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महाकवि ज्ञानसागर क काव्य-एक अध्ययन जानता। श्रीभूति के प्रभाव के कारण राजा एवं पुरवासियों ने भी उसकी बात का विश्वास नहीं किया। व्याकुल होकर सुमित्रदत्त रामदत्ता के गृह के निकट स्थित पीपल के वृक्ष पर रात्रि के अन्त में चढ़कर रोज कहने लगा कि 'हे राजन् ! तुम्हारे राज्य में निवास करने वाले श्रीभूति ने मांगने पर भी मेरे पाँच रत्न नहीं लौटाए।
एक दिन रात्रि में पति के साथ सोती हुई रामदत्ता ने उसकी मावाज सुनकर राजा से कहा कि यह बात मैं छः महीनों से सुन रही है। प्राप सत्यासत्य को परीक्षा करके बताईये कि रत्न किसके है ? रामदत्ता के वचन सुनकर राजा ने कह दिया कि यह पागलपन के कारण ऐसा कह रहा है। रामदत्ता के पुनः प्राग्रह करने पर राजा ने श्रीभूति को अपने घर बुलाया मोर पूछा कि तुमने इस वैश्य के रत्न लिये हैं अथवा नहीं । राजा के वचन सुनकर श्रीभूति ने रत्नों के विषय में अस्वीकृति प्रकट कर दी।
एक दिन रामदत्ता के कहने से राजा ने पुरोहित के साथ द्यूतक्रीड़ा की। उस समय रानी ने पुरोहित से वस्तु प्राप्त करने के लिए उसके अभिज्ञान के प्रक्षर पूंछ । अभिज्ञान के अक्षर जानकर रानी की दासी बुद्धिमती ब्राह्मणी के घर गई मोर प्रभिज्ञान की सहायता से उसने ब्राह्मणी से वरिणक के रत्न माँगे । उसकी बात सुनकर ब्राह्मणी ने कह दिया कि मैं उन रत्नों के विषय में नहीं जानती। यूतक्रीड़ा में यज्ञोपवीत जीतने पर रानी ने दासी को पुनः श्रीभूति के घर भेजा। दासी ने ब्राह्मणी से कहा कि इस दूसरी पहिचान को देखकर रत्न दे दो। तब भी उसने कह दिया कि वे रत्न तो नष्ट हो गए, न मालूम कहां गये । तीसरी बार दासी श्रीभूति के नाम से अंगूठी लाई और बोली कि श्रीभूति ने कहा है कि वैश्य के रत्न मुझे दे दो। अंगूठी देखकर पति पर क्रोध करती हुई उसकी स्त्री ने पांचों रत्न लाकर बुद्धिमती के हाथ में दे दिए । बुद्धिमती ने वे सब रत्न रानी को दिए। रामवत्ता ने वे रत्न लेकर राजा से यूतक्रीड़ा बन्द करने को कह दिया। इतकारों के चले जाने पर रानी ने राजा को पांचों रत्न दे दिए ।
तत्पश्चात् राजा ने उन रत्नों को प्रन्य रत्नों के साथ मिलाकर सुमित्रदत्त को दिखाया । सुमित्रदत्त ने उनमें से अपने ही रत्न उठा लिए। यह देखकर धन चुराने वाले श्रीभूतिपुरोहित को राजा ने अपने देश से बाहर निकाल दिया। अपमानित श्रीभूति हृदय फट जाने से मर गया। प्रातघ्यान करके मरने के बाद वह सिंहसेन राजा के ही भण्डार में सर्प के रूप में पहुंचा।
श्रीभूति के स्थान पर राजा ने धम्मिल्ल नामक ब्राह्मण को पुरोहित का पद दे दिया। इसके बाद सुमित्रदत्त ने पद्मखण्डपुर जाकर साधुओं को दान दिया और बोला कि मैं अगले जन्म में रामदत्ता का पुत्र बनूंगा । विमलकान्तार नामक पर्वत पर जाकर वरधर्म मुनि के समीप उसने तपस्वियों का व्रत धारण कर लिया। उसकी