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महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-ग्रन्थों में कलापक्ष
(ग) “हे नाथ मे नाथ मनोऽविकारि सुराङ्गनाभिश्च तदेव वारि । मनोरमायां तु कथं सरस्यां सुदर्शनस्येत्थमभूत्समस्या ॥ मुनिराह निशम्येवं शृणु तावत्सुदर्शन । प्रायः प्राग्भवभाविन्यो प्रीत्यप्रीती च देहिनाम् ॥""
(घ) 'रे रे कियज्जल्पसि कोऽसि नाहं
जानाम्यपि त्वां कुत श्रागतोऽसि । दूरं व्रजोन्मत्त ! मुषोक्तिकोऽसि संज्ञायते भूतपिशाचदोषी ॥। २
(ङ) "पत्नी तदेकनामाऽभूतस्यच्छन्दोऽनुगामिनी । स्मरस्य रतिवत्कान्तिरिवेन्दोर्भेव भास्वतः || गुणपालाभिधो राजश्रेष्ठः सकलसम्मतः । कुबेर इव यो वृद्धश्रवसो द्रविणाधिपः || ”3
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(उ) भाषा
हमारे विचारों की अभिव्यक्ति का सर्वश्रेष्ठ साधन भाषा है । व्यक्ति ग्रन्थ बातों में प्रशक्त होने पर भी सशक्त भाषाभाषी होने के कारण जीवन के कई क्षेत्रों में प्रायः विजय पा जाता है। साहित्यकार के लिए तो भाषा का महत्त्व अन्य व्यक्तियों की अपेक्षा और भी अधिक है । योद्धा के हाथ में तलवार का जो महत्त्व होता है, काव्यकार के काव्य में वही महत्त्व भाषा का है । साहित्यकार अपनी भाषा के माध्यम से ही अन्य व्यक्तियों के समीप घ्रा पाता है । स्पष्ट है कि भाषा कलापक्ष का एक महत्त्वपूर्ण भङ्ग है ।
अब प्रश्न यह उठता है कि एक कवि को किस प्रकार की भाषा का प्रयोग करना चाहिए ? प्रत्येक काव्यप्रणेता का, सामाजिक प्राणी होने के नाते, यह कर्तव्य हो जाता है कि वह अपने काव्य में ऐसी भाषा का प्रयोग करे जो उसके हृदय की प्रावाज जनता तक पहुँचा सके । यदि वह पाण्डित्य-प्रदर्शन के साथ ही जनता तक कुछ सन्देश भी पहुँचाना चाहे तो ऐसी स्थिति में उसे अधिक सावधानी बरतनी - चाहिए ।
१. सुदर्शनोदय, ४।१५-१६ २. श्रीसमुद्रदत्तचरित्र, ३२६ ३. दयोदयचम्पू, २०१३, १४