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________________ महाकवि ज्ञानसागर का वर्णन-कौशल भी मानों हिमालय की गुफा में विश्राम करके ही प्रागे जाता है, इसीलिए दिवस बड़े हो जाते हैं। सूर्यास्त के पश्चात् भी पृथ्वी बहुत देर तक गर्म रहती है। वसन्त काल में जो वाय कमलिनियों की सुगन्धि से सुरभित होकर जनसमुदाय को मानन्दिन करता है, प्राज वही वायु गलियों की धूलि को चारों मोर फेंकता हुआ पागल पुरुष के समान अधीर होकर भ्रमण कर रहा है । लू चल रही है । ग्रीष्म ऋतु उसी पुरुष को नहीं पताती है, जो कि स्त्रियों के सामीप्य से होने वाले सुखों का उपभोग करता है । प्रस्वेद से पूर्ण स्तनों मोर नाभिप्रदेश वाली स्त्रियां सरसियों के सूख जाने पर कामीजनों के लिए सरसो का सा पाचरण कर रही हैं।' वर्षा-वर्णन जब प्राषाढ़ मास में कुण्डनपुर के राजा सिद्धार्थ की पटरानी प्रियकारिणी गर्भवती हुई, उस समय ग्रीष्म-काल से उत्पन्न संताप को दूर करने वाली वर्षा-ऋतु का मागमन हुमा । इस ऋतु का आगमन होने पर पृथ्वी पौषधियों, धान्यों पोर शरकण्डों से युक्त हो गई है। चारों ओर नीलकमल विकसित होने लगे हैं, प्रत्यधिक जलवृष्टि के कारण लोगों का मावागमन कम हो गया है। सर्प-समुदाय में वृद्धि हो गई है । प्रनेक दिनों के बाद भी सूर्य के दर्शन नहीं हो रहे हैं। सारा संसार एक विशाल सरोवर सा प्रतीत होता है । मेढकों का स्वर सुनाई दे रहा है, कोयल की ध्वनि कहीं नहीं सुनाई पड़ती है। मेषगर्जना सुनकर मयूर सुन्दर नृत्य प्रस्तुत कर रहे हैं । बादलों के मध्य में बिजली चमक रही है। ग्रीष्मकाल में समुद्र से लिया गया जल उसी को लौटाया जा रहा है। कभी-कभी प्रोले भी गिर रहे हैं। कमलोत्पत्ति नहीं हो रही है। यह ऋतु विधवा युवतियों को सन्तप्त कर रही है। कुटज वृक्ष के पुष्पों पर गिरी हुई जल की बूंदें मोतियों के समान प्रतीत होती हैं। वायु अपने प्रचण्ड वेग से चातक के मुख में जाने वाली जलबिन्दु को रोककर उसके ऊपर अत्याचार कर रहा है। रात्रि होने पर जुगनूं चमक रहे हैं, ऐसा लगता है मानों प्राकाश का नक्षत्र-समूह मेषों से पीड़ित होकर पृथ्वी के पास मा गया है। स्त्रियां झूला झूल रही हैं । समुद्र के जल में वृद्धि हो रही है, इसलिए उसमें फेन उत्पन्न हो रहा है । मेघाच्छन्नता के कारण उत्पन्न अन्धकार, दिवस भोर रात्रि में एकरूपता उत्पन्न कर रहा है, ऐसे समय में चक्रवाकी ही दिवस पर रात्रि में भेद करती है । पृथ्वी में नवीन द्वार के अंकुर उत्पन्न हो गए हैं। शरद्-वर्णन सर्वज्ञ भगवान के दर्शनों के लिए ही मानों शरद् ऋतु का पृथ्वी पर पागमन १. बीरोदय, १२-१.३० २. बीरोदय, ४१२-२७
SR No.006237
Book TitleGyansgar Mahakavi Ke Kavya Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiran Tondon
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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