वयी रहे, पक्षपात से नित दूर रहे | चूंकि तुममें या साम्य संचार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ॥ १२ ॥ मुनि गावे तव गुरण-गरण - गाथा, झुके तव पाद में मम माथा । चलते चलाते समयानुसार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार || १३|| -- , तुम ये द्वादशविध तप तपते, पल-पल जिनप नाम-जप जपते । किया धर्म का प्रसार-प्रचार, मन प्रणाम तुम करो स्वीकार ॥१४॥ दुर्लभ से मिली यह 'ज्ञान' सुधा, विद्या' पी इसे मत खो मुधा । कहते यों गुरुबर यही 'सार', मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ॥। १५ ।। व्यक्तित्व की सत्ता मिटा दी, उसे महासत्ता में मिला दी । क्यों न हो प्रभु से साक्षात्कार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ॥ १६ ॥ करके शिक्षा दी सल्लेखना, शब्दों में हो न उल्लेखना । सुर नर कर रहे जय-जयकार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ॥ १७॥ प्राधि नहीं थी, थी नहीं व्याधि, जब श्रापने ली परम समाधि । अब तुम्हें क्यों न वरे शिवनार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ॥ १८ ॥ मेरी भी हो इसविध समाधि, शेष, तोष नशे, दोष उपाधि । मम आधार सहज समयसार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ॥६॥ जय हो ! ज्ञानसागर ऋषिराज, तुमने मुझे सफल बनाया भाज | मौर इक बार करो उपकार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ॥२०॥ - स्मारिका में पृ० सं० ५२-५३ पर प्राचार्य श्रीविद्यासागर | ३. श्रीलाल जी वैद्य ने महाकवि ज्ञानसागर को लौकिक पुरुष न मानकर, संतापहारी देव के रूप में स्वीकार किया है। उन्होंने सनातनधर्मियों के ही समान महाकवि के षोडशोपचारकल्प पूजन का विधान किया है। साथ ही उनके पूजन के लिए उन्होंने भजनों की भी रचना की हैं। क्रमशः पूजनविधि एवं भजन प्रस्तुत 爱 दोऊ कर जोरु हाथ स्वामी, चरण नवाऊ माथ । तिष्ठ तिष्ठ तिष्ठ, नाथ ॥ • हृदय वास करो, दीन दुखी दुखयारा, तुम विन फिरता मारा-मारा, यासे लीना नाथ सहारा, दु:ख का नाश करो । स्वामी कर्म बड़े बलदाई, इनने दुर्गति अधिक बनाई, इनसे पार न मेरी जाई, इनका नाश करो ॥ ऐसी घोट पिलाई बूटी, सारी ज्ञान निधि मम लूटी, जसे हृदय की भी फूटी, घर प्रकाश करो ॥ Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ YE ॐ ह्रीं श्री मुनिराज ज्ञानसागर प्रत्र भवतर सं बीषट् । ॐ ह्रीं श्री मुनिराज ज्ञानसागर प्रत्र तिष्ठ तिष्ठ तिष्ठ । ॐ ह्रीं श्री मुनिराज ज्ञानसागर मत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । X X X ॐ ह्रीं भी मुनिज्ञानसागर जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय जलं निवेदयामि स्वाहा । ४. महाकवि शामसागर के काव्य - एक अध्ययन X ॐ ह्रीं श्री मुनिज्ञानसागर भवतापविनाशाय चन्दनं निवेदयामि स्वाहा । X X X ॐ ह्रीं श्री मुनिज्ञानसागर प्रक्षयपदप्राप्तये प्रक्षतं निवेदयामि स्वाहा । X X ॐ ह्रीं भी मुनिज्ञानसागर कामवाणविध्वंसनाय पुष्पं निवेदयामि स्वाहा । + + + ॐ ह्रीं श्री मुनिज्ञानसागरक्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निवेदयामि स्वाहा । + + + ॐ ह्रीं श्री मुनिज्ञानसागर मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निवेदयामि स्वाहा । + + + ॐ ह्रीं श्री मुनिज्ञानसागर भ्रष्टकर्मदहनाय धूपं निवेदयामि स्वाहा । + + + ॐ ह्रीं श्री मुनिज्ञानसागर मोक्षफलप्राप्तये फलं निवेदयामि स्वाहा । + + + ॐ ह्रीं श्री मुनिज्ञानसागर प्रनष्यंपदप्राप्तये प्रथं निवेदयामि स्वाहा । X X - श्रीलाल जैन, वेद्य, हिस्सार, 'मुनिपूजन', पू० सं० ३-५ जिन्हों का दर्श करने को सभी प्राणो तरसते हैं । हर्षते नाम सुन-सुन कर वही ये ज्ञानसागर हैं ॥ जगाते पामरों को भी बताते सत्य शिव मारग । मिटाते फूट प्रापस की, बही ये ज्ञानसागर हैं । नहीं है प्रेम भक्तों से, नहीं है द्वेष द्रोही से । ष्टि है एक सी सब पर, वही ये ज्ञानसागर हैं । सोम्य मुस्कान सूरत है, सरब मृदु बन बोले हैं। कपट प्रभिमान नहीं जिनके, वही ये ज्ञानसागर हैं ।। नहीं घटवी भयानक है, नहीं मरघट डरावन हैं । नहीं अहि व्याघ्र की शङ्का, वही यह शानसागर हैं ॥ Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर की सूक्तियाँ ५. मनेकों भव्य जीवों को; लगाया सत्य मारग पर । या मागं शान्ति का, वही ये ज्ञानसागर हैं । सहें हिम धूप की बाधा, न हर तूफान वर्षा का । अकम्पन प्रात्मा जिनकी, वही ये ज्ञानसागर है ।। श्रेष्ठ प्रादशं साबु हैं, मचल चारित्र है इनका । भावमार्गानुगामी पो, वही मे ज्ञानसागर हैं । परीक्षा की कसोटी परं, साधुपन को परल करके । सभी ने सर नमाया है, वही ये ज्ञानसागर हैं !! - श्रीलाल जैन बंध, हिसार ( पंजाब ), मुबि - पूजन मुखपृष्ठ के भीतरो भाग पर । धन्य मुनिराज ज्ञानसागर जी, शक्ति नहीं गुणवर्णन की । मैं दुखिया संसारी है, नाव में मायाचारी हूँ । बिगड़ी दशा मेरे जीवन की शक्ति नहीं गुणवर्णन की ॥ पंच महाव्रत धारी हो, करो तपस्या भारी हो । ममता नहीं है कुछ तन की, शक्ति नहीं गुरणवर्णन की ।। तुम प्रभु पर हितकारी हो, जग-जन के उपकारी हो । फांसी तोड़ी कर्मन की, शक्ति नहीं गुणवर्णन की ॥ प्रभु तुम दर्श दिखा देना, ज्ञान सुधा बरसा देना । ૪ · मुझे चाह नहीं है, कुछ मन की शक्ति नहीं गुरणवर्णन की ।। तुम शिव श्रानन्दकारी हो, शिवपुर के अधिकारी हो । शरण लही तुम चरणन की, शक्ति नहीं गुरण-वर्णन की ।। - श्रीलाल जैन, मुनिपूजन, भजन संख्या, पृ० सं०८ मुनीश्वर ज्ञानसागर का लगा दरबार भारी है । तजे हैं मात सुत भाई, तजा है राज वैभव को ॥ त्याग कर वस्त्र प्राभूषरण, दिगम्बर मुद्राधारी है ॥ मुनि || लगाकर प्रचल प्रासन को, धरा है ध्यान प्रातम का । करा है लोंच केसों का, कमण्डल पोछी धारी है ॥ मुनि०|| गमन करें ईर्ष्या समिति से निरल करके प्रभु भूमि को । करें सब जीव की रक्षा दया हृदय में धारी है ॥ मुनि० ॥ धर्म के भूप तुम प्रभु हो, ये सब प्रजा तुम्हारी है । ज्ञान की जगाकर जोती, धर्म की वर्षा करते हैं । मुनि० ॥ यहाँ संयम दान बंटता है, बड़े लाखों भिखारी हैं । धर्म प्रचार होता है, प्रभु की वाणी सुन-सुन के || यह जय जयकार होती है, यह सब महिमा तुम्हारो है ॥ मुनि० ॥ - श्रीलालजन, 'मुनिपूजन', भजन संख्या ६, पृ० सं० १२ Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. महाकवि ज्ञानसागर के काम्य-एक अध्ययन गुरु ज्ञान के सागर में हम गोते लगायेगे. लूटेंगे मोती ज्ञान के जग को लुटायेंगे ।। पा जायें इनकी भावना के संग-संग हम, मन का धोकर के मैल हम निमंल बनायेंगे। · लूटेंगे मोती............॥१॥ ऐसी जो पुण्य प्रात्मा से प्रीत करके हम, गुरुवर के पद पे चलके ही जीवन बितायेंगे। लूटेंगे मोती............॥२॥ मिट्टी की देह को मापने कंचन बना लिया, श्रद्धा के फूल चरणों में हम तो चढ़ायेंगे। लूटेंगे मोती............॥३॥ यही है सच्चा मार्ग जिसपे चल दिखा दिया, कुछ पा दिखा दिया, उर ला सन्देश तुम्हारा, जग को भी सुनायेंगे, लूटेंगे मोती..... .......॥४॥ मरना तो है इक दिन हमें, कुछ करके ही मरें, ऐसे अवसर को अब ना हम यहीं गवायेंगे, लूटेंगे मोती.............॥५॥ - श्रीमोतीलाम पंवार, 'बाहुबली सन्देश', पृ. सं० ११ ६. फूल भावना के लेकर के, प्राज गुरु मैं अपण करता। श्रवा से नत मस्तक होकर, ज्ञानसिन्धु को वन्दन करता ॥१॥ तुम थे गौरव जैन धर्म के. करुणा की मूरत साकार। विश्व धर्म ही इसे बताते. सत्य अहिंसा जिस प्राधार ॥२॥ राजस्थान ग्राम राणोली, तबली देवी के थे नन्द । साल चतुर्भुव गोत्र छाबड़ा, किया समुज्ज्वल बनकर चन्द ।।३।। जल में भिन्न कमलवत् रहकर, घर में किया पठन-पाठन । बाल ब्रह्मचारी रह कीना, उदासीन जीवन यापन ॥४॥ गृह तज सूरि वीरसिंधु संघ, साषु वर्ग अध्ययन करा। क्षुल्लक ऐनक क्रम से बनकर, मनि वनने का भाव भरा ॥५॥ संवत् दो हजार सोलह में, जयपुर नगर खानियां मांय । शिवाचार्य से दीक्षा लेकर, ज्ञानसिंधु मुनिराज कहाय ॥६॥ प्रमणशील रह नगरों गावों, मातम हित उपदेश दिया। शामसाधना तपश्चरण कर, मनेकान्त को पुष्ट किया ॥७॥ Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर को सूक्तियां हिन्दी संस्कृत प्राकृत के थे, प्राज गुरु उद्भट विद्वान् । स्विष्ट विषय धार्मिक प्राध्यात्मिक, सरल बता करवाते भान ॥८॥ अनुपम ग्रन्यों की रचनाकर, कोना पाप परम उपकार । भाषा सरल बनाकर कोनी, टीका समयसार तैय्यार || प्रमुख ग्रन्थ में से हैं कतिपय, सहशंनोदय' अरु 'भद्रोदय' । 'वीरोदय' 'विवेक' 'जयोदय'. 'शतकसारसम्यक्त्व' 'दयोदय' ॥१०॥ जैन समाज संघ एकत्रित, पद प्राचार्य नसीराबाद । दो हवार पच्चीस की संवत्, दिया हर्ष से कर जयनाद ॥११॥ कर कल्याण समाज आपने, दीने फिर अनुपम नररत्न । रहे प्रज्वलित ज्ञान ज्योति जो, कर शिक्षा दीक्षा सम्पन्न ॥१२॥ परम शिष्य मुनि विद्यासागर, ऐलक 'सन्मति' मुनि 'विवेक'। क्षुल्लक संभव' 'विनय'रु सुख थे, है 'स्वरूप' लाखों में एक ॥१३॥ नश्वर देह क्षीणता लखकर, कर दीना फिर पद परित्याग । 'मुनि विवा' प्राचार्य बनाकर, व्रत सल्लेखन पप पग माग ॥१४॥ दो हजार मरु तीस की संवत्, मृत्यु को करके माह्वान । कृष्ण ज्येष्ठ प्रमावस के दिन, स्वर्ग लोक को किया प्रयाण ॥१६॥ धन्य-धन्य ऐसे योगीश्वर, बसें सदा ही 'प्रभु' मन धाम । स्वर्ग जाय जो बढ़कर आगे, करेंगे सिदशिला विश्राम ॥१७॥ -श्री प्रभुदयाल जैन, 'बाहुबली सन्देश', ० सं० १५-१६ 8. निग्रंपमपि समन्यं सतञ्चापि विश्रुतम् । ज्ञानसागरनामानमाचावं बिनमाम्यहम् ।।' -पन्नालाल साहित्याचार्य, बाहुबली सन्देश, पृ० सं० १७ १०. "प्रा० शानसागर जी महाराज यथानाम तथा गुण तपस्वी थे । वे प्रथम विद्यान्वेषी समाराधक थे, बाद में निर्ग्रन्थ रूपधारी माचारवान् ।" ---'स्मारिका' (souvenir) में श्री हेमचन्द्र जैन । ११. “परमपूज्य चरित्र चक्रवर्ती श्री १०८ श्री ज्ञानसागर जी महाराज पनुपम ज्ञाननिधि तथा चरित्रनिष्ठ तपस्वी साधुराजये। उनकी शानगरिमा दिव्य थी। अनेक ग्रन्थों के समर्ष रचयिता पुज्य पाचार्य श्री निस्सन्देह ज्ञानसागर थे।' -'बाहुबली संदेश में श्रीमागचन्द सोनी। Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ महाकवि भानसागर के काम्प-एक अध्ययन १२. दिवंगत प्राचार्य श्री यथानाम तवानुरूप मान के प्रागार तवा पात्मशक्ति के पुंज थे।' .. -बाहुबली सन्देश' में श्री चांदमल सरावनी पाया । १३. 'परमपूज्य बासब्रह्मचारी बारिमविभूषण ज्ञानमूत्ति वयोवड १०८ प्राचार्य श्री ज्ञानसागर पी महाराज समाज की एक निधिबी।' -श्री स्वरूपचन्द कासलीवाल, 'बाहुबली सन्देश' १० सं० २१ १४..........वे जैन संस्कृति के ही रक्षक नहीं थे, बल्कि भारत की प्रार्य संस्कृति के भी पूर्ण रक्षक थे। समन्वय नीति को सामने रखते हुए मापने उदारतापूर्वक रष्टिकोण से जन धर्म की विशेषताएं सिद्ध की है। ब्रह्मचारी पं० विवाकुमार सेठी, बाहुबली सन्देश, पृ० सं० १५ Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम परिशिष्ट सन्दर्भ ग्रन्थ सूची संस्कृत पन्य १. मादिपुराण, भाग-१, प्राचार्य जिनसेन, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन वाराणसो, वि० सं० १९६३।। २. प्रादिपुराण, भाग-२, पाचार्य जिनसेन, भारतीय मानपीठ प्रकाशन, वाराणसी वि० सं० १९६५। . ३. पाराषना कयाकोश, ब्रह्मचारी श्री नेमिदत्त, नेमीचन्द वाकलीवान, कमल प्रिंटस, मदनगंज, प्र. सं० १९६२ । ४. उत्तरपुरास, पाचार्य मुणभद्र, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकासन, वाराणसी, दि. सं. १९६८। . . .. ......... 5. मौचित्यविचारचर्चा; क्षेमेन्द्र, पोलम्बा प्रकाशन, वाराणसी, प्र. सं. १९६८ ६. कवारत्नाकर, हेमविजयगणि, जनजन्यमाला, अहमदाबाद, प्र. सं. १९४० ७. कामसूत्र, वात्स्यायन, चौखम्ना संस्कृत संस्थान, वाराणसी तृतीय सं०, सन् १९८२। . . ८. काम्बादर्श, दण्डो, भण्डारकर इनस्टोट्युट, पना, प्र० सं०, सन् १९५८।। . ९. काम्यानुशासन, हेमचन्द्र, निर्णयसागर प्रेस, बम्बई. वि० सं०, सन् १९३४। १०. काव्यमीमांसा, राजशेखर, बिहार राष्ट्र भाषा परिषद्, पटना, प्र० सं०, सनु १९५४ ११. काव्यप्रकार, मम्मट, जानमण्डल, वाराणसी. हि० सं०, सन् १९६.। १२. काव्यानधार, भामह, चौखम्बा प्रकाशन, बाराणसी. प्र. सं., सन् १९२८ । १३. काम्यालार, रुहट, वासुदेव प्रकाशन, दिल्ली, प्र० सं०, सन् १९६५) १४. काव्यामकारसूत्र, वामन, चौखम्बा प्रकाशन, कारागसो, प्र० सं० सम् . १९७१। १५. कामिदास ग्रन्थावली, अनुवादक पं० सीताराम चतुर्वेदी, बी गीप्रसाद वर्मा, ० सं०, सन् १९३२। १६. किरातामुनीय, भारवि, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, बि. सं., सन् Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य-एक अध्ययन १७. कुवलयानन्द, अप्पय दीक्षित, बौखम्बा प्रकाशन, वाराणसी, दि० सं० सन् १९६३ । १८. चन्द्रप्रभचरित, वीरनन्दी,जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर, प्र० सं०, सन्. १९७१। १६. चित्रकाव्यकौतुक, चित्रकवि पण्डित रामरूप पाठक, मोतीलाल बनारसीदास, वाराणसी, प्र० सं०, सन् १९७१।। २०. छन्दोमञ्जरी, गङ्गादास, पोखम्बा प्रकाशन, वाराणसी, १० सं० पन् १९५६ । २१. छन्दःशास्त्र, पिङ्गलाचार्य, निर्णय सागर प्रेस, बम्बई, तृ० सं० सन् १९३८ । २२. छन्दोऽनुशासन, हेमचन्द्र सूरि, निर्णय सागर प्रेस, बम्बई, दि० सं० सन् १९३४। २३. जयोदय, श्रीज्ञानसागर, ब्रह्मचारी सूरजमल, जयपुर, प्र० सं०, सन् १९५० । २४. जैन धर्मामत, संपादक-पं० हीरालाल सिद्धान्तशास्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ · प्रकाशन वाराणसी, द्वि० सं० सन् १९६५ । २५. योदयचम्पू, श्रीज्ञानसागर, प्रकाशचन्द जैन, न्यावर, प्र. सं०, सन् १९६६ । । २६. दशरूपक, धनञ्जय, राजकमल प्रकाशन, प्रा. लि., दिल्ली, वि० सं० सन्. १९७१। २७. ध्वन्यालोक, प्रानन्दवर्धन, ज्ञानमण्डल, वाराणसी, प्र० सं० सन् १९६२ । . २८. नलचम्पू, त्रिविक्रम भट्ट, चौखम्बा प्रकाशन, वाराणसी, प्र० सं० सन् १९३२। २६. नाट्यशास्त्र, भरत मुनि, मोतीलाल बनारसीदास, वाराणसी, प्रथम सं० सन् 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तु.सं. १९५९ ४. बाबमनी, ग. भगीरप मिष, हिन्दी समिति, सूचना विभाग, मसनक, प्र०सं०. सन १९६६ Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य-एक अध्ययन ५. काव्यशास्त्र, डा० भागीरथ मिश्र, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, त. सं०, सन् १९६६ । '. ६. काव्यदर्पण, विद्यावाचस्पति पं० रामदहिन मिश्र, ग्रन्यमाला कार्यालय, पटना. ४ द्वि० सं० सन् १९५१ । ७. जैन विवाह विधि, श्रीज्ञानसागर. दि. जैन समाज, हिसार, प्र० सं० सन् १९४७ । ८. जैन साहित्य और इतिहास, नाथूराम प्रेमी, साहित्यमाला ठाकुर द्वार, बम्बई द्वि० सं० सन् १९५६ । ६. जैन दर्शन और प्राधुनिक विज्ञान, मुनि श्रीनागराज, आत्माराम एण्ड सन्स, दिल्ली, प्र० सं० सन् १९५६ । १०. जैन धर्म, कैलाशचन्द्रशास्त्री, जनसंघ, मथुरा, प्र० सं०, सन् १९४८ ११. जन साहित्य का वहद् इतिहास. भाग-१, वेचरदास दोषी, बी० एच० यू०, वाराणसी, प्र० सं०, सन् १९४८ । । १२. जैन साहित्य का बृन्द इतिहास, भाग-२, डा. जैन तथा डा० मेहता, बी. एच० यू०, वाराणसी, प्र० सं० ।। १३. तत्त्वार्थमूत्र टीका, श्रोशानसागर, दिगम्बर जैन समाज, 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१०५, १०६, १०६, ११२, १४, ११५ मार्यावर्त २७, ५१, २२६, २२७ प्रासनाभिधानवन ४७, २०५, २५० इ इन्द्रपुरी २१०, २३३ उ उज्जयिनी ५२, ७५, १०७, १११, ११२, १४, १५३, १०४, १८६, १८८, १६१, ११४, २२८, २३१, ३६५ उतररामचरित ५६ उदयाचल १५८, २२३, २७४, २८१ उशीरवती ६७ उष्ट्रदेश २२८ ऋ ऋजुकूला नदी ७५, ७६ ऋषभदेवचरित २,६ ऋषभावतार ७ क कञ्चनगिरि ४६, २००, २०४ कटनी ५८ , कटारिया रतनलाल ५७ करणाद १ कपिल १ कर्णाटक २०, २२८ कर्तव्यपथप्रदर्शन ७ कलकत्ता ४ कलिङ्ग २०, ७१, २२८ कल्पवृक्षवन २०५ काञ्ची २०, ३०६ कातन्त्र रूपमामाव्याकरण १५ कात्यायन १ कादम्बरी १६६, २२५ कापिष्ठस्वर्ग ४९, १०० काबुल २० कामसूत्र ३१२ कालकपुर १००, १०४ कालवन ६६ कालिदास १, १९९, ४३०, ४३१, ४३३, ४३४, ४३६ काव्यादर्श १२०, १४० काव्यानुशासन १४० काव्यप्रकाश ११८, २५, २४६, Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७० महाकवि ज्ञानसागर के काम्य-एक अध्ययन २४७, २८५, २८८, २६६, ३०१, १३५ ३०३, ३०४, ३०६, ३०८, ३१४, गणे, नारायण लक्ष्मण ३७४ ३१६, ३२२, ३२४, ३२६, ३२८, गुणसुन्दग्वृत्तान्त ७ ३२६, ३७, ३८० ग्रेवेयकस्वर्ग ४६, १००, १३५, १३७, काव्यालङ्कार १२०, ३१५, ३१७ १८१ काशी ३, ४, १६, २१, २४, ६४, गोतम १ ८८, १२१, १५६, १६०, १६२, गोरी ६७ १.६२, २०७४, २२८, २३३, १३५, ३३०,३६५ चक्रपुर ४६, १००, १३५, १६३, काश्मीर २० २२८, २३२, ३२६, ३६५ कासलीवाल कस्तूरचन्द १, ४, ६, १५ चतुर्थ नरक १००, १८२ किशनगढ़ १२, १४, १६. चम्पापुरी ३६, ३८, ८०, ८१, ८३, कुण्डनपुर २७, ३०, ३२, ७४, ७७, ८८, १३१, १३३, १७१, १७२० १२६, १२८, १६२, १६३, १६५, १७४-१७६, १७८, २२८, २३०, १६३, २०७, २१५, २२८, २३०, २३४, २३६, ३२६, ३६५ ।। २३४, २३६, २३८, २४४, २७०, चम्पूकाव्य का पालोचनात्मक एवं ३२६, ३६५ साहित्यिक अध्ययन १४० कुण्डलपुर ५८....... चम्पभारत ४३८ .. कुरुजाङ्गल ६० चम्पूरामायगा ४३८ कुलादि २०२ चौधरी, मूलचन्द २, ६ कुवलयानन्द ३१८, ३२१, ३.२७ कूचामन २ कूलग्राम ७५% ७६ छत्रपुरी, ३२, २३४ केसरगंज छन्दोऽनुशासन ३७० करव २० छन्दोमञ्जरी ३६७, ३६८, ३७० फैलाश ६८ कौशाम्बी १०६, ११२, २३४ जबलपुर ५८ पोशल ४८, ८८, ६६, २३४ . जम्बूद्वीप ९७, १२८, २००, २१० २११, २२६, २२७, २३२, २३४, गङ्गा २२, २४, ६०, ६३, ७०, ७२, जयदेव १,४३६ , . ८१, ६३, १५८, १६०, २०४, जयबवल २०५, २०७, २०८, २१६, २२१, जयपुर १,१०,११ २२३, २२६, २२७, २३८, २४२, जयोदय ७, १२, १८, ६०, ६६ २४४, २८१, ३२०, ३३०, ३४३ ७०, ७४, ११६-१२५, १२६ गङ्गावाल, ताराचन्द १७ १३३ १३४, १४५, १४८, १५६ गया ६ १६२, १६२, १६५, २००-२०२, गान्धार ६७. २०४, २०६, २०८, २१८-२२४ गीतगोविन्द ४३६ .. २३२ २०१, ३४३, २४६,२५२, गुणभद्र १, ६०, ६६, ६, ७७, २६६, २८५, २८६, २८८-२६२ Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका ३०२-३०४, ३०६, ३०६, ३१० . ३१४-३१६, ३१८, ३१६, ३२६, ३२३-३२५, ३२८, ३३०-३५६, ३६५, ३७२, ३७८-३८०, ३८२, ३८४, ३८७-३८६, ३६४, ३६५, ३६६ ४०८, ४१२, ४१३, ४१६, ४१६ ४२१,४२२,४३०,४३६,४३८ जिनभद्र १ जिनसेन ६०, ६९ जम्भिकग्राम ७५, ७६ जैन, ममतलाल १० जैन, इन्द्रप्रभाकर २, ४, ८, १३ जन गजट २, ४, ६, ७, १२ नंन, गौरीलाल ८ जन, चम्पालाल २, ३, ६, ६, १२, ११२, ११४, ११५, ११६, १२५, १३४, १३५, १४४, १४६. १४३, १५१, १५६, १९६३, १९५, १६५, १६७, १९६-२०१, २०४-२०६, २०६-२११, २१८, २१९, २२१, २२२, २२४, २२५, २२८, २३५, २३८, २४०, २४३, २४५, २४६, २६१, २८५, २८८, २६४, २९६३०१, ३०३, ३०४, ३०६, ३०८, ३१०, ३११, ३१३, ३१५, ३१७, ३२४-३२९, ३६४-३६८, ३७१३७३, ३७८, ३८२, ३८३, ३८७, ३६०, ३६२, ३९४-३६७, ४००, ४०३-४०८, ४१२-४१४, ४१६. . ४२३, ४२५, ४२६, ४२-४३१, '४३३, ४३५, ४३७-४३६.. तत्त्वार्थसूत्रटोका ७ तिलकमञ्जरी २२५ तुलसी १, ४३१ त्रिपाठी, छविनाथ १४० त्रिविक्रम १४०, २२५, ४३०, ४३८ जैन, जगन्मोहनलाल शास्त्री ५८ जैन, देवकुमार १ जैन धर्मामृत ५, ८, १०, ४०८, ४११, ४१२, ४१५, ४१६, ४२३, ४२५, ४२६ जैन, पन्नालाल ५० जैन, प्रकाशचन्द्र ३, ५, ५६ जैन, प्रभुदयाल १०, ११, १३, १४, १६, १७ जैनमित्र १, ३ नविवाहविधि ७ जनेन्द्रव्याकरण १५ जन, शान्तिस्वरूप ६ जन, श्रीलाल जी १, ८, १०, ११ जनसिद्धान्त १२, १४, १५ जन, हीरालाल १० जमिनि १ जोधपुर ५८ . जोहरापुरकर, विद्याधर १, ४, ६, दण्डो १२०, १४० दमोह ५८ . दयोदयचम्पू १-९, ११, ५१,१०६, ११२, ११५, ११, १३८, १४०-१४३, १४५, १४६, १४८, १:.५, १८३, १९१. १९३१६५, २०७, २०६, २११, २१८, २६, २२१-२२३, २२७, २३१, २३४, २३५, २३७, २४६, २६०, २६१, २८२-२८५, २८८,२९७३००, ३०३-३०६, ३०८, ३१०, ३२०, ३२२, ३२१, ३२६, ३२६, ३६५-३७०, ३७२, ३७८, ३८१, ३८२, ३८६, ३९०, ३९३, ३९५, ३९८-४०७, ४१३-४१६, ४१८, ज्ञानसागर १, २, ७, १०-१८, २७ ६०,६६, ७६, १०१,१०५, १०६. Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२ ४२२, ४२८, ४३०, ४३२, ४३३, ४३८, ४३९ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य- एक प्रध्ययन लाल बहादुर शास्त्री २-४, ६, ७, १०, १२ पं० हीरालाल सिद्धान्तशास्त्री १-६, ८-१२, ५७, ५८, ६० दशरूपक १५७, १६१, १६३, १६८ दांता ७ दिगम्बर जनसमाज, भ्यावर, स्मारिका पतञ्जलि १ ६, १३, १६, १७ दिल्ली ८,११,२३४. देवामस्तोत्र का हिन्दी पद्यानुवाद ७ पद्मखण्ड ४४, ६७, ६८, १०२, १०४, १७६, २३४ पल्सवदेश २२८ देवगिरि ६५ द्रव्यसंग्रह ४११, ४२५ पाटनी, चेतनप्रसाद ५८ पाटलिपुत्र ४३, ८३, ८७,८८, १७४, १७८ घ धनपाल २२५, ४३० पाणिनि १ धरणीतिलक ४६, १००, १०४, पाणिनीय शिक्षा ११७ २३४ धान्यकमाल ६५, ६६, ६७ ध्वन्यालोक ५६ न धर्मसंग्रहश्रावकाचार ४०८, ४०६, पावनाथमन्दिर २३७ ४११, ४१२ घवला २६ नन्दनवन २०६ नलचम्पू १४०, २२५, ४३५, ४३६ नसीराबाद २- ४, ६, ११, १३, १४, .१६, १७ नागमन्दिर २६, १०८, ११३, ११४, १८५, २३७ नाट्यशास्त्र २४५, २५० नित्यमनोहर चैत्यालय ६३, ७१ नियमानुसार का पद्यानुवाद ७ निर्गुन्ददेश २२८ निगम, विक्रमादित्यसिह ३७६ नेबध २२५, ४३२, ४३३ प पंवार, मोतीलाल १३ प्रभनरक १६, १८२ पावानगर ३५, ७६, १२६, २३४ १५ चास्तिकाय १५ 'टवर्धन, विनायकराव ३७३ डितराज जगन्नाथ ११८, २४८ पुण्डरीकिलो ३२, ६५, ६७, ७४, २३४ पुण्यस्रवकथाकोश ६०, ८०६ ८६, ११४, ११५ पुष्करिणी ३२, ६५ पुष्कल ३२, २२८ पुष्कलावती ६५, ७४ पृथ्वी तिलक ५०, १०० पोदनपुर ३२, ४५, १६, २३४ प्रभातनगर १००, १०४ प्रमेयरत्नमाला १५ प्रवचनसार ७, ११६, १४६ फ फतेहपुर ११ फुलेरा ११ बङ्ग २० बम्बई २३४ बाणभट्ट १६६, २२५ ४३० बाहुबली सन्देश २, ३, ५-१७ बृहत्कथाकोश ६०, ८०, ८३, ८६, ८६-६३, ६७, १०१-१०६, १०६, ११२-११५, १३०, १३५, १४१ बेलगाँव (जिला) २२ Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धनुक्रमणिका ब्यावर ११, १३, १६, १७, ब्रह्मलोक ६५ x भक्तिरसामृतसिन्धु २४८ भद्रोदय १३८, २०३-२०१ भरतमुनि १, २४८, २१० भरतक्षेत्र ४८, ४६, ६०, १७, १९, १२८, २२७, २३२, ३२८ भवभूति १, ५ भाग्योदय ७ भातखण्डे, विष्णुनारावण ३७५ भास्करपुर ४६, १०४, २३४ नूरामंस २-६, ८-१० भोगपुर ६७ म मङ्गनावती देश २२८ भामह १, १२० य भारतवर्ष १, २७, ३६, ४४, ४३, मशस्तिमकचम्पू ४०६, ४१०, ४३८ ₹ १२०, २०२, २०३, २०७, २१०, २११, २१३, २२६, २३४, २१६ भारवि ४३०, ४३१, ४३३, ४३४ मधुरा २३४ मदनगंज १२, १६ मधुबन ७४ मध्यप्रदेश 25 मनसुरपुर मनोहरबन ४७, ७५, ७६,७८ मम्मट १, ११५, २४५-२४८, ३७७३८० महापुराण ६०, ६२-७४, ७६-८०, ११४, ११५ ११६, १२१, १२५, १३५ महाबन्द महाबुक स्वयं ३२, ४६ माघ ४३०, ४३१, ४३१-४३५ मानवबीबन ७ मालय २०, ३१, २०६, २११, २२७, २३१, २३४, २३५, ३२० माहेन्द्रस्वयं ३२, ७७ मिथिला २३४ मुमि नयनन्वि ८०, ८३, ८६, १३, ११५ मुनि नेमिचन्द्र ४१२, ४१२, ४२५ मुमिपूजन १, ६, ८, १०, ११ मुनिमनोरञ्जनशतक ७, ५६-१८, ११२, १४३-१४५, १६, १६६ मुरगासवती ६६ ा म मंसूर १२,२२८ मोदी, धर्मचन्द ६ Yo! रत्नद्वीप ४५-४७, १७, १०१-१०३, १३६, १७, २११ रसङ्गावर ११८, २४८ राजकरुपमा कुर ३७५ राजविज्ञान ३७३ रानी १, २, ५ राजगृह ३२, ७६, ८३, २३४ राजस्थान १, ११, १२, १४, १६, १७, ५७ रामगढ़ ७ रामचन्द्र मुमुक्ष ८०, ८६ रामायण ५९ रामचरितमानस ४३१ फाट ३१५. ३१६ रूपयोस्वामी १४८ रेनवाल २, १४ रौरव नरक ३१ मान्तव स्वयं ३२ यादेश २६ वर्षक ६६ ३७१, ३७६ वारस्यायन ११२ Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि ज्ञानसागर के काम्य- एक अध्ययन .8o वाराणसी ३, ४, १२, ६०,६१, ७०, वृत्तरत्नाकर ३६८, ३६६, ३७१ द्ध ४८ वाल्मीकि ५६ व्यास १ विजयाद्धपर्वत ४५, ४६, ६५, ६७, १००, १२६, १३५, २००, २०३, शान्तिगोवर्धन ३७६ - २२६, ३२७. ३२८ शिशुपालवघ ४३४ विदेह ३५, २७,६५, ७४, १६, शिशपा ५१,१०६, १८४ २०७, २०६, २२६, २२८, २३४० शिप्रा ५१, ५२, १०६, १०६, १४१,. ३२९ २०७ विद्यानन्दि ८०, ६० शिरीषग्राम १०६ विन्ध्यपुरी ६४,६८ शोभानगर ६४ विन्ध्यवन ८८, ६६ विपुलाचल ७६. .. .. विमलकान्तारवन १८ श्रावकाचारसंग्रह ६, ४०८-४१२, विवेकोदय ७. .. । ४२४. विशाला १०६ . श्रीज्ञानसागर जी महाराज का संक्षिप्त विश्वनाथ १२०, १४०, २४६, २४८, जलन परिचय २-४, ६, ११, ११, • २५०, २८६ १४, १५, १७ विश्वलोचनकोश २३१ श्रीधवल वोरोदय (मासिक) २.४,८-११, १३ श्रीपुर ६७ वीरोदय (महाय) ३, ५, ७, ११, श्री पर्वत २६, २००, ३०२, २०४ २७, ७४, ७.५.८.', ११४, १११, श्रमदान चरित्र ७, ४४, ६७, ११६, १२६-१२६, १३३, १३४, १०२-१.६, ११४, १५५, ११९, १४५, १४८, १४६, १६२.१६७, १३४-१३८, १४५, १४६, १४८, १६२, १६, १६५, २००.२०३, १५०, १७६-१८३, १६३-१६५, २०५, २०७, २०६.२११, २१३- २०४. २११, २३२, २३४, २३७, २१८, २२०, २२१, २२६, २२८- २४६, २५८-२६०, २७६, २८०, २३०, २३४-२३८, २४२, २४६, २८१, २८२, २८५, २८७, २८८, २५२-२५४, २७०.२७३, २८५, २६६, २६७, ३००, ३०२-३०५, २६२-२६४, ३०२, ३०३, १०५, ३०७, ३०८, ३१०, ३२०, ३२३, ३०७, ३०६, ३१०, ३१६, ३१७, . ३२५, ३२७, ३६५-३६६, ३७८, ३१६, ३२२-३२४, ३२६-३२६ ३८१, ३८२, २८५, ३८६, ३६., ३५६-३६२, ४६५-३७०, ३७६- ३६२, ३८५,४००-४००, ४१२३८०,३८१,३८२,३८४,४८७,३६५, ४१४, ४२१, ४२२, ४२५, ४२८, ३६७-३९६, ४०१, ४०३-४०३, ४३०, ४३३, ४३७ ४१२, ४१४, ४१८-४२३, ४२५. श्रीस्वरूपानन्द १३, १५ ४३०, ४३२-४३६, ४३८ .... श्रीहर्ष २२५, ४३०, ४३१, ४३३, वीरशासन के प्रभावक प्राचार्य १, ४, ४३४ श्रुतबोध ३७० Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रनुक्रमणिका षण्डवन २११, २१३, २१८, २१६, २२२, २२३, २२७, २२८, २३१, २३५, २३६, २४६, २५५-२५७, २७४२७६, २८५ २८७, २६४-२६६, २६-३०५, ३०७, ३०६, ३१०, ३१४-३१८, ३२०, ३२२, ३६२, ३६३, ३६५-३७६, ३७६, ३८०, ३८२, ३८५, १८६, ३६१, ३६५, ३६८-४०६, ४१२-४१५, ४१७, ४२२. ४२६, ४२७, ४३०, ४३२. ४३३, ४३६' ४३७ सुदंसणचरिउ ८०, ८३, ८६, ६०, ३-५, ११४, ११५ सदलगा १३ समयसार ७, १५ समयसार कलश १५ सम्यक्त्वसारशतक १, ७, ६, ११६, सुमेरु २६, ३०, ३६, ३७, ७४, १२६, १६३, १६८, २००-२०२, २०४० १४६, ४०३ सरयू ६४-७२ स सङ्गीतकौमुदी ३७६ सङ्गीत प्रवीण प्रदर्शिका ३७४ सङ्गीतविशारद ३७३, ३७४, ६७६ सङ्गीतशास्त्रदर्पण ३७६ संस्कृत हिन्दी कोश ४३, १५६, ३११ सकलकीर्ति ८०, ८६, ६०, ११५ सचित्तविवेचन ७ सर्वदर्शनसंग्रह ३१, ४१८-४२०, ४२२ ४२६ सहस्रारस्वर्ग ३२४७, १०० साकेत ३२, ६६ सालवन २०५ हित्यदर्पण १२०, १४०, १४४, १७१, २४, २४७.२७८, २५० सागर मत ४०७ सिंहपुर ४६, ४७,६७, ६६,१०१-१०३, १८०, १८१, १८३,१६३,२३४ सिद्धकूट ४६.६७, १००, २३७ सिन्धु देश २० सिन्धु नदी २२६, २२७ सीकर ग्राम १ सीतानदी ७४ सुदर्शनचरित ( विद्यानन्दिविरचित) .८०, ६० सुदर्शनचरित (सकलकीर्तिविरचित) ८०, ८६, २१४, ११५ सुदर्शनोदय ७, ३६, ८०, ६०-६७, ११४, ११५, ११६, १३० - १३४, १४५, १४६, १४८, १४९, १६७.. १७६, १६३, १५, २०७, २०६, ४७५ २११, २३६, २३७ सुवत्ततिलक ३६७-३७१ सूर १ सेठी, विद्याकुमार १२ सौधर्मस्वर्ग ६१, ७४, ७७ स्तबक गुच्छ ३५, १३६, २२८, २३१, २३२,२८० स्वामी कुन्दकुन्द और सनातन जैनधमं ७ ह हरिपेण ८०, ८३, ६०, १०१, १०६, १०६, १३०, १३५, १४१ हस्तिनापुर १८, २४ २६ ६०, ६४, ६६, ७२, १२१, १५६. २२८, २३२, २६, ३३०, ३६५ हिन्दुस्तानी सङ्गीतपद्धति ३७५ हिमालय २६, १२६, १५७, १५८, १७०, १६८, २००-२०२, २०५. २१५, २२१. २२६, २३६, २४४० २०६ हिसार १, ८, ६,५७ हेमचन्द्र १४० Page #536 --------------------------------------------------------------------------  Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमपूज्य आचार्य 108 श्री ज्ञानसागर जी महाराज की साहित्य साधना - संस्कृत साहित्य - १. जयोदय महाकाव्यम् (2 भाग में) २. वीरोदय महाकाव्यम् ३. सुदर्शनोदय महाकाव्यम् ४. भद्रोदय महाकाव्यम् ५. दयोदय चम्पू ६. सम्यकत्वसारशतकम् ७. मुनि मनोरञ्जनाशीति ८. भक्ति संग्रह ९. हित सम्पादकम् हिन्दी साहित्य - १०.भाग्य परीक्षा ११.ऋषभ चरित्र १२.गुण सुन्दर वृतान्त १३.पवित्र मानव जीवन १४.कर्त्तव्य पथ प्रदर्शन १५.सचित्त विवेचन १६.सचित्त विचार १७.स्वामी कुन्दकुन्द और सनातन जैन धर्म १८.सरल जैन विवाह विधि १९.इतिहास के पन्ने २०.ऋषि कैसा होता है टीका ग्रन्थ - २१.प्रवचसार २२.समयसार २३.तत्त्वार्थसूत्र २४.मानवधर्म २५.विवेकोदय २६.देवागमस्तोत्र २७.नियमसार २८.अष्टपाहुड़ २९.शांतिनाथ पूजन विधान Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमपूज्य आचार्य 108 श्री ज्ञानसागर जी महाराज का लेरिवका का संक्षिप्त परिचय नाम - डॉ. (कु.) किरण टण्डन पितृनाम - श्री रामबिहारी टण्डन जन्मस्थान - नैनीताल (उ.प्र.) जन्मतिथि -7-7-1951 ई. शिक्षा - एम.ए. (आगरा विश्वविद्यालय, आगरा), पी. एच. डी. (कुमायूं विश्वविद्यालय, नैनीताल), साहित्याचार्य (वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी)। वृत्ति - अध्यापन / (क) राजेन्द्र प्रसाद डिग्री कालेज, मीरगंज (बरेली) उ.प्र., (ख) आर्य कन्या महाविद्यालय, अल्मोड़ा (उ.प्र.),सम्प्रति (ग) कुमायूँ विश्वविद्यालय, नैनीताल (उ.प्र.)के संस्कृति विभाग में प्राध्यापक पद पर कार्यरत / जीवन परिचय -:: जन्म :: सन् 1891 -:: जन्मस्थान ::राणोली-ग्राम (जिला-सीकर) राज. -:: जन्मनाम :: भूरामल शास्त्री -:: ब्रह्मचर्य व्रत ::सन् 1947 (वि. सं. 2004) -:: क्षुल्लक दीक्षा ::सन् 1955 (वि. सं. 2012) -:: क्षुल्लक दीक्षा नाम ::क्षुल्लक 105 श्री ज्ञानभूषण महाराज -:: ऐल्लक दीक्षा ::सन् 1957 (वि. सं. 2014) -:: दीक्षा गुरु ::आ. 108 श्री शिवसागर जी महाराज -:: मुनि दीक्षा ::सन् 1959 (वि. सं. 2016) -:: दीक्षा गुरु ::आ. 108 श्री शिवसागर जी महाराज __-:: मुनि दीक्षा नाम ::मुनि 108 श्री ज्ञानसागर जी महाराज -:: आचार्य पद :: 7 फरवरी सन् 1969 (फाल्गुनवदी 5 सं. 2025) -:: आचार्य पद त्याग एवं सल्लेखनाव्रत ग्रहण ::22 नवम्बर, 1972 (मंगसिर वदी 2 सं. 2029) . -:: समाधिस्थ ::1 जून 1973 (ज्येष्ठ कृष्ण अमावस्या सं. 2030) -:: पट्टशिष्य ::पू. आ. श्री विद्यासागरजी महाराज __-:: सल्लेखना अवधि ::6 मास 13 दिन (मिति अनुसार) 6 मास 10 दिन (दि. अनुसार) रचना - (क) प्रकाशित - (1) छन्दोऽलङ्कारपरिचयः। (2) महाकवि ज्ञानसागर के काव्य : एक अध्ययन / (ख) अप्रकाशित - संस्कृत साहित्य का इतिहास / आवास - परबॅक लॉज, बी राजभवन मार्ग, नैनीताल (उ. प्र.)