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________________ २६२ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य- एक प्रध्ययन "प्रतीक्षयामास जयं किशोरी यथोदयन्तं शशिनं चकोरी । सूपः सकष्टं तमसोपसृष्ट-रयेण नीरोरुचयेन दृष्टः ॥ רי (प्रा) हस्तिनापुर में प्रवेश करते हुये जयकुमार की चेष्टा में इषं नामक भाव की झलक देखिये : याव्रजत्यतिजवेन पत्तनं माविचारमिह यातु किचन । प्रीत्रया तुलितेन मुदं वहन् निर्ययावपि महांगसंग्रहः ॥ निरगामिता सन्नियोगविषये नियो रसात् । तयस्य च मनोरथस्य चानन्यवेगिन इहाविराय सा ॥ २ परिपुष्ट स्थायिभाव--- जो स्थायिभाव पुष्ट होकर रम का रूप ग्रहण नहीं कर पाते, उन्हें भी 'भाव' माना जाता है । इसका एक उदाहरण प्रस्तुत है. -- भातीतं कृत्वा मनोविशदभाविपथि वं पद्मा सोमसुतो सत्यारम्भम् । तिष्ठत भावना सद्भावावाराद्दरकृतिताविभो भव्यो वा ।। " ७ यहाँ पर नामक अपरिपु स्थायिभाव को श्रभिव्यञ्जना हो रही है । (ख) वीरोदय महाकाव्य में भाव १. जयोदय, २०१५४ २. वही, २१।५-६ ३. वही, २३ ९७ जयोदय के समान ही वीरोदय में भी देवविषयक भक्तिभाव की प्रभिव्यञ्जना सर्वाधिक हुई है। इसके प्रतिरिक्त इसमें गुरुविषयक भक्ति प्रौर नृप - विषयक भक्ति का भी एक-एक स्थल देखने को मिलता है । व्यभिचारिभाव एवं परिपुष्ट स्थायिभाव के भी कुछ उदाहरण मिलते हैं । क्रमशः उदाहरण प्रस्तुत हैं- भ्र देवविषयक भक्तिभाव -- देवfare भक्तिभाव के वीरोदय में सात उदाहरण मिलते हैं, जिनमें से दो उदाहरण प्रस्तुत हैं १. ग्रन्थारम्भ में मङ्गलाचरण में कवि ने जैन तीर्थङ्करों की स्तुति की है"श्रिये जिनः सोऽस्तु यदीयसेवा समस्तसंश्रोतृजनस्य मेवा । द्राक्षेव मृदुवी रसने हृदोऽपि प्रसादिनी नोऽस्तु मनाक् श्रमोऽपि ।। कामारिता कामितसिद्धये नः समर्थिता येन महोदयेन । संवाभिजातोऽपि च नाभिजातः समाजमान्यो वृषभोऽभिघातः ॥
SR No.006237
Book TitleGyansgar Mahakavi Ke Kavya Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiran Tondon
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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