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महाकवि जानसागर काम्प-एक मध्ययन
पनमा मानों लज्जा का अनुभव करता है। उस नगर में कविश्रेष्ठों की श्रेष्ठ पाणी के समान प्रपनी चेष्टानों से लोगों को लुभाने वाली वाराङ्गनाए थीं। भवनों में बड़ी हुई नीलमणियों की कान्ति से उत्पन्न रात्रि की कल्पना करने वाली बेचारी चकवी दिवस में भी पक के वियोग में सन्ताप का अनुभव करती है ।
स नमर के भवनों में लगी हुई चन्द्रकान्त मणियां चन्द्रोदय होने से जब द्रवित होती हैं, तो ऐसा लगता है. मानों वहाँ की स्त्रियों के मुख की शोभा को चुराने पाला चन्द्रमा प्रासाद में बड़े हुये रत्नों वासी दीवारों पर पड़ते हुये प्रतिबिम्ब के बहाने से मानों कारागार में बन्द होकर चन्द्रकान्तमणियों के द्रव के बहाने से रोता है । रात्रि में यह नगर, नगर-सम्राट् का रूप धारण कर लेता है । चन्द्रमा इसके मुकूट का रूप धारण करता है। पौर तारागणों के बहाने उस नगर-रूप राबा के ऊपर पुष्पवृष्टि होती है। मध्याह्न समय में उस नगर के गगनचुम्बी 'परकोटे के ऊपर तपता हुमा सूर्य, उस परकोटे के सुवणं-कलश की कान्ति को धारण करता है।'
जिस समय राजा सिखाप भगवान् के जन्माभिषेक का प्रायोजन करते हैं, उस समय में कुण्डनपुर की शोभा कैसी थी ? इसका वर्णन भी कवि ने किया है
उस समय अमृत, चित्राङ्गारि देवाङ्गनामों से प्रौर देवों से युक्त स्वर्ग के ही समान, चूने से पुतने के कारण उज्ज्वल, नाना प्रकार के चित्रों से प्रलंकत. एक पंक्ति में ही बने हुये प्रासादों से युक्त वह नगर सुशोभित हुमा। उस नगर उन्नत प्रासाद, श्रेष्ठ स्वाभिमानी राजामों की शोमा को धारण कर रहे थे।
। मङ्गदेश में चम्पा नाम की नगरी थी। उस नपरी में श्रेष्ठ मोग निवास करते थे। उसके चारों पोर परकोटा था; और उसके चारों और प्रत्यन्त गहरी बाईपी। उस नगर के लोग स्वर्ग-सम्पत्ति के समान वैभव का उपभोग करते
वहाँ की स्त्रियों का सौन्दर्य एवं स्वर दिव्याङ्गनामों के समान था। चूने से पते हुये उस नगरी के भवन स्वर्गिक भवनों के समान थे। उस नगरी में प्रायः दिव्य विभूतियों का जन्म होता था। मुक्ता, चन्द्रकान्तमणि इत्यादि रत्नों वाले रत्नाकर की समता करने वाली उस नगरी में पुरुष रोग से मुक्त, स्त्रियां सब कलामों में निपुण भोर राजा पात्रुनों पर बम-प्रहार करने वाला था। उस नगरी में शत्रुजय जामकराणा राज्य करताना मोगों के कार्य उत्तम-कोटि के होते थे।+++ 'सपनोग सामग्री के प्राणु से पानपरी स्वर्ग और पाताल का तिरस्कार करने
१. बीरोदय, २२६-५०