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महाकवि ज्ञानसागर के काव्य - एक अध्ययन
वह प्रतिथि-वत्सल भी हैं। सोमदत्त का पालित पिता गोविन्द ग्वाला गुसापाल के विषय में बिना जाने हो उसका प्रतिशय सत्कार करता है और सोमदत्त को भी उसकी सेवा में नियुक्त कर देता है ।"
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कवि ने जलक्रीड़ा, पतङ्गक्रीड़ा एवं शतरंज क्रीड़ा के सन्दर्भ में भी अपने ज्ञान का परिचय दिया है, जो उसकी मनोरंजनप्रियता का परिचायक है । कवि के अनुसार विवाह के समय कन्या को सुन्दर वस्त्राभूषणों से सजाना चाहिए, विवाहादि के शुभ अवसरों पर मङ्गलगीतों का प्रबन्ध होना चाहिये * एवं इन अवसरों पर दान भी देना चाहिए ।
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भारतीय त्योहारों पर भी श्रीज्ञानसागर की प्रास्था है । इसलिए उन्होंने अपने काव्यों में झूला झूलने प्रोर वसन्तोत्सव में वनविहार करने का उल्लेख किया है।
हमारे कवि सङ्गीतप्रिय भी हैं। भारतीय परम्परानुसार उनका विश्वास है कि राग एवं ताल में निबद्ध भजनों के गायन से देवता अवश्य ही भक्त की पुकार सुन लेते हैं । प्रत: जहाँ कहीं भी उनके मन में भक्तिभाव जागरित हुमा है, वही उन्होंने सङ्गीतमय भजन अपने इष्ट देव को सुनाये हैं। उनके मतानुसार सङ्गीत हमारे मनोभावों एवं प्रन्तर्द्वन्द्व के प्रस्तुतीकरण में पर्याप्त सहायक होता है। इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि श्री ज्ञानसागर प्राचीन भारतीय संस्कृति को प्रदर की दृष्टि से देखते थे 1
afa की धार्मिक विचारधारा
महाकवि श्री ज्ञानसागर जैनधर्म को मानने वाले हैं। यह जंनधर्म दो प्रकार
१. दयोदयचम्पू, चतुर्थं लम्ब ।
२. (क) जयोदय, चतुर्दश सगं । (ख) वीरोदय, १२।२४-२६
(ग) श्रीसमुद्रदत्त चरित्र, ३।४१-४२
३. जयोदय, १०।२८-४०
४. बही, १०।१५ - २२
५. वही, ३।६
६. वीरोदय, ४।७१-२३
७. सुदर्शनोदय, ६ प्रारम्भ के ४ गीत एवं १-३ श्लोष ।
८. (क) जयोदय, १९व सगं ।
(ख) सुदर्शनोदय, ५ प्रारम्भ के ८ गीत ।
६. वही, ६ श्लोक २४ के बाद का गीत ।