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________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत ग्रन्थों में मावपक्ष २८६ की हुई है । इसमें गुरु-विषयक भकिन पोर नपविषयक भक्ति के भी उदाहरण मिलते हैं । प्रधान रूप से अभिव्यजित व्यभिचारिभाव और अपरिपुष्ट स्थायिभाव के उदाहरण भी यत्र-तत्र हैं। क्रमशः भावकाव्य के इन पांच प्रकारों के उदाहरण प्रस्तुत हैं :भगवद् विषयक भक्तिभाव ___जयोदय महाकाव्य में ६ स्थलों पर भगवद् विषयक भक्ति-भाव की प्रभिव्यजना मिलती है । विस्तार के भय मे केवल दो ही उदाहरण प्रस्तुत किए जा (4) जयकुमार और प्रकंकीति के यद्ध के पश्चात् जयकुमार अपने मन को धैर्य बंधाने के लिए जिन भगवान का पूजन करते हैं : "सकल: सकलज्ञमाप्तवानपि सम्पार्थयितुं जनं स वा। भगवान्भगवानभिष्टत: विपदामप्युत सम्पदामुत ।। सपदि विभातो जातो भ्रातो भवभयहरणविभामूतः । शिवसदनं मृदुवदनं स्पष्टं विश्वपितृर्जिनसवितुस्ते ।। गता निशाथ दिशा उद्घटिता भान्ति निपूतनयन भृते । कोऽस्तु कोशिकादिह विद्वषी परो नरो विशदीभूते ।। मङ्गनमण्डनमस्तु समस्तं जिनदेवे स्वयमनुभूते । हीराधा हि कतः प्रतिपाद्याश्चिन्तारत्ने सति पूते ।। कलिते सति जिनदर्शने पुनश्चिन्ता कान्यकार्यपूर्तभो न भवन्ति तणानि किमात्मजगति झगिति हि कर्णस्फूर्तः ।। निःसाधनस्य चाहंति गोप्तरि सत्यं नियंसना भूस्ते । तमसि च कि दीपेरुदयश्चेच्छान्तिकरस्य सुधास्यूतेः ।। प्रहन्तमागोहरमगादघुना समर्थयितुंतरां कश्मलादाजिभवाज्जयोदरमावहस्मरसन्निभम् ।' (प्रा) तीर्थयात्रा करते हुए जयकुमार हिमालय पर एक देवालय को देखकर वहो जाते हैं, और जिनभगवान् की पूजा एवं स्तुति करते हैं : "पुनश्च विघ्नप्रतिरोधि निः सहीति मन्त्रसूर्ण रुचित: समुच्चरन् । निधान गम्नो हि जिनालयस्य स कवाटमुद्घाटयति स्म धीरराट । निपूतपादाभिगमाभिलाषको निपूतपाद: स्वयमप्यथासको। जयेति वाचा कथित: श्रिया युतं जयेति वाचा गहमाविशत्तराम् ॥ . १. पयोदय, ८८ और उसके बाद का गीत ।
SR No.006237
Book TitleGyansgar Mahakavi Ke Kavya Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiran Tondon
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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