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महाकवि ज्ञानसागर का जीवन-दर्शन सभी परिग्रहों को छोड़ देना चाहिये ।' झुल्लिका
माथिका के प्रतिरिक्त कवि ने क्षुल्लिका का भी वर्णन किया है। यह वर्णन जैनधर्म ग्रन्थों में नहीं मिलता। किन्तु क्षुल्लिकावस्था के विषय में कवि का कथन है :
क्षुल्लिकावस्था में स्त्री को केवल एक श्वेत साड़ी पोर एक श्वेत उत्तरीयये दोनों वस्त्र धारण करने चाहिएं, कमण्डलु मोर पाली इन दो पात्रों से अपना निर्वाह करना चाहिये । क्षुल्लिका स्त्री दया, भमा, सन्तोष सत्य इत्यादि गुणों को धारण करती है। प्रष्टमी पोर चतुर्दशी को उपवास करती है। झुल्लिका स्त्री तीनों सन्ध्यामों में पूजन करती है. अग्निपक्व दाल, भात, शाक, रोटी इत्यादि को भिक्षा के रूप में गृहस्थों से ग्रहण करती है। दिन में केवल एक बार साना सातो भोर पानी पीती है । जिनदेव का स्मरण करते हुए प्राणिमात्र से मैत्रीभाव रखती है।
जैन धर्माचार्यों ने श्रावकों के जो बारह व्रत बताये हैं, वे निम्नलिखित रेखाचित्र में प्रस्तुत हैं :
जैनधर्म के बारह व्रत
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गुणवत
शिक्षाव्रत
प्रणुव्रत | दिग्बत
गुणवतः शिक्षाव्रत देशवत अनर्थध्यानदण्डवत ।
अहिंसावत
सत्यव्रत प्रस्तेय व्रत ब्रह्मचर्यव्रत
अपरिग्रहव्रत
सामयिक व्रत प्रोषधोपवास व्रत भोगोपभोगपरिणाम अतिथि-सं
व्रत
বিমান इनमें से अणुव्रतों के विषय में तो कवि के विचार इसी अध्याय में प्रस्तुत
१. (क) सुदर्शनोदय, ८।३३-३४
(ख) दयोदय चम्पू, श्लोक ३८ के पूर्व का गबभाग। २. सदर्शनोदय, ४।३१-३६ ३. जैनधर्मामत, ४१५-१.७