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________________ ३.१४ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य - एक अध्यय न "स्वतो हि संजृम्भितजातवेदा निदाघके रुग्ण इवोष्णरश्मिः । चिरादथोत्थाय करंरशेषान् रसान्निगृह्णात्यनुवादि प्रस्मि ||" ( वीरोदय, १२२ ) ( अर्थात् ग्रीष्म ऋतु में बढ़ती हुई सूर्य की गर्मी को देखकर ऐसा लगता है, मानों वह कोई रुग्ण पुरुष हो । जैसे कोई रोगी पुरुष बहुत समय के वाद शय्या से उठता है और जठराग्नि बढ़ने से जो कुछ मिले, उसे ही खाने में शीघ्रता से प्रवृत्त हो जाता है, उसी प्रकार यह सूर्य भी पृथ्वी के सव रसों को मानों खा रहा है । इस समय वृक्ष अपनी छापा को उसी प्रकार नहीं छोड़ते हैं, जिस प्रकार पुरुष अपनी नवविवाहिता स्त्री को प्रपने समीप से नहीं हटाता । गर्म हवा विरहिणी स्त्रियों के उष्ण श्वास के समानं प्रवहमान है । पधिक जनों में जलाभिलाषा बढ़ रही है । ग्रीष्म के संताप से व्याकुल हाथी, समीन में सोते हुए सर्प को कमलनाल समझकर अपनी सूंढ़ से खींचने लगते हैं । वियोग से सन्तप्त स्त्री के समान ही पृथ्वी भी सूर्य के ताप से सन्तप्त है।+++ कुत्तों की लपलपाती जिह्वा को देखकर ऐसा लगता है, मानों उनके भीतर प्रज्वलित अग्नि की ज्वाला जिल्ह्ना के बहाने बाहर भा रही हो । जलाशयों का जल घटता जा रहा है। सरोवरों के तपते हुए जलों के कारण भ्रमर कमल को छोड़कर लतानों का आश्रय ले रहे हैं । सूर्य के प्रचण्ड ताप के कारण अपने मुख में कमलयुक्त मृणाल खण्ड को धारण करके सपरिवार सरोवर के तौर पर बैठा हुआ राजहंस श्रेष्ठ राजा के समान सुशोभित हो रहा है। सूर्य के प्रखर ताप से सन्तप्त होकर सर्प दीर्घश्वास छोड़कर अवरुद्ध गति बाला होकर, छाया प्राप्ति की इच्छा से मोर के पङ्खों के नीचे ही बैठ जाता है, उसे यह ध्यान ही नहीं रहता कि मोर से उसकी शत्रुता है । गर्मी के कारण पक्षीगण छज्जों के नीचे बने हुए घोंसलों में प्रश्रय ले लेते हैं; प्रोर मयूरगण भी किसी वृक्ष की घनी, सरस, भीगी हुई क्यारी में चुपचाप बैठ जाते हैं। गर्मी से संतप्त होकर भैंसा अपने अंग की छाया को सघन कीचड़ समझकर उसमें लोट-पोट होने लगता है। किन्तु वहाँ की गर्म - धूलि से और भी पीड़ा को प्राप्त करता है । कुछ धनिक लोग बस से युक्त कुटी में निवास करते हैं; कुछ भूमिगत तहखानों में रहते हैं, निद्रा भी मनुष्यों की दोनों प्रांखों के पलकों की शरण ले लेती है । वायु तालवृक्ष के डंठलों पर ही पहुँच जाता है, मोर जल भी सन्तप्त होकर पसीने के बहाने प्रमदानों के स्तनों की शरण लेता है। यहाँ तक कि कामदेव को भी चन्दन - चर्चित-नवविवाहित स्त्रियों के स्तनों का प्राश्रय लेने की प्रावश्यकता हो जाती है । पथिक की गति अवरुद्ध हो जाती है। सूर्य की किरणों से जले हुए भीतरी भाग वाले वृक्षों के कटोरों में पक्षियों के बच्चे प्यास से पीड़ित होकर ऐसे करुरण शब्द करते हैं मानों गर्मी से पीड़ित होकर वृक्षों के कोटर ही चिल्ला रहे हों। दिवसों की दीर्घता पर कवि भद्भावना करते हैं— मोरों की बात छोड़ दी जाय, हिम का शत्रु सूर्य
SR No.006237
Book TitleGyansgar Mahakavi Ke Kavya Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiran Tondon
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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