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महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-प्रन्थों में भावपक्ष
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(घा) मुनि के वचनों को सुनकर जयकुमार का हृदय श्रद्धा से भर उठता है, और सिर झुक जाता है
"इत्यत्राप्यापरिशेषमेकतो गात्रमङ कु करितमस्य भूभृतः । नम्रतामुपजगाम सच्छिरस्तावता फलभरेण वोद्धरम् ॥ सन्निपीय वचनामृतं गुरोः सन्निधाय हृदि पूततत्पदो । प्राप्य शासनमगादगारिडात्मदौस्थ्यमय मोरयंस्तदा ।। " १
नृपविषयक भक्तिभाव -
जयोदय महाकाव्य में नृपविषयक भक्तिभाव के दो उदाहरण देखने को मिलते हैं। प्रथम उदाहरण में कविनिष्ठ नृपविषयक भक्तिभाव की प्रभिव्यञ्जना देखने को मिलती है । २ नृपविषयक भक्तिभाव का दूसरा उदाहरण वहाँ पर है, वहाँ जयकुमार सम्राट् भरत के पास जाते हैं प्रोर भरत के प्रति प्रादरभाव प्रकट करते हैं :
" सदनुमानिते तरलितो हिते परिषदास्पदे भरतमाददे । यदिव खञ्जनः परमा जनमच नभः स्थले शशिनमुज्ज्वले ॥ समग्रहीतनपि किन्न हि सा च तमोभिस्त्वमृदुरश्मिः । मुदस्थिति वर्द्धयन्निति सम्बभावतोद्धा परिस्थितिः ॥ भालं जयस्य नमदादिजचक्रपाणेः पादाग्रतस्त समभारिह तत्प्रमाणे । नित्यं विभावमय दोषविशोधनाय पङ्केरुहस्य पुरतः शशिनोऽभ्युपातः ॥ शतशः स्फुरस्किररणभुन्नखाग्रवत् करसंयुगं भरत चक्रिणोऽभवत् । विविम्बशोभि सहसोभिमातरः शशिशोभनं जयमुखं समृद्धरत् ॥ विबभूव भूः परिकृतेरपीति यत् प्रतिपत्कलोदयकरी कवेरियम् । समभूतमां मुरुचिभागिहोत्तमा सदसः प्रहर्षणगरणश्रिया समा ।। "3 व्यग्य व्यभिचारिभाव
व्यङ्ग्य व्यभिचारिभावों के अनेक उदाहरण जयोदय महाकाव्य में दृष्टिगोचर होते हैं, यहाँ उन सबको प्रस्तुत करना सम्भव नहीं है, इसलिए उदाहरण रूप में केवल दो स्थलों का वर्णन प्रस्तुत है :
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(घ) भरत के पास गए हुए जयकुमार की प्रतीक्षा करती हुई सुलोचना का प्रोत्सुक्य भाव देखिये :
म
१. जयोदय, २।१४०-१४१
२. पही, १1१-७७ ३. वही, २०१८-१२