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________________ महाकवि ज्ञानसागर का वर्णन-कौशल २२९ कष्ट नहीं होता । वहां के मनुष्य दिव्य-लक्षणों से युक्त हैं। स्त्रियाँ देवाङ्गनामों समान सुन्दर चे ग्रामों वाली हैं। राजा प्रपने तेज से सूर्य और इन्द्र की बराबरी करता है । कुलीन लोगों के निवास से युक्त, उच्चकुलीन कन्यामों से युक्त, उत्तम कोटि के विशाल भवनों वाला यह नगर नागपुरी के समान है। उस नगर के चारों मोर शेषनाग के समान एक विशाल परकोटा है। परकोटे के बाहर शेषनाग के द्वारा छोड़ी गई कंचुली के बहाने से ही मानों समुद्र के समान गहरी खाई है। उस नगर के बाजार अनुगम सम्पदा वाले, बड़ी-बड़ी सड़कों वाले, विक्रय के योग्य पदार्थों और बहुमूल्य वस्त्रों वाले हैं। रात्रि में परकोटे के शिखरों पर अविचल रूप से चमकते हुए नक्षत्रगण लोगों के हृदय में दीपावली का भ्रम उत्पन्न करके उन्हें आनन्दित करते हैं। उस नगर का प्रतिबिम्ब खाई के बल में पड़ रहा है, ऐसा लगता है मानों, वह नगर अपने सौन्दर्य की परछाई के बहाने नागलोक को जीतना चाहता है। उस नगर के परकोटे में नीलमणियाँ सुशोभित हैं । खाई के जल में गरजते हुये मेषों का प्रतिबिम्ब उम्मत्त हाथियों की शङ्का उत्पन्न करता है । वहाँ को खाई में विकसित कमलों के सम्बन्ध में कवि की उद्भावना देखिये "तत्रत्यनारीजनपूतपादस्तुला रतेनिलसत्प्रसादः । लुठन्ति तापादिव वारि यस्याः पद्मानि यस्मात्कठिना समस्या ॥" . (वीरोदय, २०३१) प्रर्थात् वहां की स्त्रियां रतिदेवी से भी अधिक सौन्दर्य-सौभाग्य को धारण करती हैं, उनके सुन्दर एवं पवित्र चरणों से तुलना न कर पाने के कारण हो मानों सन्तप्त कमल खाई के जल में लोट रहे हैं। चूने से लीपे हुये प्रासादों वाले इस नगर का परकोटा अपने शिखरों के अग्रभाग में स्थित रत्नों से निकलती हुई प्रभापंक्ति को धारण करता हुमा स्वर्ग के भी प्रासादों की हंसी उड़ा रहा है । उस नगर में सुवर्ण-कलशों से युक्त शिखर वाले अनेक जिनालय हैं जिनमें जिनमुद्रा से अंकित ध्वजायें फहरा रही हैं। उस नगर के मनुष्य देन्यभाव से रहित एवं गाम्भीर्य को धारण करने वाले हैं । वहाँ को स्त्रियाँ अत्यन्त सुन्दर और निर्मल चरित्र वाली हैं। वहाँ के लोगों का दाम्पत्य जीवन सुखपूर्वक व्यतीत होता है। उस समय कुण्डनपुर के निवासी धर्मसम्मत भोग में प्रवृत्त होते थे। उनका धर्म स्थायी-मित्रता को उत्पन्न करने वाला होता था। वहां के लोगों में निन्दा, मोह, छिद्रान्वेषण, पारस्परिक विरोध, रोग, दारिद्र्य, पाप इत्यादि दोषों का प्रभाव पा। उनमें देन्याभाव, स्नेह इत्यादि श्रेष्ठ गुण थे। उस नगर के सौन्दर्य को देखकर देवतामों की प्राँखें खुली की खुनी ही रह गई। प्रासादों के शिखरों के पप्रभाग पर बैठी हुई उस नगरी की स्त्रियों के निष्कलङ्क मुखों को देखकर कलंकी
SR No.006237
Book TitleGyansgar Mahakavi Ke Kavya Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiran Tondon
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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