________________
महाकवि ज्ञानसागर का जीवन-दर्शन
का हैं - श्वेताम्बर जैनधर्म भोर दिगम्बर जैनधर्मं । कविवर के काव्यों के परिशी
न से ज्ञात होता है कि उन्हें दिगम्बर जैनधर्म पर ही विश्वास है । उन्होंने जैनधर्म किं वा जैन दर्शन की अपने काव्यों में यत्र-तत्र प्रसङ्गानुकूल जो मीमांसा प्रस्तुत की है, उसका संक्षिप्त सार इस प्रकार है :
व्रतों का पोषक
अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचयं एवं प्रपरिग्रह - इन पाँच पदार्थों का माहात्म्य सभी धर्मों में मान्य है । महाकवि श्रीज्ञानसागर की भी इन पांचों महाव्रतों में गहन प्रास्था है। इन महाव्रतों के माहात्म्य प्रस्तुतीकरण हेतु ही उन्होंने अपने काव्यों की रचना की है, जिनमें 'दयोदयचम्पू' की रचना महिसाव्रत की पोषिका है; क्योंकि इस काव्य में एक मुनि के उपदेश से प्रभावित होकर मृगसेन नामक घीवर के द्वारा महाव्रत के धारण करने का एवं उसके फलस्वरूप होने वाले फलों का वर्णन किया गया है। 'श्रीसमुद्रदत्त चरित्रकाव्य' सत्य प्रोर अस्तेय है । इस काव्य का नायक सत्य बोलकर उत्कर्ष की भोर भग्रसर होता है मोर श्रीभूति नामक पुरोहित चोरी के अपराध में दण्ड पाता है। 'वीरोदय' महाकाव्य ब्रह्मचयं की महिमा का उद्घोष करता है। इस काव्य के नायक भगवान् प्राजीवन ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हैं; और अपना समय लोककल्याण के मार्ग में लगा देते हैं । 'जयोदय' महाकाव्य प्रपरिग्रहव्रत के माहात्म्य के प्रस्तुतीकरण के लिये लिखा गया है । इस काव्य का नायक राजा होकर भी अपने वैभव को छोड़कर वन का आश्रय लेता है । 'सुदर्शनोदय' महाकाव्य इन पाँचों धर्मों के अतिरिक्त चित्त की डढ़ता रूप आवश्यक धर्म के प्रस्तुतीकरण के लिए लिखा गया है। इतना ही नहीं उन्होंने इन व्रतों को धर्म रूप वृक्ष का प्रावश्यक भङ्ग भी माना है ।"
भोजन के विषय में भी महाकवि की जैनधर्मानुसार कुछ निश्चित मान्यताएँ हैं, जैसे कि प्रत्येक व्यक्ति को पके हुए फल खाने चाहिएँ । क्योंकि कच्चे फलों में जीब होते हैं । प्रत्येक गृहस्थ को निरामिष भोजन करना चाहिये भोर मदिरा, भङ्ग इत्यादि पदार्थो का सेवन नहीं करना चाहिये । प्रचार, मुरब्बा, मक्खन, बड़, पोपल, गूलर, अबीर, पिलखन प्रादि को नहीं खाना चाहिये । चमड़े में रखे हुये तेख, घृत प्रादि पदार्थ नहीं खाने चाहिएं। चना, मूंग, छांछ इत्यादि द्विदल धन्न के साथ कच्चा दूध, दही, छाँछ इत्यादि का उपयोग करना चाहिये । ४
१. सुदर्शनोदय ६।७०
२. वीरोदय, १२।३३
३.
(क) जयोदय, २।१०९ (ख) सुदर्शनोदय, ४।४३-४४
فال
४. (क) बही, २०५६-५८
सागरधर्मामृत, २।११-१३