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________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-ग्रन्थों में भावपक्ष कुतः कारणतो जाता भवतामुन्मनस्कता वयस्येरिति पुष्टोऽपि तानाह सं महामनाः ।। यद वालापि जिनाचंनायामपूर्वरूपेण मयेत्यपायात् । मनोरमायाति ममाकुलत्वं तदेव गत्वा सुहृदाश्रयत्वम् ||"" ( सागरदत्त नामक वणिक्ाति की सुन्दरी पुत्री को देखकर उसके कटाक्षविशेष रूप सम्पदा से सुदर्शन उस पर मोहित हो गया । कामदेव के समान सुदर्शन में रति का प्रभाव खटकने लगा और मनोरमा भी वृक्ष से विमुक्त हुई लता के समान हो गई । श्राज तुम्हारी अन्यमनस्कता का क्या कारण है ? मित्रों के ऐसा पूछने पर उस सुदर्शन ने श्लेष के माध्यम से कहा - प्राज भगवान् जिनदेव की पूजा के अवसर पर प्रपूर्व रूप से मैंने गाया इसलिए मेरा मन प्रत्यधिक क्लान्ति का अनुभव कर रहा है । (श्लोक का दूसरा मर्थ ) प्राज जिनपूजा के अवसर पर जब से मेरे द्वारा सुन्दर वाला को देखा गया है, उसी समय से उसके प्रपूर्व रूप से मेरा मन व्याकुल हो रहा है ।) यहाँ पर सुदर्शन प्रोर मनोरमा शृङ्गार रस के परस्पर श्राश्रय मोर बालम्बन हैं। उनका रूा-नोन्दर्य उद्दीपन विभाव है। कटाक्ष इत्यादि अनुभाव है । प्रावेग, मद, जड़ता, उपता, अवहित्था, प्रोत्सुक्य चिन्ता प्रादि व्यभिचारिभाव हैं । रौद्र रस २७५ सुदर्शनोदय महाकाव्य में रौद्र रस के दो उदाहरण हैं (क) रौद्र रस का प्रथम उदाहरण वह स्थल है, जहां रानी अभयमती के 'त्रियाचरित्र' को सुनकर बहुत से सेवक मां जाते हैं, मौर सुदर्शन के प्रति अपशब्द कहते हुए उन्हें राजा के पास ले जाते हैं। सुदर्शन के ऊपर क्रुद्ध होकर राजा उनका करने हेतु चाण्डाल के पास ले जाने की प्राज्ञा दे देता है : -- " राज्ञ्या इदं पूत्करणं निशम्य भटेरिहाऽऽगत्य घृतो द्रुतं यः । राज्ञोऽग्रतः प्रापित एवमेतेः किलाऽऽलपदभिर्बहुशः समेतैः ॥ हो धूर्तस्य धौत्यं निभालयताम् ॥ हस्ते जयमाला हृदि हाला स्वार्थकृतोऽसौ वञ्चकता । प्रन्तो भोगभुगुपरि तु योगो वक्रवृत्ति तिनो नियता ॥ दर्पवतः सर्पस्येवास्य तु वक्रगतिः सहसाऽवगता ॥ प्रभू राष्ट्रकण्टकोऽयं खलु विपदे स्थितिरस्याभिमता ॥ १. सुदर्शनोदय, ३।३४-३७
SR No.006237
Book TitleGyansgar Mahakavi Ke Kavya Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiran Tondon
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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