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________________ ६८ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य-एक अध्ययन सुनाकर गृहस्थाश्रम से विरक्त प्रियदत्ता ने अपनी पुत्री कुबेरश्री का विवाह राजा गुणपाल से कर दिया और प्रभावती का उपदेश सुनकर गुणवती प्रायिका के समीप दीक्षा धारण कर ली। एक बार जब हिरण्यवर्मा ने श्मशानभूमि में प्रतिमायोग धारण किया, तब प्रियदत्ता की एक चेटी से मुनिराज का समस्त वृतान्त जानकर एक विद्यच्चोर ने क्रोध के कारण उनके पूर्वजन्मों का समाचार भी जान लिया । तपश्चर्या में रत हिरण्यवर्मा और प्रभावती को उसने एक साथ ही चिता पर रख कर जला दिया। मृत्यु के उपरान्त वे दोनों स्वर्ग पहुंच गये । विद्युच्चोर के प्रति अपने पुत्र सुवर्णवर्मा के क्रोष को उन्होंने समाप्त किया । स्वर्ग के लोगों के मध्य रहते हुए उन्होंने अपने पूर्वजन्मों का स्मरण किया। प्रतः प्रपने पूर्वजन्म के स्थानों को देखकर वे दोनों सपंसरोवर के समीपस्थ वन में पहुँचे। वहां एक भीम नाम के मुनि भी प्राए हुए थे। वहाँ पर उपस्थित जनों के पूंछने पर भीम ने अपने पूर्वभावों का वृत्तान्त सुनाया। वे ही क्रमशः रतिवेगा पौर सुकान्त के बैरी भवदेव; रतिषेणा और रतिवर के शत्रु विलाव और प्रभावती और हिरण्य वर्मा को भस्म करने वाले विद्युच्चोर थे। उन देव देवी (हिरण्यवर्मा और प्रभावती) ने बताया कि तीन वार प्रापके द्वारा मारे जाने वाले हम ही हैं। इस प्रकार दोनों उनकी वन्दना करके अपने गन्तव्य को चल दिए। इस समय उन्होंने मुनिराज भीम से और भी वृत्तान्त सुने थे। __इस प्रकार सुलोचना ने जयकुमार को बताया कि पहले जन्म में हम दोनों सुकान्त और रतिवेगा के रूप में जन्म थे; उसके बाद रतिवर कबूतर और रतिषणा कबूतरी के रूप में जन्मे फिर हिरण्यवर्मा और प्रभावती के रूप में और फिर स्वर्ग में देव और महादेवी के रूप में जन्मे थे (यहाँ छियालिसा पर्व समाप्त होता है।) जयकुमार के प्राग्रह करने पर मुलोचना ने प्रियदत्ता की पुत्री कबेरश्री के पुत्र श्रीपाल का भी रोचक वृत्तान्त सुनाया। उसने बताया कि ये सब कथायें सुनकर हमने गुणपाल तीर्थङ्कर को प्रणाम किया और स्वर्ग चले गये। तत्पश्चात् हमारा जन्म यहां हुअा है। सुलोचना का वृत्तान्त सुनकर सभी ने उस पर विश्वास कर लिया। उन दोनों को अपने पूर्वजन्म की सारी विद्याएँ प्राप्त हो गई । एक बार जयकुमार ने उन विद्याओं के बल से सुलोचना के साथ देशाटन की इच्छा से अपने छोटे भाई विजय कुमार को समस्त राज्यभार सौंप दिया। पृथ्वी के समुद्र, पवंत आदि स्थलों पर विहार करते हुए जयकुमार कैलाश पर्वत पर स्थित एक वन में पहुंचा। उस समय इन्द्र प्रपनी सभा में जयकुमार और सुलोचना के शील की प्रशंसा कर रहा था। सभा में स्थित रविप्रभ देव ने जयकमार के शील की परीक्षा की इच्छा से कॉचना
SR No.006237
Book TitleGyansgar Mahakavi Ke Kavya Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiran Tondon
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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