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बहाकवि ज्ञानसागर का वर्सन-कौशल वाली थी। उस नगरी के जिनमन्दिर विशाल एवं मेषसमूह को चूमने वाले थे। कवि को वह नगरी विश्वलोचन कोष जैसी.लगती है
"वणिकपथः श्रीधरसन्निवेशः स विश्वतो लोचननाम देशः। यस्मिञ्जनः संस्क्रियतां च तूणं योऽभूदनेकार्थतया प्रपूर्णः ॥"
(सुदर्शनोदय, १॥३२) अर्थात् संस्कृत भाषा का समुचित ज्ञान देने वाले, भनेकार्थ शब्दों वाले, अनेक अध्याय वाले, श्रीधर प्राचार्य रचित विश्वलोचन कोष के समान उस नगरी का बाजार, नगरी के वैभव को सूचित कर रहा था। लोग उस नमरी के बाजार की शोभा को एकटक देख रहे थे। वहाँ क्रेता को प्रत्येक इच्छित वस्तु सुसम पी। वह बाजार कई भागों में विभक्त था।
उस नगरी के लोग मांसभक्षण, मद्यपान, निन्दा, परस्पर-विरोध, कटिलता, छिद्रान्वेषण; कठोरता, वञ्चकता इत्यादि दोषों से दूर थे। इस पुण्यशालिनी नगरी में बारहवें तीर्थङ्कर श्रीवासुपूज्य स्वामी ने शिवपद प्राप्त किया था। इसलिए इसका महत्त्व और भी अधिक हो गया था। इस नगरी की भतुलित उचान एवं भवनसम्पदा के कारण लोग अनायास ही इसकी पोर मारुष्ट हो जाते थे। उज्जयिनी वर्णन
मालव देश में स्थित उज्जयिनी नपरी का पल्प, किन्तु प्रभावोत्पादक वर्णन कवि के ही शब्दों में देखिये
"समस्त्युज्जयिनी नाम नबरीह गरीबसी। यातीव स्व: पुरी बेतुं स्वसोषगमनकर्षः ॥ नरा यत्र सुमनसः स्त्रियः सर्वास्तिलोत्तमाः । राजा स्वयं गुनासीर प्रतापी खलु कथ्यते ॥"
(योदय चम्पू, १११०-११) अर्थात् मालव देश में उज्जयिनी नाम की विशाल नगरी है, जिसके चपनचुम्बी प्रासादों को देखकर ऐसा लगता है कि मानों वह नगरी स्वर्ग को जीतने वा रही हो। स्वर्ग में रहने वाले देवतानों के समान जहाँ के मनुष्य पच्छे मन वाले हैं । स्वर्ग में विद्यमान तिलोत्तमादि प्रप्सरामों के ही समान जहाँ की स्त्रियां उत्तम तिल से युक्त हैं । स्वर्ग में राज्य करने वाले इन्द्र मोर सूर्य इत्यादि के समान ही जहाँ के राजा अत्यधिक प्रतापी हैं। सबकगुच्छ वसन
महाकग्छ नाम का राजा अपनी पुत्री प्रियंबुषी के विवाह के लिए प्रयत्न शील होता हुमा स्तबकगुच्छ नगर को देखकर उसके सौन्दर्य से प्रत्यधिक प्रभावित
१. सुदर्शनोदय, १।२४-३७