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________________ २०२ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य-एक अध्ययन की भौगोलिक स्थिति बनाते हुए कवि ने हिमालय का प्रतिसंक्षिप्त किन्तु प्रालंकारिक वर्णन किया है, उभे कषि के हो शब्दों में देखिए ___ 'हिमालयोल्लासिगुणः स एष द्वीपाक्षिपस्येव धनुर्विशेषः' ।' (मर्थात् भारतवर्ष के उत्तरपूर्व में हिमालय की स्थिति है, जो भारतवर्ष रूप धनुष की डोरी के समान है)। सम्भवत: कवि को अन्य स्थल पर इस पर्वत वर्णन को विस्तार देने को अभिलाषा रही होगी, इसीलिए उसने इस प्रथम स्थल में हिमालय का वर्णन केवल उसकी. भौगोलिक स्थिति बताने के लिए ही किया है । हिमालय-वर्णन हमें दूसरे स्थल पर, वहाँ देखने को मिलता है, जहां जयकुमार और सुलोचना सुमेरु, कुलाद्रि, श्रीपुरु इत्यादि पर्वतों में भ्रमण करने के बाद इस पर्वत पर पहुँचते हैं। तब वह इस पर्वत के नैसगिक-सौन्दर्य से अपनी पत्नी को परिचित कराते हुए कहते हैं :-हे प्रिये ! बादलों का स्पर्श करने वाला, ऊंची चट्टानों वाला, सूर्य की गति को अवरुद्ध करता हुप्रा यह पर्वत प्रभ्युदय को प्राप्त कर रहा है। इस पर्वत में सालवृक्ष का वन है । अपनी बर्फ के बहाने ही मानो यह पर्वत शुभ्र-यश को धारण कर रहा है। यहाँ पर जल से परिपूर्ण शुभ्रबादलों की पंक्ति हष्टिगोचर हो रही है । देवगण इस पर्वत पर देवाङ्गनामों के साथ विहार कर रहे हैं । अपने अन्दर मरिणयों को धारण करने वाला शिलातलों को प्रकट करने वाला, गुफापों वाला यह पर्वत ऊंची चोटियों से सुशोभित है। किसी राजा के यहाँ फहराते हुए ध्वजा के वस्त्रों के समान, झरनों से यह पर्वतराज, मानों स्वामित्व पाने का इच्छक हो रहा है । इस पर्वत की गृफार्य ऐसी लगती हैं, .मानों पहले इन्द्र के वज्र द्वारा किए गए घाव हो। x x x x । शब्दालंकार से अलंकृत इसी पर्वत का वर्णन देखिए--- "विपल्लवानामिह सम्भवोऽपि न विपल्लवानामुत शाखिनामपि । सदा रमन्तेऽस्य विहाय नन्दनं सदा रमन्ते रुचिनस्ततः सुराः ॥" -जयोदय, २४१५५ पर्थात् इस पर्वत पर विपत्ति के लेशमात्र को भी सम्भावना नहीं है, यहां के वृक्षों में पत्तों का प्रभाव नहीं है। इस पर्वत पर देवगण देवांगनाओं के साथ नन्दन वन को छोड़कर सदैव रमण करते रहते हैं)। अपनी पत्नी के समक्ष उस पर्वत का वर्णन करके जयकुमार ने देवमन्दिर देखा। १. वीरोदय, २. जयोदय, २४॥३७-५७
SR No.006237
Book TitleGyansgar Mahakavi Ke Kavya Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiran Tondon
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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